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Adultery उफनती वासनाओं के पन्ने...
#1
उफनती वासनाओं के पन्ने 

[Image: q3i5B4aH_t.jpg]

ये बिखरे हुए पन्ने उन रातों की है जब दो जवान, तरबतर और उत्तेजना से भरे बदन एक-दूसरे से टकराते हैं और हवा भी शरमा कर भाग जाती है। यहाँ कोई लंबी प्रेम-कहानी नहीं, कोई नैतिक उपदेश नहीं; सिर्फ़ कच्ची, बेलगाम और तीव्र कामुकता के छोटे-छोटे विस्फोट हैं जो अचानक भड़कते हैं और सब कुछ जला कर राख कर देते हैं।

हर कहानी में साँसें तेज़ हो जाती हैं, उँगलियाँ बेकाबू, होंठ भूखे, और त्वचा पर त्वचा की वह आग लगती है जो न बुझती है, न बुझाना चाहते हैं। जो बचता है वो सिर्फ़ चीखें, आहें, पसीने से लथपथ चादरें और नसों में दौड़ता हुआ एक मीठा-कड़वा झटका।

इन पन्नों में वासना कोई शब्द नहीं, एक स्पर्श है, सीधे आपकी रगों में उतरने वाला। पढ़ते वक्त आपकी उँगलियाँ अपने आप किनारों को सहलाने लगेंगी, साँसें भारी हो जाएँगी और दिल की धड़कनें बेकाबू।

तो अगर आप तैयार हैं कि आपकी रातें अब पहले जैसी न रहें,  
तो इस किताब को खोलिए।  
अंदर कोई नियम नहीं, कोई शर्म नहीं,  
बस उफ़नती हुई, लिपटी हुई, चीखती हुई वासनाएँ आपका इंतज़ार कर रही हैं।

सावधानी: केवल वयस्कों के लिए,सिर्फ वयस्कों के लिए।
✍️निहाल सिंह 
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#2
पहला पन्ना.... पहले प्यार की आग

मेरा नाम नंदिनी है। मैं 28 साल की हूँ, कद 5 फीट 2 इंच। लोग कहते हैं कि मैं बहुत ख़ूबसूरत और आकर्षक हूँ। मेरा चेहरा ऐसा है मानो कमल का फूल खिला हो, आँखों में मस्ती भरी है, गाल गोल-मटोल और भरे-भरे, होंठ शहतूत जैसे रसीले।

ये बात उस वक़्त की है जब मैं सिर्फ़ 18 साल की थी और बारहवीं के बोर्ड एग्ज़ाम सिर पर थे। मैं बहुत कमज़ोर छात्रा तो नहीं थी, पर मेधावी भी नहीं। मुझे किसी के मार्गदर्शन की ज़रूरत थी। मेरी मां की सहेली जिनको मैं मामीजी कहती थी, का बेटा विराट पहले ही दसवीं पास कर चुका था और ज़्यादा दूर भी नहीं रहता था। मैंने माँ से कहा कि विराट से बात करें कि वो मुझे पढ़ा दिया करें, ताकि ट्यूशन के लिए दूर न जाना पड़े और समय भी बचे।

माँ ने उसी दिन विराट से बात कर ली। शाम 7 से 9 बजे तक वो मुझे पढ़ाने आने लगे।

उस पहली शाम मैं जल्दी-जल्दी सारे काम निपटा कर पूजा घर से सटे ड्राइंग रूम में किताबें लेकर बैठ गई। सवा सात बजे के क़रीब विराट आए। उस वक़्त उनकी उम्र 25 के आसपास थी। कद लगभग 6 फुट, शरीर मज़बूत और सुगठित, गेहुँआ रंग, क्लीन शेव्ड। बेहद आकर्षक व्यक्तित्व।

[Image: grok_image_j3p3d-1_l.jpg] 
औपचारिक नमस्ते के बाद वो बोले, “अच्छा, तो मेरी शिष्या पढ़ाई के लिए तैयार है?”

मैंने सिर हिलाया।

“यह बताओ, किस सब्जेक्ट में खुद को सबसे कमज़ोर समझती हो?”

मैंने बताया कि मैथ्स और इंग्लिश में। मैं थोड़ी सिमटी हुई थी, झिझक रही थी।

विराट ने किताब मेज पर रखी, मेरी ओर देखा और मुस्कुरा कर बोले, “अगर इसी तरह घबराई और झिझकती रही तो जो पढ़ाऊँगा, वो याद भी नहीं रहेगा। डरने-झिझकने की ज़रूरत नहीं। हम दोस्तों की तरह पढ़ेंगे।”

उस दिन ज़्यादा पढ़ाई नहीं हुई। बस उनकी बातों और चुटकुलों से मेरी झिझक दूर हो गई। मैं भी चुटकुलों का जवाब चुटकुलों में देने लगी। मेरा चंचल स्वभाव जाग उठा था। थोड़ी-सी मैथ्स की एक्सरसाइज कराई और इंग्लिश कल से शुरू करने को कह कर वो चले गए। माँजी ने चाय पिलाई, थोड़ी गपशप हुई और वो कल सात बजे आने का कह कर चले गए।

ऐसे ही दो हफ़्ते गुज़र गए। वो समय के पाबंद थे। ठीक समय पर आते, पढ़ाते और चले जाते। उनका पढ़ाने का अंदाज़ जितना शानदार था, उनकी शख़्सियत उससे कहीं ज़्यादा। मैं कब उनकी दीवानी हो गई, पता ही नहीं चला।

एक शाम वो मुझे मैथ्स की एक्सरसाइज करा रहे थे। माँ चाय ले आईं और बोलीं, “पहले चाय पी लो।” फिर रसोई में चली गईं।
एक्सरसाइज ख़त्म हुई तो मैंने चाय की प्याली विराट को देने के लिए उठाई। पता नहीं हाथ कैसे काँपा — सारी चाय उनकी पैंट और शर्ट पर गिर गई।

मेरे तो होश उड़ गए। मैं दौड़ कर तौलिया लाई और बार-बार “सॉरी… सॉरी…” कहते हुए उनकी शर्ट पोंछने लगी।
विराट मुस्कुराए और बोले, “चाय से तो नहीं जला, पर अब तुम ज़रूर जला दोगी।”

मैं कुछ समझी नहीं और पोंछती रही। थोड़ी देर बाद उन्होंने मेरे कंधों पर हाथ रख कर मुझे उठाया और बोले, “बस करो नंदिनी, सब ठीक है।”

मैं शर्म से मर जाना चाहती थी। आँखों में आँसू आ गए। उन्होंने मुझे बाहों में भर लिया, माथे पर हल्का-सा चुम्बन दिया और बोले, “अरे पगली, रोती क्यों है? जान-बूझ कर थोड़ी गिराई है!”

