09-12-2019, 03:27 PM
रब्बो को घर का और कोई काम न था. बस वह सारे वक्त उनके छपरखट पर चढ़ी कभी पैर, कभी सिर और कभी जिस्म के और दूसरे हिस्से को दबाया करती थी. कभी तो मेरा दिल बोल उठता था, जब देखो रब्बो कुछ-न-कुछ दबा रही है या मालिश कर रही है.
कोई दूसरा होता तो न जाने क्या होता? मैं अपना कहती हूं, कोई इतना करे तो मेरा जिस्म तो सड़-गल के खत्म हो जाय. और फिर यह रोज़-रोज़ की मालिश काफी नहीं थीं. जिस रोज़ बेगम जान नहातीं, या अल्लाह! बस दो घण्टा पहले से तेल और खुशबुदार उबटनों की मालिश शुरू हो जाती. और इतनी होती कि मेरा तो तख़य्युल से ही दिल लोट जाता. कमरे के दरवाज़े बन्द करके अंगीठियां सुलगती और चलता मालिश का दौर. अमूमन सिर्फ़ रब्बो ही रही. बाकी की नौकरानियां बड़बड़ातीं दरवाज़े पर से ही, जरूरियात की चीज़ें देती जातीं.
बात यह थी कि बेगम जान को खुजली का मर्ज़ था. बिचारी को ऐसी खुजली होती थी कि हज़ारों तेल और उबटने मले जाते थे, मगर खुजली थी कि कायम. डाक्टर,हकीम कहते, ”कुछ भी नहीं, जिस्म साफ़ चट पड़ा है. हां, कोई जिल्द के अन्दर बीमारी हो तो खैर.” ‘नहीं भी, ये डाक्टर तो मुये हैं पागल! कोई आपके दुश्मनों को मर्ज़ है? अल्लाह रखे, खून में गर्मी है! रब्बो मुस्कराकर कहती, महीन-महीन नज़रों से बेगम जान को घूरती! ओह यह रब्बो! जितनी यह बेगम जान गोरी थीं उतनी ही यह काली. जितनी बेगम जान सफेद थीं, उतनी ही यह सुर्ख. बस जैसे तपाया हुआ लोहा. हल्के-हल्के चेचक के दाग. गठा हुआ ठोस जिस्म. फुर्तीले छोटे-छोटे हाथ. कसी हुई छोटी-सी तोंद. बड़े-बड़े फूले हुए होंठ, जो हमेशा नमी में डूबे रहते और जिस्म में से अजीब घबरानेवाली बू के शरारे निकलते रहते थे. और ये नन्हें-नन्हें फूले हुए हाथ किस कदर फूर्तीले थे! अभी कमर पर, तो वह लीजिए फिसलकर गए कूल्हों पर! वहां से रपटे रानों पर और फिर दौड़े टखनों की तरफ! मैं तो जब कभी बेगम जान के पास बैठती, यही देखती कि अब उसके हाथ कहां हैं और क्या कर रहें हैं?
गर्मी-जाड़े बेगम जान हैदराबादी जाली कारगे के कुर्ते पहनतीं. गहरे रंग के पाजामे और सफेद झाग-से कुर्ते. और पंखा भी चलता हो, फिर भी वह हल्की दुलाई ज़रूर जिस्म पर ढके रहती थीं. उन्हें जाड़ा बहुत पसन्द था. जाड़े में मुझे उनके यहां अच्छा मालूम होता. वह हिलती-डुलती बहुत कम थीं. कालीन पर लेटी हैं, पीठ खुज रही हैं, खुश्क मेवे चबा रही हैं और बस! रब्बो से दूसरी सारी नौकरियां खार खाती थीं. चुड़ैल बेगम जान के साथ खाती, साथ उठती-बैठती और माशा अल्लाह! साथ ही सोती थी! रब्बो और बेगम जान आम जलसों और मजमूओं की दिलचस्प गुफ्तगू का मौजूं थीं. जहां उन दोनों का ज़िक्र आया और कहकहे उठे. लोग न जाने क्या-क्या चुटकुले गरीब पर उड़ाते, मगर वह दुनिया में किसी से मिलती ही न थी. वहां तो बस वह थीं और उनकी खुजली!
