03-12-2019, 04:17 PM
एक बार मैं छुट्टियों में कॉलेज से लाहौर गयी तो फारूक के पुराने दोस्त सैयद वकार हुसैनंखां से मेरी भेंट हुई। लम्बा कद, मोटे-ताजे, काले तवे जैसा रंग, उम्र में पैंतालीस के लगभगअच्छे-खासे देव-पुत्र मालूम होते। उनको पहली बार मैंने नई दिल्ली में देखा था। जहां उनका डांसिंग कॉलेज था। ये रामपुर के एक शरीफ घराने के इकलौते बेटे थे, बचपन में घर से भाग गये। सरकसवालों और थियेटर कम्पनियों के साथ देश-विदेश घूमे सिंगापुर, हांगकांग, शंघाई, लन्दन जाने कहां-कहां। अनगिनत जातियों और नस्लों की स्त्रियों से शादियां रचायीं। उनकी वर्तमान पत्नी उड़ीसा के एक मारवाड़ी महाजन की लड़की थी जिसको ये कलकत्ता से उड़ा लाये थे। बारह-पन्द्रह साल पहले मैंने उसे दिल्ली में देखा था। सांवली-सांवली-सी मंझले कद की लड़की थी। उसकी शक्ल पर अजीब तरह का दर्द बरसता, मगर सुना था कि बड़ी पतिव्रता स्त्री थी। पति के दुर्व्यवहार से तंग आकर इधर-उधर भाग जाती लेकिन कुछ दिन बाद फिर वापस आ जाती। खां साहब ने कनॉट सरकस की एक बिल्डिंग की तीसरी मंजिल में अंग्रेजी नाच सिखाने का कॉलेज खोल रखा था, जिसमें वे, उनकी पत्नी, दो एंगलोइंडियन लड़कियांस्टॉफ में शामिल थीं। महायुध्द के दिनों में कॉलेज पर धन बरसा। हर इतवार की सुबह वहां गयी थी। सुना था कि वकार साहब की पत्नी महासती अनुसूइया का अवतार है कि उनके पति आज्ञा देते हैं कि अमुक-अमुक लड़की से बहनापा गांठों और उसे मुझसे मिलाने के लिए ले आओ और वह नेकबख्त ऐसा ही करती। एक बार वह हमारे होस्टल भी आयी और कुछ लड़कियों के सिर हुई कि वह उसके साथ चलकर बारहखम्बा रोड पर चाय पीएं।
भारत-विभाजन के बाद वकार साहब, उनके कथनानुसार, लुट-लुटा-कर लाहौर आ पहुँचे थे और माल रोड के पीछे एक फ्लैट अलाट कराके उसमें अपना कॉलेज खोल लिया था। शुरू-शुरू में तो कारोबार मन्दा रहा। दिलों पर मुर्दनी छायी हुई थी, नाचने-गाने का किसे होश था। इस फ्लैट में भारत-विभाजन से पूर्व आर्यसमाजी हिन्दुओं का संगीत-विद्यालय था। लकड़ी के फर्श का हॉल, बंगले में दो छोटे-छोटे कमरे, गुसलखाना, रसोईघर। सामने लकड़ी की बॉलकनी और टूटा-फूटा हिलता हुआ जीना। 'भारत माता संगीत विद्यालय' का बोर्ड बॉलकनी के जंगले पर अब तक टेढ़ा लटका हुआ था। उसे उतारकर 'वकारंज कॉलेज ऑफ बॉलरूम एंड टप डांर्सिंग' का बोर्ड लगा दिया गया। अमरीकन फिल्मी पत्रिकाओं में से काटकर जेन केली, फरीदा स्टीयर, फ्रेंक सीनट्रा, दोर्सडे आदि के रंगीन चित्र हॉल की पुरानी और कमजोर दीवारों पर लगा दी गयी और कॉलेज चालू हो गया। रिकार्डों का छोटा-सा पुलन्दा खां साहब दिल्ली से साथ लेते आये थे। ग्रामोफोन और सैकेंडहैंड फर्नीचर फारूक से रुपया कंर्ज लेकर उन्होंने यहां खरीद लिया। कॉलेज के मनचले नौजवान और नई अमीर बनी सोसाइटी की नई फैशनेबल बेंगमों को खुदा सलामत रखे, दो-तीन साल में उनका कारोबार खूब चमक गया।
