03-12-2019, 04:04 PM
अब जो उन स्मृतियों को याद करता हूँ, ऐसे शब्द : सितम, सनम, खफा, फिजा, फना, रुसवा... जो गीतों के अलावा कहीं सुनाई नहीं देते, तो नए पुराने गीत आपस में इस तरह गड्मड् हो गए हैं कि बीसवीं शताब्दी के बहुत से गाने भी मैं ब्यूटी से जोड़ देता हूँ :
जरा सी दिल में दे जगह तू
जरा सा अपना ले बना
जरा सा ख्वाबों में सजा तू
जरा सा यादों में बसा
मैं चाहूँ तुझको मेरी जाँ बेपनाह
फिदा हूँ तुझपे मेरी जाँ बेपनाह
प्रेम या कल्पित प्रेम एकमात्र वह अवस्था है जो कला के हर सिद्धांत को ठेंगा दिखाती है!
इन क्रियाओं में कोई जोर जबरदस्ती नहीं थी, बस कभी कभी लगता मानो मैं कोई पुरातन, संदिग्ध खजाना तलाश रहा हूँ; इस सब में मेरी अवस्था कुछ ऐसी थी जिसे स्टेनढाल ने इन शब्दों में वर्णित किया है : मुझे निरंतर यह डर सताता है कि जब मैंने सोचा मैं कोई चिरंतन सत्य कह रहा हूँ, मैंने शायद सिर्फ एक आह भरी होगी!
बरसों बाद जब मैं इस 'संक्षिप्त मिलन' का हास्य रूप भी देखने में कामयाब हुआ, मुझे लगा उन दिनों मेरी सूरत, सीरत और गतियाँ एक हाल की गर्भवती औरत की तरह थीं : गर्भ की जानकारी सिर्फ ब्यूटी को थी और वह इस राज से मुदित थी... मेरे लिए गर्भधारण एक गलत अलार्म था और एक सही निदान। वस्तुगत और सूखे तार्किक दिमागों के लिए वह मिथ्या थी पर प्रेम में डूबी आँखों के लिए वह सत्य से ज्यादा सच थी।
एक के बाद एक दिन लुढ़कते गए, सिर्फ एक दिन की स्मृति विडंबनाओं से भरी छाप छोड़ गई। वह अकेला दृष्टांत था जब मैंने ब्यूटी को नाइटी में नहीं देखा (कुछ ठंडी सुबहें थीं जब ब्यूटी ने फिरन भी पहना था, पर डिजाइन और गिरावट में वह नाइटी से भिन्न नहीं था)... एक रात की बात है जब मैं अचानक छत पर जा पहुँचा। एक भव्य, सुर्ख, लाल, जरीदार साड़ी में वहाँ ब्यूटी थी, हाथ में चूड़ियाँ और ऐसी भंगिमा जिससे लगा वह गहनों से लदी है : गहने जो नजर नहीं आ रहे थे पर जिनका भारीपन उसके चपल कदमों में गुँथा था। छत की कतारों के पीछे, क्षितिज से थोड़ा ऊपर, पर इतना पास कि हाथ बढ़ा कर उसे छू सको, ऐसा पूरा, गुलाबी चाँद नीले, निश्चल आकाश में टँगा था। अब ब्यूटी की पीठ मेरी ओर थी और हम दोनों की नजरें बेदाग, बे आहट महताब के इकलौते, सिफर बिंदु पर एकमुश्त, एक साथ टिकी थीं।... चौदहवीं का चाँद हो या आफताब हो, जो भी हो तुम खुदा की कसम लाजवाब हो - ये लाइनें देर रात मेरे जेहन में घूमीं। सीमेंट की मुँडेर पर एक थाली थी जिसमें एक नन्हा दीप टिमटिमा रहा था। ब्यूटी का एक हाथ आकाश में उठा और उस हाथ में एक छलनी थी जो चाँदी की तरह चमक रही थी। धड़कते दिल से, अपने कस्बे की धुँधली यादों के मध्य, मैं जान गया यह करवाचौथ का दिन है। कुछ ही क्षणों में हम इस तरह थे कि एक स्वर्गिक दिग्भेद के साथ, हम छलनी के छेदों से चाँद को एक साथ देख रहे थे और चाँद की नजरों में, इसके अलावा सब निरर्थक ही था, हम साथ साथ थे, गाल से सटे गाल... और फिर पीछे मेरी परछाईं के स्पष्ट अहसास के साथ ब्यूटी ने थाली की चीजें अपने सिर के ऊपर से पीछे फेंकी और मेरी निगाह एक अकेली पंखुरी पर बँध गई जो बेहद धीमे से, एक लय में आबद्ध, छत से नीचे गिर रही थी और कुछ देर में गली की निर्जन खामोशी में गुम हो गई। हाथ की अंजुलि बना कर, जिसमें कोई पंखुरी नहीं गिरी थी, मैं सीढ़ियों से उतरता हुआ अपने कमरे में आ गया, मेरे जेहन में जो भावनाएँ थीं उनका कोई नाम मेरे पास नहीं था।
