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Incest हाए भैय्या,धीरे से, बहुत मोटा है
#41
दोनो आनंद विभोर हो उठे थे. दोनो की मस्ती और वासना अब शांत हो रही थी. दो प्यासों की एक साथ प्यास बुझ रही थी. दोनो एक दूसरे के सहजीवी हो रहे थे. दोनो एक दूसरे के पूरक साबित हो रहे थे. एक के बिना दूसरे का जीवन अधूरा सीधा हो रहा था.

रवि बराबर जम के कविता की चूत मे धक्के मार रहा था. वो धक्कों की गति तेज़ करता जा रहा था और कविता को भरपूर आनंद प्राप्त हो रहा था. एकाएक कविता बहुत अधिक मस्त हो उठी. वो हौले से बोल उठी- “भैया”

“क्या?”

”और कस के धक्के लगाओ….और कस के चोदो, बहुत अधिक मज़ा आ रहा है. चोदो भैया….हाए भैया…हाए मैं अब तक इस आनंद से अन्भिग्य थी.

आज तुमने मुझे एक अद्भुत आनंद से परिचित कराया है. चोदो और कस के चोदो कविता पूरी तरह से कराह उठी.

उधर अब रवि भी कहता जा रहा था वो पूरी शक्ति से धक्का मार रहा था. और अपने लंड को चूत मे अंदर बाहर कर रहा था. कविता बार बार हाँफ रही थी और उल्टी सीधी बात बकती जा रही थी. अब शायद दोनो ही झड़ने के बिल्कुल करीब पहुँच गये थे. दोनो झड़ना ही चाहते थे कि रवि ने एक बहुत शक्ति लगा कर धक्का मारा और कविता पर ओन्धा पड़ कर रह गया.

उसके लंड ने पानी छोड़ दिया था.उसी के साथ कविता के चूत ने भी पानी छोड़ा. सारी चूत पानी से लबालब भर उठी. दोनो एक साथ झाड़ गये थे. दोनो की सांस तेज़ चल रही थी. फिर कुच्छ देर बाद दोनो नॉर्मल हो गये.

रवि ने उठ ते हुए कविता की चूत से लंड बाहर खींच लिया. फ़च की आवाज़ के साथ रवि का मोटा लंड बाहर आ गया. उसी के साथ ढेर सारा वीर्या भी चूत से बह कर कविता की जांघों पे फैल गया. रवि के लंड का सुपाडा फूल कर लाल लाल टमाटर जैसे हो गया था. जैसे किसी घोड़े का लंड घोड़ी की चूत का रस पीकर सुपाडा मोटा हो जाता है .

रवि ने तौलिया उठा कर अपने लंड पर लगे वीर्य को पोंच्छा और फिर वो कविता की चूत को पोंच्छने लगा. फिर वो पुच्छ बैठा- “कविता मज़ा आया?”

हां भैया

“अब रोज़ हम लोग यह मज़ा लूटा करेंगे, तो तैयार हो.”

“हाँ” मेरे रजा, मेरे जानू रवि भैय्या

रवि ने उठ कर अपने कपड़े पहने और फिर दूसरे दिन यही खेल दुबारा खेलने का वादा कर वो कमरे से बाहर हो गया.लेकिन कविता उसी प्रकार नंगी पड़ी रही. उसने अपनी नग्नता को च्छुपाने के लिए एक चादर ओढ़ ली और सो गयी.

फिर ये खेल रोज़ खेला जाने लगा. रवि अपनी बहन की चूत का दीवाना है उसी प्रकार कविता भी अपने भाई के लंड की दीवानी है. वो दीवानेपन मे सबकुच्छ भूल गये हैं. रिश्ते-नाते, पाप-पुण्य सब कुच्छ. बस उन्हे मौज मस्ती से काम है.

~~~ समाप्त ~~~
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#42
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#43
हाए भैय्या,धीरे से, बहुत मोटा है
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#44
साहित्य
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
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#45
साहित्य किसे कहते हैं। जब तक साहित्य के वास्तविक रूप का यथार्थ ज्ञान नहीं होगा, तब तक इस बात की उचित मीमांसा न हो सकेगी कि उसके विषय में अब तक हिन्दी संसार के कवियों और महाकवियों ने समुचित पथ अवलम्बन किया या नहीं और साहित्य विषयक अपनेर् कत्ताव्य को उसी रीति से पालन किया या नहीं, जो किसी साहित्य को समुन्नत और उपयोगी बनाने में सहायक होती है। प्रत्येक समय के साहित्य में उस काल के परिवर्तनों और संस्कारों का चिद्द मौजूद रहता है। इसलिए जैसे-जैसे समय की गति बदलती रहती है, साहित्य भी उसी प्रकार विकसित और परिवर्तित होता रहता है। अतएव यह आवश्यक है कि पहले हम समझ लें कि साहित्य क्या है, इस विषय का यथार्थ बोधा होने पर विकास की प्रगति भी हमको यथातथ्य अवगत हो सकेगी।

''सहितस्य भाव: साहित्यम्'' जिसमें सहित का भाव हो, उसे साहित्य कहते हैं। इसके विषय में संस्कृत साहित्यकारों ने जो सम्मतियाँ दी हैं, मैं उनमें से कुछ को नीचे लिखता हूँ। उनके अवलोकन से भी साहित्य की परिभाषा पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ेगा। 'श्राध्द विवेककार' कहते हैं-
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#46
''सहित शब्दों से साहित्य की उत्पत्तिा है-अतएव, धाातुगत अर्थ करने पर साहित्य शब्द में मिलन का एक भाव दृष्टिगोचर होता है। वह केवल भाव का भाव के साथ, भाषा का भाषा के साथ, ग्रन्थ का ग्रन्थ के साथ मिलन है। यही नहीं,वरन् यह बतलाता है कि मनुष्य के साथ मनुष्य का, अतीत के साथर् वत्तामान का, दूर के सहित निकट का अत्यन्त अन्तरंग योग साधान साहित्य व्यतीत और किसी के द्वारा सम्भव पर नहीं। जिस देश में साहित्य का अभाव है। उस देश के लोग सजीव बन्धान से बँधो नहीं, विच्छिन्न होते हैं।''1

''श्राध्दविवेक'' और ''शब्द-शक्ति-प्रकाशिका'' ने साहित्य की जो व्याख्या की है, ''कवीन्द्र'' का कथन एक प्रकार से उसकी टीका है। वह व्यापक और उदात्ता है। कुछ लोगों का विचार है कि साहित्य शब्द काव्य के अर्थ में रूढ़ि है। 'शब्द-कल्पद्रुम' की कल्पना कुछ ऐसी ही है। परन्तु ऊपर की शेष परिभाषाओं और अवतरणों से यह विचार एकदेशीय पाया जाता है। साहित्य शब्द का जो शाब्दिक अर्थ है, वह स्वयं बहुत व्यापक है, उसको संकुचित अर्थ में ग्रहण करना संगत नहीं। साहित्य समाज का जीवन है, वह उसके उत्थान-पतन का साधान है, साहित्य के उन्नत होने से उन्नत और उसके पतन से समाज पतित होता है। साहित्य वह आलोक है जो देश को अन्धाकार रहित, जाति-मुख को उज्ज्वल और समाज के प्रभाहीन नेत्राों को सप्रभ रखता है। वह सबल जाति का बल, सजीव जाति का जीवन, उत्साहित जाति का उत्साह, पराक्रमी जाति का पराक्रम, अधयवसायशील जाति का अधयवसाय, साहसी जाति का साहस औरर् कत्ताव्य-परायण जाति कार् कत्ताव्य है।

इनसाईक्लोपीडिया ब्रिटैनिका में साहित्य की परिभाषा इस प्रकार की गई है-

"Literature, a general term which in default of precise definition, may stand for the best expression of the best thought reduced to writting. Its various forms are the result of political circumstances securing the predominance of one social class which is thus enabled to propogate its ideas and sentiments."

-Encyclopaedia Britannica.

''साहित्य एक व्यापक शब्द है जो यथार्थ परिभाषा के अभाव में सर्वोत्ताम विचार की उत्तामोत्ताम लिपिबध्द अभिव्यक्ति के स्थान में व्यवहृत हो सकता है। इसके विचित्रा रूप जातीय विशेषताओं के, अथवा विभिन्न व्यक्तिगत प्रकृति के अथवा ऐसी

1. देखिए 'साहित्य' नामक बँगला ग्रन्थ का पृ. 50।

राजनीतिक परिस्थितियों के परिणाम हैं जिनसे एक सामाजिक वर्ग का आधिापत्य सुनिश्चित होता है और वह अपने विचारों और भावों का प्रचार करने में समर्थ होताहै।''
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#47
ग्रन्थ की यहाँ तक प्रतिकूलता करते हैं कि उसका प्रकाश तक बंद करा देना चाहते हैं। यदि पंडित मोहनलाल विष्णुलाल पंडया अनेक तर्क-वितर्कों से पृथ्वीराज रासो की प्राचीनता का पक्ष-ग्रहण करते हैं तो जोधापुर के मुरादिदान और उदयपुर के श्यामल दास भी उसका विरोधा करने के लिए कटिबध्द दिखलाई पड़ते हैं। थोड़ा समय हुआ कि रायबहादुर पं. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने भी अपनी प्रबल युक्तियों से इस ग्रन्थ को सर्वथा जाली कहा है। परन्तु, जब हम देखते हैं कि महामहोपाधयाय पं. हरप्रसाद शास्त्राी सन् 1909 से सन् 1913 तक राजपूताने में प्राचीन ऐतिहासिक काव्यों की खोज करके पृथ्वीराज रासो को प्राचीनता की सनद देते हैं तो इस विवर्ध्दित वाद की विचित्राता ही सामने आती है। इन विद्वान् पुरुषों ने अपने-अपने पक्ष के अनुकूल पर्याप्त प्रमाण दिये हैं। इसलिए इस विषय में अब अधिाक लिखना बाहुल्य मात्रा हो। मैंने भी अपने पक्ष की पुष्टि के लिए उद्योग किया है। किन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि मैंने जो कुछ लिखा है, वह निर्विवाद है। हाँ, एक बात ऐसी है जो मेरे विचार के अधिाकतर अनुकूल है। वह यह कि बहुत कुछ तर्क-वितर्क और विवाद होने पर भी किसी ने चन्दबरदाई को सोलहवें शतक का कवि नहीं माना है। विवाद करने वालों ने भी साहित्य के वर्णन के समय उसको बारहवें शतक में ही स्थान दिया है। यदि पृथ्वीराज रासो की प्राचीनता की सत्यता में सन्देह है तो उसको बारहवें शतक में क्यों स्थान अब तक मिलता आता है। मेरा विचार है कि इसके पक्ष में ऐसी सत्यता अवश्य है जो इसको बारहवें शतक का काव्य मानने के लिए बाधय करती है। इसके अतिरिक्त जब तक संदिग्धाता है तब तक उस पद से किसी को कैसे गिराया जा सकता है जो कि चिरकाल से उसे प्राप्त है।

चन्दबरदाई का समसामयिक जगनायक अथवा जगनिक नामक एक ऐसा प्रसिध्द कवि है जिसकी वीरगाथामय रचनाओं का इतना अधिाक प्रचार सर्वसाधाारण में है जितना उस समय की और किसी-कवि-कृति का अब तक नहीं हुआ। इसकी रचनाएँ आज दिन भी उत्तार भारत के अधिाकांश विभागों के हिन्दुओं की सूखी रगों में रक्त-धाारा का प्रवाह करती रहती है। पश्चिमोत्तार प्रान्त के पूर्व और दक्षिण के अंशों में इसके गीतों का अब भी बहुत अधिाक प्रचार है। वर्षाकाल में जिस वीरोन्माद के साथ इस गीति-काव्य का गान ग्रामों के चौपालों और नगरों के जनाकीर्ण स्थानों में होता है, वह किसके हृदय में वीरता का संचार नहीं करता? इसके गीतों में महोबा के राजा के दो प्रधाान वीर आल्हा और ऊदल के वीर कम्र्मों का बड़ा ही ओजमय वर्णन है यद्यपि यह बात बड़ी ही मर्म्म-भेदी है कि इन दोनों वीरों के वीर कम्र्मों की इतिश्री गृहकलह में ही हुई। महोबे के प्रसिध्द शासक परमाल और उस काल के प्रधाान क्षत्रिाय भूपाल पृथ्वीराज का संघर्ष ही गीति-काव्य का प्रधाान विषय है। यह वह संघर्ष था कि जिसका परिणाम पृथ्वीराज का पतन और भारतवर्ष के चिर-सुरक्षित दिल्ली के उस फाटक का भग्न होना था जिसमें प्रवेश करके विजयी * जाति भारत की पुण्य भूमि में आठ सौ वर्ष तक शासन कर सकी। तथापि यह बात गर्व के साथ कही जा सकती है कि जैसा वीर रस का ओजस्वी वर्णन इस गीति काव्य में है हिन्दी साहित्य के एक दो प्रसिध्द ग्रन्थों में ही वैसा मिलता है। यह ओजस्विनी रचना, कुछ काल हुआ, आल्हा खंड के नाम से पुस्तकाकार छप चुकी है, परन्तु बहुत ही परिवर्तित रूप में। उसका मुख्य रूप क्या था, इसकी मीमांसा करना दुस्तर है। जिस रूप में यह पुस्तक हिन्दी-साहित्य के सामने आई है उसके आधाार से इतना ही कहा जा सकता है कि इस कवि का उस काल की साहित्यिक हिन्दी पर, जैसा चाहिए, वैसा अधिाकार नहीं था। प्राप्त रचनाओं के देखने से यह ज्ञात होता है कि उसमें बुन्देलखंडी भाषा का ही बाहुल्य है। हिन्दी भाषा के विकास पर उससे जैसा चाहिए वैसा प्रकाश नहीं पड़ता, विशेषकर इस कारण से कि मौखिक गीति-काव्य होने से समय के साथ उसकी रचना में भी परिवर्तन होता गया है। किन्तु हिन्दी भाषा के आरम्भिक काल में जो परिवर्तन जो संघर्ष यहाँ के विद्वेषपूण्र्ा राजाओं में परस्पर चल रहा था उसका यह ग्रंथ पूर्ण परिचायक है। इसीलिए इस कवि की रचनाओं की चर्चा यहाँ की गई। मैं समझता हूँ कि जितने ग्रामीण गीत हिन्दी भाषा के सर्वसाधाारण में प्रचलित हैं, उनमें जगनायक के आल्हा खंड की प्रधाानता है। उसके देखने से यह अवगत होता है कि सर्वसाधाारण की बोलचाल में भी कैसी ओजपूर्ण रचना हो सकती है। इस उद्देश्य से भी इस कवि की चर्चा आवश्यक ज्ञात हुई। उसकी रचना के कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं-

