Posts: 30
Threads: 2
Likes Received: 132 in 27 posts
Likes Given: 1
Joined: Apr 2025
Reputation:
3
यह कहानी मेरी अंग्रेज़ी कहानी का एक कच्चा अनुवाद है, खासतौर पर हिंदी पाठकों के लिए तैयार किया गया है। इसमें पति का नाम मूल कहानी में Murugan था, जिसे अब पवन कर दिया गया है।
मुख्य पात्र:
साक्षी (~25 वर्ष) – एक युवा पत्नी और माँ, जो अपने भीतर की कामनाओं और दबी हुई संवेदनाओं को फिर से खोज रही है। जटिल, बुद्धिमान और अपनी इच्छाओं के प्रति तीव्र रूप से सजग। यह कहानी उसकी जागृति की यात्रा के इर्द-गिर्द घूमती है।
रामू (~65 वर्ष) – एक वृद्ध विधुर और मकान मालिक का पिता। शांत, सतर्क और अपनी दिवंगत पत्नी की यादों से पीछा छुड़ाने में असमर्थ। उसकी पत्नी का नाम भी साक्षी था, जो अब मृत है। साक्षी (नई) के प्रति उसकी बढ़ती आकर्षण एक अंतरंग और वर्जित जुड़ाव को जन्म देती है।
पवन (~27 वर्ष) – साक्षी का पति। पारंपरिक, भावनात्मक रूप से दूर और अक्सर साक्षी की मानसिक और शारीरिक ज़रूरतों से अनभिज्ञ।
मीना (~25 वर्ष) – साक्षी की सबसे करीबी दोस्त और हमराज़। चटपटी, बेबाक और हाज़िरजवाब। वह साक्षी की भावना और हास्य की साथी है, जो अक्सर उसकी सोच का आईना बनती है।
जननी और अरुण – मकान मालिक दंपत्ति। जननी, अरुण की पत्नी और रामू की बहू है। वह साक्षी और रामू के बीच बढ़ती केमिस्ट्री को भांप लेती है और उसे हल्के फुल्के चुटीले अंदाज़ में बयान करती है।
रामू की दिवंगत पत्नी (साक्षी) – भले ही अब जीवित नहीं है, लेकिन उसकी यादें रामू के जज़्बातों पर गहरी छाया छोड़ती हैं। उसका नाम भी साक्षी था, जिससे पूरे कथानक में एक भावनात्मक प्रतिध्वनि गूंजती रहती है।
साक्षी का बेटा – जिसकी उपस्थिति साक्षी को घरेलू वास्तविकता में बाँधती है, लेकिन साथ ही उसकी माँ, पत्नी और स्त्री के बीच की भूमिकाओं में गहरा तनाव भी पैदा करती है।
-----------
पेंट और पुराने लकड़ी की गंध सीढ़ियों में अब भी ठहरी हुई थी जब साक्षी अपने दो साल के बेटे को गोद में उठाए पहली मंज़िल की तरफ चली। लोहे का गेट कड़कड़ाया, फिर खुला — सामने एक पतला-सा कॉरिडोर दिखा जो उनके हिस्से की तरफ जाता था। उसके पीछे पवन था, एक हाथ में मोड़ा हुआ मैट और दूसरे में किचन का बर्तन वाला बैग।
"अरे ध्यान से चलो, कन्ना," साक्षी ने पीछे मुड़कर बेटे को टोका, जो चिपकी हुई टाइल्स पर भाग रहा था, "दीवार मत छूना, अभी भी गीली है!"
पवन ने माथे का पसीना पोंछा, "हाय राम! इस घर में तो ऐसा लग रहा जैसे सालों से ताला लगा था। लेकिन हाँ, जगह तो है कम से कम।"
"तुझे बस ये अच्छा लग रहा है कि अब किचन बेडरूम से दूर है। अब तेरी नींद ‘सांभर की खुशबू’ से नहीं टूटेगी," उसने कमर पर हाथ रखते हुए चुटकी ली।
पवन हँसा, "नहीं बेबी, असली बात तो ये है — अब मैं तुझे उस लंबे कॉरिडोर में पकड़ने के लिए दौड़ सकता हूँ, और तेरी अम्मा सुन भी नहीं पाएँगी!"
"आयो! सुधर जा पति महाशय! बच्चा देख रहा है," उसने मुँह बनाते हुए धीरे से फुसफुसाया, पर गाल तो गुलाबी हो गए थे।
वो और पास आकर बोला, "देखने दो। उसे पता चलना चाहिए कि उसका बाप अपनी बीवी से कितना प्यार करता है।"
साक्षी ने आँखें घुमाईं, "रोमांटिक बावला कहीं का। प्यार कम, पसीना ज़्यादा बह रहा है तुझसे। तू तो ऐसा लग रहा जैसे मैराथन दौड़ के आया हो।"
पवन ने सीना ठोकते हुए नाटक किया, "तेरे लिए तो दो मैराथन भी दौड़ जाऊँ, जानू।"
अंदर ही अंदर सोच रहा था — साली इस पुराने से नाइटी में भी क्या लगती है। काम पे ध्यान कैसे लगाऊँ जब ये घर में ऐसे घूमती रहती है?
साक्षी ने उसकी नज़रें पकड़ लीं और हल्का-सा मुस्काई। समझती हूँ मैं… अब भी तेरी जुबान लड़खड़ा सकती है मेरे चलते। अच्छा है।
पहली मंज़िल एकदम चुप थी, कॉरिडोर में बस ढलती धूप की रौशनी थी। आखिरी छोर पर एक बंद लकड़ी का दरवाज़ा दिखा, जंग खाई नेमप्लेट पर बस एक नाम उकेरा था — "रामू"। अंदर से हल्की-सी आवाज़ आ रही थी — टीवी, या कोई पुराना भजन जो लूप पे चला हो शायद। उस कमरे से कुछ दूरी पर एक पुरानी लकड़ी की अलमारी पड़ी थी, जिसके शीशे पर धूल की एक परत जमी थी। कॉरिडोर में कुछ दीवारों पर पुराने कैलेंडर भी टंगे थे, जैसे वक्त वहीं अटका हो।
साक्षी ने ज़्यादा नहीं सोचा। पहले कुछ दिन झटपट बीत गए। सुबह वही रूटीन: अलार्म से पहले उठना, इडली-सांभर बनाना, पवन के लिए टिफिन पैक करना, जो 8:30 बजे लोकल पकड़ने निकलता। फिर बेटे को नहलाना, उसके साथ खेलना, बहन से वीडियो कॉल, कपड़े फोल्ड करना, reels स्क्रॉल करना, कोने साफ़ करना जो पहले से साफ़ थे। नया घर था, पर ज़िंदगी का सुर कुछ-कुछ जाना-पहचाना था। लेकिन अब हर चीज़ में एक हल्की बेचैनी घुलने लगी थी — जैसे कोई अदृश्य परछाईं हर कोने में चुपचाप पसरी हो।
पर फिर भी, कुछ था जो बदलने लगा।
एक अहसास।
एक नज़र।
ना बोझिल, ना गंदी। पर लगातार।
तीसरे दिन से उसने महसूस करना शुरू किया।
कपड़े फोल्ड करते वक़्त बालकनी में खड़ी होती और पीठ पे जैसे कोई गर्म साँस सी महसूस होती, गर्दन के पिछले हिस्से पर झुनझुनाहट-सी होती। पलटती, तो कुछ नहीं। बस परदा कभी-कभी हिलता उस रूम से। एक बार तो खाँसी की आवाज़ आई — इतनी परफेक्ट टाइमिंग में कि लग गया जानबूझ के थी। कभी-कभी तो वो खुद को आइने में देखती, बाल ठीक करती और सोचती — क्या मैं कुछ ज़्यादा सोच रही हूँ? या कोई सचमुच देख रहा है?
उस रात, बेटे को सुला के जब वो बेडरूम में आई, पवन बेड पे बिना शर्ट के पड़ा था, फोन में घुसा हुआ।
"एक बुड्ढा है अगली तरफ़। घर के मालिक का बाप है शायद। चुपचाप रहता है। लेकिन लगता है कभी-कभी मुझे देखता है," साक्षी ने ड्रेसर के सामने बाल बाँधते हुए कहा।
पवन हँसा, "और देखेगा क्या! अगर मैं भी बुड्ढा होकर एक कमरे में बंद रहूँ और तू इस तरह लो-वेस्ट नाइटी में घूमती रहे, तो मेरी भी नज़र हटेगी नहीं।"
साक्षी ने तकिया दे मारा, "देई! बावले। मैं सीरियस हूँ।"
पवन ने तकिया पकड़ा और उसे अपनी तरफ खींचा, "ठीक है बाबा... हो सकता है वो अकेला हो। किसी को देखना भी शायद उसे थोड़ा ज़िंदा फील कराता हो।"
"हम्म..." वो उसकी बाँहों में समा गई। या फिर शायद बात अकेलेपन से कुछ आगे की है। और ये सोच... क्यों मुझे कुछ और सोचने पे मजबूर करती है?
साँसें धीमी हो गईं। लेकिन उसकी जाँघों के बीच धड़कन... अब भी तेज़ थी। वो उसे देखकर सोचने लगी, क्या बूढ़ी आँखों की नज़र भी वैसी ही चुभती है जैसी जवानी की? या उसमें कुछ और होता है — ठहरा हुआ, ठंडा, पर किसी भूख से भरा?
अगली सुबह, साड़ी का पल्लू ठीक करते हुए जैसे ही शीशे में खुद को देखा, तभी डोरबेल बजी। बेटा दौड़ के दरवाज़ा खोलने गया।
"वणक्कम, मा," सामने एक 30s की औरत खड़ी थी, हाथ में टिफिन। "मैं जाननी हूँ। नीचे रहते हैं — मेरे हज़बैंड इस घर के ओनर हैं। सोचा मिल लूँ।"
"अरे! थैंक यू अक्का, बहुत अच्छा किया आपने," साक्षी मुस्काई और अंदर बुलाया।
दोनों फर्श पर बिछे मैट पर बैठीं, बच्चा गोद में चढ़ गया। चाय रखी गई, बेसन के लड्डू निकले, थोड़ी इधर-उधर की बातों में वक्त बीतने लगा।
"और वो कॉरिडोर के आखिरी वाले कमरे में कोई रहता है? मैंने देखा हमेशा बंद रहता है," साक्षी ने casually पूछा, पर उसकी नज़रें जाननी के चेहरे पे जमी थीं।
जाननी का चेहरा थोड़े पल को बदला। "वो अप्पा का कमरा है। रामू। मेरे ससुरजी। अब ज़्यादा बाहर नहीं निकलते... हेल्थ भी ठीक नहीं रहती। बस अपने में रहते हैं। कभी-कभी गाना सुनते हैं, पुरानी फिल्मों की यादों में खोए रहते हैं।"
"टीवी बहुत देखते होंगे, हाँ?" साक्षी ने हँसते हुए पूछा।
जाननी भी हँसी, लेकिन थोड़ी झिझक के साथ। "बुज़ुर्ग हैं... अकेलेपन में लोग बातें देखना पसंद करते हैं। कभी-कभी आ सकते हैं बात करने... बुरा मत मानना।"
साक्षी की नज़र फिर उस बंद दरवाज़े पे चली गई। अकेले आदमी अजीब होते हैं। पर शायद... बस इंसान ही है। या शायद मैं ही कुछ ज़्यादा सोच रही हूँ।
उस शाम, जब वो प्याज़ काट रही थी, पवन पीछे से आकर उसकी कमर में बाहें डालकर चिपक गया।
"उफ्फ... इमली और नारियल की खुशबू! किचन queen तू तो sexy smell करती है।"
"छी! तू तो किचन वाला ठरकी निकला," साक्षी हँसी, उसे धक्का देने की कोशिश करते हुए।
"तेरे सारे फ्लेवर मुझे पसंद हैं। यहाँ तक कि सांभर वाला पसीना भी।"
वो मुस्काई, "जा नहाने, वरना तुझपे गरम गरम रसम फेंक दूँगी।"
पवन कान में फुसफुसाया, "बस एक बात बोल — उस बुड्ढे को मुझसे ज़्यादा घूरने का मौका मत देना।"
"ओ हो, जलन हो रही है क्या?"
