15-12-2019, 11:19 AM
नोएडा के एक बड़े कॉलेज मे दाखिला मिल गया. पिताजी का रसूख़ तो था ही, मैं चाहे जितना भी ठरकी रहा हूँ लेकीन पढ़ाई मे भी तेज़ था. college ठीक ठाक सा ही था. लेकिन society जहां हम लोग रहते थे वो बहुत अच्छी थी. अच्छी मतलब एक से बढ़कर एक माल थी वहाँ. उस उम्र मे और चाहिए भी क्या होता है !!
कई सारी यादें जुड़ी हैं मेरी जलवायु विहार से !! कॉलेज से आ जाने के बाद मैं लंच करके बाहर निकाल जाता था. घर पर उस समय कोई भी नहीं होता था. पिताजी ऑफिस रहते थे, मम्मी वापिस चेन्नई चली गयी थी हम लोगों को सैटल करके. एक काम वाली सुबह आकार खाना बनाकर चली जाती थी. घर के बाहर ही इतने माल घूमते थे कि कभी काम वाली को उस नज़र से देखने कि ज़रूरत ही नहीं पड़ी.
दोपहर के वक़्त मैं साइकल लेकर सोसाइटी घूमता रेहता. जलवायु विहार मे अपार्टमेंट्स और पार्क ऐसे बने हुए थे कि पार्क एक दम बीचों बीच था सोसाइटी के और चारों ओर अपार्टमेंट्स का पहलआ सर्कल और उसके बाद दीवारों से सटा अपार्टमेंट्स का एक चौकोर बना हुआ था. सोसाइटी थी बहुत बड़ी और एक दम हरियाली से भरी. और बाहर वाले चौकोर से परे भी एक सड़क थी। ज़्यादा मैंटेन नहीं किया जाता था उसको. घास से घिरा लगभग कच्चा सड़क था वो.
ऐसे ही एक दोपहर मैं सोसाइटी के दीवार से सटे रोड पर साइकल चला रहा था. ये रोड सोसाइटी के एक दम कोने पर था और दोपहर का टाइम तो वैसे ही सुनसान वाला होता था नोएडा मे. कई बार मैं साइकल चलाते चलाते ही लण्ड को सहलाता रहता. यही सब करते हुए मेरी आदत खराब हो रही थी.
उस दिन उस रोड पर साइकल चला कर जाते हुए मुझे एक झाड़ी के पीछे कोई झुकी हुई दिखाई पड़ी. मैंने साइकल आगे बढ़या तो देखा एक लड़की अपनी सलवार नीचे किए हुए वहाँ बैठी मूत रही थी. बहनचोद मेरा लण्ड तुरंत अकड़ने लगा. मैंने साइकल वहीं रोक ली और शॉर्ट्स के अंदर हाथ डालकर लण्ड मसलने लगा. थोड़ा गर्दन टेड़ा किया तो आगे भी एक और आंटी बैठी दिखाई दी. मैं समझ गया सोसाइटी की काम वाली यहीं पर मूतने आती हैं.
कुछ देर बाद वो थी और उठाकर अपनी चड्डी ऊपर की उसने. उसकी जांघें और गोल गांड देखकर मन तो हो रहा थ यहीं चोद दूँ उसको. लेकिन रिस्क था. तो मैंने जाने दिया.
उस दिन के बाद से मैंने उस रोड पर आना जाना frequent कर दिया. दूर दूर रहता था सड़क से जब तक कि कोई जाती हुई दिखाई न दे एक बार जब वो रोड पर जाती तब चुप चाप बिल्डिंग के पीछे से देखता. कई तरह कि गांड देखि मैंने गोल, चपटी, भूरी, काली, गोरी, पतली, सूडोल, मोटी.
कई बार मैं इन औरतों का पीछा मूतने के बाद भी करता. मैंने देखा ये मूत कर फिर दूसरे घर जाती थी काम करने के लिए. तो इनको मूतता देखने के बाद मैं दूर से इनके पीछे जाता. जब ये किसी बिल्डिंग कि तरफ मुड़ती तो मैं साइकल पर पेडल मारकर पहले पहुँच जाता और साइकल लगाकर लिफ्ट का इंतज़ार करता. वो काम वाली और मैं साथ मे लिफ्ट मे घुसते. लिफ्ट के अंदर मैं उसको बड़े ध्यान से देखता. आँखों मे हवस लिए. वो कभी सकुचाई सी रहती, खासकर जो थोड़ी जवान होती थी. उनकी चूत अभी उतनी खुली नहीं होती थी शायद !! जो थोड़ी आंटी टाइप कि रहती वो चौड़े मे खड़ी रहती. मैं उनको जताकर उनकी गांड और चुच्ची निहारता. वो कुछ बोल नहीं पाती. ज़्यादातर समय जब वो लिफ्ट से उतार जाती तो मैं उस बिल्डिंग कि टॉप फ्लोर तक जाता और फिर छत पर जाकर मुट्ठ मारता.
