03-12-2019, 04:02 PM
हालाँकि बाप और बेटा छत के गर्भगृह में बिरले ही पहुँचते, उनसे जुड़े सवाल जरूर वहाँ हवा में मँडराते, ये सवाल धूल के भँवर की तरह थे जो ब्यूटी के सिर के ऊपर तैरता लगता। कम से कम मैंने इस तरह सोचा, ब्यूटी के बारे में पता नहीं। इन सवालों की अपनी अहमियत थी और उनके जवाबों की दरकार कभी न कभी बननी ही थी। उस व्यक्ति से मुझे जलन क्यों नहीं थी? कितना ही धुँधला क्यों न सही, जो अपरिहार्य त्रिकोण अब बन रहा था, उसके बारे में ब्यूटी क्या सोचती थी? अपने पुत्रा की छाया में ब्यूटी मुझे किस रूप में स्वीकार कर रही थी? इन सवालों को कुरेदने के लिए मेरे पास अनुभव का कोई भंडार नहीं था। सिर्फ कही कहानियाँ ही मुझे मार्ग दिखला सकती थीं। तो मैं फिर कथा साहित्य के सागर में डुबकियाँ लगाने लगा : मुहब्बत और दीवानेपन का साहित्य; गुनाह और जुदाई का, संताप और वंचना का; दिल-ओ-धड़कन की अंतरंग बेवफाई का साहित्य... यह प्रेम कथाओं की असीम नदी में मेरे मुकुल उद्वेग के बेदाग वस्त्र को भिगोने की तरह था, बार बार भिगोना और बाहर निकाल कर देखना उस पर कौन से रंग और छींटे हैं। और क्या इससे वह पोशाक बनेगी जो पूरी तरह मेरी होगी।
विदेशी साहित्य की जगह कुछ दिन मैंने अपना ध्यान भारतीय कथा संसार की ओर मोड़ा। वह भाषा जिसमें मैं अपना बचपन, मेरे कस्बे के अफसानों को याद करता हूँ। जो भाषा है : भूली यादों और तस्वीरों की, पहलेपहल के तजुर्बों की; एक गहन, घनिष्ठ पारिवारिक जीवन की खुशबुएँ, गीत और अमिट फुसफुसाहटें; भाषा जिसमें मौसम के बदलाव, बादलों की संरचनाएँ, मेरी कुंठा, आशंकाएँ, दुख, सुख, ग्लानि और अव्यक्त भावनाओं की कुंजियाँ हैं।
मेरे मकसद तीक्ष्ण और तात्कालिक थे। किताबों के अंदाजन पर माकूल चुनाव में जैसे ब्यूटी का हाथ मुझे राह बतला रहा था। यह कमजोर पक्ष था कि गूगल सर्च का फायदा नहीं था। बहरहाल, मैंने खुद को मामा की लाइब्रेरी की सीमा में बाँध लिया। अंत में जो शार्टलिस्ट बनी उसमें निम्न थे : शेखर जोशी का 'कोसी का घटवार', रेणु की मशहूर 'तीसरी कसम', धर्मवीर भारती का उपन्यास, 'गुनाहों का देवता'; ज्ञानरंजन, अनंतमूर्ति और वासुदेवन नायर की कुछ कहानियाँ। यह अहसास लगातार था कि कहानियों का सरोवर विशाल, बल्कि अनंत है। और भी कृतियाँ और लेखक थे जिन्हें मैंने छुआ, कुछ विचार किया और फिर अलग रख दिया : जिस तरह फोटो में महान आत्माओं के पैर छूते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। महान शास्त्रीय साहित्यकारों का आभास तो हमेशा था ही : कालिदास, जयदेव और मुझे जैसे बोध था कि किन्हीं तन्हा शामों में मैं जरूर मेघदूत का पाठ करूँगा। जिन किताबों का मैंने ऊपर जिक्र किया है, उन्हें मैंने मेज के एक तरफ रख दिया था। इस ख्याल में गजब की स्फूर्ति थी कि किताबों का यह नन्हा सा टीला मेरा कवच था जिसे पहन कर मैं जंग में ब्यूटी का हाथ जीतने के लिए निकल रहा था।
पर क्या मैं वास्तव में ब्यूटी का हाथ जीतना चाहता हूँ? आखिर हो क्या रहा है? मार्खेज की कहानी से अभिभूत हो कर मैंने उसका नाम ब्यूटी रख दिया। मैं उसे ताक रहा था, उसके बारे में सोच रहा था। इतना सही था। फिर ये मेज के बाएँ कोने में किताबें थीं। और आखिर में, वे पन्ने जिन्हें मैं लिख रहा था और सोच रहा था यह एक कथा है। तो क्या मैं कथाकार हूँ और ब्यूटी मेरी कहानी की नायिका? या मैं प्रेमी हूँ और ब्यूटी मेरी महबूबा? ब्यूटी थी जिसने मेरी कल्पना, उड़ानों और चाहतों को झंकृत किया था। समस्या यह थी मैं कहाँ खड़ा हूँ? क्या कथा मेरे अनुभव को निर्मित कर रही थी? या यह अनुभव मेरी कहानी का आधार है? और भी खराब, क्या कहानी की रचना के लिए या ब्यूटी का हाथ जीतने के लिए या दोनों मंसूबों के लिए मैं प्रेम और भावावेग का अनुपम साहित्य चुरा रहा था? अगर ऐसा ही है, तो समाधान एकमात्र ही दिखता है : कि कथा और अनुभव यथार्थ का चरम या उत्कर्ष एक साथ हों!
