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कहानीकार
#9
जहाँ तक मेरी बात है, मैं इस वक्त (जिसे मैंने 'सुबह' कहा है) को कैसे गुजारता था? आदत, विवरण, स्मृति और कहानी के लिहाज से दिन को चार रिवाजी हिस्सों में बाँटना ठीक लगा : सुबह, दोपहर, शाम और रात। भोर, गोधूलि और तारों भरी रात की गहराई (वे रातें जब नींद दूर थी) इस बँटवारे में चौंधियाते बिंदु थे : मानो चाँदी की अँगूठी जिसकी नोंक पर हीरे जड़े हैं।

इन हफ्तों में मैंने कई एक महान प्रेम कहानियाँ पढ़ीं, उनका चिंतन किया और उनसे सीखा कि इश्क के सरोवर के उत्तेजक तजुर्बे में विडंबनाओं को कैसे पहचानते हैं और उनका रस लेते हैं। जैसे मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि मेरे प्रणय गीत की अलौकिक आभा को कायम रखने के लिए जरूरी था कि मैं अपना मलिन, उनींदा रुटीन एक आत्मग्रस्त कठोरता से जारी रखूँ। यह पृष्ठभूमि कि सब कुछ पूर्ववत है, एक उजले रोमांस की शुद्धता बरकरार रखने के लिए जरूरी था। यह समीकरण अनेक सामान्य और सही उक्तियों के अनुकूल था जैसे : एक प्रतिशत अंत:प्रेरणा के पीछे निन्यानबे प्रतिशत पसीने की चट्टान होती है; महान नेतृत्व असंख्य चेहराविहीन जनमानस के हाथों पर ऊँचाई पाता है, वगैरह।

एक महास्वप्न जीने के लिए उसकी असलियत के भ्रम को पालना नितांत आवश्यक है। सो मैंने अपनी दिनचर्या में कोई बदलाव नहीं किया। सुबह मैं आधा घंटा दौड़ के लिए एक निकट के पार्क में जाता, वहाँ एक जॉगिंग ट्रैक था। लौटने के बाद चाय के कई कप बीच बीच में चलते। नाश्ते का कोई निश्चित समय नहीं था। टीवी से सीखा मैं थोड़ा योग अभ्यास करता और वजन उठाना भी : मामा के दो किलो के वेट्स थे जिन्हें वे शायद पचास वर्ष पहले इस्तेमाल करते थे। वजन उठाने का अभ्यास मैं छत पर करता या बरामदे में। यह वर्जिश यदाकदा नंगी छाती पर होती। सुबह अखबार पढ़ने के लिए भी थी जिसे ले कर मैं बरामदे की डाइनिंग टेबिल पर बैठता था। नहाने मैं जाता जब बाई आ जाती।



हफ्ते में कम से कम दो दिन मैं कार निकालता और शहर की अलग अलग दिशाओं में ड्राइव पर निकल जाता। मैं सड़कें और शहर की नाड़ी से वाकफियत बना रहा था। अब कोई मुझे बाहरी के रूप में नहीं देखता था। मैंने उस इलाके का भी सर्वेक्षण किया जहाँ मेरे भावी नियोक्ता के दफ्तर थे। यह कल्पना करना अच्छा लगा मैं किस तरह ऑफिस पहुँचूँगा और वहाँ से निकलूँगा। हफ्ते में एक दिन मैं सिनेमा हॉल में फिल्म देखता। हालाँकि डीवीडी की प्रचुरता थी, मेरे छोटे शहर की यह आदत मैंने नहीं छोड़ी। अक्सर शाम में मैं पैदल घूमने निकल जाता। अनेक गलियों और बाजार के मैंने च्क्कर लगाए। कहीं रुक कर पान या सिगरेट खरीदना हो जाता। मैं पटरी की दुकानों और ठेलों पर भी रुकता, उनके सामान देखता। कभी कोक पी लेता या आइ्सक्रीम या चॉकलेट।