फारूक की मित्रता के कारण मेरा और उनका सम्बन्ध कुछ भाभी और जेठ का-सा हो गया। वे प्राय: मेरी कुशल-क्षेम पूछने आ जाते। उनकी पत्नी घंटों पकाने-रांधने, सीने-पिरोने की बातें किया करतीं। बेचारी मुझ से बिलकुल देवरानी जैसा स्नेह का व्यवहार करतीं। ये पति-पत्नी नि:सन्तान थे, बड़ा उदास, बेरंग, बेतुका-सा बेलगाव जोड़ा था। ऐसे लोग भी दुनिया में मौजूद हैं।
कॉलेज में नई अमरीकी प्लेटनिक चढ़ी। प्रिंसिपल से मेरा झगड़ा हो गया। अगर वह सेर तो मैं सवा सेर। मैं स्वयं कौन अब्दुल हुसैन तानाशाह से कम थी। मैंने स्तीफा कॉलेज कमेटी के सिर पर मारा और फिर सन्तनगर लाहौर वापस आ गयी। मैं पढ़ाते-पढ़ाते उकता चुकी थी। मैं वजीफा लेकर पी-एच. डी. के लिए बाहर जा सकती थी लेकिन इस इरादे को भी कल पर टालती रही। कल अमरीकनों के दंफ्तर जाऊंगी जहां वे वजीफे बांटते हैं, कल ब्रिटिश काउन्सिल जाऊंगी, कल शिक्षा-मन्त्रालय में स्कॉलरशिप का प्रार्थनापत्र भेजूंगी।
भारत-विभाजन के बाद वकार साहब, उनके कथनानुसार, लुट-लुटा-कर लाहौर आ पहुँचे थे और माल रोड के पीछे एक फ्लैट अलाट कराके उसमें अपना कॉलेज खोल लिया था। शुरू-शुरू में तो कारोबार मन्दा रहा। दिलों पर मुर्दनी छायी हुई थी, नाचने-गाने का किसे होश था। इस फ्लैट में भारत-विभाजन से पूर्व आर्यसमाजी हिन्दुओं का संगीत-विद्यालय था। लकड़ी के फर्श का हॉल, बंगले में दो छोटे-छोटे कमरे, गुसलखाना, रसोईघर। सामने लकड़ी की बॉलकनी और टूटा-फूटा हिलता हुआ जीना। 'भारत माता संगीत विद्यालय' का बोर्ड बॉलकनी के जंगले पर अब तक टेढ़ा लटका हुआ था। उसे उतारकर 'वकारंज कॉलेज ऑफ बॉलरूम एंड टप डांर्सिंग' का बोर्ड लगा दिया गया। अमरीकन फिल्मी पत्रिकाओं में से काटकर जेन केली, फरीदा स्टीयर, फ्रेंक सीनट्रा, दोर्सडे आदि के रंगीन चित्र हॉल की पुरानी और कमजोर दीवारों पर लगा दी गयी और कॉलेज चालू हो गया। रिकार्डों का छोटा-सा पुलन्दा खां साहब दिल्ली से साथ लेते आये थे। ग्रामोफोन और सैकेंडहैंड फर्नीचर फारूक से रुपया कंर्ज लेकर उन्होंने यहां खरीद लिया। कॉलेज के मनचले नौजवान और नई अमीर बनी सोसाइटी की नई फैशनेबल बेंगमों को खुदा सलामत रखे, दो-तीन साल में उनका कारोबार खूब चमक गया।
फारूक की मित्रता के कारण मेरा और उनका सम्बन्ध कुछ भाभी और जेठ का-सा हो गया। वे प्राय: मेरी कुशल-क्षेम पूछने आ जाते। उनकी पत्नी घंटों पकाने-रांधने, सीने-पिरोने की बातें किया करतीं। बेचारी मुझ से बिलकुल देवरानी जैसा स्नेह का व्यवहार करतीं। ये पति-पत्नी नि:सन्तान थे, बड़ा उदास, बेरंग, बेतुका-सा बेलगाव जोड़ा था। ऐसे लोग भी दुनिया में मौजूद हैं।
कॉलेज में नई अमरीकी प्लेटनिक चढ़ी। प्रिंसिपल से मेरा झगड़ा हो गया। अगर वह सेर तो मैं सवा सेर। मैं स्वयं कौन अब्दुल हुसैन तानाशाह से कम थी। मैंने स्तीफा कॉलेज कमेटी के सिर पर मारा और फिर सन्तनगर लाहौर वापस आ गयी। मैं पढ़ाते-पढ़ाते उकता चुकी थी। मैं वजीफा लेकर पी-एच. डी. के लिए बाहर जा सकती थी लेकिन इस इरादे को भी कल पर टालती रही। कल अमरीकनों के दंफ्तर जाऊंगी जहां वे वजीफे बांटते हैं, कल ब्रिटिश काउन्सिल जाऊंगी, कल शिक्षा-मन्त्रालय में स्कॉलरशिप का प्रार्थनापत्र भेजूंगी।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.