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Misc. Erotica लिहाफ
#39
बी - अम्मां ने मुझे जल्कर वापस बुला लिया और मुंह ही मुंह में मुझे कोसने लगीं। अब मैं उनसे क्या कहती, कि वो मजे से खा रहा है कमबख्त! राहत भाई! कोफ्ते पसन्द आये? बी - अम्मां के सिखाने पर मैं ने पूछा। जवाब नदारद। बताइये न? अरी ठीक से जाकर पूछ! बी - अम्मां ने टहोका दिया। आपने लाकर दिये और हमने खाये। मजेदार ही होंगे। अरे वाह रे जंगली! बी - अम्मां से न रहा गया। तुम्हें पता भी न चला, क्या मजे से खली के कबाब खा गये! खली के? अरे तो रोज क़ाहे के होते हैं? मैं तो आदी हो चला हूं खली और भूसा खाने का।

बी - अम्मां का मुंह उतर गया। बी - अम्मां की झुकी हुई पलकें ऊपर न उठ सकीं। दूसरे रोज बी - आपा ने रोजाना से दुगुनी सिलाई की और फिर जब शाम को मैं खाना लेकर गयी तो बोले - कहिये आज क्या लायी हैं? आज तो लकडी क़े बुरादे की बारी है। क्या हमारे यहां का खाना आपको पसन्द नहीं आता? मैं ने जलकर कहा।ये बात नहीं, कुछ अजीब - सा मालूम होता है। कभी खली के कबाब तो कभी भूसे की तरकारी। मेरे तन बदन में आग लग गयी। हम सूखी रोटी खाकर इसे हाथी की खुराक दें। घी टपकतप परांठे ठुसाएं। मेरी बी - आपा को जुशांदा नसीब नहीं और इसे दूध मलाई निगलवाएं। मैं भन्ना कर चली आयी।

बी - अम्मां की मुंहबोली बहन का नुस्खा काम आ गया और राहत ने दिन का ज्यादा हिस्सा घर ही में गुज़ारना शुरु कर दिया। बी - आपा तो चूल्हे में जुकी रहतीं, बी - अम्मां चौथी के जोडे सिया करतीं और राहत की गलीज आँखों के तीर मेरे दिल में चुभा करते। बात - बेबात छेड़ना, खाना खिलाते वक्त कभी पानी तो कभीनमक के बहाने। और साथ - साथ जुमलेबाजी! मैं खिसिया कर बी आपा के पास जा बैठती। जी चाहता, किसी दिन साफ कह दूं कि किसकी बकरी और कौन डाले दाना - घास! ऐ बी, मुझसे तुम्हारा ये बैल न नाथा जायेगा। मगर बी - आपा के उलझे हुए बालों पर चूल्हे की उड़ती हुई राख नहीं मेरा कलेजा धक् से हो गया। मैं ने उनके सफेद बाल लट के नीचे छुपा दिये। नास जाये इस कमबख्त नजले का, बेचारी के बाल पकने शुरु हो गये।

राहत ने फिर किसी बहाने मुझे पुकारा। उंह! मैं जल गयी। पर बी आपा ने कटी हुई मुर्गी की तरह जो पलट कर देखा तो मुझे जाना ही पडा। आप हमसे खफा हो गयीं?राहत ने पानी का कटोरा लेकर मेरी कलाई पकड़ ली। मेरा दम निकल गया और भागी तो हाथ झटककर। क्या कह रहे थे? बी - आपा ने शर्मो हया से घुटी आवाज में कहा। मैं चुपचाप उनका मुंह ताकने लगी। कह रहे थे, किसने पकाया है खाना? वाह - वाह, जी चाहता है खाता ही चला जाऊं। पकानेवाली के हाथ खा जाऊं। ओह नहीं खा नहीं जाऊं, बल्कि चूम लूं। मैं ने जल्दी - जल्दी कहना शुरु किया और बी - आपा का खुरदरा, हल्दी - धनिया की बसांद में सडा हुआ हाथ अपने हाथ से लगा लिया। मेरे आंसू निकल आये। ये हाथ! मैं ने सोचा, जो सुबह से शाम तक मसाला पीसते हैं, पानी भरते हैं, प्याज काटते हैं, बिस्तर बिछाते हैं, जूते साफ करते हैं! ये बेकस गुलाम की तरह सुबह से शाम तक जुटे ही रहते हैं। इनकी बेगार कब खत्म होगी? क्या इनका कोई खरीदार न आयेगा? क्या इन्हें कभी प्यार से न चूमेगा? क्या इनमें कभी मेंहदी न रचेगी? क्या इनमें कभी सुहाग का इतर न बसेगा? जी चाहा, जोर से चीख पडूं।

