03-12-2019, 04:04 PM
मेरे पास अपने कस्बाई अखबार का कॉपी इडिटर होने का सवा चार साल का तजुर्बा था : अखबार कहने को दैनिक था पर सप्ताह में दो या तीन बार ही बमुश्किल निकल पाता था। संपादकीय और लेख अक्सर दूसरी जानीमानी मैगजीन या अखबारों के कॉपी होते या भद्दे अनुवाद। और मेरा काम था इस बुद्धिमान गोबर की इडिटिंग, जिसका असल में अर्थ था शुद्धिकरण। इस तरह मैं गंभीर लेखन की परिभाषा से दो स्तर दूर था। हाँ, यह जरूर है कि मेरा संपादक गुणी और बुद्धिमान था, पर अखबारी हुनर में जोकर। मैं ईमानदारी से यह कह सकता हूँ कि इससे पहले मैंने दो कहानियाँ लिखी थीं। पर उन्हें किसी प्रकाशक या साहित्य संपादक के पास भेजने की मुझमें हिम्मत नहीं थी। पर खोटे स्तर की आशंका वजह नहीं थी। अपने लिखे को आँकने के पैमाने मेरे पास नहीं थे। मेरी शंका की वजह दूसरी थी : मेरी कृतियों के पीछे कथाकार बनने का ख्वाब था ही नहीं; वे साधन थे या माध्यम जिनके जरिए मैं अपनी त्रासद स्थितियों (मेरी नजर में) और खराब तकदीर पर लांछन दे रहा था, अपना रोना रो रहा था। यह अंदाजा लगाना कठिन नहीं कि पहली कृति एक बेटे का अपने बाप के प्रति विरोध और विलाप था। पिता का स्वभाव और चरित्र एकदम काले रंग में था और पुत्र में सुर्खाब के पर लगे थे। कथानक मेरे अपने जवानी के संघर्षों की कुटिल हेराफेरी थी। कहानी पढ़ने का अहसास इस तरह था मानो कोई ट्रेन भयावह सीटी बजाती हुई हादसे के मुँह में जा रही थी। दूसरी कहानी 'मैं' के फॉरमेट में लिखी गई थी : एक जवान लड़की का, जो विज्ञान में ठीकठाक स्नातक है, अपनी लियाकत और बुद्धि के लायक नौकरी पाने की अथक कोशिश - यह कहानी एक रोचक, या कहना चाहिए मौलिक, तरीके से लिखी गई थी। लड़के का पिता एक हलवाई पहले और बाद में केटरर है (मतलब नाममात्र का केटरर) लड़का हर संभावित नियोक्ता से अपने परिवार की असलियत और पुश्तैनी काम छिपाता है। कई असफलताओं के बाद लड़के ने एक झूठी विरासत तक ईजाद की और कहा कि उसके बाबा इलाके में पहले केमिस्ट्री के ग्रेजुएट थे... पर हर जगह हार, फिर एक दिन एक नियोक्ता न जाने किस मूड में कहता है कि वह अच्छे केटरर की कमी से बेहद परेशान है, उसे अपनी कई कंपनियों के लिए एक जिम्मेदार और उम्दा केटरर की तलाश है, खास तौर से अगर उसे मिठाइयाँ बनाने की भी तमीज है (नियोक्ता अपने हाथों के लच्छेदार इशारों से गुलाबजामुन, रसमलाई और कलाकंद जैसी मिठाइयाँ दर्शा रहा था, मानो अभी जादू से वे उसके हाथ में होंगी) तब लड़के से रहा न गया और उसने हलवाई, शेफ और केटरर के रूप में अपनी अच्छाइयाँ गिनाईं और विरासत खोल कर रख दी... इस तरह, आखिर में, लड़के ने वही काम लिया जो उसका बाप उसे हाथ में लेने के लिए शुरू से जिद कर रहा था।
जब मैंने ये दो कहानियाँ लिखी थीं तो लेखक होने का कोई विचार मेरे मन में दूर दूर तक नहीं था। सो इस बार क्या अलग है? मेरे भीतर या बाहरी दुनिया में आखिर क्या बदल गया? यह लेखन तो और भी आत्मकथात्मक था। इस कहानी का 'मैं' तो पूरी तरह मैं ही था और अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य को पूरी तरह गड्डमड्ड कर दिया था। पर सवाल पूछे जाने से पहले ही उत्तर मुझे पता था : फरक ब्यूटी थी और उसका बाध्यकारी, सम्मोहक यथार्थ।
ब्यूटी ने मुझे आजादी का अहसास कराया और कहानी में और अपनी संकीर्ण, बोझिल जिंदगी में उम्मीद जगाई। यह ऐसा था मानो ढेर सी नन्हीं खिड़कियाँ और दरवाजे मेरे लिए खुल गए हैं जो अब तक बंद थे या वर्जित थे। सुयोग और अच्छे अवसरों के कल्पनाशील संसार में मैं किसी से कम नहीं था। क्योंकि ब्यूटी मेरे साथ थी। वह मेरे साथ थी, मेरे भीतर और बाहर; ऊपर, पीछे, मध्य में, नीचे : जैसे मेरी अपनी साँस या परछाईं। वुदरिंग हाइट्स से अभिभूत, मैं यह भी कह सकता हूँ कि ब्यूटी मैं थी और मैं ब्यूटी। उसने मेरे चारों ओर अपराजेयता की अदृश्य चादर डाल दी। उसका चित्र था जो मेरी गर्दन में लिपटा था, मेरे दिल में था। मुझे लगता जैसे मेरे हाथ में ब्यूटी का हाथ बँधा है और रिश्ते की इस हामी में वह सब है और होगा जिसकी मुझे आकांक्षा और तलाश है।
तो क्या, मेरी जुबान तालु से चिपक रही है, ब्यूटी मेरी मूज मेरी कला उपासना है? मेरी खुशी, मेरी सदाबहार तकदीर? हाँ, मैं खुद से फुसफुसाया। और उन क्षणों में मैंने यह माना कि ब्यूटी मेरा प्यार है।
एक और महीना गुजर रहा था और मेरी मनोदशा कह रही थी कि मेरी चाहतें मेरे संग हैं। मुझे ज्यादा की लालसा नहीं थी और ज्यादा मेरे पास खुदबखुद था।
ब्यूटी का नाम जानने का लालच अचानक एक दिन मेरे दिल में पैने शहतीर की तरह उठा। जैसे मुझे याद है, एक ठंडी, ओस बूँद सुबह थी और मैं जॉगिंग का आखिरी राउंड खत्म कर रहा था। सड़क और पार्क सैर करनेवालों से अटे थे (मेरे ख्याल से शनिवार का दिन था) कई एक लड़कियाँ और औरतें मेहनत से चुने ड्रेस और ट्रैक सूट में दौड़ रही थीं। उनमें से एक, उसने एक लंबी शर्ट और स्लैक्स पहने थे और बाल खुले थे, मेरे बगल में लगभग छूती हुई आगे निकली। एकदम से मेरा उसे पुकारने का मन किया, कि उसके कुछ कहूँ। बाद में, घर लौटते हुए मैंने सोचा कि अगर मैं हिम्मत जुटा भी लेता तो बुलाता कैसे? मैं तो उसका नाम भी नहीं जानता था। तब मानो एक बज्र सा गिरा। मैं ब्यूटी के नाम से भी नावाकिफ था। उसका नाम जानने और पुकारने का ख्याल मिनटों में सनक बन गया। आखिर नाम ही है जो शताब्दियों के अंतराल और सभ्यताओं की दूरियाँ लाँघते हुए इनसान की इनसान से पहचान बनाता है।
