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Misc. Erotica लिहाफ
#13
‘इस्मत, काज़ी साहब की पेशानी, ऐसा लगता है, तख़्ती है.’’
‘‘क्या कहा?’’
‘‘तुम्हारे कानों को क्या हो गया है.’’
‘‘मेरे कानों को तो कुछ नहीं हुआ…तुम्हारी अपनी आवाज़ हलक़ से बाहर नहीं निकलती.’’
‘‘हद हो गयी…लो अब सुनो. मैं यह कह रहा था, काज़ी साहब की पेशानी बिल्कुल तख़्ती से मिलती-जुलती है.’’
‘‘तख़्ती तो बिल्कुल सपाट होती है.’’
‘‘यह पेशानी सपाट नहीं?’’
‘‘तुम सपाट का मतलब भी समझते हो?’’
‘‘जी नहीं.’’
‘‘सपाट माथा तुम्हारा है….काज़ी जी का माथा तो…’’
‘‘बड़ा ख़ूबसूरत है.’’
‘‘ख़ूबसूरत तो है.’’
‘‘तुम महज़ चिढ़ा रही हो मुझे.’’
‘‘चिढ़ा तो तुम रहे हो मुझे.’’
‘‘मैं कहता हूं, तुम चिढ़ा रही हो मुझे.’’
‘‘मैं कहती हूं, तुम चिढ़ा रहे हो मुझे.’’
‘‘अजी वाह, तुम तो अभी से शौहर बन बैठे.’’
‘‘काज़ी साहब, मैं इस औरत से शादी नहीं करूंगा…अगर आपकी बेटी का माथा आपके माथे की तरह है तो मेरा निकाह उससे पढ़वा दीजिए.’’
‘‘काज़ी साहब मैं इस मर्दुए से शादी नहीं करूंगी…अगर आपकी चार बीवियां नहीं हैं तो मुझसे शादी कर लीजिए. मुझे आपका माथा बहुत पसन्द है.’’

अगर हम दोनों की शादी का ख़याल आता तो दूसरों को हैरतो-इज़ितराब में गुम करने के बजाय हम ख़ुद उसमें गर्क़ हो जाते, और जब एकदम चौंकते तो यह हैरत और इज़ितराब जहां तक मैं समझता हूं, मसर्रत के बजाय एक बहुत ही बड़े फ़काहिए में तब्दील हो जाता. इस्मत और मण्टो, निकाह और शादी. कितनी मज़्हका-खे़ज़5 चीज़ है.

इस्मत लिखती है-“एक ज़रा-सी मुहब्बत की दुनिया में कितने शौकत, कितने महमूद, अब्बास, असकरी, यूनुस और न जाने कौन-कौन ताश की गड्डी की तरह फेंट कर बिखेर दिये गये हैं. कोई बताओ, उनमें से चार पत्ता कौन-सा है? शौकत की भूखी-भूखी कहानियों से लबरेज़ आंखें, महमूद के सांपों की तरह रेंगते हुए आज़ा, असकरी के बेरहम हाथ, यूनुस के निचले होंठ का स्याह तिल, अब्बास की खोई-खोई मुस्कराहटें और हज़ारों चौड़े-चकले सीने, कुशादा पेशानियां, घने-घने बाल, सुडौल पिंडलियां, मज़बूत बाज़ू , सब एक साथ मिलकर पक्के सूत के डोरों की तरह उलझ कर रह गये हैं. परेशान हो होकर उस ढेर को देखती हूं, मगर समझ में नहीं आता कि कौन-सा सिरा पकड़कर खींचूं कि खिंचता ही चला आये और मैं उसके सहारे दूर उफ़ुक़ से भी ऊपर एक पतंग की तरह तन जाऊं.