पर इस वक्त मैं मात्र गुरोब का कैप पहनने से संतुष्ट नहीं था। आन्ना की छवि में ब्यूटी का सम्मोहन बरकरार था। पर आगे बढ़ने का समय आ गया था।
अचानक, तीन दिन के लिए (आज मैं याद करता हूँ यह वक्त अनंत संत्रास का था मानो फुटबॉल के गोल पोस्ट के बीच वेदना के तार खिंचे हैं) मौसम पूरी तरह बदल गया। गर्मी और उमस, हवा मानो फुसफुसाती-सी, और निचले बादल आकाश में टँगे थे, मृत और निश्चेष्ठ। शहर और देश पर एक के बाद एक नए संकट मँडरा रहे थे, इंसान जनित और प्रकृति के कहर। अनेक डर सार्वजनिक कोनों में दुबके थे और उनमें से एक डेंगी का बुखार भी था... दो दिन लगातार ब्यूटी छत पर नहीं आई। यह पहली बार हुआ था। मैं इंतजार करता रहा : न कोई संकेत न लक्षण। ब्यूटी उतनी ही सर्वव्याप्त और गुम हो गई थी जितनी कि बारिश जो बादलों से गिरने को तैयार ही नहीं। बेडरूम के दोनों परदे पूरे वक्त, पूरी ढिठाई से खिंचे रहे। परदों में कोई कंपन नहीं था, न ही पीछे कोई गति। गलियारे की पीली, धूमिल रोशनी दिन में अधिकांश समय जली रहती और रात में, पर किसी मौजूदगी या छाया का नामोनिशान नहीं था। कभी मैं चिंतित होता कभी व्याकुल। तनाव मुझे डसने लगा। कभी एकाएक गुस्सा आता। मैं लगातार चौकसी कर रहा था पर हर जतन के बाद हाथ लगी गहरी, खाली निराशा। पहली बार मुझे अहसास हुआ कि मेरा दिल और आत्मा किस गहराई तक ब्यूटी की इत्तला और लय से जुड़ गए थे। मेरे अस्तित्व का उतार चढ़ाव मानो उसकी साँस में समा गया था। यह साफ हो गया कि यह कोई खेल या परीक्षण नहीं था, और अगर था, तो वह मुझसे कहीं आगे निकल गया था और उसकी अलग अस्मिता बन गई थी।
क्या हो सकता है मैंने सोचा? क्या परिवार छुट्टियाँ मनाने निकल गया है, शायद? पर गलियारे की रोशनी, कितनी भी धुँधली, यह इत्तला दे रही थी कि ऐसा नहीं है। हो सकता है पति न हो? या बच्चा बीमार हो? या दोनों। यह मेरी कल्पना के परे था कि ब्यूटी कुछ और हो सकती थी सिवाय ब्यूटी के।
उसका छत पर न आना फिर भी बर्दाश्त योग्य था। मेरा तनाव परदों की खामोशी से और ज्यादा खिंच गया था। अचानक वे परदे एक मोटी दीवार की तरह अभेद्य हो गए थे और मेरा जिगर डूबा जा रहा था कि ब्यूटी जो उनके पीछे है, वह मेरे लिए असमाधेय तरीके से खो गई है।
कई घंटों तक मैंने विगत हफ्तों के परदों के जादुई करतबों को पुन: जिया : किस तरह वे मुझसे ब्यूटी के अंतरतम की कहानियाँ कहते थे। यह मुझे तरसा रहा था, तड़पा रहा था।
परदों की वह भाषा थी जिसे मैंने अपना बना लिया था। मैं जानता था और मेरा विश्वास था कि वह ब्यूटी थी जो दिन और रात में परदे खींचती थी, उन्हें खोलती थी। और इस खुलने बंद होने की क्रिया में, उसकी बुनावट में वह अपने संकेत मुझे भेजती थी।
