03-12-2019, 04:16 PM
कई महीने बीत गये। मेरी एम. एस-सी. प्रिवियस की परीक्षा सिर पर आ गयी और मैं पढ़ने में जुट गयी। परीक्षाएं होने के बाद उसने कहा, ''जानेमन, दिलरुबा! चलो किसी खामोश-से पहाड़ पर चलेंसोलन, डलहौजी, लेनसाउ।'' मैं कुछ दिन के लिए मेरठ गयी और अब्बा से यह कह कर (अम्माजान का, जब मैं थर्ड ईयर में थी, स्वर्गवास हो गया था) दिल्ली वापस आ गयी कि अन्तिम वर्ष के लिए बेहद पढ़ाई करनी है। उत्तर भारत के पहाड़ी स्थानों पर बहुत-से परिचितों के मिलने की सम्भावना थी, इसलिए हम सुदूर दक्षिण में आउटी चले गये। वहां महीना-भर रहे। खुशवक्त की छुट्टियां खत्म हो गयीं तो दिल्ली वापस आकर तिमारपुर के एक गांव में टिक गये।
कॉलेज खुलने से एक हफ्ता पहले मेरी और खुशवक्त की जबर्दस्त लड़ाई हुई। उसने मुझे खूब मारा। इतना मारा कि मेरा चेहरा लहूलुहान हो गया और मेरी बांहों और पिंडलियों पर नील पड़ गये। लड़ाई का कारण उसकी वह मुरदार ईसाई मंगेतर थी जो न जाने कहां से टपक पड़ी थी और सारे शहर में मेरे खिलांफ जहर उगलती फिर रही थी। अगर उसका बस चलता तो मुझे कच्चा चबा जाती। वह चार सौ बीस लड़की महायुध्द के दिनों में फौज में थी और खुशवक्त को तर्मा के मोर्चे पर मिली थी।
खुशवक्त न जाने किस तरह उसे उसके साथ शादी करने का वचन दे दिया था, पर मुझसे मिलने के बाद वह अब उसकी अंगूठी वापस करने पर तुला बैठा था।
उस रात तिमारपुर के सुनसान बंगले में उसने मेरे हाथ जोड़े और रो रोकर मुझसे कहा कि मैं उससे विवाह कर लूं। अन्यथा वह मर जाएगा। मैंने कहाहरगिंज नहीं, कयामत तक नहीं। मैं शरीफ घराने की सैयदंजादी हूं, भला मैं उस काले तम्बाकू के पिंडे हिन्दू जाति के आदमी से शादी करके खानदान के माथे पर कलंक का टीका लगाती! मैं तो उस सुन्दर और रूपवान किसी बहुत से ऊंचे * घराने के कुल-दीप के स्वप्न देख रही थी जो एक दिन देर-सबेर बरात लेकर मुझे ब्याहने आएगा, हमारा आरसी मुसाहिफ होगा, मैं ठाट-बाट से मायके से विदा होकर उसके घर जाऊंगी, छोटी ननदें दरवाजे पर देहली रोककर अपने भाई से नेग के लिए झगड़ेंगी, मीरासिनें ढोलक लिये खड़ी होंगी। क्या-क्या कुछ होगा! मैंने क्या हिन्दू-,., शादियों का परिणाम देखा नहीं था। कइयों ने प्रगतिवाद या प्यार की भावना के जोश में हिन्दुओं से शादियां रचायी और सालभर बाद जूतियों में दाल बटी ! बच्चों का भविष्य बिगड़ा वह अलगन इधर के रहे न उधर के। मेरे इनकार करने पर खुशवक्त ने जूते-लातों से मार-मारकर मेरा कचूमर निकाल दिया और तीसरे दिन उस डायन काली बला कैथरिन धर्म-दास के साथ आगरे चला गया जहां उस कमीनी लड़की से सिविल मैरिज कर ली।