बहुत जल्दी मैं समझ गया कि यह जतन इतना आसान नहीं है। मैं किसी से पूछने की गलती नहीं कर सकता था, चाहे जितना घुमाफिरा कर सवाल करूँ। छत से इतना पता चलता था कि ब्यूटी का घर एक गली छोड़ कर है और अगर मंडी की साइड से मुड़ते हैं तो दाईं तरफ चौथा या पाँचवाँ मकान होगा। कुछ दिन मैं पूरी तरह इस जद्दोजहद में रम गया। मैंने कई तरह की खरीदारी की जिसके लिए मुझे गली से गुजरने की वाजिब वजह मिली। रास्ते में कई जगह रुक कर, कई बार मैंने लोगों से जानकारी पूछी : दुकानदार जिनका बिजनेस नगण्य था पर अफवाहबाजी के लिए लंबी जीभ और नाक; वृद्ध और बूढ़ी औरतें जो सीढ़ियों पर बैठी दिखतीं या सड़क के किनारे यूँ ही मन बहलाते हुए खड़ी । मैंने इलाके की टोपोग्राफी और दुकानों का खास अध्ययन किया ताकि मेरे सवाल अटपटे न लगें और मैं मोहल्ले का बाशिंदा ही लगूँ। मैंने इस दौरान पोस्ट ऑफिस, ड्राई क्लीनर, दर्जी, मोबाइल रिेपेयर और एक्सिस बैंक के एटीएम का रास्ता पूछा। एक दिक्कत यह थी कि ब्यूटी की गली में कोई दुकान या व्यवसाय नहीं था। तो मेरा तरीका था कि मैं गली की तरफ इशारा करके पूछता कि वहाँ से निकल कर गंतव्य पहुँचा जा सकता है कि नहीं, क्या यह शॉर्ट कट है? ब्यूटी की गली, मैं पहले से जानता, अच्छा शॉर्ट कट है। इस तरह मैंने मोहल्ले वालों से इतनी पहचान बना ली कि उनके मन में मेरे प्रति खास जिज्ञासा या शक की गुंजाइश न रहे। ताकि वे हमेशा यह सोचें : अरे, यह तो फलाँ फलाँ का रिश्तेदार है, आजकल यहाँ रह रहा है; हाँ, हमारी वाकफियत है, सज्जन, घरेलू सा लड़का है।
पर ब्यूटी की गली से अनेक बार गुजरने के बाद भी कोई फायदा नहीं हुआ। मेरे ख्याल से मैंने ब्यूटी का मकान चिन्हित कर लिया था। पर उसके सामने ज्यादा देर रुकना नागवार था। बाहरी दीवार पर कोई नेम प्लेट नहीं थे। खुले दरवाजे से बस मुझे एक अँधेरा रास्ता दिखाई देता और सीढ़ियों की शुरुआत, और हर बार एक हल्का सा रोमांच होता जब मैं खुद से कहता ये सीढ़ियाँ ब्यूटी की बाँहों में ले जाती हैं। पर जैसे जैसे दिन गुजरे और बात आगे नहीं बढ़ी, मैं बेचैन होने लगा। मुझे डर लगता कहीं मैं कोई जल्दबाजी न कर बैठूँ और एक क्षण की बदहवासी सारे किए कराए पर पानी फेर सकती है। या इससे भी खराब : मेरी स्थिति उस कहानी के चरित्र की तरह न हो जाए, मुझे धुँधली सी याद है, जो जिंदगी भर अपनी कथित महबूबा के घर की चौकसी करता रहा, और देखते ही देखते बूढ़ा हो गया, उसके दाँत गिर गए, फिर वह मर भी गया। या एक और कहानी : एक युवक अपनी प्रेमिका से दूर चला गया। बरसों बाद वह लौटा। दोनों ने उसी जगह मिलने का फैसला किया जहाँ उन्होंने पहली बार प्यार और जिंदगी भर के साथ की कसमें खाई थीं। वह आदमी समय पर नियत जगह पहुँचा और इंतजार करता रहा। पर उसकी प्रेयसी नहीं आई। रात इतनी गहरी हो गई थी कि जगह एकदम वीरान दिखाई दे रही थी। बस एक उदास, बूढ़ी औरत कुछ दूर एक चट्टान पर निश्चल बैठी थी। शायद अकेली थी, उसका कोई नहीं था। कई घंटे इंतजार करने के बाद वह आदमी भारी मन से लौट गया...।
निराशा बढ़ी तो मैंने अभिनव तरीके अपनाए। मैंने कई चिट्ठियाँ लिखीं और उन्हें खुद को कोरियर किया। डबल फायदा यह था कि वे ब्यूटी के नाम उन्मुक्त प्रेमपत्र थे। विचार यह था : कोरियर का आदमी मुझसे नाम, दस्तखत, टेलीफोन नंबर लेगा; मुझे मौका मिलेगा कि मैं पन्ने पलट कर देखूँ शायद ब्यूटी के परिवार या उसके नाम कोई खत हो! फिलहाल मुझे उसके पते का लगभग सही अंदाजा था। इस तरह संभवतः मैं उसका नाम देख सकूँ और उसके अपने हाथ, सुंदर हाथ से किए गए दस्तखत। पर यह योजना विफल रही। इसके पहले मैं कोई जोखिम भरा तरीका अपनाता, सबसे आसान समाधान प्रकट हो गया : एक गुलाब के गुलदस्ते की तरह जिसे खुद ब्यूटी ने भेजा हो : इंटरनेट! पहले मैं उसका पता गूगल कर सकता हूँ। मैंने किया पर नतीजे संतोषजनक नहीं निकले। पर अचानक निर्णायक स्टेप मिल गया : इलेक्ट्रानिक मतदाता सूची! मैंने वेबसाइट खोली, कुछ सर्च की और सफलता सामने थी। परिवार के नाम, साथ में उम्र, स्क्रीन पर थी : पति अशोक आहूजा, उम्र 44, पुत्र ज्ञान आहूजा, उम्र 12 और ब्यूटी - प्रज्ञा आहूजा, उम्र 37 वर्ष। मैंने कुछ देर स्क्रीन को ऐसे ही छोड़ दिया, उसे निहारता रहा, अंतरंगता का अजीब सा अहसास। फिर मैंने एक प्रिंट आउट निकाला। इस तरह था जैसे एक खोज सफल हुई। एक परदा खुला, एक परदा बंद हुआ, पलकों के उठने गिरने की तरह। यह अंत भी था और शुरुआत भी।
एक गहरे सुख और सुकून ने मुझे घेर लिया, मानो किसी घाटी में भारी बादल समा गए हैं, घाटी कुछ समय के लिए लुप्त हो जाती है, और फिर दोबारा एक नवीन, नवजागृत प्रकाश पुनः जी उठता है। मैं ब्यूटी को एक नई, पैनी आभा में देख रहा था। वह मानो मेरे और पास आ गई है, मुझसे नजदीक हो कर खिल गई है। मुझे अजीब सा विश्वास हो रहा था कि उसने ही अपना नाम मुझ तक भिजवाया था, मैंने जासूसी कर उसका नाम हासिल नहीं किया था।
इस अहसास में मुझे एक अजीब सा गर्व महसूस हुआ (मानो मेरे पास एक जादुई हुनर है) कि मैं ब्यूटी को नाइटी में दो सौ यार्ड दूर एक झलक में पहचान सकता हूँ, पर अगर वह मेरे बगल से कभी निकलती है या कोई मेरा तार्रुफ कराता है तो वह मेरे लिए नितांत अजनबी होगी।
सालों बाद मैंने काफ्का द्वारा उसकी प्रेयसी और मंगेतर फेलिस को छः वर्षों की छितरी अवधि में लिखे गए पत्रों की एक किताब पढ़ी : भावपूर्ण अतिरेक में झुलसा विपुल पत्राचार : काफ्का उसे दिन में दो तीन बार तक लिखता और फेलिस भी उसे रोज जवाब देने पर मजबूर थी। उनके मध्य की भावनाएँ, जो उन्हें जोड़तीं, जुदा करतीं, पीड़ा देतीं, उसे मैं ब्यूटी की स्मृतियों के कारण खूब समझता। काफ्का के लिए फेलिस सुरक्षा और घनी अखंडता का दीप स्तंभ थी, एक मौजूदगी जिसे वह प्यार और अनुरक्ति लुटा सकता था और पा सकता था। पर यह सिर्फ दूरी की सुरक्षा में संभव था। बहुत शुरू में, जब उनकी एकमात्र मुलाकात को एक हफ्ता भी नहीं गुजरा था, काफ्का उसे याद करते हुए कह रहा था कि वह शरीर के स्तर पर उसके नजदीक आने की वजह से उससे अलगाव महसूस कर रहा है।