एक खलबल ढेर में चित्र मेरे सामने प्रकट हुए : देर दोपहर, भीतर अँधियारा दोनों परदे इस तरह खिंचे कि दो दरारें दिखाई दे रही थीं। ज्यों ब्यूटी शयनकक्ष के एक कोने से दूसरे तक जाती तो मुझे दिखाई देती, दो क्षणिक तस्वीरें, एकाएक बिजली की कौंध की तरह! शाम का धुँधलका : सामने सिर्फ पतले परदे खिंचे हैं, भीतर झीना प्रकाश जिसमें ब्यूटी को परछाईं अचानक बड़ी होती है और फिर लुप्त...। मैं बरामदे में गोल खाने की टेबिल के निकट बैठ कर परदों की यह सांकेतिक नुमाइश देखता। खाने के बाद मैं वहाँ एक सिगरेट पीता और बरामदे के अँधेरे में मेरी आँखें अधीर व तत्पर रहतीं। ब्यूटी ने कई बार बेहद चालाकी और निपुणता का परिचय दिया। एक शाम उसने परदों में इस तरह दरार बनाई कि मैं उसे ड्रेसिंग टेबिल पर बैठे बस इंच भर देख रहा था, उसकी पीठ मेरी ओर और वह सीधे, लंबे और आरामदेह प्रयास में अपने बाल बना रही थी। वह एक बार भी पीछे नहीं मुड़ी, बस अंत में उठी और परदे ढाँप दिए। परदों में दरारें इस तरह होतीं कि मुझे ब्यूटी का पति बिरले ही दिखाई देता... कभी कभी, लंबा पढ़ने या लिखने के बाद मैं यंत्रवत सा रात में बरामदे में चला आता। एक ऐसी रात, देर हो गई थी, मैंने सीधे बेडरूम की ओर देखा। तभी कमरे की ऊपर की लाइटें बुझ गईं, एक अनदेखे हाथ ने मोटे परदे खोल दिए और मानो इस अनावृति से खुश हो कर सफेद, पारभासी परदे सरसराने लगे, उनका अपना अनोखा संगीत था। कमरे के दो कोनों में बिस्तर किनारे लैंप जल रहे थे, दो डोलते से रोशनी के वृत्त थे। फिर दाईं ओर का प्रकाशवृत्त बुझा। मेरा विश्वास अडिग था यह घेरा पति का था। मैंने सिगरेट जलाई, यह गहन अनुभूति कि सिर्फ ब्यूटी जगी थी। कुछ क्षण गुजरे, कुछ पल फिर कुछ मिनट। जिंदगी इतनी परिष्कृत कभी नहीं थी, आशा और उम्मीद के तारों से जगमग। मैं एक साथ उत्तप्त और प्रशांत था। जैसे किसी शिलालेख पर उभरी हाल की लिपि पढ़ रहा हूँ, मैंने सबूत देखा : कि मैं उसके लिए साँस ले रहा था और वह मेरे लिए। यह उन्निद्र निगरानी साझा थी, यह आपस का अकहा वादा था। उन क्षणों में मैं उसका आभास था, वह मेरी तस्वीर... फिर एक छाया हिली और आगे बढ़ी। विशाल हो गई परछाईं और तब उसने परदे पर एक स्पर्श बनाया। परदे के बीच एक महीन दरार उत्पन्न हो गई थी और उसके पीछे एक नीला अँधेरा था। परछाईं फिर एक बिंदु मात्रा में गुम हो गई और अचानक गहन अँधियारा। इस अँधेरे और निश्चलता को मैंने अपनी हड्डी की गहराइयों में महसूस किया। और मैं ब्यूटी के और निकट आ गया। हवा की उस गंध में मुझे ब्यूटी की साँस की पहचान महसूस हो रही थी मानों वह बस मेरे बगल में बैठी है, चाँदनी रात की मिठास में डूबे दिलबर...।
चौथे दिन, सुबह, मैंने ब्यूटी को फिर देखा। हर्ष और उल्लास की लहरें दौड़ पड़ीं मेरे दिल में, तीन दिन की यंत्रणा के बाद एक भार उठता सा लगा और मैं एक वर्णन के परे भावातिरेक से काँप काँप गया। उसके देह प्राण में मुझे गुलाबी कतरे से महसूस हुए, उसकी आँखें और शरीर अतिरिक्त सौंदर्य से दमकते से जान पड़े। जैसे उफान में नदी जिसे नतीजों से कोई भय नहीं, जुदाई की इस अवधि में मेरे आवेग का स्तर उठ गया था... मैंने दो तरह