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साहित्य
#21
महात्मा गोरखनाथ ही ऐसे पहले ब्राह्मण हैं, जिन्होंने संस्कृत का विद्वान् होने पर भी हिन्दी भाषा के गद्य और पद्य में धाार्मिक ग्रन्थ निर्माण किये। जनता पर प्रभाव डालने के लिए उसकी बोल-चाल की भाषा ही विशेष उपयोगिनी होती है। सिध्द लोगों ने इसी सूत्रा से बहुत सफलता लाभ की थी, इसलिए महात्मा गोरखनाथ जी को भी अपने सिध्दान्तों के प्रचार के लिए इस मार्ग का अवलम्बन करना पड़ा। उनके कुछ पद्य देखिए-

आओ भाई धारिधारि जाओ , गोरखबाला भरिभरि लाओ।

झरै न पारा बाजै नाद , ससिहर सूर न वाद विवादड्ड 1 ड्ड

पवनगोटिकारहणिअकास , महियलअंतरिगगन कविलास।

पयाल नी डीबीसुन्नचढ़ाई , कथतगोरखनाथ मछींद्रबताईड्ड 2 ड्ड

चार पहर आलिंगन निद्रा संसार जाई विषिया बाही।

उभयहाथों गोरखनाथ पुकारै तुम्हैंभूलमहारौ माह्याभाईड्ड 3 ड्ड

वामा अंगे सोईबा जम चा भोगिबा सगे न पिवणा पाणी।

इमतो अजरावर होई मछींद्र बोल्यो गोरख वाणीड्ड 4 ड्ड

छाँटै तजौगुरु छाँटै तजौ लोभ माया।

आत्मा परचै राखौ गुरु देव सुन्दर कायाड्ड 5 ड्ड

एतैं कछु कथीला गुरु सर्वे भैला भोलै।

सर्बे कमाई खोई गुरु बाघ नी चै बोलैड्ड 6 ड्ड

हबकि न बोलिबा ठबकि न चलिबा धाीरे धारिबा पाँवं।

गरब न करिबा सहजै रहिबा भणत गोरखरावंड्ड 7 ड्ड

हँसिबा खेलिबा गाइबा गीत। दृढ़ करि राखै अपना चीत।

खाये भी मरिये अणखाये भी मरिये।

गोरख कहे पूता संजमही तरियेड्ड 8 ड्ड

मध्दि निंरतर कीजै वास। निहचल मनुआ थिर ह्नै साँस।

आसण पवन उपद्रह करै। निसदिन आरँभ पचिपचि मरैड्ड 9 ड्ड

इनकी भाषा अमीर खुसरो के समान न तो प्रांजल है, न हिन्दी की बोलचाल के रंग में ढली, फिर भी बहुत सुधारी हुई और हिन्दीपन लिये हुए है। उसके देखने से यह ज्ञात होता है कि किस प्रकार पन्द्रहवीं ईसवी शताब्दी के आरम्भ में हिन्दी भाषा अपने वास्तविक रूप में प्रकट हो रही थी। गोरखनाथ जी की रचना में विभिन्न प्रान्तों के शब्द भी व्यवहृत हुए हैं, जैसे गुजराती, 'नी' मरहठी 'चा' और राजस्थानी 'बोलिबा' धारिबा, चलिबा इत्यादि। उस समय के महात्माओं की रचना में यह देखा जाता है कि अधिाकतर देशाटन करने के कारण उनकी रचनाओं में कतिपय प्रान्तिक शब्द भी आ जाते हैं। यह बात अधिाकतर उस काल के और बाद के सन्तों की बानियों में पाई जाती है। मेरा विचार है, गोरखनाथ जी ही इसके आदिम प्र्रवत्ताक हैं,जिसका अनुकरण उनके उपरान्त बहुत कुछ हुआ। इन दो-एक बातों को छोड़कर इनकी रचनाओं में हिन्दी भाषा की सब विशेषताएँ पाई जाती हैं। उनमें संस्कृत तत्सम शब्दों का अधिाकतर प्रयोग है। जो प्राकृत प्रणाली के अनुकूल नहीं। धाार्मिक शिक्षा-प्रसार के लिए अग्रसर होने पर अपनी रचनाओं में उनका संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयोग करना स्वाभाविक था। हिन्दी कविता में आगे चलकर हमको प्रेमधाारा, भक्ति-धाारा एवं सगुण-निर्गुण विचारधाारा बड़े वेग से प्रवाहित होती दृष्टिगत होती है, किन्तु इन सबसे पहले उसमें ज्ञान और योगधाारा उसी सबलता से बही थी, जिसके आचार्य महात्मा गोरखनाथजी हैं। इन्हीं के मार्ग को अवलम्बन कर बाद को अन्य धााराओं का हिन्दी भाषा में विकास हुआ। योग और ज्ञान का विषय भी ऐसा था जिसमें संस्कृत तत्सम शब्दों से अधिाकतर काम लेने की आवश्यकता पड़ी। इसीलिए उनकी रचनाओं में सूर्य, 'वाद-विवाद', 'पवन', 'गोटिका', 'गगन', 'आलिंगन', 'निद्रा', 'संसार', 'आत्मा', 'गुरुदेव', 'सुन्दर', 'सर्वे' इत्यादि का प्रयोग देखा जाता है। फिर भी उनमें अपभ्रंश अथवा प्राकृत शब्द मिल ही जाते हैं जैसे 'अकास', 'महियल', 'अजराबर' इत्यादि। हिन्दी तद्भव शब्दों की तो इनकी रचनाओं में भरमार है और यही बात इनकी रचनाओं में हिन्दी-पन की विशेषता का मूल है।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#22
वे अपनी रचनाओं में 'ण'के स्थान पर 'न' का ही प्रयोग करते हैं और यह हिन्दी भाषा की विशेषता है। कभी-कभी 'न' के स्थान पर णकार का प्रयोग भी करते हैं। यह अपभ्रंश भाषा का इनकी रचनाओं में अवशिष्टांश है अथवा इनकी भाषा पर पंजाबी भाषा के प्रभाव का सूचक है,जैसे 'पिवण', 'पाणी', 'अणखाए', 'आसण' इत्यादि।
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भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#23