कूदे लाखन तब हौदा से , औ धारती मैं पहुँचे आइ।

गगरी भर के फूल मँगाओ सो भुरुही को दओ पियाइ।

भांग मिठाई तुरतै दइ दइ , दुहरे घोट अफीमन क्यार।

राती भाती हथिनी करि कै दुहरे ऑंदू दये डराय।

चहुँ ओर घेरे पृथीराज हैं , भुरुही रखि हौ धार्म हमार।

खैंचि सरोही लाखन लीन्ही समुहें गोलगये समियाय।

साँकर फेरै भुरुही दल में , सब दल काट करो खरियान।

जैसे भेड़हा भेड़न पैठे , जैसे सिंह बिड़ारै गाय।

वह गत कीनी लाखन ने , नद्दी बितवै के मैदान।

देवि दाहिनी भइ लाखन को , मुरचा हटौ पिथौरा क्यार।

उस समय युध्दोन्माद का क्या रूप था और किस प्रकार *ों के साथ ही नहीं, हिन्दू राजाओं में भी परस्पर संघर्ष चल रहा था, इस गीतिकाव्य में इसका अच्छा चित्राण है। इसलिए उपयोगिता की ही दृष्टि से नहीं, जातीय दुर्बलताओं का ज्ञान कराने के लिए भी यह ग्रन्थ रक्षणीय और संग्रहणीय है। इन पद्यों की वर्तमान भाषा यह स्पष्टतया बतलाती है कि वह बारहवीं ई. शताब्दी की नहीं है। हमने तेरहवीं शताब्दी तक आरम्भिक काल माना है। इसीलिए हम इस शतक के कुछ कवियों की रचनाएँ लेकर भी यह देखना चाहते हैं कि उन पर भाषा सम्बन्धाी विकास का क्या प्रभाव पड़ा। इस शतक के प्रधाान कवि अनन्यदास, धार्मसूरि, विजयसूरि एवं विनय चन्द्र सूरि जैन हैं। इनमें से अनन्यदास की रचना का कोई उदाहरण नहीं मिला। धार्मसूरि जैन ने जम्बू स्वामी रासा नामक एक ग्रन्थ लिखा है उसके कुछ पद्य ये हैं (रचनाकाल 209 ईस्वी)-

करि सानिधिा सरसत्तिा देवि जीयरै कहाणउँ।

जम्बू स्वामिहिं गुण गहण संखेबि बखाणउँ।

जम्बु दीबि सिरि भरत खित्तिा तिहि नयर पहाणउँ।

राजग्रह नामेण नयर पुहुवी बक्खाणउँ।

राज करइ सेणिय नरिन्द नरखरहं नुसारो।

तासु वट तणय बुध्दिवन्त मति अभय कुमारो।

विजय सेन सूरि ने 'रेवंतगिरि रासा' की रचना की है। (रचनाकाल, 1231 ई‑) कुछ उनके पद्य भी देखिए-

परमेसर तित्थेसरह पय पंकज पणमेवि।

भणि सुरास रेवंतगिरि अम्बकिदिवि सुमिरेवि।

गामा गर पुर वरग गहण सरि वरिसर सुपयेसु।

देवि भूमि दिसि पच्छिमंह मणहर सोरठ देसु।

जिणु तहिं मंडण मंडणउ मर गय मउव् महन्तु।

निर्म्मल सामल सिहिर भर रेहै गिरि रेवन्तु।

तसु मुंहुं दंसणु दस दिसवि देसि दिसन्तर संग।

आबइ भाइ रसाल मण उडुलि रंग तरंग।

विनय चन्द्रसूरि ने नेमनाथ चौपई और एक और ग्रन्थ लिखा है (रचनाकाल 1299 ई.), कुछ उनके पद्य देखिए-

'' बोलइ राजल तउ इह बयणू। नत्थि नेंमबर समवर रयणू A

धारइ तेजु गहगण सलिताउ। गयणि नउग्गइ दिणयर जाउ

सखी भणय सामिणि मन झूरि। दुज्जण तणमनवंछितपूरि '' ।

ऊपर के पद्यों में जो शब्द चिद्दित कर दिये गये हैं, वे प्राकृत अथवा अपभ्रंश के हैं। इससे प्रकट होता है कि तेरहवीं शताब्दी तक अपभ्रंश शब्दों का हिन्दी रचनाओं में अधिाकतर प्रचलन था। अपभ्रंश में नकार के स्थान पर णकार का प्रयोग अधिाकतर देखा जाता है। उल्लिखित पद्यों में भी नकार के स्थान पर णकार का बहुल प्रयोग पाया जाता है।

जैसे तणय, मणहर, मण,गयण, दिणयर, दुज्जण इत्यादि। अपभ्रंश भाषा का यह नियम है कि अकारान्त शब्द के प्रथम और द्वितीया का एक वचन उकारयुक्त होता है। 1इन पद्यों में भी ऐसा प्रयोग मिलता है जैसे देसु, महन्तु, रेवन्तु, तेजु इत्यादि। प्राकृत और अपभ्रंश में शकार और षकार का बिलकुल प्रयोग नहीं होता, उसके स्थान पर सकार प्रयुक्त होता है2। जैसे श्रमण: समणो, शिष्य: सिस्सो। इन पद्यों में भी ऐसा प्रयोग मिलता है। परमेसर, देस, सामल दस, दिवसि, देसि, दिसन्तरु, देसणु इत्यादि। अपभ्रंश का यह नियम है कि अनेक स्थानों में दीर्घ स्वर Ðस्व एवं Ðस्व स्वर दीर्घ हो जाता है। इन पद्यों में बयणू,और रयणू का ऐसा ही प्रयोग है। इनमें जो हिन्दी के शब्द आये हैं जैसे करि, राज कर सारो, तासु, मुँह, दस, आबइ, रंग,बोलइ, धारइ, मन इत्यादि। इसी प्रकार जो संस्कृत के तत्सम शब्द आए हैं, जैसे गुण, राजग्रह, मति, अभय, पंकज, गिरि,सरि, सर, भूमि, रसाल, तरंग, सम, सखी, इत्यादि वे विशेष चिन्तनीय हैं। हिन्दी शब्द यह सूचित कर रहे हैं कि किस प्रकार वे धीरे-धीरे अपभ्रंश भाषा में अधिाकार प्राप्त कर रहे थे। संस्कृत के तत्सम शब्द यह बतलाते हैं कि उस समय प्राकृत नियमों के प्रतिकूल वे हिन्दी भाषा में गृहीत होने लगे थे। इन पद्यों में यह बात विशेष दृष्टि देने योग्य है कि इनमें एक शब्द के विभिन्न प्रयोग मिलते हैं जैसे मन के मण आदि। प्राय: 'न' के स्थान पर णकार का प्रयोग देखा जाता है, जैसे कि ऊपर लिखा जा चुका है, परन्तु न का सर्वथा त्याग भी नहीं है। जैसे नयर नायेण, नेमि इत्यादि।

मैं समझता हूँ, आरम्भिक काल में किस प्रकार अपभ्रंश भाषा परिवर्तित होकर हिन्दी भाषा में परिणत हुई, इसका पर्याप्त उदाहरण दिया जा चुका। उस समय की परिस्थिति के अनुकूल जो सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन हुए, उनका वर्णन भी जितना अपेक्षित था उतना किया गया। आरम्भिक काल में कुछ ऐसे ग्रन्थ भी लिखे गये हैं, जिनका सम्बन्धा वीरगाथाओं से नहीं है, परन्तु प्रथम तो उन ग्रंथों का नाम मात्रा लिया गया है, दूसरे जो ग्रन्थ उपलब्धा हैं वे थोडे हैं और उनकी प्राय: रचनाएँ ऐसी हैं जो उस काल की नहीं, वरन् माधयमिक काल की ज्ञात होती हैं। इसलिए उनका कोई उध्दरण नहीं दिया गया। अन्त में मैंने जैन सूरियों की जो तीन रचनाएँ उध्दाृत की हैं वे वीर-रस की नहीं हैं। तथापि मैंने उनको उपस्थित किया केवल इस उद्देश्य से कि जिसमें यह प्रकट हो सके कि वीर-गाथा सम्बन्धाी रचनाओं में ही नहीं आरम्भिक काल में ओज लाने के लिए प्राकृत और अपभ्रंश शब्दों का प्रयोग किया गया है, अन्य रचनाओं में भी इस प्रकार के प्रयोग मिलते हैं, जो यह बतलाते हैं कि उस काल की वास्तविक भाषा वही थी जो विकसित होकर अपभ्रंश से हिन्दीभाषा के परवर्ती रूप की ओर अग्रसर हो रही थी।
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#48
हिन्दी साहित्य का माधयमिक काल, मेरे विचार से चौदहवीं ईस्वी शताब्दी से प्रारम्भ होता है। इस समय विजयी *ों का अधिाकार उत्तार भारत के अधिाकांश विभागों में हो गया था और दिन-दिन उनकी शक्ति वर्ध्दित हो रही थी। दक्षिण प्रान्त में उन्होंने अपने पाँव बढ़ाये थे और वहाँ भी विजय-श्री उनका साथ दे रही थी। इस समय * विजेता अपने प्रभाव विस्तार के साथ भारतवर्ष की भाषाओं से भी स्नेह करने लगे थे और उन युक्तियाें को ग्रहण कर रहे थे जिनसे उनके राज्य में स्थायिता हो और वे हिन्दुओं के हृदय पर भी अधिाकार कर सकें। इस सूत्रा से अनेक ,., विद्वानों ने हिन्दी भाषा का अधययन किया, क्योंकि वह देश-भाषा थी। *ों में राज्य-प्रसार के साथ अपने धार्म-प्रचार की भी उत्कट इच्छा थी। जहाँ वे राज्य-रक्षण अपनार् कत्ताव्य समझते, वहीं अपने धार्म्म के विस्तार का आयोजन भी बड़े आग्रह के साथ करते। उस समय का इतिहास पढ़ने से यह ज्ञात होता है कि जहाँ विजयी *ों की तलवार एक प्रान्त के बाद भारत के दूसरे प्रान्तों पर अधिाकार कर रही थी, वहीं उनके धार्म-प्रचारक अथवा मुल्ला लोग अपने धार्म की महत्ताा बतला कर हिन्दू जनता को भी अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे। यह स्वाभाविक है कि विजित जाति विजयी जाति के आचार-विचार और रहन-सहन की ओर खिंच जाती है। क्योंकि अनेक कार्य-सूत्रा से उनका प्रभाव उनके ऊपर पड़ता रहता है। इस समय बौध्द धार्म का प्राय: भारतवर्ष से लोप हो गया था। बहुतों ने या तो * धार्म स्वीकार कर लिया था या फिर अपने प्राचीन वैदिक धार्म की शरण ले ली थी। कुछ भारतवर्ष को छोड़कर उन देशों को चले गये थे जहाँ पर बौध्द धार्म उस समय भी सुरक्षित और ऊर्ज्जित अवस्था में था। इस समय भारत में दो ही धार्म मुख्यतया विद्यमान थे, उनमें एक विजित हिन्दू जाति का धार्म था और दूसरा विजयी * जाति का। राज-धार्म होने के कारण * धार्म को उन्नति के अनेक साधान प्राप्त थे, अतएव वह प्रतिदिन उन्नत हो रहा था और राजाश्रय के अभाव एवं समुन्नति-पथ में प्रतिबन्धा उपस्थित होने के कारण हिन्दू धार्म दिन-दिन क्षीण हो रहा था। इसके अतिरिक्त विविधा-राज कृपावलंबित प्रलोभन अपना कार्य अलग कर रहे थे। इस समय सूफी सम्प्रदाय के अनेक * फकीरों ने अपना वह राग अलापना प्रारम्भ किया था, जिस पर कुछ हिन्दू बहुत विमुग्धा हुए और अपने वंशगत धार्म को तिलांजलि देकर उस मंत्रा का पाठ किया, जिससे उनको अपने अस्तित्व-लोप का सर्वथा ज्ञान नहीं रहा। ऐसी अवस्था में जहाँ हिन्दुओं की क्षीण शक्ति प्रान्तिक राजा-महाराजाओं के रूप में अपने दिन-दिन धवंस होते छोटे-मोटे राजाओं की रक्षा कर रही थी, वहाँ पुण्यमयी भारत-वसुन्धारा में ऐसे धार्मप्राण आचार्य भी आविर्भूत हुए, जिन्होंने पतनप्राय वैदिक धार्म की बहुत रक्षा की। डॉक्टर ईश्वरी प्रसाद ने बंगाल प्रान्त में सूफियों में धार्म्म प्रचार के विषय में अपने (मेडिबल इंडिया) नामक ग्रंथ में जो कुछ लिखा है, उसमें इस समय का सच्चा चित्रा अंकित है। अभिज्ञता के लिए उसका कुछ अंश मैं यहाँ उध्दाृत करता हूँ। 1

''चौदहवीं शताब्दी बंगाल में * फष्कीरों की क्रियाशीलता के लिए प्रसिध्द थी। पैण्डुआ में अनेक प्रसिध्द और पवित्रा सन्तों का निवास था। इसी कारण इस स्थान का नाम हजशरत पड़2 गया था।

अन्य प्रसिध्द सन्त थे अलाउल हकष् और उनके पुत्रा मूर कष्ुतुबुल-आलम। अलाउल हकष् शेख निजशमुद्दीन औलिया का शिष्य था। बंगाल का हुसेन शाह (1485-1519 ई.) सत्यपीर नामक एक नये पंथ का प्रवर्तक था, जिसका उद्देश्य था हिन्दुओं और *ों को एक कर देना। सत्यपीर एक समस्त शब्द है, जिसमें सत्य संस्कृत का और पीर अरबी भाषा का शब्द है।''3

यह एक प्रान्त की अवस्था का निदर्शन है। अन्य विजित प्रान्तों की भी ऐसी ही दशा थी। उस समय सूफी सिध्दान्त के मानने वाले महात्माओं के द्वारा उनके उद्देश्यों का प्रचुर प्रचार हो रहा था, और वे लोग दृढ़ता के साथ अपनी संस्थाओं का संचालन कर रहे थे। यह धाार्मिक अवस्था की बात हुई, राजनीतिक अवस्था भी उस समय ऐसी ही थी। साम दान दण्ड विभेद से पुष्ट होकर वह भी कार्य-क्षेत्रा में अपने प्रभाव का विस्तार अनेक सूत्राों से कर रही थी। मैं पहले लिख आया हूँ कि जैसा वातावरण होता है साहित्य भी उसी रूप में विकसित होता है। माधयमिक काल

1-3. The fourteenth century was remarkable for the activity of the '. faquirs in Bengal,....There were several saints of reputed sancetity in Pandua, which owing to their presence, came to be called Hazarat....other noted saints were Alaul Haq and his son Nur Qutbul Alam, Alaul Haq was also disciple of Saikh Nizamuddin Aulia, Hussain Shah of Bengal (1493-1519 A. D.) was the founder of a new cult called Satyapir, which aimed at uniting the Hindus and the '.s Satyapir, was compounded of Satya, a Sanskrit word and Pir which is an Arabic word.

