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कहानीकार
#23
उन्हीं दिनों दिल्ली में गड़बड़ी शुरू हुई और लड़ाई-झगड़ों को भूचाल आ गया। फारूक ने मुझे मेरठ पत्र लिखा कि तुम अविलम्ब पाकिस्तान चली जाओ, मैं तुमसे वहीं मिलूंगा। मेरा पहले ही से यह इरादा था। अब्बा भी बेहद परेशान थे और यही चाहते कि इन हालात में मैं हिन्दुस्तान में न रुकूं, यहां * लड़कियों की इंज्जतें निश्चित रूप से ंखतरे में हैं। पाकिस्तान अपना इस्लामी देश था, उसकी तो बात ही क्या थी। अब्बा जमीन-जायदाद वगैरह के कारण अभी देश छोड़कर नहीं जा सकते थे। मेरे दोनों भाई बहुत छोटे-छोटे थे और अम्माजान के स्वर्गवास के बाद अब्बा ने उनको मेरी फूफी के पास हैदराबाद दकन भेज दिया था। मेरा परिणाम निकल चुका था और मैं तीसरी श्रेणी में पास हुई थी। मेरा दिल टूट गया। जब बवलों को जोर कुछ कम हुआ तो मैं हवाई जहांज से लाहौर आ गयी। फारूक मेरे साथ आया। उसने यह कार्यक्रम बनाया था कि अपने कारोबार की एक ब्रांच पाकिस्तान में स्थापित करके लाहौर उसका हेड ऑफिस रखेगा। मुझे उसका मालिक बनाएगा और वहीं मुससे शादी कर लेगा। वह दिल्ली छोड़ नहीं रहा था क्योंकि उसके बाप बड़े उदारवादी विचारों के आदमी थे। योजना यह बनी कि वह हर दूसरे-तीसरे महीने दिल्ली से लाहौर आता रहेगा। लाहौर अफरा-तफरी थी। यद्यपि एक-से-एक अच्छी कोठी अलाट हो सकती थी लेकिन फारूक यहां किसी को जानता न था। बहरहाल, सन्तनगर में एक छोटा-सा मकान मेरे नाम अलाट कराके उसने मुझे वहां छोड़ दिया और मेरी देख-भाल, सहायता के लिए अपने एक दूर के रिश्तेदार कुटुम्ब को मेरे पास छोड़ दिया जो शरणार्थी होकर लाहौर आया था और मारे-मारे फिर रहा था।

मैं जीवन के इस अचानक परिवर्तन से इतनी हक्की-बक्की थी कि मेरी समझ में न आता था कि क्या हो गया ! कहां अविभाज्य भारत की वह भरपूर, दिलचस्प, रंगारंग दुनिया, कहां सन् 48 के लाहौर का वह छोटा और अंधेरा मकान! देश त्याग! अल्लाहो-अकबर मैंने कैसे-कैसे दिल हिला देने वाले दिन देखे हैं।

मेरा मस्तिष्क इतना खोखला हो चुका था कि मैंने नौकरी ढूंढ़ने की भी कोई कोशिश नहीं की। रुपये-पैसे की ओर से चिन्ता न थी, क्योंकि फारूक मेरे नाम दस हजार रुपये जमा करा गया थासिर्फ दस हजार, वह स्वयं करोड़ों का आदमी था, लेकिन उस समय मेरी समझ में कुछ न आता था, अब भी नहीं आता।

दिन बीतते गये। मैं सुबह से शाम तक पंलग पर पड़ी फारूक की मौसी या नानी, जो कुछ भी हो वे बड़ी थीं, उनके देश-त्याग की आपत्तियों की रामकहानी और उनकी साबकाए-इमारत के किस्से सुन करती और पान-पर-पान खाती या उनकी पढ़नेवाली बेटी को एलजबरा-ज्योमेट्री सिखाया करती। उनका बेटा बराए नाम फारूक के कारोबार की देखभाल कर रहा था।

