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कहानीकार
#8
तो पासे इस तरह गिरे हैं : जेब में नौकरी, पचास हजार रुपए कैश और राजधानी में अकेली, बेरोक रिहाइश के लिए अच्छा खासा मकान। मुझे लगा मामा ने इतने सालों में शानदार लाइब्रेरी इसलिए बनाई ताकि मैं उसका भरपूर आनंद ले सकूँ। इसे कहते हैं किस्मत और नियति। हर दिन मैं कार बैक करता हूँ, उसे कुछ देर रेस देता हूँ और सड़क पर खड़ी कर देता हूँ। कभीकभार कार में घूमने निकल जाता हूँ। बाई है : खाना बनाती है, सफाई रखती है, कपड़े धोती है और इस्त्री कर देती है, इस सब में उसे आधे घंटे से ज्यादा नहीं लगता।

और अब एक परछाईं आई है जिसे 'क' ने एक भरी पूरी औरत में तब्दील कर दिया है। छाया की रात के दो दिन बाद मैंने उसे देखा।

'क' का मान रखने के लिए यहाँ सामान्य अर्थ में 'सौंदर्य' और विशेष अर्थ में 'स्त्री संवेदन' के बारे में अनुच्छेद डालना ठीक लगता है। यूँ भी इन दो दिनों में और आगामी काल में ऐसे विषयों से मेरी आसक्ति सहज और जरूरी है। गूगल के साधन से इस मंत्रणा और मनन में सुगमता तय है (गूगल के शब्द : सौंदर्य, रूपबोध, स्त्रीरूप, ऐंद्रिक, सुंदर चेहरे, चेहरे, स्त्री आकृति, होंठ, कामना, स्त्री और चित्रकला आदि) मैंने ब्रिटानिका के वाल्यूम में इस तरह की इंट्री देखी और चेहरे और न्यूड्स पर श्वेत श्याम चित्रों की एक किताब। कई रातें थीं जब इस तरह के तमाम बिंब और तस्वीरें मेरे जेहन में विचरती रहतीं। मेरे शुरुआती निष्कर्ष कोई तटस्थ नहीं थे क्योंकि मेरा अधूरा अनुभव और उससे जुड़ी आकांक्षाएँ आड़े आती थीं, फिर भी उनका महत्व है : यह कथन कि सुंदरता देखनेवाले की नजर में है, कुछ अचरजपूर्ण तरीकों से उपयुक्त है। रूप के आकलन में भौतिक दूरी एक प्रमुख इकाई है। आँख और आकृति के बीच एक आदर्श दूरी होती है जो खूबसूरती की संभावना बढ़ाती है और बदसूरत के हालात नकारती है। इस दूरी को गुलाबी आभा की दूरी कह सकते हैं। इस अवस्था में स्त्री रूप तो सामने है ही उसके कल्पनाशील परिष्कार के अधिकतम अवसर भी हैं।

मैंने उस छाया को गुलाबी आभा की दूरी से देखा था। वह इतनी पास थी कि पहचान के दायरे के भीतर थी और इतनी दूर भी थी कि उसके सौंदर्य की उपासना में कल्पना की सहज उड़ान वर्जित नहीं थी। पर मैं आगे की बात कह रहा हूँ। 'क' को धीरज रखना चाहिए।

मैं विश्वविद्यालय के इलाके में जॉगिंग करके लौटा था। पसीने से तरबतर मैं छत पर पहुँचा और तब मैंने उसे देखा। बल्कि उसने मुझे देखा और इसका अपना महत्व था। 'क' के दृष्टिकोण से और मेरे नजरिए से भी।

उसने वह वस्त्र पहना था जिसके लिए मेरे कस्बे के लोगों के बीच एक सर्व सम्मिलित नाम है : नाइटी। इस नामकरण में गाउन, किमोनो और हर एकल वस्त्र जो सिर से डाला जाता है और बदन पर फैल जाता है, वह नाइटी है। पर उसने जो पहना था वह असली नाइटी का लोकप्रिय और राष्ट्रीय संस्करण था : पतले और निष्प्रम सूती कपड़े की बिना सिलाई की एकल ड्रेस जो सिर से पहनी जाती है। हल्का नीला रंग था जिस पर बड़े पैटर्न में फुलकारी थी; कॉलर में पत्तेनुमा फ्रिल थे, बटन नहीं थे, बाँह के सिरों में पतले लेस थे, ढीला और हवादार पहनावा जिसके नीचे के हिस्से हवा में अजब ढंग से बरबस फूल जाते थे। जब समीर बहती, जैसे अभी था, तो इस पहनावे में वह अनोखा लचीलापन था कि वस्त्र, क्षणों के लिए देह के अलग अलग हिस्सों, घाटियाँ, ढलान और गोलाइयों में सिमट और चिपट जाता और इस तरह वह स्त्री के रूप, आकार, भंगिमा और गति की तस्दीक करता।