के साहित्य में भी यह बात पाई जाती है। चौदहवीं ईस्वी शताब्दी से सत्राहवीं शताब्दी तक * साम्राज्य दिन-दिन शक्तिशाली होता गया। इसके बाद उसका अचानक ऐसा पतन हुआ कि कुछ वर्षों में ही इतिश्री हो गई। यह एक संयोग की बात है कि हिन्दी-संसार के वे कवि और महाकवि जिनसे हिन्दी-भाषा का मुख उज्ज्वल हुआ इसी काल में हुए। इस माधयमिक काल में जैसा सुधाावर्षण हुआ, जैसी रस धाारा बही, जैसे ज्ञानालोक से हिन्दी संसार आलोकित हुआ, जैसा भक्ति-प्रवाह हिन्दी काव्य-क्षेत्रा में प्रवाहित हुआ, जैसे समाज के उच्च कोटि के आदर्श उसको प्राप्त हुए, उसका वर्णन बड़ा ही हृदय-ग्राही और मर्म-स्पर्शी होगा। मैंने इस कार्य्यसिध्दि के लिए ही इस समय की धाार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक अवस्थाओं का चित्रा यहाँ पर चित्रिात किया है। अब प्रकृत विषय को लीजिए।

चौदहवें शतक में भी कुछ जैन विद्वानों ने हिन्दी भाषा में कविता की है। इनके अतिरिक्त नल्ल सिंह भाट सिरोहिया ने विजयपाल रासो, शारंगधार नामक कवि ने शारंगधार-पध्दति, हम्मीर काव्य और हम्मीर रासो नामक तीन ग्रंथ बनाये, जिनमें से हम्मीर रासो अधिाक प्रसिध्द है, बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी में जैसे शब्दों से युक्त भाषा लिखी गयी है, उससे इन लोगों की रचनाओं में हिन्दी का स्वरूप विशेष परिमार्जित मिलता है। प्रमाण्ास्वरूप कुछ पद्य नीचे उध्दाृत किये जाते हैं।

कवि शारंगधार (रचनाकाल 1306 ई.)

1. ढोलामारियढिल्लिमहँ मुच्छिउ मेच्छ सरीर।

पुर जज्जल्ला मंत्रिावर चलिय वीर हम्मीर।

चलिअ बीर हम्मीर पाअभर मेंइणि कंपइ।

दिग पग डह अंधाार धाूलि सुरिरह अच्छा इहि।

ग्रंथ-संघपति समरा रासो, कवि अम्बदेव जैन, (रचना काल 1314 ई.)

2. निसि दीवी झलहलहिं जेम उगियो तारायण।

पावल पारुन पामिय बहई वेगि सुखासण।

आगे बाणिहिं संचरए सँघपति सहु देसल।

बुध्दिवंत बहु पुण्यवंत पर कमिहिं सुनिश्चल।

ग्रंथ थूलि भद्र फागु, कवि जिन पर्सिूंरि (रचनाकाल 1320 ई.)

3. अह सोहग सुन्दर रूपवंत गुण मणिभण्डारो।

कंचण जिमि झलकंत कंति संजम सिरिहारो।

थूलिभद्र मणिराव जाम महि अलो बुहन्तउ।

नयर राम पाउलिय मांहि पहुँतउ बिहरंतउ।

ग्रन्थ विजयपाल रासो (रचना काल 1325 ई.) नल्लसिंह भाट सिरोहिया।

4. दश शत वर्ष निराण मास फागुन गुरु ग्यारसि।

पाय-सिध्द बरदान तेग जद्दव कर धाारसि।

जीतिसर्व तुरकान बलख खुरसान सुगजनी।

रूम स्याम अस्फहाँ फ्रंग हवसान सु भजनी।

ईराण तोरि तूराण असि खौसिर बंग ख्रधाार सब।

बलवंड पिंड हिंदुवान हद चढिब बीर बिजयपालसब।

जिस क्रम से कविताओं का उध्दरण किया गया है, उसके देखने से ज्ञात हो जायेगा कि उत्तारोत्तार एक से दूसरी कविता की भाषा का अधिाकतर परिमार्जित रूप है। शारंगधार की रचना में अधिाक मात्राा में अपभ्रंश शब्द हैं। ऐसे शब्द चिद्दित कर दिये गये हैं। उसके बाद की नम्बर 2 और 3 की रचनाओं में इने-गिने शब्द ही अधिाकतर दिखलाई देते हैं। जिससे पता चलता है कि इस शताब्दी की आदि की रचनाओं पर तो अपभ्रंश शब्दों का अवश्य अधिाक प्रभाव है। परन्तु बाद की रचनाओं में उनका प्रभाव उत्तारोत्तार कम होता गया है। यहाँ तक कि अमीर खुसरो की रचनाएँ उनसे सर्वथा मुक्त दिखलाई पड़ती हैं।

अमीर खुसरो इस शताब्दी का सर्वप्रधाान कवि है। यह अनेक भाषाओं का पंडित था। इसके रचे फारसी भाषा के अनेक ग्रंथ हैं। इसकी हिन्दी रचनाएँ बहुमूल्य हैं। वे इतनी प्रांजल और सुन्दर हैं कि उनको देखकर यह आश्चर्य होता है कि पहले-पहल एक * ने किस प्रकार ऐसी परिष्कृत और सुन्दर हिन्दी भाषा लिखी। मैं पहले लिख आया हूँ कि माधयमिक काल में * अनेक उद्देश्यों से हिन्दी भाषा की ओर आकर्षित हो गये थे। ऐसे *ों का अग्र-गण्य मैं अमीर खुसरो को मानता हूँ। इसके पद्यों में जिस प्रकार सुन्दर ब्रजभाषा की रचना का नमूना मिलता है, उसी प्रकार खड़ी बोली की रचना का भी। इस सहृदय कवि की कविताओं को देखकर यह अवगत होता है कि चौदहवीं शताब्दी में भी ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों की कविताओं का समुचित विकास हो चुका था। परन्तु उसके नमूने अन्य कहीं खोजने पर भी नहीं प्राप्त होते। इसलिए इन भाषाओं की परिमार्जित रचनाओं का आदर्श उपस्थित करने का गौरव इस प्रतिभाशाली कवि को ही प्राप्त है। मैं उनकी दोनों प्रकार की रचनाओं के कुछ उदाहरण नीचे लिखता हूँ। उनको पढ़कर यह बात निश्चित हो सकेगी कि मेरा कथन कहाँ तक युक्ति-संगत है।

1. एक थाल मोती से भरा , सबके सिर पर औंधाा धारा।

चारों ओर वह थाली फिरे , मोती उससे एक न गिरे।

2. आवे तो ऍंधोरी लावे , जावे तो सब सुख ले जावे।

क्या जानूं वह कैसा है , जैसा देखा वैसा है।

3. बात की बात ठठोली की ठठोली।

मरद की गाँठ औरत ने खोली।

4. एक कहानी मैं कहूँ तू सुन ले मेरे पूत।

बिना परों वह उड़ गया , बाँधा गले में सूत।

5. सोभा सदा बढ़ावन हारा , ऑंखिन ते छिन होत न न्यारा।

आये फिर मेरे मनरंजन ऐ सखि साजन ना सखि अंजन।

6. स्यामबरन पीताम्बर काँधो , मुरलीधार नहिं होइ।

बिन मुरली वह नाद करत है , बिरला बूझै कोइ।

7. उज्जल बरन अधाीनतन , एक चित्ता दो धयान।

देखत में तो साधाु है , निपट पाप को खान।

8. एक नार तरवर से उतरी , मा सो जनम न पायो।

बाप को नांव जो वासे पूछयो आधो नाँव बतायो।

आधो नाँव बतायो खुसरो कौन देस की बोली।

बाको नाँव जो पूछयो मैंने अपने नांव न बोली।

9. एक गुनी ने यह गुन कीना हरियल पिंजरे में दे दीना।

देखो जादूगर का हाल डाले हरा निकाले लाल।

इन पद्यों में नम्बर 1 से 4 तक के पद्य ऐसे हैं जो शुध्द खड़ी बोली में लिखे गये हैं, नम्बर 5 और 6 शुध्द ब्रजभाषा के हैं और नम्बर 7 से 9 तक के ऐसे हैं कि जिनमें खड़ी बोलचाल और ब्रजभाषा दोनों का मिश्रण है। मैं समझता हूँ कि इस अन्तर का कारण उस भेद की अनभिज्ञता है जो खड़ी बोली को ब्रजभाषा से अलग करती है। इसके प्रमाण वे पद्य भी हैं जिनमें दोनों भाषाओं का मिश्रण है। उस समय खड़ी बोली या ब्रजभाषा का कोई विवाद नहीं था और न ऐसे नियम प्रचलित थे जो एक को दूसरे से अलग करते। वे हिन्दी भाषा के सब प्रकार के प्रयोगों को एक ही समझते थे। इसलिए इतना सूक्ष्म विचार न कर सके। यह संयोग से ही हो गया है कि कुछ पद्य शुध्द खड़ी बोली के और कुछ ब्रजभाषा के बन गये हैं। उनकी दृष्टि इधार नहीं थी। इस समय जब खड़ी बोलचाल और ब्रजभाषा की धााराएँ अलग-अलग बह रही हैं, उनकी रचनाओं की इस त्राुटि पर चाहे विशेष दृष्टि दी जावे, परन्तु उस समय उन्होंने हिन्दी भाषा सम्बन्धाी जैसी मर्मज्ञता, योग्यता और निपुणता दिखलाई है, वह उल्लेखनीय है। उनके पहले के कवियों की रचनाओं से उनकी रचनाओं में अधिाकतर प्रांजलता है, जो हिन्दी के भण्डार पर उनका प्रशंसनीय अधिाकार प्रकट करती है। उनकी रचनाओं में फारसी और अरबी इत्यादि के शब्द भी आये हैं, परन्तु वे इस सुन्दरता से खपाये गये हैं कि जिसकी बहुत कुछ प्रशंसा की जा सकती है। चन्द बरदाई के समय से ही हिन्दी भाषा में अरबी,फारसी और तुर्की के शब्द गृहीत होने लगे थे और यह सामयिक प्रभाव का फल था। परन्तु जिस सावधाानी और सफाई के साथ उन भाषाओं के शब्दों का प्रयोग इन्होंने किया है, वह अनुकरणीय है। उन भाषाओं के अधिाकतर शब्द अन्य कवियों द्वारा तोड़-मरोड़कर या बिगाड़कर लिखे गये हैं, किन्तु यह कवि प्राय: इन दोषों से मुक्त था। एक विशेषता इनमें यह भी देखी जाती है कि अरबी के बÐों में इन्होंने हिन्दी पद्यों की रचना सफलतापूर्वक की है, साथ ही फारसी के वाक्यों के साथ हिन्दी वाक्यों को अपने एक पद्य में इस उत्तामता से मिलाया है, जो मुग्धा कर देता है। मैं उस पद्य को यहाँ लिखता हूँ। आप लोग भी उसका रस लें-

'' जेहाले मिस्कीं मकुन तग़ाफुलदुराय नैना बनाय बतियाँ।

कि ताबे हिज्रां दारमऐजां न लेहु काहें लगाय छतियाँ।

शबाने हिज्रां न दराज़ चूँ जुल्फ व रोजे वसलत चूँ उम्र कोतह।

सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूँ ऍंधोरी रतियाँ।

एकाएक अज़दिल दो चश्मे जादू बसद फ़रेबम् बेबुर्द तस्कीं।

किसे पड़ी है जो जा सुनावे पियारे पी को हमारी बतियाँ।

चूँ शमा सोज़ां चूँ ज़र्रा हैरां हमेशा गिरियाँ बइश्क़ ऑंमह।

न नींद नैना न अंग चैना न आप आवें न भेजैं पतियाँ।

बहक्क रोजे विसाल दिलवर दि दाद मारा फ़रेब खुसरों।

सुपीत मन को दुराय राखूँ जो जान पाऊँ पिया की घतियाँ।

इस पद्य का अरबी बÐ है फ़ऊल फ़ेलुन फ़ऊल फ़ेलुन फ़उल फ़ेलुन फष्ऊल फ़ेलुन। पहले दो चरणों में हिन्दी शब्दों का प्रयोग निर्दोष हुआ है यद्यपि वे शुध्द ब्रज भाषा में लिखे गये हैं। केवल 'नैना' का 'ना' दीर्घ कर दिया गया है। किन्तु यह अपभ्रंश और ब्रज भाषा के नियमानुकूल है। शेष पद्यों की भाषा खड़ी हिन्दी की बोलचाल में है। केवल 'रतियाँ', 'बतियाँ', 'पतियाँ', 'घतियाँ' का प्रयोग ही ऐसा है, जो ब्रजभाषा का कहा जा सकता है। उनके इस प्रकार के मिश्रण के सम्बन्धा में मैं अपनी सम्मति प्रकट कर चुका हूँ। हाँ, मात्रिाक छन्दों के नियमों की दृष्टि से खड़ी बोली के पद्य निर्दोष नहीं हैं। अनेक स्थानों पर लघु के स्थान पर गुरु लिखा गया है यद्यपि वहाँ लघु लिखना चाहिए था। जैसे सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूँ ऍंधोरी 'रतियाँ' इस पद्य में 'जो' के स्थान पर 'जु' तो के स्थान पर 'त', कैसे के स्थान पर 'कैस' और ऍंधोरी के स्थान पर'ऍंधोर', पढ़ने से ही छन्द की गति निर्दोष रहेगी। ऐसी ही हिन्दी भाषा के शेष पद्यों की पंक्तियाँ सदोष हैं, परन्तु जब हम वर्तमान काल की उन्नति प्राप्त उर्दू पद्यों को देखते हैं तो उनके इस प्रकार के पद्य-गत हिन्दी भाषा के शब्द-विन्यास को दोषावह नहीं समझते, क्योंकि अरबी बÐों में हिन्दी शब्दों का व्यवहार प्राय: विवश होकर इसी रूप में करना पड़ता है। वरन् कहना यह पड़ता है कि उर्दू कविता के प्रारम्भ होने से 200 वर्ष पहले ही इस प्रणाली का आविर्भाव कर उन्होंने उर्दू संसार के कवियों को उस मार्ग का प्रदर्शन किया जिस पर चलकर ही आज उर्दू पद्य-साहित्य इतना समुन्नत है। इस दृष्टि से उनकी गृहीत प्रणाली एक प्रकार से अभिनन्दनीय ही ज्ञात होती है, निन्दनीय नहीं। खुसरो ने हिन्दुस्तानी भावों का चित्राण करते हुए कुछ ऐसे गीत भी लिखे हैं जो बहुत ही स्वाभाविक हैं। उनमें से एक देखिए-