अगले कुछ दिनों में मुझे ऐसा प्रतीत होने लगा कि मैं ब्यूटी को निगाह और इंद्रियों से कम जज्ब कर रहा हूँ और उसके बारे में संश्लिष्ट रूप से ज्यादा सोच रहा हूँ। सीधे और सरल शब्दों में, मेरा ध्यान उसके शरीर से आत्मा की ओर जा रहा था। इस बदलाव का एक और पहलू भी था : विशिष्ट (और एकल) से सामान्य (और बहु) की ओर शिफ्ट। तात्कालिक ऐंद्रिक सुख और फिर उनकी स्मृतियाँ धीरे धीरे कमतर और धुँधली होती गईं और आखिर में यह अनुभव मानो एक अमूर्त जीवंतता हो गया। शरीर की प्रतिरोधी और खलबल रेखाएँ, वक्षों की हेठी, देह की भेदभरी तरंगें, जाँघों, नितंबों के दीर्घ और लंबित संदेश, कमर की दम तोड़ती आहें... ये सब इत्तलाएँ, तप्त साँसों के गोपन अँधेरे मानो एक प्रकीर्ण और फुटकर कड़ाहे में गड्मड् हो गए और सारी दिलचस्पी धीरे धीरे इस कड़ाही के आकार और गुणों पर केंद्रित हो गई।
ऐसा नहीं था कि मेरी सनक या मेरे प्यार या आवेश के रहस्यमय लक्षणों में कमी आ गई थी। इतना ही था कि रूप और अभिव्यक्ति बदल गए थे। देह और मांसलता, उनके अभीपने और सम्मोहन ठंडे और गैर प्रासंगिक होने लगे और मेरा ध्यान उस तरफ मुड़ने लगा जो संबंधित था पर फरक भी। शरीर मानो निस्सार हो गया और ब्यूटी एक अशरीरी जुगनू बन गई।... शुरू में बस शरीर पाने की सरल सी लालसा थी, पर अब मैंने पैमाना ऊँचा किया और शरीर की जगह वह पाने की तमन्ना की जो अप्राप्त है, जिसके कई नाम हैं, जो घंटियों के स्वर और लोबान की सुगंध से जुड़ा है, पर जिसकी कोई एकाकी पहचान नहीं।
यह सिलसिला और आगे बढ़ा। मेरी दहकती चाहतें अब आत्मा और निराकार की खूबसूरती से सौंदर्य के ख्याल और प्रेम के ख्याल पर जा टिकीं। शुद्ध, पोटली में कैद ख्याल! मैं समानांतर आईनों के एक गलियारे में जा घुसा था और तत्काल अनंत परावर्तन की नामुमकिनी का शिकार बन गया : इश्क के ख्याल का ख्याल और खूबसूरती की बुनियाद की बुनियाद। अनजाने ही मैं एक अधि स्थिति में पहुँच गया था और जिन प्रकारों में मैं विचरण कर रहा था वे अधि प्रेम और अधि सौंदर्य सरीखे थे।
इसके अनसोचे नतीजे तत्काल और व्यवहारिक थे। इससे पहले प्यार की 'दुर्घटना' घटित हो, तबाही हो गई और मेरा दाखिला ऐसे अस्पताल में हो गया जहाँ रोगी प्रेमोन्माद के बाण से पीड़ित थे, सफल या असफल। मैंने प्रेम की हर दशा को अपने ऊपर लागू किया : एक तरफ सदा का दुखांत और दूसरी तरफ हमेशा की कॉमेडी और बीच में कहीं प्यार का मधुर गीत। मेरे कल्पना के घोड़ों ने उन सभी फिल्मों की जुगाली की जिन्हें मैं देख रहा था; किताबें जो मैं पढ़ रहा था। एक