की दुनिया देख ली थी : एक संसार ब्यूटी के बिना जहाँ अँधेरा घिरा था और एक संसार जो ब्यूटी की आभा से प्रकाशमान था। मैं इन दो संसार के बीच कूदा, झूला था और इस छलाँग ने मुझे प्यार की बेसुधी का नया पैमाना दिया। ऐसा लगा कि मेरी भावनाओं की उछाल से ब्यूटी भी उद्वेलित हुई थी और उसने हमारे प्यार की मूल भाषा के स्तर को ऊँचा कर दिया। मैंने ब्यूटी की भंगिमाओं में नई गति देखी और नवीन आत्मीयताएँ : अक्सर, छत पर वह अपने हाथ उठाती और खुले, बहते बालों का जूड़ा बनाती; मेरे ख्याल से प्रभाव को गहरा करने के लिए वह दाँतों में क्लिप दबा लेती। उसकी खुली, सफेद बाँहें एक घुमाव में ऊपर खिंचती और काँख की हल्की, स्याह रंगत दिखाई देती। वहाँ जो स्वेद की अपरिहार्य परत बनी होती, उसकी मृदु गंध, मुझे लगता, मुझ तक आ रही है। रात में, सफेद झीने परदे हल्के से अलग होते (गुलाब की सटी पंखुड़ी की तरह), सिर्फ ब्यूटी की तरफ का लैंप जला होता, और वह कभी कभी कोई कोमल, सुहाना सा गीत चला देती। नम मौन इस तरह का होता, कि गीत का सुरीला स्वर आसानी से मुझ तक पहुँच जाता। और मुझे स्टेनढाल की याद आई जिसने लिखा था कि प्रेम और संगीत की जड़ें एक हैं और वे अव्यक्त को व्यक्त करते हैं... यह मेरी अधिकाधिक कल्पना का धोखा हो सकता है पर मुझे लगता है एक रात ब्यूटी ने झीने परदे की ओट में अपने कपड़े भी उतारे थे। ऐसा नहीं कि मैं उसे देख पा रहा था पर उसे तब पूरा अहसास था कि मैं बरामदे में बैठा हूँ और मेरे नेत्र लगातार परदे के झीनेपन पर दस्तक दे रहे थे।
विदेशी साहित्य की जगह कुछ दिन मैंने अपना ध्यान भारतीय कथा संसार की ओर मोड़ा। वह भाषा जिसमें मैं अपना बचपन, मेरे कस्बे के अफसानों को याद करता हूँ। जो भाषा है : भूली यादों और तस्वीरों की, पहलेपहल के तजुर्बों की; एक गहन, घनिष्ठ पारिवारिक जीवन की खुशबुएँ, गीत और अमिट फुसफुसाहटें; भाषा जिसमें मौसम के बदलाव, बादलों की संरचनाएँ, मेरी कुंठा, आशंकाएँ, दुख, सुख, ग्लानि और अव्यक्त भावनाओं की कुंजियाँ हैं।
मेरे मकसद तीक्ष्ण और तात्कालिक थे। किताबों के अंदाजन पर माकूल चुनाव में जैसे ब्यूटी का हाथ मुझे राह बतला रहा था। यह कमजोर पक्ष था कि गूगल सर्च का फायदा नहीं था। बहरहाल, मैंने खुद को मामा की लाइब्रेरी की सीमा में बाँध लिया। अंत में जो शार्टलिस्ट बनी उसमें निम्न थे : शेखर जोशी का 'कोसी का घटवार', रेणु की मशहूर 'तीसरी कसम', धर्मवीर भारती का उपन्यास, 'गुनाहों का देवता'; ज्ञानरंजन, अनंतमूर्ति और वासुदेवन नायर की कुछ कहानियाँ। यह अहसास लगातार था कि कहानियों का सरोवर विशाल, बल्कि अनंत है। और भी कृतियाँ और लेखक थे जिन्हें मैंने छुआ, कुछ विचार किया और फिर अलग रख दिया : जिस तरह फोटो में महान आत्माओं के पैर छूते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। महान शास्त्रीय साहित्यकारों का आभास तो हमेशा था ही : कालिदास, जयदेव और मुझे जैसे बोध था कि किन्हीं तन्हा शामों में मैं जरूर मेघदूत का पाठ करूँगा। जिन किताबों का मैंने ऊपर जिक्र किया है, उन्हें मैंने मेज के एक तरफ रख दिया था। इस ख्याल में गजब की स्फूर्ति थी कि किताबों का यह नन्हा सा टीला मेरा कवच था जिसे पहन कर मैं जंग में ब्यूटी का हाथ जीतने के लिए निकल रहा था।
