09-12-2019, 03:56 PM
इस्मत वाक़ई अज़ीज़ अहमद साहब के तसनीफ़-कर्दा इश्क़ से नावाकिफ़ है और उसकी यह नवाकफियत ही उसके अदब का बाइस28 है. अगर आज उसकी ज़िन्दगी के तारों के साथ उस इश्क़ की बिजली जोड़ दी जाए और खटका दबा दिया जाए तो बहुत मुमकिन है, एक और अज़ीज़ अहमद पैदा हो जाए, लेकिन ‘तिल’, ‘गेंदा’, ‘भूल-भुलैया’ और ‘जाल’ तसनीफ़ करने वाली इस्मत यक़ीनन मर जाएगी.
इस्मत के ड्रामे कमज़ोर हैं. जगह-जगह उनमें झोल है. इस्मत प्लाट को मनाज़िर29 में तक़सीम करती है तो नापकर कैंची से नहीं करती, यूं ही दांतों से चीर-फाड़कर चीथड़े बना डालती है… पार्टियों की दुनिया इस्मत की दुनिया नहीं. उनमें वह बिल्कुल अजनबी रहती है… जिन्स, इस्मत के आसाब पर एक मर्ज़ की तरह सवार है… इस्मत का बचपन बड़ा ग़ैर-सेहत बख़्श रहा है… पर्दे के उस पार की तफ़सीलात बयान करने में इस्मत को यदे-तूला हासिल है. इस्मत को समाज से नहीं, शख़्सीयतों से शग़फ़ है…इस्मत के पास जिस्म के एहतिसाब का एक ही ज़रिया है और वह है मसास…इस्मत के अफ़सानों की कोई सम्त ही नहीं…इस्मत की गै़र-मामूली कुव्वते-मुशाहिदा हैरत में गर्क़ कर देती है…इस्मत फ़ुहश-निगार है…हलका-हलका तंज़ और मिज़ाह इस्मत के स्टाइल की मुमताज़ ख़ूबियां हैं…इस्मत तलवार की धार पर चलती है. इस्मत पर बहुत कुछ कहा गया है और कहा जाता रहेगा. कोई उसे पसन्द करेगा, कोई नापसन्द. लेकिन लोगों की पसन्दीदगी और नापसन्दीदगी से ज़्यादा अहम चीज़ इस्मत की तख़्लीकी कुव्वत30 है. बुरी, भली, उरियां, मस्तूर, जैसी भी है, क़ायम रहनी चाहिए. अदब का कोई जुग़राफ़िया नहीं. उसे नक़्शों और ख़ाकों की क़ैद से, जहां तक मुमकिन हो, बचाना चाहिए.
अरसा हुआ, देहली के एक शरीफ़ दरवेश ने अजीबो-ग़रीब हरकत की. आपने ‘उर्दू की कहानी, सुन मेरी ज़बानी’ : ‘इसे पढ़ने से बहुतों का भला होगा,’’ जैसे उन्वान से शाया की. उसमें मेरा, इस्मत, मुफ़्ती, प्रेमचन्द, ख़्वाजा मोहम्मद शफ़ी और अज़ीम बेग़ चुग़ताई का एक-एक अफ़साना शामिल था. भूमिका में तरक़्क़ी-पसन्द अदब पर एक तनक़ीदी चोट, ‘मारूं घुटना फूटे आंख’ के बमिस्दाक़, फ़रमाई गयी थी, और उस कारनामे को अपने दो नन्हे-नन्हे बच्चों के नाम से मानून किया गया था. उसकी एक कापी आपने इस्मत को और मुझे रवाना की. इस्मत को दरवेश की यह नाशाइस्ता और भौंडी हरकत सख़्त नापसन्द आयी. इसीलिए बहुत भन्ना कर मुझे एक ख़त लिखा “मण्टो भाई, आपने वह किताब, जो दरवेश ने छापी है, देखी? ज़रा उसे फटकारिए और एक नोटिस दीजिए निजी तौर पर कि हर मज़मून का जुर्माना दो सौ रुपये दो, वर्ना दावा ठोंक देंगे. कुछ होना चाहिए. आप बताइए, क्या किया जाए. यह ख़ूब है कि जिसका दिल चाहे उठाकर हमें कीचड़ में लथेड़ देता है और हम कुछ नहीं कहते. ज़रा मज़ा रहेगा. इस शख़्स को ख़ूब रगड़िए. डांटिए कि उलटा अलम-बरदार क्यों बन रहा है . हमारे अफ़साने उसने सिर्फ़ किताब बेचने के लिए छापे हैं. हमारी तहक है कि हमें हर ऐरे गै़रे नत्थू ख़ैरे, कमअक़्लों की डांटें सुनना पड़ें. जो कुछ मैंने लिखा है, उसको सामने रखकर एक मज़मून लिखिए. आप कहेंगे, मैं क्यों नहीं लिखती तो जवाब है कि आप पहले हैं.”
जब इस्मत से मुलाक़ात हुई तो उस ख़त का जवाब देते हुए मैंने कहा, ‘‘सबसे पहले लाहौर के चौधरी मोहम्मद हुसैन (प्रैस ब्रांच, हुकूमते-पंजाब का इंचार्ज) साहब हैं. उनसे हम दरख्वास्त करें तो वह ज़रूर मिस्टर दरवेश पर मुक़दमा चलवा देंगे.
इस्मत मुस्कराई : ‘‘तज़वीज़ तो ठीक है, लेकिन मुसीबत यह है कि हम भी साथ ही धर लिए जाएंगे.’’