"बिल्कुल। तू पे आँखें गाड़ने का हक मैंने कमाया है।"
उसने आँख मारी, "तो फिर आज रात फिर से कमाना पड़ेगा।"
पर जैसे ही वो हँसे, साक्षी की नज़र फिर कॉरिडोर की तरफ गई।
परदा फिर हिला।
और अगली सुबह, जब वो छत पर चादर झाड़ने गई, उसने फिर देखा — खिड़की। परदा थोड़ा खुला।
रामू।
उसने नज़र नहीं हटाई।
और साक्षी ने भी नहीं।
इस बार उसने चादर थोड़ा धीरे फोल्ड की, पीठ थोड़ा ज्यादा टेढ़ी की, और साड़ी का पल्लू... बस यूँ ही सरक गया थोड़ा।
उसकी त्वचा पर हल्की-सी सिहरन दौड़ गई।
नज़रें।
हाँ।
अब उसे यकीन था।
और... उसे अब अच्छा लगने लगा था।
शायद उस नज़र में कोई भूख थी, पर वो भूख डराती नहीं थी। उल्टा, उसमें एक अजीब-सी गर्मी थी — जैसे आग जो बुझ चुकी हो, पर राख अब भी तप रही हो।
-----
रामू ने पिछले पाँच सालों में शायद ही कभी अपने कमरे से बीस मिनट से ज़्यादा बाहर कदम रखा हो। तब से, जब उसकी बीवी चली गई थी। ऊपर वाला छोटा सा कमरा ही अब उसकी पूरी दुनिया था। एक अकेला पलंग, फीके नीले चादरों के साथ। एक लकड़ी की मेज़ — दवाइयों की बोतलों से अटी पड़ी, एक स्टील का गिलास, पुराने घिसे-पिटे मैगज़ीन। कमरे में हमेशा एक हल्की सी बासी सी गंध रहती — चंदन, कपूर और पुराने पसीने की मिली-जुली। दरवाज़े के पास रखी एक पुरानी रेडियो भी थी, जो अब सिर्फ पंखे की तरह घूमती आवाज़ें निकालती थी।
उसकी खिड़की कॉमन कॉरिडोर की तरफ थी — और वही काफी था। बाहर की दुनिया को बिना उसमें कदम रखे देखने की एक खिड़की। वहीं से वो गली के बच्चों की चिल्लाहटें सुनता, बिजली कटने पर लोगों के कोसने की आवाज़ें, और कभी-कभी रात को दूर किसी कुत्ते की लंबी हिचकी जैसी भौंक।
हर सुबह, वो अपनी आसान कुर्सी पर बैठा रहता — लुंगी घुटनों तक चढ़ी हुई, आँखें गड़ाए जैसे कोई चौकीदार हो। कान अब ठीक से नहीं सुनते थे, पर आँखें... वो और तेज़ हो गई थीं। अकेलेपन से तराशी हुई, सालों की चुप्पी से तेज़। वो चींटियों को टाइल्स पर रेंगते देखता, कबूतरों को रेलिंग पे नाचते, मकड़ियों को कोनों में अपना भविष्य बुनते हुए। उसका शरीर जंग खा गया था, लेकिन उसकी नज़र हर हलचल पी जाती थी।
और अब... कुछ नया उसकी नज़रों की ज़द में आया था।
एक औरत।
साक्षी।
उसका आना जैसे किसी ठहरे हुए तालाब में पत्थर फेंक दिया गया हो। खामोशी में एक लहर दौड़ गई थी, जो उसके हर दिन को अलग रंग में रंगने लगी।
पहली बार उसने उसे किचन की फ्रॉस्टेड खिड़की से देखा — जैसे उबलते चावल की भाप हो। वो हँसती थी, वो नंगे पाँव चलती थी। उसके कूल्हों की हरकत में कोई लोरी थी — जैसे किसी बुड्ढे मर्द के अंदर दबी तड़प को चुप कराने आई हो। जब उसने पहली बार उसे साफ़ देखा — दरवाज़े में खड़ी, पीठ पर सुबह की धूप, बाल गीले... रामू को लगा सपना देख रहा है। उसके कंधे गीले थे, उस धूप में चमक रहे थे जैसे सोने पर पानी।
वो औरों जैसी नहीं थी। जो आतीं, रहतीं और चली जातीं। वो कॉटन की साड़ियाँ पहनती थी जो हवा में चिपक जातीं। उसकी नाइटियाँ... बस एक इंच ज़्यादा खुली। और उसकी आवाज़ — बच्चे को डाँटते वक़्त भी शहद टपकता था। उसकी हँसी, कभी रसोई से, कभी बाथरूम के दरवाज़े के पास से, हर कोने में गूंजती थी।
रामू ने पहले भी सुंदरता देखी थी। बीवी बनाई थी, बच्चे पैदा किए थे, अंधेरे में सिसकियों की आवाज़ सुनी थी। कभी उसका भी वजूद था — जहाँ उसका शरीर कुछ करता था, हाथों में ताक़त थी, रातें ज़िंदा थीं। लेकिन ये... ये अलग था। ये बेरहम ज़िंदगी थी — लालच जो घर के कामों में छिपा बैठा था। शुरू में उसे साक्षी को चूमने का मन नहीं था — वो बस उसे समझना चाहता था। फिर समझना जुनून बन गया। फिर जुनून एक आदत — और आदत... अब ज़रूरत बन गई थी।
और इसीलिए... वो देखने लगा। चुपचाप। लगातार। एक अपराधी की तरह — जो हर बार उसी गुनाह की तरफ खिंचता चला जाए।
जब वो छत पर कपड़ों की टोकरी लेकर जाती, रामू का परदा हिलता। जब वो बेटे का खिलौना उठाने झुकती, रामू की साँस जैसे रुक जाती। जब वो फोन पर हँसती, वो आँखें बंद कर बस उसके होठों की मरोड़ सोचता। वो उसकी साड़ी बाँधने का तरीका देखता, कमर पर knot कसने का अंदाज़, ब्लाउज़ का गला, कपड़े सुखाते हुए पीठ की ऐंठन — सब कुछ।
वो रुकना नहीं चाहता था।
पर हर दिन... उसकी नज़रें उसे धोखा दे जातीं।
उसने उसकी दिनचर्या ऐसे याद कर ली थी जैसे कोई सुबह की पूजा हो:
सुबह 8:00 — एक हाथ में बेटा, दूसरे से दरवाज़े के बाहर झाड़ू लगाना। उसके पाँवों में पायल की झंकार होती थी, जैसे कोई राग बज रहा हो।
9:15 — नल के पास घुटनों पर बैठकर कपड़े धोना, भीगी बाँहें, और लटें जो चेहरे पर लुड़कती रहतीं।
12:30 — खिड़की के पास फर्श पर झपकी, साड़ी घुटनों से ऊपर खिसकी हुई। कभी-कभी तो एक पाँव मुड़ा होता, जिससे उसकी जाँघ की रेखा दिख जाती — इतनी नाज़ुक कि रामू की उँगलियाँ काँप जातीं।
रामू परछाईयों में बैठा रहता, वक़्त उसके पास से बहता रहता — बिना छुए। घड़ी की टिक-टिक और पंखे की खड़खड़ाहट ही उसकी संगत थीं।
उसका बेटा, सेल्वम, कभी-कभार आता। जाननी खाना रख देती, बिना सवाल पूछे। रामू को यही ठीक लगता था। लोगों ने उसे सुधारने की कोशिशें सालों पहले छोड़ दी थीं। अब कोई कोशिश नहीं करता था। वो खुद भी नहीं।
पर ये औरत...
उसके अंदर कुछ फिर से पिघलने लगा था।
इच्छा। जिज्ञासा। भूख। तड़प। और शायद... पागलपन।
एक बार वो इतना पास गया परदे के, कि उसकी गंध तक पकड़ ली — हल्दी, नारियल का तेल, और थोड़ा-सा पसीना। उसका लंड हिला — भारी, धीमा... जैसे वो ज़िंदगी याद कर रहा हो जो भूल चुका था। उसे शर्म आई। पर रुकने लायक नहीं। वो वहीं खड़ा रहा, साँस रोके, उसकी खुशबू को अपने अंदर भरता रहा। उसकी उँगलियाँ परदे की सिलवटों में कस गई थीं, जैसे किसी छिपे बदन को छू रही हों।
उसने पहली बार उसका नाम अपने होंठों पर लिया।
"साक्षी।"
जैसे कोई पुराना मसाला हो जो ज़ुबान पर फिर से चढ़ा हो। जैसे किसी भूले गीत की पहली लाइन जो फिर से दिमाग में गूंज उठे।
क्या कर रही है तू मेरे साथ लड़की? तू तो बस एक किरायेदार है। पर क्यों ऐसा लगता है जैसे जब तू चलती है तो दीवारें हिलती हैं?
मुझे देखना नहीं चाहिए। खिड़की बंद कर लेनी चाहिए। पर फिर तेरी पायल की आवाज़ आती है। वो भीगी साड़ी जो तेरे बदन से चिपकी रहती है। तेरी कमर की वो curve — इतना पवित्र, इतना अश्लील, कि मेरी हड्डियाँ दर्द करने लगती हैं।
मैं तो समझा था, नीचे कमर सब मर चुका है। सब अपनी साक्षी के साथ दफ़न हो गया। लेकिन अब... अब रातों में नींद से उठता हूँ, बदन में टीस के साथ। याद आता है — किसी मुलायम चमड़ी को मुँह से चूमने का अहसास। किसी औरत के नीचे मचलने का नशा। अब तो तेरा नाम भी ख्वाबों में बिना पूछे घुस आता है।
अब उसने ख्वाब बुनने शुरू कर दिए थे। वो — उसके कमरे में। उसके बिस्तर पर बैठी। उसकी आवाज़ — उसका नाम लेती हुई, धीमे से। वो उसे खिड़की के पास खड़ी सोचता — बाँहें ऊपर कर के बाल बाँधती हुई, उसकी चिकनी बगलें दिखतीं। वो वहाँ झुककर उसे चूमता, उसके पसीने को अपनी साँस में घोल देता। फिर वो उसकी गोद में सर रख के सोता, उसकी हथेलियाँ उसकी खोपड़ी पर फेरतीं। एक सपना जो कभी था, फिर खो गया था।
कभी-कभी तो बिना छुए भी खुद को छूता। सिर्फ वो याद — जब वो उसके कमरे के सामने से गुज़रती। सिर्फ वो गंध — जो उसके बाद कॉरिडोर में बच जाती। वो दीवार पर हाथ रखकर साँसें गिनता था।
उसने अब तक उसे देखा नहीं था। सीधा नहीं। पर उसे पता था — वो जानती है। उसने देखा — उसकी पीठ थोड़ी तन जाती है, उंगलियाँ रुक जाती हैं, साड़ी ज़्यादा ध्यान से ठीक की जाती है जब वो समझती है कोई नहीं देख रहा। उसका चलना थोड़ा और नर्म हो जाता, जैसे वो भी खेल में शामिल हो।
पता है तुझे, है ना? तू मुझे छेड़ रही है। तू बाल बाँधते हुए बाँहें धीरे उठाती है। तू बालकनी के उस धूप वाले टुकड़े में ज़्यादा देर खड़ी रहती है। तू चाहती है मैं जलूँ।
और मैं जलता हूँ, साक्षी। रोज़ जलता हूँ। सालों से यहाँ गल रहा था, लेकिन अब तूने राख में केरोसीन डाल दिया और माचिस जला दी। तुझसे नफ़रत है मुझे... और तेरा शुक्रिया भी।
रामू के हाथ अब पहले जैसे नहीं रहे। चम्मच पकड़ते वक्त काँपते हैं। पर उसका लंड अब भी याद रखता है। उसकी साँसें अब भी उस खास तस्वीरो पर तेज़ हो जाती हैं। कभी-कभी वो सोचता — एक दिन दरवाज़ा आधा खोल के छोड़ दूँ... क्या वो अंदर आएगी? क्या वो मुस्कुराएगी? या आँखें फेर लेगी?
नहीं। अभी नहीं।
लेकिन ख्वाब में तो आ ही जाती है। रोज़। कभी धुँधली, कभी साफ़। कभी उसकी साड़ी खुलती है, कभी उसकी आँखें।
और इस तरह, रामू बैठा रहता।
देखता।
इंतज़ार करता।
साँस लेता।
और अब... फिर से ज़िंदा था।
बुरी तरह। भूखेपन के साथ।
-----
यह रविवार की सुबह थी, दो हफ़्ते बाद जब ये परिवार इस घर में शिफ्ट हुआ था। सूरज की किरणें गलियारे की खिड़कियों से ऐसे उतर रही थीं जैसे सोना पिघल कर बिखर रहा हो। हवा में उड़ती धूल की कण उस रौशनी में चमक रही थीं। तवे पर डोसे का घोल सिंकता हुआ महक बिखेर रहा था। बालकनी में झुके नीम के पेड़ से चिड़ियों की चहचहाहट गूँज रही थी।
साक्षी स्टोव के पास खड़ी थी, डोसे पलट रही थी। उसके बाल एक ऊँचे बन में बँधे थे, जिस पर हल्की सी पसीने की चमक थी। वहीं लिविंग रूम के फ़र्श पर पवन और उनका बेटा प्लास्टिक के कपों की टॉवर बना रहे थे। कप गिरते, बेटा खिलखिलाता, पवन फिर से उन्हें सजाता। घर में एक हल्की, जीती-जागती गर्माहट थी।
तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई।
तीन धीमी, लेकिन ठहराव भरी थपकियाँ। एक अजीब सी स्थिरता उस खटखट में थी।
"जाननी अक्का होगी," साक्षी ने अपनी साड़ी से हाथ पोंछते हुए कहा और दरवाज़े की ओर चली। उसने दुपट्टा ठीक किया, पैरों से लुंगी समेटी और दरवाज़ा खोला।
पर दरवाज़े पर जाननी नहीं थी।
रामू खड़ा था — एकदम प्रेस की हुई सफेद शर्ट और लुंगी में, बाल कंघी किए हुए, गाल साफ़। दोनों हाथों में एक स्टील का छोटा कटोरा, ऊपर से ढककर रखा हुआ। चेहरे पर झिझक और आँखों में कुछ अनकहा था।
"वणक्कम," उसने भरी हुई लेकिन मजबूत आवाज़ में कहा। "आज पोंगल ज़्यादा बन गया, सोचा थोड़ा ले आऊँ।"
साक्षी ने पलकें झपकाईं, थोड़ा चौंक गई। पहली बार थी जब वो उसे इतने पास से देख रही थी। पास से रामू की मौजूदगी अलग थी — कमज़ोर नहीं, भारी। उसकी आँखें इधर-उधर नहीं भागती थीं... टिक कर देखती थीं। और उन आँखों में बीते वक़्त की परतें दिखती थीं — थकान, तड़प और कुछ और गहराई जो साक्षी ने कभी महसूस नहीं की थी।
"अय्यो, थैंक यू अंकल! बहुत अच्छा लगा। अंदर आइए न," साक्षी बोली और एक तरफ हट गई। उसकी आवाज़ में हैरानी छिपी थी, लेकिन मुस्कान में गर्मजोशी भी।
पवन ने ऊपर देखा और झटपट खड़ा हो गया। "ओह! वणक्कम सर। आप वही हैं ना... बगल वाले कमरे से? जाननी मैडम ने बताया था।"
"हाँ हाँ, रामू," बुड्ढे आदमी ने कहा और कटोरा साक्षी को थमाया। "वो कॉरिडोर के आखिरी वाला कमरा मेरा है। मिलने का मन तो था पहले ही, पर हड्डियों को वक्त लगता है।"
"आप तो एकदम सही समय पर आए हैं," साक्षी मुस्कराई। "ब्रेकफास्ट रेडी है। हमारे साथ खाइए।"
रामू थोड़ा झिझका। "अरे नहीं, टोकना नहीं चाहता था। बस एक नमस्ते कहने आया था।"
"अरे कैसी बात करते हैं," पवन बोला। "कोई टोकना-वोकना नहीं है। हमारे लिए तो सम्मान की बात है कि आप आए। आइए बैठिए।"
रामू की नज़र एक बार फिर साक्षी पर गई — उसका बाल तेल में सधा हुआ, एक मोटी चोटी में बंधा हुआ। ब्लाउज़ पंखे की हवा में हल्का-सा बदन से चिपका था। उसकी कलाई में चूड़ियाँ छनक रही थीं जब वह कटोरा रखने अंदर गई।
"तो फिर... थोड़ा बैठ जाता हूँ," उसने कहा। उसने चप्पलें उतारीं और धीरे-धीरे भीतर आया। पवन ने उसके लिए एक तकिया खींच दिया।
सब मैट पर पालथी मार के बैठ गए, और साक्षी प्लेटें लेकर आई। उसने सबसे पहले रामू को परोसा। उसके हाथ थामे हुए, भाप उड़ती डोसे की प्लेट सामने रखी।
"सांभर या चटनी, अंकल?"
"दोनों चलेगा, अगर बुरा न मानो," उसने कहा, उसकी उंगलियाँ गौर से देखते हुए जब वो परोस रही थी। "तुम किचन में बड़ी लयबद्ध लगती हो। मेरी बीवी की याद आ गई। उसका हाथ भी ऐसा ही सधा हुआ था।"
पवन मुस्कराया। "पूरे खानदान में सबसे बढ़िया कुक है। मैं तो लकी हूँ।"
रामू की हँसी गहरी थी। "बिलकुल लकी हो। हर दिन ये खाना मिले तो उम्र और भी लंबी हो जाए।"
उनका बेटा साक्षी की गोद में चढ़ गया और रामू को बड़ी-बड़ी आँखों से देखने लगा।
"ये कौन है, अम्मा?"
"ये रामू तात है," साक्षी ने उसके बाल पीछे करते हुए कहा। "यहीं कॉरिडोर में रहते हैं। हेलो बोलो।"
"हाय तात!"
रामू मुस्कराया, उसकी आँखें पिघल गईं। "हेलो कन्ना। तू बड़ा स्ट्रॉन्ग लड़का है। खाना अच्छे से खाता है ना?"
