03-12-2019, 04:05 PM
देखो, सीधी बात है, स्त्री अगर वस्तु मात्र है, सजाने की या उपभोग की, तो यह अच्छे साहित्य की पहचान नहीं। कुछ ही देर में, अब चूँकि जुबान खुल ही गई थी, मित्र ने आपत्तियों को झड़ी लगा दी : स्त्री पात्रों का संघर्ष, उनके सरोकार और आकांक्षाएँ नदारद हैं या बेहद सीमित; स्त्री का दृष्टिकोण, अगर है, तो आदमी के दृष्टिकोण का प्रतिबिंब मात्र, उसकी हाँ में हाँ मिलाता हुआ या उसे परिष्कृत करता हुआ; स्त्री पुरुष संबंध का चित्रण जरूरत से ज्यादा आदर्श और मोहक है; इसलिए इसमें इतिहास बोध और मौलिक विषमताओं की अनदेखी है; प्रेम का रूप अतिरेकपूर्ण, ऐंद्रिक और छायावादी है...।
तो स्त्री प्रेम न करे? मैंने कड़वाहट से कहा। मैंने भी जवाब में कुछ बातें कहीं और कोशिश की कि वाद के वाद से दूर रहूँ।
क्या स्त्री का सुंदर या ऐंद्रिक होना उसका अपमान है? क्या हर स्त्री पुरुष संबंध एकाकी नहीं होते? प्रेम का आखिर क्या विमर्श है? प्रेम के विमर्श की खूब हिमायत है, पर प्रेम और देह से गुरेज? इस पर मित्र ने मुझे काटा। प्रेम अलग विषय है, स्त्री विमर्श अलग... अगर प्रेम की ही बात करें तो उसका एक सामाजिक परिदृश्य है और एक संघर्ष का रूप भी। तुम्हारी कहानियों में प्रेम समय की परिधि से बाहर और असंपृक्त है। काल और प्रगति से उसका कोई सरोकार नहीं।
क्या है प्रेम का संघर्षशील रूप? मैंने पूछा। जो औरत को मुक्त करे, जिससे उसकी अस्मिता प्रस्फुट और प्रकाशित हो। चूँकि मैं चुप रहा और पराजित सा दिखने लगा था, मित्रा और मुखर हो उठा - औरत के लिए प्रेम त्याग है, वेदना और यातना है। एक यात्रा है शताब्दियों के अंधकार की, दमन और बेड़ियों की... प्रेम एक दुस्साहस है, संघर्ष का नाद है।
पर प्रेम प्रेम नहीं है, मैंने धीरे से कहा। इस पर मित्र जैसे किसी तंद्रा से जागा। पर उसकी आक्रामकता में कमी नहीं आई। मित्र, मेरे मित्र ने कहा, स्त्री जात का असल प्रेम असुंदर में सुंदर है, निरर्थक में अर्थवान है, हार में जीत है। घृणा में प्रेम है दोस्त और प्रेम में घृणा, उसी तरह जैसे अज्ञात में ज्ञात है और हिंसा में अहिंसा।
यह विमर्श पर विमर्श अब भारी पड़ रहा था। मैंने बमुश्किल खुद को संयत रखा और मित्र को डी.एच.लारेन्स और मिशिमा के उपन्यासों के उदाहरण दे कर कुछ अलग राह की दलीलें सामने रखीं।
मित्र ने कहा : यार तुम्हारी दिक्कत है कि अगर तुम्हारी कहानी में बलात्कार भी है तो वह भी सुंदर है। वितृष्णा के बजाय सम्मोहन पैदा होता है। मैंने कहना चाहा यह तुम्हारी नीयत का खोट है, कहानी का नहीं, पर चुप रहा।
इस देश में मित्र, मित्र ने कहा, सौ में नब्बे महिलाएँ प्यार नहीं करतीं, वे तथाकथित प्यार की मार, उसकी यातना भोगती हैं। लगता है तुम्हें इसका काफी तजुर्बा है, मेरे मुँह से निकल गया। यार, तुम निरे छायावादी हो और वही रहोगे, यह कह कर मित्र उठा और चला गया। वह कल फिर आएगा, मैंने सोचा।
मित्रा के आक्षेपों ने मुझे विकल जरूर कर दिया था। हर सामान्य और वादलिप्त आलोचना की तरह स्त्री विमर्श का जो रूप मित्र ने सामने रखा था वह सही भी था और गलत भी। यह इसलिए क्योंकि उसकी मीमांसा पूरी तरह अंतर्मुखी और स्वयं में लीन थी।