वेदान्त धार्म के प्र्रवत्ताक स्वामी शंकराचार्य्य थे। उनका वेदान्तवाद अथवा अद्वैतवाद व्यवहार-क्षेत्रा में आकर शिवत्व धाारण कर लेता है। इसीलिए उनका सम्प्रदाय शैव माना जाता है। भगवान शिव की मूर्ति जहाँ गम्भीर ज्ञानमयी है, वहीं विविधा विचित्रातामयी भी। इसलिए उसमें यदि निर्गुणवादियों के लिए विशेष विभूति विद्यमान है तो सगुणोपासक समूह के लिए भी बहुत कुछ दैवी ऐश्वर्य्य मौजूद है। यही कारण है कि शैव सम्प्रदाय का वह परम अवलम्ब है। गोरखनाथ की संस्कृत और भाषा की रचनाओं में वेदान्तवाद की विशेष विभूतियाँ जहाँ दृष्टिगत होती हैं, वहीं शिव के उपासना की ऐसी प्रणालियाँ भी उपलब्धा होती हैं, जो सर्वसाधाारण को उनकी ओर आकर्षित करती हैं। इन्हीं विशेषताओं के कारण गोरखनाथ जी ने शैव धार्म का आश्रय लेकर उस समय हिन्दू धार्म के संरक्षण का भगीरथ प्रयत्न किया और बहुत कुछ सफलता भी लाभ की। नेपाल में आज भी शैव धार्म का बहुत बड़ा प्रभाव है। जिस समय सिध्द लोग अपने आडम्बरों द्वारा सर्व-साधाारण को उन्मार्गगामी बना रहे थे, उस समय गोरखनाथ जी ने किस प्रकार सन्मार्ग का प्रचार सर्वसाधाारण में किया, उसका प्रमाण उनका धार्म और उनकी वे सुन्दर रचनाएँ हैं जिनमें लोक-हितकारी शिक्षाएँ भरी पड़ी हैं। गोरखनाथ जी की महत्ताा इतनी प्रभावशालिनी थी कि उसने पाप-प( में निमग्न अपने गुरु मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) का भी उध्दार किया। जो पद्य ऊपर उध्दाृत किये गये हैं,उनमें से तीसरे, चौथे, और पाँचवें तथा छठे पद्यों को देखिए। उनके देखने से आप लोगों को यह ज्ञात हो जायेगा कि उन्होंने किस प्रकार अपने गुरु को सांसारिक व्यसनों से बचने की शिक्षा दी और कैसे उनको स्त्रिायों के प्रपंच से विरत रहने का उपदेश दिया। उन्होंने आत्म-परिचय और अजरामर होने का मार्ग उन्हें बड़े सुन्दर शब्दों में बतलाया और कभी-कभी उनमें आत्मग्लानि उत्पन्न करने की चेष्टा भी की, जैसा छठे पद्य के देखने से प्रकट होता है। उनका यह उद्योग अपने गुरुदेव के विषय में ही नहीं देखा जाता, सर्वसाधाारण पर भी उनकी शिक्षाओं ने बड़ा प्रभाव डाला, और इस प्रकार उस समय के पतन-प्राय हिन्दू समाज का बहुत बड़ा उपकार किया। उनकी रचनाओं में योग-सम्बन्धाी बहुत-सी बातें पाई जाती हैं। उध्दाृत पद्यों में से पहले-दूसरे पद्य ऐसे ही हैं। उनके सातवें, आठवें, नौवें पद्यों में ऐसी शिक्षाएँ हैं जिन्हें सब सन्मार्ग के पथिकों को ग्रहण करना चाहिए। हिन्दी-साहित्य में इस प्रकार की धाार्मिक शिक्षाओं के आदि प्रचारक भी गोरखनाथ जी ही हैं। इन सब बातों पर दृष्टि रख उनकी रचनाओं पर विचार करने से वे बहुमूल्य ज्ञात होती हैं और उनसे इस बात का भी पता चलता है कि किस प्रकार आदि में हिन्दी अपने तद्भव रूप में प्रकट हुई।
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#24
इसी चौदहवीं ईसवी शताब्दी में विनय-प्रभु जैन और छोटे-छोटे कई दूसरे जैन कवि हो गये हैं, जिनकी रचनाएँ लगभग वैसी ही हैं जैसी ऊपर लिखे गये जैन कवियों की हैं। उनमें कोई विशेषता ऐसी नहीं पाई जाती कि जिससे उनकी पृथक् चर्चा की आवश्यकता हो। इसलिए मैं उन लोगों को छोड़ता हूँ। इसके बाद पन्द्रहवीं शताब्दी प्रारम्भ होती है। चौदहवीं शताब्दी का अन्त और पन्द्रहवीं शताब्दी का आदि मैथिल-कोकिल विद्यापति का काव्यकाल माना जाता है। अतएव अब मैं यह देखूँगा कि उनकी रचनाओं में हिन्दी भाषा का क्या रूप पाया जाता है। उनकी रचनाओं के विषय में अनेक भाषा-मर्मज्ञों का यह विचार है कि वे मैथिली भाषा की हैं। किन्तु उनके देखने से यह ज्ञात होता है कि जितना उनमें हिन्दी भाषा के शब्दों का व्यवहार है, उतना मैथिली भाषा के शब्दों का नहीं। अवश्य उनमें मैथिली भाषा के शब्द प्राय: मिल जाते हैं, परन्तु उनकी भाषा पर यह प्रान्तिकता का प्रभाव है, वैसा ही जैसा आजकल के बिहारियों की लिखी हिन्दी पर बंगाली विद्वान् विद्यापति को बंगभाषा का कवि मानते हैं,यद्यपि उनकी भाषा पर बंगाली भाषा का प्रभाव नाममात्रा को पाया जाता है। ऐसी अवस्था में विद्यापति को हिन्दी भाषा का कवि मानने का अधिाक स्वत्व हिन्दी-भाषा-भाषियों ही को है और मैं इसी सूत्रा से उनकी चर्चा यहाँ करता हूँ। उन्होंने अपभ्रंश भाषा में भी दो ग्रंथ लिखे हैं। उनमें से एक का नाम 'कीर्तिलता' और दूसरी का नाम 'कीर्तिपताका' है। कीर्तिलता छप भी गई है। उनकी संस्कृत की रचनाएँ भी हैं जो उनको संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान् सिध्द करती हैं। जब इन बातों पर दृष्टि डालते हैं तो उनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा सामने आ जाती है, जो उनके लिए हिन्दी भाषा में सुन्दर रचना करना असम्भव नहीं बतलाती। मेरी ही सम्मति यह नहीं है। हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने वाले सभी सज्जनों ने इनको हिन्दी भाषा का कवि माना है। फिर मैं इनको इस गौरव से वंचित करूँ तो कैसे करूँ?
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#25
मेरा विचार है कि विद्यापति ने बड़ी ही सरस हिन्दी में अपनी पदावली की रचना की है। उनके पद्यों से रस निचुड़ा पड़ता है। गीत गोविन्दकार वीणापाणि के वरपुत्रा जयदेव जी की मधाुर कोमल कान्त पदावली पढ़कर जैसा आनन्द अनुभव होता है वैसा ही विद्यापति की पदावलियों का पाठ कर। अपनी कोकिल-कण्ठता ही के कारण वे मैथिल कोकिल कहलाते हैं। उनके समय में हिन्दी भाषा कितनी परिष्कृत और प्रांजल हो गई थी, इसका विशेष ज्ञान उनकी रचनाओं को पढ़कर होता है। उनके कतिपय पद्यों को देखिए-