जब मैं नई टर्म शुरू होने पर होस्टल पहुंची तो इस हुलिये से कि मेरे सिर और मुंह पर पट्टी बंधी हुई थी। अब्बा को मैंने लिख भेजा कि लेबोरेटरी में एक एक्सपेरीमेंट कर रही थी कि एक खतरनाक एसिड भक से उड़ा और उससे मेरा मुंह थोड़ा-सा जल गया। अब बिलकुल ठीक हूं , आप बिलकुल चिन्ता न करें।
लड़कियों को तो पहले ही सारा किस्सा मालूम था, इसलिए उन्होंने औपचारिक रूप से मेरी खैर-खबर न पूछी। इतने बड़े स्केंडल के बाद मुझे होस्टल में रहने की अनुमति न दी जाती, लेकिन होस्टल की वार्डन खुशवक्त सिंह की गहरी दोस्त थी इसलिए सब खामोश रहे। इसके अतिरिक्त किसी के पास किसी प्रकार का प्रमाण भी न था। कॉलेज की लड़कियों को लोग यों भी खामंखाह बदनाम करने पर तुले रहते है।
मुझे वह वक्त अच्छी तरह याद है, जैसे कल ही की बात हो, सुबह के ग्यारह बजे होंगे। रेलवे स्टेशन से लड़कियों के तांगे आकर फाटक में घुस रहे थे, होस्टल के लॉन पर बरगद के पेड़ के नीचे लड़कियां अपना-अपना सामान उतरवाकर रखवा रही थीं। बड़ी चिल्ल-पों मचा रखी थीं। जिस समय मैं अपने तांगे से उतरी व मेरा ढाठे से बन्धा सफेद चेहरा देखकर इतनी आश्चर्यचकित हुई जैसे सबको सांप सूंघ गया हो। मैंने अपना सामान चौकीदार के सिर पर रखवाया और अपने कमरे की ओर चली गयी। दोपहर को जब मैं खाने की मेज पर आकर बैठी तो उन कुलटाओं ने मुझसे इस ढंग से औपचारिक बातें शुरू की जिनसे भली-भांति यह प्रकट हो जाए कि मेरी इस दुर्घटना का वास्तविक कारण उन्हें पता है और मुझे अपमानित होने से बचाने के लिए उसकी चर्चा ही नहीं कर रहीं है। उनमें से एक ने जो उस चंडाल चौकड़ी का केन्द्र और उन सबकी उस्ताद थी, रात को खाने की मेज पर निर्णय दिया कि मैं एक कामी स्त्री हूं। मेरी जासूसों द्वारा यह सूचना तुरन्त ऊपर मेरे पास पहुंच गयी जहां मैं उस समय अपने कमरे में खिड़की के पास टेबुल लैम्प लगाये पढ़ाई में व्यस्त थी और इस तरह की बातें तो अब आम थीं कि बेपर्दगी आंजादी खतरनाक है और ऊंची शिक्षा बदनाम है आदि-आदि।
मैं अपनी सीमा तक शत-प्रतिशत इन बातों से सहमत थी। मैं स्वयं सोचती थी कि कुछ अच्छी-खासी, भली-चंगी, उच्च शिक्षा-प्राप्त लड़कियां आवारा क्यों हो जाती हैं। एक विचारधारा थी कि वही लड़कियां आवारा होती हैं जिनके पास सूझ-बूझ बहुत कम होती है। मानव-मस्तिष्क कभी भी अपनी बर्बादी की ओर जान-बूझकर कदम नहीं उठाएगा लेकिन मैंने तो अच्छी-खासी समझदार, तेजो-तर्रार लड़कियों को आवारागर्दी करते देखा था। दूसरी विचारधारा थी कि-रुपये-पैसे, ऐशो-आराम का जीवन, कीमती भेंटों का लालच, रोमांस की खोज,साहसिक कार्य करने की अभिलाषा या मात्र उकताहट या पर्दे के बन्धनों के बाद स्वतंत्रता के वातावरण में प्रवेश कर पुराने बन्धनों से विद्रोह इस आवारगी के कुछ कारण है। ये सब बातें अवश्य होंगी, अन्यथा और क्या कारण हो सकता है?