पर क्या मैं वास्तव में ब्यूटी का हाथ जीतना चाहता हूँ? आखिर हो क्या रहा है? मार्खेज की कहानी से अभिभूत हो कर मैंने उसका नाम ब्यूटी रख दिया। मैं उसे ताक रहा था, उसके बारे में सोच रहा था। इतना सही था। फिर ये मेज के बाएँ कोने में किताबें थीं। और आखिर में, वे पन्ने जिन्हें मैं लिख रहा था और सोच रहा था यह एक कथा है। तो क्या मैं कथाकार हूँ और ब्यूटी मेरी कहानी की नायिका? या मैं प्रेमी हूँ और ब्यूटी मेरी महबूबा? ब्यूटी थी जिसने मेरी कल्पना, उड़ानों और चाहतों को झंकृत किया था। समस्या यह थी मैं कहाँ खड़ा हूँ? क्या कथा मेरे अनुभव को निर्मित कर रही थी? या यह अनुभव मेरी कहानी का आधार है? और भी खराब, क्या कहानी की रचना के लिए या ब्यूटी का हाथ जीतने के लिए या दोनों मंसूबों के लिए मैं प्रेम और भावावेग का अनुपम साहित्य चुरा रहा था? अगर ऐसा ही है, तो समाधान एकमात्र ही दिखता है : कि कथा और अनुभव यथार्थ का चरम या उत्कर्ष एक साथ हों!
पर इस वक्त मैं मात्र गुरोब का कैप पहनने से संतुष्ट नहीं था। आन्ना की छवि में ब्यूटी का सम्मोहन बरकरार था। पर आगे बढ़ने का समय आ गया था।
अचानक, तीन दिन के लिए (आज मैं याद करता हूँ यह वक्त अनंत संत्रास का था मानो फुटबॉल के गोल पोस्ट के बीच वेदना के तार खिंचे हैं) मौसम पूरी तरह बदल गया। गर्मी और उमस, हवा मानो फुसफुसाती-सी, और निचले बादल आकाश में टँगे थे, मृत और निश्चेष्ठ। शहर और देश पर एक के बाद एक नए संकट मँडरा रहे थे, इंसान जनित और प्रकृति के कहर। अनेक डर सार्वजनिक कोनों में दुबके थे और उनमें से एक डेंगी का बुखार भी था... दो दिन लगातार ब्यूटी छत पर नहीं आई। यह पहली बार हुआ था। मैं इंतजार करता रहा : न कोई संकेत न लक्षण। ब्यूटी उतनी ही सर्वव्याप्त और गुम हो गई थी जितनी कि बारिश जो बादलों से गिरने को तैयार ही नहीं। बेडरूम के दोनों परदे पूरे वक्त, पूरी ढिठाई से खिंचे रहे। परदों में कोई कंपन नहीं था, न ही पीछे कोई गति। गलियारे की पीली, धूमिल रोशनी दिन में अधिकांश समय जली रहती और रात में, पर किसी मौजूदगी या छाया का नामोनिशान नहीं था। कभी मैं चिंतित होता कभी व्याकुल। तनाव मुझे डसने लगा। कभी एकाएक गुस्सा आता। मैं लगातार चौकसी कर रहा था पर हर जतन के बाद हाथ लगी गहरी, खाली निराशा। पहली बार मुझे अहसास हुआ कि मेरा दिल और आत्मा किस गहराई तक ब्यूटी की इत्तला और लय से जुड़ गए थे। मेरे अस्तित्व का उतार चढ़ाव मानो उसकी साँस में समा गया था। यह साफ हो गया कि यह कोई खेल या परीक्षण नहीं था, और अगर था, तो वह मुझसे कहीं आगे निकल गया था और उसकी अलग अस्मिता बन गई थी।