दिन मैं राजकपूर था जिसके हाथ में मरते हुए राजेंद्र कुमार ने वैजयंती माला का हाथ थमा दिया; किसी और दिन मैं गुरुदत्त की पीड़ा वहन कर रहा था जो वहीदा रहमान की अपराजेय खूबसूरती को छोड़ अपनी निदेशक की जंग लगी कुर्सी में मृत्यु पाने चला गया। देवदास के अनेक संस्करण उतने ही परिचित और नजदीक थे जितना दू्रवाले बेडरूम की खड़खड़ाती खिड़कियाँ : सबसे ज्यादा दिलीप कुमार की देवदास, त्रासदी का बादशाह। मैंने न जाने कितनी बार मृत्यु और पुनर्जन्म के बारे में सोचते हुए मेरी पसंदीदा फिल्मी हीरोइनों के लिए कुर्बानी दी : हेमामालिनी, सिमी गरेवाल, रेखा, मुमताज... पर उससे भी ज्यादा मजा था मोटर साइकिल चलाते हुए पहाड़ी से उफनती नदी में छलाँग : जैसे डिंपल कपाड़िया और रिशी कपूर ने बॉबी में किया था (क्या यह स्मृति सही थी, फिल्म बॉबी थी या कोई और?)
मैंने गुसांई की पीड़ा वहन की ज्यों वह अपनी जिंदगी की साँझ में आटे के सफेद, उड़ते कणों को देखता रहता। अपने मस्तिष्क के घटवार में मैंने उदास, अकेली ओट में ब्यूटी को देखा, बरसों बाद, जिंदगी की क्रूरता ने उसे पीस दिया था, और हालाँकि मैं खूब चाहता था वह मेरी छाती की परछाईं में आराम करे, हम अपरिचित से अपने अपने रास्ते को जाने के लिए बाध्य थे।
पर आखिर एक अकेले खूँटे पर कितना बोझ लादा जा सकता है चाहे वह प्रेम के सीमेंट से क्यों न मजबूत हो? नाउम्मीदी की गुफा या जन्नत की सैर कभी अंतहीन नहीं होती। अगर मुझे इसका अहसास नहीं भी था, दादी नानी की ये उक्तियाँ इस भेंट पर भी पत्थर की लकीर की तरह लागू थीं : हमारी लीला या याराना जिसे तीन महीने पूरे हो गए थे और चौथा शुरू हो रहा था।
अंत तो आना ही था और वह आया। मुझे नहीं ज्ञान कि यह अंत इस अफेयर की त्वचा में पहले से सिला था या नहीं। पर ज्यादा अनोखा यह था कि मेरी अतिरेकपूर्ण और अलौकिक कल्पना के बावजूद भी, जिस तरह इस वाकए का पटाक्षेप हुआ, उसकी मैंने कभी अपेक्षा नहीं की थी। अपनी भावनाओं के ज्वर और नशे के अधीन, मैंने न जाने कितने सीनारियो बुने थे कि परदा कैसे गिरेगा : सर्वाधिक भयावंत और नीरस से ले कर बेहद जादुई और गौरवशाली। वास्तविक अंत न केवल इस कल्पनालोक से विलग था, उसने एक अलग राह बनाई और नतीजे नितांत आश्चर्यजनक और अनपेक्षित थे।
समय के साथ, लेकिन, अंत के बारे में मैंने अपना नजरिया बदला।
अभिनव वह नहीं था जो असल में घटा। बल्कि आश्चर्य प्रकट को अनदेखा करने का था। वह कैसी अजीब दशा थी कि मैं नतीजे की संभावना से आखिर तक मुकरा रहा। यह गलती इतनी मूल और प्रमुख थी कि आज भी मैं लज्जित महसूस करता हूँ।
ईमानदारी की नापतोल से कहूँ तो आखिर में जो हुआ वह मेरी आकांक्षाओं से कहीं ज्यादा था। पर इन मामलों में नापतोल एक स्थूल और बेढब तरीका है। एक सम्मोहक सपने और एक यातनामय दुःस्वप्न का अजब संयोग था वो। मैं तैरता हुआ किनारे आ गया था पर फिर भी यह अहसास सर्वोपरि था कि मैं गहरे समुद्र की घनी लताओं में उलझा हूँ। मैं भरपूर था और अभागा, आगोश की संपूर्णता में तिरस्कार की कतरनें थीं। यह सब एक साथ हुआ, एक जो प्रहार भी था मुलायम स्पर्श भी, एक साथ का आदानप्रदान, जिसने मुझे पूरा किया और एक गहरा खालीपन छोड़ दिया।