मैं अपनी पहली तिमाही परीक्षा से छूटी थी कि खुशवक्त भी आ पहुंचा। उसने मुझे लेबोरेटरी में फोन किया कि मैं नरूला में छ: बजे उससे मिलूं। मैंने ऐसा ही किया। वह कैथरिन को अपने मां-बाप के पास छोड़कर एक सरकारी काम से दिल्ली आया था। इस बार हम हवाई जहाज से एक सप्ताह के लिए बम्बई चले गये।
इसके बाद हर दूसरे-तीसरे महीने मिलना होता रहा। एक साल बीत गया। इस बार जब वह दिल्ली आया तो उसने अपने एक निकटतम मित्र को मुझे लेने के लिए मोटर लेकर भेजा क्योंकि वह लखनऊ से लाहौर जाते हुए पालम पर कुछ घंटों के लिए ठहरा था। यह मित्र दिल्ली के एक बहुत बड़े * व्यापारी का लड़का था। लड़का तो खैर नहीं कहना चाहिए, उस समय वह चालीस के पेटे में रहा होगाबीवी-बच्चोंवाला। ताड़-सा कद। बेहद गलत अंग्रेजी बोलता था, काला, बदसूरत बिलकुल चिड़ीमार की शक्ल, होशो-हवाश ठीक-ठाक।
खुशवक्त इस बार दिल्ली से गया तो फिर कभी वापस न आया क्योंकि अब मैं फारूक की पत्नी बन चुकी थी।
फारूक के साथ अब मैं उसकी मंगेतर की हैसियत से बांकायदा दिल्ली की ऊंची सोसायटी में शामिल हो गयी। *ों में तो चार शादियां तक उचित हैं, इसलिए कोई बहुत बड़ी बात न थी, अर्थात धर्म की दृष्टि से कि वह अपनी अनपढ़, अधेड़ उम्र की पर्दे की पत्नी के होते हुए एक पढ़ी-लिखी लड़की से शादी करना चाहता था, जो चार आदमियों में ढंग से बैठ सके और फिर धनिक वर्ग में सब कुछ उचित है। यह तो हमारे मध्यवर्गीय समाज के ही नियम हैं कि यह न करो, वह न करो। लम्बी छुट्टियों के दिनों में फारूक ने भी मुझे खूब सैर करायीकलकत्ता, लखनऊ, अजमेरकौन-सी जगह थी जो मैंने उसके साथ न देखी। उसने मुझे हीरे-जवाहरात के गहनों से लाद दिया। अब्बा को लिख भेजती थी कि यूनिवर्सिटी के विद्यार्थियों के साथ 'टूर' पर जा रही हूं या अमुक स्थान पर साइंस कान्फ्रेन्स में भाग लेने के लिए मुझे बुलाया गया है, लेकिन साथ-ही-साथ मुझे अपनी शिक्षा का रिकार्ड ऊंचा रखने की धुन थी। फाइनल परीक्षा में मैंने बहुत ही खराब पर्चे किये और परीक्षाएं समाप्त होते ही घर चली गयी।
कॉलेज खुलने से एक हफ्ता पहले मेरी और खुशवक्त की जबर्दस्त लड़ाई हुई। उसने मुझे खूब मारा। इतना मारा कि मेरा चेहरा लहूलुहान हो गया और मेरी बांहों और पिंडलियों पर नील पड़ गये। लड़ाई का कारण उसकी वह मुरदार ईसाई मंगेतर थी जो न जाने कहां से टपक पड़ी थी और सारे शहर में मेरे खिलांफ जहर उगलती फिर रही थी। अगर उसका बस चलता तो मुझे कच्चा चबा जाती। वह चार सौ बीस लड़की महायुध्द के दिनों में फौज में थी और खुशवक्त को तर्मा के मोर्चे पर मिली थी।
खुशवक्त न जाने किस तरह उसे उसके साथ शादी करने का वचन दे दिया था, पर मुझसे मिलने के बाद वह अब उसकी अंगूठी वापस करने पर तुला बैठा था।
उस रात तिमारपुर के सुनसान बंगले में उसने मेरे हाथ जोड़े और रो रोकर मुझसे कहा कि मैं उससे विवाह कर लूं। अन्यथा वह मर जाएगा। मैंने कहाहरगिंज नहीं, कयामत तक नहीं। मैं शरीफ घराने की सैयदंजादी हूं, भला मैं उस काले तम्बाकू के पिंडे हिन्दू जाति के आदमी से शादी करके खानदान के माथे पर कलंक का टीका लगाती! मैं तो उस सुन्दर और रूपवान किसी बहुत से ऊंचे * घराने के कुल-दीप के स्वप्न देख रही थी जो एक दिन देर-सबेर बरात लेकर मुझे ब्याहने आएगा, हमारा आरसी मुसाहिफ होगा, मैं ठाट-बाट से मायके से विदा होकर उसके घर जाऊंगी, छोटी ननदें दरवाजे पर देहली रोककर अपने भाई से नेग