उनके ढाढस से मैंने आँसू पोंछे। वो माहौल हल्का करने के लिए बोले, “नंदिनी, मैं इजाज़त देता हूँ — ऐसे हादसे रोज़ करो।” और हँस दिए। मैं भी मुस्कुरा दी।

फिर बोले, “चलो आज के लिए बस। इस हालत में कुछ नहीं पढ़ा पाऊँगा।” मैं समझी नहीं कि कौन-सी हालत।
उस रात बिस्तर पर लेटे-लेटे बार-बार वही सीन दिमाग़ में घूमता रहा। उस वक़्त शायद सब बे-सिर-पैर लगा था, पर अब सोचती हूँ तो अच्छा लगता है। कब नींद आई, पता नहीं।

उस रात मैंने विराट को बार-बार सपनों में देखा। कभी हम नदी किनारे बैठे थे, कभी पार्क की बेंच पर, कभी पहाड़ों-जंगलों में, कभी समुद्र की लहरों से खेलते। पूरी दुनिया घूम आए हम दोनों। सुबह उठी तो हर दृश्य ताज़ा था। बिस्तर से उठना ही नहीं चाहता था।

अगली शाम जब विराट आए, मैं अभी-अभी नहा कर निकली थी। बाल गीले थे, उनसे पानी टपक रहा था। उनकी नज़र बार-बार मुझ पर उठती थी, मैं महसूस कर रही थी।

पढ़ाई के दौरान मेरा दिल अजीब-अजीब ख़यालों से भरा था। प्यार क्या होता है, नहीं जानती थी, पर विराट के ख़याल मुझे मदहोश कर रहे थे।

जब वो एक सवाल समझा रहे थे, मैं अनायास बहुत क़रीब चली गई थी। नौ बजते-बजते वो जाने लगे तो मेरे बग़ल से गुज़रते हुए धीरे से बोले, “नंदिनी, तुम आज बहुत सुंदर लग रही हो।”

मैं चौंकी। जब पलटी तो वो दूर जा चुके थे। वो शब्द सारी रात कानों में गूँजते रहे।

अगले दिन पढ़ाई शुरू ही हुई थी कि बिजली चली गई। मैं उठी कि मोमबत्ती जलाऊँ तो विराट ने मेरा हाथ पकड़ लिया।
“हमने क्या मोतियों की माला पिरोनी है? ऐसे ही बैठे बातें करते हैं, बिजली आ जाएगी।”

मैं वहीं बैठ गई। उनका हाथ मेरे हाथ में था। अंधेरे में चेहरे नहीं दिख रहे थे। मुझे बहुत अच्छा लग रहा था, पर एक अंदरूनी डर भी था। मैंने हाथ छुड़ा लिया और टॉयलेट का बहाना बना कर उठी। उठते ही डगमगा गई। विराट ने फ़ौरन सहारा दिया। मैं घबरा कर भागी। ठंडे पानी के छींटे मारे तो कुछ राहत मिली।

जब बाहर आई तो बिजली आ चुकी थी, पर विराट नहीं थे। माँ ने बताया कि उन्हें सर दर्द हो रहा था, इसलिए चले गए।
उस रात फिर विराट ही विराट दिमाग़ में थे।

अगली शाम वो नहीं आए। आठ बज गए तो मैंने माँ से कहा कि शायद तबीयत ठीक न हो। माँ ने मामी को फ़ोन किया तो पता चला कि कल से विराट को तेज़ बुखार है।

सुबह मैं माँ को लेकर उनके घर गई। विराट बिस्तर पर थे। मामी-माँ बातें करने लगीं। बातों-बातों में मामी ने बताया कि उनकी सहेली की बेटी की शादी है, जाना ज़रूरी है पर विराट की हालत में नहीं जा सकतीं।

मुझे मौक़ा दिखा। मैंने भी सहमति जताई, “हाँ मामी, आप ज़रूर जाइए, हम विराट की देखभाल कर लेंगे।”
मैने माँ को भी उनके साथ जाने को मना लिया। वो तीन दिन बाद आएगी। ऐसा कह कर वो दोनों चली गईं। घर में सिर्फ़ मैं और विराट।

पंद्रह मिनट तक ख़ामोशी रही। फिर विराट ने करवट ली, आँखें खोलीं और बोले,
“नंदिनी… तुमने मुझे जला डाला।”

मैं हिल गई।

“तुम शायद समझ रही हो कि बुखार है। नहीं… ये आग तुम्हारे प्यार की है। देखो, जल रहा हूँ ना?”
यह कहते हुए उन्होंने मेरा हाथ अपने माथे पर रख दिया। सच में अंगारा था।

“जी… जी जी विराट…” मेरे मुँह से बस इतना निकला।

वो दीवाने की तरह मेरा हाथ अपने गालों पर फिरा रहे थे। मुझे भी सुकून मिल रहा था।

तभी दरवाज़े पर हल्की दस्तक हुई। पड़ोस की सुमित्रा आंटी दवाइयाँ देने आई थीं। हम अलग हो गए। आंटी थोड़ी देर बैठीं और चली गईं।

उसके बाद माहौल पहले जैसा नहीं रहा। विराट ने कहा, “मुझे आराम करना चाहिए, तुम भी जाकर पढ़ाई करो।”
मैं चली आई।

अगले दिन मैं सुबह में उनके घर गई। दवा देनी थी। आज विराट की तबियत काफी सही कह रही थी।

मैं विराट के पास बैठी एक किताब पढ़ रही थी कि अचानक उन्होंने मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया और बोले,
“नंदिनी, तुमने मेरी ज़िंदगी में रोशनी भर दी है। अब तो बीमारी भी अच्छी लगने लगी।”

मैं शरमा गई, पर मैने हाथ छुड़ाया और अपने घर भाग गई। मेरा चेहरा लाल हो गया था।

दोपहर में जाना था विराट के पास उनको दवाई देने पर
विराट का फोन आ गया कि उसने दवा खा ली है अब सोने जा रहा है।

