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कहानीकार
#5
यह सांत्वना है। जब मैं कल्पना करता हूँ कि मैंने निःस्वार्थ भाव से अपने कंधे पर कंबखत कथाकार का बोझ स्वीकार किया है, वह लगातार मुझे धकियाता और धिक्कारता है, एक घुड़सवार की तरह मेरी पसलियों में एड़ियाँ गड़ाता है। उसके पास मेरी हर करनी पर इजलास बिठाने की क्षमता है और वह मैं नहीं बल्कि लेखक है जो हर अहम चुनाव के वक्त मनाही का अख्तियार रखता है। मानों यथार्थ से मेरी जद्दोजहद पूरी तरह इन जनाब कथाकार की मध्यस्थता और सद्भावना पर टिकी है।

एक दिन आएगा, मैं खुद से कहता हूँ, जब यह कहानीकार और मैं एक होंगे, एकभाव, एकरूप, एक दूसरे में सदा के लिए विलीन (क्या कुबड़े को अपने कूबड़ का ख्याल होता है, या ऊँट को अपनी मुश्किलाती गर्दन का), तब यह बोझ हल्का होगा और कायांतरण होगा एक पंख के क्षणिक स्पर्श में : कंधे पर पंख लिए मेरी कल्पनाओं का आकाश असीमित, आखिर मेरे कथाकार का समग्र अवतरण हो रहा है और तब मेरे पंजे धरती की सतह से कुछ इंच ऊपर रहते हैं...।

जब भी हम अपने ताया और उनके परिवार से मिल कर लौटते माँ मुझे डबडबाई आँखों से देखती और गहरी आह भर (यह ध्यान रखते हुए कि पिता जी कहीं आसपास नहीं) कहती: कलाकारों के दिल जानलेवा कोमल होते हैं। जो टूटे तो न जुड़े। ताया के परिवार की हालत दयनीय थी, भूखे मरने की आसन्न नौबत। ताया पिता जी के मौसेरे भाई थे और पिता जी ऐसी मुलाकातों में पूरे वक्त कठोर और तटस्थ मौन रखते। जिन ताया का मैं जिक्र कर रहा हूँ वे पतंगसाज थे, सर्वमान्यता थी कि उनके लंबे, पतले हाथों में (मुझे वे हाथ खूब याद हैं) गजब का हुनर था। किसी वक्त मेरे ताया के दिमाग में जजबाती, इन्कलाबी बदलाव हुआ (इन्कलाबी नहीं कबाबी, बुढ़ऊ जी के खयालात में कीचड़ लग गई है, पिता जी फुँफकारते) और उन्होंने, रातोंरात, अपने छोटे से घर के पिछवाड़े एक कुम्हार का चक्का लगाया और अजीब, दिलकश गोलाइयों की नन्हीं मूर्तियाँ बनाने लगे। जब पूछा गया यह कौन से बाजार के लिए हैं, मेरे ताया ने, सुना है, कहा : कैसा बाजार? यह कला और सौंदर्य की उपासना है। यह सब बहुत पहले हुआ था, करीब डेढ़ दशक गुजर गया, जब मैं पैदाइश के कस्बे में रहता था और मुझे न शऊर था न अंदाजा मैं जिंदगी में क्या करना चाहता हूँ। जब ऐसे सवाल मुझसे कॉलेज में या दूसरे मौकों पर पूछे जाते तो मेरा जवाब परंपरागत और रटारटाया होता : डॉक्टर, इंजीनियर, कलेक्टर, इंसपैक्टर वगैरह। एक बार, बिरला सा क्षण, मैं ताया के सामने अकेला था, मैंने यह सवाल अतीत के काल में उनकी तरफ फेंका : आप अपनी जिंदगी में क्या करना चाहते थे? कुम्हार का पहिया चलता रहा, उनकी लंबी उँगलियाँ चमकदार, मुलायम मिट्टी में सनी थीं। कुछ क्षण बाद वे मुस्कराए और बोले : जो हो वही होना चाहिए, न ज्यादा न कम। बहुत समय बाद जब मेरे लेखक घुड़सवार ने एक बार मुझे नीत्शे की आग की ओर धकेला, तब मैंने जाना कि मेरे कुम्हार ताया ने अनजाने ही नीत्शे की गोलमगोल, आग्नेय बातों को बेहद सरल तरीके से कहा था। पर मेरे ताया की उदास सौम्यता नीत्शे के स्वभाव और लेखन से सर्वथा विपरीत थी। मुझे लगा कि जिस आग में ताया झुलस रहे थे उसके गुण एकदम अलग थे। अब महसूस होता है कि माँ के मन में कुम्हार ताया के लिए गहरी आस्था थी और उन्हें ताया के दुर्दिनों से बेहद पीड़ा रही जिसे वे व्यक्त न कर सकीं। ताया की कला की डूबती नाव की अदम्य पतवार बनने की बेदम ख्वाहिश की छाया में माँ ने एक अलंकृत थीसिस का निर्माण किया : वे कलाकारों के दिल की तुलना महीनतम काँच की, नाजुक कारीगरी से भरपूर, खूबसूरत कलाकृतियों से करतीं : नाइत्तफाकी का अकेला शब्द या खामोश तिरस्कार की तिल भर की सुगबुगाहट उसके हजार टुकड़े करने के लिए काफी है। इस तुलना से वह व्यथा से भर उठतीं और यह साफ दिखाई देता जब रात में सोने से पहले और पूजा करने के बाद वह काँच का एक दीपदान हाथ में लिए घर के हर कोने का चक्कर लगातीं। उस वक्त, मेरे बालक मन ने ऐसे संपर्क नहीं जोड़े थे पर माँ की वह छवि - खामोश कदम, दीप की लौ से दमकता मुखमंडल - अनुपम और जादुई थी। अब मैं मानता हूँ कि सावधानी से हाथ में दीपदान उठाए, माँ देश दुनिया के अनगिनत, अनाम कलाकारों और उनके कोमल, अभेद्य दिलों के प्रति अपनी आस्था अभिपुष्ट कर रही थीं।