काफ्का के लिए लिखने का अर्थ था खुद को अत्यधिक में खोलना... इसलिए लेखन की क्रिया में नितांत अकेलापन भी पूरा नहीं... रात भी पूरी रात नहीं।
फेलिस ने एक मर्तबा काफ्का से कहा, हमारा संग निःशर्त है। इस पर काफ्का ने बाद में लिखा कि उसकी ख्वाहिश इससे बड़ी नहीं हो सकती कि वे सदा के लिए एक साथ बँधे हों, मेरे दाएँ हाथ की कलाई और तुम्हारे बाएँ हाथ की... पर इसके साथ ही, वह कहता है, उसने शायद ऐसा इसलिए सोचा क्योंकि एक बार एक आदमी और औरत इसी तरह हाथ में साथ हथकड़ी बँधे फाँसी के तख्ते पर जा रहे थे।
दूरी प्रेम का घोंसला है, नजदीकी फंदे की तरफ एक कदम...।
जैसे वर्ष गुजरे, ब्यूटी की स्मृतियाँ कम नहीं हुईं, समय ने उन्हें अनेक तरह के जादुई रंग प्रदान कर दिए। मुझे अचरज नहीं होता था कि जब भी मुझे औरत को आंकना होता, मेरा सौंदर्य का माप ब्यूटी थी। ऐसे वक्त ब्यूटी की मौजूदगी स्पर्शगोचर लगती। मुझे पूरे जेहन में लगता कि वह मेरे बगल में खड़ी है और मैं उसी के इशारों पर चल रहा हूँ। वह मेरा ध्रुवतारा थी, तारों की तरह बहुत दूर और अबोध्य, पर फिर भी मेरा प्रकाश और मार्गदर्शक सिद्धांत। और यह तब था जब मैं ब्यूटी से पूरी तरह नावाकिफ था, सिवाय एक अकस्मात और करीब वाकए के। पर यह कोई अजूबा भी नहीं। तीव्र और असाधारण प्रेम, समर्पण और एकात्मकता बड़ी आसानी से युग और दूरियाँ लाँघ लेते हैं। यह सभ्यता की भेंट है।
तो अब ब्यूटी का एक नाम था और इस नए जुड़ाव के सुकून में कई दिन गुजर गए। अगर ब्यूटी और मेरे बीच जो घट रहा था, वह एक सफर था, तो सफर जारी रहा। और, जाने अनजाने, हमारे रथ के पहियों के नीचे नए, पुराने पने, तिनगे, घास चिपकते जा रहे थे जिनके साथ दूसरे अफसाने जुड़े थे जो ऐसी बहुत सी यात्राओं के छितरे अवशेष थे। देखना और ताकना चलता रहा। साथ में यह जगमग वासनामय अहसास कि इस प्रयोजन में दोनों की हामी थी। इंजीनियरिंग की भाषा में मेल और फीमेल पुर्जों के खाँचे एकदम फिट कर रहे थे। यिन और येंग का वृत्त बन रहा था। हमारी पृथक जिंदगियों की गहराई पर एक बहकती प्रशांति छा गई थी : एक खामोश निश्चल नदी की सतह की तरह। रोजमर्रा के जीवन का जरूरी विघटन और टकराती ऊर्जा मानो एक अणुगत ढाँचे में कैद हो कर रह गई थी। कुछ वक्त के लिए लगता यह शाश्वत तस्वीर है, कोई तीर ऐसा नहीं जो इस गैरजिम्मेदार और बहकावे की प्रशांति को भेद सके।
पर फिर, हर यात्रा में उसका अंत सन्निहित है।
जल्दी, एक भरी और स्थूल शिथिलता मेरे शरीर और जेहन के हर भाग में समाने लगी। मैंने पाया मेरा वजन बढ़ गया है, मेरी त्वचा पर चिकनाई की एक नई परत उभर आई थी और सुबह के वक्त मेरे शरीर में प्यारा सा दर्द होता, सिर्फ शरीर की तरफ ध्यान आकर्षित करने के लिए। छोटे, निरर्थक काज मुझे व्यस्त रखते और मुझे उनमें एक अजीब सा, खाली सुकून मिलता। मुझे हर चीज में, शून्यता में भी, आनंद और अच्छाई महसूस होती। पर, मुझे कहना होगा, मैं बेहद हसीन और ऐंद्रिक तरीके से संतुष्ट था। बाद में ऐसा अनुभव मुझे कभी नहीं हुआ।
मंथर गति : मेरा अभ्यास और शौक और उत्सव बन गया। एक खाने के शौकीन की तरह, जो कितने प्रेम से मांस से मछली की महीन हड्डियाँ हटाता है, मैंने अपने कामदेव के बगीचे से आशंका, अपूर्ण चाहतों और कुंठाओं के काँटे मनोयोग से दूर किए। यह आत्म नियंत्रण और वंचना का अनोखा करतब था, कि जितना था उसी के रस से मैं परिपूर्ण था। मेरी कामनाओं की सूची में इंद्राज खत्म से हो गए थे। कामुकता के इस कटेछँटे खेल में, जैसे गहरे समुद्र पर तैरती एक छोटी, निरीह नाव, मुझे अब चिंता नहीं थी मैं कहाँ हूँ, कहाँ जा रहा हूँ। मैं आत्मलिप्त और विभोर था। ब्यूटी की तस्वीर में, छत वाली औरत, नाइटीवाली महिला, असल, संभव और अरमानों के संसार एकमेक हो गए थे। मंथर गति और तृप्ति मेरे भाव, स्वभाव और अंग के हर पोर में विदित थी और यह आप मेरे लेखन में भी देख रहे हैं।
मेरा पढ़ना बदस्तूर जारी रहा। उसकी गति बन रही। मैंने शेखर जोशी की एक कहानी, कोसी का घटवार पढ़ी। इन्हीं दिनों मैंने मेघदूत भी निकाला। काव्य की अनेक पंक्तियाँ मुझे बेहद प्रिय हो गईं, हर पंक्ति के बाद मानो ब्यूटी की एक तस्वीर थी। इस तरह, एक तरीके से, कालिदास सीधे ब्यूटी का वर्णन कर रहे थे। फिर मैंने मार्खेज का एक नॉवल उठाया : 'लव इन द टाइम ऑफ कॉलेरा (हैजा के दिनों में प्यार) और उसे ऐसे अंधे, मग्न चाव से पढ़ा कि समझ और समावेश की गुंजाइश कम थी। पर कथा में ऐसी ऊर्जा और ओज थी कि मैं प्रेम के ऐसे धरातल पर पहुँचा जो नूतन और वर्णन के परे था। मेरा दिल और आत्मा बेकस भावनाओं के भँवर में बह गया, वे अजनबी उद्गार जैसे मेरे खून और शरीर के थे, मेरी धमनियों में प्रवाहित थे पर मेरे पास बुद्धि, अनुभव और कल्पना के वे औजार नहीं थे कि मैं उन्हें सच्चे मायने में आत्मसात कर सकूँ, उन्हें नाम दे कर अपना खुद का बना सकूँ।
सालों बाद यह किताब मैंने फिर पढ़ी। ऐसी कृतियाँ संभवत: पाँच सौ वर्षों में एक बार आती हैं। जरूर अच्छे और बेहतरीन उपन्यास प्रचुर हैं जो तुम्हें एक नया दृष्टिकोण, नई दिशा देते हैं; ऐसे तथ्य और अनुभवों की दुनिया में ले जाते हैं जो नूतन हैं। पर मार्खेज को पढ़ना उसका निर्दयी उद्घाटन है जिसे तुम पहले से जानते हो, जिसे देखा और भोगा है पर जिसने तुम्हारी चेतना से छल कर दिया है। उसे पढ़ते हुए यह बोध अटूट है कि उसका हर वाक्य मानो उसने तुम्हारे दिल के किसी गहरे, शब्दहीन कोने से चुराया है। यह बोध बना रहता है और आखिर में यह मूर्छा सी निश्चितता है कि तुम कोई उपन्यास नहीं पढ़ रहे, तुम खुद एक कहानी सुना रहे हो, जो पूरी तरह तुम्हारी है। हर व्यक्ति ब्रह्मांड है : मार्खेज फुसफुसाता सा सुनाई देता है। और हर पाठक के लिए मार्खेज का कथानक, उसकी अपनी निजी कथा बन जाता है... यह फरक करता है मार्खेज और महाकाव्यों की दूसरी बेहतरीन कृतियों से। 