मैं जानता था पड़ोसियों में मुझे ले कर कौतुहल है और वे मुझ पर नजर रखते हैं। पर मुझे चिंता नहीं थी कि वे, जवान और बूढ़े, औरतें और आदमी, मेरे बारे में अटकलें लगाते हैं, फैसला सुनाते हैं। या अफवाहों की किचकिच जिनका फैलना लाजिमी था। मेरे छोटे शहर ने मुझे ऐसे खतरों के लिए बखूबी तैयार रखा था। एक बालक और फिर उग्र नौजवान, मैं यह खेल जीतने में माहिर था। फितरती ताकझाँक करनेवालों की आँखों में किस तरह धूल झोंकी जाती है, मैंने यह पाठ खूब सीखा था। उस वक्त की सीख थी कि जितने बेबुनियाद झूठ और अफवाहें हों, वे असली और गंभीर रहस्य के लिए बेहतरीन कवर हैं। और मेरा एक गंभीर रहस्य था जिसे मैं हर कीमत पर बचाना चाहता था। आखिर ब्यूटी का भविष्य था और मेरे मामा मामी की प्रतिष्ठा। बहरहाल, मौजूद आबोहवा में इस रहस्य को खोजती नजरों से बचाना आसान रहा। मुझे सिर्फ ब्यूटी की खोजती नजर की दरकार थी। मेरे तरीके मेरी ठहरी मीमांसा पर टिके थे : कि मैं ब्यूटी के साथ अपना आखेट रोजमर्रा के बोझिल, प्रकट रुटीन में विलीन कर दूँ।

दोपहर और रात वह वक्त का तार होता जब मैं अकेला होता। खासतौर से दोपहर जब नजर रखने के लिए कोई ब्यूटी नहीं थी। कई रातें मैं बैडरूम के दोहरे परदों की बानगी के जरिए 'ब्यूटी शिकार' करता। अकेली दोपहर और रातें मैं अक्सर मेज पर बैठ कर बिताता या लाइब्रेरी में। मैंने तमाम किताबें खँगाली, महान प्रेम कहानियों को चुना और पढ़ा, अपने चहेते लेखक और कथाएँ पढ़ीं और उन्हें जिनसे किसी न किसी तरह अतीत जागृत हो उठता था। मेरे पास खूब वक्त था, जो पढ़ता उस पर खूब और स्वतंत्र तरीके से मनन करता : पूरी कहानियाँ, कथानक, कुछ अनुच्छेद, शब्द या वाक्यों के टुकड़े जो खास और गहरे प्रतीत होते। इन कोरे और नौसिखिये मंथन में मकसद एक ही होता या समान प्रकृति का : समानताएँ खोजना और विचार, संवेदनाएँ, तर्क और अंतर्बोध के प्रमाण ढूँढ़ना जिनमें एक तरफ ब्यूटी और मैं होते और दूसरी ओर कथा के नायक, नायिकाएँ। इस तरह एक जटिल योजना की तरह, मैं महान साहित्य और अपने हाल के अनुभवों को आपस में बुन कर एक सुनहरा कालीन तैयार कर रहा था जो मेरे प्रेम का उड़नखटोला था।

प्रेम, हाँ प्रेम, आखिर मैंने प्रेम के ढाई अक्षर का इस्तेमाल कर ही दिया। यूँ नहीं कि मेरे जेहन में प्रेम की कोई स्पष्ट या समृद्ध धारणा थी, बल्कि इन ढाई अक्षरों में मैंने अपनी सारी अनुभूतियाँ उँड़ेल दीं : चाहत, ऐंद्रिक लालसा, ग्रस्तता, उत्कंठाएँ, आवेग के भँवर, इच्छाओं के टीले, टापू, कामोत्तेजक उड़ानें वगैरह। इसके पीछे यह भी दृढ़ विश्वास था कि ब्यूटी मेरे प्रति उतनी ही आसक्त है जितना कि मैं। इस प्रेम का पकना, फलना, इसका प्रस्फुटन सिर्फ समय की बात है।

तो मेरे प्रणय का उड़नखटोला, जिसे मैंने सुनहरे कालीन का रूप दिया है, उसके गुण प्रकट हो रहे हैं इस कहानी में, जिसे मैं रोज लिख रहा हूँ। लिखना कभी कभी बेहद कष्टदायक भी होता पर इस जतन के जरिए मेरे प्रणय और दीवानगी की ज्वाला प्रज्ज्वलित रही। शरीरी आवेश और उत्ताप, कितना भी तीक्ष्ण और हठीला क्यों न हो, उसे इकतरफा जागृत रखना कठिन है। इसका अर्थ यह नहीं कि मेरे मन में संशय थे। मैं आश्वस्त था (क्यों? कैसे?) कि ब्यूटी और मेरे बीच रति कामना की विद्युत बह रही है। पर यह एकआयामी थी और इसलिए अपूर्ण। ब्यूटी को आवाज चाहिए, भावनाओं का ज्वार और अभिव्यक्ति। जो मैं लिख रहा था वह छतों के बीच की कल्पनाशील फुसफसाहटें थीं, आसन्न प्रेम के तरल, मौन नृत्य की अभिव्यंजना।

