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अलिफ लैला
#61
सिंदबाद जहाजी की तीसरी यात्रा







Heart Heart Heart
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#62
सिंदबाद ने कहा कि घर आकर मैं सुखपूर्वक रहने लगा। कुछ ही दिनों में जैसे पिछली दो यात्राओं के कष्ट और संकट भूल गया और तीसरी यात्रा की तैयारी शुरू कर दी। मैंने बगदाद से व्यापार की वस्तुएँ लीं और कुछ व्यापारियों के साथ बसरा के बंदरगाह पर जाकर एक जहाज पर सवार हुआ। हमारा जहाज कई द्वीपों में गया जहाँ व्यापार करके हम लोगों ने अच्छा लाभ कमाया।

किंतु एक दिन हमारा जहाज तूफान में फँस गया। इसके कारण हम लोग सीधे मार्ग से भटक गए। अंत में एक द्वीप के पास जाकर जहाज ने लंगर डाल दिया और पाल खोल डाले। कप्तान ने ध्यान देकर द्वीप को देखा फिर उसकी आँखों में आँसू बहने लगे। हमने इसका कारण पूछा तो उसने कहा, 'अब हम लोगों का भगवान ही रक्षक है। क्योंकि इस द्वीप के समीप ही जंगली लोगों के द्वीप हैं। उनके शरीर पर लाल-लाल बाल होते हैं। इन वन-वासियों से भटके हुए जहाजियों पर बड़े-बड़े संकट आए हैं। वे हम लोगों से आकार में छोटे है किंतु हम उनके आगे विवश हैं। यदि उनमें से एक भी हमारे हाथ से मारा जाए तो वे हमें चीटियों की तरह चारों ओर से घेर लेंगे और हमारा सफाया कर देंगे।'

हम सब लोग इस बात को सुनकर बहुत घबराए किंतु कर ही क्या सकते थे। कुछ देर में जैसा कप्तान ने कहा था वैसा ही हुआ। जंगली लोगों का एक बड़ा समूह, जिनके शरीर छोटे-छोटे थे और लाल रंग के बालों से भरे हुए थे, तट पर आए और तैर कर जहाज के चारों ओर आ गए। वे अपनी भाषा में कुछ कहने लगे किंतु वह हमारी समझ में नहीं आया। वे बंदरों की तरह आसानी से जहाज पर चढ़ आए। उन्होंने पालों को लपेट दिया और लंगर की रस्सी काटकर जहाज को किनारे पर खींच लाए। उन्होंने हमें जहाज से उतार लिया और घसीटते हुए अपने द्वीप में ले गए। उस द्वीप के निकट कोई जहाज उनके डर से नहीं आता था किंतु हमारी तो मौत ही हमें घसीट लाई थी।

उन्होंने हमें एक घर के अंदर बंद कर दिया। हमने देखा कि आँगन में मनुष्यों की हड्डियों का एक ढेर जमा है और बहुत-सी मोटी लोहे की छड़ें रखी हैं। हम यह देख कर भय के कारण अचेत हो गए। बहुत देर के बाद हमें होश आया तो हम अपनी दशा को विचारकर रोने लगे। अचानक एक दरवाजा खुला और अंदर से एक अत्यंत विशालकाय आदमी हमारे आँगन में आया। उसका शरीर ताड़ की तरह था और मुँह घोड़े की तरह। उसके केवल एक ही आँख थी जो माथे के बीच में थी और अंगारे की तरह दहक रही थी। उसके दाँत बहुत बड़े और नुकीले थे और उसके मुख से बाहर निकले हुए थे। उसका निचला होंठ इतना बड़ा था कि उसकी छाती तक लटकता था। उसके कान हाथी जैसे थे और उसके कंधों को ढँके हुए थे और उसके नाखून बड़े कड़े और घुमावदार थे, जैसे शिकारी जानवरों के होते हैं। हम सब उस राक्षस को देख कर एक बार फिर गश खा गए।


जब हम होश में आए तो देखा कि राक्षस हम लोगों के पास ही खड़ा है और हमें देख रहा है। फिर वह हमारे और निकट आया और हममें से एक-एक को उठाकर हाथ में घुमा-फिरा कर देखने लगा। जैसे कसाई लोग बकरियों और भेड़ों को उनकी मोटाई का अंदाज लगाने के लिए देखते हैं। सबसे पहले उसने मुझे पकड़ा लेकिन दुबला-पतला देख कर रख दिया। फिर उसने हर एक को इसी तरह देखा और अंत में कप्तान को सब से मोटा-ताजा पाकर उसे एक हाथ से पकड़ा और दूसरे हाथ से एक छड़ उसके शरीर में आर-पार कर दी और फिर आग जला कर कप्तान को भून कर खा गया। फिर अंदर जा कर सो गया। उसके खर्राटे बादल की गरज की तरह आते रहे और रात भर हमें भयभीत करते रहे। दिन निकलने पर वह जागा और घर से बाहर चला गया।

हम सब अपनी दशा पर रोने लगे। हमारी समझ ही में नहीं आ रहा था कि उस भयंकर राक्षस से किस प्रकार प्राण बच सकते हैं। हम सबने अपने को ईश्वर की इच्छा पर छोड़ दिया। घर से बाहर निकल कर हमने फल-फूल खाकर भूख बुझाई। हमने चाहा कि रात को उस घर में न जाएँ किंतु और कोई स्थान था ही नहीं जहाँ रात बिताते, फिर राक्षस तो हमें ढूँढ़ निकालता ही। अतएव हम उसी मकान में आ गए। कुछ रात बीतने पर वह राक्षस फिर आया। उसने फिर हम लोगों को पहले की तरह उठा-उठा कर देखा और हमारे एक साथी को अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक मोटा-ताजा पाकर उसके शरीर में छड़ घुसेड़कर भूनकर खा गया।

सवेरे जब वह बाहर गया तो हम लोग बाहर निकले। हमारे कई साथियों ने कहा कि इस प्रकार की कष्टदायक मृत्यु से अच्छा है हम लोग समुद्र में डूब मरें। किंतु हममें से एक ने कहा कि हम लोग * है और हमारे लिए आत्महत्या बड़ा पाप है। हमें यह न करना चाहिए कि राक्षस से बचने के लिए स्वयं अपनी हत्या कर लें। उसकी बात मानकर हम आत्महत्या से रुक गए और सोचने लगे कि कैसे जान बच सकती हैं।

मुझे एक उपाय सूझा। मैंने कहा, 'देखो, यहाँ सागर तट पर बहुत-सी लकड़ियाँ और रस्सियाँ मौजूद हैं। हम लोग इनकी चार-पाँच नावें बना लें और किसी जगह छुपाकर रख दें। यदि किसी प्रकार अवसर मिले तो हम उन पर निकल भागेंगे। अधिक से अधिक यही तो होगा कि नावें डूब जाएँगी। किंतु राक्षस के हाथों मरने से तो वह मौत कहीं अच्छी होगी।'

मेरे सुझाव को सब लोगों ने पसंद किया। हम लोगों को नाव बनाना आता था और हमने दिन भर में चार-पाँच ऐसी छोटी-छोटी नावें बना लीं जिनमें तीन-तीन आदमी आ सकते थे। शाम को हम फिर उस घर के अंदर गए। राक्षस ने हर रोज की तरह हम लोगों को उठा-उठाकर देखा और एक हृष्ट-पुष्ट व्यक्ति को सलाख में भेद कर भून दिया और खा गया। जब वह सो गया और उसके खर्राटे बहुत गहरे हो गए तो मैंने अपने साथियों को अपनी योजना बताई और हमने उस पर कार्य करना आरंभ कर दिया।

वहाँ कई सलाखें पड़ी हुई थीं और आग अभी तक खूब जल रही थी। मैंने और नौ अन्य होशियार और साहसी लोगों ने एक-एक सलाख को आग में लाल कर दिया। फिर उस राक्षस की आँख में हम सभी ने उन सलाखों को घुसेड़ दिया जिससे वह बिल्कुल अंधा हो गया। उसने अपने हाथ इधर-उधर मारने शुरू किए। हम लोग उससे बच कर कोनों में जा छुपे। अगर वह किसी को पा जाता तो कच्चा ही खा जाता। फिर वह चिंघाड़ता हुआ घर के बाहर भाग गया और हम लोग समुद्र के तट पर आकर उन नावों पर चढ़ गए जिन्हें हमने पहले से बना रखा था। हम चाहते थे कि सवेरा होने पर यात्रा आरंभ करें। तभी हमने देखा कि दो राक्षस उस राक्षस के हाथ पकड़े अपने बीच में लिए आते हैं जिसे हमने अंधा किया था। अन्य कई राक्षस भी उनके पीछे दौड़े आते थे। हमने उन्हें देखते ही नावें समुद्र में डाल दीं और तेजी से उन्हें खेने लगे। राक्षस समुद्र में तैर नहीं सकते थे किंतु उन्होंने तट पर से ही बड़ी-बड़ी चट्टानें हमारी ओर फेंकना शुरू किया। केवल एक नाव को छोड़ कर जिस पर मैं और मेरे दो साथी बैठे थे सारी नावें राक्षसों की फेंकी चट्टानों से डूब गईं। हम अपनी नाव को तेजी से खेकर इतनी दूर आ गए जहाँ पर उनकी चट्टानें आ नहीं सकती थीं।

किंतु खुले समुद्र में आकर भी हमें चैन न मिला। तेज हवा हमारी छोटी-सी नाव को तिनके की तरह पानी पर उछालने लगी। चौबीस घंटे हम इसी दशा में रहे। फिर हमारी नाव एक द्वीप में पहुँच गई। हम लोग प्रसन्नतापूर्वक उस द्वीप पर उतरे और तट पर लगे पेड़ों से पेट भर फल खाने के बाद हमारे शरीरों में कुछ शक्ति आई। रात को हम लोग समुद्र के तट ही पर सो रहे। अचानक एक जोर की सरसराहट से नींद खुली तो मैंने देखा कि एक साँप जो नारियल के पेड़ जितना लंबा था हमारे एक साथी को खाए जाता है। उसने पहले हमारे साथी के शरीर को चारों ओर से कस कर तोड़ डाला फिर उसे निगल गया। कुछ देर में साँप ने उसकी हड्डियाँ उगल दीं और चला गया। हम दो बचे हुए आदमियों ने बड़े दुख और चिंता में रात बिताई। कितनी मुश्किलों से राक्षस से छूटे थे तो यह मुसीबत आ गई जिससे छुटकारा ही नहीं दिखाई देता था। दिन में हमने फल खाकर गुजारा किया। शाम तक हमने अपने बचने के लिए एक पेड़ खोज लिया था। और रात होते ही उस पर चढ़ गए।