पर स्त्री नाइटी की इस फड़फड़ाती भाषा से पूरी तरह अनभिज्ञ थी। उसके उलझे, बेतरतीब बालों के वजन में नींद लिपटी थी। वह धुले, निचुड़े कपड़ों की एक भरी बाल्टी के पास खड़ी थी और एक एक कर उन्हें तार पर डाल रही थी, बार बार उसे अपनी बाँहें और पंजे ऊपर उठाने पड़ते। यह शहर की असंख्य छतों (मेरा कस्बा भी इसमें शामिल है) पर रोज ब रोज घटनेवाला सामान्य सा दृश्य था और इस परिचित चित्र से मेरे भीतर एक अंतरंगता जागी : कि क्षितिज और तस्वीर की रचना नई और अजनबी हो, उनके प्रसंग तो वही कुछेक अभिज्ञ हैं जो हमारे स्मृति संसार में चुपचाप बसे रहते हैं।

हर बार वह नीचे झुकती, गति से कपड़ा फटकारती, पानी की बूँदें चारों ओर छितरा जातीं और वह कपड़ा तार पर सुलझा देती। अपनी गुलाबी आभा की दूरी से मुझे उसकी पीठ के हिस्सों पर नाइटी की सिलवटों का अनुमान हो रहा था... फटाक की आवाज होती तो मैं एकाएक झुरझुरा जाता... ऐसे ख्यालों से मुझे किंचित शर्म और ग्लानि महसूस हुई। क्या यह संभव है कि वह छत पर मेरी मौजूदगी से अनजान थी? और यह कि मैं उसे देख रहा था? कहते हैं किसी भी दिशा से आदमी औरत का ख्याल करे, नजर तो दूर की बात है, औरत उसे तुरंत भाँप लेती है। पर इसके पहले मैं मुड़ता वह सीधी हो गई। अपने हाथ के पिछले हिस्से से उसने माथे पर गिरी लट को हटाने का उपक्रम किया। पर माथे पर कोई लट थी नहीं, यह आदत या स्मृति की देन थी। स्त्री अपनी छत के उस छोर पर आ गई जिस तरफ मैं था।

तब अगले क्षण उसकी आँखें, एक अंधे श्रद्धालु की निश्चितता के साथ मुझ पर आ टिकी, जैसे कोई नन्हा पक्षी उड़ता हुआ अचानक किसी पतली, लगभग अदृश्य डाल पर आ टिकता है, क्षण भर के लिए ही, और फिर अकारण फिर उड़ जाता है... वह नजर मानो ऐसी ऊँचाई और जगह से आई थी जहाँ किसी का किसी पर अधिकार, उपकार नहीं है और सब कुछ माफ है। मेरे ख्याल से इसीलिए मेरे मन में न ग्लानि का भाव बचा था और न ही किसी प्रकार की शरम। उस क्षण में हमारी आँखें चार हुईं और वह तकलीफदेह तथ्य जैसे पिघल कर लुप्त हो गया : कि मैंने उसकी देह और रूप को चोरी चोरी नजर किया था और वह इस सच्चाई से बखूबी वाकिफ थी। यह इस तरह था जैसे उसने हमारे बीच की यंत्र रचना को शून्य, नितांत तटस्थ और डिफॉल्ट पर सेट कर दिया था; इस यंत्र रचना का उद्देश्य था हमारे बीच पहचान का कायम होना। तो क्या उस क्षण में हमने परिचय की पहली सीढ़ी पार कर ली थी, बीच का बर्फीला मैदान क्या सिकुड़ गया था? साफ कहूँ तो मैं नहीं जानता। यह पहल उसकी थी। शायद 'क' इस पर प्रकाश डाले। एक जाने माने कथाकार ने कहा है कि शादी या लंबे रिश्तों के अचूक नियम पहले के दिनों में बन जाते हैं इससे पहले कि युगल उन्हें जाने या समझे। मुझे इन मामलों का अभी तजुर्बा नहीं। पर मुझे ऐसा लगता है कि नजरें चार के उस क्षण में (बिजली की चमक के एकांतिक क्षण से यह एकदम अलग था) मैं न केवल हर संभव गुनाह से बरी हो गया था बल्कि मुझे यह आजादी मिल गई थी कि मैं आगे के कदम अपने विवेक के अनुसार उठाऊँ। इस तरह मैं तमाम जकड़नों से मुक्त हो गया था और स्त्री पुरुष के रिश्ते के नाजुक आचार व्यवहार में व्यापक सेंध लग गई थी। एक तरह से हम उन रास्तों पर चलने के लिए रजामंद हो गए थे जिन्हें राजनयिक हलकों में ट्रैक टू या बैक चैनल कहते हैं। सो, एक भी शब्द का आदान प्रदान नहीं हुआ था, न ही हलो, आप कैसे हैं, फिर भी लगा जैसे छत पर एक अंतरंग खेल शुरू हो चुका है, इसकी भाषा कालांतर में निर्मित होगी।