मैंने कहा कि उस वक्त मैं काफ़ी छोटी थी और बेगम जान पर फिदा. वह भी मुझे बहुत प्यार करती थीं. इत्तेफाक से अम्मां आगरे गईं. उन्हें मालूम था कि अकेले घर में भाइयों से मार-कुटाई होगी, मारी-मारी फिरूंगी, इसलिए वह हफ्ता-भर के लिए बेगम जान के पास छोड़ गईं. मैं भी खुश और बेगम जान भी खुश. आखिर को अम्मां की भाभी बनी हुई थीं.
सवाल यह उठा कि मैं सोऊं कहां? कुदरती तौर पर बेगम जान के कमरे में. लिहाज़ा मेरे लिए भी उनके छपरखट से लगाकर छोटी-सी पलंगड़ी डाल दी गई. दस-ग्यारह बजे तक तो बातें करते रहे. मैं और बेगम जान चांस खेलते रहे और फिर मैं सोने के लिए अपने पलंग पर चली गई. और जब मैं सोयी तो रब्बो वैसी ही बैठी उनकी पीठ खुजा रही थी. ‘भंगन कहीं की!’ मैंने सोचा. रात को मेरी एकदम से आंख खुली तो मुझे अजीब तरह का डर लगने लगा. कमरे में घुप अंधेरा. और उस अंधेरे में बेगम जान का लिहाफ ऐसे हिल रहा था, जैसे उसमें हाथी बन्द हो!
”बेगम जान!” मैंने डरी हुई आवाज़ निकाली. हाथी हिलना बन्द हो गया. लिहाफ नीचे दब गया.
”क्या है? सो जाओ.”
बेगम जान ने कहीं से आवाज़ दी.
”डर लग रहा है.”
मैंने चूहे की-सी आवाज़ से कहा.
”सो जाओ. डर की क्या बात है? आयतलकुर्सी पढ़ लो.”
”अच्छा.”
मैंने जल्दी-जल्दी आयतलकुर्सी पढ़ी. मगर ‘यालमू मा बीन’ पर हर दफा आकर अटक गई. हालांकि मुझे वक्त पूरी आयत याद है.
कोई दूसरा होता तो न जाने क्या होता? मैं अपना कहती हूं, कोई इतना करे तो मेरा जिस्म तो सड़-गल के खत्म हो जाय. और फिर यह रोज़-रोज़ की मालिश काफी नहीं थीं. जिस रोज़ बेगम जान नहातीं, या अल्लाह! बस दो घण्टा पहले से तेल और खुशबुदार उबटनों की मालिश शुरू हो जाती. और इतनी होती कि मेरा तो तख़य्युल से ही दिल लोट जाता. कमरे के दरवाज़े बन्द करके अंगीठियां सुलगती और चलता मालिश का दौर. अमूमन सिर्फ़ रब्बो ही रही. बाकी की नौकरानियां बड़बड़ातीं दरवाज़े पर से ही, जरूरियात की चीज़ें देती जातीं.
बात यह थी कि बेगम जान को खुजली का मर्ज़ था. बिचारी को ऐसी खुजली होती थी कि हज़ारों तेल और उबटने मले जाते थे, मगर खुजली थी कि कायम. डाक्टर,हकीम कहते, ”कुछ भी नहीं, जिस्म साफ़ चट पड़ा है. हां, कोई जिल्द के अन्दर बीमारी हो तो खैर.” ‘नहीं भी, ये डाक्टर तो मुये हैं पागल! कोई आपके दुश्मनों को मर्ज़ है? अल्लाह रखे, खून में गर्मी है! रब्बो मुस्कराकर कहती, महीन-महीन नज़रों से बेगम जान को घूरती! ओह यह रब्बो! जितनी यह बेगम जान गोरी थीं उतनी ही यह काली. जितनी बेगम जान सफेद थीं, उतनी ही यह सुर्ख. बस जैसे तपाया हुआ लोहा. हल्के-हल्के चेचक के दाग. गठा हुआ ठोस जिस्म. फुर्तीले छोटे-छोटे हाथ. कसी हुई छोटी-सी तोंद. बड़े-बड़े फूले हुए होंठ, जो हमेशा नमी में डूबे रहते और जिस्म में से अजीब घबरानेवाली बू के शरारे निकलते रहते थे. और ये नन्हें-नन्हें फूले हुए हाथ किस कदर फूर्तीले थे! अभी कमर पर, तो वह लीजिए फिसलकर गए कूल्हों पर! वहां से रपटे रानों पर और फिर दौड़े टखनों की तरफ! मैं तो जब कभी बेगम जान के पास बैठती, यही देखती कि अब उसके हाथ कहां हैं और क्या कर रहें हैं?