मैं प्रेम के बारे में सोचने लगा। प्रेम का मौलिक तत्व कहाँ अवस्थित है : निजता के अभेद्य रहस्य में या अमूर्त सामाजिक यथार्थ के सलेटी पटल पर। प्रेम के कितने क्रियाशील रूप हैं : प्रेम होता है, प्रेम करते हैं, निभाते हैं, निर्वाह करते हैं... प्रेम का मूल्य चुकाते हैं, उसे दम तोड़ते देखते हैं... पर क्या इसके अलावा, इससे पृथक, क्रिया से विलग भी कोई तत्व है जो प्रेम है या प्रेम की कल्पना या रूपक है... मैंने जोर से सिर हिलाया। यह दलदली जमीन थी, मैं इससे दूर रहना चाहता था... इस दौरान मेरे जेहन में जो प्रकाश कौंधा था, जो तारा या दीप टिमटिमा रहा था वह थी ब्यूटी की तस्वीर और उसकी स्मृति...।
उठते हुए मुझे एक लेखक का इंटरव्यू याद आया। उससे किसी ने पूछा कि उसकी कहानियों में प्रेम किस तरह आता है, उसके लिए प्रेम के क्या मायने हैं। भई, लेखक ने कहा, मैं ये सारी ऊँची बातें नहीं जानता। मैं तो एक शिकारी हूँ, लिहाजा प्रेम पर दविश देता हूँ, बस। वही आप पढ़ते हैं।
कहानी हर कीमत पर लिखने का फैसला तभी मैंने कर लिया था।
मुझे वह हफ्ता खूब याद है, पर यह फुफकारता अहसास भी है कि कुछ रहस्य तब भी हैं जो सदा बने रहेंगे।
दो दिन तक चमकदार धूप थी और मौसम एकाएक गर्म हो गया था। तापमान अचानक बढ़ गया था और सावधानी न बरतो तो त्वचा जलने का डर महसूस होता। शाम के वक्त मैं अपने भागने वाले जूते लेने छत पर गया जो सुबह से वहीं पड़े थे। यह अप्रत्याशित था पर ब्यूटी छत पर थी। मुझे पहले उसका आभास हुआ फिर मैंने उसे देखा। और तीन से ज्यादा महीनों में यह तीसरी बार था जब हमारी आँखें टकराईं। साफ, शांत हवा और ज्वलंत आफ्ताब - मुझे विचलित सा अहसास था कि हमारे बीच जो दूरी थी वह जितनी थी उससे बहुत कम लग रही थी। मुझे नहीं पता वह पहले से मुझे देख रही थी या अनायास हमारी नजरें मिली थीं। निगाहों के मिलन के इस गैर से यथार्थ ने मानो एक क्षण के लिए मुझे अंधा कर दिया। पर इतनी चेतना मुझमें थी कि मैं जान गया कि यह संयोग का मसला नहीं है। उसकी तरफ से यह बेहद सावधानी से उठाया गया कदम था, कदम भी नहीं, यह एक युक्ति थी।
उसी वक्त मैंने देखा उसने अपने हाथ उठाए और दोनों आँखों के आगे उँगली और अँगूठे से वृत्त बना दिए। मुझे एक धक्का या आघात सा लगा : अचानक मानो एक कठपुतली जिंदा हो गई है। ब्यूटी जो मेरे मस्तिष्क में कितनी जीवंत, धड़कती मौजूदगी थी, वह मेरे भौतिक यथार्थ के लिए पूर्णत: अजीब थी : इस अहसास में बज्र का सा प्रहार था। और अब अचानक वह जी उठी है, जो उतना ही जादुई था मानो कोई कल्पना जीवित नवयौवना का रूप ले ले। और उसने एक सीधा, विशिष्ट इशारा किया था : उसने अपने हाथ उठाए थे और यह संदेश भेजा था कि मानो उसने आँख से बायनोकुलर लगाए हैं।
और क्षण भर में ही ब्यूटी मुड़ गई थी और उसने तटस्थ भंगिमा अख्तियार कर ली, उतनी ही ठोस, उदासीन और दूर जितना चमकते आकाश में कोई तारा।
उसके इशारे में एक संदेश था। और संदेश में एक रहस्य था। यह बोध एक विस्फोट की तरह था और उसमें परोक्ष दर्शन की निश्चितता थी।
अगले दो दिनों में जो हुआ उस पर विश्वास सिर्फ इसलिए होता है क्योंकि वह सच है।
