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02-08-2019, 08:26 AM
(This post was last modified: 05-08-2019, 10:40 PM by neerathemall. Edited 6 times in total. Edited 6 times in total.)
अलिफ लैला
नूरुद्दीन और पारस देश की दासी की कहानी
अलिफ़ लैला, अलिफ़ लैला , अलिफ़ लैला,
हर शब्द में नयी कहानी, दिलचस्प है बयानी,
सदियाँ गुज़र गयी हैं, लेकिन न हो पुरानी,
अलिफ़ लैला, अलिफ़ लैला , अलिफ़ लैला।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
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अगली सुबह से पहले शहरजाद ने नई कहानी शुरू करते हुए कहा कि पहले जमाने में बसरा बगदाद के अधीन था। बगदाद में खलीफा हारूँ रशीद का राज था और उसने अपने चचेरे भाई जुबैनी को बसरा का हाकिम बनाया था। जुबैनी के दो मंत्री थे। एक का नाम था खाकान और दूसरे का सूएखाकान। खाकान उदार और क्षमाशील था और इसलिए बड़ा लोकप्रिय था। सूएखाकान उतना ही क्रूर और अन्यायी था और प्रजा उससे रुष्ट थी। सूएखाकान अपने सहयोगी मंत्री खाकान के प्रति भी विद्वेष रखता था।
एक दिन जुबैनी ने खाकान से कहा कि मुझे एक दासी चाहिए जो अति सुंदर हो तथा गायन-वादन तथा अन्य विद्याओं में निपुण भी हो। खाकान के बोलने के पहले ही सूएखाकान बोल उठा, ऐसी लौंडी तो दस हजार अशर्फी से कम में नहीं आएगी। जुबैनी ने आँखें तरेर कर कहा, तुम समझते हो दस हजार अशर्फियाँ मेरे लिए बड़ी चीज हैं? यह कह कर उसने खाकान को दस हजार अशर्फियाँ दिलवा दीं। खाकान ने घर आ कर दलालों को बुलाया और उनसे कहा कि तुम जुबैनी के लिए अति सुंदर और सारी विद्याओं, कलाओं में निपुण एक दासी तलाश करो चाहे जितने मोल की हो। सारे दलाल इच्छित प्रकार की दासी ढूँढ़ने में लग गए।
कुछ दिनों बाद एक दलाल खाकान के पास आ कर बोला कि एक व्यापारी ऐसी ही दासी लाया है जैसी आपने कहा था। खाकान के कहने पर दलाल उस व्यापारी को दासी समेत ले आया। खाकान ने आ कर जाँच-परख की तो दासी को हर प्रकार से गुणसंपन्न पाया और जुबैनी की आशा से अधिक सुंदर भी पाया। उसने व्यापारी से उसका दाम पूछा तो उसने कहा, स्वामी, यह रत्न तो अनमोल है। किंतु मैं आप के हाथ मात्र दस हजार अशर्फियों पर बेच दूँगा। इसके लालन-पालन और शिक्षा-दीक्षा पर मैंने बहुत श्रम किया है। यह गायन, वादन, साहित्य, इतिहास और सारी विद्याओं में पारंगत है और अभी तक अक्षत है। मंत्री ने बगैर कुछ कहे दस
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हजार अशर्फियाँ गिनवा दीं।
व्यापारी ने कहा, सरकार, एक निवेदन और है। इसे एक सप्ताह बाद ही हाकिम के पास ले जाएँ। कारण यह है कि यह बहुत दूर की यात्रा से बड़ी क्लांत है और एक हफ्ते के अंदर इसे अच्छा खिलाएँगे-पिलाएँगे और दो बार गरम पानी से नहलाएँगे तो इसका रूप ऐसा निखरेगा कि आप भी इसे पहचान नहीं सकेंगे। खाकान ने यह बात मान ली। उक्त दासी को उसने अपनी पत्नी के सुपुर्द किया और कहा कि इसे एक सप्ताह तक खिलाओ-पिलाओ और दो बार गरम हम्माम में भेजो, फिर मैं उसे जुबैनी के सामने पेश करूँगा। उसने दासी से भी, जिसका नाम हुस्न अफरोज था, कहा, देख, तुझे मैंने अपने स्वामी के लिए मोल लिया है। तू यहाँ आराम से किंतु बड़ी होशियारी से रह। खबरदार, किसी पुरुष से तेरा संसर्ग न हो। खास तौर से तू मेरे जवान बेटे नूरुद्दीन से सावधान रहना। वह दिन में कई बार अपनी माँ के पास आया करता है। हुस्न अफरोज ने खाकान से कहा, सरकार, आपने बहुत अच्छा किया जो मुझे यह चेतावनी दे दी। अब आप इत्मीनान रखिए। आपकी आज्ञा के विरुद्ध कोई बात नहीं होगी।
