09-12-2019, 03:55 PM
हम दो दफ़ा लाहौर गये और दो ही दफ़ा हम दोनों ने कर्नाल शॉप से अलग डिज़ाइनों के दस-दस बारह-बारह जोड़े सैंडिलों और जूतियों के ख़रीदे.
बम्बई में किसी ने इस्मत से पूछा: ‘‘लाहौर आप क्या मुक़दमे के सिलसिले में गये थे?’’ इस्मत ने जवाब दिया: ‘‘जी नहीं, जूते खरीदने गये थे.’’
गालिबन तीन बरस पहले की बात है. होली का त्योहार था. मलाड में शाहिद और मैं बालकनी में बैठे पी रहे थे. इस्मत मेरी बीवी को उकसा रही थी: ‘‘सफ़िया, यह लोग इतना रुपया उड़ाएं…हम क्यों न इस ऐश में शरीक हों.’’ दोनों एक घंटे तक दिल कड़ा करती रहीं. इतने में एकदम हुल्लड़-सा मचा और फ़िल्मिस्तान से प्रोड्यूसर मुखर्जी, उनकी भारी भरकम बीवी और दूसरे लोग हम पर हमलावर हो गये. चन्द मिनटों ही में हम सबका हुलिया पहचानने लायक नहीं था. इस्मत की तवज्जो व्हिस्की से हटी और रंग पर मर्क़ूज़ हो गयी: ‘‘आओ सफ़िया, हम भी उन पर रंग लगाएं.’’
हम सब बाज़ार में निकल आये. इसीलिए घोड़बन्दर रोड पर बाक़ायदा होली शुरू हो गयी. नीले-पीले सब्ज़ और काले रंगों का छिड़काव-सा शुरू हो गया. इस्मत पेश-पेश थी. एक मोटी बंगालन के चेहरे पर तो उसने तारकोल का लेप कर दिया. उस वक़्त मुझे उसके भाई अज़ीम बेग़ चुग़ताई का ख़याल आया. एकदम इस्मत ने जनरलों के से अन्दाज़ में कहा, “रंगों से परीचेहरा के घर पर धावा बोलें .’’
उन दिनों नसीम बानो हमारी फ़िल्म ‘चल-चल रे नौजवान’ में काम कर रही थी. उसका बंगला पास ही घोड़ बन्दर रोड पर था. इस्मत की तजवीज़ सबको पसन्द आयी. इसीलिए चन्द मिनटों में हम सब बंगले के अन्दर थे. नसीम हस्बे-आदत पूरे मेकअप में थी और निहायत नफ़ीस रेशमी जार्जेट की साड़ी में मलबूस थी. वह और उसका ख़ाविंद अहसान हमारा शोर सुनकर बाहर निकले. इस्मत ने, जो रंगों में लिथड़ी हुई भूतनी-सी लगती थी, मेरी बीवी से जिस पर रंग लगाने से मेरा ख़्याल है कोई फ़र्क़ न पड़ता, नसीम की तारीफ़ करते हुए कहा: ‘‘सफ़िया, नसीम वाक़ई हसीन औरत है.’’
मैंने नसीम की तरफ़ देखा और कहा: ‘‘हुस्न है लेकिन बहुत ठंडा.’’
बम्बई में किसी ने इस्मत से पूछा: ‘‘लाहौर आप क्या मुक़दमे के सिलसिले में गये थे?’’ इस्मत ने जवाब दिया: ‘‘जी नहीं, जूते खरीदने गये थे.’’
गालिबन तीन बरस पहले की बात है. होली का त्योहार था. मलाड में शाहिद और मैं बालकनी में बैठे पी रहे थे. इस्मत मेरी बीवी को उकसा रही थी: ‘‘सफ़िया, यह लोग इतना रुपया उड़ाएं…हम क्यों न इस ऐश में शरीक हों.’’ दोनों एक घंटे तक दिल कड़ा करती रहीं. इतने में एकदम हुल्लड़-सा मचा और फ़िल्मिस्तान से प्रोड्यूसर मुखर्जी, उनकी भारी भरकम बीवी और दूसरे लोग हम पर हमलावर हो गये. चन्द मिनटों ही में हम सबका हुलिया पहचानने लायक नहीं था. इस्मत की तवज्जो व्हिस्की से हटी और रंग पर मर्क़ूज़ हो गयी: ‘‘आओ सफ़िया, हम भी उन पर रंग लगाएं.’’
हम सब बाज़ार में निकल आये. इसीलिए घोड़बन्दर रोड पर बाक़ायदा होली शुरू हो गयी. नीले-पीले सब्ज़ और काले रंगों का छिड़काव-सा शुरू हो गया. इस्मत पेश-पेश थी. एक मोटी बंगालन के चेहरे पर तो उसने तारकोल का लेप कर दिया. उस वक़्त मुझे उसके भाई अज़ीम बेग़ चुग़ताई का ख़याल आया. एकदम इस्मत ने जनरलों के से अन्दाज़ में कहा, “रंगों से परीचेहरा के घर पर धावा बोलें .’’
उन दिनों नसीम बानो हमारी फ़िल्म ‘चल-चल रे नौजवान’ में काम कर रही थी. उसका बंगला पास ही घोड़ बन्दर रोड पर था. इस्मत की तजवीज़ सबको पसन्द आयी. इसीलिए चन्द मिनटों में हम सब बंगले के अन्दर थे. नसीम हस्बे-आदत पूरे मेकअप में थी और निहायत नफ़ीस रेशमी जार्जेट की साड़ी में मलबूस थी. वह और उसका ख़ाविंद अहसान हमारा शोर सुनकर बाहर निकले. इस्मत ने, जो रंगों में लिथड़ी हुई भूतनी-सी लगती थी, मेरी बीवी से जिस पर रंग लगाने से मेरा ख़्याल है कोई फ़र्क़ न पड़ता, नसीम की तारीफ़ करते हुए कहा: ‘‘सफ़िया, नसीम वाक़ई हसीन औरत है.’’
मैंने नसीम की तरफ़ देखा और कहा: ‘‘हुस्न है लेकिन बहुत ठंडा.’’
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.