मैं थोक में लिखता था : लंबे, स्वतंत्र अनुच्छेद जिन्हें जोड़ने की कवायद बाद की थी। पर कथा की शुरुआत थी जो मुझे लगातार तंग करती थी। और मैं बार बार उसे सुधारता।

मैंने मन की आवाज सुनी और चेखव ढूँढ़ लाया और उसकी मशहूर कहानी : 'द लेडी विद द डॉग'।

जब मैंने उसे एक उमस भरी दोपहर में पढ़ा, और फिर नम, ठंडी रात में दोबारा पढ़ा, तो लगा जैसे दिमित्री गुरोब का बहुत अंश मुझमें घुल रहा है और मैं ब्यूटी में आन्ना की तस्वीर और रचना देख रहा हूँ, आन्ना जिसकी शादी एक अमीर आदमी से थी जिसके पास अपने घोड़े थे, उसका अजीब सा नाम था, वॉन डिडरिट्स और वे एक पुराने शहर में रहते थे।

कहानी इन शब्दों में शुरू होती है : 'यह सुनने में आया कि एक नवागत युवती समुद्र किनारे देखी गई है : उसके पास एक छोटा पोमेरियन कुना है। दिमित्री गुरोब जो विगत दो सप्ताह से याल्टा में था, उसका मन रम गया था, वह नवागंतुकों में खास दिलचस्पी लेने लगा था। वरनी पवेलियन में बैठे हुए, उसने एक काले बालोंवाली नवयुवती को समुद्र किनारे चलते हुए देखा : युवती मध्यम ऊँचाई की थी, उसने एक टोपी पहनी थी और एक सफेद पोमेरियन उसके पीछे पीछे भाग रहा था।

...किसी को नहीं मालूम था वह औरत कौन है, सभी उसके लिए कहते : कुकुर वाली मेम।

अगर यह अकेली है बिना दोस्त या खसम के, तो इससे मित्रता गाँठने में कोई बुराई नहीं, गुरोब सोचने लगा।

इस तरह चेखव ने कहानी की चंद शुरुआती पंक्तियों में उसे ऐसी गति प्रदान कर दी, कि आखिर में एक थकानशुदा, अंतहीन मगर बरबस उन्मत्त प्रेम तय था : ऐसी मुहब्बत जिसने उन्हें जलाया पर जिसमें मुक्तिदान की अबाध संभावना थी।

गुरोब, जो अधेड़ था और औरतों के मामले में तजुर्बेकार, उसे इस जवान, संकोची महिला के साथ हल्काफुल्का प्रेमराग बनाने के ख्याल ने आकृष्ट किया।

उनके बीच इश्क की डोर तनी और जब औरत घर लौटने लगी, उसने कहा : हम हमेशा के लिए अलग हो रहे हैं, यही ठीक है, हमारी मुलाकात कभी न होती तो ही अच्छा होता...।

पर गुरोब आन्ना को भूल नहीं पाया... उसकी यादें सपनों में बदल गईं, और कल्पनाओं में अतीत की घटनाएँ भविष्य की अपेक्षाओं के साथ गड्मड् हो गईं। उसे आन्ना सपनों में दिखाई नहीं देती पर वह हमेशा उसके पीछे होती एक परछाईं की तरह, उसे निरंतर कोंचती... सड़कों पर गुरोब औरतों को देखता कि कहीं आन्ना जैसा चेहरा दिख जाए।

फिर गुरोब आन्ना से मिलने उसके शहर गया और उनकी मुलाकातों का सिलसिला फिर कायम हो गया... गुरोब ने सोचा उसकी दो जिंदगियाँ हैं एक प्रकट, खुली जिसे सब जानते हैं... शिष्टता के सच और झूठ से भरपूर... और दूसरी जो रहस्य की गुफा में साँस लेती है। और... वह सब जो महत्वपूर्ण है, जिसका उसके लिए मूल्य है, वह सब जिसमें वह ईमानदार है... सब जो उसके जीवन का तत्व है, वह दुनिया से छिपा है।

गुरोब बूढ़ा हो रहा था। और अब जा कर.. वह सच में, वास्तव में प्यार की गिरफ्त में था - जिंदगी में पहली बार!