ज्वर सी मारक कल्पनाएँ, उमंग और चाहत की उड़ानें, इसकी प्रेरणा कहाँ से आ रही है? देर दोपहर यह सवाल मैंने खुद से पूछा। भारी लंच के बाद मैं कुछ देर सो गया था और इस दौरान मेरी इंद्रियाँ शिथिल और मंद थीं। तभी एक विचार और आया : अगर इस औरत को मैं सड़क पर या भीड़ में देखता हूँ तो मैं शर्तिया उसे पहचान नहीं सकता। इस वक्त वह एक प्रतिनिधि मौजूदगी हैः गोलाई, रेखाओं और मात्रा की एक आकर्षक पर दूर की आकृति।

पर जहाँ मेरी इंद्रियाँ कुंद थी, 'क' निरंतर मग्न था। उसके प्रभाव में मैं रात में लाइब्रेरी पहुँचा। अनेक महान और मशहूर रचनाकारों की पुस्तकों को मैं उँगली और हथेली से छूता चला गया। उम्दा लेखन में मेरे संपादक दोस्त की गहरी और आश्चर्यजनक पैठ थी। पत्रकारिता के हर नए प्रयोग और प्रयोजन में वह लगातार पिटता रहा, पर उसी अनुपात में साहित्य के प्रति उसकी मर्मज्ञता मुखर हुई थी। वह बेचारा देशी शराब पीने को अक्सर बाध्य था, पर महँगी से महँगी शराब और वाइन की उसकी जानकारी पक्की थी : दिल से राजा भोज गंगू तेली का जीवन व्यतीत कर रहा था... संपादक की बदौलत मैं उम्दा लेखन से वाकिफ था, उसकी मर्यादा का मुझे अनुमान था : रेणु से भारती; मोहन राकेश से निर्मल वर्मा; दूसरी भारतीय भाषाओं के साहित्यकार भी मैंने हिंदी अनुवाद में पढ़े थे : मनोज दास, अनंतमूर्ति, वासुदेवन नायर, बशीर आदि। मेरा संपादक ही था जो मुझे विश्व साहित्य के अनोखे संसार में ले गया : मार्खेज, योसा, पामुक, नेरूदा, ब्रेख्त और कितने ही और। मेरे हाथ ने मार्खेज की कहानियों की एक पतली पुस्तक उठा ली थी (कौन है इस हाथ का मार्गदर्शक?) उड़ते उड़ते मैंने यह भी सोचा कौन है जो मार्खेज की कहानी पढ़ने जा रहा है : वह अक्स जिसे मैं रोज शीशे में देखता हूँ या मेरी पीठ पर बैठा 'क' जो दिखता नहीं पर जिसे मैं खूब महसूस करता हूँ।

पर कहानी तो दोनों के लिए एक है : आठ पतले, छोटे पन्नों में बसी कहानी जिसका अंग्रेजी में शीर्षक है : ब्यूटी एंड द एयर प्लेन।

'ब्यूटी' शब्द ही मानो एक पूरी लबालब कहानी कह रहा था। बाद में मैंने ब्यूटी के लिए तमाम हिंदी के शब्द ढूँढ़ निकाले : अनुपमा, उम्दा, काम्या, चारु, मोहिनी, रूपसी, सुदेह, सुदर्शनी, शोभा, हसीना, छवि, दीप्ति, माधुरी, सुषमा, अप्सरा, गौरांगी, मेनका, नाजनीन, प्रियदर्शिनी, शोभना, मीनाक्षी, रति, रमणी, माहताब, रूपा, चाँदनी, ज्योत्सना, कौमुदी, चंद्रप्रभा, ऐश्वर्या, महबूबा... कितनी बार तंग, खिंचे स्वर में मैंने इन शब्दों का पाठ किया, और हर शब्द के साथ एक ही अंगार था, चिन्गारी थी : मेरी छाया की आकृति! पर ब्यूटी के उच्चारण के साथ अंगार और चिन्गारी सबसे प्रबल और चंचल थी : ब्यूटी मतलब छाया की आकृति।

कहानी मैं एक साँस में पढ़ गया, उन जगहों पर निशान लगाए जहाँ मैं अभिभूत हो गया था। कहानी इस तरह शुरू होती है : 'वह सुंदर थी और लता जैसी, आटे के रंग की कोमल देह और हरे बादाम सी आँखें, और उसके घने सीधे बाल कंधे तक झूल रहे थे, और प्राचीनता का ऐसा आभास था जो खुदा जाने इंडोनेशिया का हो सकता था या एंडीज का।'

कहानी आठ घंटे की एक हवाई यात्रा का स्मरण है। ब्यूटी और लेखक का 'मैं' अगल बगल बैठे हैं। एक दूसरे के लिए पूरे अजनबी। पूरी यात्रा ब्यूटी सोई रहती है।