उस निर्णायक, शानदार, रहस्यमय हते में मानो मेरा दोबारा जन्म हुआ। कुछ मायनों में वह निर्दोषता का समापन था और नवजीवित सयानेपन की शुरुआत। वैसी शुद्ध और सृजनात्मक निष्व्यिता, शून्य से कुछ सृजन करने का खुशनुमा जादू, ऐसा वक्त मेरी जिंदगी में फिर नहीं आया।
यह कहानी कभी न लिखी जाती, और वे पन्ने जिन्हें मैंने मामा के मकान में तब लिखा था (आज मामा, मामी दोनों नहीं हैं, मकान बिक गया, ढह गया, अब सुनता हूँ, वहाँ एक नया फ्लोर हाउस है; कालांतर में मामा का मेरे प्रति अनुराग इतना हो गया था कि उन्होंने अपनी लाइब्रेरी मेरे नाम लिख दी, वे सारी किताबें मुझे सामने दीख रही हैं) वे भी चूहों के ग्रास बन गई होतीं, अगर मेरा एक मित्र पिछले साल गणतंत्र दिवस के दूसरे दिन मेरे घर न आया होता। मित्र मुझसे उम्र में एक साल बड़ा है और कद में एक इंच छोटा : कद मतलब भौतिक कद। साहित्य हमारी दोस्ती की खुराक थी पर हम दोनों ही अपने कथाकार कद को एक दूसरे के समक्ष आँकने में अचकचाते थे क्योंकि वह बंजर नहीं तो ऊबड़खाबड़ जमीन है, न जाने कौन कब रपट जाए। वैसे भी, अब जब हम मिलते हैं तो हमारी बातें अक्सर शरीर के अनेकानेक दर्दों पर बार बार लौटती हैं। हम उम्र की उस दहलीज पर पहुँच गए हैं जब शरीर में हल्का मगर अनावश्यक चिंता पैदा करने वाला दर्द एक स्वतंत्र सत्ता हासिल कर लेता है। वह स्वच्छंद तरीके से शरीर के अलग अलग अंगों पर बेवजह और बेतरतीब घात लगाता है, रोग की समस्या कभी निश्चित आकार नहीं लेती पर परछाईं की तरह हमारे जेहन में डोलती रहती है...। पर उस दिन मेरा मित्र अलग तेवर में था।
यार, तुम्हारी कहानियों से मुझे एक बेसिक शिकायत है, मित्र बोला। क्या? मैंने पूछा। उनमें स्त्री विमर्श नहीं है। मित्र जब बोलता है तो पहले उसके मुँह से घरघराहट की आवाज निकलती है। पर मैंने कभी टोका नहीं क्योंकि मुझे नहीं पता मेरा अपना स्वर कितना साफ है। मेरा छोटा बेटा तो रोज कहता है कि मैं खाते हुए बहुत आवाज करता हूँ...।
स्त्री विमर्श? उसी तरह जैसे दलित विमर्श या जाति विमर्श? मैंने कहा। यार अब तुम दाएँ बाएँ कर रहे हो। मैंने दाएँ बाएँ देखा। पर स्त्री तो है, मैंने प्रतिवाद किया। उससे क्या होता है, स्त्री एक चीज है, स्त्री विमर्श दूसरी। मैं गुमशुदा सा हो गया। बहुत दिनों बाद मित्र ने मेरी कहानियों, या कहें मेरी कला साधना पर सीधे अटैक किया था। आलोचना के जगत में मैं हमेशा कमजोर और अंत में निरुत्तर होता था, इधर तो इस तरह की सोच में मैं जंग खा गया था।
जरा सी दिल में दे जगह तू
जरा सा अपना ले बना
जरा सा ख्वाबों में सजा तू
जरा सा यादों में बसा
मैं चाहूँ तुझको मेरी जाँ बेपनाह
फिदा हूँ तुझपे मेरी जाँ बेपनाह
प्रेम या कल्पित प्रेम एकमात्र वह अवस्था है जो कला के हर सिद्धांत को ठेंगा दिखाती है!