आन्ना और गुरोब का प्रेम उन लोगों की तरह था जो बेहद निकट होते हैं और एक से... उन्हें समझ में नहीं आता था कि आन्ना का पति क्यों है और गुरोब की पत्नी... उन्होंने एक दूसरे को हर उस चीज के लिए माफ कर दिया जिसके प्रति उन्हें अतीत में शर्म थी, उन्होंने वर्तमान का सब कुछ माफ किया और उन्हें यह आभास था कि उनके प्यार ने उन्हें बदल दिया है।

कैसे जादुई शब्द, मैं सोचता।

कहानी इस तरह खत्म होती है : और उन दोनों को यह साफ था कि उन्हें अभी बहुत लंबा सफर तय करना है, और सफर का सबसे कठिन और दुरूह हिस्सा तो अभी शुरू हो रहा था।

आन्ना और गुरोब की कहानी मेरे जेहन के उन हिस्सों में गहरे समाती चली गई जिनका मुझे इल्म तक नहीं था और मैं न जाने कैसे आवेग के जंगल में जल रहा था, सराबोर था। यह इफरात थी और भयानक कि मैं कहानी के असहनीय जुनून को ब्यूटी और मेरे बीच का पुल बना रहा था। कई दिन और कई रातों तक ब्यूटी आन्ना हो गई और आन्ना ब्यूटी। और कई व्याकुल दोपहर मैंने गुजारी जब मैं अपनी जिंदगी को अधेड़पन की ओर फास्ट फारवर्ड कर रहा था जब मैं शादीशुदा हूँगा और एक पिता। फिलहाल मेरे लिए यह कल्पना कठिन थी कि मैं समुद्र किनारे किसी रिसोर्ट में रह रहा हूँ और वहाँ ब्यूटी से मुलाकात होती है जो अकेली है... मेरा परिवार भी मेरे साथ नहीं और इस तरह मेरी दो जिंदगियाँ शुरू होती हैं...।

बाद में जब सब कहा और किया जा चुका, अफेयर खत्म हुआ (धमाके की जगह फिस्स सा समापन?) और मैं ढर्रे की जिंदगी पर चल निकला, तो मैंने इस अनुभव को एक सफर की तरह याद किया; कल्पना की उड़ानें भी एक यात्रा है... और इस सफर में जो जज्बा और तपिश थी वह आज भी मुझसे दूर नहीं।

पर इस लम्हा मैं आन्ना मैं डूबा हूँ और उसके शब्द मेरे जेहन में लगातार घूम रहे हैं : 'मेरे दुख का कोई छोर नहीं। मैं हर वक्त सिर्फ तुम्हारे बारे में सोचती हूँ। यही मेरा अकेला सहारा है, आसरे का स्पर्श है। और मैं तुम्हें भूलना चाहती थी; पर क्यों, तुम क्यों लौट आए।'... मुझे आधा विश्वास हो चला था कि ब्यूटी के पास भी एक सफेद पोमेरियन है (मोहल्ले के आधे घरों में सचमुच पोमेरियन थे और उनकी खास भौंकने की आवाज दिन भर सुनाई देती थी) और एक दिन वह भी सीढ़ियों से फुदकता हुआ छत पर आएगा, ब्यूटी की नाइटी के पीछे वह छिपा होगा।

फिर मैंने कहानी की शुरुआत पर काम किया। चेखव के गहरे प्रभाव में मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि मेरी कहानी के दो संभव अभिप्राय प्रतीक हैं : छत और नाइटी। इस तरह कहानी के दो शीर्षक हो सकते हैं : छतवाली औरत; या, नाइटीवाली औरत।

मैंने कहानी की शुरुआत के लिए दो नए मसौदे लिखे :

'छत, उसके लिए, आजादी का स्थल था। किसी तरह छत उसे जिंदगी के छितरे, संचित जुल्मों से मुक्त करती थी। वहाँ, छत पर, जब हवा उसके केश लहराती या सीमेंट का गर्म फर्श उसके पैर झुलसाता, वह पंजों के बल चलने के लिए मजबूर हो जाती, या जब रात की स्याही उसे अंधकार में डुबो देती, वह एक खास तरह से स्वतंत्र और बरी महसूस करती। इसलिए छत वाली नवयौवना को कोई अचरज नहीं हुआ जब एक जागृत स्वप्न में एक उड़नकालीन छत पर उतरा... दुनिया का सबसे खूबसूरत मर्द उतरा, युवती का हाथ पकड़ा और, हाथ में हाथ, उस औरत ने उड़नकालीन पर अपना पैर रखा... मेरे लिए वह बस छतवाली औरत थी।'