कहानी इस तरह खत्म हुई : 'फिर उसने अपनी लिंक्स जैकिट पहनी, मेरे पैरों के ऊपर से निकलते हुए लड़खड़ाई, शुद्ध लातिन अमरीकी स्पैनिश में क्षमायाचना के कुछ शब्द बोले और बिना अलविदा कहे या मुझे शुक्रिया अदा किए कि मैंने हमारी रात को खुशनुमा बनाने के लिए कितना कुछ किया, वह न्यूयॉर्क के अमेजन जंगल में गुम हो गई।'

कहानी में जिन जगहों पर मैंने निशान लगाए थे :

'इससे हसीन औरत मैंने जिंदगी में कभी नहीं देखी, मैंने सोचा जब वह मेरे बगल से गुजरी।'

'मैंने टिकिट क्लर्क से पूछा क्या उसे पहली नजर के प्यार में भरोसा है। बिल्कुल, उसने कहा, इसके अलावा प्यार असंभव है।'

'मेरा दिल हठात थम गया। मेरे बगल की खिड़कीवाली सीट पर ब्यूटी एक पेशेवर यात्री के हुनर से अपनी जगह बना रही थी। अगर कभी मैंने यह लिखा, कोई मेरा विश्वास नहीं करेगा, मैंने सोचा।'

'मैंने अकेले खाना खाया। मौन के एकाकीपन में मैं खुद से वह सब कह रहा था जो उससे कहता अगर वह जगी होती।'

'अटलांटिक की रात अनंत और निर्मल थी, और जहाज तारों के बीच निश्चल लग रहा था। फिर मैंने उसका मनन किया, इंच दर इंच, कई घंटों तक।'

'फिर मैंने अपनी सीट की पीठ ब्यूटी की सीट के बराबर तक पीछे कर दी, और हम दोनों साथ साथ लेटे थे इतने नजदीक जितने विवाह की सेज पर नहीं हो सकते थे।'

'उड़ान के आखिरी घंटे में मैं सिर्फ उसे जगे देखना चाहता था, चाहे वह कितनी भी गुस्सा हो, ताकि मैं अपनी स्वतंत्रता फिर से पा सकूँ, और शायद अपनी जवानी।'

'मैंने पाया कि बूढ़े दंपति की तरह, जो लोग हवाई यात्रा में अगलबगल बैठते हैं, सुबह जागने पर एक दूसरे से गुड मार्निंग नहीं कहते। ब्यूटी ने भी नहीं कहा।'

एक उन्मेष में मैंने कहानी दोबारा से पढ़ी और उसके बाद सिर्फ निशान वाले हिस्से। मैंने पाया कि मुझ पर कहानी का प्रभाव अनूठा और जबरदस्त था, बिजली की कौंध की तरह। ऐसा नहीं हुआ था जब मैंने कई बरस पहले यह कहानी पहली बार पढ़ी थी। आशंका और उत्तेजना के विस्मय भँवर में मैं देख रहा था कि करीने से मैं कहानीकार (मार्खेज) की जगह खुद को रख रहा था और सोई ब्यूटी में छतवाली औरत देख रहा था। मात्र आठ पन्नों में मार्खेज ने संवेदनाओं का विशाल फलक पकड़ा था : पहली नजर के प्यार से ऐसे मग्न दंपति जिनके ब्याह को दशकों हो गए। और मैं इस महारचना के सागर में अपनी व्यक्तिगत नियति का एक टापू बना रहा था क्योंकि मेरी कल्पना में सोई ब्यूटी का अवसर अब मेरे पास भी था।

मार्खेज और ब्यूटी के बीच कोई संवाद नहीं हुआ। विमान उनका साझा मगर अजनबियों का सफर था। और यहाँ मैं था : दो बार हमारी नजरें मिली थीं; छतें हमारी शामिल जगह थी। मैं इस कल्पना के लिए तैयार था कि छत से कभी नीचे न आऊँ।

एक अनूठे आवेग का दीवाना संगीत मेरे हृदय में घर भर रहा था। मैंने अपना प्रारब्ध मार्खेज के साथ जोड़ दिया था। उसके विशाल कृतित्व के सामने मैं बिंदु मात्र था। जो उसने आठ पन्नों में निरूपित किया, मुझमें अस्सी पन्नों में प्रकट करने की ताकत न थी, न हो सकती थी। पर जिसका महत्व था वह यह था : जो मार्खेज ने अनोखी व अडिग स्पष्टता से लिखा, वही हूबहू था जो मैं महसूस कर रहा था और निर्वाह करना चाहता था। पर साथ ही मुझे एक खोट या उलटपलट का अंदाजा भी था : मार्खेज ने अनुभव के एक झरोखे को बेशकीमती कहानी में तब्दील कर दिया। और मैं था जो कही कहानी से वाकिया और तजुर्बे की ईटें चिन रहा था...।

उस रात मेरी आँखें चमक रही थीं ओर मैं सुबह होने के लिए व्याकुल था। छतवाली औरत मेरी चेतना के आगे झूल रही थी और अब उसकी तस्वीर उनींदी ब्यूटी की थी या सिर्फ ब्यूटी।