इन क्रियाओं में कोई जोर जबरदस्ती नहीं थी, बस कभी कभी लगता मानो मैं कोई पुरातन, संदिग्ध खजाना तलाश रहा हूँ; इस सब में मेरी अवस्था कुछ ऐसी थी जिसे स्टेनढाल ने इन शब्दों में वर्णित किया है : मुझे निरंतर यह डर सताता है कि जब मैंने सोचा मैं कोई चिरंतन सत्य कह रहा हूँ, मैंने शायद सिर्फ एक आह भरी होगी!
बरसों बाद जब मैं इस 'संक्षिप्त मिलन' का हास्य रूप भी देखने में कामयाब हुआ, मुझे लगा उन दिनों मेरी सूरत, सीरत और गतियाँ एक हाल की गर्भवती औरत की तरह थीं : गर्भ की जानकारी सिर्फ ब्यूटी को थी और वह इस राज से मुदित थी... मेरे लिए गर्भधारण एक गलत अलार्म था और एक सही निदान। वस्तुगत और सूखे तार्किक दिमागों के लिए वह मिथ्या थी पर प्रेम में डूबी आँखों के लिए वह सत्य से ज्यादा सच थी।
एक के बाद एक दिन लुढ़कते गए, सिर्फ एक दिन की स्मृति विडंबनाओं से भरी छाप छोड़ गई। वह अकेला दृष्टांत था जब मैंने ब्यूटी को नाइटी में नहीं देखा (कुछ ठंडी सुबहें थीं जब ब्यूटी ने फिरन भी पहना था, पर डिजाइन और गिरावट में वह नाइटी से भिन्न नहीं था)... एक रात की बात है जब मैं अचानक छत पर जा पहुँचा। एक भव्य, सुर्ख, लाल, जरीदार साड़ी में वहाँ ब्यूटी थी, हाथ में चूड़ियाँ और ऐसी भंगिमा जिससे लगा वह गहनों से लदी है : गहने जो नजर नहीं आ रहे थे पर जिनका भारीपन उसके चपल कदमों में गुँथा था। छत की कतारों के पीछे, क्षितिज से थोड़ा ऊपर, पर इतना पास कि हाथ बढ़ा कर उसे छू सको, ऐसा पूरा, गुलाबी चाँद नीले, निश्चल आकाश में टँगा था। अब ब्यूटी की पीठ मेरी ओर थी और हम दोनों की नजरें बेदाग, बे आहट महताब के इकलौते, सिफर बिंदु पर एकमुश्त, एक साथ टिकी थीं।... चौदहवीं का चाँद हो या आफताब हो, जो भी हो तुम खुदा की कसम लाजवाब हो - ये लाइनें देर रात मेरे जेहन में घूमीं। सीमेंट की मुँडेर पर एक थाली थी जिसमें एक नन्हा दीप टिमटिमा रहा था। ब्यूटी का एक हाथ आकाश में उठा और उस हाथ में एक छलनी थी जो चाँदी की तरह चमक रही थी। धड़कते दिल से, अपने कस्बे की धुँधली यादों के मध्य, मैं जान गया यह करवाचौथ का दिन है। कुछ ही क्षणों में हम इस तरह थे कि एक स्वर्गिक दिग्भेद के साथ, हम छलनी के छेदों से चाँद को एक साथ देख रहे थे और चाँद की नजरों में, इसके अलावा सब निरर्थक ही था, हम साथ साथ थे, गाल से सटे गाल... और फिर पीछे मेरी परछाईं के स्पष्ट अहसास के साथ ब्यूटी ने थाली की चीजें अपने सिर के ऊपर से पीछे फेंकी और मेरी निगाह एक अकेली पंखुरी पर बँध गई जो बेहद धीमे से, एक लय में आबद्ध, छत से नीचे गिर रही थी और कुछ देर में गली की निर्जन खामोशी में गुम हो गई। हाथ की अंजुलि बना कर, जिसमें कोई पंखुरी नहीं गिरी थी, मैं सीढ़ियों से उतरता हुआ अपने कमरे में आ गया, मेरे जेहन में जो भावनाएँ थीं उनका कोई नाम मेरे पास नहीं था।