मैंने कहा, “क्या हुआ अदालत ख़ुश्क जगह सही लेकिन करनाल शॉप तो काफ़ी दिलचस्प जगह है…मिस्टर दरवेश को वहां ले जाएंगे,” और..”
इस्मत के गालों के गड्ढे गहरे हो गये.
इस्मत के ड्रामे कमज़ोर हैं. जगह-जगह उनमें झोल है. इस्मत प्लाट को मनाज़िर29 में तक़सीम करती है तो नापकर कैंची से नहीं करती, यूं ही दांतों से चीर-फाड़कर चीथड़े बना डालती है… पार्टियों की दुनिया इस्मत की दुनिया नहीं. उनमें वह बिल्कुल अजनबी रहती है… जिन्स, इस्मत के आसाब पर एक मर्ज़ की तरह सवार है… इस्मत का बचपन बड़ा ग़ैर-सेहत बख़्श रहा है… पर्दे के उस पार की तफ़सीलात बयान करने में इस्मत को यदे-तूला हासिल है. इस्मत को समाज से नहीं, शख़्सीयतों से शग़फ़ है…इस्मत के पास जिस्म के एहतिसाब का एक ही ज़रिया है और वह है मसास…इस्मत के अफ़सानों की कोई सम्त ही नहीं…इस्मत की गै़र-मामूली कुव्वते-मुशाहिदा हैरत में गर्क़ कर देती है…इस्मत फ़ुहश-निगार है…हलका-हलका तंज़ और मिज़ाह इस्मत के स्टाइल की मुमताज़ ख़ूबियां हैं…इस्मत तलवार की धार पर चलती है. इस्मत पर बहुत कुछ कहा गया है और कहा जाता रहेगा. कोई उसे पसन्द करेगा, कोई नापसन्द. लेकिन लोगों की पसन्दीदगी और नापसन्दीदगी से ज़्यादा अहम चीज़ इस्मत की तख़्लीकी कुव्वत30 है. बुरी, भली, उरियां, मस्तूर, जैसी भी है, क़ायम रहनी चाहिए. अदब का कोई जुग़राफ़िया नहीं. उसे नक़्शों और ख़ाकों की क़ैद से, जहां तक मुमकिन हो, बचाना चाहिए.
अरसा हुआ, देहली के एक शरीफ़ दरवेश ने अजीबो-ग़रीब हरकत की. आपने ‘उर्दू की कहानी, सुन मेरी ज़बानी’ : ‘इसे पढ़ने से बहुतों का भला होगा,’’ जैसे उन्वान से शाया की. उसमें मेरा, इस्मत, मुफ़्ती, प्रेमचन्द, ख़्वाजा मोहम्मद शफ़ी और अज़ीम बेग़ चुग़ताई का एक-एक अफ़साना शामिल था. भूमिका में तरक़्क़ी-पसन्द अदब पर एक तनक़ीदी चोट, ‘मारूं घुटना फूटे आंख’ के बमिस्दाक़, फ़रमाई गयी थी, और उस कारनामे को अपने दो नन्हे-नन्हे बच्चों के नाम से मानून किया गया था. उसकी एक कापी आपने इस्मत को और मुझे रवाना की. इस्मत को दरवेश की यह नाशाइस्ता और भौंडी हरकत सख़्त नापसन्द आयी. इसीलिए बहुत भन्ना कर मुझे एक ख़त लिखा “मण्टो भाई, आपने वह किताब, जो दरवेश ने छापी है, देखी? ज़रा उसे फटकारिए और एक नोटिस दीजिए निजी तौर पर कि हर मज़मून का जुर्माना दो सौ रुपये दो, वर्ना दावा ठोंक देंगे. कुछ होना चाहिए. आप बताइए, क्या किया जाए. यह ख़ूब है कि जिसका दिल चाहे उठाकर हमें कीचड़ में लथेड़ देता है और हम कुछ नहीं कहते. ज़रा मज़ा रहेगा. इस शख़्स को ख़ूब रगड़िए. डांटिए कि उलटा अलम-बरदार क्यों बन रहा है . हमारे अफ़साने उसने सिर्फ़ किताब बेचने के लिए छापे हैं. हमारी तहक है कि हमें हर ऐरे गै़रे नत्थू ख़ैरे, कमअक़्लों की डांटें सुनना पड़ें. जो कुछ मैंने लिखा है, उसको सामने रखकर एक मज़मून लिखिए. आप कहेंगे, मैं क्यों नहीं लिखती तो जवाब है कि आप पहले हैं.”
जब इस्मत से मुलाक़ात हुई तो उस ख़त का जवाब देते हुए मैंने कहा, ‘‘सबसे पहले लाहौर के चौधरी मोहम्मद हुसैन (प्रैस ब्रांच, हुकूमते-पंजाब का इंचार्ज) साहब हैं. उनसे हम दरख्वास्त करें तो वह ज़रूर मिस्टर दरवेश पर मुक़दमा चलवा देंगे.
इस्मत मुस्कराई : ‘‘तज़वीज़ तो ठीक है, लेकिन मुसीबत यह है कि हम भी साथ ही धर लिए जाएंगे.’’
मैंने कहा, “क्या हुआ अदालत ख़ुश्क जगह सही लेकिन करनाल शॉप तो काफ़ी दिलचस्प जगह है…मिस्टर दरवेश को वहां ले जाएंगे,” और..”
इस्मत के गालों के गड्ढे गहरे हो गये.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.