वस्तुस्थिति यह थी कि हम दोहरी बाधा के शिकार थे। पहली तो ये कि हम पूरी तरह अजनबी थे, पिछले तीन महीनों में हमारे बीच एक शब्द या संकेत नहीं था, बस तीन दफे का अनायास और निष्प्रयोज्य निगाहों का मिलना। उसके ऊपर, अगर हमें संपर्क करना भी था, तो वह पूरी राजदारी में होता जो कि आसान नहीं था; छतों पर भी हजारों नेत्र लगातार टोह में रहते थे।
फिर भी : बिना किसी तजुर्बे, तैयारी या मकसद के (मुझे रत्ती भर शक नहीं कि ब्यूटी की स्थिति वही थी जो मेरी) हमने जासूसी का ऐसा महीन जाल रचा जिसे किसी भी व्यवसायिक भेदिया किताब के प्रथम पृष्ठों पर होना चाहिए।
एक शिकारी की फितरत से मैं जान गया कि ब्यूटी के इशारे का मतलब सितारों को देखने के लिए टेलिस्कोप नहीं था, न ही वह कोई लांछन या नाराजगी से जन्मा था, वह सीधे और स्पष्ट मायने में एक निमंत्रण था : कि एक बायनोकुलर का इंतजाम करो, मेरे पास सिर्फ तुम्हारी आँखों के लिए एक संदेश है। यह निष्कर्ष निरी आस्था की वह छलाँग थी जो अच्छे से अच्छे जासूस अपनी जिंदगी में मात्र एक या दो बार सफलतापूर्वक लगाते हैं।
मैंने वह तरीका भी ईजाद कर लिया कि किस तरह मैं बायनोकुलर की मदद से संदेश पढ़ूँगा और शक की कोई गुंजाइश नहीं होगी। सो अगले दिन मेरी गर्दन से एक नया बायनोकुलर लटक रहा था जिसे मैंने पिछले दिन बाजार में ढूँढ़ निकाला और बिना किसी मोलभाव के तत्काल खरीद लिया।
इस तरह था मानो हमने पूरी कहानी, पूरी कोरियोग्राफी सूक्ष्मतम विस्तार में पहले से तय और रिहर्स कर ली थी। पहले मुझे छत पर अकेली मौजूदगी का पूरा मौका मिला ताकि छतों को तरेरती अनदेखी आँखों को मैं सिद्ध कर दूँ कि मैं एक शौकिया पक्षीविज्ञानी हूँ। मैंने आकाश में कई बार शोर करते पक्षियों के झुंड के बीच अपना उपकरण घुमाया। मैंने एक नन्हीं जेब डायरी में कुछ नोट्स भी लिए ताकि जिज्ञासा का कोई कण न बचे। बिना उस दिशा में मुड़े मैं जान गया जब ब्यूटी, मानो क्यू पर, छत पर पहुँची। उसने डोर से तुरंत सूखे कपड़े इकट्ठे किए और नीचे चली गई, आखिर घर उसका मंदिर था। सिर्फ मैं जानता था उसने एक संदेश छोड़ा है। बिना किसी इल्म के, या किसी के बताए, मुझे पता था, और इसमें भ्रम का रेशा तक नहीं था, कि संदेश का टुकड़ा सटीक किस जगह पर है। तो एक लगभग लावण्य गति में, मैंने एक प्रबुद्ध अर्द्धवृत्त पूरा किया, जब, एकदम सही फोकस पर, बायनोकुलर एक क्षण के लिए दोनों काली, ऊँची पानी की टंकियों के बीच एक सतह पर टिका जहाँ एक कागज चिपका था। लिखा था : शाम चार बजे, बुधवार।
इसके बाद ब्यूटी की बारी थी कि वह इस अतिरंजित और स्वत:सिद्ध प्रक्रम पर अपनी गति की यादगार छाप छोड़े : करीब पंद्रह मिनट बाद वह दोबारा छत पर आई। तब तक मैंने बायनोकुलर गर्दन से उतार लिया था और उसके लैंस रूमाल से साफ कर रहा था। अब ब्यूटी के हाथ में वह कागज था, लिखावट अब नजर नहीं आ रही थी। एक चेष्ठा, जो जरूरी भी थी और फिजूल भी, ब्यूटी ने कागज के चिंदे चिंदे कर दिए और फिर, यह क्षण शुद्ध अंतःप्रेरणा का था, उसने कागज की चिंदियों को मुट्ठी में बंद किया, अपना हाथ काबिले तारीफ कमनीयता से आगे बढ़ाया, आसमान की ओर उसने अपनी हथेली खोल दी और कागज की चिंदियों पर एक फूँक मार उन्हें हवा में उड़ा दिया। पंखुरियों या पंखों की तरह कागज की चिंदियाँ हवा में फरफराती हुई नीचे की गली में हल्की बर्फ की तरह गिरने लगीं और लगा जैसे कोई खामोश उत्सव मन रहा है।