ब्यूटी? जिस औरत को अब तक मैंने दूर से दो बार देखा था उसे रंग रूप देना अचानक बेहद जरूरी हो गया। तस्वीर : उसके नाक नक्श, रूप आकार और चेहरा मोहरा - विवरण जो उसे मुझ तक लाए और दुनिया तक ले जाए।

ब्यूटी का पुनर्गठन न केवल कठिन था बल्कि जोखिम से भरा भी। और चूँकि छतवाली औरत अब ब्यूटी ही थी, उसे इस कसौटी पर खरा भी उतरना था।

मैं बिस्तर पर लेट गया, मन की तपन को निस्तेज करने की जद्दोजहद लगातार ध्यान बँटा रही थी, मैं ब्यूटी के बारे में सोच रहा था, हर उस क्षण को मैंने बार बार उकेरा जब मैंने उसे देखा था। मैं सोच रहा था और इस खामोश मग्नता को शब्द दे रहा था : उसके होंठ अर्जदार, नम और हमेशा हल्के से खुले थे मानो वह उन्हें बंद करना भूल गई है; काले, लपकते बालों के घनत्व के कारण उसका चेहरा छोटा लगता था... चेहरे का गठन? अंडाकार और जबड़ा उदग्र व अशांत पर अजीब ढंग से कोमल। वह लंबी, घनी और बड़ी काठी की थी। असल में भरी छलकती देह थी और जाँघ, नितंब और पीछे की ओर दुहरी मांसल परत का आभास स्पष्ट था। पर इससे सौष्ठव का संतुलन बिगड़ा नहीं था। बल्कि उसकी कमर को एक नई कमनीयता मिल गई थी। बाँहें भरी और कोमल थीं, कोहनी एक मुलायम, गोल गहराई सी। पर आग्रह जहाँ सबसे प्रबल था वह थी देह की मखमल सी तरल श्वेत आभा जिसमें लेशमात्र भी दाग या दोष नहीं था। जितना भी मैं सोच रहा था, उतने ही शब्द मेरे मस्तिष्क में उतर रहे थे और उतना ही मुझे लग रहा था मैं सही भी हूँ और गलत भी। यह आवृत्ति, संशोधन और दुविधा का अंतहीन अभ्यास था : जितना मेरा वर्णन प्रत्यक्ष और ठोस होता गया उतना ही उसमें निरी कल्पना का पुट शामिल था और इसका अंत सिर्फ यही होता कि मैं पूरा का पूरा शायराना झूठ अख्तियार कर लेता।

आखिर मैं उठा और मेज की तरफ गया जहाँ मेरी नोट बुक खुली पड़ी थी, शुरू के पन्ने कहानी की शुरुआत से भरे थे... लिखना शरीर पर ठंडा पानी डालने जैसा भी है, उसमें एक अनुशासन अनिवार्य है। मुझे कथा का प्रारंभिक अंश एकदम नागवार लगा, सो मैंने नए पन्ने पर नई शुरुआत की :

'वह बेहद खूबसूरत थी और ठोस और भरी, उसकी देह शहद और दूध की नदी की तरह बह रही थी, उसका निर्बंध आवरण निरुद्ध कामना के गतिशील लंपट भँवर में उसके बदन के साथ सट सिमट रहा था और उसके इर्दगिर्द वह गंध व्याप्त थी जो भोर के आग्रह से तर थी। मुझे अंतिमता की अखंडता सा ऐसा तात्कालिक आभास था कि वह पारिवारिक सुख के झरोखे से एकाएक असाध्य और प्रपाती छलाँग लेनेवाली है और यह लाजिमी था कि मैं छत पर से उड़ कर उसे अपनी बाँहों में ले लूँ और बचा लूँ।

इस पैरे का लिखना मेरे लिए एक जंग जीतने जैसा था और ऐसा कि मैंने एक गहरा रहस्य अनावृत कर दिया है।

थोड़ी देर बाद मैं सोने चला गया, आत्मसंतोष के रस में डूबा सा। मुझे धुँधला सा आभास था कि गुजरी प्रक्रिया ने कई एक परिचय रूप का गठन कर दिया था। एक स्तर पर मैं खुद नियुक्त कथाकार था जो किसी तरह एक प्रेम कहानी की रचना करने में जुटा था। दूसरे स्तर पर मैंने एक घनघोर बीड़ा उठा लिया था : कि छतवाली औरत की तरफ मेरी अधपकी, अव्यक्त आसक्ति को अनन्य प्रेमालाप और उदात्त जुनून के जादुई गुणों से सराबोर कर दूँ। तीसरे स्तर पर मैं सिर्फ आलसी 'मैं' था जो अपनी किस्मत से इतना अभिभूत था कि उसे आगे पीछे और सामान्य निर्वाह की सुध नहीं रह गई थी। फिर नींद ने सारी संवेदनाओं को पाट दिया।