"ये तो तभी खाता है जब मैं पहले डांस करूं," साक्षी ने नकली ग़ुस्से के साथ कहा।
सब हँस पड़े। रामू की नज़र फिर ठहर गई। उसकी हँसी की आवाज़... उसकी नाक की हल्की सिकुड़न। उसने गले में अटका कुछ निगला — जो डोसे से नहीं था।
कुछ देर तक वे सब खाते रहे, बातचीत होती रही — मौसम की, मोहल्ले की, पुराने मकान मालिकों की। लेकिन रामू की नज़र बार-बार साक्षी पर लौट आती। वह जब अपने बेटे को दुलारती, जब चटनी का प्याला पास करती, जब प्लेटों को समेटने के लिए झुकती — हर लम्हा एक दृश्य की तरह संजो लेता वो।
कुछ देर बाद, वो धीरे से उठा। "अब चलता हूँ। सुबह का समय आपका है। साथ देने के लिए धन्यवाद। बहुत अच्छा लगा।"
"नहीं अंकल, शुक्रिया आपको," पवन बोला। "घर जैसा ही समझिए।"
"कभी भी आइए तात," साक्षी ने जोड़ा। उसकी आवाज़ में अब एक आत्मीयता थी जो पहली बार से अलग थी — ज़रा और मुलायम, ज़रा और खुली।
रामू ने मुड़कर उसे देखा — एक नज़र जो बेहूदगी नहीं थी, पर भूख से खाली भी नहीं थी। उसकी आँखों में कुछ ऐसा था जो सिर्फ उम्र नहीं, तजुर्बा भी लाता है। और साक्षी उस नज़र से डरी नहीं। उल्टा, उसने हल्की मुस्कान के साथ उसे विदा किया।
"आ सकता हूँ..." उसने कहा। फिर धीरे-धीरे कॉरिडोर में चला गया — कदम धीमे थे, पर दिल की धड़कन तेज़।
उसके पीछे, साक्षी दरवाज़े के पास कुछ देर खड़ी रही। उसके नाखून प्लेट पर बज रहे थे, जैसे कोई धुन सोच रही हो।
फिर उसने सिर झटक कर दरवाज़ा बंद किया — पर एक खिड़की, कहीं अंदर, खुल गई थी।
Posts: 327
Threads: 0
Likes Received: 101 in 91 posts
Likes Given: 210
Joined: Feb 2022
Reputation:
0
•
Posts: 30
Threads: 2
Likes Received: 132 in 27 posts
Likes Given: 1
Joined: Apr 2025
Reputation:
3
ये सब शुरू हुआ उस गर्मी के एहसास से।
ना स्टोव की गर्मी थी, ना दोपहर की धूप जो फर्श की टाइल्स को तपाती है।
ये नज़रों की गर्मी थी। चुपचाप, ठहरी हुई, भारी। ?️?️?
साक्षी ने उसे तब महसूस किया जब उसने वो लैवेंडर नाइटी पहनी — जो पंखा बंद होने पर उसकी जांघों से चिपक जाती थी। वही जिसे पवन मज़ाक में उसका "danger dress" कहता था। वो पलंग के नीचे से अपने बेटे की प्लास्टिक बॉल उठाने झुकी, कमर मुड़ी, घेर ऊपर चढ़ गया थोड़ा। जैसे ही उठी, उसने वो महसूस किया।
जैसे किसी ने पीठ पर साँस ली हो। जैसे कुछ पवित्र और मना किया गया उसके आर-पार हो गया हो। पेट में अजीब हलचल हुई।
उसने कॉरिडोर की तरफ देखा।
कुछ नहीं। बस रामू के कमरे के पास का परदा हिल रहा था। ??️?
लेकिन उस दिन कुछ बदल गया। जैसे कोई परत उतर गई हो। जैसे कोई अनदेखी नज़र उसकी खुशबू की तरह पीछे-पीछे चलने लगी हो। जैसे कोई भूला हुआ आईना अचानक सामने आ खड़ा हो और उसमें एक पुरानी, भूखी औरत दिख जाए — वो जिसे साक्षी ने सालों पहले ज़मीन में गाड़ दिया था।
क्या ऐसा लगता है जब कोई फिर से तुम्हें देखे? एक माँ नहीं, एक बीवी नहीं... बल्कि एक औरत की तरह? एक जिस्म की तरह?
उस रात, जब वो आईने के सामने बाल ब्रश कर रही थी, उसने अपने आपसे बुदबुदाया, "वो मुझे देख रहा है। मुझे महसूस हो रहा है।"
पवन बाथरूम में था, बेसुरा गाना गा रहा था और पानी के छींटे उड़ा रहा था। उनका बेटा सो रहा था, हाथ-पाँव फैलाकर, गहरी और तेज़ साँसों के साथ। ???
उसने अपना निचला होंठ हल्के से दबाया। एक भूली-बिसरी याद चमकी।
**SS... सूथु साक्षी।**
वो नाम जैसे मन में गूंजा। कॉलेज के दिन। नोटबुक्स के पीछे फुसफुसाकर कहा गया, लाइब्रेरी की डेस्क और बाथरूम की दीवारों पर घटिया हैंडराइटिंग में लिखा गया। उस नाम ने उसका पीछा किया था — जैसे कोई अफ़वाह, कोई गाली, और कोई दुआ एक साथ। लड़के उसे बस इसीलिए क्लास तक जाते देखते थे, कि उसकी कमर की चाल और छाती की उछाल देख सकें।
वो नाम क्रूर नहीं था। वो... सटीक था। ???
पहले उसे उससे नफ़रत थी। जब भी सुनती थी, शर्म से गाल जलने लगते थे। फिर धीरे-धीरे वो उस नाम में घुस गई। उसे अपना बना लिया। जैसे कोई परफ़्यूम। जैसे कोई कवच। जैसे किसी ने कहा हो — हाँ, देखो मुझे। हिम्मत है तो झेलो।
**मुझे वो अटेंशन अच्छा लगता था।** उन आँखों की गर्मी जो मुझे देखती थीं — उसमें मैं ज़िंदा महसूस करती थी। चाही हुई। ख़तरनाक। ज़िंदा। कोई थी मैं। कोई जिसे चाहा जाता था।
वो लड़की — जो पलट कर मुस्कुरा देती थी उस लड़के को जो ज़्यादा देर घूरता था — वो कहीं पत्नी, माँ, रसोइया, साफ़-सफ़ाई वाली इन लेयर्स में दब गई थी। उसकी जाँघों की गर्मी अब किसी दूध उबालने के बर्तन में भाप बन चुकी थी। उसकी साँस अब बस बच्चों के ज़िद पूरे करने में खर्च होती थी।
**लेकिन रामू की नज़र... उसने उसे खोद कर बाहर निकाला।**
**कब से नहीं महसूस हुआ वो करंट? वो जो जांघों के बीच धड़कता है — सिर्फ़ इसीलिए कि कोई मुझे चाहता है? ज़रूरत से नहीं, आदत से नहीं — वाक़ई चाहता है।** बिना कहे, बिना छुए। बस नज़र से। किसी को तुम बस इसीलिए अच्छे लगो क्योंकि तुम चलती हो, साँस लेती हो, और मौजूद हो — उस एहसास में बिजली होती है।
अगली सुबह, उसने एक हल्के नेक वाला कॉटन ब्लाउज़ पहना — फिका पीच रंग का। कुछ ज़्यादा नहीं, पर इतना था कि कमर पर कसा हुआ लगे और गर्दन के पास थोड़ा ढीला, जिससे झुकने पर कुछ सरक जाए। उसके कानों में झुमके भी थे — पुराने, लेकिन आज बड़े प्यार से पहने। जब उसने कॉरिडोर बुहारा, उसने रामू के कमरे के सामने जानबूझ कर धीरे चलना शुरू किया। ???
उसे देखने की ज़रूरत नहीं थी। उसे महसूस हो रहा था। उस परदे के उस पार।
देखता हुआ।
परखता हुआ।
पूजता हुआ।
और वो... वो खुद को जैसे एक वेदी पर चढ़ा रही थी। जैसे वो रोज़ एक छोटा-सा त्याग कर रही हो — अपनी लाज, अपनी चाल, अपनी मासूमियत — बस इसलिए ताकि कोई दूर बैठा आग में हाथ सेंक सके।
**अगर वो देख रहा है, तो देखे।** देखे कि जिसे पवन हल्के में लेता है, वो क्या चीज़ है। देखे कि चाहना कैसा लगता है — वो भी उस चीज़ को जो बस हाथ से बाहर हो। देखे कि उसकी त्वचा अब भी सुलग सकती है।
उस दोपहर, जब उसने कपड़े सुखाए, उसने अपनी पेटीकोट और ब्लाउज़ रामू की खिड़की की तरफ मुँह करके टाँगे। हवा चली — कपड़ा फड़फड़ाया, जैसे कोई छेड़। कपड़ा तार से चिपका, फिर धीरे-धीरे उठ गया, जिससे लेस और उसके curve की झलक मिली। ??? उसकी साँस धीमी हो गई थी, लेकिन धड़कन उतनी ही तेज़। वो जानती थी — रामू देख रहा है। शायद बैठा है खिड़की के पास, आँखों में भूख और होठों पर चुप्पी लिए।
फोन बजा। कॉलेज ग्रुप से मैसेज था।
**Remember Soothu Sakshi?** किसी ने भेजा था, एक हँसने वाली इमोजी के साथ।
साक्षी मुस्कुराई। उंगलियाँ कीबोर्ड पर रुकीं।
**"She’s back,"** उसने फुसफुसाया।
वो पुरानी लड़की — वो शरारती मुस्कान वाली, जिसे देखा जाना अच्छा लगता था। जो दूसरों की नज़र को अपना स्टेज बना लेती थी। जिसने अपनी ही नज़र से अपने जिस्म को प्रेम करना सीखा था। वो वापस आ चुकी थी। वो जिसे उसकी माँ ने बार-बार डांटा था — टाँगें ढँक, छाती छिपा, नज़र झुका — वही लड़की अब फिर से खुल रही थी।
**शायद मुझे बस एक वजह चाहिए थी उसे जगाने की। और शायद रामू की नज़र वही है — एक आईना। जो कहता है, हाँ, तू अब भी वही है। वही आग। वही लपट।**
उस शाम, जब वो फिर रामू के कमरे के सामने से गुज़री — वो रुकी।
उसने अपनी साड़ी की प्लीट्स धीरे-धीरे ठीक कीं। कपड़ा कूल्हे पर खींचा, थोड़ा ज़्यादा कस के खोंसा। अपनी चोटी को झटका, जिससे बालों से हल्की महक फिज़ा में तैरी। हर हरकत आम दिखती थी — अगर कोई आम तरीक़े से देखे।
लेकिन रामू के लिए — वो एक प्रार्थना थी। एक इजाज़त। एक न्यौता। ???
परदा हिला। हल्का-सा। बस उतना कि यक़ीन हो जाए। उतना कि साक्षी का गला सूख जाए, और उसके पेट में फिर से वो गर्मी कुलबुलाए।
उसका दिल धड़कने लगा। डर से नहीं। ताक़त से। जैसे कोई देवी फिर से जाग गई हो, जिसे सालों से किसी मंदिर में बंद कर दिया गया था।
और उसकी मुस्कान — जंगली, जानकार, भूखी — लौट आई। होठों के कोनों से लपकती हुई। अब उसमें सिर्फ़ शरारत नहीं थी, चुनौती भी थी।
**मैं सिर्फ एक नज़र से उसे तबाह कर सकती हूँ। घुटनों पर ला सकती हूँ। और मज़े की बात? वो चाहता भी यही है।** उसकी नज़रों की तपिश अब मेरी त्वचा में रच गई है। मैं अब उस खेल की रानी हूँ — और वो, मेरा सबसे वफ़ादार दर्शक।
उसने कुछ नहीं कहा। लेकिन उसके अंदर, वो नाम फिर से गूंजा:
**Soothu Sakshi।**
वो वापस आ चुकी थी। और उसके पास अब एक audience थी। ????
-------
बारिश आई बिना किसी चेतावनी के।
एक ज़ोरदार बिजली की गड़गड़ाहट घर के ऊपर से लहराई, और फिर जैसे आसमान फट गया हो — बारिश इतनी तेज़ कि सब कुछ बहा ले जाए। साक्षी फर्श से उठ बैठी जहाँ वो अपने बेटे के साथ आधी नींद में लेटी थी। उसका शरीर तापमान के बदलते ही जाग गया, मन से पहले। वो भागी बालकनी की ओर, दिल धड़कता हुआ।
"मेरे कपड़े!" उसने बड़बड़ाते हुए बालकनी का दरवाज़ा खोला। ?️?⚡
ठंडी फुहार ने उसके चेहरे पर थप्पड़ मारा। उसकी साड़ी टांगों से चिपक गई जैसे किसी ने उसे पकड़ रखा हो। नंगे पैर बालकनी में कदम रखते ही उसकी नज़र कपड़ों की डोरी पर गई। खाली।
उसकी सारी साड़ियाँ, ब्लाउज़, पेटीकोट्स, ब्रा, पैंटीज़ — सब ग़ायब। उसकी पसंदीदा बैकलेस ब्लाउज़, जो उसने शादी की पहली सालगिरह पर पवन के लिए पहना था, वो भी नहीं थी। हल्की पीली पैंटी, जिसमें उसे अपनी कमर सबसे ज़्यादा खूबसूरत लगती थी — वो भी गायब।
उसकी नज़रें सिकुड़ गईं। उसे याद था — दो घंटे पहले तक वो लाइन कपड़ों से भरी हुई थी। क्लॉथस्पिन अब भी वहीं झूल रही थीं — जैसे छोटे-छोटे गुनहगार चुपचाप लटक रहे हों। एक लाल क्लिप हवा में डोल रही थी, जैसे कुछ कहने को बेताब हो।
वो कुछ पल वहीं खड़ी रही, ठंड उसके ब्लाउज़ से आर-पार हो रही थी, और बारिश की थप-थप के अलावा कोई आवाज़ नहीं थी। और फिर धीरे-धीरे एहसास रिसता चला आया।
ये बस खोए नहीं हैं। **ये चुराए गए हैं।**
उसने कॉरिडोर के उस सिरे की ओर देखा।
रामू का दरवाज़ा बंद था।
लेकिन कुछ — कोई पागल सी सीटी जैसी आशंका जो उसके पेट के सबसे गहरे कोने से उठी — उसके पाँव उस ओर खींचने लगी। ?️??
उसका शरीर पहले बढ़ा, दिमाग बाद में हड़बड़ाया। भीगा हुआ सीमेंट उसके तलवों को चीर रहा था जैसे चेतावनी दे रहा हो। उसने दरवाज़े पर दस्तक दी। एक बार। फिर दो बार। कोई जवाब नहीं।
उसकी उंगलियाँ कुंडी पर ठहर गईं। उसने चारों ओर देखा। बारिश ने सब कुछ डुबो दिया था। हर कोई अपने-अपने कमरों में बंद था। किसी ने नहीं देखा जब उसकी उंगलियाँ धीरे से कुंडी पर लपकीं और उसे घुमाया।
दरवाज़ा चरमराता हुआ खुला।
कमरा धुँधला था, बस एक म्यूट टीवी स्क्रीन की टिमटिमाती रौशनी। रामू अपने चारपाई पर लेटा था, आधी लुंगी से ढँका, सीना नंगा, उसकी साँसें धीमी और गहरी। उसकी नाक से हल्की खर्राटी निकल रही थी, मुँह थोड़ा खुला, होठों पर सूखापन, साँसें भारी और गाढ़ी। पास में एक पुराना अखबार पड़ा था — शायद उसे देखने से पहले उसने कुछ ढँकने की कोशिश की थी।
लेकिन साक्षी ने उसका चेहरा नहीं देखा।
उसकी नज़रें अटक गईं बिस्तर के कोने पर पड़े कपड़े पर। उसका लैवेंडर ब्रा। उसका हल्का हरा पैंटी। फोल्ड नहीं — **मसल दिया गया था। इस्तेमाल किया गया था।** ??? पास में ही उसका पीच रंग का ब्लाउज़ भी पड़ा था — पसीने से भीगा हुआ, गंध से भारी।
उस सन्नाटे में एक अजीब सी पवित्रता थी। और उसी में कुछ बेहद अश्लील था — जैसे कोई पूजा कर रहा हो, किसी देवता की मूर्ति नहीं, बल्कि किसी औरत की देह की।
वो धीरे-धीरे आगे बढ़ी, साँस उथली। उसकी लुंगी के नीचे से रामू का लंड झाँक रहा था — मोटा, भारी, नींद में भी अधखड़ा। लुंगी की भीतरी जांघ पर गाढ़ा, चिपचिपा निशान था, और उसके अंडरवियर पर एक नमी का हल्का दाग — जो बारिश से नहीं आया था। पलंग के पास पड़े टिशूज़ गीले और मुड़े हुए थे, जैसे किसी जल्दी में मुँह छिपाया गया हो।
उसे छूने की ज़रूरत नहीं थी जानने के लिए। वो महक रही थी — एकदम कच्ची, मर्दानी, पहचानने लायक। उसमें उसकी अपनी खुशबू भी बसी थी, किसी अजीब तान के साथ मिली हुई — जैसे उसके भीतर का गीलापन और रामू के वीर्य की महक एक साथ मिलकर कोई नया इत्र बन गई हो।
**उसने इन्हें इस्तेमाल किया था।**
एक झटका उसके पूरे जिस्म में दौड़ गया।
पहली प्रतिक्रिया थी — ग़ुस्सा। अपमान। **उसकी इतनी हिम्मत?**
पर दूसरी...