खाकान इसके बाद दरबार को चला गया। दोपहर के भोजन के समय नूरुद्दीन अपनी माँ के पास आया तो उसने देखा कि उसकी माँ के पास एक कंचनवर्णी, मृगनयनी, गजगामिनी षोडशी बैठी है। सौंदर्य की इस प्रतिमूर्ति को देखते ही उसका हृदय उस दासी के लिए बेचैन हो गया। उसके पूछने पर उसकी माँ ने बताया कि इस दासी को जो पारस देश से आई है, तुम्हारे पिता ने बसरा के हाकिम जुबैनी की सेवा के लिए खरीदा है। इसके बावजूद नूरुद्दीन उससे अपना मन न हटा सका और ऐसी तरकीब सोचने लगा जिससे वह दासी उसके हत्थे चढ़ जाए। नूरुद्दीन अत्यंत सुंदर था। इसलिए हुस्न अफरोज भी भगवान से प्रार्थना करने लगी कि कोई ऐसी बात हो जाए जिससे मैं हाकिम के बजाय इसी सजीले नौजवान के पास रह सकूँ।
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उस दिन से नूरुद्दीन ने यह नियम बना लिया कि अक्सर अपनी माँ के पास आता और हुस्न आफरोज से आँखों-आँखों में बातें करता। हुस्न अफरोज भी खाकान की पत्नी की आँख बचा कर नूरुद्दीन से प्रेमपूर्वक आँखें मिलाती और संकेत ही में अपने हृदय की अभिलाषा कहती। यह मौन दृष्टि-विनिमय कब तक छुपाता। नूरुद्दीन की माँ उसका इरादा समझ गई और उससे बोली, प्यारे बेटे, अब भगवान की दया से तुम जवान हो गए हो। अब तुम्हारे लिए उचित नहीं है कि स्त्रियों में अधिक बैठो। तुम दोपहर का भोजन कर के तुरंत बाहर मरदाने में चले जाया करो। नूरुद्दीन ने विवशता में यह मान लिया।
दो दिन बाद खाकान की पत्नी ने कुछ दासियों के साथ हुस्न अफरोज को हम्माम में भेजा। उन्होंने उसे गरम पानी से मल-मल कर नहलाया और फिर नए सुनहरे कपड़े पहनाए। जब वह खाकान की पत्नी के पास आई तो बुढ़िया उसे न पहचान सकी और बोली, बेटी, तुम कौन हो? कहाँ से आई हो? उसने हँस कर कहा, मैं आपकी दासी हुस्न अफरोज हूँ, केवल स्नान कर के आई हूँ। आपने जो दासियाँ मेरे साथ भेजी थीं वे भी कह रही थीं कि तुम स्नान के बाद इतनी अच्छी हो गई हो कि पहचानी नहीं जातीं। खाकान की पत्नी ने कहा, सचमुच तुम पहचानी नहीं जातीं। दासियों ने यह बात तुम्हारी खुशामद में नहीं कही थी। मैं भी तो तुम्हें नहीं पहचान सकी। अच्छा, यह बताओ कि हम्माम में अभी कुछ गरम पानी बचा है या तुमने सब खर्च कर डाला। मैंने भी बहुत दिन से नहीं नहाया है और नहा कर तरोताजा होना चाहती हूँ। हुस्न अफरोज ने कहा, जरूर नहाइए। अभी काफी गरम पानी हम्माम में मौजूद है।
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खाकान की पत्नी ने हम्माम में जाने से पहले दो दासियों को हुस्न अफरोज की रक्षा के लिए नियुक्त किया और कहा कि इस बीच अगर नूरुद्दीन आए और हुस्न अफरोज के पास जाने का प्रयत्न करें तो तुम उसे ऐसा न करने देना। यह कह कर वह हम्माम में चली गई और मल-मल कर नहाने लगी। संयोग से उसी समय नूरुद्दीन आ गया। उसने देखा कि माँ अभी हम्माम से देर तक नहीं निकलेगी, यह अच्छा मौका है। वह हुस्न अफरोज का हाथ पकड़ कर उसे एक कमरे में ले जाने लगा। दासियों ने उसे बहुत रोका लेकिन वह कहाँ माननेवाला था। उसने दोनों दासियों को धक्के देते हुए महल के बाहर निकाल दिया और खुद हुस्न अफरोज को ले कर कमरे में चला गया और द्वार अंदर से बंद कर लिया। हुस्न अफरोज तो स्वयं उस पर मुग्ध थी, दोनों ने प्रेम मिलन का खूब आनंद लूटा।