और क्या कह रहे थे? बी - आपा के हाथ तो इतने खुरदरे थे पर आवाज ऌतनी रसीली और मीठी थी कि राहत के अगर कान होते तो मगर राहत के न कान थे न नाक, बस दोजख़ ज़ैसा पेट था! और कह रहे थे, अपनी बी - आपा से कहना कि इतना काम न किया करें और जोशान्दा पिया करें। चल झूठी! अरे वाह, झूठे होंगे आपके वो अरे, चुप मुरदार! उन्होंने मेरा मुंह बन्द कर दिया। देख तो स्वेटर बुन गया है, उन्हें दे आ। पर देख, तुझे मेरी कसम, मेरा नाम न लीजो। नहीं बी - आपा! उन्हें न दो वो स्वेटर। तुम्हारी इन मुट्ठी भर हड्डियों को स्वेटर की कितनी जरूरत है? मैं ने कहना चाहा पर न कह सकी। आपा - बी, तुम खुद क्या पहनोगी? अरे, मुझे क्या जरूरत है, चूल्हे के पास तो वैसे ही झुलसन रहती है।

स्वेटर देख कर राहत ने अपनी एक आई - ब्रो शरारत से ऊपर तान कर कहा - क्या ये स्वेटर आपने बुना है? नहीं तो। तो भई हम नहीं पहनेंगे। मेरा जी चाहा कि उसका मुंह नोच लूं। कमीने मिट्टी के लोंदे! ये स्वेटर उन हाथों ने बुना है जो जीते - जागते गुलाम हैं। इसके एक - एक फन्दे में किसी नसीबों जली के अरमानों की गरदनें फंसी हुई हैं। ये उन हाथों का बुना हुआ है जो नन्हे पगोडे झुलाने के लिये बनाये गये हैं। उनको थाम लो गधे कहीं के और ये जो दो पतवार बडे से बडे तूफान के थपेडों से तुम्हारी जिन्दगी की नाव को बचाकर पार लगा देंगे। ये सितार की गत न बजा सकेंगे। मणिपुरी और भरतनाटयम की मुद्रा न दिखा सकेंगे, इन्हें प्यानो पर रक्स करना नहीं सिखाया गया, इन्हें फूलों से खेलना नहीं नसीब हुआ, मगर ये हाथ तुम्हारे जिस्म पर चरबी चढाने के लिये सुबह शाम सिलाई करते हैं, साबुन और सोडे में डुबकियां लगाते हैं, चूल्हे की आंच सहते हैं। तुम्हारी गलाजतें धोते हैं। इनमें चूडियां नहीं खनकती हैं। इन्हें कभी किसी ने प्यार से नहीं थामा।

मगर मैं चुप रही। बी - अम्मां कहती हैं, मेरा दिमाग तो मेरी नई - नई सहेलियों ने खराब कर दिया है। वो मुझे कैसी नई - नई बातें बताया करती हैं। कैसी डरावनी मौत की बातें, भूख की और काल की बातें। धड़क़ते हुए दिल के एकदम चुप हो जाने की बातें।