मैं तो वृक्ष पर काफी ऊँचे पहुँच गया था किंतु मेरा साथी उतने ऊँचे न जा सका और नीचे की एक मोटी डाल पर लेट गया। साँप फिर रात को आया। पेड़ की जड़ पर पहुँच कर उसने अपना शरीर ऊँचा किया और मेरे साथी को पकड़ कर खा गया और फिर वहाँ से चला गया। मैं सारी रात भय से अधमरा-सा रहा। सूर्योदय होने पर मैं पेड़ से उतरा और फिर कुछ फल आदि खाकर पेट भरा। मुझे विश्वास था कि आज मैं अवश्य ही उस साँप का ग्रास बनूँगा क्योंकि उसने मुझे देख तो लिया ही है। मैंने काफी सोच-विचार के बाद यह तरकीब निकाली कि पेड़ के चारों ओर ढेर सारी कँटीली झाड़ियाँ रख दीं और ऊपर भी काँटों की ऐसी ओट कर ली कि किसी को दिखाई न दूँ।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
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#63
रात को साँप आया। वह झाड़ियों के कारण पेड़ की जड़ तक न पहुँच पाया किंतु सारी रात घात लगाकर बैठा रहा। सवेरे वह चला गया। मैं रातों की जगाई और जान के डर और रात भर साँप की फुँफकार सुनने से इतना अशक्त और निराश हो गया था कि सोचने लगा कि ऐसे जीने से तो समुद्र में डूब जाना अच्छा है। इसी इरादे से समुद्र तट पर गया। किंतु सौभाग्यवश किनारे कुछ ही दूर पर एक जहाज दिखाई दिया। मैंने चिल्लाकर आवाज देना और पगड़ी को हवा में हिलाना शुरू किया। जहाज के लोगों ने मुझे देखा और कप्तान ने एक नाव भेजकर मुझे जहाज पर चढ़ा लिया।

वे लोग मुझसे पूछने लगे कि मैं उस द्वीप में कैसे पहुँचा। एक बूढ़े आदमी ने कहा कि, 'मुझे आश्चर्य है कि तुम जीवित किस तरह बचे हो। मैंने तो सुना है कि इन द्वीपों में नरभक्षी राक्षस रहते हैं जो आदमियों को भूनकर खाते हैं। इसके अलावा यहाँ विशालकाय सर्प भी हैं जो दिन में गुफाओं में सोते रहते हैं और रात में शिकार के लिए निकलते हैं और कोई आदमी पाते हैं तो उसे निगल जाते हैं।'

मैं उनकी बातों का उत्तर न दे सका क्योंकि भूख और जगाई के कारण निढाल हो रहा था। उन्होंने मुझे भोजन कराया और चूँकि मेरे वस्त्र तार-तार हो रहे थे इसलिए एक जोड़ा कपड़ा भी मुझे दिया। फिर मैंने विस्तारपूर्वक अपनी विपत्तियों का वर्णन किया और बताया कि किस प्रकार राक्षस और साँप से बचा। सबने कहा कि तुम पर भगवान की बड़ी कृपा है जिससे तुम जीवित बच रहे।

हम लोगों का जहाज सिलहट द्वीप में पहुँचा जहाँ चंदन होता है जो बहुत-सी दवाओं में डाला जाता है। जहाज ने वहाँ लंगर डाला और व्यापारीगण अपना सामान लेकर द्वीप पर क्रय-विक्रय करने के लिए उतर गए। कप्तान ने मुझसे कहा, 'भाई, तुम बगदाद के निवासी हो। वहाँ के एक व्यापारी का बहुत-सा माल बहुत दिनों से मेरे जहाज पर पड़ा है। तुम उसकी गठरियाँ ले जाकर उसके स्त्री-बच्चों को दे देना। मैं चिट्ठी लिख दूँगा तो वे लोग तुम्हारी लदान की मजदूरी दे देंगे।'

मैंने उसको धन्यवाद दिया कि उसने मुझे काम तो दिलाया। उसने अपने लिपिक से कहा कि उस व्यापारी का माल इस आदमी को सौंप दे।

लिपिक ने पूछा कि उस व्यापारी का नाम क्या था। कप्तान ने कहा कि माल का मालिक सिंदबाद जहाजी था। मुझे इस बात पर इतना आश्चर्य हुआ कि कप्तान का मुँह देखने लगा। कुछ देर में मैंने पहचाना कि मेरी दूसरी यात्रा में भी जहाज का कप्तान यही था। उस द्वीप पर मुझे सोता हुआ छोड़कर मेरे साथी जहाज पर चले गए थे और सभी ने समझ लिया था कि मैं कहीं मर खप-गया हूँ। यद्यपि इस घटना को बहुत दिन नहीं हुए थे तथापि इधर लगातार पड़ने वाली विपत्तियों के कारण मेरे चेहरे का रंग और नक्श इतने बदल गए थे कि कप्तान मुझे पहचान नहीं सका।

मैंने पूछा कि यह सामान क्या सिंदबाद जहाजी का है। कप्तान ने कहा, 'यह सामान निःसंदेह सिंदबाद का है। वह बगदाद का निवासी था और बसरा बंदरगाह से हमारे जहाज पर माल लेकर चढ़ा था। एक दिन हम लोग एक द्वीप पर पहुँचे और जहाज का लंगर डाला ताकि द्वीप से लेकर मीठा पानी जहाज पर भर लें। कई व्यापारी भी घूमने-फिरने को उतर गए। उनमें सिंदबाद भी था। कुछ देर में अन्य लोग तो जहाज पर आ गए लेकिन सिंदबाद न आया। मैंने चार घड़ी तक उसकी राह देखी किंतु जब हवा अनुकूल देखी तो मैंने पाल खोल दिए और जहाज को आगे बढ़ा दिया।'

मैंने पूछा कि तुम्हें क्या पूरा विश्वास है कि सिंदबाद मर गया है। कप्तान ने कहा कि मुझे इसमें कोई संदेह नहीं हैं कि सिंदबाद अब दुनिया में नहीं है। मैंने उससे कहा, 'तुम मुझे पूरे ध्यान से देखो और पहचानो कि मैं ही सिंदबाद हूँ कि नहीं। हुआ यह था कि द्वीप पर उतर कर मैं एक स्रोत के निकट खा-पीकर गहरी नींद सो गया था। मेरे साथियों ने मुझे जगाया ही नहीं। शायद उन्हें यह मालूम भी न था कि मैं कहाँ सो रहा हूँ। जब मेरी आँख खुली ओर मैं समुद्र तट पर पहुँचा तो देखा कि तुम्हारा जहाज दूर चला गया है।'

कप्तान ने यह सुनकर मुझे ध्यानपूर्वक देखा और मुझे पहचान गया। उसने मुझे गले लगाया और भगवान को धन्यवाद दिया कि मैं जीवित हूँ हालाँकि मुझे मरा हुआ समझ रहा था। उसने कहा, 'तुम्हारे माल को भी मैंने हर जगह व्यापार में लगाया और इस पर हर सौदे में मुनाफा हुआ है। अब मैं तुम्हारे माल को तुम्हारे मुनाफे के साथ तुम्हें सौंपता हूँ।' यह कहकर उसने मुझे मेरी गठरियाँ सौंप दीं और वह नगद राशि भी दे दी जो मेरे माल के व्यापार के लाभ के रूप में उसके पास थी। मुझे यह सब मिलने की कोई आशा नहीं थी और मैंने भगवान को लाख-लाख धन्यवाद दिया।

फिर हमारा जहाज सिलहट द्वीप से अन्य द्वीपों में गया जहाँ से हमने लौंग, दारचीनी आदि खरीदा। हमने दूर-दूर की यात्रा की। एक जगह हमने इतने बड़े कछुए देखे जिनकी लंबाई चौड़ाई पचास-पचास हाथ की थी और अजीब मछलियाँ भी जो गाय की तरह दूध देती हैं। कछुओं का चमड़ा बहुत कड़ा होता है, उसकी ढालें बनाई जाती हैं। हमने एक और अजीब किस्म की मछलियाँ देखीं। इसका रंग और मुँह ऊँट जैसा होता है। घूमते-फिरते हमारा जहाज बसरा के बंदरगाह में आया। वहाँ से मैं बगदाद आ गया।

मैं कुशल-क्षेम से अपने घर आने पर भगवान को लाख-लाख धन्यवाद दिया। इस खुशी में मैंने बहुत-सा धन भिखारियों को तथा निर्धनों के सहायतार्थ दिया। इस यात्रा में मुझे इतना लाभ हुआ कि जिसकी गिनती नहीं की जा सकती। मैंने दान आदि करने के अतिरिक्त कई सुंदर भवन तथा आराम-आसाइश की चीजें भी खरीदीं।

तीसरी समुद्र यात्रा का वर्णन करने के बाद सिंहबाद ने हिंदबाद को चार सौ दीनारें दीं। उससे यह भी कहा कि कल तुम फिर इसी समय आना और तब मैं तुम्हें अपनी चौथी यात्रा का हाल सुनाऊँगा। चुनांचे सिंदबाद तथा अन्य उपस्थित लोग सिंदबाद के घर से विदा हुए। दूसरे दिन निश्चित समय पर सब लोग आए और भोजनोपरांत सिंदबाद ने कहना शुरू किया।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
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#64
Heart Heart Heart Heart
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#65
सिंदबाद जहाजी की चौथी यात्रा 

~ अलिफ लैला



Heart Heart Heart Heart
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भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#66
सिंदबाद ने कहा, कुछ दिन आराम से रहने के बाद मैं पिछले कष्ट और दुख भूल गया था और फिर यह सूझी कि और धन कमाया जाए तथा संसार की विचित्रताएँ और देखी जाएँ। मैंने चौथी यात्रा की तैयारी की और अपने देश की वे वस्तुएँ जिनकी विदेशों में माँग है प्रचुर मात्रा में खरीदीं। फिर मैं माल लेकर फारस की ओर चला। वहाँ के कई नगरों में व्यापार करता हुआ मैं एक बंदरगाह पर पहुँचा और व्यापार किया।

एक दिन हमारा जहाज तूफान में फँस गया। कप्तान ने जहाज को सँभालने का बहुत प्रयत्न किया किंतु सँभाल न सका। जहाज समुद्र की तह से ऊपर उठी पानी में डूबी एक चट्टान से टकरा कर चूर-चूर हो गया। कई लोग तो वहीं डूब गए किंतु मैं और कुछ अन्य व्यापारी टूटे तख्तों के सहारे किसी प्रकार तट पर आ लगे। हम लोग एक द्वीप में आ गए थे। इधर-उधर घूम कर हम लोगों ने वृक्षों के फल तोड़-तोड़ कर खाए और अपनी भूख मिटाई।

फिर हम समुद्र तट पर आ कर लेट गए और अपने दुर्भाग्य को कोसने लगे। किंतु इससे क्या होना था। हमें नींद आ गई और रात भर गहरी नींद में सोते रहे। सवेरे उठ कर फिर द्वीप में घूमने और फल आदि इकट्ठा करने लगे। अचानक काले रंग के आदमियों की एक बड़ी भीड़ ने हमें घेर लिया। उन्होंने हमारे गले में रस्सियाँ बाँध दीं और भेड़-बकरियों की भाँति हमें हाँक-हाँककर बहुत दूर पर बसे अपने गाँव में ले गए। फिर उन्होंने हमारे सामने एक खाद्य पदार्थ रखकर इशारे से कहा कि इसे खाओ। मेरे साथियों ने बगैर कुछ सोचे-समझे उसे पेट भर खाया और तुरंत ही नशे मे मतवाले हो गए। मैंने वह चीज बहुत कम खाई और काले लोगों की हरकतों को ध्यान से देखने लगा। मेरे साथी तो कुछ न समझ सके लेकिन मैंने समझ लिया कि इन लोगों की नीयत अच्छी नहीं है। फिर उन्होंने खाने के लिए हमें नारियल के तेल में पका हुआ चावल दिया। इस खाद्य से आदमी मोटे हो जाते हैं। मैं समझ गया कि काले लोगों का इरादा है कि हमें मोटा करें और फिर अपने कबीले की दावत करके हम लोगों का मांस पका कर सब लोग खाएँ। मेरे साथी तो नशे में खूब पेट भर कर खाते थे किंतु मैं बहुत थोड़ा खाता था ताकि मोटा न होऊँ और नर भक्षियों का आहार न बनूँ। मैं कम खाने और अपने प्राणों की चिंता में इतना दुबला हो गया कि बदन में हड्डी-चमड़े के सिवाय कुछ न रहा।