मण्टो लिखता है-मैं सिर्फ़ इतना समझता हूं कि औरत से इश्क़ करना और ज़मीनें ख़रीदना तुम्हारे लिए एक ही बात है. सो तुम मुहब्बत करने के बजाय एक-दो बीघे ज़मीन ख़रीद लो और उस पर सारी उम्र क़ाबिज़ रहो…ज़िन्दगी में सिर्फ़ एक औरत…और यह दुनिया इस क़द्र भरी हुई क्यों है? क्यों इसमें इतने तमाशे जमा हैं? सिर्फ़ गन्दुम पैदा करके ही अल्लाह मियां ने अपना हाथ क्यों न रोक लिया? मेरी सुनो और इस ज़िन्दगी को जो कि तुम्हें दी गयी है, अच्छी तरह इस्तेमाल करो…तुम ऐसे ग्राहक हो जो औरत हासिल करने के लिए सारी उम्र सरमाया जमा करते रहोगे, मगर उसे नाकाफ़ी समझोगे. मैं ऐसा ख़रीदार हूं, जो ज़िन्दगी में कई औरतों से सौदे करेगा…तुम ऐसा इश्क़ करना चाहते हो कि उसकी नाकामी पर कोई अदना दर्जे का मुसन्निफ़ एक किताब लिखे, जिसे नारायण दत्त सहगल पीले काग़ज़ों पर छापे और डब्बी बाज़ार में उसे रददी के भाव बेचे…मैं अपनी किताबे-हयात9 के तमाम औराक़ दीमक बनकर चाट जाना चाहता हूं, ताकि उसका कोई निशान बाक़ी न रहे. तुम मुहब्बत में ज़िन्दगी चाहते हो, मैं ज़िन्दगी में मुहब्बत चाहता हूं.
इस्मत को अगर उलझे हुए सूत के ढेर में ऐसा सिरा मिल जाता, खींचने पर जो खिंचता ही चला आता और वह उसके सहारे दूर उफ़ुक़10 से ऊपर एक पतंग की तरह तन जाती और मण्टो अगर अपनी किताबे-हयात के आधे औराक़ भी दीमक़ बनकर चाटने में कामयाब हो जाता तो आज अदब की लोह पर उनके फ़न के नुक़ू इतने गहरे भी न होते. वह दूर उफुक़ से भी ऊपर हवा में तनी रहती और मण्टो के पेट में उसकी किताबे-हयात के बाक़ी औराक़ भुस भरके उसके हमदर्द उसे शीशे की अलमारी में बन्द कर देते.

‘चोटें’ की भूमिका में कृष्ण चन्दर लिखते हैं: इस्मत का नाम आते ही मर्द अफ़साना-निगारों को दौरे पड़ने लगते हैं. शर्मिन्दा हो रहे हैं. आप ही आप ख़फ़ीफ़ हुए जा रहे हैं. यह भूमिका भी उसी ख़िफ़्फ़त को मिटाने का एक नतीजा है.
इस्मत के मुताल्लिक़ जो कुछ मैं लिख रहा हूं, किसी भी क़िस्म की खिफ़्फ़त को मिटाने का नतीजा नहीं. एक कर्ज़ था, जो सूद की बहुत ही हल्की शरह के साथ अदा कर रहा हूं.

सबसे पहले मैंने इस्मत का कौन-सा अफ़साना पढ़ा था, मुझे बिल्कुल याद नहीं. यह सुतूर लिखने से पहले मैंने हाफ़िज़े को बहुत खुर्चा, लेकिन उसने मेरी रहबरी नहीं की. ऐसा महसूस होता है कि मैं इस्मत के अफ़साने काग़ज़ पर मुंतक़िल12 होने से पहले ही पढ़ चुका था. यही वजह है कि मुझ पर कोई दौरा नहीं पड़ा, लेकिन जब मैंने उसको पहली बार देखा तो मुझे सख़्त नाउम्मीदी हुई.

एडलफी चैंबर्स, क्लीयर रोड बम्बई के, सत्रह नम्बर फ्लैट में, जहां ‘मुसव्विर’ हफ़्तावार का दफ़्तर था, शाहिद लतीफ़ अपनी बीवी के साथ दाख़िल हुआ. यही अगस्त 1942 ई. की बात है. तमाम कांग्रेसी लीडर, महात्मा गांधी समेत गिरफ़्तार हो चुके थे और शहर में काफ़ी गड़बड़ थी. फ़ज़ा सियासियात में बसी हुई थी. इसलिए कुछ देर गुफ़्तगू का मौजू तहरीके-आज़ादी रहा. उसके बाद रुख़ बदला और अफ़सानों की बातें शुरू हुईं.