ये स्वेटर तो आप ही पहन लीजिये। देखिये न आपका कुरता कितना बारीक है! जंगली बिल्ली की तरह मैं ने उसका मुंह, नाक, गिरेबान नोच डाले और अपनी पलंगडी पर जा गिरी। बी - आपा ने आखिरी रोटी डालकर जल्दी - जल्दी तसले में हाथ धोए और आंचल से पांछती मेरे पास आ बैठीं। वो बोले? उनसे न रहा गया तो धड़क़ते हुए दिल से पूछा। बी - आपा, ये राहत भाई बडे ख़राब आदमी हैं। मैं ने सोचा मैं आज सब कुछ बता दूंगी। क्यों? वो मुस्कुरायी। मुझे अच्छे नहीं लगते देखिये मेरी सारी चूडियां चूर हो गयीं! मैं ने कांपते हुए कहा। बडे शरीर हैं! उन्होंने रोमान्टिक आवाज में सरमा कर कहा। बी - आपा सुनो बी - आपा! ये राहत अच्छे आदमी नहीं मैं ने सुलग कर कहा। आज मैं बी-अम्मां से कह दूंगी। क्या हुआ? बी-अम्मां ने जानमाज बिछाते हुए कहा। देखिये मेरी चूडियां बी - अम्मां! राहत ने तोड़ ड़ालीं?बी - अम्मां मसर्रत से चहक कर बोलीं। हां! खूब किया! तू उसे सताती भी तो बहुत है।ए है, तो दम काहे को निकल गया! बडी मोम की नमी हुई हो कि हाथ लगाया और पिघल गयीं! फिर चुमकार कर बोलीं, खैर, तू भी चौथी में बदला ले लीजियो, कसर निकाल लियो कि याद ही करें मियां जी! ये कह कर उन्होंने नियत बांध ली। मुंहबोली बहन से फिर कॉनफ्रेन्स हुयी और मामले को उम्मीद - अफ्ज़ा रास्ते पर गामजन देखकर अज़हद खुशनूदी से मुस्कुराया गया।

ऐ है, तू तो बडी ही ठस है। ऐ हम तो अपने बहनोइयों का खुदा की कसम नाक में दम कर दिया करते थे। और वो मुझे बहनोइयों से छेड़ छाड़ क़े हथकण्डे बताने लगीं कि किस तरह सिर्फ छेड़छाड़ क़े तीरन्दाज नुस्खे से उन दो ममेरी बहनों की शादी करायी, जिनकी नाव पार लगने के सारे मौके हाथ से निकल चुके थे। एक तो उनमें से हकीम जी थे।जहां बेचारे को लड़क़ियां - बालियां छेड़तीं, शरमाने लगते और शरमाते - शरमाते एख्तेलाज क़े दौरे पड़ने लगते। और एक दिन मामू साहब से कह दिया कि मुझे गुलामी में ले लीजिये। दूसरे वायसराय के दफ्तर में क्लर्क थे। जहां सुना कि बाहर आये हैं, लड़क़ियां छेड़ना शुरु कर देती थीं। कभी गिलौरियों में मिर्चें भरकर भेज दें, कभी सेवंईंयों में नमक डालकर खिला दिया।

ए लो, वो तो रोज आने लगे। आंधी आये, पानी आये, क्या मजाल जो वो न आयें। आखिर एक दिन कहलवा ही दिया। अपने एक जान - पहचान वाले से कहा कि उनके यहां शादी करा दो। पूछा कि भई किससे? तो कहा, किसी से भी करा दो। और खुदा झूठ न बुलवाये तो बडी बहन की सूरत थी कि देखो तो जैसे बैंचा चला आता है। छोटी तो बस सुब्हान अल्लाह! एक आंख पूरब तो दूसरी पच्छम। पन्द्रह तोले सोना दिया बाप ने और साहब के दफ्तर में नौकरी अलग दिलवायी। हां भई, जिसके पास पन्द्रह तोले सोना हो और बडे साहब के दफ्तर की नौकरी, उसे लड़क़ा मिलते देर लगती है? बी - अम्मां ने ठण्डी सांस भरकर कहा। ये बात नहीं है बहन। आजकल लड़क़ों का दिल बस थाली का बैंगन होता है। जिधर झुका दो, उधर ही लुढक़ जायेगा।

