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कहानीकार
#17
मैं घर से बाहर निकला, आकाश में बादलों का डेरा ज्यों का त्यों बना था, पर अब मुझमें शिकारी की फितरत जाग गई। मैं तेजी से, भरपूर मकसद से चला मानो मैं स्टॉक मार्केट में पैसा लगाने जा रहा हूँ, मैंने एक चक्कर लिया और इस तरह की कवायद की कि साढ़े तीन मिनट में मैं ब्यूटी के मकान के सामने से निकला। मैं दस कदम और बढ़ा, फिर इस तरह सोचा मानो मैं कुछ भूल गया हूँ, जैसे कुंठा में मैंने अपना माथा पीटा, मुड़ा (इतने वक्त और जतन में मैंने देख लिया था कि गली एकदम निर्जन है) और तेजी से चला और फिर बिना एक कदम गलत उठाए, मैं मकान के मुख्य दरवाजे से घुप अंधकार में दाखिल हो गया : यह एक लक्ष्मणरेखा पार करने या एक भिन्न समय क्षेत्र में घुसने की तरह था।

जिन चीजों के बारे में तुम निरंतर, पूरी ग्रस्तता से सोचते हो, उन्हें पूरी तरह भूल भी जाते हो (अनेक मायनों में यह सबक वही है जो निम्न उक्ति में निहित है : जो हाथ देता है वही चोट भी पहुँचाता है)

एकदम, मैं समझ गया कि अँधेरे के परभक्षी के रूप में मैं निरा नौसिखिया था। घुप अंधकार में, दिशा और संतुलन का मेरा अहसास खत्म हो गया। एक अंधे चमगादड़ की तरह मैं दीवार और रेलिंग से टकरा रहा था और किसी तरह काँपते पैरों से मैंने सीढ़ियाँ चढ़ीं। मैं रुका जहाँ मैंने सोचा दरवाजा है। तनावजदा, मैं आगे खिसका, मेरा हाथ सामने बढ़ा था, पता नहीं दरवाजा धकेलने के लिए, घंटी बजाने के लिए या थप्पड़ से बचाव के लिए। पर तभी एक मंद परफ्यूम की पैनी गमक मैंने महसूस की, मेरी बढ़ी हथेली एक भरपूर वक्ष पर समा गई, उसे वहाँ एक दूसरी तप्त हथेली ने थाम लिया और एक अन्य हाथ ने मुझे भीतर खींच लिया। दरवाजा बंद हो गया और पलायन की एकमात्र संभावना खत्म हो गई।

ऐसा कुछ नहीं हुआ था जिसकी मैंने कल्पना की थी या जिसका खाका मैंने दिमाग में खींचा था। सुबुद्ध अज्ञान के उस पल में भी मैंने पहचाना कि जो घट रहा है वह एक असंभव स्वप्न है। मैं एक चौड़े से गलियारे में खड़ा या कहें, बँधा था और मेरी भयभीत आँखों के सामने स्याह पनियों की रेखाएँ थीं - पत्तियाँ गमलों में रोपित पौधों की थीं पर मुझे किसी बेहद सुंदर और डरावने जंगल का आभास हो रहा था।

एक धुँधलके से में, पर एक तीखी अनुभूति के साथ, मुझे धड़कते दिल, पसीने और साँसों का आभास हुआ, और काँपते शरीरों का : मेरा और एक औरत का जिसे मैंने ब्यूटी माना। इस मान्यता के पीछे तर्क और विवेक का वह अभ्यास था जिसकी जड़ें दो शताब्दी से ज्यादा पुरानी थीं : रोजमर्रा की असंगत, बे सिर पैर की जिंदगी के खतरों पर वैज्ञानिक सोच का प्रयोग और प्रभाव...।

मेरी खुली हथेली उसी वक्ष पर थी जो धड़क रहा था। बीच में जैसे मकड़ियों की लरजिश कैद हो गई थी, बचने को सरसरा रही थी। मेरी हथेली के ऊपर उसकी हथेली थी, उसके दबाव में कोई संदेह नहीं था। मुझे यह इंतजाम एक यंत्र की तरह लगा : एक जोड़ की जुगत की तरह - एक कील जैसे गहराई में ठोंक दी गई थी। मेरे मस्तिष्क ने धीरे धीरे उस औरत को ब्यूटी का दर्जा और नाम दे दिया। कपड़े हमारे लरजते शरीर के बीच थे, उसके वस्त्र ने मुझे अंतरंगता की सांत्वना दी। वह नाइटी थी : नाइटी जो मुझे उस पेन से ज्यादा प्रिय और अपनी लगती थी जिसे मैं सोते हुए भी अपनी पॉकेट में रखता था।