जिन दासियों को उसने धकिया कर निकाला था वे रोती-पीटती हम्माम के दरवाजे पर पहुँचीं और मालकिन का नाम ले कर गुहार करने लगीं। खाकान की पत्नी ने पूछा तो दोनों ने सारा हाल बताया। वह घबराहट के मारे काँपने लगी और बगैर नहाए ही अपने महल में आ गई। इतनी देर में नूरुद्दीन भोग-विलास कर के महल से बाहर जा चुका था।
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खाकान की पत्नी को सिर पीटते देख कर हुस्न अफरोज को आश्चर्य हुआ। उसने पूछा, मालकिन, ऐसी क्या बात हो गई? आप इतनी व्याकुल क्यों हैं। ऐसा क्या हुआ कि आप बगैर स्नान किए ही आ गईं। उसने दाँत पीस कर कहा, कमबख्त, तू मुझ से पूछती है कि क्या हुआ? तुझे नहीं मालूम है कि क्या हुआ? मैंने तुझे बताया नहीं था कि तू जुबैनी की सेवा के लिए खरीदी गई है? फिर तूने नूरुद्दीन को अपने पास क्यों आने दिया? हुस्न अफरोज ने कहा, मालकिन माँ, इसमें क्या गलती की है मैंने? यह ठीक है कि सरकार ने मुझे बताया था कि मैं हाकिम के लिए खरीदी गई हूँ किंतु इस समय आपके पुत्र ने मुझसे कहा था कि मेरे पिता ने तुम्हें मेरी सेवा में दे दिया है और तुम्हें बसरा के हाकिम के पास नहीं भजेंगे। अब जब मैं उनकी हो ही गई तो उन्हें क्यों रोकती? फिर सच्ची बात है कि उन्हें जब से देखा था मेरा मन उनसे मिलने को लालायित था। मैं खुद ही चाहती हूँ कि जीवन भर उनकी चरण सेवा करूँ और बसरा के हाकिम जुबैनी का कभी मुँह न देखूँ।
खाकान की पत्नी बोली, हृदय तो मेरा भी इसी में प्रसन्न होगा कि तू नूरुद्दीन के पास रहे। किंतु उस लड़के ने झूठ बोला है। मुझे तो डर यह है कि मंत्री जब यह सुनेंगे तो उसे मरवा डालेंगे। अब मैं रोऊँ नहीं तो क्या करूँ? इतने में मंत्री भी आ गया। उसने पत्नी से रोने का कारण पूछा।
मंत्री की पत्नी ने कहा, सच्ची बात छुपाने से कोई लाभ नहीं। मैं हम्माम में नहाने गई थी इसी बीच तुम्हारे इकलौते पुत्र ने यह कह कर इस लौंडी को खराब कर डाला कि तुमने वह लौंडी उसे दे दी थी। तुमने उसे लौंडी दी है या नहीं?
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खाकान यह सुन कर सिर पीटने लगा और चिल्ला-चिल्ला कर कहने लगा इस बदमाश लड़के ने हम सब का नाश कर दिया। हाकिम जुबैनी के लिए ली हुई अक्षत दासी को खराब कर दिया। मेरी सारी प्रतिष्ठा मिट्टी में मिला दी। और सिर्फ अपमान की ही बात नहीं है। हाकिम को यह मालूम होगा तो वह मुझे भी मरवा डालेगा और उस अभागे को भी। उसकी पत्नी ने कहा, स्वामी, जो हो गया उस पर अफसोस करने से क्या लाभ? मैं अपने सारे जेवर उतारे देती हूँ। इन्हें बेचने पर दस हजार अशर्फियाँ तो मिल ही जाएँगी। तुम उनसे दूसरी दासी खरीद लेना और हाकिम को दे देना।
मंत्री ने कहा, क्या तुम समझती हो कि मैं दस हजार अशर्फियों के लिए रो रहा हूँ या इतनी रकम खुद खर्च नहीं कर सकता? मुझे दुख इस बात का है कि मेरी प्रतिष्ठा खतरे में है। सूएखाकान जरूर हाकिम से कह देगा कि मैंने जो दासी हाकिम के लिए खरीदी थी वह अपने बेटे को दे डाली। उसकी पत्नी ने कहा, सूएखाकान निस्संदेह तुम्हारा शत्रु है किंतु हमारे घर के अंदर का हाल उसे क्या मालूम? फिर अगर कोई चुगली भी करे तो तुम हाकिम से कह देना कि मैंने आपके लिए एक दासी खरीदी जरूर थी किंतु उसकी शरीर-परीक्षा से ज्ञात हुआ कि वह आपके योग्य नहीं थी। इस तरह सूएखाकान की शिकायत का कोई प्रभाव नहीं रहेगा। इधर तुम फिर दलालों को बुलवाओ और नई सर्वगुण संपन्न दासी लाने के लिए कहो।