मगर राहत तो बैंगन नहीं अच्छा - खासा पहाड़ है। झुकाव देने पर कहीं मैं ही न फंस जाऊं, मैं ने सोचा। फिर मैं ने आपा की तरफ देखा। वो खामोश दहलीज पर बैठी, आटा गूंथ रही थीं और सब कुछ सुनती जा रही थीं। उनका बस चलता तो जमीन की छाती फाड़क़र अपने कुंवारेपन की लानत समेत इसमें समा जातीं।

क्या मेरी आपा मर्द की भूखी हैं? नहीं, भूख के अहसास से वो पहले ही सहम चुकी हैं। मर्द का तसव्वुर इनके मन में एक उमंग बन कर नहीं उभरा, बल्कि रोटी - कपडे क़ा सवाल बन कर उभरा है। वो एक बेवा की छाती का बोझ हैं। इस बोझ को ढकेलना ही होगा।

मगर इशारों - कनायों के बावज़ूद भी राहत मियां न तो खुद मुंह से फूटे और न उनके घर से पैगाम आया। थक हार कर बी - अम्मां ने पैरों के तोडे ग़िरवी रख कर पीर मुश्किलकुशा की नियाज दिला डाली। दोपहर भर मुहल्ले - टोले की लड़क़ियां सहन में ऊधम मचाती रहीं। बी - आपा शरमाती लजाती मच्छरों वाली कोठरी में अपने खून की आखिरी बूंदें चुसाने को जा बैठीं। बी - अम्मां कमजाेरी में अपनी चौकी पर बैठी चौथी के जोडे में आखिरी टांके लगाती रहीं। आज उनके चेहरे पर मंजिलों के निशान थे। आज मुश्किलकुशाई होगी। बस आंखों की सुईयां रह गयी हैं, वो भी निकल जायेंगी। आज उनकी झुर्रियों में फिर मुश्किल थरथरा रही थी। बी - आपा की सहेलियां उनको छेड़ रही थीं और वो खून की बची - खुची बूंदों को ताव में ला रही थीं। आज कई रोज से उनका बुखार नहीं उतरा था। थके हारे दिये की तरह उनका चेहरा एक बार टिमटिमाता और फिर बुझ जाता। इशारे से उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया। अपना आंचल हटा कर नियाज क़े मलीदे की तश्तरी मुझे थमा दी। इस पर मौलवी साहब ने दम किया है। उनकी बुखार से दहकती हुई गरम - गरम सांसें मेरे कान में लगीं।

तश्तरी लेकर मैं सोचने लगी - मौलवी साहब ने दम किया है। ये मुकद्दस मलीदा अब राहत के पेट में झौंका जायेगा। वो तन्दूर जो छ: महीनों से हमारे खून के छींटों से गरम रखा गया; ये दम किया हुआ मलीदा मुराद बर लायेगा। मेरे कानों में शादियाने बजने लगे। मैं भागी - भागी कोठे से बारात देखने जा रही हूं। दूल्हे के मुंह पर लम्बा सा सेहरा पडा है, जो घोडे क़ी अयालों को चूम रहा है। चौथी का शहानी जोडा पहने, फूलों से लदी, शर्म से निढाल, आहिस्ता - आहिस्ता कदम तोलती हुई बी - आपा चली आ रही हैं चौथी का जरतार जोडा झिलमिल कर रहा है। बी - अम्मां का चेहरा फूल की तरह खिला हुआ है बी - आपा की हया से बोझिल निगाहें एक बार ऊपर उठती हैं। शुकराने का एक आंसू ढलक कर अफ्शां के जर्रों में कुमकुमे की तरह उलझ जाता है। ये सब तेरी मेहनत का फल है। बी - आपा कह रही हैं।