'लव इन द टाइम ऑफ कॉलेरा' में, सबसे ज्यादा मैं इसी गुण से चकित रहा... डॉक्टर जुविनाल अरबीनो और फरमीना डाजा और फ्लोरेन्टीनो अरोजा की कहानी मेरी अपनी भी थी, ऐसा होना ही था, मेरे जेहन में और पूरे जहान में और इसी तरह वह ब्यूटी की जिंदगी, और अन्य लोगों की जिंदगियाँ, जिन्हें मैं जानता था या नहीं जानता था, चित्रित और प्रतिबिंबित कर रही थीं... मार्खेज ने सिर्फ इतना ही किया था कि उसने हमारे जीवन के नन्हें, छितरे, भूले और छूटे धागों को दोबारा से जोड़ दिया था और उस पर संसक्ति और अर्थवत्ता की जादुई छड़ी घुमा दी थी। और इस तरह मार्खेज ने, इस महान उपन्यास में, प्रेम के बारे में हर जड़ दकियानूसियत को उल्टा खड़ा कर दिया और उसे अपने शुद्ध, मौलिक रूप में सामने रखा जब वह रूप जड़ नहीं था और इस तरह वह हमें उस भूमि में ले गया जहाँ पहला प्रेम पहली बार अंकुरित हुआ था...।
लाखों पिक्चर पोस्टकार्ड प्रेम को इस तस्वीर को दोहराते हैं : शांत, असीमित सागर के ऊपर सुनहरी भोर की दस्तक; क्षितिज की ओर बढ़ती एक नन्हीं पाल नाव; और हाथ में हाथ डाले प्रेमी, शाश्वत प्रेम के सपनों में डूबे। हर साल न जाने इन कार्डों का कितना वजन नष्ट होने के साइकलिंग प्लांट में जाता है : ताकि फिर से हूबहू सालाना यात्रा शुरू हो। मार्खेज के इस उपन्यास का अकेला सच इस जड़ तस्वीर का पुन: आविष्कार था। और मार्खेज ने इस असंभव कृत्य को अस्सी बरस के अरीजा और 76 बरस की फरमीना के स्मर्णीय प्रेम से अंजाम दिया। चमत्कार यह था कि यह कोई तकदीर का असाधारण खेल नहीं था; यह बेहद आसान और विश्वसनीय था।
मैं मुस्करा दिया और मुझे यह आभास था कि यही मुस्कराहट मेरे चेहरे पर बरसों पहले आई थी। फरक इतना ही था कि हाल की मुस्कान इतने सालों की दूरी और बीत गई जिंदगी के बोझ से दबी थी। सिर्फ एक ही अहसास था जो हूबहू वही रहा जो पहले और हमेशा था : वह थी नाइटी में ब्यूटी की तस्वीर!
एक नजदीकी स्पष्टता से अब मैं देख पाता हूँ कि उन तीन चार महीनों में मुझ पर प्रेम का जुनून सवार हो गया था। जुनून ब्यूटी का भी था। और इन दो समीकरणों को मिलाने से कथ्य बना कि ब्यूटी प्यार है और प्यार ब्यूटी : दोनों अविभाज्व एकरूप। यह अभिन्नता मेरे भावोन्माद का तत्व था। इसका अर्थ एक मायने में यही हुआ कि मैं ब्यूटी को दिलोजान से चाहता था। पर यह व्याख्या मेरे मस्तिष्क में तब ठीक से कभी स्थापित नहीं हुई।
छत की हमारी प्रणयलीला अपनी गति से चलती रही : न कमतर हुई, न तेज। उसका एक कठोर, सुनिश्चित पथ था और उसके नियम मानो गुलाब के पत्तों से स्थायी रूप से रचे गए थे। उन आँखों के लिए, जो अनश्वर प्रेम के बादलों में धूमिल थीं, मिलिट्री तैयारी की अनभ्यता और एक भावपूर्ण राग के मधुर स्वर में खास फरक नहीं है। तानाशाह अक्सर सबसे भावप्रणव होते हैं।
जैसे दिन गुजरे, मेरी चौकसी और इश्कजोरी में एक भावुक मार्मिकता के डोरे तिरने लगे। मैं इस तरह व्यवहार करने लगा मानो यह सब नियत है और दैवयोग ने मुझे चुन लिया है। मैं खुद को दो तस्वीरों में देखने लगा : एक जो इश्क फरमा रही थी और दूसरी जिसने मुहब्बत का कँटीला ताज पहना था। मौसम अचानक खुश्क और ठंडा हो गया था और सर्दियाँ देहरी तक आ गईं थी। अक्सर, सुबह और शाम, मैं एक शॉल कंधों पर डाल लेता। और स्वमेव, मानो कोई अन्य शक्ति मुझे संचालित कर रही थी, मेरे कंधे हल्के से झुक जाते और विषाद के अदृश्य धूल कण मुझ पर गिरने लगते। फिर मुझे अजीब सा ख्याल आता कि दो कोमल पंजे, एक पर उदासी का लेप और दूसरे में मुग्ध, कोमल प्रेम की थपकी, मेरे दिल में अगल बगल मौजूद हैं। अनायास मेरी आँखें आकाश में इंद्रधनुष तलाशतीं : धूप में भीगी पानी की फुहार। इस तरह मैं खुश भी होता और उदास भी जिसका मतलब यह भी था कि न मैं खुश था न उदास। पर इसमें शक नहीं था कि मनःस्थितियों का इंद्रधनुष ब्यूटी थी और उस पर न शॉल था न कोई आवरण, उसने बस नाइटी पहनी थी और हमारे साझे राज में नाइटी में ब्यूटी वैसी ही थी जैसी निर्वस्त्र ब्यूटी, दोनों में कोई फरक नहीं था। आवेग के ऐसे उद्गार कभी कभी आते और क्षणिक होते और जल्दी ही मैं अपनी इकसार, नीरव मनोदशा में लौट जाता।
निरंतर और गाढ़े पड़ने से तनाव और थकान पैदा हो रही थी, उसे मैंने फिल्मों और सिने संगीत से हल्का किया। इनके लिए भी मामा की लाइब्रेरी खान साबित हुईं। मेरा समग्र ध्यान रूमानियत पर ठहरा था। मैंने अनेक मशहूर हॉलीवुड फिल्मों को पहली बार और दोबारा देखा जिनके बेहद लुभावने टाइटिल थे : एन अफेयर टू रिमेंबर, लव इज अ मैनी स्प्लेन्डर्ड थिंग, द वे वी वर, इट हैपिन्ड वन नाइट वगैरह, मेरी प्रिय फिल्म थी ब्रीफ एनकाउंटर का दूसरा संस्करण जिसमें सोफिया लॉरेन और रिचर्ड बर्टन थे। जिन हिंदी फिल्मों को मैंने देखा उनमें राजकपूर, दिलीप कुमार और गुरुदन प्रमुख थे। मैंने बाजार से एक राजकपूर और नरगिस का पोस्टर खरीदा और उसे दीवार पर इस तरह लगाया कि सुबह सबसे पहले वही दिखता।
और हिंदी के फिल्मी गाने! रात भर वे चलते रहते, मैं सो भी जाता और न जाने कितनी शामें और रातें थीं जब मैं दिल थाम लेता, मुझे लगता कि ब्यूटी अँधेरे में यहीं है, मेरे पास, और हम दोनों हैं जो एक दूसरे के लिए गा रहे हैं।
न जाने कितनी जान, अनजान फिल्मों के भूले, पहचाने गीतों के बोल, अंतरे मेरे जेहन में गहन बवंडर की तरह उमड़ने लगे :
तेरे बिना जिंदगी से कोई, शिकवा तो नहीं
तेरे बिना जिंदगी भी लेकिन, जिंदगी तो नहीं
मेरे अंग अंग, पोर पोर से ये बोल इस तरह निकल रहे थे ज्यों बारिश के दिनों में, या अकारण ही, कीड़े, कीट, पतंगों का हुजूम, चीटिंयों की कतारें न जाने किन छेदों और बिलों से बाहर निकल पड़ती हैं, उनका न आदि न अंत :
तेरे मेरे सपने अब एक रंग हैं
जहाँ भी ले जाएँ राहें हम संग हैं