दूसरे ड्राफ्ट में मैंने नाइटी का अभिप्राय रूप इस्तेमाल किया :

'मैं देख रहा था कि नाइटी का पहनना उसके लिए एक सर्वांग छलाँग थी। पेटीकोट, ब्लाउज, साड़ी, लंबा पल्लू और घँघट, सलवार कमीज, चूड़ीदार और न भूलनेवाली चुन्नी की अनगढ़ सीमा और मादक घेराबंदी से छुटकारा। ज्यों ही वह नाइटी पहनती उसके भीतर फव्वारा छलकता, हजार ख्वाहिशें फूट पड़तीं। नाइटी, उसकी सभी नाइटी, जो आसानी से आधे सूटकेस में समा जाती थीं, उसके वक्षों के दो उरोज बिंदुओं पर टिकती थी। शरीर से उसकी बस इतनी ही जरूरत थी और बाकी समूची देह आवरण की साटनी चिकनाहट से हर तरह की क्रीड़ा करने के लिए स्वतंत्र थी। यह मुक्ति उसे गहरी आत्मानुभूति और गर्व से भर देती।

नाइटीवाली औरत की गतियों की बेफिक्री का मैं एक सुबह प्रथम दृष्टा था और मेरी जिंदगी बदल गई।'

इस ड्राफ्ट को लिखने के बाद मैं कुछ देर नाइटी के दृश्यविधान की अजूबियत के बारे में सोचने लगा। सोचता रहा। इस देश के हर शहर, कस्बे के हर मिडिल क्लास घर में नाइटी एक लोकप्रिय और सर्वस्वीकृत परिधान है। मुझे अपने कस्बे के बड़े, सम्मिलित परिवारों के घर खूब याद हैं जहाँ सुबह और शाम औरतें तमाम तरह की नाइटी में नजर आती थीं। बेहद कम लड़कियाँ या औरतें थी जो शर्ट पतलून, जींस पहनती थीं या ऐसे वस्त्र जिन्हें आधुनिक या उत्तेजक कहा जाता है। औरत और लड़की के पहनावे में अमूमन संयम का नियम था। अब जो मैं सोच रहा हूँ, तो लगता है कि नाइटी रूढ़िवाद के इस लौह नियम का अजीब अपवाद था। नाइटी न केवल एक खुली और उत्तेजक ड्रेस है, यह अंतरंग है और संकेतों से भरपूर। फिर भी, मुझे खूब याद है, सबसे सौम्य और सावधान महिलाएँ भी अजनबियों के सामने नाइटी में प्रकट होने में कोई गुरेज नहीं करतीं। फिर इस ड्रेस के कट और स्टाइल को ले कर न के बराबर अंकुश था। अधिकतर वे रेडीमेड और आयातित होतीं और अनजान समाजों के फैशन और शौक के अनुरूप। न जाने कैसे नाइटी के साथ एक घरेलूपन और अपनापे का लेबिल चिपक गया है और शायद इस कारण उसे एक खुली सामाजिक स्वीकृति मिल गई है। आंटियाँ और कजन, मित्र और रिश्तेदार को नाइटियों में देखना और पहचानना आम ही है। पर असल तो यह है कि नाइटी ही थी जो मेरे शहर की औरतों की कामुकता को पूरे वैभव में उघाड़ती थी। जो नजर के कच्चे थे और जिनकी आँखें चंचल थीं, उनके लिए नाइटी से उद्घाटित उरोज के दो बिंदु पर्याप्त सरगर्मी और उत्ताप के संदेश थे। बचपन में मेरी प्रकृति डरपोक की थी और कॉलेज के दिनों में विचारधारा की राजनीति करने के कारण मैंने गंभीर रुख अपनाया था; पर इसके बावजूद भी मैं नाइटी के नृत्यों का उत्साही दर्शक था और मैं कह सकता हूँ कि इस नृत्य की भाषा हमारे शहर के काम इतिहास का प्रमुख हिस्सा थी।