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पत्नी के समझाने से मंत्री को ढाँढ़स बँधा। उसका नूरुद्दीन पर उतना क्रोध न रहा किंतु वह उसे क्षमा भी नहीं कर सका। नूरुद्दीन अपने पिता से छुप कर रात के समय महल में आता और सुबह पिता के जागने के पहले बाहर चला जाता। फिर भी उसकी माँ को यह भय और चिंता लगी रहती थी कि कभी मंत्री ने नूरुद्दीन को देखा तो उसका क्रोध फिर भड़क उठेगा और वह उसे जरूर मार डालेगा। उसने एक दिन अपने पति से यह बात पूछी तो उसने कहा कि मैं पाऊँगा तो जरूर उसे मार डालूँगा। पत्नी ने कहा, देखो, वह तुम्हारा इकलौता बेटा है। जवानी में आदमी से भूल हो ही जाती है। उससे भी हो गई। रही यह बात कि उसे अपने अपराध की गंभीरता का पता चल जाए तो उसकी तरकीब मैं बताती हूँ। तुम उसे पकड़ लेना और मारने के लिए तलवार निकाल लेना। फिर मैं तुम्हारी खुशामद कर के उसे छुड़ा लूँगी। मंत्री को यह सुझाव पसंद आया।
दूसरे दिन सवेरे पत्नी के इशारे पर मंत्री ने दरवाजे पर जा कर नूरुद्दीन को धर दबोचा और तलवार निकाल कर उसे मारने के लिए उठाई। तभी उसकी पत्नी ने आ कर उसका हाथ पकड़ लिया और बोली, तुम इसे मारना ही चाहते हो तो पहले मुझे मार डालो। नूरुद्दीन ने भी गिड़गिड़ा कर प्राण-भिक्षा माँगी और कहा कि इतने-से कसूर पर आप मेरी जान लेंगे तो कयामत में खुदा को क्या जवाब देंगे? मंत्री ने तलवार फेंक कर कहा, तुम मेरे नहीं, अपनी माँ के पाँवों पर गिरो, उसी के कहने पर मैंने तुम्हें छोड़ा है। मैं तुम्हें हुस्न अफरोज भी देता हूँ लेकिन खबरदार उसके साथ ब्याहता का व्यवहार करना, दासी का नहीं। और उसे किसी दशा में न बेचना।
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इसके बाद नूरुद्दीन आनंदपूर्वक हुस्न अफरोज के साथ रहने लगा और मंत्री भी उन दोनों की परस्पर प्रीति देख कर प्रसन्न हुआ और संतोष से रहने लगा। जुबैनी के सामने उसने दासी के बारे में वही कह दिया जो उसकी पत्नी ने कहा था।
इसके एक वर्ष बाद की बात है। मंत्री ने गरम पानी से देर तक स्नान किया किंतु अचानक कुछ ऐसा काम आ पड़ा कि वह बाहर निकल आया। गर्मी से अचानक सर्दी में आ जाने के कारण वह बीमार हो गया और उसका रोग बढ़ता गया। अपना अंत समय निकट देख कर नूरुद्दीन से, जो उसकी परिचर्या के लिए बराबर उसके पास रहता था, कहा, मैंने पहले भी कहा था और अब फिर कहता हूँ कि हुस्न अफरोज को प्यार से रखना और उसे कभी बेचना नहीं। इसके बाद उसने शरीर छोड़ दिया।
नूरुद्दीन ने उसकी बड़ी धूमधाम से अंत्येष्टि की और चालीस दिन तक बाप का मातम किया। इसी बीच उसने किसी मित्र आदि को अपने पास आने की अनुमति नहीं दी। फिर धीरे-धीरे उसके मित्र उसे तसल्ली देने के लिए आने लगे और कुछ दिनों में मित्रों के आने का ताँता लग गया। नूरुद्दीन अल्पवयस्क और अनुभवहीन था। उसके मित्रों ने इस बात का अनुचित लाभ उठाया। उन्होंने रासरंग के सुझाव दिए और नूरुद्दीन ने दोनों हाथों से धन लुटाना आरंभ किया और उसके मित्र धन से अपना घर भरने लगे। एक दिन हुस्न अफरोज ने उसे समझाया, तुमने अपने कमीने मित्रों पर बहुत कुछ लुटा दिया, अब चेत जाओ और यह फिजूलखर्चियाँ बंद कर दो। नूरुद्दीन हँस कर बोला, क्या बात करती हो? क्या मेरे पिता मरने पर अपने साथ ले गए और क्या मैं ले जाऊँगा? फिर जीवन में आनंद लेने के लिए अपने धन का प्रयोग क्यों न करूँ?