...उसने अपनी जाँघें भींच दीं।
उसने फिर उस लंड की ओर देखा। उसकी मोटी नस याद आई। उसका पेट जो धीरे-धीरे उठता-गिरता था। उस पल में उसकी उम्र गायब हो गई — वो बस एक मर्द था। **एक भूखा मर्द।** उसका चेहरा किसी बच्चे-सा शांत था, पर उसके लंड में आग थी — **साक्षी की आग।**
**जब उसने किया... वो मेरे बारे में सोच रहा था। मेरे कपड़े हाथ में लिए। मेरी खुशबू में डूबा। मेरे बदन की कल्पना करता हुआ। मैं उसकी मुट्ठी में थी। उसकी सोच में घुसी हुई।** उसकी साँसों की लय, उसका गर्म लार, सब मेरे नाम पर बहा था।
उस ख्याल से उसकी रूह कांप गई। उसके निप्पल भीग चुके ब्लाउज़ के नीचे तन गए। जाँघों के बीच गीली गर्मी फैलने लगी — एक धीमी जलन जो ऊपर चढ़ती जा रही थी।
उसने हाथ बढ़ाया, काँपता हुआ, और कपड़े उठा लिए। चुपचाप। नाज़ुकता से। जैसे कोई मंदिर से प्रसाद चुरा रहा हो। जैसे कोई किसी की आत्मा की चोरी कर रहा हो।
वो कमरे से ऐसे निकली जैसे कोई भूत। दरवाज़ा पीछे बहुत हल्के से बंद हुआ। उसके कान में सिर्फ़ रामू की भारी साँसें थीं।
घर के अंदर आकर उसने दरवाज़ा लॉक किया और उसी से टिक गई, साँसें हाँफती हुई। नाइटी के नीचे उसके निप्पल अब भी सख़्त थे। उसने वो भीगे कपड़े बिस्तर पर फेंके और बस उन्हें घूरती रही। जैसे वो अब उसका आईना हों — जिसमें कोई और ही साक्षी दिखती है।
एक मिनट।
दो।
फिर उसका हाथ पैंटी की तरफ बढ़ा।
अब भी गर्म थी।
अब भी भीगी।
उसने उसे अपनी नाक के पास ले जाकर सूंघा।
खुशबू तीखी थी। उलझी हुई। मर्दानी। उसकी उंगलियाँ उसके ही जांघों के बीच पहुँच गईं, इससे पहले कि वो सोच सके। दो उंगलियाँ कपड़े के नीचे चली गईं। उसकी कमर तड़प गई। साँस अटक गई।
वो पलंग पर बैठ गई, टाँगें फैलीं, पैंटी अब भी चेहरे से चिपकी हुई, उंगलियाँ अंदर, धीमी और गीली गोलाई में घूमती हुई। उसकी आँखें आधी मुंदी हुई थीं, और होठों के कोनों से कराह फिसल रही थी — नर्मी में डूबी, लेकिन आग से भरी।
**साले बूढ़े हरामी... तूने मेरे साथ क्या कर दिया?** ???
वो पीठ के बल लेट गई, उसकी उंगलियों पर रामू का वीर्य, और उसकी ज़ुबान पर अपनी ही ख्वाहिश का स्वाद। अब उसकी कमर खुद-ब-खुद हिल रही थी, कुछ गंदा, कुछ तेज़, कुछ उजाला पकड़ने के लिए। हर थरथराहट जैसे कोई पुरानी याद हो — कुछ जो कभी उसकी थी, लेकिन समाज ने छीन लिया।
और बाहर — बारिश और तेज़ हो गई। बिजली फिर चमकी। पर्दे के पीछे से रौशनी तड़पी।
लेकिन अंदर — **साक्षी जल रही थी।** उसकी आँखें बंद थीं, लेकिन उसकी जाँघों के बीच एक तूफ़ान चल रहा था।
और उसकी सोच में, बस एक ही चीज़ थी — उसका लंड। धड़कता हुआ। फड़फड़ाता हुआ। इंतज़ार करता हुआ। वो लंड जो उसे बिना बोले समझ गया था। जो उसे उसकी नज़र से, उसकी गंध से, उसकी नमी से चख चुका था।
**अब उसने मुझे चखा है**, उसने सोचा। **और मैंने उसे। अब ये कोई खेल नहीं — ये एक रिश्ता है। एक ऐसा बंधन, जो शब्दों से नहीं, लार और लहू से बना है।**
अब वापस लौटना मुमकिन नहीं था।
उस रात, घर हल्के अंधेरे में डूबा हुआ था। बारिश थम चुकी थी, लेकिन दीवारों में अब भी ठंडी सी सीलन बस गई थी। खिड़कियाँ बंद थीं, फिर भी भीगी मिट्टी की खुशबू अंदर तक चली आई थी। बाहर, गली के नीचे पानी के छोटे-छोटे पोखर स्ट्रीटलाइट की पीली रोशनी में चमक रहे थे, और कहीं दूर से मेंढकों की टर्राहट आ रही थी।
साक्षी बाथरूम में खड़ी थी, दरवाज़ा अंदर से बंद। उसके हाथ में हल्की हरे रंग की वही पैंटी थी — जो रामू ने इस्तेमाल की थी। वो देखने में जितनी हल्की थी, हाथ में उतनी ही भारी लग रही थी।
उसने उसे पीले बाथरूम लाइट में ऊपर उठा कर देखा। गहरा निशान अब हल्का पड़ चुका था, लेकिन अब भी था। जब उसने उसे थोड़ा और पास लाया, उसकी साँसें अटक गईं — जैसे कुछ पवित्र और बेहूदा एक साथ थमा हो।
**उसने मेरे लिए किया।**
**मेरे बारे में सोचते हुए।**
**मेरी गंध के साथ।**
उसने अपनी सामान्य पैंटी उतारी और उस चोरी की हुई पैंटी में पाँव डाला। कपड़ा पहले ठंडा लगा, फिर जैसे-जैसे उसके शरीर की गर्मी से मिला, उसने खुद को कस कर पकड़ लिया। उसने आँखें बंद करके धीरे-धीरे उसे ऊपर खींचा। उसकी गंध जैसे एक लहर बनकर उसके होश को बहा ले गई — नमक, मर्दाना पसीना, और वासना का कच्चा असर।
एक कराह उसके गले से निकली, धीमी और लाचार। उसकी जाँघें कस गईं।
उसने लाइट बंद की और बेडरूम की तरफ चली। उसके बेटे की नींद टूटे बिना — जो पलंग के कोने में टेडी बियर को पकड़े, छोटा-सा हाथ फैला कर सो रहा था। पवन पहले ही चादर में लिपटा लेटा था, एक हाथ सिर के नीचे, दूसरे में फोन, हल्की मुस्कान लिए स्क्रीन पर कुछ स्क्रॉल कर रहा था।
"आज लेट हो गई," उसने बिना देखे कहा।
"थोड़ा साफ़-सफ़ाई करनी थी," साक्षी ने हल्की आवाज़ में जवाब दिया, चुपचाप उसके पास आकर चादर में समा गई। उसका शरीर एकदम सतर्क था, हर त्वचा का हिस्सा गद्दे से टकराते ही जाग रहा था।
पवन ने उसका चेहरा घुमा कर देखा, वही आलसी-सी मुस्कान दी जो उसे लगता था सेक्सी है। "अलग सी महक आ रही है। कौन सा साबुन लगाया है?"
साक्षी का दिल ज़ोर से धड़कने लगा। "बस... चंदन वाला। मीना ने दिया था। नया है।"
उसका हाथ चादर के नीचे उसकी कमर पर गया, फिर अंदर की ओर — उसकी जाँघों के बीच।
साक्षी की पूरी देह सख़्त हो गई। उसका स्पर्श आज अजनबी लग रहा था। जैसे किसी और की जगह पर कोई आ गया हो।
"थक गई हूँ," उसने जल्दी से फुसफुसाया। "बारिश... बच्चे ने दिन में सोया नहीं। सुबह पाँच बजे से जागी हूँ। कमर टूट रही है।"
"अरे अरे," पवन हँसते हुए बोला। "बस एक किस चाहिए थी। मिस कर रहा था बस।"
उसने उसके गाल पर हल्का सा चुंबन दिया, ज़बरदस्ती मुस्कराई, और फिर पीठ घुमा कर लेट गई। उसकी साँसें उथली थीं, सीने में फँसी हुई।
पवन ने लाइट बंद की। कमरा अंधेरे में डूब गया, बस बाहर से हल्की रौशनी झाँकती रही। कहीं दूर बिजली की एक धीमी गड़गड़ाहट अब भी गूँज रही थी, जैसे कोई चेतावनी।
लेकिन उसके अंदर — रात अभी शुरू हुई थी।
उसकी टाँगें एक-दूसरे से रगड़ रही थीं, भीगी हुई पैंटी उसकी योनि से चिपकी हुई थी। उसका हाथ चादर के नीचे गया, धीरे-धीरे फिसलता हुआ, जब तक उसकी हथेली खुद पर नहीं आ गई। उसके क्लिट के नीचे कपड़े की गर्मी धड़क रही थी।
**रामू।**
उसके दिमाग में रामू का वही सोया हुआ शरीर लौट आया। खुला लंड। वो मोटाई। वो धीमी-सी धड़कन जो उसकी मुट्ठी में होती होगी। लुंगी के नीचे की आकृति। वो कच्ची मर्दानगी। वो उम्र। ये बात कि उसे कुछ कहने की ज़रूरत नहीं — वो बस था, और यही उसे पिघला देने के लिए काफ़ी था।
उसने उसे अब जागा हुआ सोचा — उसके पीछे खड़ा हुआ। उसकी नाइटी के नीचे हाथ। उसकी गर्दन पर गर्म साँस। कंधे पर दाँत। उसका नाम फुसफुसाते हुए — जैसे कोई प्रार्थना, जैसे कोई श्राप।
उसकी उंगलियाँ चलने लगीं। छोटे-छोटे गोल घेरे। धीमा दबाव। उसने चादर के कोने को दाँतों से दबा लिया ताकि आवाज़ बाहर न निकले, जाँघें कस गईं, हथेली को अपने बीच फँसा लिया।
पवन उसके पास हिला। साक्षी सख़्त हो गई, साँस अटक गई। डर का एक झटका उसके पेट में स्वाद बन कर घुल गया।
वो पलटा। खर्राटा लिया। फिर सो गया।
उसने फिर चालू किया।
**गंदे बूढ़े... तूने मुझे इस्तेमाल किया। मेरी खुशबू को छुआ। मेरे लिए किया। तूने खुद को रोका नहीं। और मैं भी नहीं रोक पा रही।**
ऑर्गैज़्म उम्मीद से जल्दी आने लगा। जाँघों से उठता हुआ पेट में लहराने लगा, फिर पूरे बदन में घूम गया। उसने रामू को अपने पलंग के सामने खड़ा देखा — खुद को सहलाता हुआ, आँखों में भूख लिए। या शायद वो अभी भी वहीं था — कॉरिडोर के अंत में, जानता हुआ कि साक्षी भी वही कर रही है जो उसने की थी।
वो बिना आवाज़ के आई — मुँह खुला लेकिन शब्दहीन। बदन में तूफ़ान सा उभरा। उसकी टाँगें काँपीं। उंगलियाँ भीगीं। बदन अंधेरे में ऐंठ गया — और उसका पति अब भी बेख़बर सोया था।
वो कुछ मिनट वैसे ही पड़ी रही — शर्म, गर्मी, और सिहरन में डूबी हुई। उसकी उंगलियाँ अब भी नम थीं। उसका सीना ऊपर-नीचे हो रहा था। उसका मन — अब भी नहीं लौटा था।
बगल में उसका पति खर्राटे ले रहा था, जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
लेकिन उसके अंदर, अब जो आग थी — वो किसी और की थी।
और उसने उसे कभी छुआ भी नहीं था।
उसका हाथ उसके पेट पर गया, फिर उस पैंटी के गीले कपड़े की तरफ। उसने उसे एक बार फिर अपने क्लिट पर दबाया।
**कल... मैं फिर एक जोड़ी बाहर छोड़ दूँगी। शायद लाल लेस वाली।** उसने सोचा। **देखते हैं उसे लाल पसंद है या नहीं।**
उसने आँखें बंद कीं।
और सपने में — वो पवन की बाँहें नहीं थीं जो उसे पकड़े हुए थीं। वो **रामू** था।
Posts: 30
Threads: 2
Likes Received: 132 in 27 posts
Likes Given: 1
Joined: Apr 2025
Reputation:
3
सूरज फिर से निकला, बेपरवाह चमक के साथ — जैसे बीते दिन की तूफ़ानी बारिश बस कोई सपना थी, हकीकत नहीं। ज़मीन अब भी गीली थी, बारिश की खुशबू मिट्टी में घुली हुई, लेकिन ऊपर आसमान एकदम नीला और साफ़ फैला था, जैसे सब कुछ अब धुल चुका हो। एक ठंडी, धीमी हवा ऊपर वाले गलियारे से गुज़रती रही, चादरों और छत की बलियों को हल्के से छूते हुए।
साक्षी बालकनी में आई — हाथ में लॉन्ड्री की टोकरी, भरी हुई उस घरेलू ज़िंदगी के सबसे निजी हिस्सों से। उसके बाल तेल लगे हुए थे, एक ढीली सी चोटी में बंधे — जो कंधे से लटकती उसकी पीठ पर किसी काली नदी की तरह बहती लग रही थी। उसका हल्का नीला कॉटन साड़ी — पुरानी, पतली और शरीर से ऐसे चिपकी हुई थी जैसे जानती हो किस curve पर थमना है, किस पल में फिसलना है।
वो कपड़े टांगने के लिए सीधे तार तक गई, और एक-एक करके कपड़े पिन करती गई — पहले एक साधारण ब्लाउज़। फिर धुला हुआ पेटीकोट। फिर बिना हिचक एक काली लेसी ब्रा — हल्की, पारदर्शी, और बेहिचक कामुक। उसके बाद एक लाल साटन बॉर्डर वाली पैंटी — वो जो न शर्मिंदा थी, न छुपने वाली। उसने उसे तार के एकदम किनारे टांगा — बिल्कुल उस खिड़की के सामने जहाँ ऊपर वाला किरायेदार रहता था — रामू।
उसकी उंगलियाँ क्लॉथस्पिन पर कुछ पल थमीं, ठंडी धातु की छुअन को महसूस करते हुए। उसने ऊपर नहीं देखा, न बगल में झाँका — लेकिन उसकी गर्दन पर किसी की नज़र की गर्मी महसूस हुई, जैसे कोई छाया में खड़ा हो लेकिन धूप सी जलन दे जाए।
उसके होंठों के कोनों पर एक मुस्कान उभरी — न चुलबुली, न खुली दावत, लेकिन साफ़-साफ़ जागरूक।
उसने अपनी पीठ सीधी की, साड़ी को ज़रा और कसकर अपने सीने से लपेटा, और उसी सधी हुई सहजता से काम करती रही। उसकी हर हरकत जैसे लापरवाह दिखने वाली थी, लेकिन असल में बेहद नपी-तुली। उसे किसी की आँखों से मिलने की ज़रूरत नहीं थी — उसे पता था, वो नज़रें उस पर ही हैं।
परदे के पीछे, रामू देख रहा था। उसकी नज़रें साड़ी के हर झोंके के साथ-साथ घूम रही थीं। हर बार जब वो मुड़ती, कपड़ा उसके घुटनों के आस-पास फड़फड़ाता, और रामू की आँखें वहीं थम जातीं। उसका चेहरा भावहीन था, बस उसकी आँखों में एक टिकी हुई, भारी रोशनी थी — जैसे शिकारी शिकार को देखे बिना निगल रहा हो।
घर के अंदर, पवन ने अपनी अब ठंडी हो चुकी कॉफी खिड़की पर रखी और बालकनी की दहलीज़ पर आ गया।
"अरे सुनो," उसने कहा, आवाज़ थोड़ी कड़ी, आँखें सिकुड़ी हुई। "तुम फिर से वो लाल पैंटी टाँग रही हो? वही पारदर्शी वाली? ठीक उसके खिड़की के सामने?"