मैं दिन में उस द्वीप में घूमा-फिरा करता था। एक दिन मैंने देखा कि गाँव के सब लोग काम पर चले गए हैं। केवल एक बूढ़ा बैठा था। मैं अवसर पाकर भाग निकला। बूढ़े ने मुझे बहुतेरा चिल्ला-चिल्लाकर बुलाया किंतु मैं न रुका। शाम को गाँव में लोग आए तो मेरी खोज में निकले। किंतु तब तक मैं बहुत ही दूर निकल चुका था। मैं दिन भर भागता रात में कहीं छुपकर सो जाता। रास्ते में फल आदि से भूख मिटाता या नारियल तोड़कर उसका पानी पी लेता जिससे भूख और प्यास दोनों शांत होती थी।

आठवें दिन मैं समुद्र के तट पर पहुँचा। वहाँ देखा कि मेरी तरह के बहुत-से श्वेत वर्ण मनुष्य काली मिर्च इकट्ठी कर रहे हैं क्योंकि वहाँ काली मिर्च बहुत पैदा होती थी। उन्हें देख कर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई और मैं उनके पास पहुँच गया। वे भी चारों ओर जमा हो गए और अरबी भाषा में मुझसे पूछने लगे कि तुम कहाँ से आ रहे हो। मैं अरबी बोली सुनकर और भी हर्षित हुआ और मैंने विस्तार से उन्हें बताया कि जहाज टूटने पर हम लोग द्वीप के किसी अन्य तट पर लगे जहाँ से हमें बहुत-से श्याम वर्ण लोग पकड़ कर ले गए।

उन लोगों को यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। वे बोले, 'अरे वे लोग नरभक्षी हैं। तुम्हें उन्होंने छोड़ कैसे दिया?' मैंने उन्हें आगे का हाल बताया कि किस प्रकार कम खाकर और मौका पाकर भाग कर मैंने जान बचाई।


उन लोगों को मेरे जीते-जागते बच निकलने पर अति आश्चर्य और प्रसन्नता हुई। जब तक उनका काम पूरा न हुआ मैं उनके साथ मिलकर काम करता रहा, फिर वे लोग मुझे अपने साथ जहाज पर लेकर अपने देश आए और अपने बादशाह के सामने मुझे यह कह कर पेश किया कि यह व्यक्ति नरभक्षियों के चंगुल से सही-सलामत निकल आया है। बादशाह को जब मैंने अपना पूरा हाल सुनाया तो उसे भी सुनकर बड़ा आश्चर्य और प्रसन्नता हुई। वह बादशाह बड़ा दयालु प्रकृति का था। उसने मुझे पहनने के लिए वस्त्र तथा अन्य सुख-सुविधाएँ दीं।

बादशाह के कब्जे में जो द्वीप था वह बहुत बड़ा और धन-धान्य से पूर्ण था। वहाँ के व्यापारी अन्य देशों में अपने यहाँ की चीजें ले जाते थे और बाहर के कई व्यापारी भी आते थे। मुझे आशा होने लगी कि किसी दिन मैं अपने देश पहुँच जाऊँगा। बादशाह मुझ पर बड़ा कृपालु था। उसने मुझे अपना दरबारी बना लिया। लोग मुझे देखकर ऐसा बर्ताव करने लगे जैसे मैं उनके देश का निवासी हूँ।

मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वहाँ लोग बगैर जीन-लगाम ही घोड़ों पर सवार होते थे। यहाँ तक कि बादशाह भी घोड़े की नंगी पीठ पर सवारी करता था। मैंने एक दिन बादशाह से पूछा कि आप लोग जीन-लगाम लगाकर घोड़े पर क्यों नहीं चढ़ते। उसने कहा, जीन लगाम क्या होती है। उसने यह भी कहा कि मैं उसके लिए ये चीजें बना दूँ।

मैंने एक नमूना बनाकर लकड़ी के कारीगर को दिया। उसने मेरे नमूने के अनुसार जीन बना दी। मैंने उसे चमड़े से मढ़वाया और उस पर अतलस और कमरख्वाब का आवरण चढ़ाया। एक लोहार से रकाबे बनाने को कहा और लगाम का सामान भी बनवाया। जब सारा सामान तैयार हो गया तो मैं उसे घोड़े पर सजाकर घोड़ा बादशाह के सामने ले गया। वह उस पर सवार हुआ तो उसे बहुत प्रसन्नता और संतोष हुआ। उसने मुझे बहुत इनाम-इकराम दिया और पहले से भी अधिक मुझे मानने लगा। फिर मैंने बहुत-सी जीनें और लगामें बनवा कर राज्य परिवार के सदस्यों, मंत्रियों आदि को दीं। उन्होंने उनके बदले हजारों रुपए तथा अन्य बहुमूल्य वस्तुएँ मुझे प्रदान कीं। राज दरबार में मेरा मान बढ़ा तो नगरवासी भी मेरा बहुत सम्मान करने लगे।

एक दिन बादशाह ने मेरे साथ एकांत बातचीत की। वह बोला, 'मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ और तुम पर अधिकाधिक कृपा करना चाहता हूँ। मेरे दरबार के लोग और साधारण प्रजाजन भी तुम्हारी बुद्धिमत्ता के कारण तुम्हें बहुत मानते हैं। मैं चाहता हूँ कि तुम एक काम करो। मुझे पूर्ण विश्वास है कि जो मैं कहूँगा तुम उससे इनकार नहीं करोगे।' मैंने कहा, 'आप जो भी आज्ञा करेंगे वह मेरे हित में होगी क्योंकि आपकी मुझ पर कृपा रहती है। मैं क्यों आपकी आज्ञा का उल्लंघन करूँगा?' उसने कहा, 'मैं चाहता हूँ कि तुम स्थायी रूप से यहाँ बस जाओ और अपने देश जाने का विचार छोड़ दो। इसलिए मैं यहाँ की एक सुंदर और सुशील कन्या से तुम्हारा विवाह करना चाहता हूँ।' मैंने सहर्ष इसे स्वीकार किया।

उसने एक अत्यंत रूपवती और गुणवती नव यौवना से मेरा विवाह करा दिया। मैं उसे पाकर बगदाद में बसे अपने परिवार को भूल-सा गया। कुछ दिनों बाद मेरे पड़ोसी की पत्नी बीमार हो गई और कुछ दिन बाद मर गई। पड़ोसी से मेरी अच्छी दोस्ती थी इसलिए मातमपुर्सी को उसके घर गया। वह आदमी अत्यंत शोक में डूबा था और उसके आँसू ही नहीं थमते थे। मैंने उसे समझाया कि वह धैर्य रखे, भगवान चाहेगा तो दूसरी शादी के बाद और अच्छा जीवन बीतेगा। उसने कहा, 'तुम कुछ नहीं जानते इसीलिए ऐसी तसल्ली दे रहे हो। मैं तो दो-चार घंटे का ही मेहमान हूँ।'

मैंने परेशान होकर उससे स्थिति स्पष्ट करने को कहा तो वह बोला, 'आज मुझे मृत पत्नी के साथ जीते जी दफन किया जाएगा। हमारे यहाँ बहुत पुराने जमाने से यह रस्म चली आ रही है कि पति मरता है तो पत्नी उसके साथ दफन कर दी जाती है और पत्नी मरती है तो पति को उसके साथ गाड़ दिया जाता है। अब मेरी जान बचने की कोई सूरत ही नहीं है। यहाँ के निवासी एकमत हो कर इस रिवाज को स्वीकार करते हैं। कोई इसके विरुद्ध कुछ नहीं कर सकता।'

इस भयंकर रिवाज की बात सुनते ही मेरे होश उड़ गए। मैं उसी समय से अपने बारे में चिंता करने लगा क्योंकि मेरा भी विवाह हो चुका था। थोड़ी देर में उसके सगे संबंधी एकत्र हो गए। उन्होंने कफन आदि का प्रबंध किया। उन्होंने औरत की लाश को नहला-धुलाकर बहुमूल्य वस्त्र पहनाए और एक खुली अर्थी पर रख कर ले चले। उसका पति भी शोकसूचक वस्त्र पहने रोता-पीटता उनके पीछे चला।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#67
सब लोग एक बड़े पहाड़ पर पहुँचे। वहाँ पर उन्होंने एक बड़ी चट्टान हटाई तो उसके नीचे बड़ा गहरा और अँधेरा गड्ढा दिखाई दिया। सब लोगों ने रस्सी के द्वारा अर्थी को गड्ढे की तह तक उतार दिया। उसके बाद मृत स्त्री के पति को भी गड्ढे में उतार दिया। उन्होंने उसके साथ सात रोटियाँ और जल से भरा पात्र भी रख दिया और उसे उतारने के बाद गढ्ढे का मुँह चट्टान से बंद कर दिया। वह पहाड़ बहुत लंबा-चौड़ा था। उसके दूसरी ओर समुद्र था और उस ओर का क्षेत्र दुर्गम और निर्जन था। चट्टान को यथावत रख कर और पति-पत्नी के लिए शोक करके सब लोग वापस हुए।

मैं बहुत ही डर गया था और सोचता था कि ऐसी अमानुषिक रीति जो दुनिया के किसी देश में नहीं है यहाँ क्यों मानी जाती है। किंतु जिससे भी बात करता वह इस रिवाज का समर्थन करता और मेरी बात को गलत कहता था। यहाँ तक कि जब मैंने बादशाह से बात की तो उसने कहा, 'सिंदबाद, यह हमारे बुजुर्गों की बहुत पुरानी चलाई गई रस्म है। मैं अगर चाहूँ भी तो इसे रोक नहीं सकता। यह रस्म मुझ पर भी लागू होती है। भगवान न करे अगर रानी का देहांत हो जाय तो मुझे भी उसके साथ जीते जी दफन कर दिया जाएगा।' मैंने पूछा कि यह रस्म क्या उन अन्य देशवासियों पर भी लागू होती है जो यहाँ पर रहने लगे हैं। बादशाह मुस्कराने लगा और बोला, 'यह रस्म देशी-विदेशी सब के लिए है। इससे कोई व्यक्ति बाहर नहीं समझा जाता।'


इसके बाद मैं बहुत घबराया रहने लगा। मैं बराबर सोचता था कि कहीं मेरी पत्नी मर गई तो मुझे भी ऐसी भयानक मौत मरना पड़ेगा। मैं इसीलिए अपनी पत्नी के स्वास्थ्य की बहुत देखभाल करने लगा। किंतु ईश्वर की इच्छा कौन टाल सकता है। कुछ समय के बाद मेरी पत्नी सख्त बीमार हुई और कुछ दिनों में काल कवलित हो गई। मुझ पर दुख का पहाड़ टूट पड़ा। मैं सर पीटता था और कहता था कि मैं बेकार ही उस द्वीप से भागा। इस प्रकार जीते जी गाड़े जाने से कहीं अच्छा था कि नरभक्षी मुझे मार कर खा जाते।

इतने में बादशाह अपने दरबारियों और सेवकों के साथ मेरे घर आया। नगर के अन्य प्रतिष्ठित व्यक्ति भी वहाँ एकत्र हो गए और उसे अर्थी पर रख कर लोग ले चले और उनके पीछे मैं भी रोता-पीटता आँसू बहाता चला। दफन के पहाड़ पर पहुँच कर मैंने एक बार फिर अपने प्राण बचाने का प्रयत्न किया। मैंने बादशाह से कहा, स्वामी, मैं तो यहाँ का रहने वाला नहीं हूँ। मुझे यह कठोरतम दंड क्यों दिया जा रहा है। मुझ पर दया करके मुझे जीवन प्रदान कर दीजिए। मैं अकेला भी नहीं हूँ, मेरे देश में स्त्री-बच्चे मौजूद हैं। उनका खयाल करके मुझे छोड़ दीजिए।