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दो-चार दिन बाद उसका गृह-प्रबंधक उसके पास आया और बही-खाता खोल कर उसे सारी स्थिति बताने के बाद उससे बोला, आप ने इस थोड़े ही समय में बहुत अधिक खर्च कर दिया है। आपके स्वामिभक्त सेवकों से आपकी यह बरबादी नहीं देखी जाती। इसलिए उनमें से बहुत-से लोग काम छोड़ कर चले गए हैं। यही हाल रहा तो मैं भी अधिक दिनों तक आपकी सेवा नहीं कर सकूँगा। या तो आप अपने अपव्यय को रोकिए या मेरा हिसाब साफ कर मुझे विदा कीजिए।
प्रबंधक के लाख समझने पर भी नूरुद्दीन ने अलल्ले-तलल्ले नहीं छोड़े। उसके मित्र उसे पहले से अधिक लूटने लगे। कभी कोई आता और कहता, आपका अमुक बाग और उसमें बना मकान मुझे बहुत भा गया है। आपको तो कोई कमी नहीं, आप उसे मुझे दे दीजिए। और मूर्ख नूरुद्दीन उसके नाम वह बाग और उसके अंदर का मकान लिख देता। इसी प्रकार कोई उसके अरबी घोड़े या विशालकाय हाथी की प्रशंसा करता और नूरुद्दीन उसे भी दे डालता। कुछ ही दिनों में यह हाल हो गया कि उसके पास अपने रहने के महल के अलावा और कुछ नहीं रहा।
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अब उसके मित्र उससे कन्नी काटने लगे। वे उसके पास नहीं आते थे। अकेलेपन से घबरा कर वह किसी को बुलाता तो वह न आता और अगर आता भी तो दो-चार मिनट बैठ कर चला जाता। कभी-कभी कोई मित्र घर ही से पत्नी की बीमारी का या इसी प्रकार का कोई और कुछ बहाना बना लेता। इसी प्रकार मित्रों की उदासीनता से आश्चर्यान्वित हो कर उसने एक दिन हुस्न अफरोज से इस बात का उल्लेख किया। उसने कहा, प्रियवर, मैंने तो पहले ही कहा था कि यह सारे आदमी स्वार्थी हैं।
बात मित्रों की उदासीनता तक ही नहीं रही। आमदनी तो कुछ भी नहीं थी। धीरे-धीरे घर का सामान और दास-दासियाँ बिक गए। वेतनभोगी सेवक पहले ही चले गए थे। अब घर में खाने को भी कुछ नहीं रहा। दो दिन तक उपवास हुआ तो तीसरे दिन हुस्न अफरोज आँखों में आँसू भर कर बोली, प्रियतम, अब इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है कि तुम मुझे बाजार में बेच दो। और जो मिले उससे भाग्य आजमाओ। नूरुद्दीन ने कहा, तुम्हें बेचना तो असंभव है। किंतु मुझे कुछ मित्रों से आशा है, वह इस आड़े समय में मेरी सहायता अवश्य करेंगे। हुस्न अफरोज बोली, यह तुम्हारा ख्याल ही ख्याल है। तुम्हारे मित्रों में कोई भी तुम्हारा हितचिंतक नहीं था। नूरुद्दीन ने कहा, ऐसी बात नहीं है। तुम क्या जानो कि वह लोग कैसे हैं? वह चुप हो रही। नूरुद्दीन सवेरे उठ कर एक मित्र के घर कुछ कर्ज माँगने के लिए गया। दरवाजे पर आवाज देने पर एक दासी बाहर निकली। नूरुद्दीन ने उसे अपना नाम बताया। उसने कहा, आप अंदर जा कर बैठें, मैं अभी खबर करती हूँ। उसे बिठा कर दासी ने अपने मालिक से कहा कि नूरुद्दीन आपसे मिलने आए हैं। मालिक ने क्रुद्ध हो कर कहा, तुमने उसे अंदर क्यों बिठाया। अब जा कर उससे कह दे मालिक घर पर नहीं हैं।
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नूरुद्दीन ने यह वार्तालाप सुन लिया। दासी ने बाहर आ कर लज्जित स्वर में मालिक की अनुपस्थिति की बात कहीं। नूरुद्दीन चुपचाप उठ आया। वह मन में सोचने लगा कि यह आदमी तो बड़ा ही दुष्ट निकला। कल तक मेरी प्रशंसा के पुल बाँधा करता था, मेरे ही मकान में रहता है और अब मुझसे हीं नही मिल रहा है। वह एक और मित्र के यहाँ गया जो पहले मित्र से कुछ कम धनवान था। वहाँ भी उसके साथ वही व्यवहार हुआ। इस तरह एक-एक कर के अपने दस मित्रों के घरों पर नूरुद्दीन गया किंतु किसी मित्र ने उससे बात भी न की, सहायता देना तो दूर की बात थी।
वह बेचारा अत्यंत आहत हो कर घर आया और अपनी प्रेयसी के सामने फूट पड़ा। आँसू बहाते हुए बोला, कैसी नीच है ये दुनिया। यही लोग कल तक मेरी जूतियाँ सीधी करने में गर्व का अनुभव करते थे और आज यह हाल है कि मुझ से कोई बात भी नहीं करना चाहता। मेरा हाल तो फलदार वृक्ष जैसा हो गया। जब तक फलों से लदा था सभी आदमी मेरे आसपास घूमा करते थे, अब कोई पास भी नहीं फटकता।
हुस्न अफरोज ने कहा, तुम्हें अब यह मालूम हुआ हैं। मैं तो शुरू ही से उनके रंग-ढंग से जानती थी कि वे सब महास्वार्थी हैं। मैं इसीलिए तुम्हें समझाया करती थी कि उनका साथ न करो।