क्या हो सकता है मैंने सोचा? क्या परिवार छुट्टियाँ मनाने निकल गया है, शायद? पर गलियारे की रोशनी, कितनी भी धुँधली, यह इत्तला दे रही थी कि ऐसा नहीं है। हो सकता है पति न हो? या बच्चा बीमार हो? या दोनों। यह मेरी कल्पना के परे था कि ब्यूटी कुछ और हो सकती थी सिवाय ब्यूटी के।
उसका छत पर न आना फिर भी बर्दाश्त योग्य था। मेरा तनाव परदों की खामोशी से और ज्यादा खिंच गया था। अचानक वे परदे एक मोटी दीवार की तरह अभेद्य हो गए थे और मेरा जिगर डूबा जा रहा था कि ब्यूटी जो उनके पीछे है, वह मेरे लिए असमाधेय तरीके से खो गई है।
कई घंटों तक मैंने विगत हफ्तों के परदों के जादुई करतबों को पुन: जिया : किस तरह वे मुझसे ब्यूटी के अंतरतम की कहानियाँ कहते थे। यह मुझे तरसा रहा था, तड़पा रहा था।
परदों की वह भाषा थी जिसे मैंने अपना बना लिया था। मैं जानता था और मेरा विश्वास था कि वह ब्यूटी थी जो दिन और रात में परदे खींचती थी, उन्हें खोलती थी। और इस खुलने बंद होने की क्रिया में, उसकी बुनावट में वह अपने संकेत मुझे भेजती थी।
एक खलबल ढेर में चित्र मेरे सामने प्रकट हुए : देर दोपहर, भीतर अँधियारा दोनों परदे इस तरह खिंचे कि दो दरारें दिखाई दे रही थीं। ज्यों ब्यूटी शयनकक्ष के एक कोने से दूसरे तक जाती तो मुझे दिखाई देती, दो क्षणिक तस्वीरें, एकाएक बिजली की कौंध की तरह! शाम का धुँधलका : सामने सिर्फ पतले परदे खिंचे हैं, भीतर झीना प्रकाश जिसमें ब्यूटी को परछाईं अचानक बड़ी होती है और फिर लुप्त...। मैं बरामदे में गोल खाने की टेबिल के निकट बैठ कर परदों की यह सांकेतिक नुमाइश देखता। खाने के बाद मैं वहाँ एक सिगरेट पीता और बरामदे के अँधेरे में मेरी आँखें अधीर व तत्पर रहतीं। ब्यूटी ने कई बार बेहद चालाकी और निपुणता का परिचय दिया। एक शाम उसने परदों में इस तरह दरार बनाई कि मैं उसे ड्रेसिंग टेबिल पर बैठे बस इंच भर देख रहा था, उसकी पीठ मेरी ओर और वह सीधे, लंबे और आरामदेह प्रयास में अपने बाल बना रही थी। वह एक बार भी पीछे नहीं मुड़ी, बस अंत में उठी और परदे ढाँप दिए। परदों में दरारें इस तरह होतीं कि मुझे ब्यूटी का पति बिरले ही दिखाई देता... कभी कभी, लंबा पढ़ने या लिखने के बाद मैं यंत्रवत सा रात में बरामदे में चला आता। एक ऐसी रात, देर हो गई थी, मैंने सीधे बेडरूम की ओर देखा। तभी कमरे की ऊपर की लाइटें बुझ गईं, एक अनदेखे हाथ ने मोटे परदे खोल दिए और मानो इस अनावृति से खुश हो कर सफेद, पारभासी परदे सरसराने लगे, उनका अपना अनोखा संगीत था। कमरे के दो कोनों में बिस्तर किनारे लैंप जल रहे थे, दो डोलते से रोशनी के वृत्त थे। फिर दाईं ओर का प्रकाशवृत्त बुझा। मेरा विश्वास अडिग था यह घेरा पति का था। मैंने सिगरेट जलाई, यह गहन अनुभूति कि सिर्फ ब्यूटी जगी थी। कुछ क्षण गुजरे, कुछ पल फिर कुछ मिनट। जिंदगी इतनी परिष्कृत कभी नहीं थी, आशा और उम्मीद के तारों से जगमग। मैं एक साथ उत्तप्त और