03-12-2019, 04:03 PM
किसी औरत की देह के स्पर्श और उसके गुणों के रहस्य से मेरी पहलेपहल वाकफियत आदर्श गुमनामी में हुई जहाँ पकड़े जाने या पोल खुलने का लेशमात्र भी भय नहीं था। इस उन्मुक्ति ने ऐसा पापमय, रोमांचक और एकाकी उद्वेग जगाया जिसका कोई सानी नहीं था। शादी और त्यौहारों के अवसर पर परिवार और रिश्तेदारों का उद्दंड और निरंकुश जमावड़ा होता। कालीन, दरियों और गद्दों पर बिस्तर लग जाते, आँगन में, छतों और टेरेस पर जहाँ सफेद तकियों और चादरों से पूरा विस्तार अट जाता। और सोते, उनींदा शरीर होते जिन्हें हर दिशा में और कितनी भी दूर सरकने और लुढ़कने की आजादी होती। वहाँ हर उम्र के दोस्त, दूर और पास के रिश्ते की बहनें, उनकी सखियाँ और आंटियाँ होतीं। मुझे वे लंबी रातें खूब याद हैं जब मेरे हाथ बाहर निकलते और शरीर की कोमल मांसलता को छू कर दंग रह जाते। लुकछिप के, कुहनी, उँगलियाँ, जाँघें और पैर के आकस्मिक स्पर्श और छुअन के बाद, हाथ किसी वक्ष या उदर की सतह पर थम जाता, या घुटने की गर्तिका में, या जाँघ की मुलायम ऊष्मा। खुद अँधेरे में होना, न देख पाना और देखना न चाहना कल्पनाओं को आग देता था। इसके बाद यह फिक्र और उत्सुकता थी : कि पेट है या पीठ, नाभि कहीं नाक का द्वार न हो या जिस वस्त्र के सिरे को तुम घंटे भर से ऊपर खींच रहे हो वह चादर का सिरा है... ब्लाउज के बटन खोलने में लंबे मिनट लगते, हर सफलता के साथ मानो बम भी फटा है; ब्रा के आगे या पीछे की गाँठ से अनोखा संघर्ष, साड़ी की कभी खत्म न होनेवाली लंबाई का त्रास, चूड़ीदार और स्लैक्स के बेरहम तंग सिरे, चेन के पतले धातु के धागे से आरामदेह खेल, अँगूठी का चाँदी का खुरदरा जड़ा, कानों की बाली के बीच में जीभ फँसाने की कोशिश... इन सब जतन में एक निरपेक्ष गति थी जो कि जरूरत पड़ने पर अन्यत्र का अभेद्य सबूत थी... एक छिपकली की तरह जो घंटों एक ही मुद्रा में स्थिर और निश्चल रहती है, उसका पूरा ध्यान अगले कदम पर है। पर पकड़े जाने और बचाव का अवसर कभी आया नहीं और यह भी अपने आप में रहस्य है।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.