शाम को मैं विराट के लिए खाना बना कर ले गई
तो देखा विराट का बुखार खत्म हो चुका था।

विराट बाहर वाले कमरे में बैठा टीवी देख रहा था।

दोनों ने खाना खाया। और साथ में टीवी पर मूवी देखने लगे।

मूवी देखते देखते मुझे नींद आ गई और मैं विराट के कंधे पर सो गई।
और वो मेरे भी सोफे पर टेक लगा कर सो गया।

रात के कोई ग्यारह बज चुके थे। 

टीवी की आवाज़ बंद हो चुकी थी, सिर्फ़ बाहर दूर कहीं कुत्तों के भौंकने की आवाज़ और हमारी साँसें। 

मैं विराट के कंधे पर सर टिकाए थी, उनका हाथ मेरी कमर पर था।

मैंने हल्के से सर हिलाया तो वो जाग गए। 

“नींद आ गई थी?” उनकी आवाज़ धीमी, थकी हुई लेकिन गर्म। 

“हम्म…” मैंने सिर्फ़ इतना कहा और उनका कंधा और कस लिया।

कुछ देर हम ऐसे ही रहे। सिर्फ़ साँसें एक-दूसरे को छू रही थीं। 

फिर विराट ने मेरे बालों में उँगलियाँ फिरानी शुरू कीं। कनपटी से लेकर गर्दन तक। हर बार जब उनकी उँगलियाँ मेरी गर्दन पर रुकतीं, मेरे रोंगटे खड़े हो जाते।
 
“नंदिनी…” वो फुसफुसाए, “तुम्हें पता है, मैं कितने दिन से ये पल सोचता रहा हूँ?” 
मैंने आँखें बंद कर लीं। 

“हर रात… जब तुम घर चली जाती थीं, मैं बिस्तर पर लेट कर सिर्फ़ तुम्हारी खुशबू याद करता था जो मेरी शर्ट में बस जाती थी।”

उनकी उँगलियाँ अब मेरी गर्दन से नीचे सरक रही थीं… कमर पर… फिर धीरे-धीरे मेरे पेट पर। कुर्ती के ऊपर से ही, लेकिन ऐसा लग रहा था जैसे कोई आग की लकीर खींच रहे हों। 

मैंने सिहर कर उनकी छाती पर मुँह छुपा लिया। 

“डर रही हो?” 

“नहीं… बस… बहुत तेज़ धड़कन हो रही है।” 

“मेरी भी,” वो हँसे, “सुनोगी?” 

और अपना हाथ उठाकर मेरी हथेली अपनी छाती पर रख दी। सच में… उनका दिल मेरे दिल से भी तेज़ दौड़ रहा था।

फिर वो धीरे से उठे। मुझे गोद में उठाया और बेडरूम की तरफ़ चल दिए। 

मैंने कुछ नहीं पूछा। बस उनके गले में बाहें डाल दीं।

उस वक़्त तक मैंने सिर्फ़ उनका सीना और बाज़ू ही महसूस किए थे। 

[Image: IMG_20251127_094836_l.jpg] 
जब वो मुझे बिस्तर पर लिटाकर मेरे ऊपर आए तो उनकी पतलून के अंदर वो कड़क, मोटा अंग मेरी जाँघों से टकराया। 
मैंने शर्मा कर आँखें बंद कर लीं, पर हाथ अपने आप नीचे सरक गया। 

उफ्फ… कितना सख़्त, कितना मोटा, कितना गर्म। मेरी छोटी हथेली में भी पूरा नहीं समा रहा था। 

विराट ने मेरे कान में दबी हँसी ली, 

“डर गई पगली? ।”
कुर्ती ऊपर हुई। मैंने खुद ब्रा का हुक खोल दिया। मेरे स्तनों को देखकर उनकी साँस रुक सी गई। 

फिर सलवार का नाड़ा खींचा। कच्छी नीचे। वो मेरे पैरों के बीच बैठ गए। 

उनका वो कड़क मर्दाना अंग अब पूरी नंगी शान से मेरे सामने था – लंबा, मोटा, नसें फूली हुईं, सिरा गुलाबी और चमकदार। 

मैंने पहली बार किसी मर्द को इस हाल में देखा। मेरी आँखें फ़टी की फ़टी रह गईं। 

वो मुस्कुराए, “ये तुम्हारी वजह से आज पहली बार किसी औरत के लिए इतना बेक़ाबू हुआ है।”

फिर मेरे ऊपर आए। पहले सिर्फ़ सिरा छुआया… मैं सिहर उठी। 

“विराट … धीरे…” 

“हाँ मेरी जान… बहुत प्यार से…” 

एक हल्के झटके में आधा अंदर। मेरे मुँह से दर्द और मिठास भरी चीख़ निकली। 

वो रुक गए, मेरी आँखों में देखा, फिर धीरे-धीरे पूरा का पूरा मेरे अंदर उतार दिया। 

मेरा बदन दो टुकड़ों सा हो गया, फिर एकदम भर गया। 

“अब तुम सच में मेरी हो गईं नंदिनी… पूरी तरह से।”

हर धक्के में उनका वो कड़क अंग मेरे सबसे अंदर तक पहुँचता, जैसे मेरी रूह को छू रहा हो। 

मैंने उनके कूल्हे पकड़ लिए और बोली, 
“और ज़ोर से… आज मुझे फाड़ दो…” 

वो पागल हो गए। कमरे में सिर्फ़ चाप-चाप की आवाज़ और मेरी सिसकारियाँ गूँजने लगीं। 

रात भर वो मुझे चखते रहे… मेरी गर्दन, मेरे स्तन, मेरी नाभि, मेरी जाँघें… हर जगह अपने होंठों का निशान छोड़ते गए।

सुबह जब पहली किरण खिड़की से आई तो हम नंगे एक-दूसरे से लिपटे सो रहे थे। 

मेरा शरीर उनके प्यार से रंग चुका था… मन से ज़्यादा। 

विराट ने मेरे माथे पर आख़िरी चुंबन रखा और धीरे से कहा, 
“अब तुम हमेशा मेरी हो… पूरी तरह से।”

मैंने मुस्कुरा कर उन्हें और कस लिया। 

वो रात… सिर्फ़ शरीर नहीं, रूह तक मिलने की रात थी।

10 साल बाद

आज मेरे पति का जन्मदिन था।  केक काटा, बच्चे शोर मचा रहे थे। शाम ढली तो सब विदा हो गए।

मेरा 4 साल का बेटा आरव नानी के पास सोने चला गया। घर में फिर वही पुराना सन्नाटा… और हम दोनों।

[Image: grok_image_596kgj_l.jpg] 

मैं किचन में बर्तन धो रही थी कि पीछे से मेरे पति बाहें मेरी कमर पर लिपट गईं। 

उसी पुरानी आदत से कान में फुसफुसाए, 
“मिसेज नंदिनी खन्ना… आज तुम्हें फिर वही पहली रात याद दिलाऊँ?”