साक्षी ने सिर घुमा कर उसे देखा, एक eyebrow उठाया — बिलकुल ठंडी बेज़ारी से। "कपड़े हैं, पवन। क्या मैं अलमारी में सुखाऊँ इन्हें?"
पवन ने हाथ बाँध लिए। "तुम समझ रही हो मैं क्या कह रहा हूँ। वो वहाँ टाँगने की ज़रूरत नहीं है।"
साक्षी ने एक लंबी साँस छोड़ी, क्लॉथस्पिन कस कर लगाई और फिर पूरी तरह उसकी ओर मुड़ी। "तुम इसे ज़रूरत से ज़्यादा सोच रहे हो। ये सिर्फ़ कपड़े हैं। मेरी बालकनी है। मैं कोई पुराना फिल्मी आइटम डांस नहीं कर रही उस बूढ़े के लिए।"
पवन का जबड़ा कस गया। "मुझे बस... अच्छा नहीं लगता ये सब देखना।"
"किसे? तुम्हें? या तुम्हारी वो मर्द वाली मिल्कियत को?" उसका लहजा अब तीखा हो चुका था। "तुम ईर्ष्या को लॉन्ड्री में भी ले आए हो।"
"मैं ईर्ष्यालु नहीं हूँ," उसने जल्दी से कहा। "बस... सतर्क हूँ।"
"किससे? इस बात से कि कोई मुझे देख ले? ये सोच ले कि मैं अब भी desirable हूँ? मैं परफॉर्म नहीं कर रही, पवन। मैं बस ज़िंदा हूँ।"
वो अपना सिर हिलाते हुए पीछे हट गया। "बस इतना जानता हूँ — वो घूरता है। और तुम जानती हो।"
"तो क्या करूँ? छुप जाऊँ? तेरी पागलपंती की परछाई में खुद को गुम कर दूँ?" उसकी आवाज़ अब कांप रही थी — गुस्से से नहीं, हक की माँग से। "मैं उसके बारे में सोच भी नहीं रही थी। तुम हो, जो बार-बार उसका नाम लाते हो।"
एक लंबा सन्नाटा उनके बीच खिंच गया। पवन का कंधा ढीला पड़ा। वो कुछ बोले बिना अंदर चला गया।
साक्षी अकेली रह गई। उसने फिर से काम शुरू किया। वो लाल पैंटी अब हवा में लहराते हुए ऐसे फड़फड़ा रही थी जैसे कोई झंडा — बगावती, लज्जा से परे। उसने उसे थोड़ा एडजस्ट किया, ताकि दोपहर की धूप सीधा उस पर पड़े। जब उसने सिर घुमाया, रामू की खिड़की का परदा हिला। हल्की सी हरकत। एक इशारा। एक नज़र जो अब सच थी।
बाद में, दोपहर के उस सुस्त समय में, उसने अपनी साड़ी बदली — इस बार एक बेहद हल्की बेज रंग की साड़ी, इतनी महीन कि सूरज की रोशनी में उसका बदन पूरी तरह झलकने लगता था। उसने ब्लाउज़ पहनना छोड़ दिया। सिर्फ़ एक स्ट्रैपलेस ब्रा उसके बदन को बस दिखने से थोड़ा बचा रही थी। वो बाल संवारती हुई गलियारे में यूँ ही निकली, हाथ में ठंडा स्टील का ग्लास। हर बार जब कंघी बालों से सरकती, साड़ी थोड़ी और सरक जाती।
एक क्लॉथस्पिन गिरा। वो झुकी — धीरे, जानबूझकर।
हर हरकत लगती थी जैसे अचानक हुई हो — पर असल में rehearsed थी। हर झुकाव, हर मोड़, हर पलटी — एक नाज़ुक संतुलन था accident और intention के बीच।
उसे देखने की ज़रूरत नहीं थी।
वो जानती थी, वो देख रहा है।
ज़िद्दी। चुप। भूखा।
उसने अपने होठों को थोड़ा खोला। साड़ी फिर से एडजस्ट की।
और फिर से मुस्कुराई।
-----
फोन ने बस दो बार बजा था जब मीना ने उठा लिया — उसकी आवाज़ लाइन के उस तरफ चिर-परिचित शरारत और चिंगारी से भरी हुई थी।
"आखिरकार! मैं तो सोच रही थी कि मिसिंग पर्सन रिपोर्ट फाइल कर दूँ। लगा कहीं तू अपने पड़ोसी अंकल के साथ भाग गई होगी — लाल पैंटी लपेटे किसी फिल्मी हीरोइन की तरह।"
साक्षी हल्की, लंबी हँसी में मुस्कराई। "अगर मैं भागती, तो तुझे लिपस्टिक से चूमी हुई एक पोस्टकार्ड भेजती — बिना रिटर्न एड्रेस के।"
मीना ने ड्रामे में सांस खींची। "कमाल की विलेन निकली तू। अब उगल सब कुछ। जब तेरा मैसेज आया, ऐसा लगा तू फटने ही वाली है।"
साक्षी पीछे वाले कमरे में चली गई — वहीं जहाँ भारी परदा था और सबसे मुलायम रौशनी। उसने दरवाज़ा धीरे से बंद किया, टेक लगाकर फोन को अपने कंधे और गाल के बीच दबाया। उसकी आवाज़ अब फुसफुसाहट में बदल गई — जिसमें एक कंपन था। "आज सुबह पवन से फिर झगड़ा हुआ। लॉन्ड्री को लेकर।"
"लॉन्ड्री? क्या तूने उसकी अमूल्य शर्ट में स्टार्च डालना भूल गई थी या फिर उसकी चड्डी दुश्मन इलाके में फेंक दी?"
"नहीं," साक्षी ने माथा मलते हुए कहा। "उसने मुझे देख लिया जब मैं वो लाल वाली पैंटी सुखा रही थी। वही लेसी वाली। बाहर। बिलकुल रामू की खिड़की के सामने। कहने लगा कि मैं कोई शो कर रही हूँ।"
एक पल की खामोशी छा गई।
फिर मीना ने एक लंबी, नाटकीय सीटी बजाई। "ओह। फिर वही। वो रहस्यमयी ऊपर वाला ताक झाँक करने वाला अंकल। तूने तो कहा था वो तो आधा मरा पड़ा रहता है। गेट तक भी मुश्किल से जाता है।"
"जाता ही नहीं। लेकिन ना जाने कैसे पवन ने उसके दिमाग में उसे कोई छिपा हुआ भूखा भूत बना दिया है। उसे लगता है मैं अपनी ब्रा सूखा के दीवारों को रिझा रही हूँ।"
"तो? क्या तू कर रही है?" मीना की मुस्कान उसकी आवाज़ में साफ़ झलक रही थी।
साक्षी ने रुक कर जवाब दिया, बिस्तर के किनारे बैठते हुए। उसकी उंगलियाँ बेडशीट की सिलवटें सहला रही थीं — कोई अनदेखा पैटर्न बनाती हुईं। "रामू के लिए नहीं। असल में, किसी के लिए नहीं।"
"तो फिर तेरे लिए," मीना ने धीमे से कहा।
"बिलकुल," साक्षी फुसफुसाई। "ऐसा लग रहा है जैसे मैं फिर से बिजली से बनी हूँ। जैसे चमक रही हूँ।"
"तुझे ज़िंदा महसूस हो रहा है क्योंकि कोई देख रहा है। ये इस बात का मसला नहीं कि कौन देख रहा है — मसला ये है कि कोई देख रहा है। और यही तो नशा है।"
साक्षी ने सिर हिलाया, एक पल को भूलते हुए कि मीना उसे देख नहीं सकती। "मुझे उसकी ओर देखना भी नहीं पड़ता। लेकिन मैं जान जाती हूँ जब वो देख रहा होता है। जैसे मेरी त्वचा पर कोई करंट दौड़ता है।"
"पवन की बिस्तर वाली बोरिंग रूटीन से तो बेहतर ही है।"
साक्षी ने सूखी हँसी दी। "कम से कम autopilot प्लेन लैंड करता है। ये तो कोशिश भी नहीं करता।"
"तो फिर क्या किया तूने? बताने की कोशिश की? और उसने फिर से ड्रामा शुरू कर दिया?"
"बिलकुल। उसे लगता है मैं रामू को उकसा रही हूँ। उसे समझ ही नहीं आता कि ये किसी और चीज़ की लड़ाई है। मैं उस आदमी के बारे में सोच भी नहीं रही थी — जब तक पवन ने उसे डर की तरह मेरे सामने खड़ा नहीं किया।"
"क्लासिक प्रोजेक्शन। वो वही देखता है जिससे वो डरता है — न कि जो सच में सामने हो।"
एक पल को साक्षी चुप रही। फिर बोली: "आज मैंने बेज रंग की साड़ी पहनी थी। इतनी पतली कि रोशनी में गायब सी हो जाती। ब्लाउज़ नहीं पहना। बस एक strapless अंदर।"
"हरामी औरत," मीना ने हौले से कहा। "और बता।"
"मैं बाहर निकली स्टील का ग्लास लेकर। बाल हवा में संवारती रही। एक क्लॉथस्पिन गिरा — और मैं धीरे से झुक के उठाया। मुझे महसूस हुआ परदा पीछे हिला।"
"हे भगवान। तू तो अब मासूम नहीं रही, साक्षी। और मुझे तुझसे और भी प्यार हो रहा है।"
"मैंने कभी मासूम होने का दावा नहीं किया। बस कभी अपने अंदर के शैतान को जीने का मौका नहीं मिला।"
"तो अब क्या? गार्टर बेल्ट railing पर? या भीगी हुई साड़ी ड्रिप करते हुए लटकाएगी?"
"शायद," साक्षी मुस्कराई, एक दबी हुई मुस्कान के साथ। "शायद मैं अपनी पल्लू की किनारी ढीली छोड़ दूँ। शायद मैं झुकते हुए एक पल ज़्यादा रुकूँ। उसकी नज़र भटके — उसके लिए नहीं। खुद के लिए।"
"तू अब वो विलेन बन गई है जिसकी कहानी मैं दस एपिसोड binge कर जाऊँ — और फिर भी सीक्वल माँगूँ।"
साक्षी ने दीवार से पीठ लगा ली। "तो मेरी विलेन को आशीर्वाद दे, मीना। मैं एक प्राइवेट जंग छेड़ चुकी हूँ।"
"तेरी साड़ी चिपके, और उसकी लुंगी फिसले।"
दोनों ने एक साथ ज़ोर से हँसी उड़ाई।
और जब कॉल ख़त्म हुई, साक्षी न तो बीवी लग रही थी, न माँ, न डाँट खाई औरत।
वो किसी परदे के पीछे छुपी देवी लग रही थी।
और कोई... उस परदे के दूसरी तरफ घुटनों पर बैठा था।
-----
ये सब हुआ एक ऐसी दोपहर में, जब हवा में एक साँस भर भी हरकत नहीं थी। ऐसा दिन जब गर्मी दरवाज़ों पर लटकी रहती है और दीवारें भी जैसे ऊँघती हैं। घर जैसे किसी दुर्लभ और कीमती ख़ामोशी में समा गया था। पवन सुबह-सुबह ही निकल गया था — पोर्ट पर किसी अचानक के निरीक्षण को लेकर, बड़बड़ाते हुए कि कंटेनर लाइन में देरी हो रही है। उसका बेटा पेट भर चावल और रसम खाकर ठंडी टाइल्स पर बिना किसी ख्वाब के गहरी नींद में सोया हुआ था — उसके गाल के पास अंगूठा टिका हुआ। ऊपर सीलिंग फैन धीरे-धीरे घूम रहा था, जैसे कोई थका हुआ मेट्रोनोम गर्म हवा को चीर रहा हो।
साक्षी किचन काउंटर पर खड़ी थी, अपनी साड़ी के पल्लू से एक ग्लास पोंछ रही थी — हर हरकत धीमी, ठहरी हुई। दोपहर की सुनहरी रौशनी आधे खुले खिड़की से आ रही थी।
तभी एक दस्तक ने उस ठहराव को चीर दिया — न ज़्यादा तेज़, न बहुत हल्की। बस तीन ठोस, ठहरी हुई थपकियाँ।
उसने दरवाज़ा खोला, तो रामू खड़ा था।
वो थोड़ा औपचारिक लग रहा था — एक पुरानी चेकदार शर्ट, आधी बटन की हुई, उसके नीचे एक पीली होती बनियान। बाल करीने से पीछे कंघी किए हुए। हाथ में एक मोड़ा हुआ अख़बार।
"सोचा तुम्हें क्रॉसवर्ड पसंद आएगा," उसने कहा। उसकी आवाज़ पन्नों की सरसराहट जैसी सूखी थी, लेकिन स्थिर।
साक्षी पल भर के लिए चौंक गई। "अरे, बहुत ध्यान देने वाली बात है अंकल। थैंक यू।"
वो थोड़ा झिझका, अपने पाँव बदलते हुए।
"अंदर आ जाऊँ क्या? बस थोड़ी देर के लिए बैठना है। घुटनों से दोस्ती नहीं हो रही आज।"
साक्षी पल भर को रुकी, फिर एक तरफ हट गई। "हाँ हाँ, आइए। वहाँ खिड़की के पास बैठिए — वहाँ सबसे अच्छी हवा आती है।"
रामू धीरे-धीरे चला, हर कदम जैसे दर्द और जिद के बीच एक समझौता हो। वो खिड़की के पास पुरानी बेंत की कुर्सी पर धँस गया और एक लंबी साँस छोड़ी। उसकी देह की गंध कमरे में फैल गई — टैल्कम, चंदन, और पसीने की हल्की सी परत का मर्दाना मेल।
साक्षी वापस काउंटर की ओर बढ़ी, ग्लास को नीचे रख दिया।
"तुम्हारे पति..." उसने धीरे से कहा, नज़रें उस दीवार की दरार पर टिकाए जो पेंट से ढँकी हुई थी, "सुबह जल्दी निकल गए।"
उसने सिर हिलाया। "हाँ। सात बजे से पहले ही। रात तक लौटेंगे।"
एक ठहराव छाया — न असहज, लेकिन भरा हुआ। जैसे बिजली कड़कने और बारिश गिरने के बीच का वक़्त।
फिर, एक ऐसी आवाज़ में जो उसने रामू से पहले कभी नहीं सुनी थी — कोमल, लगभग टूटी हुई — उसने कहा, "मेरी बीवी का नाम भी साक्षी था।"
साक्षी का हाथ थम गया। जो प्लेट वो पोंछ रही थी, उसके हाथ से थोड़ी सरक गई।
उसने उसकी ओर देखा। "सच में?"