अगले कुछ दिनों में मुझे ऐसा प्रतीत होने लगा कि मैं ब्यूटी को निगाह और इंद्रियों से कम जज्ब कर रहा हूँ और उसके बारे में संश्लिष्ट रूप से ज्यादा सोच रहा हूँ। सीधे और सरल शब्दों में, मेरा ध्यान उसके शरीर से आत्मा की ओर जा रहा था। इस बदलाव का एक और पहलू भी था : विशिष्ट (और एकल) से सामान्य (और बहु) की ओर शिफ्ट। तात्कालिक ऐंद्रिक सुख और फिर उनकी स्मृतियाँ धीरे धीरे कमतर और धुँधली होती गईं और आखिर में यह अनुभव मानो एक अमूर्त जीवंतता हो गया। शरीर की प्रतिरोधी और खलबल रेखाएँ, वक्षों की हेठी, देह की भेदभरी तरंगें, जाँघों, नितंबों के दीर्घ और लंबित संदेश, कमर की दम तोड़ती आहें... ये सब इत्तलाएँ, तप्त साँसों के गोपन अँधेरे मानो एक प्रकीर्ण और फुटकर कड़ाहे में गड्मड् हो गए और सारी दिलचस्पी धीरे धीरे इस कड़ाही के आकार और गुणों पर केंद्रित हो गई।
ऐसा नहीं था कि मेरी सनक या मेरे प्यार या आवेश के रहस्यमय लक्षणों में कमी आ गई थी। इतना ही था कि रूप और अभिव्यक्ति बदल गए थे। देह और मांसलता, उनके अभीपने और सम्मोहन ठंडे और गैर प्रासंगिक होने लगे और मेरा ध्यान उस तरफ मुड़ने लगा जो संबंधित था पर फरक भी। शरीर मानो निस्सार हो गया और ब्यूटी एक अशरीरी जुगनू बन गई।... शुरू में बस शरीर पाने की सरल सी लालसा थी, पर अब मैंने पैमाना ऊँचा किया और शरीर की जगह वह पाने की तमन्ना की जो अप्राप्त है, जिसके कई नाम हैं, जो घंटियों के स्वर और लोबान की सुगंध से जुड़ा है, पर जिसकी कोई एकाकी पहचान नहीं।
यह सिलसिला और आगे बढ़ा। मेरी दहकती चाहतें अब आत्मा और निराकार की खूबसूरती से सौंदर्य के ख्याल और प्रेम के ख्याल पर जा टिकीं। शुद्ध, पोटली में कैद ख्याल! मैं समानांतर आईनों के एक गलियारे में जा घुसा था और तत्काल अनंत परावर्तन की नामुमकिनी का शिकार बन गया : इश्क के ख्याल का ख्याल और खूबसूरती की बुनियाद की बुनियाद। अनजाने ही मैं एक अधि स्थिति में पहुँच गया था और जिन प्रकारों में मैं विचरण कर रहा था वे अधि प्रेम और अधि सौंदर्य सरीखे थे।
इसके अनसोचे नतीजे तत्काल और व्यवहारिक थे। इससे पहले प्यार की 'दुर्घटना' घटित हो, तबाही हो गई और मेरा दाखिला ऐसे अस्पताल में हो गया जहाँ रोगी प्रेमोन्माद के बाण से पीड़ित थे, सफल या असफल। मैंने प्रेम की हर दशा को अपने ऊपर लागू किया : एक तरफ सदा का दुखांत और दूसरी तरफ हमेशा की कॉमेडी और बीच में कहीं प्यार का मधुर गीत। मेरे कल्पना के घोड़ों ने उन सभी फिल्मों की जुगाली की जिन्हें मैं देख रहा था; किताबें जो मैं पढ़ रहा था। एक दिन मैं राजकपूर था जिसके हाथ में मरते हुए राजेंद्र कुमार ने वैजयंती माला का हाथ थमा दिया; किसी और दिन मैं गुरुदत्त की पीड़ा वहन कर रहा था जो वहीदा रहमान की