के लिए झगड़ेंगी, मीरासिनें ढोलक लिये खड़ी होंगी। क्या-क्या कुछ होगा! मैंने क्या हिन्दू-,., शादियों का परिणाम देखा नहीं था। कइयों ने प्रगतिवाद या प्यार की भावना के जोश में हिन्दुओं से शादियां रचायी और सालभर बाद जूतियों में दाल बटी ! बच्चों का भविष्य बिगड़ा वह अलगन इधर के रहे न उधर के। मेरे इनकार करने पर खुशवक्त ने जूते-लातों से मार-मारकर मेरा कचूमर निकाल दिया और तीसरे दिन उस डायन काली बला कैथरिन धर्म-दास के साथ आगरे चला गया जहां उस कमीनी लड़की से सिविल मैरिज कर ली।
जब मैं नई टर्म शुरू होने पर होस्टल पहुंची तो इस हुलिये से कि मेरे सिर और मुंह पर पट्टी बंधी हुई थी। अब्बा को मैंने लिख भेजा कि लेबोरेटरी में एक एक्सपेरीमेंट कर रही थी कि एक खतरनाक एसिड भक से उड़ा और उससे मेरा मुंह थोड़ा-सा जल गया। अब बिलकुल ठीक हूं , आप बिलकुल चिन्ता न करें।
लड़कियों को तो पहले ही सारा किस्सा मालूम था, इसलिए उन्होंने औपचारिक रूप से मेरी खैर-खबर न पूछी। इतने बड़े स्केंडल के बाद मुझे होस्टल में रहने की अनुमति न दी जाती, लेकिन होस्टल की वार्डन खुशवक्त सिंह की गहरी दोस्त थी इसलिए सब खामोश रहे। इसके अतिरिक्त किसी के पास किसी प्रकार का प्रमाण भी न था। कॉलेज की लड़कियों को लोग यों भी खामंखाह बदनाम करने पर तुले रहते है।
मुझे वह वक्त अच्छी तरह याद है, जैसे कल ही की बात हो, सुबह के ग्यारह बजे होंगे। रेलवे स्टेशन से लड़कियों के तांगे आकर फाटक में घुस रहे थे, होस्टल के लॉन पर बरगद के पेड़ के नीचे लड़कियां अपना-अपना सामान उतरवाकर रखवा रही थीं। बड़ी चिल्ल-पों मचा रखी थीं। जिस समय मैं अपने तांगे से उतरी व मेरा ढाठे से बन्धा सफेद चेहरा देखकर इतनी आश्चर्यचकित हुई जैसे सबको सांप सूंघ गया हो। मैंने अपना सामान चौकीदार के सिर पर रखवाया और अपने कमरे की ओर चली गयी। दोपहर को जब मैं खाने की मेज पर आकर बैठी तो उन कुलटाओं ने मुझसे इस ढंग से औपचारिक बातें शुरू की जिनसे भली-भांति यह प्रकट हो जाए कि मेरी इस दुर्घटना का वास्तविक कारण उन्हें पता है और मुझे अपमानित होने से बचाने के लिए उसकी चर्चा ही नहीं कर रहीं है। उनमें से एक ने जो उस चंडाल चौकड़ी का केन्द्र और उन सबकी उस्ताद थी, रात को खाने की मेज पर निर्णय दिया कि मैं एक कामी स्त्री हूं। मेरी जासूसों द्वारा यह सूचना तुरन्त ऊपर मेरे पास पहुंच गयी जहां मैं उस समय अपने कमरे में खिड़की के पास टेबुल लैम्प लगाये पढ़ाई में व्यस्त थी और इस तरह की बातें तो अब आम थीं कि बेपर्दगी आंजादी खतरनाक है और ऊंची शिक्षा बदनाम है आदि-आदि।
मैं अपनी सीमा तक शत-प्रतिशत इन बातों से सहमत थी। मैं स्वयं सोचती थी कि कुछ अच्छी-खासी, भली-चंगी, उच्च शिक्षा-प्राप्त लड़कियां आवारा क्यों हो जाती हैं। एक विचारधारा थी कि वही लड़कियां आवारा होती हैं जिनके पास सूझ-बूझ बहुत कम होती है। मानव-मस्तिष्क कभी भी अपनी बर्बादी की ओर जान-बूझकर कदम नहीं उठाएगा लेकिन मैंने तो अच्छी-खासी समझदार, तेजो-तर्रार लड़कियों को आवारागर्दी करते देखा था। दूसरी विचारधारा थी कि-रुपये-पैसे, ऐशो-आराम का जीवन, कीमती भेंटों का लालच, रोमांस की खोज,साहसिक कार्य करने की अभिलाषा या मात्र उकताहट या पर्दे के बन्धनों के बाद स्वतंत्रता के वातावरण में प्रवेश कर पुराने बन्धनों से विद्रोह इस आवारगी के कुछ कारण है। ये सब बातें अवश्य होंगी, अन्यथा और क्या कारण हो सकता है?