मुझे यह सब क्यों याद आता है? इसलिए क्योंकि मुझे लगता है कि कथाकार बनने की मेरी तमन्ना उस विरासत की देन है जिसे मैंने ताया से शायद चुराया। यह निष्कर्ष मुझे आनंदित करता है और मेरे संकल्पों, सपनों को पोषित भी करता है।

कैसी रात है! देर हो गई है। मेज पर बिखरे खाली और भरे कागजों को मैं देखता हूँ। महीन सी लिखावट मानों कितनी ही सुथरी कतारों में चीटियाँ एक छोर से दूसरे छोर जा रही हैं : मेरा मन छलकते, भीचते संवेग से भर उठता है... एक माँ जैसे अपने नवजन्मे से पूछ रही है : कैसे मैंने तुझे जन्मा? तू मेरा है, यह चमत्कार है। विस्मय से मैं कह उठता हूँ : हमारे मुख और जीभ और कंठ निरर्थक स्वर का एक विविक्त, सीमित सेट पैदा करते हैं; शब्द और अक्षर का समूह सीमित है पर वे विचार और भावनाओं की अनंत दुनिया को प्रकट करते हैं, उनके संवाहक हैं। और साधारण से असाधारण की इस शाश्वत, चमत्कारी छलाँग में मैं एक सक्रिय सिपहसालार हूँ।

तभी, एक छाया की स्मृति मेरे मस्तिष्क के पटल पर गुजर जाती है : जैसे किसी श्रद्धालु ने मंदिर की घंटी एक बार फिर बजाई है, या एक बच्चा अपनी माँ के आँचल के सिरे को एक बार फिर खींच रहा है, मेरा दिल एक भीने, कोमल आस्वाद के शहद से भर उठता है।

क्या ये पन्ने महज एक छाया से उत्पन्न सृजन फल नहीं?