एक महीना पहले जबकि मैं ऑल इंडिया रेडियो, देहली में मुलाज़िम था, ‘अदबे-लतीफ़’ में इस्मत का ‘लिहाफ़’ शाया हुआ था. उसे पढ़कर, मुझे याद है, मैंने कृष्ण चन्दर से कहा था: ‘‘अफ़साना बहुत अच्छा है, लेकिन आख़िरी जुमला बहुत गै़र-सनायाआ है.“ अहमद नदीम क़ासमी की जगह अगर मैं एडिटर होता तो उसे यक़ीनन हज़फ़ कर देता. इसीलिए जब अफ़सानों पर बातें शुरू हुईं तो मैंने इस्मत से कहा: ‘‘आपका अफ़साना ‘लिहाफ़’ मुझे बहुत पसन्द आया. बयान में अल्फाज़ को बकद्रे-किफ़ायत इस्तेमाल करना आपकी नुमायां ख़ुसूसियत14 रही है, लेकिन मुझे ताज्जुब है कि उस अफ़साने के आख़िरी में आपने बेकार-सा जुमला लिख दिया” इस्मत ने कहा ‘‘क्या एब है इस जुमले में?’’

मैं जवाब में कुछ कहने ही वाला था कि मुझे इस्मत के चेहरे पर वही सिमटा हुआ हिजाब नज़र आया जो आम घरेलू लड़कियों के चेहरे पर नागुफ़तनी शै का नाम सुनकर नुमूदार15 हुआ करता है. मुझे सख़्त नाउम्मीदी हुई, इसलिए कि मैं ‘लिहाफ़’ के तमाम जुज़ियात के मुताल्लिक़ उससे बातें करना चाहता था. जब इस्मत चली गयी तो मैंने दिल में कहा: ‘‘यह तो कमबख़्त बिल्कुल औरत निकली.’’

मुझे याद है, इस मुलाक़ात के दूसरे ही रोज़ मैंने अपनी बीवी को देहली ख़त लिखा, ‘‘इस्मत से मिला. तुम्हें यह सुनकर हैरत होगी कि वह बिल्कुल ऐसी ही औरत है, जैसी मैंने जब उससे एक इंच उठे हुए ‘लिहाफ़ का ज़िक्र किया तो नालाइक़ उसका तसव्वुर करते ही झेंप गयी.’’

एक अर्से के बाद मैंने अपने इस पहले रददे-अमल पर संजीदगी से ग़ौर किया और मुझे इस अम्र का शदीद अहसास हुआ कि अपने फ़न की बक़ा के लिए इनसान को अपनी फ़ितरत की हुदूद17 में रहना अज़बस लाज़िम है. डॉक्टर रशीद जहां का फ़न आज कहां है? कुछ तो गेसुओं के साथ कटकर अलाहिदा हो गया और कुछ पतलून की जेबों में ठुस होकर रह गया. फ्रांस में जार्ज सां ने निस्वानियत का हसीन मलबूस उतार कर तसन्नो की ज़िन्दगी इख़्तियार की. पोलिस्तानी मौसीक़ार शोपेन से लहू थुकवा-थुकवा कर उसने लालो-गौहर ज़रूर पैदा कराये, लेकिन उसका अपना जौहर उसके वतन में दम घुट के मर गया.

मैंने सोचा, औरत जंग के मैदानों में मर्दों के दोश-बदोश लड़े, पहाड़ काटे, अफ़साना-निगारी करते-करते इस्मत चुग़ताई बन जाये, लेकिन इसके हाथों में कभी-कभी मेहंदी रचनी ही चाहिए. उसकी बांहों से चूड़ी की खनक आनी ही चाहिए. मुझे अफ़सोस है, जो मैंने उस वक़्त अपने दिल में कहा: ‘‘यह तो कमबख़्त बिल्कुल औरत निकली.’’

इस्मत अगर बिल्कुल औरत न होती तो उसके मज्मूओं में ‘भूल-भुलैया’, ‘तिल’, लिहाफ़’ और ‘गेंदा’ जैसे नाज़ुक और मुलायम अफ़साने कभी नज़र न आते. यह अफ़साने औरत की मुख़्तलिफ़ अदाएं हैं, साफ़, शफ़ाक़ , हर क़िस्म के तसन्नो से पाक. ये अदाएं वह गश्वे वह ग़मजे नहीं जिनके तीर बनाकर मर्दों के दिल और कलेजे छलनी किये जाते हैं. जिस्म की भोंडी हरकतों से इन अदाओं का कोई ताल्लुक़ नहीं. इन रूहानी इशारों की मंज़िले-मक़सूद इनसान का ज़मीर है, जिसके साथ वह औरत ही की अनजानी, अनबूझी मगर मख़मली फ़ितरत लिए बग़लगीर हो जाता है.