ड्डसावन का गीतड्ड

अम्मा मेरे बाबा को भेजो जी कि सावन आया।

बेटी तेरा बाबा तो बुङ्ढा री कि सावन आया।

अम्मा मेरे भाई को भेजो जी कि सावन आया।

बेटी तेरा भाई तो बालारी कि सावन आया।

अम्मा मेरे मामूं को भेजो जी कि सावन आया।

बेटी तेरा मामूँ तो बाँकारी कि सावन आया।

दो दोहे भी देखिए, कितने सुन्दर हैं-

1. खुसरो रैनि सुहाग की , जागी पी के संग।

तन मेरो मन पीउ को , दोऊ भये इक रंग।

2. गोरी सोवै सेज पर , मुख पर डारे केस।

चल खुसरो घर आपने , रैनि भई चहुँदेस।

इच्छा न होने पर भी खुसरो की कविता के विषय में इतना अधिाक लिख गया। बात यह है कि खुसरो की विशेषताओं ने ऐसा करने के लिए विवश किया। यदि उन्होंने सबसे पहले बोलचाल की साफ सुथरी चलती हिन्दी का आदर्श उपस्थित किया तो शब्द भी तुले हुए रक्खे। न तो उनको तोड़ा-मरोड़ा, न बदला और न उनके वर्णों को द्वित्ता बनाकर उन्हें संयुक्त शब्दों का रूप दिया। अपनी रचना में भाव भी वे ही भरे जो देश भाषा के अनुकूल थे। प्राकृत शब्दों का प्रयोग भी उनकी रचनाओं में पाया जाता है। परन्तु वे ऐसे हैं जो सर्वथा हिन्दी के रंग में ढले हुए हैं, जैसे पीत, उज्जल और रैन इत्यादि। प्राकृत में शकार के स्थान पर स हो जाता है। इन्होंने भी अपनी रचना में इस नियम का पालन किया है, जैसे 'सोभा', 'स्याम', 'केस', 'देस'इत्यादि। संस्कृत के तत्सम शब्द भी इनकी रचना में हैं परन्तु चुने हुए। हिन्दी आरम्भिक काल से ही इस प्रणाली को ग्रहण करती आई है। यह बात इनके इस प्रकार के प्रयोगों से भी प्रकट होती है। यह उनके कवि-हृदय की विशेषता है कि जो तत्सम शब्द संस्कृत के इनके पद्य में आये हैं, वे कोमल और हिन्दी के तद्भव शब्दों के जोड़ के हैं जैसे सुख, मुरलीधार, रंजन,अधाीन, नाद, धयान, साधाु, पाप इत्यादि। ये सब ऐसी ही विशेषताएँ हैं, जो माधयमिक काल के रचयिताओं में खुसरो को एक विशेष स्थान प्रदान करती हैं। खुसरो का निवास दिल्ली में था। मेरा विचार है कि उसके अथवा मेरठ के आसपास जो बोली उस समय बोली जाती थी, उसी पर दृष्टि रखकर उन्होंने अपनी रचनाएँ कीं। इसीलिए वे अधिाकतर बोलचाल की भाषा के अनुकूल हैं और इसी से उनमें विशेष सफाई आ गई है। उनकी कविता में ब्रजभाषा के कुछ शब्दों और क्रियाओं का प्रयोग भी पाया जाता है। जैसे बढ़ावनहारा, वासे, बनायो, वाको, पूछयो, दुराय, बनाय, बतियाँ इत्यादि। मैं समझता हूँ कि इन शब्दों का व्यवहार आकस्मिक है और इस कारण हो गया है कि उस समय ब्रजभाषा फैल चली थी और उसकी मधाुरता कवि हृदय को अपनी ओर खींचने लगी थी।

अमीर खुसरो का समकालीन एक और मुल्लादाऊद नामक ब्रजभाषा का कवि हुआ। कहा जाता है कि उसने नूरक एवं चन्दा की प्रेम कथा नामक दो हिन्दी पद्य-ग्रन्थों की रचना की, किन्तु ये दोनों ग्रन्थ अप्राप्त-से हैं। इसलिए इसकी रचना की भाषा के विषय में कुछ लिखना असम्भव है। इसके उपरान्त महात्मा गोरखनाथ का हिन्दी साहित्य-क्षेत्रा में दर्शन होता है। हाल में कुछ लोगों ने इनको ग्यारहवीं ई. शताब्दी का कवि लिखा है, किन्तु अधिाकांश सम्मति यही है कि ये चौदहवीं शताब्दी में थे। ये धार्म्माचार्य्य ही नहीं थे, बहुत बड़े साहित्यिक पुरुष भी थे। इन्होंने संस्कृत भाषा में नौ ग्रन्थों की रचना की है, जिनमें से'विवेक-मार्तण्ड', 'योग-चिन्तामणि' आदि प्रकाण्ड ग्रन्थ हैं। इनका आविर्भाव नेपाल अथवा उसकी तराई में हुआ। उन दिनों इन स्थानों में विकृत बौध्द धार्म्म का प्रचार था, जो उस समय नाना कुत्सित विचारों का आधाार बन गया था। इन बातों को देखकर उन्होंने उसका निराकरण करके आर्य्य धार्म्म के उत्थान में बहुत बड़ा कार्य किया। उन्होंने अपने सिध्दान्त के अनुसार शैव धार्म का प्रचार किया, किन्तु परिमार्जित रूप में। उस समय इनका धार्म इतना आद्रित हुआ कि उनकी पूजा देवतों के समान होने लगी। इनका मन्दिर गोरखपुर में अब तक मौजूद है। गोरखपंथ के प्रवर्तक आप ही हैं। इनके अनुयायी अब तक उत्तार भारत में जहाँ-तहाँ पाये जाते हैं। इनकी रचनाओं एवं शब्दों का मर्म समझने के लिए यह आवश्यक है कि उस काल के बौध्द धार्म की अवस्था आप लोगों के सामने उपस्थित की जावे। इस विषय में 'गंगा' नामक मासिक पत्रिाका के प्रवाह 1, तरंग9 में राहुल सांकृत्यायन नामक एक बौध्द विद्वान् ने जो लेख लिखा है उसी का एक अंश मैं यहाँ प्रस्तुत विषय पर प्रकाश डालने के लिए उध्दाृत करता हूँ-

''भारत से बौध्द धार्म का लोप तेरहवीं, चौदहवीं शताब्दी में हुआ। उस समय की स्थिति जानने के लिए कुछ प्राचीन इतिहास जानना आवश्यक है।''

'आठवीं शताब्दी में एक प्रकार से भारत के सभी बौध्द सम्प्रदाय वज्रयान-गर्भित महायान के अनुयायी हो गये थे। बुध्द की सीधाी-सीधाी शिक्षाओं से उनका विश्वास उठ चुका था और वे मनगढ़न्त हजारों लोकोत्तार कथाओं पर मरने लगे थे। बाहर से भिक्षु के कपड़े पहनने पर भी वे भैरवी चक्र के मजे उड़ा रहे थे। बड़े-बड़े विद्वान् और प्रतिभाशाली कवि आधो पागल हो,चौरासी सिध्दों में दाखिल हो, सन्धया-भाषा में निर्गुण गा रहे थे। सातवीं शताब्दी में उड़ीसा के राजा इन्द्रभूति और उसके गुरु सिध्द अनंग, वज्र स्त्रिायों को ही मुक्तिदात्राी प्रज्ञा, पुरुषों को ही मुक्ति का उपाय और शराब को ही अमृत सिध्द करने में अपनी पंडिताई और सिध्दाई खर्च कर रहे थे। आठवीं शताब्दीसे बारहवीं शताब्दी तक का बौध्द धार्म वस्तुत: वज्रयान या भैरवी चक्र का धार्म था। महायान ने ही धाारणीयों और पूजाओं से निर्वाण को सुगम कर दिया था। वज्रयान नेतो उसे एकदम सहज कर दिया। इसीलिए आगे चलकर वज्रयान सहजयान भी कहा जाने लगा।'

''वज्रयान के विद्वान् प्रतिभाशाली कवि, चौरासी सिध्द, विलक्षण प्रकार से रहा करते थे। कोई पनही बनाया करता था,इसलिए उसे पनहिया कहते थे, कोई कम्बल ओढ़े रहता था, इसलिए उसे कमरिया कहते थे, कोई डमरू रखने से डमरुआ कहलाता था, कोई ओखली रखने से ओखरिया आदि। ये लोग शराब में मस्त, खोपड़ी का प्याला लिए श्मशान या विकट जंगलों में रहा करते थे। जन-साधाारण को जितना ही ये फटकारते थे, उतना ही वे इनके पीछे दौड़ते थे। लोग बोधिासत्तव प्रतिमाओं तथा दूसरे देवताओं की भाँति इन सिध्दों को अद्भुत चमत्कारों और दिव्य शक्तियों के धानी समझते थे। ये लोग खुल्लम-खुल्ला स्त्रिायों और शराब का उपभोग करते थे। राजा अपनी कन्याआें तक को इन्हें प्रदान करते थे। ये लोग त्राोटक या hypnotismकी कुछ प्रक्रियाओं से वाक़िफ थे। इसी बल पर अपने भोले-भाले अनुयाइयों को कभी-कभी कोई-कोई चमत्कार दिखा देते थे। कभी हाथ की सफाई तथा श्लेषयुक्त अस्पष्ट वाक्यों से जनता पर अपनी धााक जमाते थे। इन पाँच शताब्दियों में धीरे-धीरे एक तरह से सारी भारतीय जनता इनके चक्कर में पड़कर कामव्यसनी, मद्यप और मूढ़ विश्वासी बन गयी थी।''
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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#49
महात्मा गोरखनाथ ही ऐसे पहले ब्राह्मण हैं, जिन्होंने संस्कृत का विद्वान् होने पर भी हिन्दी भाषा के गद्य और पद्य में धाार्मिक ग्रन्थ निर्माण किये। जनता पर प्रभाव डालने के लिए उसकी बोल-चाल की भाषा ही विशेष उपयोगिनी होती है। सिध्द लोगों ने इसी सूत्रा से बहुत सफलता लाभ की थी, इसलिए महात्मा गोरखनाथ जी को भी अपने सिध्दान्तों के प्रचार के लिए इस मार्ग का अवलम्बन करना पड़ा। उनके कुछ पद्य देखिए-

आओ भाई धारिधारि जाओ , गोरखबाला भरिभरि लाओ।

झरै न पारा बाजै नाद , ससिहर सूर न वाद विवादड्ड 1 ड्ड

पवनगोटिकारहणिअकास , महियलअंतरिगगन कविलास।

पयाल नी डीबीसुन्नचढ़ाई , कथतगोरखनाथ मछींद्रबताईड्ड 2 ड्ड

चार पहर आलिंगन निद्रा संसार जाई विषिया बाही।

उभयहाथों गोरखनाथ पुकारै तुम्हैंभूलमहारौ माह्याभाईड्ड 3 ड्ड

वामा अंगे सोईबा जम चा भोगिबा सगे न पिवणा पाणी।

इमतो अजरावर होई मछींद्र बोल्यो गोरख वाणीड्ड 4 ड्ड

छाँटै तजौगुरु छाँटै तजौ लोभ माया।

आत्मा परचै राखौ गुरु देव सुन्दर कायाड्ड 5 ड्ड

एतैं कछु कथीला गुरु सर्वे भैला भोलै।

सर्बे कमाई खोई गुरु बाघ नी चै बोलैड्ड 6 ड्ड

हबकि न बोलिबा ठबकि न चलिबा धाीरे धारिबा पाँवं।

गरब न करिबा सहजै रहिबा भणत गोरखरावंड्ड 7 ड्ड

हँसिबा खेलिबा गाइबा गीत। दृढ़ करि राखै अपना चीत।

खाये भी मरिये अणखाये भी मरिये।

गोरख कहे पूता संजमही तरियेड्ड 8 ड्ड

मध्दि निंरतर कीजै वास। निहचल मनुआ थिर ह्नै साँस।

आसण पवन उपद्रह करै। निसदिन आरँभ पचिपचि मरैड्ड 9 ड्ड

इनकी भाषा अमीर खुसरो के समान न तो प्रांजल है, न हिन्दी की बोलचाल के रंग में ढली, फिर भी बहुत सुधारी हुई और हिन्दीपन लिये हुए है। उसके देखने से यह ज्ञात होता है कि किस प्रकार पन्द्रहवीं ईसवी शताब्दी के आरम्भ में हिन्दी भाषा अपने वास्तविक रूप में प्रकट हो रही थी। गोरखनाथ जी की रचना में विभिन्न प्रान्तों के शब्द भी व्यवहृत हुए हैं, जैसे गुजराती, 'नी' मरहठी 'चा' और राजस्थानी 'बोलिबा' धारिबा, चलिबा इत्यादि। उस समय के महात्माओं की रचना में यह देखा जाता है कि अधिाकतर देशाटन करने के कारण उनकी रचनाओं में कतिपय प्रान्तिक शब्द भी आ जाते हैं। यह बात अधिाकतर उस काल के और बाद के सन्तों की बानियों में पाई जाती है। मेरा विचार है, गोरखनाथ जी ही इसके आदिम प्र्रवत्ताक हैं,जिसका अनुकरण उनके उपरान्त बहुत कुछ हुआ। इन दो-एक बातों को छोड़कर इनकी रचनाओं में हिन्दी भाषा की सब विशेषताएँ पाई जाती हैं। उनमें संस्कृत तत्सम शब्दों का अधिाकतर प्रयोग है। जो प्राकृत प्रणाली के अनुकूल नहीं। धाार्मिक शिक्षा-प्रसार के लिए अग्रसर होने पर अपनी रचनाओं में उनका संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयोग करना स्वाभाविक था। हिन्दी कविता में आगे चलकर हमको प्रेमधाारा, भक्ति-धाारा एवं सगुण-निर्गुण विचारधाारा बड़े वेग से प्रवाहित होती दृष्टिगत होती है, किन्तु इन सबसे पहले उसमें ज्ञान और योगधाारा उसी सबलता से बही थी, जिसके आचार्य महात्मा गोरखनाथजी हैं। इन्हीं के मार्ग को अवलम्बन कर बाद को अन्य धााराओं का हिन्दी भाषा में विकास हुआ। योग और ज्ञान का विषय भी ऐसा था जिसमें संस्कृत तत्सम शब्दों से अधिाकतर काम लेने की आवश्यकता पड़ी। इसीलिए उनकी रचनाओं में सूर्य, 'वाद-विवाद', 'पवन', 'गोटिका', 'गगन', 'आलिंगन', 'निद्रा', 'संसार', 'आत्मा', 'गुरुदेव', 'सुन्दर', 'सर्वे' इत्यादि का प्रयोग देखा जाता है। फिर भी उनमें अपभ्रंश अथवा प्राकृत शब्द मिल ही जाते हैं जैसे 'अकास', 'महियल', 'अजराबर' इत्यादि। हिन्दी तद्भव शब्दों की तो इनकी रचनाओं में भरमार है और यही बात इनकी रचनाओं में हिन्दी-पन की विशेषता का मूल है। वे अपनी रचनाओं में 'ण'के स्थान पर 'न' का ही प्रयोग करते हैं और यह हिन्दी भाषा की विशेषता है। कभी-कभी 'न' के स्थान पर णकार का प्रयोग भी करते हैं। यह अपभ्रंश भाषा का इनकी रचनाओं में अवशिष्टांश है अथवा इनकी भाषा पर पंजाबी भाषा के प्रभाव का सूचक है,जैसे 'पिवण', 'पाणी', 'अणखाए', 'आसण' इत्यादि।