शरीर से, वक्ष और उसकी तपन से ज्यादा, नाइटी का अपनापन और सुख था जिसने मुझमें जान फूँकी और मेरी इंद्रियाँ और चाहतें फिर से बलवती हो गईं।

ब्यूटी विसंगत थी और अपनी ऊपरी निश्चलता के नीचे बाढ़ में बलखाती नदी की तरह। गलियारे में उन कुछ क्षणों के कुंडलित अचरज में, गलियारा जो आवभगत और सम्मान्य परिचय का वाजिब स्थान है, ब्यूटी ने एक हजार जतन किए : वह एक जंतु थी, रेंगता साँप, मलमली पशु, बाघिन, एक चालता, हिरनी; वह कतर रही थी, काट रही थी; खरोंच रही थी चूसती, पीती वह फुफकार रही थी; वह खोद रही थी, लाँघ रही थी; वह जल रही थी, लहू की रेखाएँ उसने खींची।

मात्र एक शरीर से दिव्य कामनाएँ संक्रमित करने की तड़पन में, ब्यूटी ने अपनी जलती देह को मेरे चारों ओर लपेट दिया, वह हठात छटपटा रही थी, और मैं निस्सहाय सा पिघल रहा था, मेरे चारों ओर ज्वालाएँ धधक रही थी। पर यह सब अधूरा साबित हो रहा था।

ब्यूटी ने शायद याद किया कैसे यदाकदा वह अपने बच्चे को डाँटती थी : हर चीज के लिए एक उपयुक्त जगह और समय होता है। जो जतन लेट कर किया जाता है उसे खड़े रह कर संपन्न करने की कोशिश असंभव नहीं तो दुष्कर और नागवार है। दोनों स्थितियों में रक्तचाप में काफी फरक आता है।

इस तरह, मुझे एक अबूझ जकड़न में बाँधे, उसने मुझे अपने शरीर के कई हिस्सों से कैद कर लिया और मुझे खींचने लगी जिसके लिए उसके पास खाली एक छोटी उँगली बची थी। मैं उसी बेडरूम में खिंचता हुआ पहुँचा जिसकी मैंने तीन महीने तक निगरानी की थी।

इस बीच मैं कई तरह के विरोधी भावों का हलक बन गया था : यंत्रणा और मुक्ति; उम्मीद और नैराश्य; अकल्पित आनंद और गहरा संताप...।

और उसके बाद शयनकक्ष में वही हुआ जिसके लिए वास्तुकारों ने उसका आविष्कार किया था। यह अपरिहार्य था, असाध्य और अपूरणीय। पूरे एक घंटा और ग्यारह मिनट, मैंने अपनी घड़ी देखी थी जब मैं उस घर के बाहर गली में उतरा जो चमत्कार की तरह वैसी ही थी जैसी एक घंटे ग्यारह मिनट पहले या कल या परसों। हमने, बल्कि ब्यूटी ने सबसे व्यापक, तल्लीन और संपूर्ण प्यार रचा, जो किसी इंसान के लिए संभव था। और यह बात मैं कई कई वर्षों के जिए, भोगे, देखे और कल्पित तजुर्बे के आधार पर कह रहा हूँ।

पर मैं यह भी जोड़ना जरूरी समझता हूँ, इसमें उदासी भी है और ब्यूटी की धधकती ईमानदारी और चरित्र की मजबूती के प्रति आदरपूर्ण अचरज भी कि मैं ब्यूटी को इसके बाद भी पहचान नहीं सकता अगर वह मेरे बगल से निकले या अपना चेहरा एकदम मेरे निकट ले आए, पर अगर वह नाइटी पहनती है और कुछ या कितनी भी छतों की दूरी पर है तो मैं उसे कहीं भी, किसी भी वक्त बेशक पहचान सकता हूँ।

जब मैं पीछे देखता हूँ, इस वाकए की याद करता हूँ तो समझ नहीं पाता उसका शुक्रिया अदा करूँ या उसका मर्डर।