अनुवर्ती विचार बिजली की गति से कौंधा है - वास्तु के महान उदाहरण : गिरजाघर मंदिर, मस्जिद, भव्य इमारतें किसी इबादत या दिव्य बोध की अमूर्त तस्वीर से उपजती हैं। क्या मेरे साथ ऐसा ही कुछ नहीं हुआ? यह प्रत्याशा पुलकित करती है। ऐसा रोज नहीं होता। आखिर, जिंदगी के इन क्षणों में, जब मैं राजधानी शहर में निरा अजनबी हूँ, घर से बहुत दूर, एक नया जीवन शुरू कर रहा हूँ, संकेत कहते हैं और घटनाएँ साक्ष्य हैं कि मैं अनपेक्षित और बेहतरीन किस्मत की एक अनुपम लहर पर आरूढ़ और आसीन हूँ। कहते हैं कि अच्छा वक्त बार बार नहीं आता।

देर शाम थी जब मैंने अकस्मात वह छाया देखी थी। छाया जो निश्चित एक औरत की थी, एक अजनबी। पूरे मनोयोग और एकाग्रता से मुझे उस छाया का ध्यान करना है। असीम धीरज के साथ उन पलों का मंथन जरूरी है : धीमी आँच से मनन का गहरा आनंद और नुकीली कल्पना की गहन नजर। कुछ भी न छूटना है न छोड़ना है। इस करतब में कितना उत्साह है : एक तो ऐंद्रिक उद्दीपन की घनी संभावना और दूसरे, और ज्यादा महत्वपूर्ण, क्योंकि कंधे के मेरे बोझ ने यह निर्देश दिया है। जैसा मैंने कहा देर शाम का वक्त था। अगस्त के आखिरी दिन थे और मैं उस पुराने, दुमंजिला मकान की छत पर गया था, मौजूदा में यह मेरा अस्थायी घर है, और अगले कुछ महीनों के लिए रहेगा, मार्च के अंत तक तो निश्चित ही। सुबह हल्की बारिश हुई थी। दोपहर में कुछ देर के लिए नीले, चमकीले आकाश में सूरज ने अपना एकाधिकार बना लिया था। पर फिर, जैसे शाम आई, काले बादल नीचे आ गए और करीब पंद्रह मिनट तक घनी एकरस बारिश हुई। उसके बाद आसमान साफ हो गया और जब मैं छत पर पहुँचा अँधेरा घिरने लगा था और असंख्य, टिमटिमाते तारों की झिलमिल दूर से सुदूर तक फैली थी। तारों की उजास में उत्फुल्ल हर्ष के साथ एक शर्मीली झिझक का आग्रह भी था। छत के एक तरफ नीचे सड़क थी जिसके पार एक पार्क था। अमूमन मैं इसी तरफ खड़ा होता था। सड़क पर अचरजपूर्ण ढंग से साफ पानी के चकत्ते दिखाई दे रहे थे। पास और दूर की लाइटें उनमें चमक रही थीं मानों वे अपने सम्मेलन के लिए इकट्ठी हुई हैं। एक पतली, ठंडी हवा अब बहने लगी थी। पाइप, मुँडेर, अंसख्य छेद, पत्ते, टिन शेड के किनारे और लंबे लैंप पोस्ट की फैली बाँहों से पानी की बूँदें लगातार टपक रही थीं, इस स्वर में अदम्य सा सम्मोहन था। कुछ दूरी पर, एक मकान के सामने, जिसके पीछे एक छोटा सा अवैध, व्यावसायिक गोदाम चलता था, एक खुला टेंपो खड़ा था जिस पर गीले गत्ते के डिब्बे रखे थे। साइकिल, रिक्शे, स्कूटर, आटो एक सूक्ष्म, सरसराती आवाज के साथ सड़क पर जमा पानी को काटते हुए निकल रहे थे। मेढक निकल आए थे। जो भी आँखों के सामने था उस पर मानो बुझी प्यास का पर्दा खिंच गया था। प्रत्येक आत्मनिर्भर हो गया था, किसी को किसी की जरूरत नहीं थी। इस दृश्य वितान में मानो एक समझौता दस्तखत हो गया था जिसका आश्वासन था कि आज की शाम एक भी जन बदतर नहीं होगा और कम से कम एक जन के हालात बेहतर होंगे। इस इलाके के लिए यह शाम बेहतरीन और अनन्यता के सबसे निकट हो सकती थी...। मंद, ठंडी हवा से विभोर मैं छत के दूसरी तरफ चला गया जहाँ कोने में एक छोटा कमरा था।