गर्मी-जाड़े बेगम जान हैदराबादी जाली कारगे के कुर्ते पहनतीं. गहरे रंग के पाजामे और सफेद झाग-से कुर्ते. और पंखा भी चलता हो, फिर भी वह हल्की दुलाई ज़रूर जिस्म पर ढके रहती थीं. उन्हें जाड़ा बहुत पसन्द था. जाड़े में मुझे उनके यहां अच्छा मालूम होता. वह हिलती-डुलती बहुत कम थीं. कालीन पर लेटी हैं, पीठ खुज रही हैं, खुश्क मेवे चबा रही हैं और बस! रब्बो से दूसरी सारी नौकरियां खार खाती थीं. चुड़ैल बेगम जान के साथ खाती, साथ उठती-बैठती और माशा अल्लाह! साथ ही सोती थी! रब्बो और बेगम जान आम जलसों और मजमूओं की दिलचस्प गुफ्तगू का मौजूं थीं. जहां उन दोनों का ज़िक्र आया और कहकहे उठे. लोग न जाने क्या-क्या चुटकुले गरीब पर उड़ाते, मगर वह दुनिया में किसी से मिलती ही न थी. वहां तो बस वह थीं और उनकी खुजली!
मैंने कहा कि उस वक्त मैं काफ़ी छोटी थी और बेगम जान पर फिदा. वह भी मुझे बहुत प्यार करती थीं. इत्तेफाक से अम्मां आगरे गईं. उन्हें मालूम था कि अकेले घर में भाइयों से मार-कुटाई होगी, मारी-मारी फिरूंगी, इसलिए वह हफ्ता-भर के लिए बेगम जान के पास छोड़ गईं. मैं भी खुश और बेगम जान भी खुश. आखिर को अम्मां की भाभी बनी हुई थीं.
सवाल यह उठा कि मैं सोऊं कहां? कुदरती तौर पर बेगम जान के कमरे में. लिहाज़ा मेरे लिए भी उनके छपरखट से लगाकर छोटी-सी पलंगड़ी डाल दी गई. दस-ग्यारह बजे तक तो बातें करते रहे. मैं और बेगम जान चांस खेलते रहे और फिर मैं सोने के लिए अपने पलंग पर चली गई. और जब मैं सोयी तो रब्बो वैसी ही बैठी उनकी पीठ खुजा रही थी. ‘भंगन कहीं की!’ मैंने सोचा. रात को मेरी एकदम से आंख खुली तो मुझे अजीब तरह का डर लगने लगा. कमरे में घुप अंधेरा. और उस अंधेरे में बेगम जान का लिहाफ ऐसे हिल रहा था, जैसे उसमें हाथी बन्द हो!
”बेगम जान!” मैंने डरी हुई आवाज़ निकाली. हाथी हिलना बन्द हो गया. लिहाफ नीचे दब गया.
”क्या है? सो जाओ.”
बेगम जान ने कहीं से आवाज़ दी.
”डर लग रहा है.”
मैंने चूहे की-सी आवाज़ से कहा.
”सो जाओ. डर की क्या बात है? आयतलकुर्सी पढ़ लो.”
”अच्छा.”
मैंने जल्दी-जल्दी आयतलकुर्सी पढ़ी. मगर ‘यालमू मा बीन’ पर हर दफा आकर अटक गई. हालांकि मुझे वक्त पूरी आयत याद है.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