जैसे ही मैं बेडरूम में गिरता पड़ता दाखिल हुआ, मुझे लगा मेरे अस्तित्व का एक जरूरी हिस्सा मुझसे अलैदा हो गया है और वह परदों की करामात देखने छत पर पहुँच गया है। जो पीछे रह गया उसे मैं जानता जरूर हूँ पर उसका बोध पूरा नहीं।

भीतर अँधेरा था और सर्द, और बिस्तर पर पड़ी रजाई के अनेकानेक सुर्ख रंग थे। हम एक शब्द भी दूसरे से न बोले न बोल सके, और हर बार जब मैंने उसे चूमने, सोखने या निगलने के लिए मुँह खोला, ब्यूटी ने सर्वप्रथम हर बार मेरे होठों पर अपनी उँगली सटा दी, मानो बतला रही है कि प्यार, जिद या नाजों नखरे की हर आजमाइश में हजारों खतरे हैं।

वह अथक थी और प्रफुल्ल; भारी और पंख सी हल्की; कील की तरह कठोर और पारे की तरह मुलायम और फिसलती। वह मुझ पर घूम रही थी और पिघल रही थी, चाँदी और वाष्प में नहाई। ऊपर की रजाई ने अभेद्य अँधेरा बना दिया था और स्पर्श की असंख्य विविधता ही हमारी अकेली भाषा और मुक्ति थी। अंतहीन आवेग की क्रियाओं में ब्यूटी ने मेरी चेतना से अपने शरीर का हर गुण और विवरण निष्काषित कर दिया और मुझे पूर्ण समर्पण का उपहार दिया जिसमें स्मरण की कोई गुंजाइश नहीं थी।

हमारा समागम, और गीला उत्कर्ष एक साथ, संपूर्ण और अद्वितीय था। अगर कुछ शेष बचा भी तो ब्यूटी ने उसे सोख लिया। इस तरह पश्चात के कुछ गिनती के, कीमती लम्हों में, मेरे लौटने के पहले, मैं एक नवजात शिशु की तरह नंगा, अकेला और निस्सहाय था! यह सब बेशकीमती था और बेहद उदास।

मुझे लगता है कामसूत्रों में वह भी कमोबेश नौसिखिया थी। आतंक की परछाईं उस पर भी फैली थी, ऐसे उन सब लोगों की तरह जो बिना प्रयोजन या गंतव्य के यात्रा पर निकल पड़ते हैं। उसकी हर गति और प्रयास के पीछे एक सौ बार का अभ्यास था और संपूर्णता इससे पैदा हुई... जैसे ओलंपिक गोताखोर जिनकी बरसों की मेहनत यदाकदा दस अंक की परफेक्ट डाइव बनाती है। उसे आभास नहीं था कि वह एक संगीत का स्कोर लिख रही थी, स्वर बजा रही थी जिनका कोई सानी नहीं था, जिनकी पुनरावृत्ति असंभव थी। इसलिए, आखिर में, वह भी उतनी ही अकेली और परित्यक्त थी जितना मैं।

पर उसके लिए यह सिर्फ न दोहरा पाने का अभाव था, पर मेरे लिए एक स्वप्न प्यार की कच्ची चिंता में दफन हो रहा था।

जब मैंने उसके इशारे पर चलते हुए उसके पैर की उँगलियों से नाइटी का सिरा खींचा और उसे ऊपर खींचता, उठाता चला गया जब तक वह उसके माथे के ऊपर से और बालों में उलझते हुए पूरी तरह उतर नहीं गई, मैं आत्मविभोर था। मेरी इंद्रियाँ जल रहीं थीं और मेरा दिल इस काज की अनंतता पर मर मिट रहा था, चूँकि मैं जान रहा था कि देह के ऐसे खजाने का अन्वेषण असंभव है।

इसी वजह से मैं उस तैलचित्र को तत्काल समझ सका जिसे मैंने कई बरसों बाद एक कला प्रदर्शनी में देखा था : एक आदमी एक नंगी लेटी औरत के बगल में बैठा बिलख रहा था। वह मृत नहीं थी, सो रही थी और आदमी रो रहा था क्योंकि उसके पास इस प्रकट सौंदर्य को जिंदगी भर की उपासना के बाद भी जज्ब करने की ताकत नहीं थी।