1. माधाव कत परबोधाब राधाा।

हा हरि हा हरि कहतहिं बेरि बेरि अब जिउ करब समाधाा।

धारनि धारिये धानि जतनहिं बैसइ पुनहिं उठइ नहिं पारा।

सहजइ बिरहिन जग महँ तापिनि बौरि मदन सर धाारा।

अरुण नयन नीर तीतल कलेवर विलुलित दीघल केसा।

मन्दिर बाहिर कर इत संसय सहचरि गनतहिं सेसा।

आनि नलिनि केओ रमनि सुनाओलि केओ देईमुख पर नीरे।

निस बत पेखि केओ सांस निसारै केओ देई मन्द समीरे।

कि कहब खेद भेद जनि अन्तर घन घन उतपत साँस।

भनइ विद्यापति सेहो कलावति जोउ बँधाल आसपास।

2. चानन भेल विषम सररे भूषन भेल भारी।

सपनहुँ हरि नहिं आयल रे गोकुल गिरधाारी।

एकसरि ठाढ़ि कदम तर रे पथ हेरथि मुरारी।

हरि बिनु हृदय दगधा भेल रे आमर भेल सारी।

जाह जाह तोहिं ऊधाव हे तोहिं मधाुपुर जाहे।

चन्द बदनि नहिं जोवत रे बधा लागत काहे।

3. के पतिया लए जायतरे मोरा पिय पास।

हिय नहिं सहै असह दुखरे भल साओन मास।

एकसर भवन पिया बिनुरे मोरा रहलो न जाय।

सखियन कर दुख दारुनरे जग के पतिआय।

मोर मन हरि हरि लै गेल रे अपनो मन गेल।

गोकुल तजि मधाुपुर बसि रे कति अपजस लेल।

विद्यापति कवि गाओल रे धानि धारु पिय आस।

आओत तोर मन भावन रे एहि कातिक मास।

इन पद्यों को पढ़कर यह स्वीकार करना पड़ेगा कि इनमें मैथिली शब्दों का प्रयोग कम नहीं है। विद्यापति मैथिल कोकिल कहलाते हैं। डॉक्टर ग्रियर्सन साहब ने भी इनको मैथिल कवि कहा है। 1बँगला के अधिाकांश विद्वान् एक स्वर से उनको मैथिल भाषा का कवि ही बतलाते हैं और इसी आधाार पर उनको बँगला का कवि मानते हैं क्योंकि बँगला का आधाार मैथिली का पूर्व रूप है। वे मिथिला-निवासी थे भी। इसलिए उनका मैथिल कवि होना युक्ति-संगत है। परन्तु प्रथम तो मैथिली भाषा अधिाकतर पूर्वी हिन्दी भाषा का अन्यतम रूप है, दूसरे विद्यापति की पदावली में हिन्दी शब्दों का प्रयोग अधिाकता, सरसता एवं निपुणता के साथ हुआ है। इसलिए उसको हिन्दी भाषा की रचना स्वीकार करना ही पड़ता है। जो पद्य ऊपर लिखे गये हैं वे
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#26
1. देखिए वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ् हिन्दुस्तान पृष्ठ 9 पंक्ति 34

हमारे कथन के प्रमाण हैं। इनमें मैथिली भाषा का रंग है, किन्तु उससे कहीं अधिाक हिन्दी भाषा की छटा दिखाई पड़ती हैं। इस विषय में दो एक हिन्दी विद्वानों की सम्मति भी देखिए। अपने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में (59, 60 पृष्ठ) पं. रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं-

''विद्यापति को बंगभाषा वाले अपनी ओर खींचते हैं। सर जार्ज ग्रियर्सन ने भी बिहारी और मैथिली को मागधाी से निकली होने के कारण हिन्दी से अलग माना है। पर केवल भाषा शास्त्रा की दृष्टि से कुछ प्रत्ययों के आधाार पर ही साहित्य-सामग्री का विभाग नहीं किया जा सकता। कोई भाषा कितनी दूर तक समझी जाती, इसका विचार भी तो आवश्यक होता है। किसी भाषा का समझा जाना अधिाकतर उसकी शब्दावली (Vocabulary) पर अवलम्बित होता है। यदि ऐसा न होता तो उर्दू हिन्दी का एक ही साहित्य माना जाता।

''खड़ी बोली, बाँगड़ई, ब्रज, राजस्थानी, कन्नौजी, वैसवाड़ी, अवधाी इत्यादि में रूपों और प्रत्ययों का परस्पर अधिाक भेद होते हुए भी सब हिन्दी के अन्तर्गत मानी जाती हैं! बनारस, गाजीपुर, गोरखपुर, बलिया आदि जिलों में आयल-आइल, गयल-गइल, हमरा तोहरा आदि बोले जाने पर भी वहाँ की भाषा हिन्दी के सिवाय दूसरी नहीं कही जाती। कारण है शब्दावली की एकता। अत: जिस प्रकार हिन्दी साहित्य बीसलदेव रासो पर अपना अधिाकार रखता है, उसी प्रकार विद्यापति की पदावली पर भी।''

हिन्दी भाषा और साहित्यकार यह लिखते है। 1-

''सारे बिहार-प्रदेश और उसके आसपास संयुक्त प्रदेश, छोटा नागपुर और बंगाल में कुछ दूर तक बिहारी भाषा बोली जाती है। यद्यपि बँगला और उड़िया की भाँति बिहारी भाषा भी मागधा अपभ्रंश से ही निकली है तथापि अनेक कारणों से इसकी गणना हिन्दी में होती है और ठीक होती है।''