अपराजेय खूबसूरती को छोड़ अपनी निदेशक की जंग लगी कुर्सी में मृत्यु पाने चला गया। देवदास के अनेक संस्करण उतने ही परिचित और नजदीक थे जितना दू्रवाले बेडरूम की खड़खड़ाती खिड़कियाँ : सबसे ज्यादा दिलीप कुमार की देवदास, त्रासदी का बादशाह। मैंने न जाने कितनी बार मृत्यु और पुनर्जन्म के बारे में सोचते हुए मेरी पसंदीदा फिल्मी हीरोइनों के लिए कुर्बानी दी : हेमामालिनी, सिमी गरेवाल, रेखा, मुमताज... पर उससे भी ज्यादा मजा था मोटर साइकिल चलाते हुए पहाड़ी से उफनती नदी में छलाँग : जैसे डिंपल कपाड़िया और रिशी कपूर ने बॉबी में किया था (क्या यह स्मृति सही थी, फिल्म बॉबी थी या कोई और?)
मैंने गुसांई की पीड़ा वहन की ज्यों वह अपनी जिंदगी की साँझ में आटे के सफेद, उड़ते कणों को देखता रहता। अपने मस्तिष्क के घटवार में मैंने उदास, अकेली ओट में ब्यूटी को देखा, बरसों बाद, जिंदगी की क्रूरता ने उसे पीस दिया था, और हालाँकि मैं खूब चाहता था वह मेरी छाती की परछाईं में आराम करे, हम अपरिचित से अपने अपने रास्ते को जाने के लिए बाध्य थे।
पर आखिर एक अकेले खूँटे पर कितना बोझ लादा जा सकता है चाहे वह प्रेम के सीमेंट से क्यों न मजबूत हो? नाउम्मीदी की गुफा या जन्नत की सैर कभी अंतहीन नहीं होती। अगर मुझे इसका अहसास नहीं भी था, दादी नानी की ये उक्तियाँ इस भेंट पर भी पत्थर की लकीर की तरह लागू थीं : हमारी लीला या याराना जिसे तीन महीने पूरे हो गए थे और चौथा शुरू हो रहा था।
अंत तो आना ही था और वह आया। मुझे नहीं ज्ञान कि यह अंत इस अफेयर की त्वचा में पहले से सिला था या नहीं। पर ज्यादा अनोखा यह था कि मेरी अतिरेकपूर्ण और अलौकिक कल्पना के बावजूद भी, जिस तरह इस वाकए का पटाक्षेप हुआ, उसकी मैंने कभी अपेक्षा नहीं की थी। अपनी भावनाओं के ज्वर और नशे के अधीन, मैंने न जाने कितने सीनारियो बुने थे कि परदा कैसे गिरेगा : सर्वाधिक भयावंत और नीरस से ले कर बेहद जादुई और गौरवशाली। वास्तविक अंत न केवल इस कल्पनालोक से विलग था, उसने एक अलग राह बनाई और नतीजे नितांत आश्चर्यजनक और अनपेक्षित थे।
समय के साथ, लेकिन, अंत के बारे में मैंने अपना नजरिया बदला।
अभिनव वह नहीं था जो असल में घटा। बल्कि आश्चर्य प्रकट को अनदेखा करने का था। वह कैसी अजीब दशा थी कि मैं नतीजे की संभावना से आखिर तक मुकरा रहा। यह गलती इतनी मूल और प्रमुख थी कि आज भी मैं लज्जित महसूस करता हूँ।
ईमानदारी की नापतोल से कहूँ तो आखिर में जो हुआ वह मेरी आकांक्षाओं से कहीं ज्यादा था। पर इन मामलों में नापतोल एक स्थूल और बेढब तरीका है। एक सम्मोहक सपने और एक यातनामय दुःस्वप्न का अजब संयोग था वो। मैं तैरता हुआ किनारे आ गया था पर फिर भी यह अहसास सर्वोपरि था कि मैं गहरे समुद्र की घनी लताओं में उलझा हूँ। मैं भरपूर था और अभागा, आगोश की संपूर्णता में तिरस्कार की कतरनें थीं। यह सब एक साथ हुआ, एक जो प्रहार भी था मुलायम स्पर्श भी, एक साथ का आदानप्रदान, जिसने मुझे पूरा किया और एक गहरा खालीपन छोड़ दिया।