रामू ने सिर हिलाया। उसकी मुस्कान हल्की थी, जैसे किसी भूली हुई धुन की। "साक्षी। मैं बस उसे साक्षी ही बुलाता था। कोई और नहीं बुलाता था उसे ऐसे।"
साक्षी कुछ और पास आई, दिल में एक धीमी जिज्ञासा उमड़ती हुई। "वो... अब नहीं रहीं?"
उसकी आँखों में, जो उम्र के साथ धुंधली थीं, एक चमक थी जो अब भी जिंदा थी। "आठ साल हो गए। ओवेरियन कैंसर था। धीमा... बेरहम। मैंने उसका हाथ पकड़े रखा आख़िर तक। वो हमेशा गरम रहती थी। आख़िरी साँस तक।"
साक्षी उसके सामने बैठ गई, अपनी हथेलियाँ गोद में मोड़ लीं।
"माफ़ कीजिए अंकल।"
रामू ने उसके शब्दों को हल्के से हवा में उड़ा दिया। "किसी के साथ उनतालीस साल रहो तो उसके चले जाने का मातम नहीं मनाया जाता — उसे साथ रखा जाता है। जैसे कोई जेब जिसे तुम कभी खाली नहीं करते।"
कुछ पल और गुज़रे, फिर उसने सिर उठाया। पहली बार उनकी आँखें पूरी तरह टकराईं। उस टकराव में कुछ ऐसा था — खुला, नंगा, सच।
"जब पहली बार तुम्हारा नाम सुना... जब तुम यहाँ शिफ्ट हुई... मुझे लगा जैसे इस घर ने एक लंबी साँस भरी हो, जो बहुत वक़्त से थमी थी। मेरी हड्डियाँ दुखने लगीं। लगा शायद ये शोक है। लेकिन फिर... मैंने तुम्हें देखना शुरू किया। और रुक नहीं पाया।"
साक्षी की साँस अटक गई।
वो बोलता गया, न शर्म में, न घमंड में। बस सच्चाई में।
"शुरुआत में तो सीधा था। तुम्हारा नाम वही था। फिर मैंने देखा तुम कैसे चलती हो, कैसे साड़ी की प्लीट्स जमाती हो, कैसे ग्लास दोनों हाथों से पकड़ती हो, बाल कैसे संवारती हो। वो मेरी साक्षी नहीं थी — लेकिन उसकी गूंज थी। फिर वो बदल गया।"
साक्षी ने निगलते हुए पूछा, "कैसे बदला?"
रामू थोड़ा आगे झुका। ज़्यादा नहीं। बस उतना कि हवा बदल जाए।
"तुम चलती हो वैसे ही — पर तुम्हारे अंदर आग है। वो तो चमकती थी। तुम जलती हो। वो फुसफुसाती थी। तुम आदेश देती हो। फिर भी... तुम्हारा नाम साक्षी है। अब वो नाम तुम्हारे होंठों पर रहता है — और वो मुझे वो सब याद दिलाता है जो वक़्त ने मुझसे छीन लिया था।"
साक्षी ने नज़रें नीचे कर लीं। उसके हाथ पता नहीं किधर रखे जाएँ। "रामू अंकल... मुझे समझ नहीं आ रहा मैं क्या कहूँ।"
"तुम्हें कुछ कहने की ज़रूरत नहीं," उसने कहा। "मुझे पता है ये कैसा लग रहा है — एक बूढ़ा आदमी अपनी भूतपूर्व ज़िंदगी का बोझ थोप रहा है। लेकिन अब और चुप नहीं रह सकता था। तुम्हें देखता हूँ, और मुझे प्यार याद आता है। लेकिन अब... तुम्हें देखता हूँ और कुछ और महसूस होता है। कुछ ऐसा जो रातों की नींद उड़ा देता है।"
साक्षी खड़ी हो गई। हवा जैसे गाढ़ी हो गई थी। साँस लेना मुश्किल सा लग रहा था।
"चाय पीएँगे?" उसकी आवाज़ अब भीगी हुई थी।
रामू फिर मुस्कराया। उस मुस्कान में कुछ मीठा था, कुछ कड़वा — जैसे कोई अधूरी कहानी फिर से जी उठी हो।
"अगर तुम वैसे बनाओ... जैसे मेरी साक्षी बनाती थी। मज़बूत। मीठी। और थोड़ी ज़्यादा गरम।"
साक्षी ने सिर हिलाया और रसोई की तरफ बढ़ गई। लेकिन उसकी धड़कन अब भी तेज़ थी। उसकी रगों में कुछ दौड़ रहा था। उसका नाम — जो उसने ज़िंदगी भर ढोया — अब उसकी त्वचा पर एक दूसरी परत बन चुका था।
अब वो सिर्फ़ उसका नाम नहीं था।
अब वो एक डोरी बन गया था।
एक याद।
एक आईना।
एक दावा।
----
रामू के उस चुपचाप इकरार को तीन दिन हो चुके थे — उस दिन जब उसने उसका नाम ऐसे लिया था जैसे वक़्त में कहीं खोई कोई प्रार्थना। वो नाम जो अब दोनों के लिए किसी पैतृक ज़ख़्म जैसा था। इन तीन दिनों में घर वैसा ही था, पर साक्षी... बदल चुकी थी। उसके अंदर कुछ खिसक गया था — एकदम सांस की तरह धीमा, लेकिन लगातार।
वो अब भी वैसे ही चलती थी — डोसा बनाती, कपड़े तह करती, बहन के फोन उठाती — लेकिन हर हरकत में एक नया कंपन था। चूड़ियों की खनक, साड़ी का दीवार से छू जाना — सब कुछ जैसे अब देखा जा रहा था। हवा में भी जैसे कोई उसकी उपस्थिति को महसूस कर रहा था।
और हर बार जब वो रामू के दरवाज़े के सामने से गुज़रती, वो महसूस करती — कोई आवाज़ नहीं, कोई हरकत नहीं, बस एक मौजूदगी। जैसे कोई अदृश्य खिंचाव। उसकी ख़ामोशी अब एक ध्वनि बन चुकी थी — हड्डियों के भीतर तक गूंजती हुई।
उस गुरुवार की दोपहर, घर की ख़ामोशी जैसे खिंचती चली गई। उसका बेटा दोपहर के खाने के बाद मैट पर सिकुड़ा हुआ सो रहा था, उसका मुँह थोड़ा खुला और सांसें पंखे की लय में चल रही थीं। पड़ोसी के घर से टीवी पर कोई उबाऊ धारावाहिक बज रहा था। पवन, शुक्र था, रात भर के पोर्ट ऑडिट के लिए बाहर था।
साक्षी बस बाथरूम से बाहर आई थी — बाल धुले हुए, अब भी भीगे, एक तौलिये में लिपटे। उसने एक हल्की गुलाबी नाइटी पहन रखी थी — जिसे वो आमतौर पर बेडरूम से बाहर नहीं पहनती थी — और नंगे पाँव गलियारे में चली जा रही थी, उस दोपहर की गुनगुनी सुस्ती में डूबी हुई।
तभी उसने देखा।
एक डिब्बा।
छोटा। काला। चौकोर। उसके दरवाज़े की चौखट के पास सलीके से रखा हुआ। एक सुनहरी डोरी से बंधा — उतना ही पतला जितना कोई फुसफुसाहट।
उसका दिल ज़ोर से धड़कने लगा। उसने गलियारे में झाँका — कोई नहीं था। सीढ़ियाँ ख़ाली थीं। रामू का दरवाज़ा बंद था — जैसे कुछ हिला ही न हो।
उसने डिब्बा उठाया, दरवाज़ा बंद किया और किचन की मेज़ पर बैठ गई। खिड़की की झिरी से छनती रौशनी लकड़ी पर सुनहरी लकीरें खींच रही थी। उसने डोरी खोली, ढक्कन उठाया।
अंदर एक **मंगलसूत्र** रखा था।
पुराना। भारी। उसके काले मोती घिस चुके सुनहरे स्पेसरों के बीच जड़े थे। पेंडेंट, भले ही उम्र के साथ फीका पड़ चुका था, अब भी एक शांत गरिमा लिए था। वो ऐसा लग रहा था जैसे सालों तक हर दिन पहना गया हो — शरीर की गर्मी और वक़्त से चूमा हुआ। बगल में एक मोड़ा हुआ काग़ज़ था।
उसने वो पढ़ा।
**अगर इसका कोई मतलब नहीं, तो वापस कर दो। अगर कुछ मतलब है... तो पहन लेना। मैं इंतज़ार करूँगा।**
उसकी उंगलियाँ हल्के से काँप गईं जब उसने चेन को छुआ। वो दिखने में जितनी साधारण थी, हाथ में उतनी ही भारी लगी। उसकी गर्मी — या शायद उसकी याद — हथेली में उतर आई।
एक याद चमकी — अपनी शादी की सुबह, जब किसी ने उसकी गर्दन में वही गठान बाँधी थी, जब मोती उसकी हड्डियों से टकराते थे। वो लगभग भूल चुकी थी वो एहसास कैसा होता है।
पर ये उसका नहीं था। कोई पति नहीं था जो ये पहनाता। ये कुछ और था।
शाम तक शहर में हल्की सी साँझ उतर आई थी। गलियारे में परछाइयाँ लंबी और नरम हो चली थीं। साक्षी अपने फ्लैट से बाहर आई — हाथ में वही डिब्बा। उसके बाल अब सूख चुके थे — खुले, कंघी किए हुए, रेशम जैसे कंधों से नीचे बहते हुए। उसने एक क्रीम रंग की साड़ी पहनी थी, जिसमें मरून बॉर्डर था। कोई गहना नहीं, पर हर चीज़ सोची-समझी थी। प्लीट्स एकदम परफेक्ट थीं।
वो उसके दरवाज़े तक गई और दस्तक दी।
इस बार कोई देरी नहीं हुई। रामू ने झटपट दरवाज़ा खोला — जैसे वो दरवाज़े के पीछे खड़ा था, उसके दस्तक की ही प्रतीक्षा में।
उसने उसे देखा — न हैरानी, न उतावलापन। बस स्थिर। शांत।
साक्षी बिना कुछ कहे उसके कमरे में चली गई। उसने दरवाज़ा बंद कर दिया — एक **क्लिक** की आवाज़, जो सुनने में ज़्यादा भारी लगी।
रामू ने उसके हाथों की ओर देखा।
"मिल गया," उसने धीरे से कहा।
"हाँ।"
"और तुम आई।"
साक्षी ने डिब्बा खोला और उसकी ओर बढ़ाया।
"ये क्यों दिया मुझे?" उसकी आवाज़ थमी हुई थी, लेकिन उसमें गहराई थी।
रामू ने साँस ली। उसकी नज़र पहले उस मंगलसूत्र पर गई, फिर उसके चेहरे पर लौटी।
"ये उसकी थी। मेरी साक्षी की। उसने इसे उनतालीस साल तक पहना। जब उन्होंने कहा वो अब नहीं रही... तो मैंने ही खुद उसके गले से इसे उतारा। तब से इसे संभाले रखा। अपनी दराज़ में। फिर कभी छुआ तक नहीं।"
वो रुका। फिर बोला।
"लेकिन तुम... जब तुम इस घर में आई — और तुम्हारा नाम सुना — जैसे कुछ पुराने तार फिर से झनझना उठे। फिर मैंने तुम्हें देखा। तुम्हारी मौजूदगी। तुम्हारी चाल। तुम्हारी हँसी। और धीरे-धीरे, मैं तुम्हें किसी अजनबी की तरह नहीं देख रहा था। मैं कुछ ऐसा महसूस करने लगा था जिसे मैंने दफना दिया था।"
उसने गला साफ़ किया। "तुमने कहा था, ये सिर्फ़ नाम की बात नहीं है।"
"नहीं है," उसने तुरंत कहा। "ये तुम हो। तुम्हारी आग। जिस तरह से तुम अपने जिस्म को ले चलती हो। मेरी साक्षी तो बस चमकती थी। तुम जलती हो। तुम इस घर की दीवारों को भी पिघला देती हो। और मैं... मैं अब राख में जीना नहीं चाहता।"
साक्षी हिली नहीं। लेकिन उसकी आँखों की कोरें नरम पड़ीं।
"क्या तुम्हें लगता है ये सही है?" उसने पूछा। "एक औरत की चेन मुझे पहनने के लिए देना? तुम्हारी याद और तुम्हारी ख्वाहिश को एक ही साँस में बाँधना?"
रामू ने कुछ देर नज़रें झुकाईं। फिर बोला।
"नहीं। ये सही नहीं है। लेकिन अकेले बुढ़ापा भी तो सही नहीं है। चुप रहकर चाहना भी कहाँ ठीक है। मैं तुमसे कुछ नहीं माँग रहा। बस एक संकेत। अगर तुम चाहती हो कि मैं तुम्हें वैसे देखूँ जैसे मैं देखता हूँ — तो पहन लो। अगर नहीं चाहती, तो लौटा दो। लेकिन देखना तो मैं फिर भी नहीं रोक पाऊँगा। याद भी नहीं मिटेगी।"
साक्षी ने फिर उस चेन को देखा। उसके मोती उसके दिमाग में उसका नाम गूंजा रहे थे। बार-बार।
"ये सिर्फ़ याद नहीं लग रही," उसने धीमे से कहा।
"नहीं है," रामू बोला। "ये समर्पण है। तुम्हारा — अगर तुम चाहो। मेरा — तो मैं पहले ही दे चुका हूँ।"
साक्षी ने डिब्बा धीरे से बंद किया।
"आज नहीं," उसने कहा।
रामू हिला नहीं। बस सिर झुका दिया, एक शांत स्वीकार के साथ। "मैं इंतज़ार करूँगा। चाहे हमेशा के लिए।"
वो मुड़ी, और धीरे-धीरे बाहर चली गई — डिब्बा अपने पेट के पास थामे हुए।
अपने कमरे में लौटकर उसने उसे ड्रेसिंग टेबल पर रखा — और देर तक उसे घूरती रही, जब तक खिड़की से रोशनी पूरी तरह चली नहीं गई।
अब वो चेन किसी और औरत की नहीं थी।
अब वो उसके नाम का इंतज़ार कर रही थी।
-------
फोन सिर्फ़ एक बार ही बजा था जब मीना ने उठा लिया — उसकी आवाज़ में वही अधबीच में रोकी गई गॉसिप वाली बेचैनी थी।
"अब सब कुछ बता," उसने बिना भूमिका के कहा। "तेरा वॉइस नोट तो बस साँसों से भरा था, शब्दों का तो टोटा था। क्या स्कैंडल से प्रेग्नेंट है या क्या चल रहा है?"
साक्षी ने एक धीमी, कसकर थामी हुई हँसी छोड़ी — जैसे गले में कोई अजीब सा भार फँसा हो। वो बेड पर पालथी मारे बैठी थी, उसकी नज़र उसके ड्रेसर पर रखे काले डिब्बे पर जमी हुई — जिसकी पतली सुनहरी डोरी अब भी आधी खुली थी, जैसे कोई अधूरी फुसफुसाहट जो बोले जाने का इंतज़ार कर रही हो।
"उसने मुझे अपनी बीवी का थाली दी, मीनू।"
एक पल का सन्नाटा।
"क्या—मतलब क्या?" मीना की आवाज़ अचानक तेज़ हुई, जैसे disbelief में डूब गई हो। "मतलब... *थाली*? *मंगलसूत्र*? वो जो शादी का प्रतीक होता है, वही?"