''बिहारी भाषा में मैथिली, मगही और भोजपुरी तीन बोलियाँ हैं। मिथिला या तिरहुत और उसके आसपास के कुछ स्थानों में मैथिली बोली जाती है। पर उसका विशुध्द रूप दरभंगे में पाया जाता है। इस भाषा के प्राचीन कवियों में विद्यापति ठाकुर बहुत ही प्रसिध्द और श्रेष्ठ कवि हो गये हैं, जिनकी कविता का अब तक बहुत आदर होता है। इस कविता का अधिाकांश सभी बातों में प्राय: हिन्दी ही है।''

आजकल बिहार हिन्दी भाषा-भाषी प्रान्त माना जाता है। वहाँ के विद्यालयों और साहित्यिक समाचार पत्राों अथच मासिक पुस्तकों में हिन्दी भाषा का ही प्रचार है। ग्रन्थ रचनाएँ भी प्राय: हिन्दी भाषा में ही होती हैं और वहाँ के पठित-समाज की भाषा भी हिन्दी ही है। ऐसी अवस्था में बिहारी भाषा पर हिन्दी भाषा का कितना अधिाकार है, यह अप्रकट नहीं।

मैं समझता हूँ विद्यापति की रचनाओं पर हिन्दी भाषा का कितना स्वत्व है,

1. देखिए 'हिन्दी भाषा और साहित्य' का पृष्ठ 39

इस विषय में पर्याप्त लिखा जा चुका। मैंने उनकी रचना इसीलिए यहाँ उपस्थित की है, कि जिससे आप लोगों को यह ज्ञात हो सके कि उस समय हिन्दी भाषा का क्या रूप था। उनकी कविता को देखने से यह ज्ञात होता है कि उनके समय में हिन्दी भाषा प्राय: प्राकृत शब्दों से मुक्त हो गई थी और उसमें बड़ी सरस रचनाएँ होने लगी थीं। मुझको विश्वास है कि उनकी रचना के अधिाकांश शब्दों और प्रयोगों को हिन्दी मानने में किसी को आपत्तिा न होगी। वे ब्रजभाषा के चिर परिचित शब्द हैं जो अपने वास्तविक रूप में पदावली में गृहीत हुए हैं। श्रीमती राधिाका की विरह-वेदना का वर्णन होने के कारण उन पर और अधिाक ब्रजभाषा की छाप लग गई है। जो शब्द चिद्दित हैं, उन्हें हम ब्रजभाषा का नहीं कह सकते। किन्तु उनमें से भी 'हेरथि' इत्यादि दो-चार शब्दों को छोड़कर शेष को निस्संकोच भाव से अवधाी कह सकते हैं और यह अविदित नहीं कि अवधाी भाषा हिन्दी का ही रूप है।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#27
मेरा विचार है कि पन्द्रहवें शतक में प्रान्तिक भाषाओं में हिन्दी वाक्यों और शब्दों के प्रवेश का सूत्रापात हो गया था, जो आगे चलकर अधिाक विकसित रूप में दृष्टिगत हुआ।