ऐसे गीत, ऐसे बोल जिन्हें न जाने मैंने कभी सुना, गाया भी था या नहीं पर जो मेरे मन के बंदरगाह में फिर भी लंगर डाल रहे थे :
दिन ढल जाए हाय रात न जाए
तू तो न आए तेरी याद सताए
एक माँ की आरती और प्रार्थनाएँ थीं और दूसरे हजारों फिल्मों के हजारों गीत जो शायद आजन्म मेरी मन श्रुति के सच्चे नायक थे :
वक्त ने किया क्या हसीं सितम
तुम रहे न तुम हम रहे न हम
और अचंभा यह था कि फूहड़ और संजीदे से संजीदे गीत ब्यूटी की टिमटिमाती तस्वीर के साथ इस तरह अंतरंग थे मानो उसके लिए हों, सिर्फ उसके हों :
न हम तुम्हें जानें न तुम हमें जानो
मगर लगता है कुछ ऐसा मेरा हमदम मिल गया
एकदम लकड़ी सा प्रहार करती पंक्तियाँ, उनमें भी मुझे गहन, पारंगत अर्थ प्रतीत हो रहा था :
हमें तुमसे प्यार कितना ये हम नहीं जानते
पर जी नहीं सकते तुम्हारे बिना
जब मैंने ये दो कहानियाँ लिखी थीं तो लेखक होने का कोई विचार मेरे मन में दूर दूर तक नहीं था। सो इस बार क्या अलग है? मेरे भीतर या बाहरी दुनिया में आखिर क्या बदल गया? यह लेखन तो और भी आत्मकथात्मक था। इस कहानी का 'मैं' तो पूरी तरह मैं ही था और अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य को पूरी तरह गड्डमड्ड कर दिया था। पर सवाल पूछे जाने से पहले ही उत्तर मुझे पता था : फरक ब्यूटी थी और उसका बाध्यकारी, सम्मोहक यथार्थ।
ब्यूटी ने मुझे आजादी का अहसास कराया और कहानी में और अपनी संकीर्ण, बोझिल जिंदगी में उम्मीद जगाई। यह ऐसा था मानो ढेर सी नन्हीं खिड़कियाँ और दरवाजे मेरे लिए खुल गए हैं जो अब तक बंद थे या वर्जित थे। सुयोग और अच्छे अवसरों के कल्पनाशील संसार में मैं किसी से कम नहीं था। क्योंकि ब्यूटी मेरे साथ थी। वह मेरे साथ थी, मेरे भीतर और बाहर; ऊपर, पीछे, मध्य में, नीचे : जैसे मेरी अपनी साँस या परछाईं। वुदरिंग हाइट्स से अभिभूत, मैं यह भी कह सकता हूँ कि ब्यूटी मैं थी और मैं ब्यूटी। उसने मेरे चारों ओर अपराजेयता की अदृश्य चादर डाल दी। उसका चित्र था जो मेरी गर्दन में लिपटा था, मेरे दिल में था। मुझे लगता जैसे मेरे हाथ में ब्यूटी का हाथ बँधा है और रिश्ते की इस हामी में वह सब है और होगा जिसकी मुझे आकांक्षा और तलाश है।
तो क्या, मेरी जुबान तालु से चिपक रही है, ब्यूटी मेरी मूज मेरी कला उपासना है? मेरी खुशी, मेरी सदाबहार तकदीर? हाँ, मैं खुद से फुसफुसाया। और उन क्षणों में मैंने यह माना कि ब्यूटी मेरा प्यार है।
एक और महीना गुजर रहा था और मेरी मनोदशा कह रही थी कि मेरी चाहतें मेरे संग हैं। मुझे ज्यादा की लालसा नहीं थी और ज्यादा मेरे पास खुदबखुद था।
ब्यूटी का नाम जानने का लालच अचानक एक दिन मेरे दिल में पैने शहतीर की तरह उठा। जैसे मुझे याद है, एक ठंडी, ओस बूँद सुबह थी और मैं जॉगिंग का आखिरी राउंड खत्म कर रहा था। सड़क और पार्क सैर करनेवालों से अटे थे (मेरे ख्याल से शनिवार का दिन था) कई एक लड़कियाँ और औरतें मेहनत से चुने ड्रेस और ट्रैक सूट में दौड़ रही थीं। उनमें से एक, उसने एक लंबी शर्ट और स्लैक्स पहने थे और बाल खुले थे, मेरे बगल में लगभग छूती हुई आगे निकली। एकदम से मेरा उसे पुकारने का मन किया, कि उसके कुछ कहूँ। बाद में, घर लौटते हुए मैंने सोचा कि अगर मैं हिम्मत जुटा भी लेता तो बुलाता कैसे? मैं तो उसका नाम भी नहीं जानता था। तब मानो एक बज्र सा गिरा। मैं ब्यूटी के नाम से भी नावाकिफ था। उसका नाम जानने और पुकारने का ख्याल मिनटों में सनक बन गया। आखिर नाम ही है जो शताब्दियों के अंतराल और सभ्यताओं की दूरियाँ लाँघते हुए इनसान की इनसान से पहचान बनाता है।
बहुत जल्दी मैं समझ गया कि यह जतन इतना आसान नहीं है। मैं किसी से पूछने की गलती नहीं कर सकता था, चाहे जितना घुमाफिरा कर सवाल करूँ। छत से इतना पता चलता था कि ब्यूटी का घर एक गली छोड़ कर है और अगर मंडी की साइड से मुड़ते हैं तो दाईं तरफ चौथा या पाँचवाँ मकान होगा। कुछ दिन मैं पूरी तरह इस जद्दोजहद में रम गया। मैंने कई तरह की खरीदारी की जिसके लिए मुझे गली से गुजरने की वाजिब वजह मिली। रास्ते में कई जगह रुक कर, कई बार मैंने लोगों से जानकारी पूछी : दुकानदार जिनका बिजनेस नगण्य था पर अफवाहबाजी के लिए लंबी जीभ और नाक; वृद्ध और बूढ़ी औरतें जो सीढ़ियों पर बैठी दिखतीं या सड़क के किनारे यूँ ही मन बहलाते हुए खड़ी । मैंने इलाके की टोपोग्राफी और दुकानों का खास अध्ययन किया ताकि मेरे सवाल अटपटे न लगें और मैं मोहल्ले का बाशिंदा ही लगूँ। मैंने इस दौरान पोस्ट ऑफिस, ड्राई क्लीनर, दर्जी, मोबाइल रिेपेयर और एक्सिस बैंक के एटीएम का रास्ता पूछा। एक दिक्कत यह थी कि ब्यूटी की गली में कोई दुकान या व्यवसाय नहीं था। तो मेरा तरीका था कि मैं गली की तरफ इशारा करके पूछता कि वहाँ से निकल कर गंतव्य पहुँचा जा सकता है कि नहीं, क्या यह शॉर्ट कट है? ब्यूटी की गली, मैं पहले से जानता, अच्छा शॉर्ट कट है। इस तरह मैंने मोहल्ले वालों से इतनी पहचान बना ली कि उनके मन में मेरे प्रति खास जिज्ञासा या शक की गुंजाइश न रहे। ताकि वे हमेशा यह सोचें : अरे, यह तो फलाँ फलाँ का रिश्तेदार है, आजकल यहाँ रह रहा है; हाँ, हमारी वाकफियत है, सज्जन, घरेलू सा लड़का है।