हमीदा का गला भर आया जाओ न मेरी बहनो! बी - आपा ने उसे जगा दिया और चौंक कर ओढनी के आंचल से आंसू पौंछती डयोढी क़ी तरफ बढी। ये मलीदा, उसने उछलते हुए दिल को काबू में रखते हुए कहा उसके पैर लरज रहे थे, जैसे वो सांप की बांबी में घुस आयी हो। फिर पहाड़ ख़िसकाऔर मुंह खोल दिया। वो एक कदम पीछे हट गयी। मगर दूर कहीं बारात की शहनाइयों ने चीख लगाई, जैसे कोई दिन का गला घोंट रहा हो। कांपते हाथों से मुकद्दस मलीदे का निवाला बना कर सने राहत के मुंह की तरफ बढा दिया।

एक झटके से उसका हाथ पहाड़ क़ी खोह में डूबता चला गया नीचे तअफ्फ़ुन और तारीकी से अथाह ग़ार की गहराइयों मेंएक बडी सी चट्टान ने उसकी चीख को घोंटा। नियाज मलीदे की रकाबी हाथ से छूटकर लालटेन के ऊपर गिरी और लालटेन ने जमीन पर गिर कर दो चार सिसकियां भरीं और गुल हो गयी। बाहर आंगन में मुहल्ले की बहू - बेटियां मुश्किलकुशा ( हजरत अली) की शान में गीत गा रही थीं।

सुबह की गाडी से राहत मेहमाननवाज़ी का शुक्रिया अदा करता हुआ चला गया। उसकी शादी की तारीख तय हो चुकी थी और उसे जल्दी थी।उसके बाद इस घर में कभी अण्डे तले न गये, परांठे न सिकें और स्वेटर न बुने। दिक ज़ो एक अरसे से बी - आपा की ताक में भागी पीछे - पीछे आ रही थी, एक ही जस्त में उन्हें दबोच बैठी। और उन्होंने अपना नामुराद वजूद चुपचाप उसकी आगोश में सौंप दिया।

और फिर उसी सहदरी में साफ - सुथरी जाजम बिछाई गई। मुहल्ले की बहू - बेटियां जुडीं। क़फन का सफेद - सफेद लट्ठा मौत के आंचल की तरह बी - अम्मां के सामने फैल गया। तहम्मुल के बोझ से उनका चेहरा लरज रहा था। बायीं आई - ब्रो फड़क़ रही थी। गालों की सुनसान झुर्रियां भांय - भांय कर रही थीं, जैसे उनमें लाखों अजदहे फुंकार रहे हों।

लट्ठे के कान निकाल कर उन्होंने चौपरत किया और उनके फिल में अनगिनत कैंचियां चल गयीं। आज उनके चेहरे पर भयानक सुकून और हरा - भरा इत्मीनान था, जैसे उन्हें पक्का यकीन हो कि दूसरे जोडों की तरह चौथी का यह जोडा न सेंता जाये।

एकदम सहदरी में बैठी लड़क़ियां बालियां मैनाओं की तरह चहकने लगीं। हमीदा माँजी को दूर झटक कर उनके साथ जा मिली। लाल टूल पर सफेद गज़ी का निशान! इसकी सुर्खी में न जाने कितनी मासूम दुल्हनों का सुहाग रचा है और सफेदी में कितनी नामुराद कुंवारियों के कफन की सफेदी डूब कर उभरी है। और फिर सब एकदम खामोश हो गये। बी - अम्मां ने आखिरी टांका भरके डोरा तोड़ लिया। दो मोटे - मोटे आंसू उनके रूई जैसे नरम गालों पर धीरे धीरे रैंगने लगे। उनके चेहरे की शिकनों में से रोशनी की किरनें फूट निकलीं और वो मुस्कुरा दीं, जैसे आज उन्हें इत्मीनान हो गया कि उनकी कुबरा का सुआ जोडा बनकर तैयार हो गया हो और कोए ए अदम में शहनाइयां बज उठेंगी।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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लिहाफ - by neerathemall - 09-12-2019, 03:25 PM
RE: लिहाफ - by neerathemall - 09-12-2019, 03:26 PM
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RE: लिहाफ - by neerathemall - 11-12-2019, 03:31 PM
RE: लिहाफ - by neerathemall - 08-02-2023, 08:30 PM
RE: लिहाफ - by sri7869 - 31-03-2024, 12:53 PM



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