मैं भावविह्वल था उसके उद्गारों में पूरी तरह गिरफ्तार। मैंने उसकी सोच सोचा : उस प्रेममय 'फ्लाइंग किस' ने मेरे संदेश पर चिरंतन सत्य की मुहर लगा दी।
बुधवार के लिए अभी एक दिन था और मुझे संदेश के बारे में तनिक भी भ्रम नहीं था : उसने बुधवार को चार बजे शाम मुझे अपने घर बुलाया था। वह अकेली होगी और मेरा इंतजार कर रही होगी।
कभी कभी मैं खुद से पूछता हूँ कि उस निमंत्रण में मैंने क्या देखा था, क्या अपेक्षा की थी? एक कप चाय और सैंडविच? कि हम वह सब कहें जो कहना चाहते हैं? एक अनिश्चित संबंध या दोस्ती की शुरुआती पेशकश? एक बड़ी बहन की सलाह और फटकार? परिवार के साथ एक मुलाकात? यह अब विश्वास करना असंभव लगता है, पर चार बजे बुधवार से पहले के चौबीस घंटों में मैंने निमंत्रण के आगे कुछ नहीं सोचा। वह संदेश और निमंत्रण मेरे लिए संपूर्ण यथार्थ था और उसने मुझे भर दिया था। अनुवर्ती सोच की गुंजाइश थी ही नहीं। एक निराश्रित क्या महसूस करेगा अगर प्रधानमंत्री उसे अपने घर आने का निमंत्रण भेज दें! मेरी स्थिति कुछ ऐसी ही थी। फिर अंतर्ज्ञान की जो छलाँगें मैंने हाल में लगाई थीं, उनसे मेरे मस्तिष्क की शक्तियाँ क्षीण पड़ गई थीं।
मंगलवार की रात मैं गहरी, अबाध नींद सोया। पहली बार दिन में, बल्कि तीन महीनों में, मैंने न पढ़ा, न सोचा, न लिखा। मैंने कोई फिल्म नहीं देखी, न गाने सुने। मैं बस खुद में था और खुद से खाली। मैं बस था।
मौसम के विपरीत, अगले दिन आकाश में घने, काले बादल थे। तेज धूप का कोई नामोनिशान नहीं। फिजा इतनी निश्चल कि बादलों का ठोस भारीपन असह्य सा लग रहा था। मैंने दिन गुजरने दिया, समय मेरे अंतस में स्वयमेव बीत रहा था। इतने दिनों में पहली बार मैं छत पर नहीं गया। न मैंने परदों की रहस्यमयता पर गौर किया। और न ही रोज के सामान्य रुटीन के अज्ञात इशारों पर मनन किया। पर पूरे दिन, प्रकाश की अकस्मात, पैनी शहतीरों की तरह, मुझे पूर्वाभास से होते रहे : स्वप्निल तस्वीरों की तरह। एक में मैं सोया था और अचानक मेरी आँख चार बजे से कुछ मिनट पहले खुली। पर मैं उठने में पूरी तरह नाकामयाब था, जैसे मुझे बिस्तर पर लकवा मार गया था। और फिर, जले पर नमक छिड़कने की तरह, घड़ी रुक गई, समय थम गया और चार बजे के क्षण भर पहले एक अभेद्य अनंतकाल छा गया। दूसरे चित्रपट में मैं एक खुली लिफ्ट में घुसा, मेरी आँखें कहीं और देख रही थीं, और तल पाने के बजाय मैं एक अनंत सुरंग में गिरता चला गया, मेरी चीख होठों के बीच मृत हो गई।
बाद के सालों में, जब मैंने एक लेखक के रूप में छोटी मोटी ख्याति बना ली थी जो कम पर अच्छा लिखता है, मैंने इन सजग स्मृतियों के साथ थोड़ा खिलवाड़ किया। मैंने दो डायरी इंद्राज किए : एक में औरत अपने भोले प्रेमी से कहती है : मैं तुम्हारी कल्पना की अप्सरा हूँ। तुम मुझे पा सकते हो पर बदले में तुम्हें अपनी कल्पनाशक्ति का बलिदान करना होगा। दूसरे इंद्राज में एक लेखक एक असंदेही नौजवान पर आरोप लगाता था कि उसने उसका उपन्यास चुरा लिया। कैसे, वह पूछता है। लेखक जवाब देता है : उसे जी कर !