वेदान्त धार्म के प्र्रवत्ताक स्वामी शंकराचार्य्य थे। उनका वेदान्तवाद अथवा अद्वैतवाद व्यवहार-क्षेत्रा में आकर शिवत्व धाारण कर लेता है। इसीलिए उनका सम्प्रदाय शैव माना जाता है। भगवान शिव की मूर्ति जहाँ गम्भीर ज्ञानमयी है, वहीं विविधा विचित्रातामयी भी। इसलिए उसमें यदि निर्गुणवादियों के लिए विशेष विभूति विद्यमान है तो सगुणोपासक समूह के लिए भी बहुत कुछ दैवी ऐश्वर्य्य मौजूद है। यही कारण है कि शैव सम्प्रदाय का वह परम अवलम्ब है। गोरखनाथ की संस्कृत और भाषा की रचनाओं में वेदान्तवाद की विशेष विभूतियाँ जहाँ दृष्टिगत होती हैं, वहीं शिव के उपासना की ऐसी प्रणालियाँ भी उपलब्धा होती हैं, जो सर्वसाधाारण को उनकी ओर आकर्षित करती हैं। इन्हीं विशेषताओं के कारण गोरखनाथ जी ने शैव धार्म का आश्रय लेकर उस समय हिन्दू धार्म के संरक्षण का भगीरथ प्रयत्न किया और बहुत कुछ सफलता भी लाभ की। नेपाल में आज भी शैव धार्म का बहुत बड़ा प्रभाव है। जिस समय सिध्द लोग अपने आडम्बरों द्वारा सर्व-साधाारण को उन्मार्गगामी बना रहे थे, उस समय गोरखनाथ जी ने किस प्रकार सन्मार्ग का प्रचार सर्वसाधाारण में किया, उसका प्रमाण उनका धार्म और उनकी वे सुन्दर रचनाएँ हैं जिनमें लोक-हितकारी शिक्षाएँ भरी पड़ी हैं। गोरखनाथ जी की महत्ताा इतनी प्रभावशालिनी थी कि उसने पाप-प( में निमग्न अपने गुरु मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) का भी उध्दार किया। जो पद्य ऊपर उध्दाृत किये गये हैं,उनमें से तीसरे, चौथे, और पाँचवें तथा छठे पद्यों को देखिए। उनके देखने से आप लोगों को यह ज्ञात हो जायेगा कि उन्होंने किस प्रकार अपने गुरु को सांसारिक व्यसनों से बचने की शिक्षा दी और कैसे उनको स्त्रिायों के प्रपंच से विरत रहने का उपदेश दिया। उन्होंने आत्म-परिचय और अजरामर होने का मार्ग उन्हें बड़े सुन्दर शब्दों में बतलाया और कभी-कभी उनमें आत्मग्लानि उत्पन्न करने की चेष्टा भी की, जैसा छठे पद्य के देखने से प्रकट होता है। उनका यह उद्योग अपने गुरुदेव के विषय में ही नहीं देखा जाता, सर्वसाधाारण पर भी उनकी शिक्षाओं ने बड़ा प्रभाव डाला, और इस प्रकार उस समय के पतन-प्राय हिन्दू समाज का बहुत बड़ा उपकार किया। उनकी रचनाओं में योग-सम्बन्धाी बहुत-सी बातें पाई जाती हैं। उध्दाृत पद्यों में से पहले-दूसरे पद्य ऐसे ही हैं। उनके सातवें, आठवें, नौवें पद्यों में ऐसी शिक्षाएँ हैं जिन्हें सब सन्मार्ग के पथिकों को ग्रहण करना चाहिए। हिन्दी-साहित्य में इस प्रकार की धाार्मिक शिक्षाओं के आदि प्रचारक भी गोरखनाथ जी ही हैं। इन सब बातों पर दृष्टि रख उनकी रचनाओं पर विचार करने से वे बहुमूल्य ज्ञात होती हैं और उनसे इस बात का भी पता चलता है कि किस प्रकार आदि में हिन्दी अपने तद्भव रूप में प्रकट हुई।

इसी चौदहवीं ईसवी शताब्दी में विनय-प्रभु जैन और छोटे-छोटे कई दूसरे जैन कवि हो गये हैं, जिनकी रचनाएँ लगभग वैसी ही हैं जैसी ऊपर लिखे गये जैन कवियों की हैं। उनमें कोई विशेषता ऐसी नहीं पाई जाती कि जिससे उनकी पृथक् चर्चा की आवश्यकता हो। इसलिए मैं उन लोगों को छोड़ता हूँ। इसके बाद पन्द्रहवीं शताब्दी प्रारम्भ होती है। चौदहवीं शताब्दी का अन्त और पन्द्रहवीं शताब्दी का आदि मैथिल-कोकिल विद्यापति का काव्यकाल माना जाता है। अतएव अब मैं यह देखूँगा कि उनकी रचनाओं में हिन्दी भाषा का क्या रूप पाया जाता है। उनकी रचनाओं के विषय में अनेक भाषा-मर्मज्ञों का यह विचार है कि वे मैथिली भाषा की हैं। किन्तु उनके देखने से यह ज्ञात होता है कि जितना उनमें हिन्दी भाषा के शब्दों का व्यवहार है, उतना मैथिली भाषा के शब्दों का नहीं। अवश्य उनमें मैथिली भाषा के शब्द प्राय: मिल जाते हैं, परन्तु उनकी भाषा पर यह प्रान्तिकता का प्रभाव है, वैसा ही जैसा आजकल के बिहारियों की लिखी हिन्दी पर बंगाली विद्वान् विद्यापति को बंगभाषा का कवि मानते हैं,यद्यपि उनकी भाषा पर बंगाली भाषा का प्रभाव नाममात्रा को पाया जाता है। ऐसी अवस्था में विद्यापति को हिन्दी भाषा का कवि मानने का अधिाक स्वत्व हिन्दी-भाषा-भाषियों ही को है और मैं इसी सूत्रा से उनकी चर्चा यहाँ करता हूँ। उन्होंने अपभ्रंश भाषा में भी दो ग्रंथ लिखे हैं। उनमें से एक का नाम 'कीर्तिलता' और दूसरी का नाम 'कीर्तिपताका' है। कीर्तिलता छप भी गई है। उनकी संस्कृत की रचनाएँ भी हैं जो उनको संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान् सिध्द करती हैं। जब इन बातों पर दृष्टि डालते हैं तो उनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा सामने आ जाती है, जो उनके लिए हिन्दी भाषा में सुन्दर रचना करना असम्भव नहीं बतलाती। मेरी ही सम्मति यह नहीं है। हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने वाले सभी सज्जनों ने इनको हिन्दी भाषा का कवि माना है। फिर मैं इनको इस गौरव से वंचित करूँ तो कैसे करूँ?

मेरा विचार है कि विद्यापति ने बड़ी ही सरस हिन्दी में अपनी पदावली की रचना की है। उनके पद्यों से रस निचुड़ा पड़ता है। गीत गोविन्दकार वीणापाणि के वरपुत्रा जयदेव जी की मधाुर कोमल कान्त पदावली पढ़कर जैसा आनन्द अनुभव होता है वैसा ही विद्यापति की पदावलियों का पाठ कर। अपनी कोकिल-कण्ठता ही के कारण वे मैथिल कोकिल कहलाते हैं। उनके समय में हिन्दी भाषा कितनी परिष्कृत और प्रांजल हो गई थी, इसका विशेष ज्ञान उनकी रचनाओं को पढ़कर होता है। उनके कतिपय पद्यों को देखिए-

1. माधाव कत परबोधाब राधाा।

हा हरि हा हरि कहतहिं बेरि बेरि अब जिउ करब समाधाा।

धारनि धारिये धानि जतनहिं बैसइ पुनहिं उठइ नहिं पारा।

सहजइ बिरहिन जग महँ तापिनि बौरि मदन सर धाारा।

अरुण नयन नीर तीतल कलेवर विलुलित दीघल केसा।

मन्दिर बाहिर कर इत संसय सहचरि गनतहिं सेसा।

आनि नलिनि केओ रमनि सुनाओलि केओ देईमुख पर नीरे।

निस बत पेखि केओ सांस निसारै केओ देई मन्द समीरे।

कि कहब खेद भेद जनि अन्तर घन घन उतपत साँस।

भनइ विद्यापति सेहो कलावति जोउ बँधाल आसपास।

2. चानन भेल विषम सररे भूषन भेल भारी।

सपनहुँ हरि नहिं आयल रे गोकुल गिरधाारी।

एकसरि ठाढ़ि कदम तर रे पथ हेरथि मुरारी।

हरि बिनु हृदय दगधा भेल रे आमर भेल सारी।

जाह जाह तोहिं ऊधाव हे तोहिं मधाुपुर जाहे।

चन्द बदनि नहिं जोवत रे बधा लागत काहे।

3. के पतिया लए जायतरे मोरा पिय पास।

हिय नहिं सहै असह दुखरे भल साओन मास।

एकसर भवन पिया बिनुरे मोरा रहलो न जाय।

सखियन कर दुख दारुनरे जग के पतिआय।

मोर मन हरि हरि लै गेल रे अपनो मन गेल।

गोकुल तजि मधाुपुर बसि रे कति अपजस लेल।

विद्यापति कवि गाओल रे धानि धारु पिय आस।

आओत तोर मन भावन रे एहि कातिक मास।

इन पद्यों को पढ़कर यह स्वीकार करना पड़ेगा कि इनमें मैथिली शब्दों का प्रयोग कम नहीं है। विद्यापति मैथिल कोकिल कहलाते हैं। डॉक्टर ग्रियर्सन साहब ने भी इनको मैथिल कवि कहा है। 1बँगला के अधिाकांश विद्वान् एक स्वर से उनको मैथिल भाषा का कवि ही बतलाते हैं और इसी आधाार पर उनको बँगला का कवि मानते हैं क्योंकि बँगला का आधाार मैथिली का पूर्व रूप है। वे मिथिला-निवासी थे भी। इसलिए उनका मैथिल कवि होना युक्ति-संगत है। परन्तु प्रथम तो मैथिली भाषा अधिाकतर पूर्वी हिन्दी भाषा का अन्यतम रूप है, दूसरे विद्यापति की पदावली में हिन्दी शब्दों का प्रयोग अधिाकता, सरसता एवं निपुणता के साथ हुआ है। इसलिए उसको हिन्दी भाषा की रचना स्वीकार करना ही पड़ता है। जो पद्य ऊपर लिखे गये हैं वे

1. देखिए वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ् हिन्दुस्तान पृष्ठ 9 पंक्ति 34

हमारे कथन के प्रमाण हैं। इनमें मैथिली भाषा का रंग है, किन्तु उससे कहीं अधिाक हिन्दी भाषा की छटा दिखाई पड़ती हैं। इस विषय में दो एक हिन्दी विद्वानों की सम्मति भी देखिए। अपने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में (59, 60 पृष्ठ) पं. रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं-

''विद्यापति को बंगभाषा वाले अपनी ओर खींचते हैं। सर जार्ज ग्रियर्सन ने भी बिहारी और मैथिली को मागधाी से निकली होने के कारण हिन्दी से अलग माना है। पर केवल भाषा शास्त्रा की दृष्टि से कुछ प्रत्ययों के आधाार पर ही साहित्य-सामग्री का विभाग नहीं किया जा सकता। कोई भाषा कितनी दूर तक समझी जाती, इसका विचार भी तो आवश्यक होता है। किसी भाषा का समझा जाना अधिाकतर उसकी शब्दावली (Vocabulary) पर अवलम्बित होता है। यदि ऐसा न होता तो उर्दू हिन्दी का एक ही साहित्य माना जाता।

''खड़ी बोली, बाँगड़ई, ब्रज, राजस्थानी, कन्नौजी, वैसवाड़ी, अवधाी इत्यादि में रूपों और प्रत्ययों का परस्पर अधिाक भेद होते हुए भी सब हिन्दी के अन्तर्गत मानी जाती हैं! बनारस, गाजीपुर, गोरखपुर, बलिया आदि जिलों में आयल-आइल, गयल-गइल, हमरा तोहरा आदि बोले जाने पर भी वहाँ की भाषा हिन्दी के सिवाय दूसरी नहीं कही जाती। कारण है शब्दावली की एकता। अत: जिस प्रकार हिन्दी साहित्य बीसलदेव रासो पर अपना अधिाकार रखता है, उसी प्रकार विद्यापति की पदावली पर भी।''

हिन्दी भाषा और साहित्यकार यह लिखते है। 1-