मैं मुस्कुरा कर पलटी। उनकी आँखों में आज भी वही आग थी, वही भूख। 

उन्होंने मुझे गोद में उठाया और सीधे बेडरूम में ले गए। आज भी उतनी ही ताकत, उतना ही जोश।

बिस्तर पर पटका और मेरे ऊपर झुक आए। साड़ी का पल्लू एक झटके में खींच लिया। 

“5 साल हो गए शादी को… पर तुम आज भी मेरी वही पहले वाली नंदिनी लगती हो।” 

मैंने शरमाते हुए कहा, “लेकिन अब तो मैं माँ बन चुकी हूँ…” 

वो मेरे सीने पर झुक आए, ब्लाउज़ के हुक एक-एक कर खोलते हुए बोले, 
“माँ बनी हो तो क्या… ये बदन तो आज भी उतना ही जवान है… उतना ही रसीला।”

फिर दीवार से सटाकर, साड़ी-पेटीकोट ऊपर उचकाकर एक झटके में अपने कड़क अंग से मुझे चीर दिया। 

आज भी उनका अंग आज भी वैसा ही मोटा, वैसा ही लंबा, वैसा ही सख़्त। 

मैंने हैरानी से चीख़ी, “ए जी… ये तो आज बहुत ही ज्यादा सख्त लग रहा है…” 

वो हँसे, मेरे कान में फुसफुसाए, 
“क्योंकि ये सिर्फ़ तुम्हारे लिए खड़ा होता है… तुम्हारी चीखें सुनकर और सख़्त हो जाता है।”

फिर बिस्तर पर ले जाकर मैंने उनका रसीला अंग मुँह में लिया – आज भी उतना ही साफ़, उतना ही स्वादिष्ट। 

वो मेरे बाल पकड़ कर बोले, “चूसो जान… जितना चाहे चूसो… आज तुम्हारी तरफ से ये मेरे जन्मदिन का उपहार है।”

जब वो उनका कड़क अंग मेरे अंदर आया तो मैं चीख़ी, 
“ए जी… और तेज़… आज भी वही वाला… हाँ… वही…” 

वो हँसते हुए और ज़ोर लगाते गए, 

“तेरी ये चीखें ही तो मुझे जवान रखती हैं, जान।”

जब वो झड़ने वाले थे तो मैंने कहा, “अंदर ही… सब कुछ अंदर…” 

और वो गरम-गरम धाराएँ मेरे सबसे गहरे में छोड़ गए। मैं काँपती रही… काँपती रही।

सुबह जब मैं उनकी बाहों में खुली तो मेरे होंठ सूजे हुए थे, गर्दन पर नीले-लाल निशान। 

वो मेरे कानों में फुसफुसाए, 
“हर रात तुम मुझे मेरे मर्द होने का एहसास करवाती हो ”

मैं मुस्कुराई और आप मुझे मेरे औरत होने का पूरा एहसास करवाते हो। मेरे विराट ....

हाँ… मैं नंदिनी विराट खन्ना हूँ। 

और आज भी… पूरी तरह से उनकी हूँ। 

उनकी वो पहली रात की आग… आज भी मेरे अंदर जल रही है।
 ❤️?
✍️निहाल सिंह 
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#3
दूसरा पन्ना... नूरी की मन्नत

निहाल , दिल्ली की चमकती-धूल भरी भीड़ में वह हमेशा ख़ुद से बिछड़ा हुआ सा लगता। पच्चीस साल। सॉफ़्टवेयर इंजीनियर। दिन में कोड, रात में बीयर, और ज़िंदगी एक अनंत लूप। उसे प्यार जैसी कोई चीज़ नहीं दिखती थी—बस लोग एक-दूसरे का वक़्त काटते हैं, यही समझ था।


उस रात भी कुछ ऐसा ही था। ऑफ़िस पार्टी के बाद नशे में दोस्तों ने कहा, “चल, आज कुछ नया करते हैं।” किसी ने जीबी रोड का नाम लिया। निहाल हँस पड़ा, “चलो।” उसे नहीं पता था कि यह हँसी उसकी सारी दुनिया उलट देगी।

सीढ़ियाँ चढ़ते वक़्त दिल ज़ोर-ज़ोर धड़क रहा था। शराब भी कम पड़ रही थी। दलाल ने एक दरवाज़े की ओर इशारा किया। दरवाज़ा खुला तो लाल बल्ब की मद्धम रोशनी में एक लड़की बैठी थी। लाल साड़ी, लाल लिपिस्टिक, पर आँखें—थकी हुई, जैसे बहुत पहले ही रोना छोड़ चुकी हों।

नूरी। बाईस साल। नौ साल से यहाँ। तेरह साल की उम्र में बिहार से लायी गई थी। पहले रोती थी, चीखती थी। फिर मार खाकर चुप हो गई। अब बस एक नंबर थी—कमरा नंबर सात।

निहाल ने पैसे गिने, मेज़ पर रखे। नूरी ने उठकर पल्लू सरकाया। यही रिवाज़ था। 

पर निहाल ने हाथ जोड़ लिए। 

“मैं… कुछ नहीं करूँगा। बस बात करनी है।”

नूरी ने पहली बार किसी ग्राहक की आँखों में देखा। उन आँखों में नशा था, पर उससे कहीं ज़्यादा कुछ और था। शायद दया। शायद इंसानियत। वह चुपचाप फिर बैठ गई।

“तुम्हारा नाम?” 