मुझे काफी जद्दोजहद करनी पड़ी कि मैं घर से साढ़े तीन बजे न निकल जाऊँ और फिर ब्यूटी के घर पहुँचने में आधा घंटा लगाने की तरकीबें लड़ाने की मशक्कत करूँ। क्या पहनना है, इसका निर्णय करना एक असंभव फतह हासिल करने की तरह था। जितनी पोशाकें मेरे पास थीं, मैंने उन सबको पहन कर देखा : अकेला सूट जिसे मेरे पिता ने इंटरव्यू के लिए सिलवाया था; मेरे क्रांतिकारी वक्त के कुर्ते पाजामे; एक अजीब सी जैकिट जिसे मैंने अपने संपादक से प्रभावित हो कर सिलवाई थी - इस तरह की जैकिट वह 'नाजुक मौकों' पर पहनता था; एक निहायत सफेद सफारी सूट जिसे मैंने एक वक्त खूब गर्मजोशी से एक शादी के मौके पर पहना था और एक लड़की ने फिकरा कसा था : मैंने कभी सफेद मोर नहीं देखा था! आखिर में, जब पूरा बेडरूम कपड़ों के ढेर से भरभरा रहा था, मैं चार बजने में पाँच मिनट पर घर से निकला : मैंने बाथरूम चप्पलें पहनी थीं और वही कपड़े (एक मुसी टीशर्ट और एक पुरानी जींस जिसके सामने के बटन खुले रह गए थे, जब बाद में मुझे पता लगा मैं सकपका गया था पर ब्यूटी की खुशी का कोई ठिकाना न था) जिन्हें मैंने दिन भर पहना था।
तो स्त्री प्रेम न करे? मैंने कड़वाहट से कहा। मैंने भी जवाब में कुछ बातें कहीं और कोशिश की कि वाद के वाद से दूर रहूँ।
क्या स्त्री का सुंदर या ऐंद्रिक होना उसका अपमान है? क्या हर स्त्री पुरुष संबंध एकाकी नहीं होते? प्रेम का आखिर क्या विमर्श है? प्रेम के विमर्श की खूब हिमायत है, पर प्रेम और देह से गुरेज? इस पर मित्र ने मुझे काटा। प्रेम अलग विषय है, स्त्री विमर्श अलग... अगर प्रेम की ही बात करें तो उसका एक सामाजिक परिदृश्य है और एक संघर्ष का रूप भी। तुम्हारी कहानियों में प्रेम समय की परिधि से बाहर और असंपृक्त है। काल और प्रगति से उसका कोई सरोकार नहीं।
क्या है प्रेम का संघर्षशील रूप? मैंने पूछा। जो औरत को मुक्त करे, जिससे उसकी अस्मिता प्रस्फुट और प्रकाशित हो। चूँकि मैं चुप रहा और पराजित सा दिखने लगा था, मित्रा और मुखर हो उठा - औरत के लिए प्रेम त्याग है, वेदना और यातना है। एक यात्रा है शताब्दियों के अंधकार की, दमन और बेड़ियों की... प्रेम एक दुस्साहस है, संघर्ष का नाद है।
पर प्रेम प्रेम नहीं है, मैंने धीरे से कहा। इस पर मित्र जैसे किसी तंद्रा से जागा। पर उसकी आक्रामकता में कमी नहीं आई। मित्र, मेरे मित्र ने कहा, स्त्री जात का असल प्रेम असुंदर में सुंदर है, निरर्थक में अर्थवान है, हार में जीत है। घृणा में प्रेम है दोस्त और प्रेम में घृणा, उसी तरह जैसे अज्ञात में ज्ञात है और हिंसा में अहिंसा।
यह विमर्श पर विमर्श अब भारी पड़ रहा था। मैंने बमुश्किल खुद को संयत रखा और मित्र को डी.एच.लारेन्स और मिशिमा के उपन्यासों के उदाहरण दे कर कुछ अलग राह की दलीलें सामने रखीं।
मित्र ने कहा : यार तुम्हारी दिक्कत है कि अगर तुम्हारी कहानी में बलात्कार भी है तो वह भी सुंदर है। वितृष्णा के बजाय सम्मोहन पैदा होता है। मैंने कहना चाहा यह तुम्हारी नीयत का खोट है, कहानी का नहीं, पर चुप रहा।
इस देश में मित्र, मित्र ने कहा, सौ में नब्बे महिलाएँ प्यार नहीं करतीं, वे तथाकथित प्यार की मार, उसकी यातना भोगती हैं। लगता है तुम्हें इसका काफी तजुर्बा है, मेरे मुँह से निकल गया। यार, तुम निरे छायावादी हो और वही रहोगे, यह कह कर मित्र उठा और चला गया। वह कल फिर आएगा, मैंने सोचा।
मित्रा के आक्षेपों ने मुझे विकल जरूर कर दिया था। हर सामान्य और वादलिप्त आलोचना की तरह स्त्री विमर्श का जो रूप मित्र ने सामने रखा था वह सही भी था और गलत भी। यह इसलिए क्योंकि उसकी मीमांसा पूरी तरह अंतर्मुखी और स्वयं में लीन थी।