''सारे बिहार-प्रदेश और उसके आसपास संयुक्त प्रदेश, छोटा नागपुर और बंगाल में कुछ दूर तक बिहारी भाषा बोली जाती है। यद्यपि बँगला और उड़िया की भाँति बिहारी भाषा भी मागधा अपभ्रंश से ही निकली है तथापि अनेक कारणों से इसकी गणना हिन्दी में होती है और ठीक होती है।''

''बिहारी भाषा में मैथिली, मगही और भोजपुरी तीन बोलियाँ हैं। मिथिला या तिरहुत और उसके आसपास के कुछ स्थानों में मैथिली बोली जाती है। पर उसका विशुध्द रूप दरभंगे में पाया जाता है। इस भाषा के प्राचीन कवियों में विद्यापति ठाकुर बहुत ही प्रसिध्द और श्रेष्ठ कवि हो गये हैं, जिनकी कविता का अब तक बहुत आदर होता है। इस कविता का अधिाकांश सभी बातों में प्राय: हिन्दी ही है।''

आजकल बिहार हिन्दी भाषा-भाषी प्रान्त माना जाता है। वहाँ के विद्यालयों और साहित्यिक समाचार पत्राों अथच मासिक पुस्तकों में हिन्दी भाषा का ही प्रचार है। ग्रन्थ रचनाएँ भी प्राय: हिन्दी भाषा में ही होती हैं और वहाँ के पठित-समाज की भाषा भी हिन्दी ही है। ऐसी अवस्था में बिहारी भाषा पर हिन्दी भाषा का कितना अधिाकार है, यह अप्रकट नहीं।

मैं समझता हूँ विद्यापति की रचनाओं पर हिन्दी भाषा का कितना स्वत्व है,

1. देखिए 'हिन्दी भाषा और साहित्य' का पृष्ठ 39

इस विषय में पर्याप्त लिखा जा चुका। मैंने उनकी रचना इसीलिए यहाँ उपस्थित की है, कि जिससे आप लोगों को यह ज्ञात हो सके कि उस समय हिन्दी भाषा का क्या रूप था। उनकी कविता को देखने से यह ज्ञात होता है कि उनके समय में हिन्दी भाषा प्राय: प्राकृत शब्दों से मुक्त हो गई थी और उसमें बड़ी सरस रचनाएँ होने लगी थीं। मुझको विश्वास है कि उनकी रचना के अधिाकांश शब्दों और प्रयोगों को हिन्दी मानने में किसी को आपत्तिा न होगी। वे ब्रजभाषा के चिर परिचित शब्द हैं जो अपने वास्तविक रूप में पदावली में गृहीत हुए हैं। श्रीमती राधिाका की विरह-वेदना का वर्णन होने के कारण उन पर और अधिाक ब्रजभाषा की छाप लग गई है। जो शब्द चिद्दित हैं, उन्हें हम ब्रजभाषा का नहीं कह सकते। किन्तु उनमें से भी 'हेरथि' इत्यादि दो-चार शब्दों को छोड़कर शेष को निस्संकोच भाव से अवधाी कह सकते हैं और यह अविदित नहीं कि अवधाी भाषा हिन्दी का ही रूप है।

मेरा विचार है कि पन्द्रहवें शतक में प्रान्तिक भाषाओं में हिन्दी वाक्यों और शब्दों के प्रवेश का सूत्रापात हो गया था, जो आगे चलकर अधिाक विकसित रूप में दृष्टिगत हुआ।

मैं इस प्रणाली का आदि प्रवर्तक विद्यापति को ही मानता हूँ। यदि गुरु गोरखनाथ हिन्दी भाषा में धाार्मिक शिक्षा के आदि प्र्रवत्ताक हैं और उसको ज्ञान और योग की पुनीत धााराओं से पवित्रा बनाते हैं तो मैथिल कोकिल उसको ऐसे स्वरों से पूरित करते हैं जिसमें सरस शृंगार-रस की मनोहारिणी धवनि श्रवणगत होती है। सरसपदावली का आश्रय लेकर उन्होंने भगवती राधिाका के पवित्रा प्रेमोद्गारों से अपनी लेखनी को रसमय ही नहीं बनाया, साहित्य क्षेत्रा में अपूर्व भावों की भी अवतारणा की। यहाँ पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि विद्यापति स्वयं इस प्रणाली के उद्भावक हैं या उनके सामने इससे पहले का और कोई आदर्श था। मैं यह स्वीकार करूँगा कि उनके सामने प्राचीन आदर्श अवश्य था। परन्तु हिन्दी भाषा में राधाा-भाव के आदि प्र्रवत्ताक विद्यापति ही हैं। पदावली में राधााकृष्ण के संयोग और वियोग शृंगार का जैसा भावमय और हृदयग्राही वर्णन विद्यापति ने किया है, हिन्दी भाषा में उनसे पहले इस प्रकार का भावुकतामय वर्णन किसी ने नहीं किया।

श्रीमद्भागवत में गोपियों का प्रेम भगवान कृष्ण चन्द्र के प्रति जिस उच्चभाव से वर्णित है, वह अलौकिक है। प्रेम त्यागमय होता है, स्वार्थमय नहीं। रूप-जन्य मोह क्षणिक और अस्थायी होता है। उसमें सुख-लिप्सा होती है, आत्मोत्सर्ग का भाव नहीं पाया जाता। किन्तु वास्तविक प्रेम अपना आदर्श आप होता है। उसमें जितनी स्थायिता होती है, उतना ही त्याग। वह आन्तरिक निस्स्वार्थ भावों पर अवलम्बित रहता है, स्वार्थमय प्रवृत्तिायों पर नहीं। उसमें प्रेमी पर अपने को उत्सर्ग कर देने की शक्ति होती है, और वह इसी में अपनी चरितार्थता समझता है। भागवत में गोपियों को ऐसे ही प्रेम की प्रेमिका वर्णित किया गया है। विद्यापति संस्कृत के विद्वान थे। साथ ही सहृदय और भावुक थे। इसलिए भागवत के आदर्श को अपनी रचनाओं में स्थान देना उनके लिए असम्भव नहीं था। मेरा विचार है कि जयदेवजी की मधाुर रचनाओं से भी उनकी कविता बहुत कुछ प्रभावित है,क्योंकि वे उनसे कई शतक पूर्व संस्कृत भाषा में इस प्रकार की सरस पदावली का निर्माण कर चुके थे। श्रीमद्भागवत में श्रीमती राधिाका का नाम नहीं मिलता। परन्तु ब्रह्म वर्ैवत्ता पुराण में उनका नाम मिलता है और उसमें वे उसी रूप में अंकित की गई हैं जिस रूप में गीत गोविन्दकार ने उनको ग्रहण किया है। यह सत्य है कि गीत गोविन्द में सरल शृंगार ही का òोत बहता है, परन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि जयदेव जी नेउस ग्रन्थ की रचना भक्ति भाव से की है और वे भगवती राधिाका और भगवान कृष्ण में उतना ही पूज्य भाव रखते थे, जितना कोई बल्लभाचार्य के सम्प्रदाय का भक्त रख सकता है। उनके ग्रन्थ में ही इसके प्रमाण विद्यमान हैं। विद्यापति की रचनाओं के देखने से पाया जाता है कि जयदेवजी का यह भक्ति-भाव उनमें भी भरित था। 1 डॉक्टर जी. ए. ग्रियर्सन लिखते हैं : ''मैथिली भाषा में अमूल्य पदावली-रचना केलिए ही उनका (विद्यापति का) श्रेष्ठ गौरव है। अपने समस्त पदों में उन्होंने श्रीमती राधिाका का प्रेम भगवान कृष्णचन्द्र के प्रति वर्णन किया है। इस रूपक के द्वारा उन्होंने यह विज्ञापित किया है कि किस प्रकार आत्मा का परमात्मा के प्रति प्रेम सम्बन्धा है।''
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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#50
मेरा विचार है कि जो पद्य मैंने ग्रन्थ साहब से उध्दाृत किये हैं और जो पद्य कबीर ग्रन्थावली से लिये हैं, उनकी भाषा एक है, और मैं कबीर साहब की वास्तविक भाषा में लिखा गया इन पद्यों को ही समझता हूँ। वास्तव बात यह है कि कबीर ग्रन्थावली की अधिाकांश रचनाएँ इसी भाषा की हैं। उसके अधिाकतर पद ऐसी ही भाषा में लिखे पाये जाते हैं। बहुत से दोहों की भाषा का रूप भी यही है। इसलिए मुझे यह कहना पड़ता है कि कबीर साहब की रचनाएँ पन्द्रहवीं शताब्दी के अनुकूल हैं। आप देखते आये हैं कि क्रमश: हिन्दी भाषा परिमार्जित होती आई है। जैसा उसका परिमार्जित रूप पन्द्रहवीं शताब्दी की अन्य रचनाओं में मिलता है वैसा ही कबीर साहब की रचनाओं में भी पाया जाता है। इसलिए मुझे यह कहना पड़ता है कि उनकी रचनाएँ पन्द्रहवीं शताब्दी के भाषा जनित परिवर्तन सम्बन्धाी नियमों से मुक्त नहीं हैं, वरन क्रमिक परिवर्तन की प्रमाण भूत हैं। हाँ, उनमें कहीं-कहीं प्रान्तिकता अवश्य पाई जाती है और पश्चिमी हिन्दी से पूर्वी हिन्दी का प्रभाव उनकी रचना पर अधिाक देखा जाता है। किन्तु यह आश्चर्यजनक नहीं। क्योंकि प्रान्तिक भाषा में कविता करने का सूत्रापात विद्यापति के समय में ही हुआ था, जिसकी चर्चा पहले हो चुकी है।

मैं यह स्वीकार करूँगा कि कबीर साहब की रचनाओं में पंजाबी और राजस्थानी भाषा के कुछ शब्दों, क्रियाओं और कारकों का प्रयोग मिल जाता है। किन्तु, उसका कारण उनका विस्तृत देशाटन है, जैसा मैं पहले कह भी चुका हूँ। अपनी मुख्य भाषा में इस प्रकार के कुछ शब्दों का प्रयोग करते सभी संत कवियों को देखा जाता है और यह इतना असंगत नहीं जितना अन्य भाषा के शब्दों का उतना प्रयोग जो कवि की मुख्य भाषा के वास्तविक रूप को संदिग्धा बना देता है। मैंने कबीर ग्रन्थावली से जो एक पद और सात दोहे पहले उठाये हैं, उनकी भाषा ऐसी है जो कबीर साहब की मुख्य भाषा की मुख्यता का लोप कर देती है। इसीलिए मैं उनको शुध्द रूप में लिखा गया नहीं समझता। परन्तु उनकी जो ऐसी रचनाएँ हैं जिनमें उनका मुख्य रूप सुरक्षित है और कतिपय शब्द मात्रा अन्य भाषा के आ गये हैं, उन्हें मैं उन्हीं की रचना मानता हूँ और समझता हूँ कि वे किसी अल्पज्ञ लेखक की अनधिाकार चेष्टा से सुरक्षित हैं। उनके इस प्रकार के कुछ पद्य भी देखिए-

1. दाता तरवर दया फल उपकारी जीवन्त।

पंछी चले दिसावरां बिरखा सुफल फलन्त।

2. कबीर संगत साधाु की कदे न निरफल होय।

चंदन होसी बावना नीम न कहसी कोय।

3. कायथ कागद काढ़िया लेखै बार न पार।

जब लग साँस सरीर में तब लग राम सँभार।

4. हरजी यहै विचारिया , साखी कहै कबीर।

भवसागर मैं जीव हैं , जे कोइ पकड़ै तीर।

5. ऐसी वाणी बोलिये , मन का आपा खोइ।

अपना तन सीतल करै , औरन को सुख होइ।

इन पद्यों के जिन शब्दों पर चिद्द बना दिये गये हैं वे पंजाबी या राजस्थानी हैं। इस प्रकार का प्रयोग कबीर साहब की रचनाओं में प्राय: मिलता है। ऐसे आकस्मिक प्रयोग उनकी मुख्य भाषा को संदिग्धा नहीं बनाते, क्योंकि जिस पद्य में किसी भाषा का मुख्य रूप सुरक्षित रहता है, उस पद्य में आये हुए अन्य भाषा के दो-एक शब्द एक प्रकार से उसी भाषा के अंग बन जाते हैं। अवधाी अथवा ब्रजभाषा में 'वाणी' को 'बानी' ही लिखा जाता है, क्योंकि इन दोनों भाषाओं में 'ण' का अभाव है। पंजाब प्रान्त के लेखक प्राय: 'न' के स्थान पर 'ण' प्रयोग कर देते हैं, क्योंकि उस प्रान्त में प्राय: नकार णकार हो जाता है। वे'बानी' को 'बाणी' 'आसन' को 'आसण' 'पवन' को 'पवण' इत्यादि ही बोलते और लिखते हैं। ऐसी अवस्था में यदि कबीर साहब के पद्यों में आये हुए नकार पंजाब के लेखकों की लेखनी द्वारा णकार बन जावें तो कोई आश्चर्य नहीं। आदि ग्रन्थ-साहब में भी देखा जाता है कि प्राय: कबीर साहब की रचनाओं के नकार ने णकार का स्वरूप ग्रहण कर लिया है, यद्यपि इस विशाल ग्रन्थ में उनकी भाषा अधिाकतर सुरक्षित है। इस प्रकार के साधाारण परिवर्तन का भी मुख्य भाषा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसलिए कबीर साहब की रचनाओं में जहाँ ऐसा परिवर्तन दृष्टिगत हो, उसके विषय में यह न मान लेना चाहिए कि जो शब्द हिन्दी रूप में लिखा जा सकता था, उसको उन्होंने ही पंजाबी रूप में दिया है, वरन सच तो यह है कि उस परिवर्तन में पंजाबी लेखक की लेखनी की लीला ही दृष्टिगत होती है।