मैंने हजार फरियाद की किंतु बादशाह या अन्य किसी व्यक्ति को मुझ पर दया न आई। पहले मेरी पत्नी की अर्थी को गड्ढे में उतारा गया फिर मुझे एक दूसरी अर्थी पर बिठाकर मेरे साथ रोटियाँ और पानी का घड़ा रख कर उतार दिया गया और गड्ढे पर चट्टान को वापस रख दिया गया।

वह कंदरा लगभग पचास हाथ गहरी थी। उसमें उतरते ही वहाँ उठने वाली बदबू से, जो लाशों के सड़ने से पैदा हो रही थी, मेरा दिमाग फटने लगा। मैं अपनी अर्थी से उठकर दूर भागा। मैं चीख-चीखकर रोने लगा और अपने भाग्य को कोसने लगा। मैं कहता था 'भगवान जो करता है उसे अच्छा ही कहा जाता है। जाने मेरे इस दुर्भाग्य में क्या अच्छाई है। मैं तीन-तीन यात्रा के कष्टों और खतरों से भी चैतन्य नहीं हुआ और फिर मरने के लिए चौथी यात्रा पर चला आया। अब तो यहाँ से निकलने का कोई रास्ता ही नहीं है।' इसी प्रकार मैं घंटों रोता रहा।

किंतु सुख हो या दुख, मनुष्य को भूख तो सताती ही है। मैं नाक-मुँह बंद करके अपनी अर्थी पर पहुँचा और थोड़ी रोटी खाकर पानी पिया। कुछ दिनों इस तरह जिया। रोटियाँ खत्म हो गईं तो सोचा कि अब तो भूखा मरना ही है। इतने में ऊपर उजाला हुआ। ऊपर की चट्टान खोल कर लोगों ने एक मृत पुरुष और उसके साथ उसकी विधवा को गढ्ढे में उतार दिया। जब लोग चट्टान बंद कर चुके तो मैंने एक मुर्दे की पाँव की हड्डी उठाई और चुपचाप पीछे से आकर स्त्री के सिर पर उसे इतनी जोर से मारा कि वह गश खाकर गिर पड़ी। मैंने लगातार चोटें करके उसे मार डाला और साथ रखी हुई रोटियाँ और पानी लेकर अपने कोने में चला गया। दो-चार दिन बाद एक आदमी को उसकी मृत पत्नी के साथ उतारा गया। मैंने पहले की तरह आदमी को खत्म करके उसकी रोटियाँ और पानी ले लिया। मेरे भाग्य से नगर में महामारी पड़ी और रोज दो-एक लाशें और उसके साथ जीवित व्यक्ति आने लगे जिन्हें मारकर मैं उनकी रोटियाँ ले लेता।

एक दिन मैंने वहाँ ऐसी आवाज सुनी जैसे कोई साँस ले रहा हो। वहाँ अँधेरा तो इतना रहता था कि दिन-रात का पता नहीं चलता था। मैंने आवाज ही पर ध्यान दिया तो साँस के साथ पाँवों की भी हलकी आहट आई। मैं उठा तो मालूम हुआ कि कोई चीज एक तरफ दौड़ रही है। मैं भी उसके पीछे दौड़ा। कुछ देर इसी प्रकार दौड़ने के बाद मुझे दूर एक तारे जैसी चमक दिखाई दी जो झिलमिला-सी रही थी। मैंने उस तरफ दौड़ना आरंभ किया तो देखा कि एक इतना बड़ा छेद है जिसमें से मैं बाहर जा सकता हूँ।

वास्तव में मैं पहाड़ के दूसरी ओर के ढाल पर निकल आया था। पहाड़ इतना ऊँचा था कि नगर निवासी जानते ही नहीं थे कि उधर क्या है। उस छेद में से होकर कोई जंतु मुर्दों को खाने के लिए अंदर आया करता था और उसी के सहारे मुझे बाहर निकलने का रास्ता मिला। मैं उस छेद से बाहर खुले आकाश के नीचे आ निकला और भगवान को उनकी अनुकंपा के लिए धन्यवाद दिया। मुझे अब अपने बच निकलने की आशा हो गई थी।

अब मैने कुछ सोचना आरंभ किया क्योंकि अभी तक तो मुर्दों की दुर्गंध के कारण कुछ सोच नहीं पाता था। थोड़ा-थोड़ा भोजन करके मैंने इतने दिन तक किसी प्रकार अपने को जीवित रखा था। मैं एक बार फिर जी कड़ा करके उस मुर्दों की गुफा में घुस गया। बहुत-से मुर्दों के साथ बहुमूल्य रत्न भूषण, आदि रख दिए जाते थे। मैंने टटोल-टटोल कर अंदाज से बहुत-से हीरे जवाहरात इकट्ठे किए।

मुर्दों के कफनों ही में उनकी अर्थियों की रस्सियों से हीरे-जवाहरात की कई गठरियाँ बाँधीं और एक-एक करके उन्हें बाहर ले आया, जहाँ से सामने समुद्र दिखाई देता था। मैंने समुद्र तट पर दो-तीन दिन फल फूल खाकर बिताए।

चौथे दिन मैंने तट के पास से एक जहाज गुजरता देखा। मैंने पगड़ी खोलकर उसे हवा में उड़ाते हुए खूब चिल्लाकर आवाजें दीं। जहाज के कप्तान ने मुझे देख लिया। उसने जहाज रोककर एक नाव मुझे लेने को भेजी। नाविक लोग मुझसे पूछने लगे कि तुम इस निर्जन स्थान पर कैसे आए। मैंने उन्हें पूरा वृत्तांत सुनाने के बजाय कह दिया कि दो दिन पहले हमारा जहाज डूब गया था, मेरे सभी साथी भी डूब गए, सिर्फ मैं कुछ तख्तों के सहारे अपनी जान और कुछ सामान बचा लाया। वे लोग मुझे गठरियों समेत जहाज पर ले गए।

जहाज पर कप्तान से भी मैंने यही बात कही और उसकी कृपा के बदले उसे कुछ रत्न देने लगा किंतु उसने लेने से इनकार कर दिया। हम वहाँ से चल कर कई द्वीपों में गए। हम सरान द्वीप से दस दिन की राह पर स्थित नील द्वीप गए। वहाँ से हम कली द्वीप पहुँचे जहाँ सीसे की खाने हैं और हिंदुस्तान की कई वस्तुएँ ईख, कपूर आदि भी होती हैं। कली द्वीप बहुत बड़ा है और वहाँ व्यापार बहुत होता है। हम लोग अपनी चीजें खरीदते-बेचते कुछ समय के बाद बसरा पहुँचे जहाँ से मैं बगदाद आ गया। मुझे असीमित धन मिला था। मैंने कई मसजिदें आदि बनवाईं और आनंदपूर्वक रहने लगा। यह कहकर सिंदबाद ने हिंदबाद को चार सौ दीनारें और दीं और दूसरे रोज भी आने को कहा। अगले दिन सब लोग फिर एकत्र हुए और भोजनोपरांत सिंदबाद ने अपनी पाँचवीं यात्रा का वर्णन शुरू किया।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#68
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#69
 ~ अलिफ लैला


सिंदबाद जहाजी की पाँचवीं यात्रा





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जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#70
सिंदबाद ने कहा कि मेरी विचित्र दशा थी। चाहे जितनी मुसीबत पड़े मैं कुछ दिनों के आनंद के बाद उसे भूल जाता था और नई यात्रा के लिए मेरे तलवे खुजाने लगते थे। इस बार भी यही हुआ। इस बार मैंने अपनी इच्छानुसार यात्रा करनी चाही। चूँकि कोई कप्तान मेरी निर्धारित यात्रा पर जाने को राजी नहीं हुआ इसलिए मैंने खुद ही एक जहाज बनवाया। जहाज भरने के लिए सिर्फ मेरा माल काफी न था इसीलिए मैंने अन्य व्यापारियों को भी उस पर चढ़ा लिया और हम अपनी यात्रा के लिए गहरे समुद्र में आ गए।

कुछ दिनों में हमारा जहाज एक निर्जन टापू पर लगा। वहाँ रुख पक्षी का एक अंडा रखा था जैसा कि एक पहले की यात्रा में मैंने देखा था। मैंने अन्य व्यापारियों को उसके बारे में बताया। वे उसे देखने उसके पास गए। उस अंडे में से बच्चा निकलने वाला था। जब जोर की ठक-ठक की आवाज के साथ बच्चे की चोंच अंडा तोड़ कर निकली तो व्यापारियों को सूझा कि रुख के बच्चे को भूनकर खा जाएँ। वे कुल्हाड़ियों से अंडा तोड़ने लगे। मेरे लाख मना करने पर भी वे न माने और बच्चा निकालकर उसे काट-भून कर खा गए।

कुछ ही देर में चार बड़े-बड़े बादल जैसे आते दिखाई दिए। मैंने पुकारकर कहा कि जल्दी से जहाज पर चलो, रुख पक्षी आ रहे हैं। हम जहाज पर पहुँचे ही थे कि बच्चे के माता-पिता वहाँ आ गए और अंडे को टूटा और बच्चे को मरा देख कर क्रोध में भयंकर चीत्कार करने लगे। कुछ देर में वे उड़कर चले गए। हमने तेजी से जहाज एक ओर भगाया कि रुख पक्षियों के क्रोध से बचें किंतु कोई लाभ नहीं हुआ। कुछ ही देर में रुख पक्षियों का एक पूरा झुंड हमारे सिर पर आ पहुँचा। उनके पंजों में विशालकाय चट्टानें दबी थीं। उन्होंने हम पर चट्टान गिराना शुरू किया। एक चट्टान जहाज से थोड़ी दूर पर गिरी और उससे पानी इतना उथल-पुथल हुआ कि जहाज डगमगाने लगा। दूसरी चट्टान जहाज के ठीक ऊपर गिरी और जहाज के टुकड़े-टुकड़े हो गए। सारे व्यापारी और व्यापार का माल जलमग्न हो गया। मुझे ही प्राण रक्षा का अवसर मिला और मैं एक तख्ते का सहारा लेकर किसी तरह एक टापू पर पहुँचा।

तट पर कुछ देर तक सुस्ताने के बाद मैं उस द्वीप पर घूम फिर कर देखने लगा कि क्या किया जा सकता हैं। मैंने देखा कि वहाँ सुंदर फलों के कई बाग हैं। कई पेड़ों के फल कच्चे थे किंतु बहुत-से फल पके और मीठे थे। कई जगह मैंने मीठे पानी के स्रोत देखे। मैंने पेट भरकर पके फल खाए और एक स्रोत से पानी पिया। रात हो गई थी इसीलिए मैं एक जगह पर सोने के इरादे से लेट गया। किंतु मुझे नींद न आई। निर्जन स्थान का भय भी था और अपने दुर्भाग्य पर दुख भी था। मैं रोता था और स्वयं को धिक्कारता था कि इतनी धन-दौलत होने पर भी, जिससे आयुपर्यंत सुख और ऐश्वर्य के साथ रह सकता था, यह फिर यात्रा करने की मूर्खता क्यों की। कभी यह भी सोचने लगता था कि इस द्वीप से किस तरह निकलकर बाहर जाया जा सकता है।