एक जवान देश है भारत या ऐसा राष्ट्र जिसकी आबादी में युवाओं की बहुतायत है। सड़कें और खुले आयाम टीनेज ऊर्जा की विस्मयकारी मात्रा से ओतप्रोत हैं। मैं एक बेहद संवेदनशील उम्र की अधबनी गाँठ पर जी रहा था। यह खतरा सदा आसन्न है कि बेपरवाह जवाँदिल के खेमे से तुम एक जवाबदेह वयस्क की तंग संज्ञा में सुशोभित कर दिए जाओ : दोनों स्थितियों में जमीन आसमान, भिखारी बादशाह का फरक है। अचानक, हथौड़े की घनघन चोट की तरह यह अहसास होता है कि स्वयं की अज्ञेयता और अमरता में भरोसा न जाने कब धूल के ढेर की तरह ढह गया। इस मूलभूत बदलाव का एक भोंडा, शरारती पहलू भी है : कि किसी भी वक्त कोई सड़कछाप, किसी काम का नहीं छोकरा तुम्हें सीना फुला कर आवाज दे - अंकल जरा बॉल तो फेंक दो! इस अधर सी उम्र में नई आदतें बनने लगती हैं : बिला वजह सीढ़ियाँ चढ़ते हुए उनका गिनना शुरू हो जाता है; अतीत को समय के बड़े खंड और उतार चढ़ाव जैसे पैमानों पर याद करना बनिस्बत उन पलों पर मर मिटना जो अद्वितीय और यादगार थे... मुझे आगाह कर देना चाहिए (आखिर क्यों? गिला या सिला किस बात का?) कि ऐसा वज्रपात अभी तीन महीने दूर था, सही गिनती 106 दिन की है : जिस दिन तरुणाई मुझसे जुदा होगी। इसका अर्थ कतई यह नहीं कि उस दिन पौरुष सिद्ध हुआ या शुचिता का अंत। मेरी कहानी में युवावस्था और कौमार्य दो अलग अलग चीजें हैं। लड़कियों और काम संबंधों के बारे में मेरा अनुभव प्रतापी न सही, पर्याप्त था। कुछ यादगार या चमत्कारी नहीं, साधारण तजुर्बे जिनकी पूरी रेंज थी : खामोश आसक्ति, एक के बाद एक सम्मोहन के अफसाने, आविष्ट कल्पनाएँ, पगले सनकी मनमौजी प्रेम, शायराना इश्क, मजनूँ मुहब्बत, स्वप्नदोषी उल्फत... चोरी चोरी के चुंबन, छुआछुई की मशक्कतें और गिनेचुने पर असल रति प्रसंग। पर इनके कोई स्थिर निशान नहीं थे। इन प्रसंगों के साथ मैं बहता रहा और हर बार किनारे जा लगा।

एक स्पष्टीकरण दर्ज करना जरूरी है : अगले कुछ दिन, हफ्ते, महीने का वक्त ऐसा था जो कभी भुलाए नहीं भूलता : कहने को कुछ नहीं पर फिर भी नायाब। बल्कि समय के गुजरने के साथ इस वक्त की स्मृति अधिक सजग और जीवंत होती जाती है। ये ऐसे अनुभव हैं जो इनसान और समाज की नियति बदल सकते हैं, अगर आप में जज्बा है और प्रतिभा। साधारण इनसानों के लिए ऐसे मौके एक पहचान देते हैं और गुमनामी के तेजाब से बचाते हैं... अगर मैं चित्राकार होता, स्वेल बना रहा होता तो इन महीनों में नायाब और सबसे सुर्ख रंग भरता।

पर मेरी अधर उम्र के लिए कठिनाइयाँ कम नहीं थी। मेरे आतंक पर गौर कीजिए कि ब्यूटी से अभी मैं प्रेम निवेदन कर भी नहीं पाया था, संसर्ग तो दूर की बात थी, पर मेरा कथाकार छटपटा रहा है और उसने इस संबंध का एक सौ छठे दिन का पटाक्षेप भी कर दिया है। लानत है, अपनी बिल्ली खुद को म्याऊँ।

मेरा पहला और जरूरी काज था कि मैं ब्यूटी का रोज का संपूर्ण रुटीन पूरी तरह अधिगृहीत कर लूँ : वह क्या करती है पूरे दिन और रात्रिकाल के जगे वक्त में, कब, क्यों, कहाँ; उसके मूड की लय और जैविकी घड़ी; उसकी पोशाक, रूप रंग, भंगिमा और आचरण में बदलाव। इस तरह मैं सूक्ष्म विस्तार में उसका रोजाना का ग्राफ अंकित करना चाहता था। ताकि जिस तरह 'क' मुझ पर हर वक्त सवार था, एक तरह से मैं उस पर सवार हो जाऊँ। इस उपक्रम के लिए मेरे पास दो प्रेक्षण स्थान थे : छत का फैलाव और पहली मंजिल पर बेडरूम के बाहर बरामदा। यह बरामदा ब्यूटी के बेडरूम और उसके बगल के गलियारे के एकदम सीध में था : दूरी करीब चालीस, पचास फीट।