मैं इस प्रणाली का आदि प्रवर्तक विद्यापति को ही मानता हूँ। यदि गुरु गोरखनाथ हिन्दी भाषा में धाार्मिक शिक्षा के आदि प्र्रवत्ताक हैं और उसको ज्ञान और योग की पुनीत धााराओं से पवित्रा बनाते हैं तो मैथिल कोकिल उसको ऐसे स्वरों से पूरित करते हैं जिसमें सरस शृंगार-रस की मनोहारिणी धवनि श्रवणगत होती है। सरसपदावली का आश्रय लेकर उन्होंने भगवती राधिाका के पवित्रा प्रेमोद्गारों से अपनी लेखनी को रसमय ही नहीं बनाया, साहित्य क्षेत्रा में अपूर्व भावों की भी अवतारणा की। यहाँ पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि विद्यापति स्वयं इस प्रणाली के उद्भावक हैं या उनके सामने इससे पहले का और कोई आदर्श था। मैं यह स्वीकार करूँगा कि उनके सामने प्राचीन आदर्श अवश्य था। परन्तु हिन्दी भाषा में राधाा-भाव के आदि प्र्रवत्ताक विद्यापति ही हैं। पदावली में राधााकृष्ण के संयोग और वियोग शृंगार का जैसा भावमय और हृदयग्राही वर्णन विद्यापति ने किया है, हिन्दी भाषा में उनसे पहले इस प्रकार का भावुकतामय वर्णन किसी ने नहीं किया।
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#28
श्रीमद्भागवत में गोपियों का प्रेम भगवान कृष्ण चन्द्र के प्रति जिस उच्चभाव से वर्णित है, वह अलौकिक है। प्रेम त्यागमय होता है, स्वार्थमय नहीं। रूप-जन्य मोह क्षणिक और अस्थायी होता है। उसमें सुख-लिप्सा होती है, आत्मोत्सर्ग का भाव नहीं पाया जाता। किन्तु वास्तविक प्रेम अपना आदर्श आप होता है। उसमें जितनी स्थायिता होती है, उतना ही त्याग। वह आन्तरिक निस्स्वार्थ भावों पर अवलम्बित रहता है, स्वार्थमय प्रवृत्तिायों पर नहीं। उसमें प्रेमी पर अपने को उत्सर्ग कर देने की शक्ति होती है, और वह इसी में अपनी चरितार्थता समझता है। भागवत में गोपियों को ऐसे ही प्रेम की प्रेमिका वर्णित किया गया है। विद्यापति संस्कृत के विद्वान थे। साथ ही सहृदय और भावुक थे। इसलिए भागवत के आदर्श को अपनी रचनाओं में स्थान देना उनके लिए असम्भव नहीं था। मेरा विचार है कि जयदेवजी की मधाुर रचनाओं से भी उनकी कविता बहुत कुछ प्रभावित है,क्योंकि वे उनसे कई शतक पूर्व संस्कृत भाषा में इस प्रकार की सरस पदावली का निर्माण कर चुके थे। श्रीमद्भागवत में श्रीमती राधिाका का नाम नहीं मिलता। परन्तु ब्रह्म वर्ैवत्ता पुराण में उनका नाम मिलता है और उसमें वे उसी रूप में अंकित की गई हैं जिस रूप में गीत गोविन्दकार ने उनको ग्रहण किया है। यह सत्य है कि गीत गोविन्द में सरल शृंगार ही का òोत बहता है, परन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि जयदेव जी नेउस ग्रन्थ की रचना भक्ति भाव से की है और वे भगवती राधिाका और भगवान कृष्ण में उतना ही पूज्य भाव रखते थे, जितना कोई बल्लभाचार्य के सम्प्रदाय का भक्त रख सकता है। उनके ग्रन्थ में ही इसके प्रमाण विद्यमान हैं। विद्यापति की रचनाओं के देखने से पाया जाता है कि जयदेवजी का यह भक्ति-भाव उनमें भी भरित था। 1 डॉक्टर जी. ए. ग्रियर्सन लिखते हैं : ''मैथिली भाषा में अमूल्य पदावली-रचना केलिए ही उनका (विद्यापति का) श्रेष्ठ गौरव है। अपने समस्त पदों में उन्होंने श्रीमती राधिाका का प्रेम भगवान कृष्णचन्द्र के प्रति वर्णन किया है। इस रूपक के द्वारा उन्होंने यह विज्ञापित किया है कि किस प्रकार आत्मा का परमात्मा के प्रति प्रेम सम्बन्धा है।'
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#29
मेरा विचार है कि जो पद्य मैंने ग्रन्थ साहब से उध्दाृत किये हैं और जो पद्य कबीर ग्रन्थावली से लिये हैं, उनकी भाषा एक है,
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#30
good compilation from hindisamay.com Smile
lets hope that we have Hindi Literature interested friends here ;)
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#31
मेरा विचार है कि जो पद्य मैंने ग्रन्थ साहब से उध्दाृत किये हैं और जो पद्य कबीर ग्रन्थावली से लिये हैं, उनकी भाषा एक है, और मैं कबीर साहब की वास्तविक भाषा में लिखा गया इन पद्यों को ही समझता हूँ। वास्तव बात यह है कि कबीर ग्रन्थावली की अधिाकांश रचनाएँ इसी भाषा की हैं। उसके अधिाकतर पद ऐसी ही भाषा में लिखे पाये जाते हैं। बहुत से दोहों की भाषा का रूप भी यही है। इसलिए मुझे यह कहना पड़ता है कि कबीर साहब की रचनाएँ पन्द्रहवीं शताब्दी के अनुकूल हैं। आप देखते आये हैं कि क्रमश: हिन्दी भाषा परिमार्जित होती आई है। जैसा उसका परिमार्जित रूप पन्द्रहवीं शताब्दी की अन्य रचनाओं में मिलता है वैसा ही कबीर साहब की रचनाओं में भी पाया जाता है। इसलिए मुझे यह कहना पड़ता है कि उनकी रचनाएँ पन्द्रहवीं शताब्दी के भाषा जनित परिवर्तन सम्बन्धाी नियमों से मुक्त नहीं हैं, वरन क्रमिक परिवर्तन की प्रमाण भूत हैं। हाँ, उनमें कहीं-कहीं प्रान्तिकता अवश्य पाई जाती है और पश्चिमी हिन्दी से पूर्वी हिन्दी का प्रभाव उनकी रचना पर अधिाक देखा जाता है। किन्तु यह आश्चर्यजनक नहीं। क्योंकि प्रान्तिक भाषा में कविता करने का सूत्रापात विद्यापति के समय में ही हुआ था, जिसकी चर्चा पहले हो चुकी है।

मैं यह स्वीकार करूँगा कि कबीर साहब की रचनाओं में पंजाबी और राजस्थानी भाषा के कुछ शब्दों, क्रियाओं और कारकों का प्रयोग मिल जाता है। किन्तु, उसका कारण उनका विस्तृत देशाटन है, जैसा मैं पहले कह भी चुका हूँ। अपनी मुख्य भाषा में इस प्रकार के कुछ शब्दों का प्रयोग करते सभी संत कवियों को देखा जाता है और यह इतना असंगत नहीं जितना अन्य भाषा के शब्दों का उतना प्रयोग जो कवि की मुख्य भाषा के वास्तविक रूप को संदिग्धा बना देता है। मैंने कबीर ग्रन्थावली से जो एक पद और सात दोहे पहले उठाये हैं, उनकी भाषा ऐसी है जो कबीर साहब की मुख्य भाषा की मुख्यता का लोप कर देती है। इसीलिए मैं उनको शुध्द रूप में लिखा गया नहीं समझता। परन्तु उनकी जो ऐसी रचनाएँ हैं जिनमें उनका मुख्य रूप सुरक्षित है और कतिपय शब्द मात्रा अन्य भाषा के आ गये हैं, उन्हें मैं उन्हीं की रचना मानता हूँ और समझता हूँ कि वे किसी अल्पज्ञ लेखक की अनधिाकार चेष्टा से सुरक्षित हैं। उनके इस प्रकार के कुछ पद्य भी देखिए-