इतने में सवेरा हो गया। मैं भी अपनी उधेड़बुन को छोड़कर उठ खड़ा हुआ और फलवाले पेड़ों को घूम-घूमकर देखने लगा। कुछ ही देर में मैंने देखा कि वहाँ किनारे एक बूढ़ा बैठा है। वह बहुत कमजोर लगता था और मालूम होता था कि उसकी कमर से नीचे का भाग पक्षाघात-ग्रस्त है। पहले मैंने सोचा कि यह भी मेरी तरह का कोई भूला-भटका यात्री है जिसका जहाज डूब गया है। मैंने उसके समीप जाकर उसका अभिवादन किया। उसने कुछ उत्तर न दिया, केवल सिर हिलाया।

मैंने उससे पूछा कि तुम क्या कर रहे हो। उसने मुझे संकेत में बताया कि चाहता है कि मैं उसे अपने कंधों पर बिठाकर नहर पार करा दूँ। मैंने सोचा कि शायद उस पार यह मेरे कंधों पर चढ़कर पेड़ों से फल तोड़ना और खाना चाहता है। मैंने उसे अपनी गर्दन पर चढ़ा लिया।



अब मुझे वह बात याद आती है तो हँसता हूँ। नहर के पार जाकर मैंने उतारना चाहा तो वह बूढ़ा जो बिल्कुल मरियल लगता था एकदम से शक्तिवान हो गया। उसने मेरी गर्दन के चारों ओर इतने जोर से पाँव करे कि मेरा दम घुटने लगा। मेरी आँखें बाहर को निकलने को हुईं और मैं अचेत होकर गिर पड़ा। फिर उसने पाँव ढीले किए जिससे मैं साँस लेने लगा और कुछ देर में होश आ गया। अब बूढ़े ने मुझे उठने का इशारा किया और मेरे न उठने पर उसने एक पाँव मेरे पेट में गड़ाया और दूसरा मुँह पर मारा। इससे मैं विवश हो गया कि उसके कहने के अनुसार काम करूँ। मैं उसे लिए घूमने लगा। वह पेड़ों के नीचे मुझे ले जाता और फल तोड़ता, खुद खाता और कुछ मुझे भी खाने को दे देता।

रात होने पर मैं लेटने की तैयारी करने लगा। बूढ़ा अब भी मेरी गर्दन से न उतरा। वैसे ही अपनी गर्दन के चारों ओर उसके पाँवों का घेरा लिए हुए लेट गया और सो गया। वह भी इसी दशा में सो गया। सुबह उसने ठोकर मारकर मुझे जगाया और उसी तरह मुझ पर सवार होकर वह द्वीप में घूमता फिरा। मैं क्रोध और दुख से अधमरा हो गया किंतु कुछ कर ही नहीं सकता था क्योंकि वह मुझे एक क्षण के लिए भी नहीं छोड़ता था और रुकने पर एड़ियों को ठोकरें मारता था जिससे मुझे अतीव कष्ट होता था।

एक दिन मैंने वहाँ पर कद्दू के सूखे खोल पड़े देखे। मैंने उन्हें साफ किया और उनमें पके अंगूरों का रस निचोड़ कर भर दिया। कुछ दिनों बाद फिर घूमता हुआ वहाँ गया तो देखा कि रस से खमीर उठ गया है और वह मदिरा बन गया है। मैं बहुत कमजोर हो गया था इसीलिए स्वयं को शक्ति देने का यह उपाय किया था। मैंने थोड़ी- सी शराब पी और मुझ में शक्ति आ गई। मैं तेजी से चलने लगा और गाने भी लगा। बूढ़े को यह देखकर आश्चर्य हुआ। उसने इशारे से एक कद्दू की शराब देने के लिए कहा।

मैं तो दो-चार घूँट ही लेता था। उसे थोड़ी मदिरा पीकर आनंद आया तो वह एकदम से पूरे कद्दू की शराब पी गया। इससे उसे तेज नशा चढ़ आया। वह गाने लगा और झूमने और डगमगाने लगा। जब मेरी गर्दन पर उसकी पकड़ ढीली हो गई तो मैंने उसे पृथ्वी पर पटक दिया। उसके गिरते ही मैंने एक पत्थर से उसका सिर कुचल -कुचलकर उसे मार डाला। मुझे उसी पकड़ से छूट कर बड़ा सुख मिला और मैं समुद्र तट पर आ गया।

संयोग से उसी समय एक जहाज के कुछ लोग जहाज में मीठा पानी भरने उस द्वीप में उतरे। उन्हें मेरी कहानी सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा, 'क्या तुम सचमुच इस बूढ़े के हाथ पड़े थे? उसने तो न जाने कितनों को इसी तरह दौड़ाकर और गला घोंटकर मार डाला है। उसके हाथ से कोई नहीं बचा। तुम वास्तव में बहुत भाग्यशाली हो। इस द्वीप के अंदर कोई नहीं जाता, सभी इससे भय खाते हैं।' फिर वे मुझे अपने जहाज पर ले आए। कप्तान ने भी मेरा हाल सुनकर मुझ पर दया की और बगैर किराए के पूरी सुविधा के साथ मुझे ले चला। यात्रा के दौरान एक बड़े व्यापारी से मेरी गहरी मित्रता हो गई।

एक अन्य द्वीप पर पहुँच कर उस व्यापारी ने अपने कई नौकर जमीन पर भेजे और मुझे एक टोकरा देकर कहा कि इनके साथ चले जाओ और जैसा यह करें वैसा ही तुम भी करना और इनसे अलग न होना वरना बड़ी मुसीबत में फँस जाओगे।' मैं सब आदमियों के साथ टापू पर उतर गया। द्वीप पर नारियल के बहुत-से पेड़ थे किंतु वे इतने ऊँचे थे कि उन पर चढ़ना असंभव लगता था। वहाँ बहुत-से बंदर भी थे। वे हमारे डर से तुरंत पेड़ों पर चढ़ गए। अब मेरे साथियों ने यह किया कि ढेले-पत्थर जमा किए और बंदरों पर फेंकने लगे। मैंने भी ऐसे ही किया। बंदर क्रोध में आ कर नारियल तोड़ तोड़कर हम लोगों के सिरों पर फेंकने लगे। कुछ ही देर में सारी जमीन पर नारियल बिछ गए। हम लोगों ने नारियलों से टोकरे भरे। मैं इस प्रकार नारियल प्राप्त होने पर आश्चर्य में पड़ गया। फिर मैं उन लोगों के साथ शहर में आया जहाँ नारियल अच्छे दामों में बिक गए।

व्यापारी ने नारियलों की कीमत में मेरा हिस्सा मुझे देकर कहा कि तुम रोज इसी तरह जाकर नारियल जमा किया करो और उनसे जो पैसा मिले उसे बचाते जाओ। कुछ दिनों में तुम्हारे पास इतना धन इकट्ठा हो जाएगा कि आसानी से अपने देश को वापस जा सकोगे। मैंने उसकी बात मानी और कई दिन तक इसी तरह नारियल बेचता रहा। मेरा पास इस सौदे से पर्याप्त धन हो गया।

कुछ दिनों बाद जिस जहाज ने मुझे बचाया था वह उस बंदरगाह से चला गया। मैं वहीं रुक गया क्योंकि मैं दूसरी ओर जाना चाहता था। मैंने बहुत-से नारियल अपने पास भी जमा कर लिए थे। कुछ दिनों में एक जहाज उधर जाने वाला आया जिधर मैं जाना चाहता था। मैं अपनी नारियल की खेप लेकर सवार हुआ। वहाँ से जहाज उस द्वीप में आया जहाँ काली मिर्च पैदा होती है। वहाँ से हम लोग उस टापू में गए जहाँ चंदन और आबनूस के पेड़ बहुतायत से हैं। वहाँ के निवासी न तो मदिरापान करते हैं न अन्य किसी प्रकार के कुकर्म करते हैं। उन दोनों द्वीपों में मैंने नारियल बेच कर काली मिर्च और चंदन खरीदा। इसके अतिरिक्त कई अन्य व्यापारियों के सलाह से मैं समुद्र से मोती निकलवाने की योजना में उनका भागीदार बन गया। हम लोगों ने बहुत से गोताखोरों को मजदूरी पर लगाया। भगवान की कुछ ऐसी कृपा हुई कि मेरे गोताखोरों ने अन्य गोताखोरों की अपेक्षा कहीं अधिक मोती निकाले और मेरे मोती अन्य मोतियों से बड़े और सुडौल भी थे। इसके बाद मैं एक जहाज पर बसरा बंदरगाह आ गया। वहाँ पर मैंने काली मिर्च, चंदन और मोतियों को बेचा तो मेरी आशा से कहीं अधिक लाभ हुआ। मैंने उसका दसवाँ भाग दान में दे दिया और अपने सुख सुविधा की वस्तुएँ खरीदकर बगदाद में अपने घर पर आकर रहने लगा।

पाँचवी यात्रा का वृत्तांत सुनाकर सिंदबाद ने हिंदबाद को फिर चार सो दीनारें दीं और उसे तथा अन्य मित्रों को विदा करके अगले दिन फिर नया यात्रा वृत्तांत सुनने के लिए आमंत्रित किया। अगले दिन सब आए और खाना पीना होने के बाद यात्रा वृत्तांत आरंभ हो गया।
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भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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 अलिफ लैला

सिंदबाद जहाजी की छठी यात्रा ~





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#73
सिंदबाद ने हिंदबाद और अन्य लोगों से कि आप लोग स्वयं ही सोच सकते हैं कि मुझ पर कैसी मुसीबतें पड़ीं और साथ ही मुझे कितना धन प्राप्त हुआ। मुझे स्वयं इस पर आश्चर्य होता था। एक वर्ष बाद मुझ पर फिर यात्रा का उन्माद चढ़ा। मेरे सगे-संबंधियों ने मुझे बहुत रोका किंतु मैं न माना। आरंभ में मैंने बहुत-सी यात्रा थल मार्ग से की और फारस के कई नगरों में जाकर व्यापार किया। फिर एक बंदरगाह पर एक जहाज पर बैठा और नई समुद्र यात्रा शुरू की।

कप्तान की योजना तो लंबी यात्रा पर जाने की थी किंतु वह कुछ समय बाद रास्ता भूल गया। वह बराबर अपनी यात्रा पुस्तकों और नक्शों को देखा करता था ताकि उसे यह पता चले कि कहाँ है। एक दिन वह पुस्तक पढ़ कर रोने-चिल्लाने लगा। उसने पगड़ी फेंक दी और बाल नोचने लगा। हमने पूछा कि तुम्हें यह क्या हो गया है, तो उसने कुछ देर में बताया कि यहाँ एक समुद्री धारा हमें एक ओर लिए जाती हैं, वह हमें एक तट पर ऐसा पटकेगी कि हमारा जहाज टूट जाएगा और हम सब उसी तट पर मर जाएँगे। यह कहकर उसने जहाज के पाल उतरवा दिए।

उससे कुछ न हुआ। धारा के वेग से उछल कर जहाज पहाड़ी से टकराया और शीशे की तरह बिखर गया। चूँकि तट ही पर यह हुआ था इसीलिए हम लोग खाद्य सामग्री और अन्य सामान किनारे पर ले आए। कप्तान ने कहा 'भाग्य पर किसी का वश नहीं है। अब हम सब लोग एक-दूसरे के गले लगकर रो लें और अपनी-अपनी कब्रें खोद लें क्योंकि यहाँ से कोई बचकर नही गया है।' यह सुनकर हम लोग एक-दूसरे के गले लगकर रोने लगे क्योंकि हमने देखा कि किनारे पर दूर-दूर तक जहाजों के टुकड़े और मानव कंकाल बिखरे पड़े थे। मालूम होता था कि हजारों यात्री वहाँ आकर मर गए हैं। चारों ओर उनके व्यापार की वस्तुएँ बिखरी पड़ी थीं।