‘साक़ी’ में ‘दोज़ख़ी’ छपा. मेरी बहन ने पढ़ा और मुझसे कहा: ‘‘सआदत, यह इस्मत कितनी बेहूदा है. अपने मूए भाई को भी नहीं छोड़ा कमबख़्त ने. कैसी-कैसी फ़िज़ूल बातें लिखी हैं.’’
मैंने कहा: “इक़बाल, अगर मेरी मौत पर तुम ऐसा ही मज़मून लिखने का वादा करो तो ख़ुदा की क़सम, मैं आज मरने के लिए तैयार हूं.’’
शाहजहां ने अपनी महबूबा की याद क़ायम रखने के लिए ताजमहल बनवाया. इस्मत ने अपने महबूब भाई की याद में ‘दोज़ख़ी’ लिखा. शाहजहां ने दूसरों से पत्थर उठवाये. उन्हें तरशवाया और अपनी महबूबा की लाश पर अज़ीमुश्शान इमारत तामीर कराई. इस्मत ने ख़ुद अपने हाथों से अपने ख़ाहराना ज़ज्बात चुन-चुनकर एक ऊंचा मचान तैयार किया और उस पर नर्म-नर्म हाथों से अपने भाई की लाश रख दी ताज शाहजहां की मुहब्बत का बरहना18
मरमरीं इश्तिहार मालूम होता है. लेकिन ‘दोज़ख़ी’ इस्मत की मुहब्बत का निहायत ही लतीफ़ और हसीन इशारा है, वह जन्नत जो उस मज़मून में आबाद है, उन्वान का उसका इश्तिहार नहीं देता.

मेरी बीवी ने यह मज़मून पढ़ा तो इस्मत से कहा: ‘‘यह तुमने क्या खुराफ़ात लिखी है?’’
‘‘बको नहीं, लाओ, वह बर्फ़ कहां है?’’
इस्मत को बर्फ़ खाने का बहुत शौक़ है. बिल्कुल बच्चों की तरह डली हाथ में लिए दांतों से कटाकट काटती रहती है. उसने अपने बाज़ अफ़साने भी बर्फ़ खा-खाकर लिखे हैं. चारपाई पर कोहनियों के बल औंधी लेटी है. सामने तकिए पर कापी खुली है. एक हाथ में उसका क़लम और मुंह दोनों खटाखट चल रहे हैं.

इस्मत पर लिखने के दौरे पड़ते हैं. न लिखे तो महीनों गुज़र जाते हैं, पर जब दौरा पड़े तो सैकड़ों सफ़े उसके क़लम के नीचे से निकल जाते हैं. खाने-पीने, नहाने-धोने का कोई होश नहीं रहता. बस हर वक़्त चारपाई पर कोहनियों के बल औंधी लेटी अपने टेढे़-मेढ़े आराब और इमला से बेनियाज़ ख़त में काग़ज़ों पर अपने ख़यालात मुंतकिल करती रहती है.

‘टेढ़ी लकीर’ जैसा तूल-तवील नाविल, मेरा ख़याल है, इस्मत ने सात-आठ निशस्तों में ख़त्म किया था. कृष्ण चन्दर, इस्मत के बयान की रफ़्तार के मुताल्लिक़ लिखता है: अफ़सानों के मुताले19 से एक और बात जो ज़हन में आती है, वह है घुड़दौड़. यानी रफ़्तार, हरकत, सुबुक ख़रामी (मेरा ख़याल है, इससे कृष्ण चन्दर की मुराद बर्फ़ की रफ़्तारी थी) और तेज़ गामी. न सिर्फ़ अफ़साना दौड़ता हुआ मालूम होता है, बल्किफ़क्रे, किनाए और इशारे की आवाज़ें और किरदार और जज़्बात और अहसासात, एक तूफ़ान की सी बलाखे़ज़ी के साथ चलते और आगे बढ़ते नज़र आते हैं.