मैं अपनी पहली तिमाही परीक्षा से छूटी थी कि खुशवक्त भी आ पहुंचा। उसने मुझे लेबोरेटरी में फोन किया कि मैं नरूला में छ: बजे उससे मिलूं। मैंने ऐसा ही किया। वह कैथरिन को अपने मां-बाप के पास छोड़कर एक सरकारी काम से दिल्ली आया था। इस बार हम हवाई जहाज से एक सप्ताह के लिए बम्बई चले गये।
इसके बाद हर दूसरे-तीसरे महीने मिलना होता रहा। एक साल बीत गया। इस बार जब वह दिल्ली आया तो उसने अपने एक निकटतम मित्र को मुझे लेने के लिए मोटर लेकर भेजा क्योंकि वह लखनऊ से लाहौर जाते हुए पालम पर कुछ घंटों के लिए ठहरा था। यह मित्र दिल्ली के एक बहुत बड़े * व्यापारी का लड़का था। लड़का तो खैर नहीं कहना चाहिए, उस समय वह चालीस के पेटे में रहा होगाबीवी-बच्चोंवाला। ताड़-सा कद। बेहद गलत अंग्रेजी बोलता था, काला, बदसूरत बिलकुल चिड़ीमार की शक्ल, होशो-हवाश ठीक-ठाक।
खुशवक्त इस बार दिल्ली से गया तो फिर कभी वापस न आया क्योंकि अब मैं फारूक की पत्नी बन चुकी थी।
फारूक के साथ अब मैं उसकी मंगेतर की हैसियत से बांकायदा दिल्ली की ऊंची सोसायटी में शामिल हो गयी। *ों में तो चार शादियां तक उचित हैं, इसलिए कोई बहुत बड़ी बात न थी, अर्थात धर्म की दृष्टि से कि वह अपनी अनपढ़, अधेड़ उम्र की पर्दे की पत्नी के होते हुए एक पढ़ी-लिखी लड़की से शादी करना चाहता था, जो चार आदमियों में ढंग से बैठ सके और फिर धनिक वर्ग में सब कुछ उचित है। यह तो हमारे मध्यवर्गीय समाज के ही नियम हैं कि यह न करो, वह न करो। लम्बी छुट्टियों के दिनों में फारूक ने भी मुझे खूब सैर करायीकलकत्ता, लखनऊ, अजमेरकौन-सी जगह थी जो मैंने उसके साथ न देखी। उसने मुझे हीरे-जवाहरात के गहनों से लाद दिया। अब्बा को लिख भेजती थी कि यूनिवर्सिटी के विद्यार्थियों के साथ 'टूर' पर जा रही हूं या अमुक स्थान पर साइंस कान्फ्रेन्स में भाग लेने के लिए मुझे बुलाया गया है, लेकिन साथ-ही-साथ मुझे अपनी शिक्षा का रिकार्ड ऊंचा रखने की धुन थी। फाइनल परीक्षा में मैंने बहुत ही खराब पर्चे किये और परीक्षाएं समाप्त होते ही घर चली गयी।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.