जो बीड़ा मैंने उठाया था वह किसी रहस्य के धीमे और बारीक छीलने की तरह था। क्या मैं भेदिया नहीं था जिसने एक अनजान शरीर को लक्ष्य किया था? और शरीर के सबसे अंदरूनी कोनों को बींधने के उपरांत वह उसकी आत्मा तक में घुसपैठ करने को बाध्य था? हिचकॉक की फिल्म 'रियर विंडो' में नायक ने सामने के घर की जासूसी करने के लिए एक स्मार्ट टेलीस्कोप का इस्तेमाल किया था और एक हत्या उसके मत्थे पड़ी। इस तुलना को आगे बढ़ाते हुए मैंने सोचा कि मेरे ज्वर मस्तिष्क में सैकड़ों नन्हें टेलीस्कोप जड़े हैं : मैं असलियत से सिर्फ रूबरू नहीं था, मैं उस पर काबिज हो कर उसे हस्तगत कर रहा था।

'क' ने तुरंत मुझे रश्दी के 'मिडनाइट चिल्ड्रिन' की याद दिलाई। इस उपन्यास में एक अनोखे प्यार ने जन्म लिया (क्या प्यार हुआ था? अगर नहीं तो मैं मानना चाहता हूँ ऐसा हुआ था। लाइब्रेरी में यह नॉवेल नहीं था सो मैं पुष्टि नहीं कर सका) जब एक डॉक्टर ने अपनी एक युवती रोगी का महीनों उपचार किया। पर्दानशीनी के लिए डॉक्टर और रोगी के बीच सदा एक चादर तानी जाती जिसमें एक छेद था। उस छेद के जरिए डॉक्टर ने अपनी प्रेयसी की देह को इंच दर इंच नजर किया। और यह क्रम हफ्तों, महीनों चला।

तो क्या छत की अठखेलियों से इश्क का सूत्रपात होगा, मैंने खुद से पूछा।

मेरे तरीके सतर्क और त्रुटिहीन थे और बदले में ब्यूटी का दैनिंदिकी का निर्वहन कठोर और इकसार। वह एक मायने में अपनी जिंदगी के यथार्थ का सार और निचोड़ बिना किसी आडंबर के यथास्थान प्रस्तुत कर रही थी। दूसरे शब्दों में वह पूरी तरह नार्मल थी। मानो उसकी जिंदगी ज्यों की त्यों थी, उसमें कुछ नया नहीं था, कोई उसे देख नहीं रहा था, मैं नदारद था। कठोर संकल्प और गहरे अनुशासन से ही ऐसा प्रदर्शन संभव था। यह जानते हुए भी कि वह निरंतर रतिराग निगरानी की पात्र है, उसने इस बोध की अपनी चेतना से निष्कासित कर दिया था और वही व्यवहार किया जो वह हमेशा करती थी। इस अनूठी क्रीड़ा के प्रति उसका समादर मरने मिटने की तरह था। जहाँ तक मेरी बात है मैं किसी भी चैलेंज या पकड़े जाने के डर से मुक्त था, पूरी निर्लज्जता से मैं उसे देखूँ, ताकूँ इसके लिए मैं स्वतंत्र था। ऐसे समझौते की माँग थी कि हमारी आँखें कभी चार न हों। जब मैं उसे देख रहा हूँ उसे अपनी दृष्टि हटाए रखनी थी। नए बनते रिश्ते की सत्यनिष्ठा के लिए उसे सिरे से झुठलाना जरूरी था। इस निर्धारण में बराबरी पैदा करने के लिए मैं उसे मौके देता कि वह अगर चाहे तो मुझे नजर कर सके। तब मैं दूसरी दिशाओं में अपनी दृष्टि फिरा लेता। मैं यह मान कर चल रहा था वह इन मौकों का इस्तेमाल करेगी ताकि इस प्रोजेक्ट में उसकी दिलचस्पी और चाहना बनी रहे। पर मुझे उससे वैसी तीव्रता की उम्मीद नहीं थी जो मैं ब्यूटी के लिए निवेश कर रहा था।