उस पहाड़ पर बिल्लौर और लाल की खदान थीं। पास ही कई नदियाँ एक स्थान पर मिलकर एक गुफा के अंदर जाती थीं। उस पहाड़ से राल टपक कर समुद्र में गिरती थी और मछलियाँ उसे खाकर कुछ समय बाद उसे उगल देती थीं। वही अभ्रक बन जाती थी। उस अभ्रक के ढेर भी वहाँ थे। समुद्र में समुद्री धारा से बचना इसीलिए असंभव था कि पहाड़ की ऊँचाई के कारण जहाजों को विपरीत दिशा में खींच ले जाने वाली तेज हवा रुक जाती थी। पहाड़ इतना ऊँचा था कि उस पर चढ़कर दूसरी ओर जा निकलना भी असंभव था।

हम लोग अपने दुर्भाग्य पर रोते रहे और अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा करते रहे। जहाज पर से लाया हुआ खाना हमने बराबर बाँट लिया। हममें से जो भी मरता बाकी लोग कब्र खोदकर उसे दफन कर देते थे। मैं ही सबसे अधिक मुर्दे गाड़ा करता और उनका बचा हुआ भोजन ले लेता। इस प्रकार मेरे पास खाद्य सामग्री काफी हो गई। धीरे- धीरे मेरे सभी साथी मर गए। अकेला रह जाने के कारण मैं और भी दुखी हुआ। मैंने भी अपनी कब्र खोद ली ताकि मरने का समय आए तो उसमें जा लेटूँ।

मैं रात-दिन अपने को धिक्कारता था कि घर पर इतना सुख का जीवन छोड़कर यहाँ मंदगामी मौत मरने के लिए क्यों आया। किंतु पछताने से क्या होना था। भगवान की दया से एक रात अचानक एक विचार मेरे मन में आया। मैंने सोचा कि नदियाँ मिलकर एक बड़ी नदी के रूप में जब खोह के अंदर बहती ही जाती हैं तो खोह के बाद कहीं और निकलती भी होंगी। इसीलिए मैंने सोचा कि किसी तरह इस नदी के सहारे ही किसी देश में जा निकलूँ। किनारे पर बीसियों जहाज टूटे पड़े थे। मैंने तख्तों को जोड़- जाड़कर एक नाव बनाई। मैंने सोचा कि किनारे पर तो मरना निश्चित ही है, नदी में जाने पर भी अधिक से अधिक मौत ही होगी और हो सकता है कि बच ही जाऊँ।

बचने की आशा में मैंने नाव पर खाद्य सामग्री के अलावा वहाँ पड़े हुए असंख्य रत्नों और मृत यात्रियों के बिखरे हुए सामान की बहुमूल्य वस्तुओं में से चुन-चुनकर चीजें जमा की ओर उनकी कई गठरियाँ बनाईं। नाव को नदी के किनारे लाकर मैंने उसके दोनों ओर गठरियाँ रखीं ताकि नाव बहुत हल्की भी न रहे और संतुलित भी रहे। यह करने के बाद मैंने डाँड़ सँभाली और ईश्वर का नाम लेकर नदी में नाव छोड़ दी।

नाव गुफा में गई तो बिल्कुल अँधेरे में आ गई। मुझे दिखाई न देता था। नाव को कभी धारा पर छोड़कर सुस्ताने लगता, कभी खेने लगता। कहीं-कहीं गुफा की छत इतनी नीचे थी कि मेरे सिर पर टकराती थी। अपने पास जो मैंने रख लिया था उसमें से बहुत थोड़ा-थोड़ा खाता था ताकि जीवित भर रह सकूँ। कुछ समय के बाद मुझ पर निद्रा का ऐसा प्रकोप हुआ कि मैं सो गया तो घंटों तक सोता रहा। जब जागा तो देखा कि नाव खुले में नगर के समीप नदी के तट पर बँधी हुई है। मैंने देखा कि मेरे चारों ओर बहुत- से श्याम वर्ण लोग हैं। मैंने इन्हें सलाम करके उनका हाल-चाल पूछा।

उन्होंने उत्तर में कुछ कहा किंतु मैं उसे बिल्कुल न समझ सका।



खैर, आदमियों के बीच पहुँचकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई और मैंने ऊँचे स्वर में अपनी भाषा अरबी में भगवान को धन्यवाद दिया और कहा कि भगवान क्षण-क्षण पर मनुष्य की सहायता करता है और मनुष्य को चाहिए कि उसकी अनुकंपा से निराश न हो और मुझे भी उचित है कि आँख बंद करके स्वयं भगवान के सहारे छोड़ दूँ।

उन लोगों में से एक को अरबी भाषा आती थी। मेरी बातें सुनकर वह मेरे पास आया और कहने लगा, 'तुम हम लोगों को देखकर चिंता न करो। हम लोग इस क्षेत्र के वासी हैं। हम यहाँ नदी से अपने खेतों में पानी देने के लिए आते हैं। आज नदी में पानी कम आ रहा था जैसे धारा को कोई चीज रोके हुए हो। हमने आगे जाकर देखा तो एक मोड़ पर तुम्हारी नाव टेढ़ी होकर अटकी थी जिससे पानी धारा में आना कम हो गया था। हममें से एक व्यक्ति तैर कर गया और तुम्हारी नाव को उसने फिर सीधा करके धारा में डाला। फिर हमने तुम्हारी नाव यहाँ बाँध दी। अब तुम बताओ कि कौन हो और कहाँ से आए हो।'

मैंने उससे कहा कि मेरी भूख से जान निकली जा रही है, पहले कुछ खाने को दो। उन लोगों ने कई तरह की खाने की चीजें दीं। फिर मैंने आरंभ से अंत तक अपना हाल उन्हें बताया। उन लोगों को यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा कि हम तुम्हें अपने बादशाह के पास ले जाएँगे, वहाँ तुम उन्हें अपना हाल सुनाना। मैंने कहा, मैं इसके लिए तैयार हूँ।

वे लोग मेरी गठरियाँ उठा कर मेरे साथ चले। यह सरान द्वीप (लंका) था। मैंने राज दरबार में प्रवेश किया और सिंहासन पर बैठे राजा को देखकर हिंदुओं की प्रथानुसार उसे प्रणाम किया और उसके सिंहासन को चूमा। बादशाह ने पूछा, तू कौन है। मैंने कहा, मेरा नाम सिंदबाद जहाजी है, मैं बगदाद नगर का निवासी हूँ। उसने कहा, तू कहाँ जा रहा है और मेरे राज्य में कैसे आया। मैंने उसे अपनी यात्रा का वृत्तांत आद्योपांत बताया। उसे यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने आज्ञा दी कि सिंदबाद के जीवन का वृत्तांत लिख लिया जाए बल्कि सोने के पानी से लिखा जाए ताकि यह हमारे यहाँ के इतिहास की तथा अन्य ज्ञानवर्धक पुस्तकों में भी जगह पर सके।

उसने मेरी गठरियाँ खोलने की आज्ञा दी। उनमें के बहुमूल्य रत्नों तथा चंदनादि अन्य वस्तुओं को देखकर उसे और भी आश्चर्य हुआ। मैंने कहा, 'महाराजाधिराज, यह सब आप ही का है, आप इसमें से जितना चाहें ले लें बल्कि सब कुछ लेना चाहें तो वह भी करें।' उसने मुस्कराकर उत्तर दिया, 'नहीं, यह सब तेरा हैं, हम इसमें से कुछ नहीं लेंगे।' फिर उसने आज्ञा दी कि इस मनुष्य को इसके माल-असबाब के साथ एक अच्छे घर में ठहराओ, इसकी सेवा के लिए अनुचर रखो और हर प्रकार इसकी सुख-सुविधा का खयाल रखो। उसके सेवकों ने ऐसा ही किया और मुझे एक शानदार मकान में ले जाकर उतारा। मैं रोज राज दरबार जाया करता था और वहाँ से छुट्टी मिलने पर इधर-उधर घूम-फिर कर राज्य की देखने योग्य चीजें देखा करता था।

सरान द्वीप भूमध्य रेखा के किंचित दक्षिण में है। इसीलिए वहाँ सदैव ही दिन और रात बराबर होते हैं। उस द्वीप की लंबाई चालीस कोस है और इतनी ही उसकी चौड़ाई है। राजधानी के चारों ओर ऊँचे-ऊँचे पहाड़ हैं। वहाँ से समुद्र तट तीन दिन की राह पर है। वहाँ लाल (मणि) तथा अन्य रत्नों की कई खानें हैं और वहाँ कोरंड नामी पत्थर भी पाया जाता है जिससे हीरों और अन्य रत्नों को काटते और तराशते हैं। वहाँ नारियल के तथा अन्य कई फलों के वृक्ष भी बहुतायत से हैं। वहाँ के समुद्र में मोती भी बहुत मिलते हैं। हजरते आदम, जो कुरान और बाइबिल के अनुसार मनुष्यों के आदि पुरुष हैं, जब स्वर्ग से उतारे गए थे तो इसी द्वीप के एक पहाड़ पर लाए गए थे।

जब मैं वहाँ खूब घूम-फिर कर देख चुका तो मैंने बादशाह से निवेदन किया कि अब मुझे मेरे देश जाने की अनुमति दीजिए। उसने मुझे अनुमति ही नहीं बल्कि कई बहुमूल्य वस्तुएँ इनाम के तौर पर भी दीं। उसने खलीफा हारूँ रशीद के नाम एक पत्र और बहुत-से उपहार भी मुझे दिए कि मैं उन्हें खलीफा तक पहुँचा दूँ। मैंने सिर झुका कर यह स्वीकार किया। बादशाह ने मेरे ले जाने के लिए एक मजबूत जहाज का प्रबंध किया और कप्तान और खलासियों को ताकीद की कि सिंदबाद को बड़े सम्मान से उसके देश में पहुँचाना, रास्ते में इसे किसी प्रकार की असुविधा न हो।

सरान द्वीप के बादशाह ने जो पत्र खलीफा के नाम दिया था वह पीले रंग के नरम चमड़े पर लिखा था। यह चमड़ा किसी पशु विशेष का था और बहुत ही मूल्यवान था। उस पर बैंगनी स्याही से पत्र लिखा था। पत्र का लेख इस प्रकार था, 'यह पत्र सरान द्वीप के बादशाह की ओर से भेजा जा रहा है। उस बादशाह की सवारी के आगे एक हजार सजे-सजाए हाथी चलते हैं, उसका राजमहल ऐसा शानदार है जिसकी छतों में एक लाख मूल्यवान रत्न जड़े हैं और उसके खजाने में अन्य वस्तुओं के अतिरिक्त बीस हजार हीरे जड़े मुकुट रखे हैं। सरान द्वीप का बादशाह खलीफा हारूँ रशीद को निम्नलिखित उपहार भातृभाव से भेज रहा है। वह चाहता है कि खलीफा और उसके दृढ़ मैत्री संबंध हो जाएँ और एक-दूसरे का अहित हम दोनों न चाहें। मैं सरान द्वीप का बादशाह खलीफा की कुशल-क्षेम चाहता हूँ।'

जो उपहार बादशाह ने खलीफा को भेजे थे उनमें मणि का बना हुआ एक प्याला था जिसका दल पौन गिरह (लगभग पौने दो इंच) मोटा था और उसके चारों ओर मोतियों की झालर थी। झालर के मोतियों में प्रत्येक तीन माशे के वजन का था। एक बिछौना अजगर की खाल का, जो एक इंच से अधिक मोटा था। इस बिछौने की विशेषता यह थी कि उस पर सोने वाला आदमी कभी बीमार नहीं पड़ता था। तीसरा उपहार एक लाख सिक्कों के मूल्य की चंदन की लकड़ी थी। चौथा उपहार तीस दाने कपूर के थे जो एक-एक पिस्ते के बराबर थे। पाँचवाँ उपहार एक दासी थी जो अत्यंत ही रूपवती थी और अति मूल्यवान वस्त्राभूषणों से सुसज्जित थी।

हमारा जहाज कुछ समय की यात्रा के बाद सकुशल बसरा के बंदरगाह में पहुँच गया। मैं अपना सारा माल और खलीफा के लिए भेजा गया पत्र और उपहार लेकर बगदाद आया। सब से पहले मैंने यह किया कि उस दासी को - जिसे मैंने परिवार के युवकों से सुरक्षित रखा था - तथा अन्य उपहार और पत्र लेकर खलीफा के राजमहल में पहुँचा। मेरे आने की बात सुनकर खलीफा ने मुझे तुरंत बुला भेजा। उस के सेवकगण मुझे सारे सामान के साथ खलीफा के सम्मुख ले गए। मैंने जमीन चूमकर खलीफा को पत्र दिया। उसने पत्र को पूरा पढ़ा और फिर मुझ से पूछा, 'तुमने तो सरान द्वीप के बादशाह को देखा है, क्या वह ऐसा ही ऐश्वर्यशाली है जैसा इस पत्र में लिखा है?