1. दाता तरवर दया फल उपकारी जीवन्त।

पंछी चले दिसावरां बिरखा सुफल फलन्त।

2. कबीर संगत साधाु की कदे न निरफल होय।

चंदन होसी बावना नीम न कहसी कोय।

3. कायथ कागद काढ़िया लेखै बार न पार।

जब लग साँस सरीर में तब लग राम सँभार।

4. हरजी यहै विचारिया , साखी कहै कबीर।

भवसागर मैं जीव हैं , जे कोइ पकड़ै तीर।

5. ऐसी वाणी बोलिये , मन का आपा खोइ।

अपना तन सीतल करै , औरन को सुख होइ।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
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#32
इन पद्यों के जिन शब्दों पर चिद्द बना दिये गये हैं वे पंजाबी या राजस्थानी हैं। इस प्रकार का प्रयोग कबीर साहब की रचनाओं में प्राय: मिलता है। ऐसे आकस्मिक प्रयोग उनकी मुख्य भाषा को संदिग्धा नहीं बनाते, क्योंकि जिस पद्य में किसी भाषा का मुख्य रूप सुरक्षित रहता है, उस पद्य में आये हुए अन्य भाषा के दो-एक शब्द एक प्रकार से उसी भाषा के अंग बन जाते हैं। अवधाी अथवा ब्रजभाषा में 'वाणी' को 'बानी' ही लिखा जाता है, क्योंकि इन दोनों भाषाओं में 'ण' का अभाव है। पंजाब प्रान्त के लेखक प्राय: 'न' के स्थान पर 'ण' प्रयोग कर देते हैं, क्योंकि उस प्रान्त में प्राय: नकार णकार हो जाता है। वे'बानी' को 'बाणी' 'आसन' को 'आसण' 'पवन' को 'पवण' इत्यादि ही बोलते और लिखते हैं। ऐसी अवस्था में यदि कबीर साहब के पद्यों में आये हुए नकार पंजाब के लेखकों की लेखनी द्वारा णकार बन जावें तो कोई आश्चर्य नहीं। आदि ग्रन्थ-साहब में भी देखा जाता है कि प्राय: कबीर साहब की रचनाओं के नकार ने णकार का स्वरूप ग्रहण कर लिया है, यद्यपि इस विशाल ग्रन्थ में उनकी भाषा अधिाकतर सुरक्षित है। इस प्रकार के साधाारण परिवर्तन का भी मुख्य भाषा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसलिए कबीर साहब की रचनाओं में जहाँ ऐसा परिवर्तन दृष्टिगत हो, उसके विषय में यह न मान लेना चाहिए कि जो शब्द हिन्दी रूप में लिखा जा सकता था, उसको उन्होंने ही पंजाबी रूप में दिया है, वरन सच तो यह है कि उस परिवर्तन में पंजाबी लेखक की लेखनी की लीला ही दृष्टिगत होती है।

कबीर साहब कवि नहीं थे, वे भारत की जनता के सामने एक पीर के रूप में आये। उनके प्रधाान शिष्य धार्मदास कहते हैं-

आठवीं आरती पीर कहाये। मगहर अमी नदी बहाये।

मलूकदास कहते हैं-

तजि कासी मगहर गये दोऊ दीन के पीर 1

1. हिन्दुस्तानी, अक्टूबर सन् 1932, पृ. 451

झाँसी के शेख़ तक़ी ऊंजी और जौनपुर के पीर लोग जो काम उस समय * धार्म के प्रचार के लिए कर रहे थे,काशी में कबीर साहब लगभग वैसे ही कार्य में निरत थे। अन्तर केवल इतना ही था कि वे लोग हिन्दुओं को नाना रूप में * धार्म में दीक्षित कर रहे थे और कबीर साहब एक नवीन धार्म की रचना करके हिन्दू * को एक करने के लिए उद्योगशील थे। ठीक इसी समय यही कार्य बंगाल में हुसैन शाह कर रहे थे जो एक * पीर थे और जिसने अपने नवीन धार्म का नाम सत्यपीर रख लिया था। कबीर साहेब के समान वह भी हिन्दू *ों के एकीकरण में लग्न थे।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#33
उस समय भारतवर्ष में इन पीरों की बड़ी प्रतिष्ठा थी और वे बड़ी श्रध्दा की दृष्टि से देखे जाते थे। गुरु नानकदेव ने भी इन पीरों का नाम अपने इस वाक्य में 'सुणिये सिध्द-पीर सुरिनाथ' आदर से लिया है। जो पद उन्होंने सिध्द, नाथ और सूरि को दिया है वही पीर को भी। पहले आप पढ़ आये हैं कि उस समय सिध्दों का कितना महत्तव और प्रभाव था। नाथों का महत्तव भी गुरु गोरखनाथजी की चर्चा में प्रकट हो चुका है। सूरि जैनियों के आचार्य कहलाते थे और उस समय दक्षिण में उनकी महत्ताा भी कम नहीं थी। इन लोगों के साथ गुरु नानक देव ने जो पीर का नाम लिया है, इसके द्वारा उस समय इनकी कितनी महत्ताा थी, यह बात भली-भाँति प्रकट होती है। इस पीर नाम का सामना करने ही के लिए हिन्दू आचार्य उस समय गुरु नाम धाारण करने लग गये थे। इसका सूत्रापात गुरु गोरखनाथ जी ने किया था। गुरु नानकदेव के इस वाक्य में गुरु ईसर गुरु गोरख बरम्हा गुरु पारबती माई इसका संकेत है। गुरु नानक के सम्प्रदाय के आचार्यों के नाम के साथ जो गुरु शब्द का प्रयोग होता है, उसका उद्देश्य भी यही है। वास्तव में उस समय के हिन्दू आचार्यों को हिन्दू धार्म की रक्षा करने के लिए अनेक मार्ग ग्रहण करने पड़े थे। क्योंकि बिना इसके न तो हिन्दू धार्म सुरक्षित रह सकता था, न पीरों के सम्मुख उनको सफलता प्राप्त हो सकती थी। क्योंकि वे राजधार्म के प्रचारक थे। कबीर साहब की प्रतिभा विलक्षण थी और बुध्दि बड़ी ही प्रखर। उन्होंने इस बात को समझ लिया था। अतएव उन दोनों से भिन्न तीसरा मार्ग ग्रहण किया था। परन्तु कार्य उन्होंने वही किया जो उस समय * पीर कर रहे थे अर्थात् हिन्दुओं को किसी प्रकार हिन्दू धार्म से अलग करके अपने नव प्रवर्तित धार्म में आकर्षित कर लेना उनका उद्देश्य था। इस उद्देश्य-सिध्दि के लिए उन्होंने अपने को ईश्वर का दूत बतलाया और अपने ही मुख से अपने महत्तव की घोषण्ाा बड़ी ही सबल भाषा में की। निम्नलिखित पद्य इसके प्रमाण हैं-

काशी में हम प्रगट भये हैं रामानन्द चेताये।

समरथ का परवाना लाये हंस उबारन आये।

कबीर शब्दावली , प्रथम भाग पृ. 71

सोरह संख्य के आगे समरथ जिन जग मोहि पठाया

कबीर बीजक , पृ. 20

तेहि पीछे हम आइया सत्य शब्द के हेत।

कहते मोहिं भयल युग चारी

समझत नाहिं मोहि सुत नारी।

कह कबीर हम युग युग कही।

जबहीं चेतो तबहीं सही।

कबीर बीजक , पृ. 125, 592

जो कोई होय सत्य का किनका सो हमको पतिआई।

और न मिलै कोटि करि थाकै बहुरि काल घर जाई।

कबीर बीजक , पृ. 20

जम्बू द्वीप के तुम सब हंसा गहिलो शब्द हमार।

दास कबीरा अबकी दीहल निरगुन कै टकसार।

जहिया किरतिम ना हता धारती हता न नीर।

उतपति परलै ना हती तबकी कही कबीर।

ई जग तो जँहड़े गया भया योग ना भोग।

तिल तिल झारि कबीर लिय तिलठी झारै लोग।

कबीर बीजक , पृ. 80, 598, 632

सुर नर मुनि जन औलिया , यह सब उरली तीर।

अलह राम की गम नहीं , तहँ घर किया कबीर।

साखी संग्रह , पृ. 125
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#34
वे अपनी महत्ताा बतलाकर ही मौन नहीं हुए वरन हिन्दुओं के समस्त धाार्मिक ग्रन्थों और देवताओं की बहुत बड़ी कुत्सा भी की। इस प्रकार के उनके कुछ पद्य प्रमाण-स्वरूप नीचे लिखे जाते हैं-