पर ब्यूटी की गली से अनेक बार गुजरने के बाद भी कोई फायदा नहीं हुआ। मेरे ख्याल से मैंने ब्यूटी का मकान चिन्हित कर लिया था। पर उसके सामने ज्यादा देर रुकना नागवार था। बाहरी दीवार पर कोई नेम प्लेट नहीं थे। खुले दरवाजे से बस मुझे एक अँधेरा रास्ता दिखाई देता और सीढ़ियों की शुरुआत, और हर बार एक हल्का सा रोमांच होता जब मैं खुद से कहता ये सीढ़ियाँ ब्यूटी की बाँहों में ले जाती हैं। पर जैसे जैसे दिन गुजरे और बात आगे नहीं बढ़ी, मैं बेचैन होने लगा। मुझे डर लगता कहीं मैं कोई जल्दबाजी न कर बैठूँ और एक क्षण की बदहवासी सारे किए कराए पर पानी फेर सकती है। या इससे भी खराब : मेरी स्थिति उस कहानी के चरित्र की तरह न हो जाए, मुझे धुँधली सी याद है, जो जिंदगी भर अपनी कथित महबूबा के घर की चौकसी करता रहा, और देखते ही देखते बूढ़ा हो गया, उसके दाँत गिर गए, फिर वह मर भी गया। या एक और कहानी : एक युवक अपनी प्रेमिका से दूर चला गया। बरसों बाद वह लौटा। दोनों ने उसी जगह मिलने का फैसला किया जहाँ उन्होंने पहली बार प्यार और जिंदगी भर के साथ की कसमें खाई थीं। वह आदमी समय पर नियत जगह पहुँचा और इंतजार करता रहा। पर उसकी प्रेयसी नहीं आई। रात इतनी गहरी हो गई थी कि जगह एकदम वीरान दिखाई दे रही थी। बस एक उदास, बूढ़ी औरत कुछ दूर एक चट्टान पर निश्चल बैठी थी। शायद अकेली थी, उसका कोई नहीं था। कई घंटे इंतजार करने के बाद वह आदमी भारी मन से लौट गया...।
निराशा बढ़ी तो मैंने अभिनव तरीके अपनाए। मैंने कई चिट्ठियाँ लिखीं और उन्हें खुद को कोरियर किया। डबल फायदा यह था कि वे ब्यूटी के नाम उन्मुक्त प्रेमपत्र थे। विचार यह था : कोरियर का आदमी मुझसे नाम, दस्तखत, टेलीफोन नंबर लेगा; मुझे मौका मिलेगा कि मैं पन्ने पलट कर देखूँ शायद ब्यूटी के परिवार या उसके नाम कोई खत हो! फिलहाल मुझे उसके पते का लगभग सही अंदाजा था। इस तरह संभवतः मैं उसका नाम देख सकूँ और उसके अपने हाथ, सुंदर हाथ से किए गए दस्तखत। पर यह योजना विफल रही। इसके पहले मैं कोई जोखिम भरा तरीका अपनाता, सबसे आसान समाधान प्रकट हो गया : एक गुलाब के गुलदस्ते की तरह जिसे खुद ब्यूटी ने भेजा हो : इंटरनेट! पहले मैं उसका पता गूगल कर सकता हूँ। मैंने किया पर नतीजे संतोषजनक नहीं निकले। पर अचानक निर्णायक स्टेप मिल गया : इलेक्ट्रानिक मतदाता सूची! मैंने वेबसाइट खोली, कुछ सर्च की और सफलता सामने थी। परिवार के नाम, साथ में उम्र, स्क्रीन पर थी : पति अशोक आहूजा, उम्र 44, पुत्र ज्ञान आहूजा, उम्र 12 और ब्यूटी - प्रज्ञा आहूजा, उम्र 37 वर्ष। मैंने कुछ देर स्क्रीन को ऐसे ही छोड़ दिया, उसे निहारता रहा, अंतरंगता का अजीब सा अहसास। फिर मैंने एक प्रिंट आउट निकाला। इस तरह था जैसे एक खोज सफल हुई। एक परदा खुला, एक परदा बंद हुआ, पलकों के उठने गिरने की तरह। यह अंत भी था और शुरुआत भी।
एक गहरे सुख और सुकून ने मुझे घेर लिया, मानो किसी घाटी में भारी बादल समा गए हैं, घाटी कुछ समय के लिए लुप्त हो जाती है, और फिर दोबारा एक नवीन, नवजागृत प्रकाश पुनः जी उठता है। मैं ब्यूटी को एक नई, पैनी आभा में देख रहा था। वह मानो मेरे और पास आ गई है, मुझसे नजदीक हो कर खिल गई है। मुझे अजीब सा विश्वास हो रहा था कि उसने ही अपना नाम मुझ तक भिजवाया था, मैंने जासूसी कर उसका नाम हासिल नहीं किया था।
इस अहसास में मुझे एक अजीब सा गर्व महसूस हुआ (मानो मेरे पास एक जादुई हुनर है) कि मैं ब्यूटी को नाइटी में दो सौ यार्ड दूर एक झलक में पहचान सकता हूँ, पर अगर वह मेरे बगल से कभी निकलती है या कोई मेरा तार्रुफ कराता है तो वह मेरे लिए नितांत अजनबी होगी।
सालों बाद मैंने काफ्का द्वारा उसकी प्रेयसी और मंगेतर फेलिस को छः वर्षों की छितरी अवधि में लिखे गए पत्रों की एक किताब पढ़ी : भावपूर्ण अतिरेक में झुलसा विपुल पत्राचार : काफ्का उसे दिन में दो तीन बार तक लिखता और फेलिस भी उसे रोज जवाब देने पर मजबूर थी। उनके मध्य की भावनाएँ, जो उन्हें जोड़तीं, जुदा करतीं, पीड़ा देतीं, उसे मैं ब्यूटी की स्मृतियों के कारण खूब समझता। काफ्का के लिए फेलिस सुरक्षा और घनी अखंडता का दीप स्तंभ थी, एक मौजूदगी जिसे वह प्यार और अनुरक्ति लुटा सकता था और पा सकता था। पर यह सिर्फ दूरी की सुरक्षा में संभव था। बहुत शुरू में, जब उनकी एकमात्र मुलाकात को एक हफ्ता भी नहीं गुजरा था, काफ्का उसे याद करते हुए कह रहा था कि वह शरीर के स्तर पर उसके नजदीक आने की वजह से उससे अलगाव महसूस कर रहा है।
काफ्का के लिए लिखने का अर्थ था खुद को अत्यधिक में खोलना... इसलिए लेखन की क्रिया में नितांत अकेलापन भी पूरा नहीं... रात भी पूरी रात नहीं।
फेलिस ने एक मर्तबा काफ्का से कहा, हमारा संग निःशर्त है। इस पर काफ्का ने बाद में लिखा कि उसकी ख्वाहिश इससे बड़ी नहीं हो सकती कि वे सदा के लिए एक साथ बँधे हों, मेरे दाएँ हाथ की कलाई और तुम्हारे बाएँ हाथ की... पर इसके साथ ही, वह कहता है, उसने शायद ऐसा इसलिए सोचा क्योंकि एक बार एक आदमी और औरत इसी तरह हाथ में साथ हथकड़ी बँधे फाँसी के तख्ते पर जा रहे थे।
दूरी प्रेम का घोंसला है, नजदीकी फंदे की तरफ एक कदम...।
जैसे वर्ष गुजरे, ब्यूटी की स्मृतियाँ कम नहीं हुईं, समय ने उन्हें अनेक तरह के जादुई रंग प्रदान कर दिए। मुझे अचरज नहीं होता था कि जब भी मुझे औरत को आंकना होता, मेरा सौंदर्य का माप ब्यूटी थी। ऐसे वक्त ब्यूटी की मौजूदगी स्पर्शगोचर लगती। मुझे पूरे जेहन में लगता कि वह मेरे बगल में खड़ी है और मैं उसी के इशारों पर चल रहा हूँ। वह मेरा ध्रुवतारा थी, तारों की तरह बहुत दूर और अबोध्य, पर फिर भी मेरा प्रकाश और मार्गदर्शक सिद्धांत। और यह तब था जब मैं ब्यूटी से पूरी तरह नावाकिफ था, सिवाय एक अकस्मात और करीब वाकए के। पर यह कोई अजूबा भी नहीं। तीव्र और असाधारण प्रेम, समर्पण और एकात्मकता बड़ी आसानी से युग और दूरियाँ लाँघ लेते हैं। यह सभ्यता की भेंट है।
तो अब ब्यूटी का एक नाम था और इस नए जुड़ाव के सुकून में कई दिन गुजर गए। अगर ब्यूटी और मेरे बीच जो घट रहा था, वह एक सफर था, तो सफर जारी रहा। और, जाने अनजाने, हमारे रथ के पहियों के नीचे नए, पुराने पने, तिनगे, घास चिपकते जा रहे थे जिनके साथ दूसरे अफसाने जुड़े थे जो ऐसी बहुत सी यात्राओं के छितरे अवशेष थे। देखना और ताकना चलता रहा। साथ में यह जगमग वासनामय अहसास कि इस प्रयोजन में दोनों की हामी थी। इंजीनियरिंग की भाषा में मेल और फीमेल पुर्जों के खाँचे एकदम फिट कर रहे थे। यिन और येंग का वृत्त बन रहा था। हमारी पृथक जिंदगियों की गहराई पर एक बहकती प्रशांति छा गई थी : एक खामोश निश्चल नदी की सतह की तरह। रोजमर्रा के जीवन का जरूरी विघटन और टकराती ऊर्जा मानो एक अणुगत ढाँचे में कैद हो कर रह गई थी। कुछ वक्त के लिए लगता यह शाश्वत तस्वीर है, कोई तीर ऐसा नहीं जो इस गैरजिम्मेदार और बहकावे की प्रशांति को भेद सके।