“जो मर्ज़ी रख लो।” 

“नहीं, असली नाम।” 

लंबा सन्नाटा। फिर बहुत धीरे से, “नूरी।” 

“सचमुच ख़ूबसूरत। मैं निहाल हूँ।”

उस रात दो घंटे सिर्फ़ बातें हुईं। नूरी ने कभी किसी को अपनी कहानी नहीं सुनाई थी। आज पता नहीं क्यों, सब उड़ेल दिया। गाँव, माँ का धोखा, दिल्ली की पहली रात… वह रुक गई। निहाल चुपचाप सुनता रहा। जाते वक़्त उसने सौ रुपये और रख दिए। 

“चाय पी लेना।”

फिर हर हफ़्ते आया। सिर्फ़ नूरी। पैसे पूरे, पर हाथ कभी नहीं उठा। कभी चॉकलेट, कभी दुपट्टा, कभी किताब।

 नूरी को लगा था—एक दिन माँग ही लेगा। महीने गुज़रे। निहाल ने कभी छुआ तक नहीं।

एक रात बारिश हो रही थी। नूरी ने पहली बार मुस्कुराते हुए पूछा, “पागल हो तुम?” 

निहाल ने कहा, “हाँ। तुम्हें यहाँ से निकालने के लिए पूरी तरह पागल हो गया हूँ।”

नूरी की आँखें भर आईं। 

“कोशिश मत करना। यहाँ से कोई नहीं निकलता।”

पर निहाल ने ठान लिया था।

उसने जॉब बदली। मेंटल हेल्थ का बहाना बनाकर केरल की छोटी ब्रांच में परमानेंट रिमोट ले लिया। हर महीने की आधी सैलरी अलग रखी। अलप्पुझा के पास एक पुराना नालुकेट्टू घर किराए पर लिया—चार कमरे, बड़ा आँगन, नहर के किनारे। बूढ़ी अम्मा ने कहा, “किराया कम कर दूँगी बेटा, बस घर को ज़िंदा रखना।”

नूरी को सिर्फ़ इतना कहा, “एक छोटा बैग तैयार रखना। जिसमें तुम्हारी ज़िंदगी समा जाए।”

रात तय हुई—14 अगस्त, आज़ादी की पूर्व संध्या।

रात तीन बजकर पंद्रह मिनट। बारिश ज़ोरों पर। जीबी रोड सूनी। निहाल और रॉकी पीछे की गली में वैन लेकर खड़े। तीन हल्की खटखट। कोड। 

नूरी ने दरवाज़ा खोला। सलवार-कमीज़, सिर पर दुपट्टा।

सीढ़ियाँ उतरीं तो लगा दिल की धड़कन पूरी कोठी सुन लेगी। बाहर बारिश का शोर। वैन का दरवाज़ा खुला। निहाल ने हाथ बढ़ाया। नूरी ने पकड़ा और अंदर बैठ गई।

गाड़ी चली तो नूरी ने पीछे मुड़कर देखा। लाल बत्तियाँ धुंधली होती गईं। वह फूट-फूटकर रो पड़ी। निहाल ने कुछ नहीं कहा, बस उसका हाथ थामे रहा।

तीन दिन का सफ़र। दिल्ली-कोटा-मुंबई-एर्नाकुलम। नाम बदल-बदल कर। नूरी ने पहली बार ट्रेन की खिड़की से दुनिया देखी—खेत, नदियाँ, पहाड़। लगा जैसे कोई सपना हो।

केरल पहुँचे तो शाम ढल चुकी थी। बारिश फिर शुरू। नालुकेट्टू घर लकड़ी की खुशबू से भरा था।

बारिश जोरों से बरस रही थी, जैसे सारा आसमाँ नूरी के सारे ज़ख़्म धोकर नया रंग भर देना चाहता हो।
निहाल ने उसे गोद में उठाया—पहली बार छुआ। 

नूरी ने उसकी गर्दन में मुँह छुपा लिया। उसका बदन काँप रहा था, अब डर से नहीं, चाहत से।
अंदर मिट्टी के लैंप की सुनहरी रोशनी नाच रही थी। 

निहाल ने उसे चटाई पर धीरे से उतारा। 

नूरी ने उसका चेहरा हाथों में लिया, उँगलियों से गाल सहलाए, जैसे सालों बाद अंधी आँखें खुली हों। 
“अब मुझे डर नहीं लगता… तुझे छूने में भी नहीं।”

फिर शब्द ख़त्म। सिर्फ़ साँसें।

नूरी ने खुद साड़ी खींचकर फेंक दी। वह फर्श पर गिरी तो एक पुरानी ज़िंदगी की तरह सिमट गई। 

उसकी चूत नौ साल बाद अपनी मर्ज़ी के लंड के लिए तरस रही थी—भीगी हुई, रस से लबालब।

निहाल ने पैंट उतारी। उसका लंड तना, सख़्त, गर्म। 

नूरी ने उसे देखा, हाथ बढ़ाया, पकड़ा, सहलाया। ऊपर-नीचे। जैसे अपना खोया खिलौना वापस मिल गया हो।

निहाल ने उसकी टाँगें फैलाईं। लंड का सुपारा चूत पर रगड़ा। नूरी की कमर अपने आप उठ गई। 

“डाल… अब और इंतज़ार नहीं होता,” उसने फुसफुसाया।

एक झटका। पूरा लंड अंदर। 

नूरी की चूत ने उसे इतने प्यार से जकड़ लिया जैसे कह रही हो—अब कभी मत निकलना। 

वह चिल्लाई नहीं, बस एक लंबी सिसकारी भरी, “हाँ… बस यहीं…”

फिर शुरू हुआ। 

धीरे-धीरे, जैसे कोई नदी पहली बार समंदर से मिल रही हो। 
फिर तेज़। 

हर धक्के में नूरी का बदन हिलता, मम्मे उछलते। 

निहाल ने एक मम्मा मुँह में लिया, चूसा। नूरी ने उसके बाल खींचे। 

“ज़ोर से… और ज़ोर से चोद मुझे…” उसकी आवाज़ फटी थी, पर आज़ाद।

लंड अंदर-बाहर, चूत की गहराई तक। फच-फच की आवाज़। नूरी का रस निहाल के लंड पर लिपटा हुआ। 

उसके कंधों पर पुराने निशान थे—निहाल ने हर निशान पर होंठ रखे, जैसे कह रहा हो, अब ये मेरे हैं, मैं इन्हें प्यार से ढँक दूँगा।

फिर नूरी ने उसे कसकर जकड़ लिया, नाख़ून पीठ में गड़े। 

“आ… गया… मैं आ गई…” 