फारूक साल में पांच-छ: चक्कर लगा लेता। अब लाहौर का जीवन धीरे-धीरे साधारण होता जा रहा था। उसके आने से मेरे दिन कुछ अच्छी तरह कटते। उसकी मौसी बड़े प्रयत्न से दिल्ली के खाने तैयार करती। मैं माल के हेयर डे्रसर के यहां जाकर अपने बाल सेट करवाती। शाम को हम दोनों जीमखाना क्लब चले जाते और वहां एक कोने की मेज पर बियर के गिलास सामने रखे फारूक मुझे दिल्ली की घटनाएं सुनाता। वह बेथके बोले जाता या कुछ देर के लिए चुप होकर कमरे में आनेवाली अजनबी सूरतों को देखता रहता। उसने शादी की कभी कोई चर्चा नहीं की। मैंने भी उससे नहीं कहा। मैं अब उकता चुकी थी। किसी चीज से कोई अन्तर नहीं पड़ता। जब वह दिल्ली चला जाता तो हर पन्द्रहवें दिन मैं अपनी कुशलता का पत्र और उसके ंकारोबार का हाल लिख भेजती और लिख देती कि इस बार आये तो कनाट प्लेस या चांदनी चौक की अमुक दुकान से अमुक-अमुक प्रकार की साड़ियां लेता आये क्योंकि पाकिस्तान में ऐसी साड़ियां नापैद हैं।

एक दिन मेरठ से चाचा मियां का पत्र आया कि अब्बाजान का स्वर्गवास हो गया।

''जब हमदे मरसल न रहे कौन रहेगा?''

मैं मनोभावों से परिचित नहीं हूं , लेकिन अब्बा मुझ पर जान छिड़कते थे। उनकी मृत्यु का मुझे बड़ा दु:ख हुआसदमा पहुंचा। फारूक ने मुझे बड़े प्यार से दिलासा-भरे पत्र लिखे तो तनिक ढाढ़स बन्धी। उसने लिखा, ''नमांज पढ़ा करो! बहुत बुरा वक्त है। दुनिया में काली आंधी चल रही है, सरज डेढ़ बलम पर आया चाहता है। एक पल का भरोसा नहीं।'' सारे व्यापारियों की तरह वह भी बड़ा धार्मिक और अन्धविश्वासी था। नियमपूर्वक अजमेर शरीफ जाता, निजूमियों, रम्मानों, पंडितों, सियानों, पीरो, फकीरों, शकुन-अपशकुनों, स्वप्नों का परिणामअर्थात प्रत्येक चीज में विश्वास करता था। एकाध महीने मैंने नमांज भी पढ़ी लेकिन जब मैं सिजदा करती तो जी चाहता कि जोर-जोर से हंसू।

देश में साइंस की प्राध्यापिकाओं की बडी मांग थी। जब मुझे एक स्थानीय कॉलेजवालों ने बहुत विवश किया तो मैंने पढ़ाना शुरू कर दिया, यद्यपि टीचरी करने से मुझे सख्त नफरत है। कुछ समय बाद मुझे पंजाब के एक पिछड़े जिले के गर्ल्स कॉलेज में बुला लिया गया। कई साल तक मैंने वहां काम लिया। मुझसे मेरी शिष्याएं प्राय: पूछतीं''हाए अल्लाहे तनवीर आप इतनी प्यारी-सी हैं, आप अपने करोड़पति मंगेतर से शादी क्यों नहीं कर लेती?''

इस प्रश्न का स्वयं मेरे पास भी कोई उत्तर नहीं था।

यह नया देश था, नए लोग, नया सामजिक जीवन यहां किसी को मेरे भूतकाल के बारे में पता न था। कोई भी भला आदमी मुझसे शादी करने को तैयार हो सकता था। (लेकिन भले आदमी, सुन्दर सीधे-सादे सभ्य लोग मुझे पसन्द ही नहीं आते थे, मैं क्या करती!) दिल्ली के किस्से दिल्ली ही में रह गये और फिर मैंने यह देखा है कि एक-से-एक हर्राफा लड़कियां अब ऐसी सदाचारिणी बनी हुई हैं कि देखा ही कीजिए। स्वयं एट्थ हरीराम और रानीखान के उदाहरण मेरे सामने थे।

अब फारूक भी कभी-कभी आता। हम लोग इस तरह मिलते जैसे बीसियों साल के पुराने विवाहित पति-पत्नी हैं जिनके पास सब-के-सब नए विषय खत्म हो चुके हैं और अब शान्ति, विश्राम और ठहराव का समय है। फारूक की बेटी की अभी हाल ही में दिल्ली में शादी हुई है। उसका पति ऑक्सफोर्ड जा चुका है। पत्नी को स्थायी रूप से दमा रहता है। फारूक ने अपने व्यवसाय की शाखाएं बाहर कई देशों में फैला दी हैं। नैनीताल में नया मकान बनवा रहा है। फारूक अपने खानदान के किस्से, व्यवसाय की बातें मुझे विस्तार से सुनाया करता और मैं उसके लिए पान बनाती रहती।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 11:29 AM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 03:57 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 03:58 PM
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RE: कहानीकार - by neerathemall - 31-01-2022, 04:55 PM
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