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खैर अब पिछली बातों का क्या रोना, अब यह सोचना है कि आगे क्या होगा। अब तो घर में भी कोई ऐसा सामान नहीं है जो बेच सको और दास-दासी तो तुम पहले ही बेच चुके हो। मकान बेच दोगे तो हम लोग रहेंगे कहाँ। इसलिए ऐसा करो कि मुझे दासों की मंडी में ले चलो। तुम्हें याद होगा कि तुम्हारे पिता ने मुझे दस हजार अशर्फियों में खरीदा था। अब मेरा इतना तो मोल नहीं होगा किंतु इससे आधे को जरूर बिक जाऊँगी। तुम उससे व्यापार करो और जब तुम्हारे पास व्यापार से पैसा आ जाए तो मुझे फिर खरीद लेना।
नूरुद्दीन ने रोते हुए कहा, एक तो मैं तुम्हें अपनी जान से ज्यादा चाहता हूँ फिर मैंने पिता को उनके अंत समय में वचन दिया है कि किसी भी दशा में तुम्हें नहीं बेचूँगा। हुस्न अफरोज ने कहा, प्रियतम, तुम ठीक कहते हो। मैं भी तुम्हें अपनी जान से ज्यादा चाहती हूँ। किंतु हमारे धर्म के अनुसार विपत्ति पड़ने पर प्रतिज्ञा तोड़ी भी जा सकती है। जैसी विपत्ति तुम पर है उसमें तुम और क्या कर सकते हो।
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अब नूरुद्दीन मजबूर हो कर हुस्न अफरोज को ले कर बाजार में गया। पुराने दलाल को बुला कर उसने कहा, कई वर्ष हुए मेरे पिता के हाथ तुमने एक फारस देश की दासी दस हजार अशर्फियों में बेची थी। अब मैं उसे बेचना चाहता हूँ। तुम उसके लिए खरीदार देखो। दलाल ने उसकी बात मान कर हुस्न अफरोज को एक मकान में बंद कर के बाहर ताला डाल दिया जैसे बिकनेवाले दास-दासियों के साथ करते हैं। फिर वह दासों को खरीदनेवाले व्यापारियों के पास गया। उन व्यापारियों ने कई देशों तथा यूनान, फ्रांस, अफ्रीका आदि की दासियाँ मोल ले रखी थीं।
दलाल ने उन से कहा, तुम लोगों ने देश-देश की दासियाँ ले रखी हैं किंतु मैं फारस देश की ऐसी दासी तुम्हें दिखाऊँगा जिसके सामने कोई नहीं ठहरेगी। तुम लोगों ने विद्वानों का यह कथन तो सुना ही होगा कि हर गोल चीज सुपारी नहीं होती, हर चपटी चीज अंजीर नहीं होती, हर लाल चीज मांस नहीं होती और हर सफेद चीज अंडा नहीं होती। इसी तरह यह दासी जो चीज है वह कोई और दासी नहीं हो सकती।
दलाल के साथ जा कर व्यापारियों ने हुस्न अफरोज को देखा। वे कहने लगे कि इसमें संदेह नहीं कि ऐसी सुंदर और बुद्धिमती दासी हमने और कहीं नहीं देखी लेकिन हम सब मिल कर इसे खरीदेंगे और इसका मोल चार हजार अशर्फी लगाएँगे, इससे अधिक देना हमारे वश की बात नहीं है। यह कह कर वे मकान के बाहर आ कर खड़े हो गए। दलाल भी मकान बंद करने के बाद सौदेबाजी करने के लिए उनके पास आया। इसी बीच दुष्ट मंत्री सूएखाकान की सवारी उधर से निकली। उसने पूछा कि यह भीड़ कैसी है। दलाल ने कहा कि यह सब एक दासी लेने के लिए आए हैं और उसका मोल चार हजार अशर्फी लगा रहे हैं। सूएखाकान ने कहा, मुझे भी एक अच्छी लौंडी चाहिए। तुम मुझे वह दासी दिखाओ।
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दलाल ने वजीर को मकान में ले जा कर हुस्न अफरोज को दिखाया। वजीर ने कहा कि मैं चार हजार अशर्फी इसके लिए दूँगा, अगर कोई और इससे अधिक लगाए तो ले जाए। लेकिन इसके साथ ही उसने संकेत ही से सारे व्यापारियों से कह दिया कि खबरदार इसका अधिक मूल्य न लगाना इसलिए वे चुपचाप खड़े रहे। दलाल ने कहा, मैं इसके मालिक को जा कर बताता हूँ कि आपने इसके लिए चार हजार अशर्फियों का दाम लगाया है। अगर वह इस मूल्य पर बेचने को तैयार हो तो आप निस्संदेह दाम दे कर इसे अपने घर ले जाएँ।
इसके बाद दलाल नूरुद्दीन के पास आ कर बोला, मुझे खेद है कि आपकी दासी उचित से कम मूल्य पर बिक रही है। मैंने व्यापारियों को उसे दिखाया तो वे उसका चार हजार अशर्फी मूल्य देने को तैयार हो गए। मैं इस फिक्र में था कि कुछ देर और प्रतीक्षा करूँ, संभव है कोई आदमी उसका पाँच छह हजार देने के लिए तैयार हो जाए। उसी समय वजीर सूएखाकान की सवारी निकल रही थी। भीड़ देख कर उसने पूछा कि क्या बात है। यह मालूम होने पर कि एक अच्छी दासी बिक रही है उसने उसे देखना चाहा और देखने पर उसके लिए चार हजार अशर्फियाँ लगा दीं।
साथ ही अन्य व्यापारियों को भी इशारा कर दिया कि इससे अधिक दाम न लगाना। अब बोलो, तुम क्या कहते हो?
