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कहानीकार
#13
इस डाँवाडोल स्पर्श की तलाश में मुझे कभी जलालत नहीं उठानी पड़ी। और यह सिर्फ स्पर्श का खेल ही रहा, इसमें आगे जाने की और गुंजाइश नहीं थी। सिर्फ एक या दो वाकये थे जब निमंत्रण और छूने की पहल किसी लड़की या औरत की थी : चूड़ियों की वह खनखनाहट आज भी मैं सुन लेता हूँ। पर इन अनुभवों का यथार्थ कभी बाहर नहीं आया और, कह सकते हैं, एक तरह से वह उन रातों के साथ ही दफन हो गया। कौन कौन था और किसने किसे स्पर्श किया यह राज बस राज था।

मैं अपने कस्बे के उन गिनेचुने जवानों में हूँगा जिसका वास्तव में एक ठीकठाक उत्कट अफेयर हुआ। यह उस वक्त की बात है जब मैं कम्युनिस्ट हो गया था। अफेयर उतनी ही जल्दी और अचानक खत्म भी हो गया जितना यूनियन राजनीति से मेरा जुड़ाव। वाम विचारधारा से जरूर मेरा हमेशा के लिए मोहभंग हो गया पर इस लड़की के प्रति मेरे मन में आज भी दुलार और जिज्ञासा बची है।

वह साथी कॉमरेड थी और शहर के एकमात्र लड़कियों के कॉलेज के हॉस्टल में रहती थी। वह हमारे कोर ग्रुप की अकेली महिला सदस्य थी (लेफ्ट यूनियन की संभवतः पहली लड़की सदस्य) और कुछ अज्ञात कारण थे कि दूसरों के बनिस्बत जो ज्यादा निपुण और प्रभावशाली थे, उसका झुकाव मेरी तरफ ज्यादा था। ग्रुप से मेरे निष्कासन के बीज उसी दिन पड़ गए थे जब उसने खुले रूप से मुझे चुना। मैंने वह जगह हस्तगत कर ली थी जो हमारे प्रत्येक कॉमरेड की दिली और दबी ख्वाहिश थी।

वह जोखिम लेना जानती थी। वह आक्रामक, स्पष्टवादी और निडर थी। मुझसे कहीं ज्यादा साहसी। उसके समक्ष मैं कतरा कतरा हो जाता, उसके पतले, पर शक्तिशाली हाथों में मैं जेली की तरह था। उसने वह बरसाती खोजी जो उस वीरान, जर्जर इमारत में थी जहाँ हमारा दफ्तर होता था। और वह हमारे रतिरंग का आशियाना था। प्यार का बनाना तय था जिस दिन हम मोर्चा निकालते, घेराव करते या उन तबकों से लोहा लेते जिन्हें वह पतित पूँजीवादी व्यवस्था का स्तंभ बुलाती। अश्लील और भद्दे मजाक से उसे कोई गुरेज नहीं था। वही कहती : तुम्हारा स्तंभ लचर जरूर है वह पतित नहीं! वह बेहद उत्साह और दमखम से मेरी सवारी करती, उसकी ऊर्जा में उतनी ही प्रचुरता जितना वह नारे लगाने में इस्तेमाल करती।

वह बेहद पतली थी और होंठ ऐसे थे मानो हजारों मधुमक्खियों ने उनका रसपान किया है। वह सुंदर नहीं तो असुंदर भी नहीं थी। नन्हें, उग्र वक्ष थे उसके, मानो नवजागृत, पर रुपए के सिक्के जैसे उभरे मंडल और लंबे, स्याह स्तनाग्र। पर उसकी कमर थी जो नंगेपन में मुझे सम्मोहित करती थी। कमर इतनी पतली थी कि हैरत होती उसके शरीर का ऊपरी भाग टाँगों और नितंबों से कैसे जुड़ा है। इस तंग सी राह से खून भी कैसे बहता होगा, मैं सोचता। और गुस्से या उन्माद के पलों में मेरा उसकी कमर को दोनों हाथों में भर कर निचोड़ने का मन करता ताकि वह मेरी एक हथेली में समा जाए गर्दन की तरह।

हमारे समूह में वह सबसे खामोश और दृढ़ संकल्प थी, हमेशा धीर गंभीर। और मानो इस खामोशी का खामियाजा पाने के लिए वह प्रेम आचार में हद दर्जे की मुखर और उल्लासपूर्ण थी। वह चीख चिल्लाती, हुंकारें भरती, गलियाती और हमारे सभी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दुश्मनों के खिलाफ तान छेड़ देती। बरसाती की दीवारें हमारे क्रांतिकारी नायकों के फोटो और पोस्टरों से अटी थीं : शे और लेनिन से ले कर गदर और चारु मजूमदार। उसकी हथकड़ी जैसी जकड़न के नीचे कैद, मैं एक ऐतिहासिक निश्चयात्मकता की अजीब अनुभूति के साथ रति के उत्कर्ष में फिस्स हो जाता। ज्यों यह सब चलता रहा, मुझे लगने लगा जैसे मैं उत्पीड़ित हूँ : मानो मेरा कायांतरण उस दुश्मन के रूप में हो गया है जिसे मेरी इश्क परी नेस्तनाबूद करना चाहती है। हमारा अफेयर वैसे ही अकारण और अचानक खत्म हो गया जिस तरह वह शुरू हुआ था, जब उसके माता पिता ने उसे घर बुला भेजा। उस वक्त मेरे लिए दोनों घटनाएँ रहस्यपूर्ण थीं : अफेयर की शुरुआत और उसका अंत।

यह सब लिखने के क्षणों में भी मैं कभी कभी सोचता क्या मैं असली में कहानी लिख रहा हूँ, या यूँ ही कलम चला रहा हूँ ताकि ब्यूटी को पढ़ कर सुना सकूँ। क्या यह सब ब्यूटी के साथ एक कल्पित संवाद है या उसके समक्ष इकबाल, या यह वास्तव में लेखन की तमन्ना है जिसमें कहानी के कला सिद्धांत अपनाना पहली जरूरत है?

यह सब कुछ उलझन भरा था और इस उलझन के घने जंगल में वह सवाल था जिसे मैं लगातार स्थगित कर रहा था। सवाल, जिसमें जोंक की तरह चिपटने का गुण था और खून चूसने का, यह था : मैंने खुद को कहानीकार होने का लाइसेंस और गौरव किस आधार पर प्रदान कर दिया?
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 11:29 AM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 03:57 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 03:58 PM
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RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:00 PM
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