09-12-2019, 03:55 PM
पितरस साहब ने भी, जिनको लाहौर के अदबी ठेकेदारों ने डिबिया में बन्द कर रखा था, अपना हाथ बाहर निकाला और क़लम पकड़कर इस्मत पर एक मज़मून लिख दिया. आदमी ज़हीन है, तबीयत में शोख़ी और मिज़ाह है, इसलिए मज़मून काफ़ी दिलचस्प और सुलझा हुआ है. आप औरत के लेबिल का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं:
एक मुक़तदिर व पुख़्ताकार दीबाचा-नवीस ने भी, मालूम होता है, इंशापरदाज़ों की रेवड़ में, नर और मादा अलग-अलग कर रखे हैं. इस्मत के मुताल्लिक़ फ़रमाते हैं कि जिन्स के एतिबार से उर्दू में कमो-बेश उन्हें भी वही रुत्बा हासिल है जो एक ज़माने में अंग्रेज़ी अदब में जार्ज इलियट को नसीब हुआ. गोया अदब कोई टेनिस टूर्नामेंट है जिसमें औरतों और मर्दों के मैच अलाही होते हैं.
पितरस साहब का यह कहना कि ‘‘गोया अदब कोई टेनिस टूर्नामेंट है जिसमें औरतों और मर्दों के मैच अलाही होते हैं’’ ठेठ पितरसी फ़िक्रे -बाज़ी है. टेनिस टूर्नामेंट, अदब नहीं. लेकिन औरतों और मर्दों के मैच अलाही होना बेअदबी भी नहीं. पितरस साहब क्लास में लेक्चर देते हैं तो तलब और तालिबात से उनका ख़िताब जुदागाना नहीं होता, लेकिन जब उन्हें किसी लड़के या शागिर्द लड़की से दिमाग़ी नशो-नुमा पर ग़ौर करना पड़ेगा तो माहिरे-तालीम होने की हैसियत में वह उनकी जिन्स से ग़ाफिल नहीं हो जाएंगे.
औरत अगर जार्ज इलियट या इस्मत चुग़ताई बन जाए तो इसका यह मतलब नहीं कि उसके अदब पर उसके औरत होने के असर की तरफ़ ग़ौर न किया जाए. हिजड़े के अदब के मुताल्लिक़ भी क्या पितरस साहब यही इस्तिफ़सार फ़रमाएंगे कि क्या कोई माबिल-इम्तियाज़ ऐसा है, जो इंशापदराज़ हिजड़ों के अदब को इंशापरदाज़ मर्दों और औरतों के अदब से सुमैयज़ करता है.
मैं औरत पर औरत और मर्द पर मर्द के नाम का लेबल लगाना भोंड़ेपन की दलील समझता हूं. इस्मत के औरत होने का असर उसके अदब के हर-एक नुक़्ते में मौजूद है, जो उसको समझने में हर-एक क़दम पर हमारी रहबरी करता है. उसके अदब की खूबियों और कमियों से, जिनको पितरस साहब ने अपने मज़मून में गै़र-जानिबदारी से बयान किया है, हम मुसन्निफ़ की जिन्स से अलाही नहीं कर सकते और न ऐसा करने के लिए कोई तनक़ीदी, अदबी या कीमयाई तरीक़ा ही मौजूद है.
इस्मत की सब हिस्से वक़्त पड़ने पर अपनी-अपनी जगह काम करती हैं और ठीक तौर से करती हैं. अज़ीज़ अहमद साहब का यह कहना कि जिन्स एक मर्ज़ की तरह इस्मत के आसाब पर छाई हुई है, मुमकिन है, उनकी तशखीस के मुताबिक़ दुरुस्त हो, मगर वो इस मर्ज़ के लिए नुस्खे़ तज्वीज़ न फ़रमाएं . यूं तो लिखना भी एक मर्ज़ है. कामिल तौर पर सेहतमन्द आदमी, जिसका दर्जा-ए-हरारत हमेशा साढ़े अट्ठानवे ही रहे, सारी उम्र अपनी ज़िन्दगी की ठंडी स्लेट हाथ में लिए बैठा रहेगा.
अज़ीज़ अहमद साहब लिखते हैं: “इस्मत की हीरोइन की सबसे बड़ी ट्रेजिड़ी यह है कि दिल से न उसे किसी मर्द ने चाहा और न उसने किसी मर्द को. इश्क़ एक ऐसी चीज़ है, जिसका जिस्म से वही ताल्लुक़ है जो बिजली का तार से है. खटका दबा दो तो यही इश्क़ हज़ारों कन्दीलों के बराबर रौशनी करता है. दोपहर की झुलसती लू में पंखा झलता है. हज़ारों देवों की ताक़त से ज़िन्दगी की अज़ीमुश्शान मशीनों के पहिये घुमाता है और कभी-कभी ज़ूल्फों को संवारता और कपड़ों पर इस्त्री करता है ऐेसे इश्क़ से इस्मत चुग़ताई बहैसियते लेखिका वाक़िफ़ नहीं.