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नूरुद्दीन ने कहा, सूएखाकान हमारे कुटुंब का पुराना दुश्मन है। मुझे यह बिल्कुल मंजूर नहीं कि किसी भी कीमत पर उसके हाथों अपनी प्रिय दासी बेचूँ। दलाल ने कहा, वैसे तो वही उसके कुछ अधिक दाम लगा सकता है और मैं उसके हाथ दासी बेचने को विवश हो जाऊँगा। लेकिन अगर तुम वास्तव में उसे किसी दाम पर न बेचना चाहो तो सिर्फ एक तरकीब है। मैं उसे वजीर के हाथ में देने लगूँ तो तुम उसी समय आ जाना और दासी के मुँह पर झूठ-मूठ का थप्पड़ मार कर उसे अपनी ओर घसीट लेना और कहना कि मुझे एक बात पर इस दासी पर क्रोध आ गया था और मैंने प्रतिज्ञा की थी कि बाजार में खड़े-खड़े तेरा सौदा कर दूँगा। वह सौदा हो गया और मेरी प्रतिज्ञा पूरी हो गई। अब मैं इसे बेचना नहीं चाहता और किसी दाम पर भी इसे नहीं बेचूँगा। नूरुद्दीन ने दलाल की बात बड़ी खुशी से मंजूर कर ली और चुपके-चुपके उसके पीछे दास-दासियों के बाजार में पहुँच गया।
जिस समय दलाल दासी का हाथ सूएखाकान के हाथ में देने लगा तभी नूरुद्दीन बीच में आ गया। हुस्न अफरोज का दूसरा हाथ पकड़ कर उसने अपनी ओर उसे खींचा और उसके मुँह पर दो तमाचे हलके से मार कर कहा, तू जाती कहाँ है? वह तो तेरी बदतमीजी और आज्ञा न मानने पर मैंने तूझे बेच देने को कहा था। अब तेरी बिक्री हो चुकी। तू सीधी तरह से घर चल। यह कह कर नूरुद्दीन उसे घसीटता हुआ अपने घर की ओर ले चला। सूएखाकान कुछ देर तक इस आकस्मिक घटना के कारण स्तंभित-सा रहा क्योंकि उसे यह भी नहीं मालूम था कि लौंड़ी नूरुद्दीन की संपत्ति है। फिर वह अपमान के कारण क्रोध में जल उठा और घोड़ा दौड़ा कर उसने रास्ते में नूरुद्दीन को जा पकड़ा।
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उसने नूरुद्दीन के एक कोड़ा मारना चाहा लेकिन नूरुद्दीन पहले से होशियार था। उसने कोड़े का वार बचा कर सूएखाकान का हाथ पकड़ कर उसे घोड़े से नीचे खींच लिया। अब दोनों में मल्लयुद्ध होने लगा। वजीर बूढ़ा था और नूरुद्दीन जवान। उसने वजीर को उठा-उठा कर कई बार जमीन पर पटका और खूब रगड़े दिए। बाजार के सारे लोग तमाशा देखने खड़े हो गए। चूँकि सभी सूएखाकान से नाराज थे इसलिए सभी चुपचाप उसकी दुर्दशा देखते रहे और किसी ने सूएखाकान की सहायता नहीं की। यहाँ तक कि जब वजीर के नौकर बचाने के लिए बढ़े तो वहाँ उपस्थित लोगों ने उन्हें यह कह कर रोक दिया, तुम लोग इन दोनों के बीच में न पड़ो। तुम्हें मालूम नहीं कि यह नौजवान भी मंत्री-पुत्र है, दिवंगत मंत्री खाकान का पुत्र है। इसलिए वे भी डर कर रुक गए।
नूरुद्दीन ने बूढ़े वजीर की दुर्गति कर दी। उसके शरीर से कई जगह खून निकल आया और उसके सारे वस्त्र और शरीर के सारे अंग खून और मिट्टी से सन गए और वह बेदम-सा हो कर एक ओर गिर रहा। नूरुद्दीन हुस्न अफरोज को ले कर अपने घर को चला गया। सूएखाकान वैसे ही लहू और मिट्टी से सने कपड़े और बदन ले कर हाकिम जुबैनी के पास पहुँचा। उसे वजीर को ऐसी दशा में देख कर आश्चर्य हुआ और वह बोला, तुम्हें किसने मारा? सूएखाकान ने हाथ जोड़ कर कहा, सरकार, पुराने मंत्री खाकान के बेटे नूरुद्दीन ने मेरी यह दुर्दशा की है। जुबैनी ने विस्तृत विवरण चाहा तो सूएखाकान ने कहा –
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‘मैं आज बाजार की तरफ से निकला तो एक जगह भीड़ देखी। पूछने पर मालूम हुआ कि एक दासी बिक रही है। मुझे भी गृह-कार्य के लिए एक दासी की जरूरत थी इसलिए मैं भी रुक गया। दासी के देखने पर मुझे वह आपकी सेवा के उपयुक्त मालूम हुई इसलिए मैंने चार हजार अशर्फी पर उसका सौदा कर लिया। इतने में नूरुद्दीन आ गया और बोला कि मैं अपनी दासी तुम्हारे हाथ नहीं बेचूँगा। मैंने उसे बहुत समझाया कि मैं यह दासी अपने लिए नहीं बल्कि हाकिम के लिए खरीद रहा हूँ लेकिन उसने मेरी एक न सुनी। आपको भी भला-बुरा कहा और मुझे मार-पीट कर दासी को ले गया।