पर फिर, हर यात्रा में उसका अंत सन्निहित है।
जल्दी, एक भरी और स्थूल शिथिलता मेरे शरीर और जेहन के हर भाग में समाने लगी। मैंने पाया मेरा वजन बढ़ गया है, मेरी त्वचा पर चिकनाई की एक नई परत उभर आई थी और सुबह के वक्त मेरे शरीर में प्यारा सा दर्द होता, सिर्फ शरीर की तरफ ध्यान आकर्षित करने के लिए। छोटे, निरर्थक काज मुझे व्यस्त रखते और मुझे उनमें एक अजीब सा, खाली सुकून मिलता। मुझे हर चीज में, शून्यता में भी, आनंद और अच्छाई महसूस होती। पर, मुझे कहना होगा, मैं बेहद हसीन और ऐंद्रिक तरीके से संतुष्ट था। बाद में ऐसा अनुभव मुझे कभी नहीं हुआ।
मंथर गति : मेरा अभ्यास और शौक और उत्सव बन गया। एक खाने के शौकीन की तरह, जो कितने प्रेम से मांस से मछली की महीन हड्डियाँ हटाता है, मैंने अपने कामदेव के बगीचे से आशंका, अपूर्ण चाहतों और कुंठाओं के काँटे मनोयोग से दूर किए। यह आत्म नियंत्रण और वंचना का अनोखा करतब था, कि जितना था उसी के रस से मैं परिपूर्ण था। मेरी कामनाओं की सूची में इंद्राज खत्म से हो गए थे। कामुकता के इस कटेछँटे खेल में, जैसे गहरे समुद्र पर तैरती एक छोटी, निरीह नाव, मुझे अब चिंता नहीं थी मैं कहाँ हूँ, कहाँ जा रहा हूँ। मैं आत्मलिप्त और विभोर था। ब्यूटी की तस्वीर में, छत वाली औरत, नाइटीवाली महिला, असल, संभव और अरमानों के संसार एकमेक हो गए थे। मंथर गति और तृप्ति मेरे भाव, स्वभाव और अंग के हर पोर में विदित थी और यह आप मेरे लेखन में भी देख रहे हैं।
मेरा पढ़ना बदस्तूर जारी रहा। उसकी गति बन रही। मैंने शेखर जोशी की एक कहानी, कोसी का घटवार पढ़ी। इन्हीं दिनों मैंने मेघदूत भी निकाला। काव्य की अनेक पंक्तियाँ मुझे बेहद प्रिय हो गईं, हर पंक्ति के बाद मानो ब्यूटी की एक तस्वीर थी। इस तरह, एक तरीके से, कालिदास सीधे ब्यूटी का वर्णन कर रहे थे। फिर मैंने मार्खेज का एक नॉवल उठाया : 'लव इन द टाइम ऑफ कॉलेरा (हैजा के दिनों में प्यार) और उसे ऐसे अंधे, मग्न चाव से पढ़ा कि समझ और समावेश की गुंजाइश कम थी। पर कथा में ऐसी ऊर्जा और ओज थी कि मैं प्रेम के ऐसे धरातल पर पहुँचा जो नूतन और वर्णन के परे था। मेरा दिल और आत्मा बेकस भावनाओं के भँवर में बह गया, वे अजनबी उद्गार जैसे मेरे खून और शरीर के थे, मेरी धमनियों में प्रवाहित थे पर मेरे पास बुद्धि, अनुभव और कल्पना के वे औजार नहीं थे कि मैं उन्हें सच्चे मायने में आत्मसात कर सकूँ, उन्हें नाम दे कर अपना खुद का बना सकूँ।
सालों बाद यह किताब मैंने फिर पढ़ी। ऐसी कृतियाँ संभवत: पाँच सौ वर्षों में एक बार आती हैं। जरूर अच्छे और बेहतरीन उपन्यास प्रचुर हैं जो तुम्हें एक नया दृष्टिकोण, नई दिशा देते हैं; ऐसे तथ्य और अनुभवों की दुनिया में ले जाते हैं जो नूतन हैं। पर मार्खेज को पढ़ना उसका निर्दयी उद्घाटन है जिसे तुम पहले से जानते हो, जिसे देखा और भोगा है पर जिसने तुम्हारी चेतना से छल कर दिया है। उसे पढ़ते हुए यह बोध अटूट है कि उसका हर वाक्य मानो उसने तुम्हारे दिल के किसी गहरे, शब्दहीन कोने से चुराया है। यह बोध बना रहता है और आखिर में यह मूर्छा सी निश्चितता है कि तुम कोई उपन्यास नहीं पढ़ रहे, तुम खुद एक कहानी सुना रहे हो, जो पूरी तरह तुम्हारी है। हर व्यक्ति ब्रह्मांड है : मार्खेज फुसफुसाता सा सुनाई देता है। और हर पाठक के लिए मार्खेज का कथानक, उसकी अपनी निजी कथा बन जाता है... यह फरक करता है मार्खेज और महाकाव्यों की दूसरी बेहतरीन कृतियों से। 'लव इन द टाइम ऑफ कॉलेरा' में, सबसे ज्यादा मैं इसी गुण से चकित रहा... डॉक्टर जुविनाल अरबीनो और फरमीना डाजा और फ्लोरेन्टीनो अरोजा की कहानी मेरी अपनी भी थी, ऐसा होना ही था, मेरे जेहन में और पूरे जहान में और इसी तरह वह ब्यूटी की जिंदगी, और अन्य लोगों की जिंदगियाँ, जिन्हें मैं जानता था या नहीं जानता था, चित्रित और प्रतिबिंबित कर रही थीं... मार्खेज ने सिर्फ इतना ही किया था कि उसने हमारे जीवन के नन्हें, छितरे, भूले और छूटे धागों को दोबारा से जोड़ दिया था और उस पर संसक्ति और अर्थवत्ता की जादुई छड़ी घुमा दी थी। और इस तरह मार्खेज ने, इस महान उपन्यास में, प्रेम के बारे में हर जड़ दकियानूसियत को उल्टा खड़ा कर दिया और उसे अपने शुद्ध, मौलिक रूप में सामने रखा जब वह रूप जड़ नहीं था और इस तरह वह हमें उस भूमि में ले गया जहाँ पहला प्रेम पहली बार अंकुरित हुआ था...।
लाखों पिक्चर पोस्टकार्ड प्रेम को इस तस्वीर को दोहराते हैं : शांत, असीमित सागर के ऊपर सुनहरी भोर की दस्तक; क्षितिज की ओर बढ़ती एक नन्हीं पाल नाव; और हाथ में हाथ डाले प्रेमी, शाश्वत प्रेम के सपनों में डूबे। हर साल न जाने इन कार्डों का कितना वजन नष्ट होने के साइकलिंग प्लांट में जाता है : ताकि फिर से हूबहू सालाना यात्रा शुरू हो। मार्खेज के इस उपन्यास का अकेला सच इस जड़ तस्वीर का पुन: आविष्कार था। और मार्खेज ने इस असंभव कृत्य को अस्सी बरस के अरीजा और 76 बरस की फरमीना के स्मर्णीय प्रेम से अंजाम दिया। चमत्कार यह था कि यह कोई तकदीर का असाधारण खेल नहीं था; यह बेहद आसान और विश्वसनीय था।
मैं मुस्करा दिया और मुझे यह आभास था कि यही मुस्कराहट मेरे चेहरे पर बरसों पहले आई थी। फरक इतना ही था कि हाल की मुस्कान इतने सालों की दूरी और बीत गई जिंदगी के बोझ से दबी थी। सिर्फ एक ही अहसास था जो हूबहू वही रहा जो पहले और हमेशा था : वह थी नाइटी में ब्यूटी की तस्वीर!
