03-12-2019, 04:18 PM
अधिकतर समय बीत गयाक्या करूंगी? कहीं बाहर जाकर कौन-से गढ़ जीत लूंगी? मुझे जाने किस वस्तु की प्रतीक्षा थी, मुझे पता नहीं। इसी बीच एक दिन वकार भाई मेरे पास बड़े निराश होकर आये और कहने लगे, ''तुम्हारी भाभी के दिमांग में फिर कीड़ा उठा। वह वीसा बनवाकर हिन्दुस्तान चली गयी और अब कभी नहीं आएगी।''
''वह कैसे...?'' मैंने तनिक लापरवाही से पूछा और उनके लिए चाय का पानी स्टोव पर रख दिया।
''बात यह हुई कि मैंने उन्हें तलाक दे दिया। उनकी जुबान बहुत बढ़ गयी थी। हर समय टर्र-टर्र-टर्र-टर्र...'' फिर उन्होंने सामने बिछे पलंग पर बैठकर शुध्द पतियोंवाले ढंग से अपनी पत्नी के विरुध्द शिकायतों का दफ्तर खोल दिया औैर स्वयं को निरपराध करने की कोशिश में व्यस्त रहे।
मैं बेपरवाही से वह सारी कथा सुनती रही। जिन्दगी की हर बात एकदम बेरंग, महत्त्वहीन, अनावश्यक और निरर्थक थी।
कुछ समय बाद वे मेरे यहां आकर बड़बड़ाए, ''नौकरों ने नाक में दम कर रखा है। तुमसे कभी इतना भी नहीं होता कि आकर तनिक भाई के घर की दशा ही ठीक कर जाओ,नौकरों के कान उमेठो! मैं कॉलेज भी चलाऊं और घर भी!'' उन्होंने इस ढंग से शिकायत-भरे स्वर में कहा जैसे उनके घर का प्रबन्ध करना मेरा कर्तव्यहै।
कुछ दिनों बाद मैं अपना सामान बांधकर वकार साहब के कमरों में जा पहुंची और नृत्य सिखाने के लिए उनकी असिस्टेंट भी बन गयी।
इसके महीने-भर बाद पिछले रविवार को वकार साहब ने एक मौलवी बुलाकर अपने दो चिरकिटों की गवाही में मुझसे निकाह पढ़वा लिया।
अब मैं दिनभर काम-काज में व्यस्त रहती हूं। मेरा रूप-सौन्दर्य भूतकाल की रामकहानियों में शामिल हो चुका है। मुझे शोर-शराबे, पार्टियां, हंगामे बिलकुल पसन्द नहीं लेकिन घर में हर समय चा-चा किल्लियों और रॉक का शोर मचा रहता है। बहरहाल, यही मेरा घर है।
मेरे पास इस समय कई कॉलेजों में कैमिस्ट्री पढ़ाने के ऑफर हैं मगर भला कहीं पारिवारिक धन्धों से फुरसत मिलती है? नौकरों का यह हाल है कि आज रखो, कल गायब। मैंने अधिक की अभिलाषा कभी नहीं की, केवल इतना चाहा कि एक औसत दरजे की कोठी हो और सवारी के लिए मोटर ताकि आराम से आ-जा सकें। समान स्तरवाले लोगों में लज्जित न होना पड़े। चार मिलनेवाले आएं तो बिठाने के लिए ठीक-सी जगह हो, बस!
इस समय हमारी डेढ़-दो हजार रुपये की आय है जो पति-पत्नी के लिए जरूरत से ज्यादा है। आदमी अपने भाग्य से सन्तुष्ट हो जाए तो सारे-के-सारे दु:ख मिट जाते हैं।
शादी हो जाने के बाद लड़की के सिर पर छत-सी पड़ जाती है। आज-कल की लड़कियां जाने किस रौ में बह रही हैं, किस तरह ये हाथों से निकल जाती हैं। जितना सोचो,अजीब-सा लगता है, और आश्चर्य होता है।
मैंने तो कभी किसी से बनावटी प्यार तक नहीं किया। खुशवक्त, फारूक और इस पचास वर्षीय कुरूप और भौंडे आदमी के अतिरिक्त, जो मेरा पति है, मैं किसी चौथे आदमी से परिचित तक नहीं। मैं शायद बदमाश तो नहीं थी। न जाने मैं क्या थी और क्या हूं। रेहाना, सईदा, प्रभा और यह लड़की जिसकी आंखों में मुझे देखकर डर पैदा हुआ, शायद वे मुझ से अधिक अच्छी तरह मुझसे परिचित हों!
अब खुशवक्त को याद करने से फायदा? समय बीत चुका। जाने कब तक वह ब्रिगेडियर मेजर जनरल हो चुका हो। आराम की सीमा पर चीनियों के विरुध्द मोर्चा लगाए बैठा हो या हिन्दुस्तान की किसी हरी-भरी सुन्दर छावनी के मैस में बैठा मूंछों पर ताव दे रहा हो और मुस्कराता हो। शायद वह कब कश्मीर मोर्चे पर मारा जा चुका हो! क्या मालूम। अंधेरी रातों में मैं चुपचाप आंखें खोल पड़ी रहती हूं! विज्ञान ने हमें वर्तमान युग के बहुत-से रहस्यों से परिचित करा दिया है। मैंने कैमिस्ट्री पर अनगिनत किताबें पढ़ी हैं, पहरों सोचा है। पर मुझे बड़ा डर लगता है।
खुशवक्त सिंह! खुशवक्तसिंह तुम्हें अब मुझसे मतलब ?