"हाँ," साक्षी ने कहा, उसका लहजा उसके अंदर से ज़्यादा स्थिर लग रहा था। "एक छोटे डिब्बे में। मेरे दरवाज़े पर रख गया। साथ में एक नोट था। सिंपल सा। ‘अगर इसका कोई मतलब नहीं, तो लौटा देना। अगर कुछ मतलब है... तो पहन लेना।’"
मीना ने इतनी ज़ोर से साँस छोड़ी कि साक्षी ने उसे फोन के स्पीकर में सुन लिया। "उस आदमी में ग्रहों जितने बड़े बॉल्स हैं। और ड्रामा का ऐसा सेन्स कि सीधे किसी तमिल फिल्म से उठा के लाया हो।"
साक्षी ने एक फीकी मुस्कान दी। "ड्रामा से ज़्यादा है, मीना। उसमें हिम्मत है। सब्र है। और एक अजीब सी, दम घोंटने वाली नरमी है।"
"हे भगवान," मीना कराह उठी। "तूने तो कहा था ये आदमी तेरे मकान मालिक का विधुर बाप है। मुझे क्या पता था कि ये भूत-शौहर बनके वापस अवतार लेगा।"
"मुझे भी नहीं," साक्षी ने फुसफुसाते हुए कहा। "जैसा तू सोच रही है, वैसा कुछ नहीं था। ये गंदा नहीं लगा। ये कोई चाल नहीं लगी। ये लगा... भारी। जैसे उसने अपने अतीत का एक टुकड़ा मेरे हवाले कर दिया हो। और शायद... अपने भविष्य का भी।"
"हे साला," मीना ने बुदबुदाया। "फिर तूने क्या किया? वापस दे मारा? चिल्लाई? रोई?"
साक्षी ने सिर पीछे दीवार से टिका दिया। उसकी उंगलियाँ अपनी गर्दन की कटिंग छू रही थीं। "मैं लेकर गई उसके पास। डिब्बा उसके सामने खोला। पूछा — क्यों।"
"और उसने क्या कहा?" मीना की आवाज़ अब नरम हो चुकी थी, उसमें अब असली चिंता थी।
"उसने कहा — ये उसकी थी। उसकी साक्षी की। कि उसने इसे उनतालीस साल पहना। और जब वो मरी, तो वो इसे फेंक भी नहीं सका, किसी को दे भी नहीं सका। तब से ये उसकी दराज़ में पड़ा रहा — मरा हुआ, इंतज़ार करता हुआ — जब तक मैं नहीं आई।"
"हे भगवान।"
"उसने कहा, मैं वक़्त को वापस ले आई। कि मैं उसे एहसास कराती हूँ — सिर्फ़ याद नहीं। उसने कहा — मैं जलती हूँ, मीना। कि मैं उसे ये याद दिलाती हूँ कि चाहना कैसा लगता है — सिर्फ़ याद करना नहीं।"
मीना ने एक अजीब सी आवाज़ निकाली — कराह और सीटी के बीच की। "ये फ्लर्ट नहीं है। ये तो कोई प्रार्थना है। ये तो आत्मा पर कब्ज़ा है।"
"और सबसे अजीब बात? मुझे घिन नहीं हुई। मुझे... किसी ने थामा हुआ महसूस हुआ।"
"तूने वापस नहीं किया न।"
"अभी तक नहीं।"
"तो अब क्या सोच रही है?" मीना ने अब और भी शांत स्वर में पूछा, जैसे उसका सारा मज़ाक उतर चुका हो।
साक्षी उठी और धीरे-धीरे ड्रेसर तक चली। उसकी उंगलियाँ डिब्बे के ऊपर रुकीं, लेकिन छुआ नहीं। "मुझे नहीं पता। अब ये सेक्स का मामला नहीं रहा। न अटेंशन का। इसके नीचे कुछ और है। कुछ बहुत पुराना। और वही डराता है मुझे, मीना।"
"डराता है क्योंकि वो सच्चा है?"
"डराता है क्योंकि वो कुछ मांगता है। वो चुप नहीं है। वो चेन वजनदार है। वो हाँ माँगती है।"
"तो फिर मत पहन।" मीना ने दृढ़ता से कहा। "जब तक तू तैयार न हो उस हाँ के लिए। उसका मतलब समझने के लिए। उस नाम के लिए जो अब सिर्फ़ उसकी बीवी नहीं, अब तेरा भी बन जाएगा — उसका दावा।"
दोनों चुप हो गईं।
फिर मीना ने धीमे, पर यकीन से कहा, "तेरे अंदर वो आग हमेशा थी, साक्षी। शायद ये आदमी पहला है जो उसमें क़दम रख के जला नहीं — ठहर गया।"
साक्षी मुस्कराई, उसका सीना कस गया। "मुझे डर इस बात से लग रहा है कि मैं कितनी ज़्यादा चाहती हूँ इसे। मैं उसके अतीत में खोना नहीं चाहती। लेकिन ये वापस भी नहीं करना चाहती।"
"तो मत कर। रख ले। उसे रहने दे वहीं। उसके साथ सांस ले। तू उसे जवाब नहीं देती — लेकिन खुद से झूठ भी मत बोल।"
साक्षी की नज़र थाली पर टिकी रही।
"ये तो पहले ही यहाँ है। डिब्बा अब भी वहीं रखा है। और मैं भी।"
"तो यही तेरा जवाब है — अभी के लिए।"
दोनों लाइन पर एक और मिनट तक चुप रहीं — कोई नहीं बोला, बस एक साथ साँसें चलीं। एक साझा ख़ामोशी।
और जब कॉल ख़त्म हुई — साक्षी को लगा बात ख़त्म नहीं हुई।
वो रुकी हुई थी। थामी हुई। एक ऐसी कहानी के बीच जो खत्म हो चुकी थी और एक जो अब तक शुरू नहीं हुई थी।
और वो सुनहरी डोरी वाला डिब्बा... अब भी इंतज़ार कर रहा था।
शांत।
ज़िंदा।
सुनता हुआ।
------------
फोन सूर्यास्त के ठीक बाद आया, जब बाहर आसमान फीके नारंगी और बुझते बैंगनी रंगों में रंगा हुआ था। रामू अपनी पसंदीदा चरमराती बेंत की कुर्सी पर, खुली खिड़की के पास, अभी-अभी बैठा ही था। एक हल्की सी हवा पड़ोसियों की शाम की पूजा से उठती जली हुई चमेली और कपूर की महक लेकर आ रही थी। उसका कमरा शांत था, बिना किसी बातचीत या याद के स्पर्श के — जब दरवाज़े पर दस्तक हुई।
दरवाज़े पर जाननी और उसके पति अरुण खड़े थे — मकान मालिक। साक्षी ने दरवाज़ा खोला, अपनी साड़ी में हाथ पोंछते हुए। उसका बेटा उसकी टाँगों के पीछे से झाँक रहा था, हाथ में एक छोटा सा खिलौना कार पकड़े।
अरुण ने गर्मजोशी से सिर हिलाया। "माफ़ करना साक्षी, ज़रा डिस्टर्ब कर रहे हैं। कुछ देर अंदर आ सकते हैं क्या?"
पवन, जो रसोई से कॉलर ठीक करते हुए आ रहा था, बोला, "हाँ हाँ, आइए। अंदर आइए।"
सब लोग बैठक में बैठ गए, ऊपर पंखा धीरे-धीरे घूम रहा था जैसे उसे भी कोई जल्दी नहीं थी।
जाननी ने सबसे पहले बात शुरू की। "बस एक छोटा सा निवेदन था। हम लोग दस दिन के लिए बाहर जा रहे हैं। मेरे कज़िन की शादी है मदुरै में।"
अरुण ने जोड़ा, "अप्पा हमारे साथ नहीं आ रहे। उनके लिए इतना सफर मुश्किल है। हम चाह रहे थे कि आप लोग ज़रा उन पर नज़र रख लें। मतलब सिर्फ़ खाने-पीने का ध्यान, दवाइयाँ टाइम पे देना, और दिन में एक-आध बार देख लेना।"
पवन ने धीरे से सिर हिलाया। "बिलकुल। इसमें कोई दिक्कत नहीं।"
साक्षी ने तुरंत कहा, "मैं वैसे भी ज़्यादातर दिन उन्हें कॉरिडोर में देखती हूँ। हम ध्यान रखेंगे। कोई दिक्कत नहीं होगी।"
जाननी ने आभार से मुस्कुराते हुए कहा, "उन्हें आप पसंद हैं, अक्का। कहते हैं आप उन्हें किसी की याद दिलाती हैं। लेकिन बताते नहीं किसकी।"
पवन ने घड़ी की ओर देखा और खड़ा होते हुए अपना बैग उठाया। "मुझे अब निकलना पड़ेगा वरना ट्रेन मिस हो जाएगी। सब संभाल लोगी न?" उसने साक्षी से पूछा।
साक्षी ने सिर हिलाया। "मैं सब देख लूंगी। चिंता मत करो।"
अरुण और जाननी भी खड़े हो गए। "फिर एक बार शुक्रिया। सच में। अगर कुछ हो तो बस फोन कर देना।"
उनके जाने के बाद, पवन ने अपने बेटे के माथे को चूमा और निकल गया। साक्षी बालकनी से उसे जाते हुए देखती रही, फिर धीरे-धीरे अंदर लौट आई। घर एक बार फिर वैसा ही शांत लगने लगा — लेकिन अब उस सन्नाटे में एक हल्की सी दस्तक रह गई थी।
•
Posts: 30
Threads: 2
Likes Received: 132 in 27 posts
Likes Given: 1
Joined: Apr 2025
Reputation:
3
रामू की दराज़ में रखा पुराना नोकिया एक घंटे बाद अचानक बजा। उसने स्क्रीन पर देखा और आँखें सिकोड़ लीं।
"इस्माइल भाई।"
इस नाम ने लगभग एक दशक से उसकी स्क्रीन पर झलक नहीं मारी थी। जैसे धुंध में से कोई आवाज़ सुनाई दे—आधा सपना, आधा चमत्कार।
उसने कॉल उठाई। "हैलो?"
"रामू! तू अब तक ज़िंदा है? या किसी ने आखिरकार तेरी फोटो पर माला चढ़ा दी?"
रामू हँसा, उसका सीना उस खास किस्म की खुशी से भर गया जो बस पुराने दोस्तों से मिलती है। "अब भी साँस ले रहा हूँ, भाई। वही घर। वही पंखा। बस बाल थोड़े कम।"
"वो पंखा अब तो मंदिर में चढ़ाने लायक हो गया होगा," इस्माइल ने छेड़ा। "तेरी आवाज़ बिल्कुल वैसी की वैसी है। लगता है अब भी नारियल का तेल लगाता है और उस अड़ियल दिल को झाड़-पोंछ के रखता है।"
"तू भारी लग रहा है। बूढ़ा भी।"
"दोनों ही हूँ। और... शादी कर रहा हूँ।"
रामू चौंका। "शादी?"
"हाँ हाँ। चौथी। निकाह अगले महीने है, तारीख तय नहीं हुई। लेकिन तू मरे बिना आएगा तो सही?"
रामू सीधा बैठ गया। "पागल है क्या? कौन है वो?"
एक पल की चुप्पी। फिर इस्माइल ने धीमे से कहा, "नाम है नूर। इक्कीस साल की है।"
रामू खाँसा। "इक्कीस? वो तो तेरी परपोती जितनी हो सकती है।"
"जानता हूँ," इस्माइल लगभग हँसते हुए बोला। "कभी मेरे पोते की girlfriend थी।"
रामू के हाथ से फोन गिरते-गिरते बचा। "क्या?"
"लंबी कहानी है। पिछले साल बुरा ब्रेकअप हुआ। सबको लगा पोता बाहर चला जाएगा, जैसे प्लान था। पर किस्मत ने लात मार दी — न वीज़ा, न नौकरी, न भागने का रास्ता। यहीं अटक गया। हॉस्टल में शिफ्ट करना पड़ा, कॉलेज के पास — कोई और जगह नहीं थी रहने की। मर्जी से नहीं गया, मजबूरी थी। बेचारा आज भी उसे देखता है। कुछ नहीं कहता, लेकिन मैं जानता हूँ। उसका चेहरा ही बदल जाता है जब कोई उसका नाम ले ले। जैसे उसका दिल हिचकियाँ लेने लगे।
अब वो उससे बात नहीं करता। हिम्मत भी नहीं है। लेकिन देखता है। हर दो हफ्ते में जब घर आता है, तो किसी बहाने मेरी दुकान पर आता है। दूर खड़ा रहता है। नूर अब यहीं काम करती है — पार्ट-टाइम। हिसाब-किताब, चाय-वाय। जैसे ख़ामोशी की मालकिन हो। और वो? बस कोने में खड़ा उसे देखता रहता है। एक शब्द नहीं कहता। वो तो उसकी तरफ़ देखती भी नहीं। जैसे वो कोई फर्नीचर हो। जैसे कभी उसका था ही नहीं।
पर फिर भी आता है। अब भी उम्मीद रखता है। हर बार थोड़ा और जलता है।"
रामू सन्न रह गया। "और अब वो तुझसे शादी कर रही है?"
"उसने खुद चुना। मैंने निकाह का प्रस्ताव दिया — कोई छुपी हुई बात नहीं, कोई इश्कबाज़ी नहीं। एक proper रिश्ता। और क्यों नहीं? बूढ़ा हूँ, पर अब भी इस टूटे-फूटे खानदान का शेर मैं ही हूँ। अगर इज़्ज़त से कुछ करना है, तो वही करूंगा। और उसने हाँ कर दी।"
"और तेरा पोता?"
"अब भी उसे मैसेज करता है। वॉइस नोट्स, कविताएँ, कैंपस की तस्वीरें भेजता है। उसे नहीं पता कि नूर की शादी होने वाली है। किसी ने नहीं बताया। नूर ने महीनों से जवाब नहीं दिया, पर वो अब भी कोशिश करता है — जैसे उसकी चुप्पी कोई नेटवर्क प्रॉब्लम हो जिसे वो ठीक कर लेगा। अब भी समझने की कोशिश करता है कि वो उसे छोड़कर क्यों गई। लेकिन मुझे लगता है... उसने नूर को कभी देखा ही नहीं। बस वही देखा जो वो चाहना चाहता था।"
रामू की आवाज़ धीमी थी। "और वो तुझे देखती है?"
"हाँ," इस्माइल बोला। "मुझे अपने भविष्य जैसा नहीं देखती। पर मुझे हकीकत की तरह देखती है। और फिलहाल, इतना ही काफी है।"
कुछ पल की चुप्पी छा गई। फिर रामू ने लंबी साँस छोड़ी। "अजीब है कि आज कॉल किया। मैं भी तुझे सोच रहा था।"
"क्यों? मेरी घटिया शायरी की याद आई?"
"नहीं," रामू बुदबुदाया। "क्योंकि मेरे साथ भी कुछ अजीब हो रहा है।"
"बता।"
रामू ने लंबी साँस भरी, शब्द भारी थे पर ठोस। "एक जोड़ा ऊपर वाले फ्लैट में शिफ्ट हुआ है। उनके साथ एक छोटा बच्चा भी है। बीवी का नाम है साक्षी।"
इस्माइल चुप हो गया।
"हाँ," रामू ने कहा। "साक्षी नाम। पहली बार सुना तो लगा जैसे मेरी पत्नी वापस लौट आई हो। पर जब देखा — अलग थी। जवान। तेज़। ऐसे चलती है जैसे गलियारा उसका हो। उसकी साड़ी वैसे ही रौशनी पकड़ती है जैसे मेरी साक्षी की करती थी। मैं देखना बंद नहीं कर पाया।"
"रामू..."