मैंने उसका चेहरा और आकार अधिकतर पार्श्व में देखा। मेरी तरफ से तिरछा चाक्षुक हमला होता था। या जब वह छत से नीचे देख रही होती या उसकी नजर कहीं आसमान में अटकी होती। मैं उसके शरीर को पीठ पीछे से बेहतर पढ़ने लगा था बनिस्बत सामने से। उसके वक्षों का गठन और कसाव, उदर की ढलानें और आयतन, इनसे मेरी वाकफियत उतनी नहीं थी जितनी, मसलन इनसे : कंधों के उपद्रव, रीढ़ के वक्र और तनाव और नितंबों के उभरे घनत्व। दो हफ्तों के भीतर मैं, आश्वस्त और स्थिर उँगलियों से हवा में उसके माथे से ठोड़ी तक की हूबहू पार्श्व रेखा खींच सकता था। अपने दिमाग में मैं किसी भी वक्त उसके वक्ष के निचले भार की पकी नाशपाती रेखा चित्रित कर सकता था और, पार्श्व के संदर्श से उस रेखा को बढ़ाते हुए व्यक्त कर पाता था : उसकी नाभि का कुआँ, योनि की भीतर की ओर उन्मुख ढलान और उसके बाद दूधिया जाँघों की मधुर, उल्लासपूर्ण छलकन, घुटने और पिंडलियों के दीर्घवृत्त... ये सभी मध्य दूरी के दृश्यबंध थे जिनके सूक्ष्म विवरण सौंदर्यबोध और ज्यामिति के सहज सिद्धांतों के कल्पनाशील हस्तक्षेप से भरे जा रहे थे : गठन, स्पर्श, रंग और भाव!

मैं उसे रोज देखता था। या कहना चाहिए मेरा प्यासा दिल उसकी मौजूदगी का नित्य रसपान कर रहा था। इस वक्त छत पर आने में उसका कभी नागा नहीं होता : कहो कि साढ़े छः और आठ के बीच। वह सुबह जल्दी उठती थी जैसे उसकी परिस्थितियों की अधिसंख्य महिलाएँ। इतने सारे काम और जरूरतें इस वक्त की होतीं जो उसे छत पर बुलातीं। मैंने सब कुछ देखा मानो कोई सामाजिक अध्ययन कर रहा हूँ : वह धुले कपड़े दोनों हाथों से निचोड़ती और उन्हें सूखने के लिए लटकाती; सूखे वस्त्र उतारती और उन्हें एक लाल हरे बैग में भर कर नीचे ले जाती। छत धोनी होती : वह पानी से भरी बाल्टियों को चारों दिशाओं में उलटाती। छत पर एक नल था और कभी वह बाल्टियाँ भरने का इंतजार करती। अगर वक्त कम रहता और दूसरे कामों का दबाव तो वह ऊपर नीचे हैरतमंद तेजी से भागती : एक प्रभापूर्ण हिरनी की तरह, मैं सोचता। कुछेक बार उसकी साँस चढ़ जाती पर फिर भी उसके दिमाग के कोने में मेरा अहसास रहता (ऐसा मेरा विश्वास होता) क्योंकि वह पार्श्व में खड़ी होती : उखड़ी साँस से उसके वक्ष ऊपर नीचे होते और शारीरिक जतन की बहुतायत से उसकी देह काँपती सी लगती। वे बेशकीमती, न भूलने वाले क्षण थे।

छत के चारों ओर किनारे किनारे गमले थे जिनमें पत्ते और फूल थे। कुछ गमले मुँडेर पर भी थे। ब्यूटी उन्हें भी पानी देती, अक्सर वह इसके लिए एक फव्वारेदार डोल का इस्तेमाल करती। पानी की धार में सूरज की किरणें फँस जातीं और फिर जल के कण चाँदी या सोने के रंग में चमकते। कई बार वह छत धोने या पौधों को पानी देने के लिए पाइप का उपयोग करती। मेरे लिए यह सब देखना, ये सारे काम दिलचस्प और सम्मोहक थे। पर मैं समझ सकता हूँ यह रुटीन ब्यूटी के लिए कभीकभार बोझिल हो जाता होगा और तब वह कुछ निस्तेज सी दिखाई देती। शायद यही वजह थी वह दो तीन बार पाइप से खेलती दिखाई दी। पाइप की लंबाई को वह कई चवें में घुमा देती या धार के मुँह पर हाथ रख उसे कई दिशाओं में मोड़ देती।

जलपरी है ब्यूटी, तब मैं खुद से बुदबुदाता। नाइटी के कुछ हिस्से पूरे गीले हो जाते और वे उसकी देह से पूरे कामोक्रोध से चिपक जाते। मुझे यह सोचना अच्छा लगता वह यह सब मेरे लिए करती है। जैसे एक दिन उसने पाइप की गोलाइयों में खुद को फँसा लिया और खुद को निकालने के जतन में जल की धार ने उसके चेहरे और बालों को भरपूर गीला कर दिया। मुझे लगा वह गुपचुप, स्वमग्न हँस रही है। हो सकता है मैं गलत हूँ, पर मुझे लगा कि जैसे हफ्ते गुजरे उसकी नाइटी का कपड़ा पतला और पतला होता गया और एक सुबह, मेरी आँखें धोखा नहीं खा सकतीं, मैं नाइटी के आरपार देख रहा था। उस भेदभरी, खामोश नजदीकी में भी, जिसमें हम शरणागत थे, मैं शर्म से सुर्ख हो गया था और पहलेपहल चोर की तरह डर गया था।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 11:29 AM
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