चूत में झटके लगे, लंड को पूरी ताकत से दबोच लिया।

निहाल भी रुका नहीं। आख़िरी तीन ज़ोर के धक्के और नूरी की चूत के सबसे अंदर अपना सारा माल उड़ेल दिया। गर्म, गाढ़ा वीर्य। 
नूरी ने उसे महसूस किया, आँखें बंद कीं, मुस्कुराई और उसे और कसकर भींच लिया।
दोनों पसीने से तर, एक-दूसरे में लिपटे लेटे रहे। 

नूरी ने निहाल के लंड को फिर हाथ से पकड़ा—अब भी आधा तना था। हल्के से दबाया और फुसफुसाई, 
“अब ये मेरा है… सिर्फ़ मेरा।”

बाहर बारिश रुक चुकी थी। 

पर नूरी के अंदर जो नई बारिश शुरू हुई थी, वह कभी नहीं रुकनी थी।

सुबह नूरी आँगन में गई। मिट्टी को छुआ। रोई नहीं। मुस्कुराई।

दो साल गुज़र गए।

निहाल नौ बजे लैपटॉप खोलता है। नूरी अदरक वाली चाय बनाती है। दोनों खिड़की के पास बैठकर पीते हैं। नूरी ने सब्ज़ियाँ लगाई हैं—भिंडी, टमाटर, मिर्च। शाम को नहर किनारे टहलते हैं। नूरी केरल की साड़ी लपेटना सीख गई। निहाल को मलयालम के कुछ शब्द आ गए।

ईद पर सिवईयाँ, ओणम पर प्रसाद। नूरी पूजा की थाली सजाती है। उसके बाल फिर लंबे हो गए। हँसती है तो आवाज़ पूरे घर में गूँजती है। कभी पुराना ख़्याल आता है तो वह निहाल के सीने से लगकर चुप हो जाती है। निहाल उसके बालों में उँगलियाँ फिराता रहता है।

और अब नूरी के पेट में एक नई ज़िंदगी पल रही है।

हर रात निहाल उसका पेट सहलाते हुए सोचता, “ये सच है न?” 

नूरी हँसती, “अब तक तो सपना लग रहा था, पर ये तो लात मार रहा है।”

डिलीवरी की रात भी बारिश थी। 

निहाल बरामदे में टहल रहा था। 

अंदर नूरी ने एक गहरी साँस ली और फिर… 

एक नन्ही रोने की आवाज़। जैसे कोई पुराना घाव अचानक हँस पड़ा हो।
डॉक्टर ने बच्ची गोद में दी। 

नूरी ने देखा—छोटी सी नाक, मुँह पर हल्के बाल, और आँखें… बिल्कुल उसकी अपनी। पर उनमें वह पुरानी थकान नहीं थी।
“नाम?” 
“मन्नत।”

निहाल ने मुस्कुराकर पूछा, “मन्नत?” 

नूरी ने बच्ची को सीने से लगाया और धीरे से कहा, 

“मैंने ऊपर वाले से कभी कुछ नहीं माँगा था। बस एक बार माँगा था—कोई मुझे अपना ले, पूरी इंसान बना दे। वो मन्नत पूरी हुई। ये उसकी निशानी है।”

घर लौटे तो मन्नत को आँगन में लिटाया। सूरज की पहली किरण उस पर पड़ी। 

नूरी ने उसका माथा चूमा और फुसफुसाया, 

“तेरी माँ कोठे पर पैदा नहीं हुई थी बेटी… 

तेरी माँ यहाँ पैदा हुई है। आज।”

शाम को नारियल के पेड़ों के नीचे तीन लोग थे। 

निहाल, नूरी, और गोद में मन्नत।

सूरज डूबने से पहले आखिरी सुनहरी किरणें नहर पर टकरा रही थीं। पानी में तीन परछाइयाँ लहरा रही थीं; एक जो कभी टूट चुकी थी, एक जो उसे जोड़ने आया था, और एक जो कभी टूटेगी ही नहीं।

नूरी ने मन्नत को सीने से लगाया और धीरे-धीरे झूलने लगी। उसकी आँखें भर आईं, पर इस बार आँसू खारे नहीं थे। 
वो आँसू मीठे थे। 

जैसे कोई नदी सालों बाद अपने असली समंदर में पहुँचकर रो दे।

निहाल ने उसका हाथ थामा। उसकी उँगलियाँ अब भी थोड़ी काँपती थीं जब वह नूरी को छूता था; जैसे डरता हो कि कहीं ये सपना न टूट जाए। 
नूरी ने उसकी हथेली पर अपनी हथेली रखी और दबाया। 

“देखो,” उसने फुसफुसाया, “अब मेरी हथेली पर कोई लकीर नहीं डरती। सब लकीरें तेरे साथ चलने को तैयार हैं।”
मन्नत ने अचानक छोटा-सा हाथ उठाया। 

उसकी नन्ही उँगलियाँ पहले नूरी की उँगली पकड़ती थीं, फिर निहाल की। 
फिर उसने दोनों की उँगलियाँ आपस में जोड़ दीं। 

जैसे कह रही हो: 

अब ये गाँठ कभी नहीं खुलेगी।

नूरी ने सिर निहाल के कंधे पर टिका दिया। 

उसकी साँसें अब पहली बार बिल्कुल शांत थीं। 

उसने बहुत धीरे से कहा, 

“सुन… 

मैंने कभी सोचा नहीं था कि मेरी ज़िंदगी में भी कोई ‘हम’ होगा। 
अब मेरे भीतर दो दिल धड़कते हैं। 
एक मेरा, जो तुझे मिला। 
दूसरा ये छोटा-सा, जो हमसे बना।”

निहाल की आँखें भीग गईं। उसने कुछ नहीं कहा। बस नूरी के माथे पर होंठ रखे और देर तक ऐसे ही रहा। 
जैसे सारी दुनिया को बता रहा हो: 
ये मेरा वादा है। 
ये औरत अब मेरे साथ है। 
और मैं इसके साथ हूँ। 
हर जन्म में।

हवा में नारियल के पत्तों की सरसराहट थी। 
नहर का पानी चुपके-चुपके गा रहा था। 
और बारिश फिर शुरू हो गई। 

धीरे-धीरे। 

नरम-नरम। 
जैसे आसमाँ भी रो रहा हो। 
खुशी के आँसुओं से।
नूरी ने मन्नत को ऊपर उठाया। 