इस्मत का क़लम और उसकी ज़बान, दोनों बहुत तेज़ हैं. लिखना शुरू करेगी तो कई मर्तबा उसका दिमाग़ आगे निकल जाएगा और अल्फ़ाज़ बहुत पीछे हांफते रह जाएंगे. बातें करेगी तो लफ़्ज़ एक-दूसरे पर चढ़ते जाएंगे. शेख़ी बघारने की ख़ातिर अगर कभी बावर्चीख़ाने में चली जाएगी तो मामला बिल्कुल चौपट हो जाएगा. तबीयत में चूंकि बहुत ही उजलत20 है, इसलिए आटे का पेड़ा बनाते ही सिंकी सिंकाई रोटी की शक्ल देखना शुरू कर देती है. आलू अभी छीले नहीं गये लेकिन उनका सालन उसके दिमाग़ में पहले ही तैयार हो जाता है. और मेरा ख़याल है, बाज़ औक़ात21 वह बावर्चीख़ाने में क़दम रखकर ख़याल-ख़याल में शिकम-सैर होकर लौट आती होगी. लेकिन इस हद से बढ़ी हुई उजलत के मुक़ाबले में उसको मैंने बड़े ठंडे इत्मीनान और सुकून के साथ अपनी बच्ची के फ़्राक सीते देखा है. उसका क़लम लिखते वक़्त इमला की ग़लतियां कर जाता है, लेकिन नन्ही के फ़्राक सीते वक़्त उसकी सुई से हल्की-सी लग्ज़िश भी नहीं होती. नपे-तुले टांके होते हैं और मजाल है जो कहीं झोल हो.

‘उफ़ रे बच्चे’ में इस्मत लिखती है “घर क्या है, मुहल्ले का मुहल्ला है. मर्ज़ फैले, बला आये, दुनिया के बच्चे पटापट मरें, मगर क्या मजाल जो यहां भी टस से मस हो जाए. हर साल माशाल्लाह घर अस्पताल बन जाता है. सुनते हैं दुनिया में बच्चे भी मरा करते हैं. मरते होंगे. क्या खबर?”
और पिछले दिनों बम्बई में, जब उसकी बच्ची सीमा को काली खांसी हुई तो वह रातें जागती थी. हर वक़्त खोई-खोई रहती थी. ममता, मां बनने के साथ ही कोख से बाहर निकलती है.

इस्मत परले दर्जे की हठ-धर्म है. तबीयत में ज़िद है, बिल्कुल बच्चों की सी. ज़िन्दगी के किसी नज़रिए को, फ़ितरत के किसी क़ानून को पहले ही साबिक़े में कभी कुबूल नहीं करेगी. पहले शादी से इनकार करती रही. जब आमादा हुई तो बीवी बनने से इनकार कर दिया. बीवी बनने पर जूं-तूं रज़ामन्द हुई तो मां बनने से मुन्किर हो गयी. तकलीफ़ें उठाएगी, सुउबतें बर्दाश्त करेगी मगर ज़िद से कभी बाज़ नहीं आएगी. मैं समझता हूं, यह भी उसका एक तरीका है जिसके ज़रिए से वह ज़िन्दगी के हक़ाइक़22 से दो-चार होकर, बल्कि टकराकर उनको समझने की कोशिश करती है. उसकी हर बात निराली है.

इस्मत के ज़नाना और मर्दाना किरदारों में भी यह अजीबो-ग़रीब ज़िद या इन्कार आम पाया जाता है. मुहब्बत में बुरी तरह मुब्तला है, लेकिन नफ़रत का इज़हार किये चले जा रहे हैं. जी गाल चूमने को चाहता है, लेकिन उसमें सुई खूबो देंगे. हौले से थपकना होगा तो ऐसी धोल जमाएंगे कि दूसरा बिलबिला उठे. यह जरेहायाना क़िस्म की मनफ़ी मुहब्बत, जो महज़ एक खेल की सूरत में शुरू होती है, आमतौर पर इस्मत के अफ़सानों में एक निहायत रहम अंगेज़ सूरत में अंजाम23 पज़ीर होती है.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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लिहाफ - by neerathemall - 09-12-2019, 03:25 PM
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RE: लिहाफ - by sri7869 - 31-03-2024, 12:53 PM



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