कबीर साहब कवि नहीं थे, वे भारत की जनता के सामने एक पीर के रूप में आये। उनके प्रधाान शिष्य धार्मदास कहते हैं-

आठवीं आरती पीर कहाये। मगहर अमी नदी बहाये।

मलूकदास कहते हैं-

तजि कासी मगहर गये दोऊ दीन के पीर 1

1. हिन्दुस्तानी, अक्टूबर सन् 1932, पृ. 451

झाँसी के शेख़ तक़ी ऊंजी और जौनपुर के पीर लोग जो काम उस समय * धार्म के प्रचार के लिए कर रहे थे,काशी में कबीर साहब लगभग वैसे ही कार्य में निरत थे। अन्तर केवल इतना ही था कि वे लोग हिन्दुओं को नाना रूप में * धार्म में दीक्षित कर रहे थे और कबीर साहब एक नवीन धार्म की रचना करके हिन्दू * को एक करने के लिए उद्योगशील थे। ठीक इसी समय यही कार्य बंगाल में हुसैन शाह कर रहे थे जो एक * पीर थे और जिसने अपने नवीन धार्म का नाम सत्यपीर रख लिया था। कबीर साहेब के समान वह भी हिन्दू *ों के एकीकरण में लग्न थे। उस समय भारतवर्ष में इन पीरों की बड़ी प्रतिष्ठा थी और वे बड़ी श्रध्दा की दृष्टि से देखे जाते थे। गुरु नानकदेव ने भी इन पीरों का नाम अपने इस वाक्य में 'सुणिये सिध्द-पीर सुरिनाथ' आदर से लिया है। जो पद उन्होंने सिध्द, नाथ और सूरि को दिया है वही पीर को भी। पहले आप पढ़ आये हैं कि उस समय सिध्दों का कितना महत्तव और प्रभाव था। नाथों का महत्तव भी गुरु गोरखनाथजी की चर्चा में प्रकट हो चुका है। सूरि जैनियों के आचार्य कहलाते थे और उस समय दक्षिण में उनकी महत्ताा भी कम नहीं थी। इन लोगों के साथ गुरु नानक देव ने जो पीर का नाम लिया है, इसके द्वारा उस समय इनकी कितनी महत्ताा थी, यह बात भली-भाँति प्रकट होती है। इस पीर नाम का सामना करने ही के लिए हिन्दू आचार्य उस समय गुरु नाम धाारण करने लग गये थे। इसका सूत्रापात गुरु गोरखनाथ जी ने किया था। गुरु नानकदेव के इस वाक्य में गुरु ईसर गुरु गोरख बरम्हा गुरु पारबती माई इसका संकेत है। गुरु नानक के सम्प्रदाय के आचार्यों के नाम के साथ जो गुरु शब्द का प्रयोग होता है, उसका उद्देश्य भी यही है। वास्तव में उस समय के हिन्दू आचार्यों को हिन्दू धार्म की रक्षा करने के लिए अनेक मार्ग ग्रहण करने पड़े थे। क्योंकि बिना इसके न तो हिन्दू धार्म सुरक्षित रह सकता था, न पीरों के सम्मुख उनको सफलता प्राप्त हो सकती थी। क्योंकि वे राजधार्म के प्रचारक थे। कबीर साहब की प्रतिभा विलक्षण थी और बुध्दि बड़ी ही प्रखर। उन्होंने इस बात को समझ लिया था। अतएव उन दोनों से भिन्न तीसरा मार्ग ग्रहण किया था। परन्तु कार्य उन्होंने वही किया जो उस समय * पीर कर रहे थे अर्थात् हिन्दुओं को किसी प्रकार हिन्दू धार्म से अलग करके अपने नव प्रवर्तित धार्म में आकर्षित कर लेना उनका उद्देश्य था। इस उद्देश्य-सिध्दि के लिए उन्होंने अपने को ईश्वर का दूत बतलाया और अपने ही मुख से अपने महत्तव की घोषण्ाा बड़ी ही सबल भाषा में की। निम्नलिखित पद्य इसके प्रमाण हैं-

काशी में हम प्रगट भये हैं रामानन्द चेताये।

समरथ का परवाना लाये हंस उबारन आये।

कबीर शब्दावली , प्रथम भाग पृ. 71

सोरह संख्य के आगे समरथ जिन जग मोहि पठाया

कबीर बीजक , पृ. 20

तेहि पीछे हम आइया सत्य शब्द के हेत।

कहते मोहिं भयल युग चारी

समझत नाहिं मोहि सुत नारी।

कह कबीर हम युग युग कही।

जबहीं चेतो तबहीं सही।

कबीर बीजक , पृ. 125, 592

जो कोई होय सत्य का किनका सो हमको पतिआई।

और न मिलै कोटि करि थाकै बहुरि काल घर जाई।

कबीर बीजक , पृ. 20

जम्बू द्वीप के तुम सब हंसा गहिलो शब्द हमार।

दास कबीरा अबकी दीहल निरगुन कै टकसार।

जहिया किरतिम ना हता धारती हता न नीर।

उतपति परलै ना हती तबकी कही कबीर।

ई जग तो जँहड़े गया भया योग ना भोग।

तिल तिल झारि कबीर लिय तिलठी झारै लोग।

कबीर बीजक , पृ. 80, 598, 632

सुर नर मुनि जन औलिया , यह सब उरली तीर।

अलह राम की गम नहीं , तहँ घर किया कबीर।

साखी संग्रह , पृ. 125

वे अपनी महत्ताा बतलाकर ही मौन नहीं हुए वरन हिन्दुओं के समस्त धाार्मिक ग्रन्थों और देवताओं की बहुत बड़ी कुत्सा भी की। इस प्रकार के उनके कुछ पद्य प्रमाण-स्वरूप नीचे लिखे जाते हैं-

योग यज्ञ जप संयमा तीरथ ब्रतदाना

नवधाा वेद किताब है झूठे का बाना।

कबीर बीजक , पृ. 411

चार वेद षट् शा ò ऊ औ दश अष्ट पुरान।

आसा दै जग बाँधिाया तीनों लोक भुलान।

कबीर बीजक , पृ. 14

औ भूले षट दर्शन भाई। पाख्रड भेष रहा लपटाई।

ताकर हाल होय अघकूचा। छदर्शन में जौन बिगूचा।

कबीर बीजक , पृ. 97

ब्रह्मा बिस्नु महेसर कहिये इनसिर लागी काई।

इनहिं भरोसे मत कोइ रहियो इनहूँ मुक्ति न पाई।

कबीर शब्दावली , द्वितीय भाग , पृ. 19

माया ते मन ऊपजै मन ते दश अवतार।

ब्रह्म बिस्नु धाोखे गये भरम परा संसार।

कबीर बीजक , पृ. 650

चार वेद ब्रह्मा निज ठाना।

मुक्ति का मर्म उनहुँ नहिं जाना।

कबीर बीजक , पृ. 104

भगवान कृष्णचन्द्र और हिन्दू देवताओं के विषय में जैसे घृणित भाव उन्होंने फैलाये, उनके अनेक पद इसके प्रमाण हैं। परन्तु मैं उनको यहाँ उठाना नहीं चाहता, क्योंकि उन पदों में अश्लीलता की पराकाष्ठा है। उनकी रचनाओं में योग, निर्गुण-ब्रह्म और उपदेश एवं शिक्षा सम्बन्धाी बड़े हृदयग्राही वर्णन हैं। मेरा विचार है कि उन्होंने इस विषय में गुरु गोरखनाथ और उनके उत्ताराधिाकारी महात्माओं का बहुत कुछ अनुकरण किया है। गुरु गोरखनाथ का ज्ञानवाद और योगवाद ही कबीर साहब के निर्गुणवाद का स्वरूप ग्रहण करता है। मैं अपने इस कथन की पुष्टि के लिए गुरु गोरखनाथ की पूर्वोध्दाृत रचनाओं की ओर आप लोगों की दृष्टि फेरता हूँ और उनके समकालीन एवं उत्ताराधिाकारी नाथ सम्प्रदाय के आचार्यों की कुछ रचनाएँ भी नीचे लिखता हूँ-

1. थोड़ो खाय तो कलपै झलपै , घड़ों खाय तो रोगी।

दुहूँ पर वाकी संधिा विचारै , ते को बिरला जोगीड्ड

यहु संसार कुवधिा का खेत , जब लगि जीवै तब लगि चेत।

आख्याँ देखै काण सुणै , जैसा बाहै तैसा लुणैड्ड

- जलंधार नाथ

2. मारिबा तौ मनमीर मारिबा , लूटिबा पवन भँडार।

साधिाबा तौ पंचतत्ता साधिाबा , सेइबा तौ निरंजन निरंकार

माली लौं भल माली लौं , सींचै सहज कियारी।

उनमनि कलाएक पहूपनि , पाइले आवा गबन निवारीड्ड

- चौरंगी नाथ

3. आछै आछै महिरे मंडल कोई सूरा।

मारया मनुवाँ नएँ समझावै रे लोड्ड

देवता ने दाणवां एणे मनवैं व्याह्या।

मनवा ने कोई ल्यावैं रे लोड्ड

जोति देखि देखो पड़ेरे पतंगा।

नादै लीन कुरंगा रे लोड्ड

एहि रस लुब्धाी मैगल मातो।

स्वादि पुरुष तैं भौंरा रे लोड्ड

- कणोरी पाव

4. किसका बेटा किसकी बहू , आपसवारथ मिलिया सहू।

जेता पूला तेती आल , चरपट कहै सब आल जंजालड्ड

चरपट चीर चक्रमन कंथा , चित्ता चमाऊँ करना।

ऐसी करनी करो रे अवधाू , ज्यो बहुरि न होई मरनाड्ड

- चरपट नाथ

5. साधाी सूधाी के गुरु मेरे , बाई सूंव्यंद गगन मैं फेरे।

मनका बाकुल चिड़ियाँ बोलै , साधाी ऊपर क्यों मन डोलैंड्ड

बाई बंधया सयल जग , बाई किनहुं न बंधा।

बाइबिहूण ढहिपरै , जोरै कोई न संधिाड्ड

- चुणाकर नाथ

कहा जा सकता है कि ये नाथ सम्प्रदाय वाले कबीर साहब के बाद के हैं। इसलिए कबीर साहब की रचनाओं से स्वयं उनकी रचनाएँ प्रभावित हैं न कि इनकी रचनाओं का प्रभाव कबीर साहब की रचनाओं पर पड़ा है। इस तर्क के निराकरण्ा के लिए मैं प्रकट कर देना चाहता हूँ कि जलंधार नाथ मछंदर नाथ के गुरुभाई थे जो गोरखनाथ जी के गुरु थे! चौरंगीनाथ गोरखनाथ के गुरु-भाई, कणेरीपाव जलंधारनाथ के और चरपटनाथ मछन्दरनाथ के शिष्य थे। चुणाककरनाथ भी इन्हीं के समकालीन थे1। इसलिए इन लोगों का कबीर साहब से पहले होना स्पष्ट है। कबीर साहब की रचनाओं पर, विशेष कर उन रचनाओं पर, जो रहस्यवाद से सम्बन्धा रखती हैं, बौध्द धार्म के उन सिध्दों की रचनाओं का बहुत बड़ा प्रभाव देखा जाता है,जिनका आविर्भाव उनसे सैकड़ों वर्ष पहले हुआ। कबीर साहब की बहुत-सी रचनाएँ ऐसी हैं जिनका दो अर्थ होता है। मेरे इस कहने का यह प्रयोजन है कि ऐसी कविताओं के वाच्यार्थ से भिन्न दूसरे अर्थ प्राय: किये जाते हैं। जैसे-

1. देखिए नागरी प्रचारिणी पत्रिाका भाग 11, अंक 4 में प्रकाशित 'योग-प्रवाह' नामक लेख।

घर घर मुसरी मंगल गावै , कछुवा संख बजावै।

पहिरि चोलना गदहा नाचै , भैंसा भगत करावैड्ड

इत्यादि। इन शब्दों का वाच्यार्थ बहुत स्पष्ट है, किन्तु यदि वाच्यार्थ ही उसका वास्तविक अर्थ मान लिया जाय तो वह बिलकुल निरर्थक हो जाता है। ऐसी अवस्था में दूसरा अर्थ करके उसकी निरर्थकता दूर की जाती है। बौध्द सिध्दों की भी ऐसी द्वयर्थक अनेक रचनाएँ हैं। मेरा विचार है कि कबीर साहब की इस प्रकार की जितनी रचनाएँ हैं, वे सिध्दों की रचनाओं के अनुकरण से लिखी गई हैं। सिध्दों ने योग और ज्ञान सम्बन्धाी बातें भी अपने ढंग से कही हैं। उनकी अनेक रचनाओं पर उनका प्रभाव भी देखा जाता है। जून सन् 1931 की सरस्वती के अंक में प्रकाशित चौरासी सिध्द नामक लेख में बहुत कुछ प्रकाश इस विषय पर डाला गया है। विषय-बोधा के लिए उसका कुछ अंश मैं आप लोगों के सामने उपस्थित करता हूँ-

''इन सिध्दों की कविताएँ एक विचित्रा आशय की भाषा को लेकर होती हैं। इस भाषा को संध्या भाषा कहते हैं, जिसका अर्थ ऍंधेरे (वाम मार्ग) में तथा उँजाले (ज्ञान मार्ग, निर्गुण) दोनों में लग सके। संध्या भाषा को आजकल के छाया वाद या रहस्यवाद की भाषा समझ सकते हैं।''

''भावना और शब्द-साखी में कबीर से लेकर राधाास्वामी तक के सभी सन्त चौरासी सिध्दों के ही वंशज कहे जा सकते हैं। कबीर का प्रभाव जैसे दूसरे संतों पर पड़ा और फिर उन्होंने अपनी अगली पीढ़ी पर जैसे प्रभाव डाला, इसको शृंखलाबध्द करना कठिन नहीं है। परन्तु कबीर का सम्बन्धा सिध्दों से मिलाना उतना आसान नहीं है, यद्यपि भावनाएँ, रहस्योक्तियाँ, उल्टी बोलियों की समानताएँ बहुत स्पष्ट हैं।''

इसी सिलसिले में सिध्दों की रचनाएँ भी देख लीजिए-

मूल

1. निसि अंधाारी सुसार चारा।

अमिय भखअ मूषा करअ अहारा।

मार रे जोइया मूषा पवना।

जेण तृटअ अवणा गवणा।

भव विदारअ मूसा रवण अगति।

चंचल मूसा कलियाँ नाश करवाती।

काला मूसा ऊहण बाण।

गअणे उठि चरअ अमण धााण।