मैंने कहा, 'वह वास्तव में ऐसा ही है जैसा उसने लिखा है। उसने पत्र में बिल्कुल अतिशयोक्ति नहीं की, मैंने उसका ऐश्वर्य और प्रताप अपनी आँखों से देखा है। उसके राजमहल की शान-शौकत का शब्दों में वर्णन नहीं हो सकता। जब वह कहीं जाता है तो सारे मंत्री और सामंत अपने-अपने हाथियों पर सवार होकर उसके आगे-पीछे चलते हैं। उसके अपने हाथी के हौदे के सामने अंग रक्षक सुनहरे काम के बरछे लिए चलते हैं और पीछे सेवक मोरछल हिलाता रहता है। उस मोरछल के सिरे पर एक बहुत बड़ा नीलम लगा हुआ है। सारे हाथियों के हौदे और साज-सामान ऐसे सुसज्जित हैं जिसका वर्णन मेरे वश की बात नहीं है।

'जब बादशाह की सवारी चलती है तो एक उद्घोषक उच्च स्वर में कहता है कि शानदार बादशाह की सवारी आ रही है जिसके महल में एक लाख रत्न जड़े हैं और जिसके पास बीस हजार हीरक जटित मुकुट हैं और जिसके सामने कोई राजा नहीं ठहर सकता चाहे वह * हो या *।'

'पहले उद्घोषक के बोलने के बाद दूसरा उद्घोषक कहता है कि बादशाह के पास चाहे जितना ऐश्वर्य हो मरना तो इसके लिए प्रारब्ध है। इस पर पहला कहता है कि इसे सब लोगों का आशीर्वाद मिलना चाहिए कि यह अनंत जीवन पाए।

'यह बादशाह इतना न्यायप्रिय है कि इसके राज्य में न कोई न्यायाधीश है न कोतवाल। उसकी प्रजा ऐसी सुबुद्ध है कि कोई न किसी पर अन्याय करता है न किसी को दुख पहुँचाता है। चूँकि सब लोग बड़े मेल-मिलाप से रहते हैं इसीलिए कोई जरूरत ही नहीं पड़ती कि व्यवस्था ऊपर से कायम की जाए। इसीलिए सरान द्वीप के राज्य में न सिक्युरिटी या कोतवाल रखे गए हैं न न्यायाधीश।'

खलीफा ने यह सुनकर कहा कि तुम्हारे वर्णन और इस पत्र से जान पड़ता है कि वह बादशाह बड़ा ही समझदार और होशियार है, इसीलिए इतनी अच्छी व्यवस्था कर पाता है कि सिक्युरिटी आदि की आवश्यकता ही न हो। यह कहकर खलीफा ने मुझे खिलअत (सम्मान परिधान) दी और विदा किया।

यह कहानी कहकर सिंदबाद ने कहा कि आप लोग कल फिर आएँ तो मैं अपनी सातवीं और अंतिम समुद्र यात्रा का वर्णन करुँगा। यह कहकर उसने चार सौ दीनारें हिंदबाद को दीं। दूसरे दिन भोजन के समय हिंदबाद आया और सिंदबाद के मुसाहिब भी आए। भोजनोपरांत सिंदबाद ने कहानी शुरू की।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#74
Heart Heart Heart Heart Heart Heart Heart
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#75
अलिफ लैला

सिंदबाद जहाजी की सातवीं यात्रा ~ 





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जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#76
सिंदबाद ने कहा, दोस्तो, मैंने दृढ़ निश्चय किया था कि अब कभी जल यात्रा न करूँगा। मेरी अवस्था भी इतनी हो गई थी कि मैं कहीं आराम के साथ बैठ कर दिन गुजारता। इसीलिए मैं अपने घर में आनंदपूर्वक रहने लगा। एक दिन अपने मित्रों के साथ भोजन कर रहा था कि एक नौकर ने आ कर कहा कि खलीफा के दरबार से एक सरदार आया है, वह आपसे बात करना चाहता है। मैं भोजन करके बाहर गया तो सरदार ने मुझसे कहा कि खलीफा ने तुम्हें बुलाया है। मैं तुरंत खलीफा के दरबार को चल पड़ा।

खलीफा के सामने जा कर मैंने जमीन चूम कर प्रणाम किया। खलीफा ने कहा, 'सिंदबाद, मैं चाहता हूँ कि सरान द्वीप के बादशाह के पत्र के उत्तर में पत्र भेजूँ और उसके उपहारों के बदले उपहार भेजूँ। तुम यह सब ले जा कर सरान द्वीप के बादशाह को पहुँचा दो।'

मुझे यह आदेश पा कर बड़ी परेशानी हुई। मैंने हाथ जोड़ कर कहा, 'हे समस्त *ों के अधिपति, मुझ में आपकी आज्ञा का उल्लंघन करने का साहस तो नहीं है किंतु मैंने समुद्र की कई यात्राएँ की हैं और हर एक में ऐसे ऐसे जानलेवा कष्ट झेले हैं कि अब दृढ़ निश्चय किया है कि कभी जहाज पर पाँव नहीं रखूँगा।' यह कह कर मैंने खलीफा को संक्षेप में अपनी छहों यात्राओं की विपदा सुनाई। खलीफा को यह सब सुन कर आश्चर्य बहुत हुआ किंतु उसने अपना निर्णय न बदला। उसने कहा, 'वास्तव में तुम पर बड़े कष्ट पड़े हैं लेकिन मेरे कहने से एक बार और यात्रा करो क्योंकि इस काम को तुम्हारे अतिरिक्त कोई नहीं कर सकता। फिर तुम कभी यात्रा न करना।'

मैंने देखा कि खलीफा अपने निश्चय से हटनेवाला नहीं है और तर्क-वितर्क से कोई लाभ न होगा इसीलिए मैंने यात्रा पर जाना स्वीकार कर लिया। खलीफा ने मुझे राह खर्च के लिए चार हजार दीनार देने को कहा और कहा कि तुम तुरंत ही अपने घर जाओ और घर की व्यवस्था ठीक करके यात्रा की तैयारी शुरू कर दो। मैं घर जा कर अपने काम- काज को समेटने लगा और यात्रा के लिए तैयारी करके कुछ दिनों के बाद खलीफा के दरबार में जा पहुँचा।

मुझे खलीफा के सामने हाजिर किया गया। मैंने रीति के अनुसार धरती चूम कर खलीफा को प्रणाम किया। खलीफा मुझे देख कर प्रसन्न हुआ और उसने मेरी कुशलक्षेम पूछी। मैंने भगवान की अनुकंपा और खलीफा की दया की प्रशंसा की। खलीफा ने मुझे चार हजार दीनार यात्रा व्यय के लिए दिलाए।

मैं खलीफा की आज्ञानुसार उसके दिए हुए उपहार ले कर बसरा बंदरगाह पर आया और वहाँ से एक जहाज ले कर सरान द्वीप को चल दिया। यात्रा निर्विघ्न समाप्त हुई। मैं सूचना दे कर सरान द्वीप के बादशाह के सामने गया और अपना परिचय दिया। उसने कहा, हाँ सिंदबाद, मैंने तुम्हें पहचान लिया। तुम कुशल-मंगल से तो हो। मैंने बादशाह की न्यायप्रियता और मृदु स्वभाव की प्रशंसा की और कहा कि मैं खलीफा की ओर से आपके लिए कुछ भेंट और एक पत्र लाया हूँ।

खलीफा ने जो उपहार भेजे थे उनमें अन्य वस्तुओं के अतिरिक्त एक अत्यंत सुंदर लाल रंग का कालीन था जिसका मूल्य चार हजार दीनार था। उस पर बहुत ही सुंदर सुनहरा काम किया हुआ था। एक प्याला माणिक का था जिसका दल एक अंगुल मोटा था। प्याले पर एक मनुष्य का चित्र बना था जो तीर-कमान से एक शेर का शिकार कर रहा था। एक राज सिंहासन भी था, जो ऊपर से नीचे तक रत्नों से जड़ा था और हजरत सुलेमान के तख्त को भी मात करता था। इसके अलावा और बहुत-सी मूल्यवान और दुर्लभ वस्तुएँ थीं। उपहारों को देखने के बाद बादशाह ने खलीफा का पत्र पढ़ा।

खलीफा ने अपने पत्र में लिखा था, 'आपको अब्दुल्ला हारूँ रशीद का, जो भगवान की दया से अपने पूर्वजों का उत्तराधिकारी है, प्रणाम पहुँचे। हमें आपका पत्र और आपके भेजे हुए उपहार प्राप्त हुए। हमें इन बातों से बड़ी प्रसन्नता है कि हम आप के उपहारों के बदले में कुछ उपहार आप को भेज रहे हैं। हमें पूर्ण आशा है कि यह पत्र आपकी सेवा में पहुँचेगा और इससे आपको ज्ञात होगा कि आपके लिए हमारे मन में कितना प्रेम हैं।'

सरान द्वीप का बादशाह यह पत्र पढ़ कर बहुत खुश हुआ। अब मैंने विदा माँगी। वह अपनी कृपालुता के कारण मुझे विदा न करना चाहता था किंतु जब मैंने इसके लिए बार - बार अनुनय की तो उसने मुझे खिलअत (सम्मान परिधान) तथा बहुत - सा इनाम दे कर विदा किया। मैं अपने जहाज पर वापस आया और कप्तान से कहा कि मैं शीघ्रातिशीघ्र बगदाद पहुँचना चाहता हूँ। उसने जहाज को तेज चलाया किंतु भगवान की कुछ और ही इच्छा थी। हमारा जहाज चले तीन-चार ही दिन हुए थे कि समुद्री लुटेरों ने आ कर हमें घेर लिया। हम उनका सामना करने में असमर्थ रहे। लुटेरों ने जहाज का सारा सामान भी लूट लिया और हम सब लोगों को भी बंदी बना लिया। हममें से जिन लोगों ने प्रतिरोध करना चाहा उन्हें लुटेरों ने मार डाला। फिर लुटेरों ने हम लोगों के कपड़े उतार कर गुलामों जैसे कपड़े, जो गाढ़े के बने होते हैं, पहनाए और एक दूरस्थ द्वीप में ले जा कर हमें बेच डाला।