उस निर्णायक, शानदार, रहस्यमय हते में मानो मेरा दोबारा जन्म हुआ। कुछ मायनों में वह निर्दोषता का समापन था और नवजीवित सयानेपन की शुरुआत। वैसी शुद्ध और सृजनात्मक निष्व्यिता, शून्य से कुछ सृजन करने का खुशनुमा जादू, ऐसा वक्त मेरी जिंदगी में फिर नहीं आया।
यह कहानी कभी न लिखी जाती, और वे पन्ने जिन्हें मैंने मामा के मकान में तब लिखा था (आज मामा, मामी दोनों नहीं हैं, मकान बिक गया, ढह गया, अब सुनता हूँ, वहाँ एक नया फ्लोर हाउस है; कालांतर में मामा का मेरे प्रति अनुराग इतना हो गया था कि उन्होंने अपनी लाइब्रेरी मेरे नाम लिख दी, वे सारी किताबें मुझे सामने दीख रही हैं) वे भी चूहों के ग्रास बन गई होतीं, अगर मेरा एक मित्र पिछले साल गणतंत्र दिवस के दूसरे दिन मेरे घर न आया होता। मित्र मुझसे उम्र में एक साल बड़ा है और कद में एक इंच छोटा : कद मतलब भौतिक कद। साहित्य हमारी दोस्ती की खुराक थी पर हम दोनों ही अपने कथाकार कद को एक दूसरे के समक्ष आँकने में अचकचाते थे क्योंकि वह बंजर नहीं तो ऊबड़खाबड़ जमीन है, न जाने कौन कब रपट जाए। वैसे भी, अब जब हम मिलते हैं तो हमारी बातें अक्सर शरीर के अनेकानेक दर्दों पर बार बार लौटती हैं। हम उम्र की उस दहलीज पर पहुँच गए हैं जब शरीर में हल्का मगर अनावश्यक चिंता पैदा करने वाला दर्द एक स्वतंत्र सत्ता हासिल कर लेता है। वह स्वच्छंद तरीके से शरीर के अलग अलग अंगों पर बेवजह और बेतरतीब घात लगाता है, रोग की समस्या कभी निश्चित आकार नहीं लेती पर परछाईं की तरह हमारे जेहन में डोलती रहती है...। पर उस दिन मेरा मित्र अलग तेवर में था।
यार, तुम्हारी कहानियों से मुझे एक बेसिक शिकायत है, मित्र बोला। क्या? मैंने पूछा। उनमें स्त्री विमर्श नहीं है। मित्र जब बोलता है तो पहले उसके मुँह से घरघराहट की आवाज निकलती है। पर मैंने कभी टोका नहीं क्योंकि मुझे नहीं पता मेरा अपना स्वर कितना साफ है। मेरा छोटा बेटा तो रोज कहता है कि मैं खाते हुए बहुत आवाज करता हूँ...।
स्त्री विमर्श? उसी तरह जैसे दलित विमर्श या जाति विमर्श? मैंने कहा। यार अब तुम दाएँ बाएँ कर रहे हो। मैंने दाएँ बाएँ देखा। पर स्त्री तो है, मैंने प्रतिवाद किया। उससे क्या होता है, स्त्री एक चीज है, स्त्री विमर्श दूसरी। मैं गुमशुदा सा हो गया। बहुत दिनों बाद मित्र ने मेरी कहानियों, या कहें मेरी कला साधना पर सीधे अटैक किया था। आलोचना के जगत में मैं हमेशा कमजोर और अंत में निरुत्तर होता था, इधर तो इस तरह की सोच में मैं जंग खा गया था।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.