जो नजारा सामने दिखाई दे रहा था वह शायद जल्दी इतिहास के पन्नों में विलीन हो जाए। क्योंकि तेजी से बदलती नगर संस्कृति और वास्तु में बहुमंजिला रिहाइशें, कतारों में छतें और झोपड़ बस्तियाँ, इन तीन किस्मों के अलावा विकल्प का कोई स्थान बचता नहीं। इस इलाके को अब कॉलोनी कहते हैं पर स्वरूप एक बड़ा मोहल्ला या महामोहल्ला का है : हर आकार और प्रकार के घर और उन्हें जोड़ती, काटती सड़क, बड़ी सड़क, गली, छोटी गली, अंधी गली सर्विस लेन और वैध अवैध कट का अनोखा जाल।

छत से जो दिखाई दे रहा था वह हर दिशा में फैला छतों का अनोखा विस्तार था जिनके बीच में अनेक जगह मात्र हाथ भर का फासला था। एक विशाल, एकल, सामुदायिक छत का आभास होता था जिस पर एक स्वतंत्र, वैकल्पिक जीवन संभव था...।

यह घर आसपास की दूसरी रिहाइशों से ऊँचा था इसलिए चारों ओर नजर निर्बाध जाती थी। दूरी पर कुछ काली, मृत चिमनियाँ दिखाई देती थीं जो शायद एक बंद मिल की थीं जिसके जर्जर गेट के सामने से मैं कई बार निकला था। गेट के सामने मैंने सदा एक कुर्सी देखी जिस पर एक खुला रजिस्टर पड़ा होता। कुछ बूढ़े लोग वहाँ आते और रजिस्टर में दस्तखत करते। वे शायद इस मिल के एक जमाने के मजदूर थे।

छत के चारों ओर चार फुट ऊँची सीमेंट की मुँडेर थी जिसके ऊपर कई जगह गमले रखे थे। मैंने मुँडेर की गीली, ठंडी सतह पर अपना हाथ रखा और आसपास देखने लगा। छतों और इमारतों के आपसी कोण और दूरियाँ इस तरह थीं कि सहजता से मेरी नजर एक अपेक्षाकृत कम ऊँचे, दुमंजिला मकान पर पड़ी जो संभवत: तीन कतार पीछे था। वह उस घर का पिछवाड़ा था। पहली मंजिल पर एक गहरा बारजा था जो इमारत की पूरी चौड़ाई तय कर रहा था। दो लैंपों की गुनगुनी, पीली रोशनी में पूरा छज्जा नहाया था। छज्जा खाली था, कोई गति नहीं। जो चीजें वहाँ थी : एक कसरती बाइक, दो बच्चों की तिपहिया साइकिल, कपड़े सुखाने का अल्‌मीनियम का एक ऊँचा खाँचा, कुर्सियाँ - सब बारिश बाद की शुद्धता से अभिभूत था। पीछे, करीब तीन चौथाई लंबाई में एक बड़ा कमरा था - सामने दीवार कद की ऊँची काँच की खिड़कियाँ जिन पर दुहरे पर्दे थे : भीतर एक पारभासी मलमली परदा और बाहर की ओर मोटे कपड़े का परदा जिस पर फूलों की आकृतियाँ थीं, या फल बेलों की। कमरे से सटा बाईं ओर एक गलियारा था जो भीतर तक चला गया था और बाएँ कोने में एक और कमरानुमा था जो स्टोर हो सकता था या टॉयलेट। इतना मैंने देखा और ऊपर आयताकार छत थी जो मेरी नजर से नीची थी और जिस पर भीमकाय काली पानी की टंकियाँ थीं जो सब कुछ अपने आकार में मानो समेट रही थीं।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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कहानीकार - by neerathemall - 03-12-2019, 11:29 AM
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