मैं प्रेम के बारे में सोचने लगा। प्रेम का मौलिक तत्व कहाँ अवस्थित है : निजता के अभेद्य रहस्य में या अमूर्त सामाजिक यथार्थ के सलेटी पटल पर। प्रेम के कितने क्रियाशील रूप हैं : प्रेम होता है, प्रेम करते हैं, निभाते हैं, निर्वाह करते हैं... प्रेम का मूल्य चुकाते हैं, उसे दम तोड़ते देखते हैं... पर क्या इसके अलावा, इससे पृथक, क्रिया से विलग भी कोई तत्व है जो प्रेम है या प्रेम की कल्पना या रूपक है... मैंने जोर से सिर हिलाया। यह दलदली जमीन थी, मैं इससे दूर रहना चाहता था... इस दौरान मेरे जेहन में जो प्रकाश कौंधा था, जो तारा या दीप टिमटिमा रहा था वह थी ब्यूटी की तस्वीर और उसकी स्मृति...।
उठते हुए मुझे एक लेखक का इंटरव्यू याद आया। उससे किसी ने पूछा कि उसकी कहानियों में प्रेम किस तरह आता है, उसके लिए प्रेम के क्या मायने हैं। भई, लेखक ने कहा, मैं ये सारी ऊँची बातें नहीं जानता। मैं तो एक शिकारी हूँ, लिहाजा प्रेम पर दविश देता हूँ, बस। वही आप पढ़ते हैं।
कहानी हर कीमत पर लिखने का फैसला तभी मैंने कर लिया था।
मुझे वह हफ्ता खूब याद है, पर यह फुफकारता अहसास भी है कि कुछ रहस्य तब भी हैं जो सदा बने रहेंगे।
दो दिन तक चमकदार धूप थी और मौसम एकाएक गर्म हो गया था। तापमान अचानक बढ़ गया था और सावधानी न बरतो तो त्वचा जलने का डर महसूस होता। शाम के वक्त मैं अपने भागने वाले जूते लेने छत पर गया जो सुबह से वहीं पड़े थे। यह अप्रत्याशित था पर ब्यूटी छत पर थी। मुझे पहले उसका आभास हुआ फिर मैंने उसे देखा। और तीन से ज्यादा महीनों में यह तीसरी बार था जब हमारी आँखें टकराईं। साफ, शांत हवा और ज्वलंत आफ्ताब - मुझे विचलित सा अहसास था कि हमारे बीच जो दूरी थी वह जितनी थी उससे बहुत कम लग रही थी। मुझे नहीं पता वह पहले से मुझे देख रही थी या अनायास हमारी नजरें मिली थीं। निगाहों के मिलन के इस गैर से यथार्थ ने मानो एक क्षण के लिए मुझे अंधा कर दिया। पर इतनी चेतना मुझमें थी कि मैं जान गया कि यह संयोग का मसला नहीं है। उसकी तरफ से यह बेहद सावधानी से उठाया गया कदम था, कदम भी नहीं, यह एक युक्ति थी।
उसी वक्त मैंने देखा उसने अपने हाथ उठाए और दोनों आँखों के आगे उँगली और अँगूठे से वृत्त बना दिए। मुझे एक धक्का या आघात सा लगा : अचानक मानो एक कठपुतली जिंदा हो गई है। ब्यूटी जो मेरे मस्तिष्क में कितनी जीवंत, धड़कती मौजूदगी थी, वह मेरे भौतिक यथार्थ के लिए पूर्णत: अजीब थी : इस अहसास में बज्र का सा प्रहार था। और अब अचानक वह जी उठी है, जो उतना ही जादुई था मानो कोई कल्पना जीवित नवयौवना का रूप ले ले। और उसने एक सीधा, विशिष्ट इशारा किया था : उसने अपने हाथ उठाए थे और यह संदेश भेजा था कि मानो उसने आँख से बायनोकुलर लगाए हैं।
और क्षण भर में ही ब्यूटी मुड़ गई थी और उसने तटस्थ भंगिमा अख्तियार कर ली, उतनी ही ठोस, उदासीन और दूर जितना चमकते आकाश में कोई तारा।
उसके इशारे में एक संदेश था। और संदेश में एक रहस्य था। यह बोध एक विस्फोट की तरह था और उसमें परोक्ष दर्शन की निश्चितता थी।
अगले दो दिनों में जो हुआ उस पर विश्वास सिर्फ इसलिए होता है क्योंकि वह सच है।
वस्तुस्थिति यह थी कि हम दोहरी बाधा के शिकार थे। पहली तो ये कि हम पूरी तरह अजनबी थे, पिछले तीन महीनों में हमारे बीच एक शब्द या संकेत नहीं था, बस तीन दफे का अनायास और निष्प्रयोज्य निगाहों का मिलना। उसके ऊपर, अगर हमें संपर्क करना भी था, तो वह पूरी राजदारी में होता जो कि आसान नहीं था; छतों पर भी हजारों नेत्र लगातार टोह में रहते थे।