मेरा एक तरह से रूटीन ही बन गया था. दोपहर के वक़्त मुझे हर रोज़ एक नयी या at least एक रियल खुली नंगी गांड देखनी ही थी. और फिर मुट्ठ मारना था. छत पर खुली हवा मे मुट्ठ मारने का मज़ा ही अलगा था. जिनहोने ये काम अभी तक नहीं किया उनको करके देखना चाहिए.
सीढ़ियों से बाहर निकलकर मैं छत पर आ जाता. लण्ड अब तक सख्त हो चुका होता. मैं शॉर्ट्स नीचे करके चड्डी के ऊपर से ही लण्ड को दबोच लेता. और क्लास कि ही किसी लड़की या फिर किसी जानने वाली लड़की/औरत या कोई न सूझे तो प्रिय दीदी का ही नाम ले लेता. फिर वो नाम बोल बोल कर लण्ड को दबोच के ही मुट्ठी आगे पीछे करने लगता.
कभी रीतिका, कभी रचना, कभी अनु, कभी चारु, कभी प्रिया, कभी सृष्टि, कभी अमृता, कभी सुरभि .... सभी के नाम मुट्ठ निकाल चुका था. !! कभी इनके चुच्चियों पर, कभी नाभि पर, कभी गांड के ऊपर लेकिन ज़्यादातर इनके मुंह पर.
एक दिन ऐसे ही मुट्ठ मारकर जब मैं नीचे आया और लिफ्ट से बाहर आया तो देखा कि एक लड़की जा रही थी. शायद ऑफिस का नाइट शिफ्ट करने. मुझे realise हुआ सोसाइटी मे तो काम वाली ही नहीं और भी बहुत कुछ है. हाँ इनकी गांड खुली न देखने को मिले लेकिन चलती हुई, हिलती हुई तो दिखाई दे ही सकती है.
कई सारी यादें जुड़ी हैं मेरी जलवायु विहार से !! कॉलेज से आ जाने के बाद मैं लंच करके बाहर निकाल जाता था. घर पर उस समय कोई भी नहीं होता था. पिताजी ऑफिस रहते थे, मम्मी वापिस चेन्नई चली गयी थी हम लोगों को सैटल करके. एक काम वाली सुबह आकार खाना बनाकर चली जाती थी. घर के बाहर ही इतने माल घूमते थे कि कभी काम वाली को उस नज़र से देखने कि ज़रूरत ही नहीं पड़ी.
दोपहर के वक़्त मैं साइकल लेकर सोसाइटी घूमता रेहता. जलवायु विहार मे अपार्टमेंट्स और पार्क ऐसे बने हुए थे कि पार्क एक दम बीचों बीच था सोसाइटी के और चारों ओर अपार्टमेंट्स का पहलआ सर्कल और उसके बाद दीवारों से सटा अपार्टमेंट्स का एक चौकोर बना हुआ था. सोसाइटी थी बहुत बड़ी और एक दम हरियाली से भरी. और बाहर वाले चौकोर से परे भी एक सड़क थी। ज़्यादा मैंटेन नहीं किया जाता था उसको. घास से घिरा लगभग कच्चा सड़क था वो.
ऐसे ही एक दोपहर मैं सोसाइटी के दीवार से सटे रोड पर साइकल चला रहा था. ये रोड सोसाइटी के एक दम कोने पर था और दोपहर का टाइम तो वैसे ही सुनसान वाला होता था नोएडा मे. कई बार मैं साइकल चलाते चलाते ही लण्ड को सहलाता रहता. यही सब करते हुए मेरी आदत खराब हो रही थी.