करीब एक महीना गुजर गया। हमने (क्या पहली बार मैंने ब्यूटी और खुद को इस तरह मिला लिया है?) अपनी अवस्थाएँ कायम रखीं और हमारी कामोत्तेजक जंग में एक तरह का संतुलन बन गया था। हम उन तलवारबाजों की तरह थे जो अपने हथियार के सिरों से जानकारी का आदान प्रदान कर रहे थे। स्थिति इस तरह थी मानों दो कीड़े एक शहद की बंद बोतल में फँस गए हैं। विनिमय का माध्यम हमारा एक था पर हम इस वक्त न आगे बढ़ पा रहे थे न पीछे। बस स्थिर और शिथिल।

एक दिन मैंने ब्यूटी के बेटे को देखा : करीब दस साल का, दिखने में गंभीर मग्नशील लड़का। यह अचरजपूर्ण है पर मैं उसे देख भावुक हो उठा। वह सीढ़ियों से छत पर आया था, कॉलेज जाने को तैयार। कंधे पर कॉलेज बैग झूल रहा था। वह अपनी माँ के सामने खड़ा हो गया। साफ था कि यह रोज का नियम है। मैं पहली बार देख रहा था क्योंकि उसी दिन मैंने सुबह की दौड़ का समय बदला था। माँ (ब्यूटी माँ भी है!) ने बच्चे के बाल सँवारे, देखने के लिए पीछे सरकी और फिर घुटनों के बल हो गई। मैं न भी चाहता पर मेरी आँखें ब्यूटी के फैले, सुनम्य नितंबों पर जा टिकीं जहाँ नाइटी में खिंचाव के कारण बल पड़ गए थे। मुझे यह ढाढ़स था कि ब्यूटी इस वक्त भी अपना पार्श्व दिखा रही है। बेटे के होने से हमारे नियम नहीं बदले। ब्यूटी ने बालक के जूते के लेस कसे और फिर जमीन पर अपनी उँगलियाँ टिका कर उठ खड़ी हुई। तभी एक आदमी दरवाजे से छत पर आया। जाहिराना, वह ब्यूटी का खाविंद था। उसके हाथ में एक टिफिन बॉक्स था और दूसरे हाथ में पानी की एक छोटी बोतल। उसने उन्हें बच्चे के बैग में रखा। फिर वे साथ साथ खड़े थे। अगर समय रहता तो वे कुछ देर इसी तरह ऊपर रहते। आदमी अपने हाथ उठाता, उन्हें नीचे गिराता या झुक कर अपने पैरों के पंजे छूने का प्रयत्न करता। सुबह के व्यायाम के प्रति यह उसका प्रतीकात्मक चढ़ावा था। सिर्फ ब्यूटी को देख कर लगता वह छत पर तल्लीन है। छत उसका इलाका था, उसका गणराज्य। एक बार भी वह इस तरह नहीं मुड़ी या चली कि उसकी आँखें मेरी ओर उठ जाएँ। यह एहतियात वह बरतती थी (मेरे हिसाब से) ताकि कोई शक न रहे मैं उसके लिए पूर्णतः नामौजूद हूँ; मेरी हस्ती वही है जो छतों पर दिखाई देते तमाम कबाड़ और अनुपयोगी सामान की हो सकती है... यह सोच कर मैं मन ही मन मुस्कुराता और अपनी वर्जिश जारी रखता : वजन उठाना या फिर कभी कभी रस्सी कूदना : लाल प्लास्टिक की रस्सी जिसके किनारों पर पीले हैंडिल थे।

ठीक सवा सात बजे बाप और बेटा नीचे उतर जाते, पहले पिता जो पीछे मुड़ कर नहीं देखता और उसके पीछे बालक जो आखिरी क्षण एड़ियों पर मुड़ता और माँ की तरफ हाथ हिलाता। बॉय, माँ कहती, और ब्यूटी की आवाज में मैंने सिर्फ यही एक शब्द सुना।

बाप और बेटा, जाहिर है, बस स्टैंड जाते थे। और अगले करीब बीस मिनट ब्यूटी न केवल छत पर बल्कि पूरे घर में एकदम अकेली होती, यह समय उसका पूरा अपना था, निर्बाध। पहले मैं इसी वक्त छत पर पहुँचता था, हालाँकि इसके पीछे कोई पूर्वगणना नहीं थी, मात्र संयोग था। इसलिए ब्यूटी की मेरी पहली स्मृतियाँ उस वक्त की थीं जब वह निपट स्वतंत्र और पूर्ण थी। आजकल टीवी चैनलों पर औरतें इस वक्त को 'मेरा वक्त' कहती हैं।