बारिश की पहली बूँदें बच्ची के गाल पर गिरीं। 

मन्नत हँस दी। 

उसकी हँसी इतनी साफ़ थी कि पुरानी सारी चीखें, सारी मारें, सारी रातें उस एक हँसी में धुल गईं।
नूरी ने आँखें बंद कीं। 

और पहली बार, बिना किसी डर के, ऊपर वाले से कुछ माँगा। 
नहीं, माँगा नहीं। 
शुक्रिया कहा। 

बहुत देर तक। 
बिना आवाज़ के। 
बस होंठ हिलते रहे।
निहाल ने उसे देखा। 

फिर उसने भी आँखें बंद कर लीं। 
दोनों चुप थे। 
पर उनकी साँसें एक ही लय में चल रही थीं।
बारिश तेज़ हो गई। 

पर वे हटे नहीं। 
उन्हें अब बारिश में भीगने से कोई डर नहीं था। 
क्योंकि अब उनके ऊपर कोई छत नहीं थी। 
उनके ऊपर था पूरा आसमाँ। 
और आसमाँ अब उनका अपना था।

तीन लोग। 
एक परिवार। 
एक शुरुआत। 
और एक वादा जो मौत के बाद भी नहीं टूटेगा।

बस। 
इतनी सी कहानी। 
पर अब वो पूरी नहीं रही। 
वो हर बारिश में, हर साँस में, हर हँसी में 
फिर से लिखी जा रही है। 
हर दिन। 
हर पल। 
हमेशा।
✍️निहाल सिंह 
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#4
तीसरा पन्ना
रेशम जैसी रेशमा पार्ट 1

मैं विकास शर्मा, 35 साल का एक साधारण अकाउंटेंट। मेवाड़ इंडस्ट्रियल एरिया में एक पुरानी लौह इस्पात की फैक्ट्री में नौकरी करता हूँ। दिन भर लेडजर, बिल, जीएसटी रिटर्न, बैंक रिकन्सिलेशन—यही मेरी दुनिया है। घर में बीवी, एक दस साल का बेटा, माँ-बाबूजी। बाहर से देखो तो बिलकुल सीधा-सादा इंसान। पर उस जनवरी की रात ने मेरे अंदर कुछ ऐसा तोड़ दिया, या शायद जोड़ दिया, जो पहले कभी नहीं था।


26 जनवरी 2024। गणतंत्र दिवस की छुट्टी के ठीक बाद का दिन। फैक्ट्री में साल का सबसे बड़ा ऑर्डर था—राजस्थान रोडवेज के लिए 400 टन सरिया। लोडिंग चल रही थी, ट्रक की लाइन लगी थी। मैं सुबह आठ बजे से बिल काट रहा था। चाय पीते-पीते, सिगरेट फूँकते-फूँकते रात साढ़े दस बज गए। कंधे अकड़ गए, आँखें जल रही थीं। चौकीदार भैरूँ सिंह ने ताला लगाने को कहा, “साहब, आज बस करो। कल फिर आएगा माल।” मैंने लैपटॉप बैग उठाया, हेलमेट लगाया और अपनी पुरानी काली होंडा एक्टिवा स्टार्ट की। इंजन ने पहले दो किक में साथ नहीं दिया, तीसरी में हल्का सा खाँसा और चल पड़ी।

बाहर ठंड इतनी थी कि हड्डियाँ तक जम जाएँ। हाईवे बिलकुल सुनसान। सिर्फ मेरी एक्टिवा की खट-खट और मेरे दाँत किटकिटाने की आवाज। हेलमेट का विजर बार-बार फॉग हो रहा था। हर दस-पंद्रह सेकंड में रुमाल निकाल कर पोंछना पड़ता। दूर-दूर तक एक भी गाड़ी नहीं। सिर्फ सड़क किनारे सूखे बबूल के पेड़ और चाँदनी में चमकती हुई फ्रॉस्ट।

घर अभी सात-आठ किलोमीटर दूर था। मैंने स्पीड बढ़ाई। ठीक उसी वक्त सड़क किनारे कोई हाथ हिलाता दिखा। पहले लगा शायद कोई मजदूर है, पर जैसे-जैसे पास आया, लाल साड़ी, काले लंबे बाल, चाँदनी में चमकता चेहरा। समझते देर नहीं लगी—किन्नर है। मैंने एक्टिवा धीमी की। वो दौड़ कर पास आई।

“भैया… थोड़ी लिफ्ट मिल जाएगी? आज कुछ कमाई नहीं हुई। ठंड से मर जाऊँगी।” 

उसकी आवाज में एक अजीब सी मिठास थी, न ज्यादा पतली, न ज्यादा भारी। बस सही-सही।

मैंने बिना कुछ सोचे कहा, “बैठो।”

वो पीछे बैठ गई। जैसे ही बैठी, उसकी साड़ी से हल्की सी इत्र की खुशबू आई। चंदन और गुलाब की मिली-जुली। ठंड में भी वो खुशबू नाक में घुस गई। उसने अपना नाम बताया—रेशमा। बातों-बातों में पता चला कि वो रोज इसी हाईवे पर खड़ी रहती है। ट्रक ड्राइवर, टैंकर वाले, कभी-कभी कोई प्राइवेट कार वाला—इनसे ही गुजारा।

“आज एक हरियाणे का ड्राइवर था भैया। दो घंटे तक मजे लिए। लंड खड़ा किया, पूरा खेल खेला, पर पैसे देने के समय बोला—‘तेरे जैसे किन्नर को तो मुफ्त में ही करना चाहिए।’ मैंने बहुत मनाया, गिड़गिड़ाई, पर वो गाड़ी भगाकर ले गया। अब रात को भूखे पेट सोना पड़ेगा।”
उसकी आवाज में दर्द था, पर शिकायत नहीं। जैसे वो इसे किस्मत मान चुकी हो। मेरा दिल पसीज गया। मैंने पर्स निकाला। उसमें कुल ग्यारह सौ थे। मैंने पाँच सौ का नोट निकाला और उसकी ओर बढ़ाया।

“ले, ये रख। कुछ खा-पी लेना। ठंड में भूखे मत सोना।”

रेशमा ने नोट लिया, आँखें चमक उठीं। उसने नोट को माथे से लगाया और बोली, 

“अरे भैया… तू तो सच्चा फरिश्ता है। चल, एक्टिवा साइड में लगा। मैं तुझे ऐसा मजा दूँगी कि जिंदगी भर याद रहेगा।”