मुझे एक मालदार व्यापारी ने खरीद लिया। उसने अपने घर ले जा कर मुझे अपने गुलामों जैसे कपड़े पहनाए और मुझे खाने-पीने को दिया। वह यह तो जानता नहीं था कि मैं कौन हूँ और क्या करता हूँ। उसने एक दिन मुझसे पूछा कि तुम्हें कोई काम आता है या नहीं तब मैंने बताया कि मेरा धंधा व्यापार का था और समुद्री लुटेरों ने हमारा जहाज लूट लिया और हम लोगों को गुलाम बना कर बेच दिया। मालिक ने पूछा कि तुम्हें तीर चलाना आता है या नहीं। मैंने कहा कि बचपन में मैंने इसका अभ्यास किया था और अब भी इसे भूला नहीं हूँगा।

अब मालिक ने धनुष-बाण दे कर मुझे अपने साथ एक हाथी पर बैठाया और नगर से कई दिनों की राह पर स्थित एक बड़े वन में गया। वहाँ एक बड़ा वृक्ष दिखा कर कहा कि इस पर छुप कर बैठो और इधर से जो हाथी निकले तो उसे मारो, जब कोई हाथी शिकार हो जाए तो मुझे आ कर बताओ।

यह कह कर उसने मेरे पास कई दिनों के लिए भोजन रख दिया और स्वयं वापस शहर को चला गया।

मैं वृक्ष पर चढ़ गया। रात भर प्रतीक्षा करता रहा किंतु कोई हाथी न दिखाई दिया। दूसरे दिन सवेरे के समय वहाँ हाथियों का एक झुंड आया। मैंने कई तीर छोड़े और एक हाथी घायल हो कर गिर पड़ा और अन्य हाथी भाग गए। मैं शहर में आया और अपने मालिक को बताया कि मेरे तीर से एक हाथी गिरा है। वह यह सुन कर बहुत प्रसन्न हुआ और उसने तरह-तरह के स्वादिष्ट भोजन मुझे खिलाए। दूसरे दिन हम दोनों उसी जंगल में गए। मालिक के कहने पर मैंने गड्ढा खोद कर हाथी को गाड़ दिया। मालिक ने कहा, जब हाथी सड़ जाए तो उसके दाँत निकाल कर ले आना क्योंकि यह बहुमूल्य वस्तु है।

मैं दो महीने तक यही काम करता रहा। मैं उसी वृक्ष पर चढ़ता-उतरता रहता था। मैंने इस बीच कई हाथियों को निशाना बनाया। एक दिन मैं उस वृक्ष पर चढ़ा था कि हाथियों का एक विशाल समूह आया। वे सब पेड़ को घेर कर खड़े हो गए और अत्यंत भयानक रव करने लगे। वे संख्या में इतने अधिक थे कि सारी धरती काली दिखाई देती थी और उनके पैरों की धमक से भूकंप आ रहा था। उन्होंने मुझे देख लिया था और वे पेड़ को उखाड़ने लगे। यह देख कर मैं डर के मारे अधमरा हो गया। तीर-कमान मेरे हाथ से गिर पड़े। एक बड़े हाथी ने अंतत: सूँड़ लपेट कर उस वृक्ष को उखाड़ ही डाला। मैं धरती पर गिर गया। उसने मुझे उठा कर पीठ पर रख लिया।

मैं मुर्दे की तरह उसकी पीठ पर पड़ा रहा। वह मुझे ले कर एक ओर चला और शेष हाथी उसके पीछे चले। हाथी मुझे एक लंबे-चौड़े मैदान में ले गए और मुझे उतार कर एक ओर चले गए और अदृश्य हो गए। फिर मैं उठा और चारों ओर देखने लगा। कुछ दूर पर मुझे एक बड़ा खड्ढा दिखाई दिया जिसमें हाथियों के अस्थिपंजरों के ढेर लगे थे। अब मैंने सोचा कि हाथी कितना बुद्धिमान जीव होता है। जब हाथियों ने देखा कि मैं उनके दाँतों के लिए ही उनका शिकार करता हूँ तो उन्होंने खुद मुझे यहाँ ला कर यह खड्ड दिखाया और यह इशारा किया कि तुम हमें मत मारो बल्कि यहाँ से जितने चाहो हाथी दाँत ले लो। मालूम होता था कि जब कोई हाथी मृत्यु के निकट होता है तो खड्ड में गिर कर मर जाता है।

मैं वहाँ एक क्षण के लिए ही ठहरा और वापस अपने मालिक के यहाँ पहुँचा। रास्ते में मुझे एक भी हाथी नहीं दिखाई दिया। मालूम होता था कि सभी हाथी उस जंगल को छोड़ कर किसी दूर के जंगल में चले गए थे। मेरा मालिक मुझे देख कर बड़ा प्रसन्न हुआ और कहने लगा, 'अरे अभागे सिंदबाद, तू अभी तक कहाँ था? मैं तो तेरी चिंता में मरा जा रहा था। मैं तुझे ढूँढ़ता हुआ उस जंगल में गया तो देखा कि पेड़ उखड़ा पड़ा है और तेरे तीन-कमान जमीन पर पड़े हैं। मैंने बहुत खोजा किंतु तेरा पता न मिला। मैं तेरे जीवन से निराश हो कर बैठ गया था। अब तू अपना पूरा हाल सुना। तुझ पर क्या बीती और तू अब तक किस प्रकार जीवित बचा है?'

मैंने व्यापारी को पूरा हाल सुनाया। वह उस खड्ड की बात सुन कर बहुत प्रसन्न हुआ। मेरे साथ वह उस खड्ड तक पहुँचा और जितने हाथी दाँत उसके हाथी पर लद सकते थे उन्हें लाद कर शहर वापस आया। फिर उसने मुझ से कहा, 'भाई, आज से तुम मेरे गुलाम नहीं हो। तुमने मेरा बड़ा उपकार किया है, तुम्हारे कारण मेरे पास अपार धन हो जाएगा। मैंने तुम से अभी तक एक बात छुपा रखी थी। मेरे कई गुलाम हाथियों ने मार डाले हैं। जो कोई हाथियों के शिकार को जाता था दो या तीन दिन से अधिक नहीं जी पाता था। भगवान ने तुम्हें हाथियों से बचाया। इससे मालूम होता है कि तुम बहुत दिन जिओगे। इससे पहले बहुत-से गुलाम खो कर भी मैं मामूली लाभ ही पाता था, अब तुम्हारे कारण मैं ही नहीं इस नगर के सारे व्यापारी संपन्न हो जाएँगे। मैं तुम्हें न केवल स्वतंत्र करूँगा बल्कि तुम्हें बड़ी धन-दौलत भी दूँगा और अन्य व्यापारियों से भी बहुत कुछ दिलवाऊँगा।'

मैंने कहा, 'आप मेरे स्वामी हैं। भगवान आपको चिरायु करे। मैं आपका बड़ा कृतज्ञ हूँ कि आपने समुद्री डाकुओं के पंजे से मुझे छुड़ा लिया और मेरा बड़ा भाग्य था कि मैं इस नगर में आ कर बिका। अब मैं आपसे और अन्य व्यापारियों से इतनी दया चाहता हूँ कि मुझे मेरे देश पहुँचा दें।' उसने कहा, 'तुम धैर्य रखो। जहाज यहाँ पर एक विशेष ॠतु में आते हैं और उनके व्यापारी हमसे हाथी दाँत मोल लेते हैं। जब वे जहाज आएँगे तो हम लोग तुम्हारे देश को जाने वाले किसी जहाज पर तुम्हें चढ़ा देंगे।' मैंने उसे सैकड़ों आशीर्वाद दिए।

मैं कई महीनों तक जहाजों के आने की प्रतीक्षा करता रहा। इस बीच मैं कई बार जंगल में गया और हाथी दाँत लाया और इनसे उसका घर भर दिया। व्यापारियों को भी उस खड्ड के बारे में बताया और वे सभी वहाँ से हाथी दाँत ला कर अत्यंत संपन्न हो गए। जहाजों की ॠतु आने पर जहाज वहाँ पहुँचे। मेरे स्वामी व्यापारी ने अपने घर के आधे हाथी दाँत मुझे दे दिए और एक जहाज पर मेरे नाम से उन्हें चढ़ा दिया और अनेक प्रकार की खाद्य सामग्री भी मुझे दे दी। अन्य व्यापारियों ने भी मुझे बहुत कुछ दिया। मैं जहाज पर कई द्वीपों की यात्रा करता हुआ फारस के एक बंदरगाह पर पहुँचा। वहाँ से थल मार्ग से बसरा आया और हाथी दाँत बेच कर कई मूल्यवान वस्तुएँ ली। फिर बगदाद आ गया।

बगदाद आ कर मैं तुरंत ही खलीफा के दरबार में पहुँचा और उससे पत्र और उपहारों को सरान द्वीप के बादशाह के पास पहुँचाने का हाल कहा। खलीफा ने कहा कि मेरा ध्यान सदैव तुम्हारी कुशलता की ओर लगा रहता था और मैं भगवान से प्रार्थना करता था कि तुम्हें सही-सलामत वापस लाए। जब मैंने अपना हाथियोंवाला अनुभव उसे सुनाया तो उसे यह सुन कर बड़ा आश्चर्य हुआ और उसने अपने एक लेखनकार को यह आदेश दिया कि मेरे वृत्तांत को सुनहरे अक्षरों में लिख ले और शाही अभिलेखागार में रखे। फिर उसने मुझे खिलअत और बहुत-से इनाम दे कर विदा किया।

सिंदबाद ने कहा कि मित्रो, इसके बाद मैं किसी यात्रा पर नहीं गया और भगवान के दिए हुए धन का उपभोग करता हूँ। फिर उसने हिंदबाद से कहा कि अब तुम बताओ कि कोई और मनुष्य ऐसा कहीं है जिसने मुझ से अधिक विपत्तियाँ झेली हों। हिंदबाद ने सम्मानपूर्वक सिंदबाद का हाथ चूमा और कहा, 'सच्ची बात तो यह है कि इन सात समुद्र यात्राओं के दौरान जितनी मुसीबत आपने उठाई और जितनी बार प्राणों के संकट से बच कर निकले उतनी किसी की भी शक्ति नहीं है। मैं अभी तक बिल्कुल अनजान था कि अपनी निर्धनता को रोता था और आपकी सुख-सुविधाओं से ईर्ष्या करता था। मैं रूखी-सूखी खाता हूँ किंतु भगवान को लाख धन्यवाद है कि अपने स्त्री-पुत्रों के बीच आनंद से रहता हूँ। ऐसी कोई विपत्ति मुझ पर नहीं आई जैसी विपत्तियाँ आपने उठाई हैं। वास्तव में जो सुख आप भोग रहे हैं आप उससे अधिक के अधिकारी हैं। भगवान करें आप सदैव इसी प्रकार ऐश्वर्यवान और सुखी रहें।'

सिंदबाद ने हिंदबाद को चार सौ दीनारें और दीं और उससे कहा कि तुम अब मेहनत-मजदूरी करना छोड़ दो और मेरे मुसाहिब हो जाओ। मैं सारी उम्र तुम्हारे स्त्री-बच्चों का भरण-पोषण करूँगा। हिंदबाद ने ऐसा ही किया और सारी आयु आनंद से बिताई।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#77
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जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#78
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जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#79
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जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#80
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जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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