उस दिन उस रोड पर साइकल चला कर जाते हुए मुझे एक झाड़ी के पीछे कोई झुकी हुई दिखाई पड़ी. मैंने साइकल आगे बढ़या तो देखा एक लड़की अपनी सलवार नीचे किए हुए वहाँ बैठी मूत रही थी. बहनचोद मेरा लण्ड तुरंत अकड़ने लगा. मैंने साइकल वहीं रोक ली और शॉर्ट्स के अंदर हाथ डालकर लण्ड मसलने लगा. थोड़ा गर्दन टेड़ा किया तो आगे भी एक और आंटी बैठी दिखाई दी. मैं समझ गया सोसाइटी की काम वाली यहीं पर मूतने आती हैं.
कुछ देर बाद वो थी और उठाकर अपनी चड्डी ऊपर की उसने. उसकी जांघें और गोल गांड देखकर मन तो हो रहा थ यहीं चोद दूँ उसको. लेकिन रिस्क था. तो मैंने जाने दिया.
उस दिन के बाद से मैंने उस रोड पर आना जाना frequent कर दिया. दूर दूर रहता था सड़क से जब तक कि कोई जाती हुई दिखाई न दे एक बार जब वो रोड पर जाती तब चुप चाप बिल्डिंग के पीछे से देखता. कई तरह कि गांड देखि मैंने गोल, चपटी, भूरी, काली, गोरी, पतली, सूडोल, मोटी.
कई बार मैं इन औरतों का पीछा मूतने के बाद भी करता. मैंने देखा ये मूत कर फिर दूसरे घर जाती थी काम करने के लिए. तो इनको मूतता देखने के बाद मैं दूर से इनके पीछे जाता. जब ये किसी बिल्डिंग कि तरफ मुड़ती तो मैं साइकल पर पेडल मारकर पहले पहुँच जाता और साइकल लगाकर लिफ्ट का इंतज़ार करता. वो काम वाली और मैं साथ मे लिफ्ट मे घुसते. लिफ्ट के अंदर मैं उसको बड़े ध्यान से देखता. आँखों मे हवस लिए. वो कभी सकुचाई सी रहती, खासकर जो थोड़ी जवान होती थी. उनकी चूत अभी उतनी खुली नहीं होती थी शायद !! जो थोड़ी आंटी टाइप कि रहती वो चौड़े मे खड़ी रहती. मैं उनको जताकर उनकी गांड और चुच्ची निहारता. वो कुछ बोल नहीं पाती. ज़्यादातर समय जब वो लिफ्ट से उतार जाती तो मैं उस बिल्डिंग कि टॉप फ्लोर तक जाता और फिर छत पर जाकर मुट्ठ मारता.
मेरा एक तरह से रूटीन ही बन गया था. दोपहर के वक़्त मुझे हर रोज़ एक नयी या at least एक रियल खुली नंगी गांड देखनी ही थी. और फिर मुट्ठ मारना था. छत पर खुली हवा मे मुट्ठ मारने का मज़ा ही अलगा था. जिनहोने ये काम अभी तक नहीं किया उनको करके देखना चाहिए.
सीढ़ियों से बाहर निकलकर मैं छत पर आ जाता. लण्ड अब तक सख्त हो चुका होता. मैं शॉर्ट्स नीचे करके चड्डी के ऊपर से ही लण्ड को दबोच लेता. और क्लास कि ही किसी लड़की या फिर किसी जानने वाली लड़की/औरत या कोई न सूझे तो प्रिय दीदी का ही नाम ले लेता. फिर वो नाम बोल बोल कर लण्ड को दबोच के ही मुट्ठी आगे पीछे करने लगता.
कभी रीतिका, कभी रचना, कभी अनु, कभी चारु, कभी प्रिया, कभी सृष्टि, कभी अमृता, कभी सुरभि .... सभी के नाम मुट्ठ निकाल चुका था. !! कभी इनके चुच्चियों पर, कभी नाभि पर, कभी गांड के ऊपर लेकिन ज़्यादातर इनके मुंह पर.
एक दिन ऐसे ही मुट्ठ मारकर जब मैं नीचे आया और लिफ्ट से बाहर आया तो देखा कि एक लड़की जा रही थी. शायद ऑफिस का नाइट शिफ्ट करने. मुझे realise हुआ सोसाइटी मे तो काम वाली ही नहीं और भी बहुत कुछ है. हाँ इनकी गांड खुली न देखने को मिले लेकिन चलती हुई, हिलती हुई तो दिखाई दे ही सकती है.