फिर भी : बिना किसी तजुर्बे, तैयारी या मकसद के (मुझे रत्ती भर शक नहीं कि ब्यूटी की स्थिति वही थी जो मेरी) हमने जासूसी का ऐसा महीन जाल रचा जिसे किसी भी व्यवसायिक भेदिया किताब के प्रथम पृष्ठों पर होना चाहिए।
एक शिकारी की फितरत से मैं जान गया कि ब्यूटी के इशारे का मतलब सितारों को देखने के लिए टेलिस्कोप नहीं था, न ही वह कोई लांछन या नाराजगी से जन्मा था, वह सीधे और स्पष्ट मायने में एक निमंत्रण था : कि एक बायनोकुलर का इंतजाम करो, मेरे पास सिर्फ तुम्हारी आँखों के लिए एक संदेश है। यह निष्कर्ष निरी आस्था की वह छलाँग थी जो अच्छे से अच्छे जासूस अपनी जिंदगी में मात्र एक या दो बार सफलतापूर्वक लगाते हैं।
मैंने वह तरीका भी ईजाद कर लिया कि किस तरह मैं बायनोकुलर की मदद से संदेश पढ़ूँगा और शक की कोई गुंजाइश नहीं होगी। सो अगले दिन मेरी गर्दन से एक नया बायनोकुलर लटक रहा था जिसे मैंने पिछले दिन बाजार में ढूँढ़ निकाला और बिना किसी मोलभाव के तत्काल खरीद लिया।
इस तरह था मानो हमने पूरी कहानी, पूरी कोरियोग्राफी सूक्ष्मतम विस्तार में पहले से तय और रिहर्स कर ली थी। पहले मुझे छत पर अकेली मौजूदगी का पूरा मौका मिला ताकि छतों को तरेरती अनदेखी आँखों को मैं सिद्ध कर दूँ कि मैं एक शौकिया पक्षीविज्ञानी हूँ। मैंने आकाश में कई बार शोर करते पक्षियों के झुंड के बीच अपना उपकरण घुमाया। मैंने एक नन्हीं जेब डायरी में कुछ नोट्स भी लिए ताकि जिज्ञासा का कोई कण न बचे। बिना उस दिशा में मुड़े मैं जान गया जब ब्यूटी, मानो क्यू पर, छत पर पहुँची। उसने डोर से तुरंत सूखे कपड़े इकट्ठे किए और नीचे चली गई, आखिर घर उसका मंदिर था। सिर्फ मैं जानता था उसने एक संदेश छोड़ा है। बिना किसी इल्म के, या किसी के बताए, मुझे पता था, और इसमें भ्रम का रेशा तक नहीं था, कि संदेश का टुकड़ा सटीक किस जगह पर है। तो एक लगभग लावण्य गति में, मैंने एक प्रबुद्ध अर्द्धवृत्त पूरा किया, जब, एकदम सही फोकस पर, बायनोकुलर एक क्षण के लिए दोनों काली, ऊँची पानी की टंकियों के बीच एक सतह पर टिका जहाँ एक कागज चिपका था। लिखा था : शाम चार बजे, बुधवार।
इसके बाद ब्यूटी की बारी थी कि वह इस अतिरंजित और स्वत:सिद्ध प्रक्रम पर अपनी गति की यादगार छाप छोड़े : करीब पंद्रह मिनट बाद वह दोबारा छत पर आई। तब तक मैंने बायनोकुलर गर्दन से उतार लिया था और उसके लैंस रूमाल से साफ कर रहा था। अब ब्यूटी के हाथ में वह कागज था, लिखावट अब नजर नहीं आ रही थी। एक चेष्ठा, जो जरूरी भी थी और फिजूल भी, ब्यूटी ने कागज के चिंदे चिंदे कर दिए और फिर, यह क्षण शुद्ध अंतःप्रेरणा का था, उसने कागज की चिंदियों को मुट्ठी में बंद किया, अपना हाथ काबिले तारीफ कमनीयता से आगे बढ़ाया, आसमान की ओर उसने अपनी हथेली खोल दी और कागज की चिंदियों पर एक फूँक मार उन्हें हवा में उड़ा दिया। पंखुरियों या पंखों की तरह कागज की चिंदियाँ हवा में फरफराती हुई नीचे की गली में हल्की बर्फ की तरह गिरने लगीं और लगा जैसे कोई खामोश उत्सव मन रहा है।
मैं भावविह्वल था उसके उद्गारों में पूरी तरह गिरफ्तार। मैंने उसकी सोच सोचा : उस प्रेममय 'फ्लाइंग किस' ने मेरे संदेश पर चिरंतन सत्य की मुहर लगा दी।
बुधवार के लिए अभी एक दिन था और मुझे संदेश के बारे में तनिक भी भ्रम नहीं था : उसने बुधवार को चार बजे शाम मुझे अपने घर बुलाया था। वह अकेली होगी और मेरा इंतजार कर रही होगी।