एक नजदीकी स्पष्टता से अब मैं देख पाता हूँ कि उन तीन चार महीनों में मुझ पर प्रेम का जुनून सवार हो गया था। जुनून ब्यूटी का भी था। और इन दो समीकरणों को मिलाने से कथ्य बना कि ब्यूटी प्यार है और प्यार ब्यूटी : दोनों अविभाज्व एकरूप। यह अभिन्नता मेरे भावोन्माद का तत्व था। इसका अर्थ एक मायने में यही हुआ कि मैं ब्यूटी को दिलोजान से चाहता था। पर यह व्याख्या मेरे मस्तिष्क में तब ठीक से कभी स्थापित नहीं हुई।
छत की हमारी प्रणयलीला अपनी गति से चलती रही : न कमतर हुई, न तेज। उसका एक कठोर, सुनिश्चित पथ था और उसके नियम मानो गुलाब के पत्तों से स्थायी रूप से रचे गए थे। उन आँखों के लिए, जो अनश्वर प्रेम के बादलों में धूमिल थीं, मिलिट्री तैयारी की अनभ्यता और एक भावपूर्ण राग के मधुर स्वर में खास फरक नहीं है। तानाशाह अक्सर सबसे भावप्रणव होते हैं।
जैसे दिन गुजरे, मेरी चौकसी और इश्कजोरी में एक भावुक मार्मिकता के डोरे तिरने लगे। मैं इस तरह व्यवहार करने लगा मानो यह सब नियत है और दैवयोग ने मुझे चुन लिया है। मैं खुद को दो तस्वीरों में देखने लगा : एक जो इश्क फरमा रही थी और दूसरी जिसने मुहब्बत का कँटीला ताज पहना था। मौसम अचानक खुश्क और ठंडा हो गया था और सर्दियाँ देहरी तक आ गईं थी। अक्सर, सुबह और शाम, मैं एक शॉल कंधों पर डाल लेता। और स्वमेव, मानो कोई अन्य शक्ति मुझे संचालित कर रही थी, मेरे कंधे हल्के से झुक जाते और विषाद के अदृश्य धूल कण मुझ पर गिरने लगते। फिर मुझे अजीब सा ख्याल आता कि दो कोमल पंजे, एक पर उदासी का लेप और दूसरे में मुग्ध, कोमल प्रेम की थपकी, मेरे दिल में अगल बगल मौजूद हैं। अनायास मेरी आँखें आकाश में इंद्रधनुष तलाशतीं : धूप में भीगी पानी की फुहार। इस तरह मैं खुश भी होता और उदास भी जिसका मतलब यह भी था कि न मैं खुश था न उदास। पर इसमें शक नहीं था कि मनःस्थितियों का इंद्रधनुष ब्यूटी थी और उस पर न शॉल था न कोई आवरण, उसने बस नाइटी पहनी थी और हमारे साझे राज में नाइटी में ब्यूटी वैसी ही थी जैसी निर्वस्त्र ब्यूटी, दोनों में कोई फरक नहीं था। आवेग के ऐसे उद्गार कभी कभी आते और क्षणिक होते और जल्दी ही मैं अपनी इकसार, नीरव मनोदशा में लौट जाता।
निरंतर और गाढ़े पड़ने से तनाव और थकान पैदा हो रही थी, उसे मैंने फिल्मों और सिने संगीत से हल्का किया। इनके लिए भी मामा की लाइब्रेरी खान साबित हुईं। मेरा समग्र ध्यान रूमानियत पर ठहरा था। मैंने अनेक मशहूर हॉलीवुड फिल्मों को पहली बार और दोबारा देखा जिनके बेहद लुभावने टाइटिल थे : एन अफेयर टू रिमेंबर, लव इज अ मैनी स्प्लेन्डर्ड थिंग, द वे वी वर, इट हैपिन्ड वन नाइट वगैरह, मेरी प्रिय फिल्म थी ब्रीफ एनकाउंटर का दूसरा संस्करण जिसमें सोफिया लॉरेन और रिचर्ड बर्टन थे। जिन हिंदी फिल्मों को मैंने देखा उनमें राजकपूर, दिलीप कुमार और गुरुदन प्रमुख थे। मैंने बाजार से एक राजकपूर और नरगिस का पोस्टर खरीदा और उसे दीवार पर इस तरह लगाया कि सुबह सबसे पहले वही दिखता।
और हिंदी के फिल्मी गाने! रात भर वे चलते रहते, मैं सो भी जाता और न जाने कितनी शामें और रातें थीं जब मैं दिल थाम लेता, मुझे लगता कि ब्यूटी अँधेरे में यहीं है, मेरे पास, और हम दोनों हैं जो एक दूसरे के लिए गा रहे हैं।
न जाने कितनी जान, अनजान फिल्मों के भूले, पहचाने गीतों के बोल, अंतरे मेरे जेहन में गहन बवंडर की तरह उमड़ने लगे :
तेरे बिना जिंदगी से कोई, शिकवा तो नहीं
तेरे बिना जिंदगी भी लेकिन, जिंदगी तो नहीं
मेरे अंग अंग, पोर पोर से ये बोल इस तरह निकल रहे थे ज्यों बारिश के दिनों में, या अकारण ही, कीड़े, कीट, पतंगों का हुजूम, चीटिंयों की कतारें न जाने किन छेदों और बिलों से बाहर निकल पड़ती हैं, उनका न आदि न अंत :
तेरे मेरे सपने अब एक रंग हैं
जहाँ भी ले जाएँ राहें हम संग हैं
ऐसे गीत, ऐसे बोल जिन्हें न जाने मैंने कभी सुना, गाया भी था या नहीं पर जो मेरे मन के बंदरगाह में फिर भी लंगर डाल रहे थे :
दिन ढल जाए हाय रात न जाए
तू तो न आए तेरी याद सताए
एक माँ की आरती और प्रार्थनाएँ थीं और दूसरे हजारों फिल्मों के हजारों गीत जो शायद आजन्म मेरी मन श्रुति के सच्चे नायक थे :
वक्त ने किया क्या हसीं सितम
तुम रहे न तुम हम रहे न हम
और अचंभा यह था कि फूहड़ और संजीदे से संजीदे गीत ब्यूटी की टिमटिमाती तस्वीर के साथ इस तरह अंतरंग थे मानो उसके लिए हों, सिर्फ उसके हों :
न हम तुम्हें जानें न तुम हमें जानो
मगर लगता है कुछ ऐसा मेरा हमदम मिल गया
एकदम लकड़ी सा प्रहार करती पंक्तियाँ, उनमें भी मुझे गहन, पारंगत अर्थ प्रतीत हो रहा था :
हमें तुमसे प्यार कितना ये हम नहीं जानते
पर जी नहीं सकते तुम्हारे बिना
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.