योग यज्ञ जप संयमा तीरथ ब्रतदाना

नवधाा वेद किताब है झूठे का बाना।

कबीर बीजक , पृ. 411

चार वेद षट् शा ò ऊ औ दश अष्ट पुरान।

आसा दै जग बाँधिाया तीनों लोक भुलान।

कबीर बीजक , पृ. 14

औ भूले षट दर्शन भाई। पाख्रड भेष रहा लपटाई।

ताकर हाल होय अघकूचा। छदर्शन में जौन बिगूचा।

कबीर बीजक , पृ. 97

ब्रह्मा बिस्नु महेसर कहिये इनसिर लागी काई।

इनहिं भरोसे मत कोइ रहियो इनहूँ मुक्ति न पाई।

कबीर शब्दावली , द्वितीय भाग , पृ. 19

माया ते मन ऊपजै मन ते दश अवतार।

ब्रह्म बिस्नु धाोखे गये भरम परा संसार।

कबीर बीजक , पृ. 650

चार वेद ब्रह्मा निज ठाना।

मुक्ति का मर्म उनहुँ नहिं जाना।

कबीर बीजक , पृ. 104

भगवान कृष्णचन्द्र और हिन्दू देवताओं के विषय में जैसे घृणित भाव उन्होंने फैलाये, उनके अनेक पद इसके प्रमाण हैं। परन्तु मैं उनको यहाँ उठाना नहीं चाहता, क्योंकि उन पदों में अश्लीलता की पराकाष्ठा है।
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भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#35
उनकी रचनाओं में योग, निर्गुण-ब्रह्म और उपदेश एवं शिक्षा सम्बन्धाी बड़े हृदयग्राही वर्णन हैं। मेरा विचार है कि उन्होंने इस विषय में गुरु गोरखनाथ और उनके उत्ताराधिाकारी महात्माओं का बहुत कुछ अनुकरण किया है। गुरु गोरखनाथ का ज्ञानवाद और योगवाद ही कबीर साहब के निर्गुणवाद का स्वरूप ग्रहण करता है। मैं अपने इस कथन की पुष्टि के लिए गुरु गोरखनाथ की पूर्वोध्दाृत रचनाओं की ओर आप लोगों की दृष्टि फेरता हूँ और उनके समकालीन एवं उत्ताराधिाकारी नाथ सम्प्रदाय के आचार्यों की कुछ रचनाएँ भी नीचे लिखता हूँ-

1. थोड़ो खाय तो कलपै झलपै , घड़ों खाय तो रोगी।

दुहूँ पर वाकी संधिा विचारै , ते को बिरला जोगीड्ड

यहु संसार कुवधिा का खेत , जब लगि जीवै तब लगि चेत।

आख्याँ देखै काण सुणै , जैसा बाहै तैसा लुणैड्ड

- जलंधार नाथ

2. मारिबा तौ मनमीर मारिबा , लूटिबा पवन भँडार।

साधिाबा तौ पंचतत्ता साधिाबा , सेइबा तौ निरंजन निरंकार

माली लौं भल माली लौं , सींचै सहज कियारी।

उनमनि कलाएक पहूपनि , पाइले आवा गबन निवारीड्ड

- चौरंगी नाथ

3. आछै आछै महिरे मंडल कोई सूरा।

मारया मनुवाँ नएँ समझावै रे लोड्ड

देवता ने दाणवां एणे मनवैं व्याह्या।

मनवा ने कोई ल्यावैं रे लोड्ड

जोति देखि देखो पड़ेरे पतंगा।

नादै लीन कुरंगा रे लोड्ड

एहि रस लुब्धाी मैगल मातो।

स्वादि पुरुष तैं भौंरा रे लोड्ड

- कणोरी पाव

4. किसका बेटा किसकी बहू , आपसवारथ मिलिया सहू।

जेता पूला तेती आल , चरपट कहै सब आल जंजालड्ड

चरपट चीर चक्रमन कंथा , चित्ता चमाऊँ करना।

ऐसी करनी करो रे अवधाू , ज्यो बहुरि न होई मरनाड्ड

- चरपट नाथ

5. साधाी सूधाी के गुरु मेरे , बाई सूंव्यंद गगन मैं फेरे।

मनका बाकुल चिड़ियाँ बोलै , साधाी ऊपर क्यों मन डोलैंड्ड

बाई बंधया सयल जग , बाई किनहुं न बंधा।

बाइबिहूण ढहिपरै , जोरै कोई न संधिाड्ड

- चुणाकर नाथ
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
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#36
कहा जा सकता है कि ये नाथ सम्प्रदाय वाले कबीर साहब के बाद के हैं। इसलिए कबीर साहब की रचनाओं से स्वयं उनकी रचनाएँ प्रभावित हैं न कि इनकी रचनाओं का प्रभाव कबीर साहब की रचनाओं पर पड़ा है। इस तर्क के निराकरण्ा के लिए मैं प्रकट कर देना चाहता हूँ कि जलंधार नाथ मछंदर नाथ के गुरुभाई थे जो गोरखनाथ जी के गुरु थे! चौरंगीनाथ गोरखनाथ के गुरु-भाई, कणेरीपाव जलंधारनाथ के और चरपटनाथ मछन्दरनाथ के शिष्य थे। चुणाककरनाथ भी इन्हीं के समकालीन थे1। इसलिए इन लोगों का कबीर साहब से पहले होना स्पष्ट है। कबीर साहब की रचनाओं पर, विशेष कर उन रचनाओं पर, जो रहस्यवाद से सम्बन्धा रखती हैं, बौध्द धार्म के उन सिध्दों की रचनाओं का बहुत बड़ा प्रभाव देखा जाता है,जिनका आविर्भाव उनसे सैकड़ों वर्ष पहले हुआ। कबीर साहब की बहुत-सी रचनाएँ ऐसी हैं जिनका दो अर्थ होता है। मेरे इस कहने का यह प्रयोजन है कि ऐसी कविताओं के वाच्यार्थ से भिन्न दूसरे अर्थ प्राय: किये जाते हैं। जैसे-