पर, जैसा मैंने कहा, ऐसी बातें मेरे जेहन में बाद में आईं। उस शाम ब्यूटी ने मुझे कोई राहत नहीं दी, मेरे पास मानो साँस लेने का भी वक्त नहीं था। लेकिन सच्चाई यह थी कि मैं लगभग निष्क्रिय था। उसने वह सब किया जो उसे करना था और स्पर्श और संकेतों से मुझे सिखाया, बताया कि मुझे उसके लिए क्या करना है। मैंने सिर्फ उसके संकल्प के सामने माथा टिका दिया था।

आखिर में, समापन की घड़ी आई और खामोशी में लिपटी आई। ब्यूटी मुड़ गई, उसकी पीठ मेरी ओर हो गई थी, पलों में वह सो गई। पल भर के लिए मैं उसके तिलिस्म को देखता रहा, पर तब तक मैं अजनबियत की धुंध में डूबता जा रहा था। मुझे जान ज्यादा प्यारी थी, जंगल की गंध भूलती नहीं पर जज्ब भी नहीं होती। मैं उठा और जल्दी, बेहद जल्दी कपड़े पहनने लगा। तभी मैंने देखा कि ब्यूटी की नाइटी एक गठरी सी बनी फर्श के एक कोने में पड़ी है। कोई बेफिक्र प्रेरणा रही होगी, मैंने वह वस्त्र उठाया और अपनी जींस की कमर के भीतर खोंस लिया।

मैं तुरंत बाहर चला।

उस क्षण वह अहसास नहीं था, पर यह आखिरी बार था जब मैंने ब्यूटी को देखा। मैं इसके बाद छत पर नहीं गया और न ही मैंने बरामदे की महफूजी से उसके बेडरूम की दिशा में देखा। मानो कोई बाहरी, इनसान परे की शक्ति थी, मुझसे, मेरे संकल्प और इच्छाओं से विलग, जिसने एक अभेद्य परदा गिरा दिया था। यह हमेशा का रहस्य बन गया क्या ब्यूटी ने कभी मेरा दोबारा इंतजार किया। मेरे अचानक लोप पर क्या उसने कभी गौर किया? तो मैं कभी नहीं जान सका क्या ब्यूटी भी हमारे मिलन और संबंध का ऐसा आकस्मिक, विस्फोटक अंत चाहती थी। अंत जो अजीब तरह से अधूरा और संपूर्ण था। उसकी बस मेरे पास नाइटी रह गई और वह भी अब मुझे नहीं मिलती, न जाने कहाँ चली गई, कौन ले गया, कहाँ गुम हो गई?

हालाँकि, अगर किसी ने कुछ चुराया था, पलटने की राह चुनी थी, वो मैं था, पर यह भावना मेरे भीतर बनी रही कि मेरे साथ धोखा हुआ है। भला हुआ कि कुछ दिन बाद मामा ने ई मेल से बताया वे लोग थोड़े जल्दी लौट रहे हैं और जल्दी ही मेरी जिंदगी अपनी एक अलग राह पर चल निकली, व्यवसाय, कर्म और नियति को दुनिया ने मुझे अपने सामान्य बहाव में अपना लिया।

इतने साल व्यतीत होने के बाद भी उन तीन महीने और कुछ दिनों की स्मृतियाँ धूमिल नहीं हुईं। और न ही ब्यूटी की। मुझे नहीं पता वह कहाँ है, कैसी है? वैसे भी, मैं उसे पहचान भी कहाँ सकता हूँ।

मुझे नहीं पता वह मुझे पहचान सकती है या नहीं।

मैंने अपनी कहानी के लिए जितने सैकड़ों सीनारियों इतने जतन से सोचे, बनाए थे, और उनके पीछे पूरी दुनिया के तमाम साहित्य का समर्थन था, जब अंत हुआ और जिस तरह हुआ, उसकी न मैंने कल्पना की थी और न ही उसके लिए तैयार था। जो शायद जितना नैसर्गिक और सहज था, उतना ही दुरूह हो गया था। क्या साहित्य का चश्मा इतना वीरान और अंधा हो गया था... इसमें मेरे धोखे के अहसास का रहस्य छिपा था।

अगर मैंने कथा को खोया, उससे हारा तो फिर मैंने क्या पाया या जीता?