एक मुक़तदिर व पुख़्ताकार दीबाचा-नवीस ने भी, मालूम होता है, इंशापरदाज़ों की रेवड़ में, नर और मादा अलग-अलग कर रखे हैं. इस्मत के मुताल्लिक़ फ़रमाते हैं कि जिन्स के एतिबार से उर्दू में कमो-बेश उन्हें भी वही रुत्बा हासिल है जो एक ज़माने में अंग्रेज़ी अदब में जार्ज इलियट को नसीब हुआ. गोया अदब कोई टेनिस टूर्नामेंट है जिसमें औरतों और मर्दों के मैच अलाही होते हैं.
पितरस साहब का यह कहना कि ‘‘गोया अदब कोई टेनिस टूर्नामेंट है जिसमें औरतों और मर्दों के मैच अलाही होते हैं’’ ठेठ पितरसी फ़िक्रे -बाज़ी है. टेनिस टूर्नामेंट, अदब नहीं. लेकिन औरतों और मर्दों के मैच अलाही होना बेअदबी भी नहीं. पितरस साहब क्लास में लेक्चर देते हैं तो तलब और तालिबात से उनका ख़िताब जुदागाना नहीं होता, लेकिन जब उन्हें किसी लड़के या शागिर्द लड़की से दिमाग़ी नशो-नुमा पर ग़ौर करना पड़ेगा तो माहिरे-तालीम होने की हैसियत में वह उनकी जिन्स से ग़ाफिल नहीं हो जाएंगे.
औरत अगर जार्ज इलियट या इस्मत चुग़ताई बन जाए तो इसका यह मतलब नहीं कि उसके अदब पर उसके औरत होने के असर की तरफ़ ग़ौर न किया जाए. हिजड़े के अदब के मुताल्लिक़ भी क्या पितरस साहब यही इस्तिफ़सार फ़रमाएंगे कि क्या कोई माबिल-इम्तियाज़ ऐसा है, जो इंशापदराज़ हिजड़ों के अदब को इंशापरदाज़ मर्दों और औरतों के अदब से सुमैयज़ करता है.
मैं औरत पर औरत और मर्द पर मर्द के नाम का लेबल लगाना भोंड़ेपन की दलील समझता हूं. इस्मत के औरत होने का असर उसके अदब के हर-एक नुक़्ते में मौजूद है, जो उसको समझने में हर-एक क़दम पर हमारी रहबरी करता है. उसके अदब की खूबियों और कमियों से, जिनको पितरस साहब ने अपने मज़मून में गै़र-जानिबदारी से बयान किया है, हम मुसन्निफ़ की जिन्स से अलाही नहीं कर सकते और न ऐसा करने के लिए कोई तनक़ीदी, अदबी या कीमयाई तरीक़ा ही मौजूद है.
इस्मत की सब हिस्से वक़्त पड़ने पर अपनी-अपनी जगह काम करती हैं और ठीक तौर से करती हैं. अज़ीज़ अहमद साहब का यह कहना कि जिन्स एक मर्ज़ की तरह इस्मत के आसाब पर छाई हुई है, मुमकिन है, उनकी तशखीस के मुताबिक़ दुरुस्त हो, मगर वो इस मर्ज़ के लिए नुस्खे़ तज्वीज़ न फ़रमाएं . यूं तो लिखना भी एक मर्ज़ है. कामिल तौर पर सेहतमन्द आदमी, जिसका दर्जा-ए-हरारत हमेशा साढ़े अट्ठानवे ही रहे, सारी उम्र अपनी ज़िन्दगी की ठंडी स्लेट हाथ में लिए बैठा रहेगा.
अज़ीज़ अहमद साहब लिखते हैं: “इस्मत की हीरोइन की सबसे बड़ी ट्रेजिड़ी यह है कि दिल से न उसे किसी मर्द ने चाहा और न उसने किसी मर्द को. इश्क़ एक ऐसी चीज़ है, जिसका जिस्म से वही ताल्लुक़ है जो बिजली का तार से है. खटका दबा दो तो यही इश्क़ हज़ारों कन्दीलों के बराबर रौशनी करता है. दोपहर की झुलसती लू में पंखा झलता है. हज़ारों देवों की ताक़त से ज़िन्दगी की अज़ीमुश्शान मशीनों के पहिये घुमाता है और कभी-कभी ज़ूल्फों को संवारता और कपड़ों पर इस्त्री करता है ऐेसे इश्क़ से इस्मत चुग़ताई बहैसियते लेखिका वाक़िफ़ नहीं.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.