‘सरकार, आप को याद होगा कि तीन-चार बरस पहले आपने खाकान को दस हजार अशर्फियाँ एक सर्वगुण-संपन्न दासी खरीदने के लिए दी थीं। उसने इसी धन से यह दासी खरीद कर अपने बेटे को दे दी। तब से वह दासी उसी के पास है। पिता के मरने के बाद नूरुद्दीन ने अपनी सारी संपत्ति भोग-विलास में उड़ा दी। अब उसके पास अपने एक मकान और इस लौंडी के अलावा कुछ नहीं है। भूख से तंग आ कर वह अपनी उस दासी को बेच रहा था किंतु मुझ से दुश्मनी होने के कारण उसने मेरे साथ यह किया।’
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हाकिम जुबैनी को पुरानी बात याद आ गई और वह गुस्से में भर गया। उसने वजीर सुएखाकान को विदा किया और अपने एक सरदार को आज्ञा दी कि चालीस सिपाहियों को ले कर जाओ, नूरुद्दीन और उसकी दासी को बाँध कर यहाँ लाओ और उसके मकान को खुदवा कर भूमि को समतल कर दो। यह सरदार नूरुद्दीन के पिता से बड़ा उपकृत था। वह छुप कर अकेला उसके घर पर पहुँचा और उसे हाकिम की आज्ञा को बता कर कहा, यह चालीस अशर्फियाँ लो। इस समय मेरे पास इतना ही है। तुम तुरंत दासी को ले कर कहीं भाग जाओ वरना जान से हाथ धोओगे। मैं भी भागता हूँ, कोई मुझे यहाँ देख कर हाकिम से कह देगा तो मैं भी मारा जाऊँगा।
यह कह कर सरदार उसी तरह छुप कर चला गया। इधर नूरुद्दीन ने जा कर हुस्न अफरोज को यह सब बताया और उसे ले कर मकान के पिछवाड़े की दीवार फलाँग कर नदी के तट पर भागता हुआ पहुँचा। संयोग से उसी समय एक छोटा जहाज बगदाद जाने के लिए लंगर उठा रहा था। नूरुद्दीन और दासी के सवार होते ही जहाज ने लंगर उठा दिया और बगदाद को चल पड़ा।
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उधर कुछ देर बाद वही सरदार अपने साथ सशस्त्र सैनिकों को ला कर नूरुद्दीन का दरवाजा ऐसे क्रोध से खटखटाने लगा जैसे वास्तव में उसे गिरफ्तार करने आया हो। दरवाजा न खुलने पर उसने उसे तुड़वा दिया और अंदर जा कर सिपाहियों को मकान की तलाशी लेने और नूरुद्दीन और उसकी दासी को पकड़ने की आज्ञा दी। सिपाहियों ने मकान में न कोई सामान पाया न कोई आदमी।
उसने पड़ोसियों से पूछा कि नूरुद्दीन कहाँ है। उनमें दो-एक को मालूम था कि वह पिछवाड़े से भाग गया है किंतु सभी लोग उसे चाहते थे इसलिए बोले कि हम लोगों को बिल्कुल नहीं मालूम कि वह कहाँ गया। सरदार ने हाकिम से जा कर सारा हाल कहा तो उसने कहा कि उसका घर गिरवा कर समतल कर दो। और शहर में मुनादी करवा दो कि जो नूरुद्दीन को पकड़ कर लाएगा उसे एक हजार अशर्फियों का इनाम मिलेगा और अगर कोई उसे या उसकी दासी को शरण देगा तो उसे तथा उसके कुटुंबियों को मृत्यु-दंड दिया जाएगा। अतएव ऐसा ही किया गया।
उधर नूरुद्दीन का जहाज बगदाद पहुँचा तो कप्तान ने यात्रियों को समझाया कि यह नगर अद्भुत है, यहाँ क्षण मात्र में गरीब अमीर बन जाता है और अमीर गरीब इसलिए यहाँ परदेशियों को सावधान रहना जरूरी है। खैर, बगदाद पहुँच कर अन्य व्यापारी तो अपने-अपने ठिकानों पर गए, नूरुद्दीन ने कप्तान को पाँच अशर्फियाँ किराए में दीं और हुस्न अफरोज को ले कर उतरा। उसके लिए यह नगर नितांत अपरिचित था और उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि किस जगह ठहरे। दोनों बहुत देर तक भटकने के बाद एक बाग में पहुँचे जो नदी के तट पर था और जिसका द्वार खुला था। यहाँ बहुत देर तक बाग के कुंड में हाथ-पाँव धोने और जल पीने के बाद वे एक दालान में जा बैठे। वे दोनों बहुत थक गए थे इसलिए लेट गए और लेटते ही सो गए।
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