मुझे शुरू में अचंभा हुआ कि ब्यूटी के पति के प्रति मेरे मन में लेशभाग भी जलन या द्वेष नहीं पनपा। शास्त्रीय या सामान्य, दोनों ही दृष्टियों से यह बेतुका लगता है। मैं एक शादीशुदा औरत पर नजरें गड़ाए था और उसके आदमी के लिए मेरे जेहन में कोरी उदासीनता के अलावा कुछ नहीं था; बल्कि उसे पहली बार देखने पर एक क्षणिक, निर्लिप्त दया भाव झंकृत हुआ था, वह भी बाद में नदारद हो गया। मेरे लिए यह बेजोड़ सबूत था कि ब्यूटी और मेरे बीच जो कुछ है या होने को है वह इस जमीन का नहीं, वह अलौकिक है। मैं ब्यूटी तक पहुँचने के लिए उसके पति के बीच से निकल सकता हूँ, न उसे आभास होगा न मुझे, हमारे स्तर अलग हैं, हम अलग अलग दुनिया में जी रहे हैं... पर वह ठीकठाक आदमी दिखाई देता था; सभ्य, सुसंस्कृत।

ब्यूटी कितने साल की है? यह सवाल न जाने कब और क्यों मेरे मन में घर कर गया। इसमें दो राय नहीं थी कि वह चालीस वर्ष से बड़ी नहीं थी और तीस साल से कम भी नहीं : मतलब वह तीस और कुछ थी। वह इकत्तीस हो सकती थी या उंतालिस और यह इस पर निर्भर था कि शादी किस उम्र में हुई, यह देखते हुए कि लड़का करीब दस साल का था। वह बेहद पुरकशिश उम्र में थी (मेरी आँखों में), स्फुट और छलकल। उसे देख कर मुझे अनायास आँखों के नीचे, गालों पर बहते हुए काजल की याद आती... यह वह उम्र है जब चाहत और जरूरत में पहली बार संतुलन और मेल कायम होता है। अगर युवती की उम्र को हम सफर का रूपक दें तो यह वह अनोखा पड़ाव है जब औरत मन के दर्पण के सबसे निकट पहुँच जाती है, वह आईने में झाँकती है और उसे अपना ही अक्स दिखाई देता है और उसे इत्मीनान हो जाता है...।

ब्यूटी का पति मजबूत और गठीला था, काले गुच्छेदार बाल और मूँछ जो होंठों को करीब पूरा ढाँप रही थी। उसका पेट निकला था मगर ढीला या थुलथुल न हो कर ठोस था। उसके हाथ जरूर कठोर और चौड़े होंगे। वह इस इलाके के तमाम दूसरे रहने वालों की तरह दुकानदार या उद्यमी नहीं था। इसलिए क्योंकि उनका सम्मिलित परिवार नहीं था। वे यहाँ के नहीं थे, बाहर से रहने आए थे। मेरा ख्याल था कि इमारत के भूतल पर मालिक का परिवार था और ब्यूटी का पति किरायेदार था। वह डॉक्टर, सीए, वकील, बैंक मैनेजर, कुछ भी हो सकता था। वैसे भी इससे फर्क क्या पड़ता था। काम की बात यह थी कि वह पूरे दिन बाहर होता, इतवार को छोड़ कर, और ब्यूटी घर में रहती थी, पूरी घरवाली।

सुबह के अलावा पति बिरले ही छत पर दिखाई देता। अगर वह कभी कभार आता भी तो तुरंत ही चला भी जाता : मानो छत पर उसका कोई दखल नहीं था, न लेना देना, वह यहाँ घुसपैठिया था और यह ब्यूटी की अपनी रियासत थी। यह मेरे लिए बेहतर था। बालक भी छत से दूर दूर ही रहता, इसमें वह बस पिता का भोला अनुसरण कर रहा था।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 11:29 AM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 03:57 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 03:58 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 03:59 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 03:59 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:00 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:01 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:01 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:01 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:02 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:03 PM
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RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:04 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:04 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:04 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:05 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:05 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:12 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:14 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 31-01-2022, 04:55 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:15 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:15 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:16 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:16 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:17 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:18 PM
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RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:19 PM
RE: कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 04:19 PM



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