तब से मूषा उंचल पाँचल।

सद्गुरु वोहे करिह सुनिच्चल।

जबे मूषा एरचा तूटअ।

भुसुक भणअ तबै बांधान फिटअ।

- भुसुक

छाया

निसि ऍंधिायारी सँसारा सँचारा।

अमिय भक्ख मूसा करत अहारा।

मार रे जोगिया मूसा पवना।

जेहिते टूटै अवना गवना।

भव विदार मूसा खनै खाता।

चंचल मूसा करि नाश जाता।

काला मूसा उरधा नवन।

गगने दीठि करै मन बिनु धयान।

तबसो मूसा चंचल वंचल।

सतगुरु बोधो करु सो निहचल।

जबहिं मूसा आचार टूटइ।

भुसुक भनत तब बन्धान पू फाटइ।

मूल

जयि तुज्झे भुसुक अहेइ जाइबें मारि हसि पंच जना।

नलिनी बन पइसन्ते होहिसि एकुमणा।

जीवन्ते भेला बिहणि मयेलण अणि।

हण बिनु मासे भुसुक प िर्बंन पइ सहिणि।

माआ जाल पसरयो ऊरे बाधोलि माया हरिणि।

सद गुरु बोहें बूझिे कासूं कहिनि।

- भुसुक

छाया

जो तोहिं भुसुक जाना मारहु पंच जना।

नलिनी बन पइसंते होहिसि एक मना।

जीवत भइल बिहान मरि गइल रजनी।

हाड़ बिनु मासे भुसुक पदम बन पइसयि।

माया जाल पसारे ऊरे बाँधोलि माया हरिणी।

सदगुरु बोधो बूझी कासों कथनी।

- भुसुक

अणिमिषि लोअण चित्ता निरोधो पवन णिरुहइ सिरिगुरु बोहें

पवन बहइ सो निश्चल जब्बें जोइ कालु करइ किरेतब्बें।

छाया

अनिमिष लोचन चित्ता निरोधाइ श्री गुरु बोधो।

पवन बहै सो निश्चल जबै जोगी काल करै का तबै।

- सरहपा

मूल-

आगम बेअ पुराणे पंडिउ मान बहन्ति।

पक्कसिरी फल अलिअ जिमि बाहेरित भ्रमयंति।

अर्थ : आगम वेद पुराण में पंडित अभिमान करते हैं। पके श्री फल के बाहर जैसे भ्रमर भ्रमण करते हैं। करहपा1

कबीर साहब स्वामी रामानन्द के चेले और वैष्णव धार्मावलम्बी बतलाये जातेहैं। उन्होंने इस बात को स्वीकार किया है वे कहते हैं-'कबीर गुरु बनारसी सिक्ख समुन्दर तीर'। उन्होंने वैष्णवत्व का पक्ष लेकर शाक्तों को खरी-खोटी भी सुनाई है।-यथा
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#51
अविस्मरणीय। अदभुत। देखा जाए तो जोसीपी के अनुरूप नहीं किन्तु ज्ञान कहीं भी मिले, ग्रहण करने योग्य होता है। जानकारी के लिए धन्यवाद@@
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#52
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जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#53
(01-08-2019, 06:36 AM)bhavna Wrote:
अविस्मरणीय। अदभुत। देखा जाए तो जोसीपी के अनुरूप नहीं किन्तु ज्ञान कहीं भी मिले, ग्रहण करने योग्य होता है। जानकारी के लिए धन्यवाद@@

banana Heart banana Heart 
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#54
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जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
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जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
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#56
banana बहन की चुदाई से जंगल में मंगल banana



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भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#57
हमारा समर वॅकेशन चल रहा था, छुट्टी के शुरु होते ही हम सब दोस्तों ने जंगल में पिकनिक का प्लान बनाया।

जिस दिन हम निकलने वाले थे, ठीक उसी दिन मेरे मामा की लड़की स्वीटी हमारे घर आ गयी। जैसे ही उसे पता चला कि मैं पिकनिक जाने वाला हूँ, वो भी साथ चलने की जिद करने लगी। मैंने बहुत मना किया, कहा- मेरे साथ सभी लड़के हैं, कोई लड़की नहीं है.
पर वो नहीं मानी।
ऊपर से मम्मी पप्पा ने भी उसी का साथ दिया तो मजबूरन मुझे उसे अपने साथ ले जाने के लिये हामी भरनी पड़ी।

लड़की हो चाहे औरत हो, बाहर जाते वक्त तैयारी करने में कितना समय लेती हैं ये तो आप सब जानते ही हो।
स्वीटी ने भी वही किया, तैयार होने में इतना समय लगाया कि जिस ट्रेन से हम लोग जाने वाले थे, वो ट्रेन छुट जाने वाली थी।

तो मैंने अपने दोस्तों को उसी ट्रेन से जाने के लिये कहा कि हम दोनों बाद में अगली ट्रेन से आ जायेंगे.
मेरे कहने पर वो लोग उसी ट्रेन से निकल गये।

दूसरी गाड़ी काफी समय बाद थी, मैंने और स्वीटी ने दूसरी गाड़ी पकड़ ली पर हुआ ये कि जो ट्रेन हमें मिली, वो रात को मंजिल पर पहुँची।

मेरे बाकी दोस्तों का ग्रुप जो आगे निकल चुका था, वो गहरे जंगल में पहुँच गया था जिसकी वजह से उनसे फोन पर सम्पर्क नहीं हो पा रहा था।
अब हम दोनों भाई बहन को या तो स्टेशन पर सुबह तक रुकना पड़ता या रातों रात उन्हें खोजना पड़ता।

हमने जंगल में जाने का फैसला कर लिया। काफी देर तक हम उन्हें खोजते रहे पर वे लोग नहीं मिले। आखिरकार थक हार कर हमने रात भर जहां थे, वहीं विश्राम करने का फैसला कर लिया।
मैंने जंगल में से कुछ लकड़ियाँ इकट्ठी करके आग सुलगा ली, कुछ खाना हम साथ लाये थे, उसी आग पर हम लोगों ने खाना गर्म किया और खाया.

जब खाना-वाना हो गया तो हम लोग आग के पास बैठ गपशप करने लगे।

कुछ देर बात करने के बाद स्वीटी को पेशाब का प्रेशर बना, जिसके चलते उसने अपनी सलवार उतार दी। उसका कुर्ता कमर तक दोनों तरफ से कटा हुआ था, जिसके चलते उसकी पैंटी उन कट से दिख रही थी। ऐसा लग रहा था मानो मेरे सामने कोई कॅबरे डान्सर खड़ी हो, और कैबरे डांसर की तो फिर भी पैंटी नहीं दिखती है, मुझे तो मेरी बहन की नंगी टाँगे और पैंटी दिख रही थी.

“कैसे कपड़े पहन रखे हैं तुमने स्वीटी? और ऊपर से ये सलवार भी उतार दी? शरम भी नहीं आ रही तुझे? नाराज होकर मैंने कहा।
“अरे भाई, तेरे सामने क्या शरमाना? तू और मैं बचपन से बिना कपड़ों के साथ रहे हुए हैं.” उसने बेशर्मी से मेरी बात का जवाब दिया।
“लेकिन अब हम छोटे बच्चे नहीं रहे!” मैंने टोका।
“तो क्या हुआ?” मेरी बहन ने लापरवाही से जवाब दिया.
“तो फिर ये बाकी कपड़े भी उतार दे ना, इन्हें ही क्यों पहन रखा है?”
“हाय भाई… तुम कहो तो मैं इन्हें भी उतार दूँ।” हंसती हुई वो बोली और झाड़ियों के पीछे पेशाब करने के लिये बैठ गयी।


जब वो वापस आयी तो मैंने उसे स्लिपिंग बॅग देते हुये कहा- यार स्वीटी, हमारे पास एक ही स्लीपिंग बैग है, हमें बारी बारी सोना और जागना पड़ेगा।
“तुम सो जाओ, मैं थोड़ी देर जागती हूँ.” कह कर वो आग के पास बैठ गयी।
उससे बहस करने का कोई मतलब नहीं था, मैं बॅग लेकर उसमें सो गया।

मुश्किल से बीस मिनट ही गुजरे होंगे कि वो मेरे पास आयी और कहने लगी- मुझे भी सोना है।
मैं हंसा और कहा- ठीक है, तू सो जा, मैं जागता हूँ।
“नहीं, क्या जरूरत है तुझे जागने की? हम दोनों एक साथ सो जाते हैं इस बैग में।”
“लेकिन इसमें जगह नहीं होगी हम दोनों के लिये।”
“हो जायेगी!” कहते हुये वो जबरदस्ती मेरे अंदर रहते स्लिपिंग बैग में घुसने की कोशिश करने लगी।

जैसे तैसे वो अंदर तो घुस गयी, पर जबरस्ती कम जगह में अंदर नीचे की तरफ खिसकते हुये उसका कुर्ता गले तक ऊपर खिसक गया।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#58
“उफ ये कुर्ता भी ना…” गले में जमा हुये कुर्ते से परेशान होती हुयी वो बोली।
“मैंने कहा था तुझे?” मैंने हंसते हुये कहा।
“पता है!” कहते हुये उसने कुर्ता उतार दिया।
“पागल हो तुम!” मैंने कहा।
“पागल मैं नहीं तुम हो, एक लड़की जिसके कपड़े गलती से उतर गये हों, उस पर हंसते नहीं।”
तो क्या करते हैं? मैंने मजाक उड़ाते हुये पूछा।
“ये करते हैं!” कह कर उसने अपने हाथों से मेरी टी शर्ट उतार दी।
“नीचे थ्री फोर्थ भी है!” मैंने फिर उसका मजाक उड़ाया।
“हां तो उतार दो ना!” कहते हुये उसने खुद से मेरी थ्री फोर्थ उतार दी।

अब हम दोनों भी सिर्फ इनरवीयर में थे। हमारे अधनंगे बदन एक दूसरे से तंग जगह की वजह से काफी हद तक चिपके हुये थे। दोनों का मुख एक दूसरे की तरफ था। इसी अवस्था में हम लोग यहां वहां की बातें करने लगे।
लेकिन चूँकि बदन सटे हुये थे, कुछ ही पलों में मेरा लंड तन कर उसकी जांघों पर ठोकरें मारने लगा।

“तुम लड़कों की ना यही प्राब्लम होती है।”
“क्या हुआ?”
“लड़की को देखते ही मन में गंदे खयाल आने लगते हैं।”
“क्या मतलब?”
“तुम्हारे जज्बात मेरी जांघों से टकरा रहे हैं, ये बात है।”
“होता है.” मैंने हल्के से हंसते हुये कहा।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#59
“क्या होता है? कम से कम ये तो ध्यान रहना चाहिये ना के, जिसके लिये बुरे खयाल आ रहे हैं, वो अपनी रिश्तेदार है।”
“अब उसे क्या पता कि तुम रिश्तेदार हो, उसके लिये तो सब एक समान।”
“गंदे कहीं के!”
“अच्छा मैं गंदा और तुम क्या?”
“मैंने क्या किया?”
“तू भी अंदर से उतावली हो गयी है।”
“नहीं, हम लड़कियाँ तुम लड़कों जैसी नहीं होती।”

“हम लड़कों के जज्बात बाहर नजर आते हैं, क्योंकि हमारा तन जाता है। तुम लड़कियाँ गीली होती हो, पर बाहर नजर नहीं आता।”
“ऐसा कुछ नहीं होता।”
“नहीं होता तो तुम गीली क्यों हो गयी हो?
“हट, कुछ भी बोल रहे हो, कुछ गीली वीली नहीं हुयी हूँ मै!”
“तेरा गीलापन मेरे जांघों को महसूस हो रहा है।”
“चुप करो, कुछ भी बोलते हो!” कह कर उसने हंसते हुये मेरे मुँह पर हाथ रख दिया।

मैंने उसके हाथ के ऊपर अपना हाथ रखा, और आहिस्ते से बड़े प्यार से उस हाथ को चूमा।
“कुछ ऐसी वैसी हरकत मत करो भाई।”
“क्यों क्या हुआ बहना?”
“मैं कुंवारी हूँ।”
“मैं कहां शादीशुदा हूँ?”
“हाँ, तो जिसके साथ शादी करोगे उसके साथ ये सब कर लेना।”
“तेरे साथ करुंगा।”
“तुझे पता है, हमारी शादी नहीं हो सकती। हम आपस में भाई बहन लगते हैं.”

“फिर इस अगन को ठण्डा कैसे किया जाये?”
“जा के मुठ मार के आ जाओ!” वो जोर से हंसते हुये बोली।
“तुम मार दो ना अपने हाथों से?”
“मुझे क्या जरूरत पड़ी हैं?
“मैं भी मदद करुंगा ना तुम्हारी।”
“तुम मेरी क्या मदद करोगे?”
“मैं तुम्हारी आग को अपने हाथ से ठण्डा कर दूँगा।”
“मुझे जरूरत नहीं हैं किसी के हाथ की।”
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#60
“अच्छा मुझे तो जरूरत है!” कहते हुये मैंने उसका एक हाथ पकड़ कर अपने लंड पर रख दिया।
“छोड़ो, छी… मुझे नहीं करना है!” कहते हुए वो लड़कियों वाले नखरे दिखाने लगी।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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