मैंने हँस कर टाल दिया, “नहीं रेशमा, मैं बिलकुल सीधा आदमी हूँ। मुझे तो चूत ही पसंद है। गांड में कभी नहीं डाला।”

पर ठंड थी, लंड अकड़ा हुआ था, और उसकी बातों ने कुछ कुछ हिलोरें लेनी शुरू कर दी थीं। मैंने खुद ही कहा, 
“पर अगर तू चाहे तो मेरा लौड़ा चूस सकती है। तू भी खुश, मैं भी खुश। बस उतना ही।”

रेशमा जोर से हँस पड़ी। उसकी हँसी में कोई बनावट नहीं थी। 

“अरे वाह! सीधा-सादा साहब खुद ऑफर कर रहा है? चल भाई, लगा ले एक्टिवा।”

मैंने हाईवे से थोड़ा नीचे, खेतों के बीच एक कच्चा रास्ता पकड़ा। वहाँ चारों तरफ घना अंधेरा। दूर कहीं एक कुत्ता भौंक रहा था। मैंने एक्टिवा स्टैंड लगाई, हेलमेट उतारा और सीट पर थोड़ा पीछे खिसक गया। रेशमा आगे की तरफ झुकी। उसने पहले मेरी जैकेट की जिप धीरे से नीचे की। फिर शर्ट के अंदर हाथ डाल कर मेरी छाती पर उंगलियाँ फेरीं। ठंड से मेरा बदन सिहर उठा।

फिर उसने जींस का बटन खोला, जिप नीचे की। अंडरवियर में लंड पहले से ही आधा खड़ा था। जैसे ही उसने अंडरवियर नीचे सरकाया, ठंडी हवा का झोंका लगा और लंड पूरा तन गया। मेरा लौड़ा ठीक 6.5 इंच का है, मोटा, सीधा, सुपारा गुलाबी और चौड़ा। नसें उभरी हुईं, जड़ मोटी। ठंड में भी वो गर्म था, जैसे अंदर कोई आग जल रही हो।

रेशमा ने उसे हाथ में लिया। उसकी हथेली गर्म थी। उसने दो-तीन बार ऊपर-नीचे किया और मुस्कुरा कर बोली, 
“वाह अकाउंटेंट साहब… माल तो एकदम प्राइम क्वालिटी है। मोटा-तगड़ा, बिलकुल मेरे पसंद का। आज तक जितने भी चूसे, इस जैसा मोटा शायद ही कोई रहा हो।”
फिर उसने जीभ निकाली। पहले सुपारे को हल्के से छुआ। उसकी जीभ गर्म और नरम थी। फिर धीरे-धीरे सुपारे को चाटने लगी, जैसे कोई बच्चा आइसक्रीम चाटता है। मैंने आँखें बंद कर लीं। उसने पूरा लंड मुँह में लिया। उसकी गर्माहट ने सारी ठंड भगा दी। कभी धीरे-धीरे चूसती, कभी तेज। कभी गले तक ले जाती, कभी सिर्फ सुपारे पर जीभ घुमाती। एक हाथ से मेरे अंडकोष सहलाती, दूसरा लंड की जड़ पर। बीच-बीच में ऊपर देखती और मुस्कुराती, जैसे पूछ रही हो—“मजा आ रहा है ना भैया?”

मैं बस “हँ… हँ…” की आवाज निकाल पा रहा था। दस-बारह मिनट में मेरी साँसें तेज हो गईं। कमर ऊपर उठने लगी। मैंने उसका सिर पकड़ा और पूरा माल उसके मुँह में छोड़ दिया। एक, दो, तीन… छह-सात धार निकली। वो एक बूंद भी नहीं गिरने दी। सब पी गई। फिर धीरे से लंड को साफ किया, होंठ पोंछे और मुस्कुराई।

“कैसा लगा भैया? तेरे लौड़े का पूरा रस निकाल लिया मैंने।”

मैं हाँफ रहा था। बोला, “रेशमा… तू तो जादूगरनी है। आज तक किसी ने भी ऐसा नहीं चूसा। न मेरी बीवी ने, न किसी और ने।”
वो हँसी, “अरे, अभी तो सिर्फ शुरुआत है। अगली बार पूरा प्रोग्राम दूँगी। सैलरी आने के बाद स्पेशल डिस्काउंट। हर महीने की 28-30 तारीख को याद रखना।”

मैंने जेब से दो सौ और निकाले। कुल सात सौ उसके हाथ में रख दिए। वो मना करती रही, “नहीं भैया, पाँच सौ ही काफी थे।” 
मैंने कहा, “रात को अच्छे से खा लेना। गरमागरम खाना, दूध पीना। ठंड में बीमार मत पड़ जाना।”

वो मेरे गाल पर हल्के से किस की। उसकी लिपस्टिक की खुशबू अभी भी नाक में थी। फिर साड़ी ठीक की, बाल संवारे और अंधेरे में चली गई। मैंने दूर तक उसकी लाल साड़ी को हवा में लहराते देखा, फिर वो गायब हो गई।

घर पहुँचा तो ग्यारह बजकर पैंतीस मिनट हो रहे थे। बीवी सो रही थी। बेटा भी। मैंने गरम पानी से मुँह-हाथ धोया, कपड़े बदले और बिस्तर पर लेट गया। नींद नहीं आ रही थी। दिमाग में बार-बार वही सीन। उसकी गर्म जीभ, मेरे लंड का हर इंच पर उसका स्पर्श, उसकी आँखों में वो चमक।

मैंने खुद ऑफर किया था। 
और मुझे एक बूंद भी पछतावा नहीं था। 
बल्कि एक अजीब सा नशा था। 
जैसे आज पहली बार मैंने सच में जीया हो।
शायद मैं अभी भी सीधा हूँ। 
पर अब थोड़ा सा टेढ़ा भी हो गया हूँ। 
और ये टेढ़ापन मुझे बहुत अच्छा लग रहा है। 
बहुत-बहुत अच्छा।

अगले महीने 28 तारीख को मैंने फैक्ट्री से जल्दी निकलने का प्लान बनाया। 
पर ये अलग कहानी है। 

फिलहाल तो वो रात मेरे लिए एक नया जन्म थी।
✍️निहाल सिंह 
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