''वह कैसे...?'' मैंने तनिक लापरवाही से पूछा और उनके लिए चाय का पानी स्टोव पर रख दिया।
''बात यह हुई कि मैंने उन्हें तलाक दे दिया। उनकी जुबान बहुत बढ़ गयी थी। हर समय टर्र-टर्र-टर्र-टर्र...'' फिर उन्होंने सामने बिछे पलंग पर बैठकर शुध्द पतियोंवाले ढंग से अपनी पत्नी के विरुध्द शिकायतों का दफ्तर खोल दिया औैर स्वयं को निरपराध करने की कोशिश में व्यस्त रहे।
मैं बेपरवाही से वह सारी कथा सुनती रही। जिन्दगी की हर बात एकदम बेरंग, महत्त्वहीन, अनावश्यक और निरर्थक थी।
कुछ समय बाद वे मेरे यहां आकर बड़बड़ाए, ''नौकरों ने नाक में दम कर रखा है। तुमसे कभी इतना भी नहीं होता कि आकर तनिक भाई के घर की दशा ही ठीक कर जाओ,नौकरों के कान उमेठो! मैं कॉलेज भी चलाऊं और घर भी!'' उन्होंने इस ढंग से शिकायत-भरे स्वर में कहा जैसे उनके घर का प्रबन्ध करना मेरा कर्तव्यहै।
कुछ दिनों बाद मैं अपना सामान बांधकर वकार साहब के कमरों में जा पहुंची और नृत्य सिखाने के लिए उनकी असिस्टेंट भी बन गयी।
इसके महीने-भर बाद पिछले रविवार को वकार साहब ने एक मौलवी बुलाकर अपने दो चिरकिटों की गवाही में मुझसे निकाह पढ़वा लिया।
अब मैं दिनभर काम-काज में व्यस्त रहती हूं। मेरा रूप-सौन्दर्य भूतकाल की रामकहानियों में शामिल हो चुका है। मुझे शोर-शराबे, पार्टियां, हंगामे बिलकुल पसन्द नहीं लेकिन घर में हर समय चा-चा किल्लियों और रॉक का शोर मचा रहता है। बहरहाल, यही मेरा घर है।
मेरे पास इस समय कई कॉलेजों में कैमिस्ट्री पढ़ाने के ऑफर हैं मगर भला कहीं पारिवारिक धन्धों से फुरसत मिलती है? नौकरों का यह हाल है कि आज रखो, कल गायब। मैंने अधिक की अभिलाषा कभी नहीं की, केवल इतना चाहा कि एक औसत दरजे की कोठी हो और सवारी के लिए मोटर ताकि आराम से आ-जा सकें। समान स्तरवाले लोगों में लज्जित न होना पड़े। चार मिलनेवाले आएं तो बिठाने के लिए ठीक-सी जगह हो, बस!
इस समय हमारी डेढ़-दो हजार रुपये की आय है जो पति-पत्नी के लिए जरूरत से ज्यादा है। आदमी अपने भाग्य से सन्तुष्ट हो जाए तो सारे-के-सारे दु:ख मिट जाते हैं।
शादी हो जाने के बाद लड़की के सिर पर छत-सी पड़ जाती है। आज-कल की लड़कियां जाने किस रौ में बह रही हैं, किस तरह ये हाथों से निकल जाती हैं। जितना सोचो,अजीब-सा लगता है, और आश्चर्य होता है।
मैंने तो कभी किसी से बनावटी प्यार तक नहीं किया। खुशवक्त, फारूक और इस पचास वर्षीय कुरूप और भौंडे आदमी के अतिरिक्त, जो मेरा पति है, मैं किसी चौथे आदमी से परिचित तक नहीं। मैं शायद बदमाश तो नहीं थी। न जाने मैं क्या थी और क्या हूं। रेहाना, सईदा, प्रभा और यह लड़की जिसकी आंखों में मुझे देखकर डर पैदा हुआ, शायद वे मुझ से अधिक अच्छी तरह मुझसे परिचित हों!
अब खुशवक्त को याद करने से फायदा? समय बीत चुका। जाने कब तक वह ब्रिगेडियर मेजर जनरल हो चुका हो। आराम की सीमा पर चीनियों के विरुध्द मोर्चा लगाए बैठा हो या हिन्दुस्तान की किसी हरी-भरी सुन्दर छावनी के मैस में बैठा मूंछों पर ताव दे रहा हो और मुस्कराता हो। शायद वह कब कश्मीर मोर्चे पर मारा जा चुका हो! क्या मालूम। अंधेरी रातों में मैं चुपचाप आंखें खोल पड़ी रहती हूं! विज्ञान ने हमें वर्तमान युग के बहुत-से रहस्यों से परिचित करा दिया है। मैंने कैमिस्ट्री पर अनगिनत किताबें पढ़ी हैं, पहरों सोचा है। पर मुझे बड़ा डर लगता है।
खुशवक्त सिंह! खुशवक्तसिंह तुम्हें अब मुझसे मतलब ?
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.