प्रशांत था। जैसे किसी शिलालेख पर उभरी हाल की लिपि पढ़ रहा हूँ, मैंने सबूत देखा : कि मैं उसके लिए साँस ले रहा था और वह मेरे लिए। यह उन्निद्र निगरानी साझा थी, यह आपस का अकहा वादा था। उन क्षणों में मैं उसका आभास था, वह मेरी तस्वीर... फिर एक छाया हिली और आगे बढ़ी। विशाल हो गई परछाईं और तब उसने परदे पर एक स्पर्श बनाया। परदे के बीच एक महीन दरार उत्पन्न हो गई थी और उसके पीछे एक नीला अँधेरा था। परछाईं फिर एक बिंदु मात्रा में गुम हो गई और अचानक गहन अँधियारा। इस अँधेरे और निश्चलता को मैंने अपनी हड्डी की गहराइयों में महसूस किया। और मैं ब्यूटी के और निकट आ गया। हवा की उस गंध में मुझे ब्यूटी की साँस की पहचान महसूस हो रही थी मानों वह बस मेरे बगल में बैठी है, चाँदनी रात की मिठास में डूबे दिलबर...।
चौथे दिन, सुबह, मैंने ब्यूटी को फिर देखा। हर्ष और उल्लास की लहरें दौड़ पड़ीं मेरे दिल में, तीन दिन की यंत्रणा के बाद एक भार उठता सा लगा और मैं एक वर्णन के परे भावातिरेक से काँप काँप गया। उसके देह प्राण में मुझे गुलाबी कतरे से महसूस हुए, उसकी आँखें और शरीर अतिरिक्त सौंदर्य से दमकते से जान पड़े। जैसे उफान में नदी जिसे नतीजों से कोई भय नहीं, जुदाई की इस अवधि में मेरे आवेग का स्तर उठ गया था... मैंने दो तरह की दुनिया देख ली थी : एक संसार ब्यूटी के बिना जहाँ अँधेरा घिरा था और एक संसार जो ब्यूटी की आभा से प्रकाशमान था। मैं इन दो संसार के बीच कूदा, झूला था और इस छलाँग ने मुझे प्यार की बेसुधी का नया पैमाना दिया। ऐसा लगा कि मेरी भावनाओं की उछाल से ब्यूटी भी उद्वेलित हुई थी और उसने हमारे प्यार की मूल भाषा के स्तर को ऊँचा कर दिया। मैंने ब्यूटी की भंगिमाओं में नई गति देखी और नवीन आत्मीयताएँ : अक्सर, छत पर वह अपने हाथ उठाती और खुले, बहते बालों का जूड़ा बनाती; मेरे ख्याल से प्रभाव को गहरा करने के लिए वह दाँतों में क्लिप दबा लेती। उसकी खुली, सफेद बाँहें एक घुमाव में ऊपर खिंचती और काँख की हल्की, स्याह रंगत दिखाई देती। वहाँ जो स्वेद की अपरिहार्य परत बनी होती, उसकी मृदु गंध, मुझे लगता, मुझ तक आ रही है। रात में, सफेद झीने परदे हल्के से अलग होते (गुलाब की सटी पंखुड़ी की तरह), सिर्फ ब्यूटी की तरफ का लैंप जला होता, और वह कभी कभी कोई कोमल, सुहाना सा गीत चला देती। नम मौन इस तरह का होता, कि गीत का सुरीला स्वर आसानी से मुझ तक पहुँच जाता। और मुझे स्टेनढाल की याद आई जिसने लिखा था कि प्रेम और संगीत की जड़ें एक हैं और वे अव्यक्त को व्यक्त करते हैं... यह मेरी अधिकाधिक कल्पना का धोखा हो सकता है पर मुझे लगता है एक रात ब्यूटी ने झीने परदे की ओट में अपने कपड़े भी उतारे थे। ऐसा नहीं कि मैं उसे देख पा रहा था पर उसे तब पूरा अहसास था कि मैं बरामदे में बैठा हूँ और मेरे नेत्र लगातार परदे के झीनेपन पर दस्तक दे रहे थे।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.