सच्चाई यह है कि ब्यूटी मेरे लिए स्त्रीत्व का इकहरा और अकेला माप बन गई - कि स्त्री, प्रेम, वासना, संबंध और आसक्ति क्या है और मेरे लिए उसके क्या माने हैं। यह गैर मुमकिन सा है और अन्यायपूर्ण। पर जो है वो है।

एक तरह से निंदनीय मैं रहा, दंडित होने का मूल्य मैंने चुकाया। उस बुधवार की शाम ब्यूटी मुझे प्यार, दीवानगी और रतिराग के शामिल संवेगों की चरम ऊँचाइयों पर ले गई, जिसके पार या जिससे ऊँचा मैं दोबारा कभी नहीं जा सका। जिस आवेश और जुनून को मैंने उन तीन महीनों में जिया, उसका आह्वान और स्मरण तो मैं हमेशा करता रहा पर उसको कभी पुनः जी नहीं सका।

शायद इस सबमें एक पाठ है, सीख है : ऐसा होता है जब तुम कला को जिंदगी के ऊपर आँकते हो। जिंदगी कला को जन्म देती है, कला जीवन का सृजन नहीं करती...।

पर मेरा दिमाग अभी उस बुधवार पर ही है। कभी न खत्म होने वाली रात थी वो और पहली बार मैं उस घर में, जो मेरा नहीं था, छलिया महसूस कर रहा था। कुछ भी मेरा या अपना नहीं था : छत, बरामदा, लाइब्रेरी पिछले तीन महीनों का रोज का रुटीन। खतरा और आतंक था उन किताबों में जिन्हें मैंने पढ़ा था और इतने दिनों तक, इतने उल्लास से सीने से चिपटाए रखा था। वे फिल्में और संगीत के सीडी, वे सभी शब्दकोश और नोटबुकें जैसे मुझसे बिदक रहे थे। मुझे मुँह चिढ़ा रहे थे, तोहमत लगा रहे थे। देखो, तुमने हमारे साथ क्या किया, वे कह रहे थे : धोखा, ऐसा धोखा! हमने तुम्हारी कल्पनाओं की सुनहरी उड़ानों के लिए ऐसे दिलकश रथ बनाए और देखो तुमने हमें कहाँ ला कर पटक दिया, कहीं का न छोड़ा। मैंने वह सब पढ़ने की कोशिश की जो मैंने उन हफ्तों, महीनों में लिखा था। पर वे सारे शब्द खोखले थे, झूठे और धोखेबाज।

समय के गुजरने के साथ ही मैं उन वजहों की पड़ताल कर सका जिनके कारण वह वाकया इस तरह अचानक खत्म हुआ था। और क्यों ब्यूटी का मेरी जिंदगी से एकाएक निष्कासन तय था। यह सच है कि बेजोड़ रतिराग की उस चमत्कारिक शाम के बाद मैं भावशून्य और उजाड़ हो गया था मानो मैं किसी निर्जन, सूखे रेगिस्तान का बादशाह हूँ जहाँ सिर्फ वीराना है, जड़ों का नामोनिशान नहीं। यह इस तरह था जैसे मैंने किसी प्रेम के मंदिर में अनंत श्रद्धा, असीमित आस्था की मन्नत माँगी है। और ब्यूटी वह पुजारिन थी जिसने मेरे माथे के बीचोंबीच अखंड प्रेम का टीका लगा दिया। मैं साधारण जिज्ञासु, सामान्य पिपासु ही तो था। मुझे यह विश्वास करना ही पड़ा कि उस वाकए का कोई भविष्य नहीं था क्योंकि वह प्रतापी बुधवार कहानी की बुनावट में फिट नहीं हो रहा था, उसके लिए, उस चमत्कार, उस विलक्षण उत्कर्ष के लिए कहानी में न जज्बा था, न स्थान। इसलिए उन काले शब्दों ने, कथा की काली जुबान ने पलटवार किया और उस बुधवार के बाद ब्यूटी से मुझे अंतिम रूप से जुदा कर अपनी कीमत प्राप्त की।

उस गौरवपूर्ण बुधवार को गुजरे करीब बीस वर्ष हो गए। इस कहानी के बहुत से अंश बीस वर्ष तीन महीने पहले लिखे गए थे।

मैं नहीं कह सकता यह कहानी पूरी है या अधूरी, अर्थपूर्ण है या अर्थरहित। पर कहानी तुम्हारे सामने है।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 11:29 AM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 03:57 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 03:58 PM
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RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:03 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:03 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:04 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:04 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:04 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:05 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:05 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:12 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:14 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 31-01-2022, 04:55 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:15 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:15 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:16 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:16 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:17 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:18 PM
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RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:19 PM



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