कभी कभी मैं खुद से पूछता हूँ कि उस निमंत्रण में मैंने क्या देखा था, क्या अपेक्षा की थी? एक कप चाय और सैंडविच? कि हम वह सब कहें जो कहना चाहते हैं? एक अनिश्चित संबंध या दोस्ती की शुरुआती पेशकश? एक बड़ी बहन की सलाह और फटकार? परिवार के साथ एक मुलाकात? यह अब विश्वास करना असंभव लगता है, पर चार बजे बुधवार से पहले के चौबीस घंटों में मैंने निमंत्रण के आगे कुछ नहीं सोचा। वह संदेश और निमंत्रण मेरे लिए संपूर्ण यथार्थ था और उसने मुझे भर दिया था। अनुवर्ती सोच की गुंजाइश थी ही नहीं। एक निराश्रित क्या महसूस करेगा अगर प्रधानमंत्री उसे अपने घर आने का निमंत्रण भेज दें! मेरी स्थिति कुछ ऐसी ही थी। फिर अंतर्ज्ञान की जो छलाँगें मैंने हाल में लगाई थीं, उनसे मेरे मस्तिष्क की शक्तियाँ क्षीण पड़ गई थीं।
मंगलवार की रात मैं गहरी, अबाध नींद सोया। पहली बार दिन में, बल्कि तीन महीनों में, मैंने न पढ़ा, न सोचा, न लिखा। मैंने कोई फिल्म नहीं देखी, न गाने सुने। मैं बस खुद में था और खुद से खाली। मैं बस था।
मौसम के विपरीत, अगले दिन आकाश में घने, काले बादल थे। तेज धूप का कोई नामोनिशान नहीं। फिजा इतनी निश्चल कि बादलों का ठोस भारीपन असह्य सा लग रहा था। मैंने दिन गुजरने दिया, समय मेरे अंतस में स्वयमेव बीत रहा था। इतने दिनों में पहली बार मैं छत पर नहीं गया। न मैंने परदों की रहस्यमयता पर गौर किया। और न ही रोज के सामान्य रुटीन के अज्ञात इशारों पर मनन किया। पर पूरे दिन, प्रकाश की अकस्मात, पैनी शहतीरों की तरह, मुझे पूर्वाभास से होते रहे : स्वप्निल तस्वीरों की तरह। एक में मैं सोया था और अचानक मेरी आँख चार बजे से कुछ मिनट पहले खुली। पर मैं उठने में पूरी तरह नाकामयाब था, जैसे मुझे बिस्तर पर लकवा मार गया था। और फिर, जले पर नमक छिड़कने की तरह, घड़ी रुक गई, समय थम गया और चार बजे के क्षण भर पहले एक अभेद्य अनंतकाल छा गया। दूसरे चित्रपट में मैं एक खुली लिफ्ट में घुसा, मेरी आँखें कहीं और देख रही थीं, और तल पाने के बजाय मैं एक अनंत सुरंग में गिरता चला गया, मेरी चीख होठों के बीच मृत हो गई।
बाद के सालों में, जब मैंने एक लेखक के रूप में छोटी मोटी ख्याति बना ली थी जो कम पर अच्छा लिखता है, मैंने इन सजग स्मृतियों के साथ थोड़ा खिलवाड़ किया। मैंने दो डायरी इंद्राज किए : एक में औरत अपने भोले प्रेमी से कहती है : मैं तुम्हारी कल्पना की अप्सरा हूँ। तुम मुझे पा सकते हो पर बदले में तुम्हें अपनी कल्पनाशक्ति का बलिदान करना होगा। दूसरे इंद्राज में एक लेखक एक असंदेही नौजवान पर आरोप लगाता था कि उसने उसका उपन्यास चुरा लिया। कैसे, वह पूछता है। लेखक जवाब देता है : उसे जी कर !
मुझे काफी जद्दोजहद करनी पड़ी कि मैं घर से साढ़े तीन बजे न निकल जाऊँ और फिर ब्यूटी के घर पहुँचने में आधा घंटा लगाने की तरकीबें लड़ाने की मशक्कत करूँ। क्या पहनना है, इसका निर्णय करना एक असंभव फतह हासिल करने की तरह था। जितनी पोशाकें मेरे पास थीं, मैंने उन सबको पहन कर देखा : अकेला सूट जिसे मेरे पिता ने इंटरव्यू के लिए सिलवाया था; मेरे क्रांतिकारी वक्त के कुर्ते पाजामे; एक अजीब सी जैकिट जिसे मैंने अपने संपादक से प्रभावित हो कर सिलवाई थी - इस तरह की जैकिट वह 'नाजुक मौकों' पर पहनता था; एक निहायत सफेद सफारी सूट जिसे मैंने एक वक्त खूब गर्मजोशी से एक शादी के मौके पर पहना था और एक लड़की ने फिकरा कसा था : मैंने कभी सफेद मोर नहीं देखा था! आखिर में, जब पूरा बेडरूम कपड़ों के ढेर से भरभरा रहा था, मैं चार बजने में पाँच मिनट पर घर से निकला : मैंने बाथरूम चप्पलें पहनी थीं और वही कपड़े (एक मुसी टीशर्ट और एक पुरानी जींस जिसके सामने के बटन खुले रह गए थे, जब बाद में मुझे पता लगा मैं सकपका गया था पर ब्यूटी की खुशी का कोई ठिकाना न था) जिन्हें मैंने दिन भर पहना था।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.