1. देखिए नागरी प्रचारिणी पत्रिाका भाग 11, अंक 4 में प्रकाशित 'योग-प्रवाह' नामक लेख।

घर घर मुसरी मंगल गावै , कछुवा संख बजावै।

पहिरि चोलना गदहा नाचै , भैंसा भगत करावैड्ड

इत्यादि। इन शब्दों का वाच्यार्थ बहुत स्पष्ट है, किन्तु यदि वाच्यार्थ ही उसका वास्तविक अर्थ मान लिया जाय तो वह बिलकुल निरर्थक हो जाता है। ऐसी अवस्था में दूसरा अर्थ करके उसकी निरर्थकता दूर की जाती है। बौध्द सिध्दों की भी ऐसी द्वयर्थक अनेक रचनाएँ हैं। मेरा विचार है कि कबीर साहब की इस प्रकार की जितनी रचनाएँ हैं, वे सिध्दों की रचनाओं के अनुकरण से लिखी गई हैं। सिध्दों ने योग और ज्ञान सम्बन्धाी बातें भी अपने ढंग से कही हैं। उनकी अनेक रचनाओं पर उनका प्रभाव भी देखा जाता है। जून सन् 1931 की सरस्वती के अंक में प्रकाशित चौरासी सिध्द नामक लेख में बहुत कुछ प्रकाश इस विषय पर डाला गया है। विषय-बोधा के लिए उसका कुछ अंश मैं आप लोगों के सामने उपस्थित करता हूँ-
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
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#37
''इन सिध्दों की कविताएँ एक विचित्रा आशय की भाषा को लेकर होती हैं। इस भाषा को संध्या भाषा कहते हैं, जिसका अर्थ ऍंधेरे (वाम मार्ग) में तथा उँजाले (ज्ञान मार्ग, निर्गुण) दोनों में लग सके। संध्या भाषा को आजकल के छाया वाद या रहस्यवाद की भाषा समझ सकते हैं।''

''भावना और शब्द-साखी में कबीर से लेकर राधाास्वामी तक के सभी सन्त चौरासी सिध्दों के ही वंशज कहे जा सकते हैं। कबीर का प्रभाव जैसे दूसरे संतों पर पड़ा और फिर उन्होंने अपनी अगली पीढ़ी पर जैसे प्रभाव डाला, इसको शृंखलाबध्द करना कठिन नहीं है। परन्तु कबीर का सम्बन्धा सिध्दों से मिलाना उतना आसान नहीं है, यद्यपि भावनाएँ, रहस्योक्तियाँ, उल्टी बोलियों की समानताएँ बहुत स्पष्ट हैं।''

इसी सिलसिले में सिध्दों की रचनाएँ भी देख लीजिए-

मूल

1. निसि अंधाारी सुसार चारा।

अमिय भखअ मूषा करअ अहारा।

मार रे जोइया मूषा पवना।

जेण तृटअ अवणा गवणा।

भव विदारअ मूसा रवण अगति।

चंचल मूसा कलियाँ नाश करवाती।

काला मूसा ऊहण बाण।

गअणे उठि चरअ अमण धााण।

तब से मूषा उंचल पाँचल।

सद्गुरु वोहे करिह सुनिच्चल।

जबे मूषा एरचा तूटअ।

भुसुक भणअ तबै बांधान फिटअ।

- भुसुक

छाया

निसि ऍंधिायारी सँसारा सँचारा।

अमिय भक्ख मूसा करत अहारा।

मार रे जोगिया मूसा पवना।

जेहिते टूटै अवना गवना।

भव विदार मूसा खनै खाता।

चंचल मूसा करि नाश जाता।

काला मूसा उरधा नवन।

गगने दीठि करै मन बिनु धयान।

तबसो मूसा चंचल वंचल।

सतगुरु बोधो करु सो निहचल।

जबहिं मूसा आचार टूटइ।

भुसुक भनत तब बन्धान पू फाटइ।

मूल

जयि तुज्झे भुसुक अहेइ जाइबें मारि हसि पंच जना।

नलिनी बन पइसन्ते होहिसि एकुमणा।

जीवन्ते भेला बिहणि मयेलण अणि।

हण बिनु मासे भुसुक प िर्बंन पइ सहिणि।

माआ जाल पसरयो ऊरे बाधोलि माया हरिणि।

सद गुरु बोहें बूझिे कासूं कहिनि।

- भुसुक

छाया

जो तोहिं भुसुक जाना मारहु पंच जना।

नलिनी बन पइसंते होहिसि एक मना।

जीवत भइल बिहान मरि गइल रजनी।

हाड़ बिनु मासे भुसुक पदम बन पइसयि।

माया जाल पसारे ऊरे बाँधोलि माया हरिणी।

सदगुरु बोधो बूझी कासों कथनी।

- भुसुक

अणिमिषि लोअण चित्ता निरोधो पवन णिरुहइ सिरिगुरु बोहें

पवन बहइ सो निश्चल जब्बें जोइ कालु करइ किरेतब्बें।

छाया

अनिमिष लोचन चित्ता निरोधाइ श्री गुरु बोधो।

पवन बहै सो निश्चल जबै जोगी काल करै का तबै।

- सरहपा

मूल-

आगम बेअ पुराणे पंडिउ मान बहन्ति।

पक्कसिरी फल अलिअ जिमि बाहेरित भ्रमयंति।

अर्थ : आगम वेद पुराण में पंडित अभिमान करते हैं। पके श्री फल के बाहर जैसे भ्रमर भ्रमण करते हैं। करहपा1

कबीर साहब स्वामी रामानन्द के चेले और वैष्णव धार्मावलम्बी बतलाये जातेहैं। उन्होंने इस बात को स्वीकार किया है वे कहते हैं-'कबीर गुरु बनारसी सिक्ख समुन्दर तीर'। उन्होंने वैष्णवत्व का पक्ष लेकर शाक्तों को खरी-खोटी भी सुनाई है।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#38
-यथा...
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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