"मैं अब उसकी पायल सुनने लगा हूँ। उसकी चूड़ियों की खनक का इंतज़ार करता हूँ। जब जानता हूँ वो बाहर होगी तो चाय बनाने लगता हूँ। और पिछले हफ्ते... मैंने उसे मेरी साक्षी का मंगलसूत्र दे दिया।"
"तूने क्या किया?"
"एक डिब्बे में। उसके दरवाज़े पे रखा। एक नोट लिखा — अगर इसका कोई मतलब नहीं, तो लौटा देना। अगर कुछ है, तो पहन लेना।"
"और?"
"वो आई। हाथ में लेकर आई। मुझसे पूछा क्यों। मैंने सब बता दिया। उसने पहना नहीं। लेकिन लौटाया भी नहीं।"
इस्माइल ने लंबी साँस छोड़ी। "वो शादीशुदा है, रामू।"
"जानता हूँ। इसलिए कभी माँगा नहीं। बस ऑफर किया। चाहे तो जा सकती है। चाहे तो रुक सकती है। पर जो भी हो, वो अब मेरे अंदर रह चुकी है।"
"पागल बूढ़ा।"
"उसके आने से घर फिर से ज़िंदा लगने लगा है। दीवारें उसके क़दमों पे जवाब देती हैं। ख़ामोशी भी उसके सामने झुक जाती है।"
इस्माइल काफी देर चुप रहा। "तू हमेशा सबसे ज़्यादा तब गिरा जब सबसे कम उम्मीद थी।"
"वो मुझे एहसास दिलाती है कि मैं अब भी अधूरा नहीं हूँ। अब भी देखा जा सकता हूँ।"
"शायद यही तो हम सब चाहते हैं। कि आख़िरी बार कोई हमें फिर से देख ले।"
दोनों करीब एक घंटे तक कॉल पर रहे। बात करते रहे — उम्र, तन्हाई, भूख और दूसरी बार मिलने वाले मौक़ों के बारे में। हल्दी की गोलियों, जनाज़ों की खबरों, भूले हुए रिश्तेदारों और कराहती हड्डियों की भी बात हुई।
कॉल कटने के बाद भी, रामू फोन हाथ में लिए बैठा रहा। स्क्रीन पर टिमटिमाती सिग्नल की लकीर अब थक चुकी थी।
बाहर, साक्षी के फ्लैट की लाइटें एक-एक कर बुझने लगीं।
रामू ने नूर के बारे में सोचा। इस्माइल के बारे में। और उन आगों के बारे में जो किसी शोर के साथ नहीं आतीं — सिर्फ़ एक निमंत्रण के साथ।
और सोचने लगा, क्या साक्षी कभी उस डिब्बे को फिर से खोलेगी?
और क्या वो उस अतीत को पहन लेगी... जो अब उसका हो चुका है।
----
ये सब बहुत धीरे शुरू हुआ, जैसे हर ख़तरनाक चीज़ शुरू होती है। साक्षी ने कभी कोई हद पार नहीं की — वो बस उसके चारों ओर चलती रही, नंगे पाँव, खुली बाँहों के साथ, जैसे इंतज़ार कर रही हो कि वो हद खुद आकर उसे छू ले। उसने फासले से वैसे खेला जैसे कुछ औरतें रेशम से खेलती हैं — तनाव को परदे की तरह लटका कर, नाज़ुक लेकिन जानबूझकर।
मंगलसूत्र उसके पास पहुँचा — पर न पहना गया, न लौटाया गया। रामू ने कुछ नहीं कहा। वो काला डिब्बा अब भी साक्षी की ड्रेसर पर रखा था, न खोला गया, न छुआ गया, लेकिन हमेशा दिखता रहा। जैसे कमरे में कोई जानवर हो, जो कोने में चुपचाप मंडरा रहा हो। उसका न पहनना ख़ामोशी से ज़्यादा तेज़ बोला, और उसका न लौटाना वादे की तरह गूंजा। उसका इशारा — आधा बंद, आधा खुला — शब्दों से कहीं ज़्यादा पैना हो गया था। अब उनके बीच की चुप्पी गैर-मौजूदगी नहीं लगती थी। वो भारी थी, किसी जंगली चीज़ की तरह सांस लेती हुई। वो इंतज़ार कर रही थी।
जिस दिन परिवार निकलने वाला था, साक्षी गेट के पास पवन और उनके बेटे के साथ खड़ी थी, मकानमालकिन जाननी और उसके पति से बात कर रही थी, जो अपना सामान एक सफेद SUV में रख रहे थे। हवा में गर्मी भरी थी और बैग्स के पहिए कंक्रीट पर चीख रहे थे।
"अक्का, बस एक बार अप्पा को देख लेना, ठीक है? ये लिस्ट है — खाने-पीने का, दवाइयों का," जाननी ने एक कागज़ पकड़ाते हुए कहा।
"बिलकुल," साक्षी मुस्कराई। "हम उन्हें नाश्ता और रात का खाना दे देंगे। कोई परेशानी नहीं।"
"वो इन दिनों बहुत चूज़ी हो गए हैं," जाननी ने जोड़ा। "कभी खाना मना कर देते हैं। लेकिन तुम्हारी बात मानते हैं, मैंने देखा है। मुझसे ज़्यादा।"
पवन ने हल्का सिर हिलाया। "चिंता मत करो। साक्षी सब अच्छे से संभाल लेगी। मैं चेन्नई में ट्रेनिंग के लिए रहूंगा, पर ये सब देख लेगी।"
जाननी थोड़ी पास झुकते हुए हँसी, "पता है? मेरी सास का नाम भी साक्षी था। शुरू-शुरू में जब अप्पा तुम्हारा नाम सुनते थे, तो सच में लगता था जैसे वो वापस आ गई हो।"
पवन ने हल्की सी मुस्कान दी।
"सच कहूं, मुझे अब भी लगता है उन्हें वैसा ही लगता है। वो तुम्हें बहुत गौर से देखते हैं। जैसे डरते हों कि तुम पलक झपकते ही ग़ायब हो जाओगी।"
साक्षी ने थोड़ी हँसी में जवाब दिया, "अक्का, आप तो मुझे कोई भूत बना रही हैं।"
"भूत नहीं। एक और मौका," जाननी की आँखों में शरारत थी। "वो तुम्हें देखकर सीधा हो जाते हैं। तुम्हारी आवाज़ सुनकर हरकत में आ जाते हैं।"
पवन की मुस्कान बनी रही, लेकिन उसके बैग का स्ट्रैप थोड़ा और कस गया। उसने साक्षी को देखा, फिर नीचे झुककर उनके बेटे को देखा जो अपने खिलौने वाली गाड़ी से खेल रहा था।
"मुझे पैकिंग पूरी करनी है।"
वो अंदर चला गया।
अंदर जाते हुए उसके मन में ख्याल घूम रहे थे —
ये सब मज़ाक ही है। सब प्यार से कह रहे हैं। लेकिन कभी-कभी लगता है जैसे ये लोग ज़्यादा देख रहे हैं, कम बोल रहे हैं। शायद मैं ज़्यादा सोच रहा हूँ। साक्षी तो वैसे भी हमेशा लोगों के साथ अच्छी रहती है। शायद बस यही है। फिर भी...
उसने उस ख्याल को झटक दिया। बहुत काम है। ट्रेन, शेड्यूल, डेडलाइन। और एक धीमी सी बेचैनी... जिसे वो नाम देना नहीं चाहता।
उनका बेटा उसके पीछे-पीछे गया, ट्रेन में खाने को लेकर सवाल पूछता हुआ।
साक्षी बाहर जाननी के साथ हँसती रही। लेकिन अंदर... उसका सीना झनझनाने लगा।
जाननी अब भी रुकी नहीं थी।
"तो, जब हम नहीं होंगे, तब क्या पहनोगी?" उसने शरारत से पूछा। "वो स्लीवलेस कॉटन साड़ियाँ? या वो पिंक वाली — जो तुम्हारे जिस्म से ऐसे चिपकती है जैसे जानबूझ के?" उसने आँख मारी। "अप्पा शायद अपने सीरियल्स छोड़ देंगे।"
साक्षी हँसी, आँखें फैली हुईं। "अक्का! आप हद पार कर रही हैं।"
"बस कह रही हूँ! थोड़ा रंग, थोड़ा कम कपड़ा — अप्पा की उम्र शायद उल्टी गिनती में चल पड़े।"
साक्षी मुस्कराई लेकिन घर की ओर देख भी लिया। पवन नज़र में नहीं था, पर उसके सीने में एक सिकुड़न सी उठी।
अंदर, पवन सूटकेस के पास खड़ा था। उसकी उंगलियाँ ज़िप पर रुकी हुई थीं।
ये बस मज़ाक है। नुकसान नहीं है। लेकिन क्यों हर शब्द सीधा वहाँ चोट करता है जहाँ मैं सबसे कमज़ोर हूँ?
उसने ज़िप बंद किया और चेहरा पोंछा।
ठीक है। सब ठीक ही है।
और रामू — पास ही अपनी छड़ी के सहारे चुपचाप खड़ा था — कुछ बोला नहीं। लेकिन उसकी नज़रें हर वो बात कह रही थीं जो उसके होंठ नहीं कह सकते थे। उनमें कोई हँसी नहीं थी। बस भूख थी। बस इंतज़ार।
---
SUV निकल गई, हँसी और इंजन की आवाज़ धीरे-धीरे फीकी होती गई। कंपाउंड खाली हो गया। घर में एक सन्नाटा उतर आया — खोखला नहीं, बल्कि तैयार। जैसे कोई परदा उठने से पहले का पल।
अगली सुबह से सब शुरू हुआ।
वो गलियारे में ऐसे चलने लगी जैसे ये सब उसने किसी सपने में पहले से रिहर्स किया हो। जब उसका बेटा कमरे में खेलता होता। जब हॉलवे बिल्कुल खाली होता। जब उसे पता होता कि रामू की खिड़की के पीछे का हल्का परदा हिलेगा।
उसकी साड़ियाँ अब कहानियाँ बन गई थीं। ऐसे लिपटीं जैसे कोई आह। ब्लाउज़ — जिनकी पीठ गहरी, किनारे उठते हुए। कपड़े अब उसके मूड के मुताबिक चलते। हर क़दम एक अदाकारी। हर मोड़ — जैसे कोई अदृश्य डोरी खींच रही हो।
चूड़ियाँ फिर से लौट आईं। अब उनकी खनक वक्त को नए अंदाज़ में बताती। उसकी चाल में लय थी। उसके पाँवों की आहट अब शायरी लगती। पायलें अब विराम चिन्ह बन चुकी थीं।
एक दोपहर, रामू अपने दरवाज़े पर खड़ा था। हाथ पीछे बांधे हुए। इंतज़ार करता हुआ।
वो बाहर आई — स्टील की बाल्टी में गीले कपड़े लिए। उसका ब्लाउज़ भीग चुका था। उसका सीना गर्मी और वज़न की वजह से ऊपर-नीचे हो रहा था।
"कल की चाय कैसी लगी?" उसने पूछा, उंगलियों में कपड़े टाँगने वाली क्लिप्स दबाए।
उसने तुरंत जवाब नहीं दिया। "काफ़ी स्ट्रॉन्ग थी।"
"तुम्हें स्ट्रॉन्ग पसंद है, है ना?"
वो थोड़ा आगे बढ़ा, दहलीज़ के पास। "हर नाज़ुक दिखने वाली चीज़ कमज़ोर नहीं होती।"
उसने आधी मुस्कान दी। "इसीलिए तो अब तक टूटी नहीं।"
उस रात, तार पर बस एक चीज़ टंगी थी — एक गहरे मरून रंग का ब्लाउज़। स्लीवलेस। लगभग पारदर्शी। अकेला। जैसे कोई अनकहा वादा। कॉरिडोर की पीली रौशनी में वो कपड़ा चमक रहा था, हिल रहा था।
उसने उसे छुआ नहीं। लेकिन वो फिर भी उस तक पहुँच ही गया।
अगले दिन, उसने उसके दरवाज़े पर दस्तक दी।
"शक्कर है क्या?"
उसने दरवाज़ा धीरे से खोला। उसकी साड़ी गर्मी से उसके बदन से चिपकी थी। गर्दन पर पसीने की चमक थी। साबुन और इलायची की मिली-जुली महक साथ आई।
उसने शक्कर का डिब्बा बढ़ाया।
"और कुछ चाहिए?"
उसने धीरे से लिया, उंगलियाँ छू गईं।
"आज नहीं।"
वो मुड़ी। उसके भीगे बाल से एक बूँद उसकी रीढ़ पर लुढ़क गई। रामू की नज़र ने उसे प्रार्थना की तरह फॉलो किया।
शाम को, वो उसके खिड़की के सामने से गुज़री — बालों में चमेली खोंसी हुई। तुलसी के पास खड़ी होकर धीरे-धीरे पानी डाला। उसकी साड़ी भीग चुकी थी। उसकी साँसों की लय से ब्लाउज़ हिल रहा था।
एक बार, जब उसने ऊपर कुछ टांगने के लिए हाथ बढ़ाया — उसका पल्लू पूरी तरह गिर गया।
वो हँसी। "अरे... आजकल तो कितनी गड़बड़ हो जाती है मुझसे।"
ये मासूमियत नहीं थी। ये चिंगारी थी।
और वो — सूखी सलाख़।
परदे के पीछे से, रामू ने खिड़की का किनारा कस के पकड़ा, उसकी उंगलियाँ सफेद हो चुकी थीं।
अब ये छेड़खानी नहीं रह गई थी। अब ये भूख थी — लेस और नज़रों में गूंथी हुई।
अब शिकारी वो थी।
और वो पहले ही शिकार बन चुका था।
हर दिन वो उसे बस उतनी रोशनी देती, जितनी वो पीछा करने के लिए चाहिए होती।
और हर रात, वो यही सपना देखता — अगर कभी उसने भागना बंद कर दिया... तो वो क्या करेगा।
----------
ट्रेन बहुत पहले जा चुकी थी।
पवन की आखिरी हाथ हिलाती मुस्कान साक्षी की याद में अटकी हुई थी — स्टेशन की रौशनी के नीचे उसकी मुस्कान थोड़ी हिचकिचाई सी। उनका बेटा उसकी साड़ी का पल्लू पकड़े हुए था, आखिरी पल तक, एक हाथ से उसे देख रहा था और दूसरे से अपने पिता का अंगूठा थामे हुए।
सालों में पहली बार, साक्षी लगभग अकेली थी इस घर में।
लगभग — क्योंकि घर में अब भी वो थी। और उसका बेटा भी, जो अब कोने वाले कमरे में पतले चटाई पर उलझी हुई टाँगों के साथ सो रहा था। लेकिन फिर भी, ये सन्नाटा अटूट था। न पवन के कदमों की आवाज़। न कोई सवाल। न कोई परछाईं उसके पास। बस दीवार पर टिक-टिक करती घड़ी, और सीलिंग फैन की धीमी घूमती साँस, जो दोपहर की गर्मी को काटती जा रही थी।
वो गलियारे के मुहाने पर खड़ी थी, एक हाथ चौखट पर, सुनती हुई।
कुछ नहीं। लेकिन फिर भी...
उसे उसकी मौजूदगी महसूस हो रही थी।
उस दोपहर की उस ख़ामोशी में, रामू ने महसूस किया था। वो हमेशा करता था।
उस दिन, उसने गलियारा झाड़ने की कोई जल्दी नहीं की। उसने अपनी रोज़ वाली साड़ी नहीं पहनी। उसने नेवी ब्लू शिफॉन वाली साड़ी चुनी — चाँदी की पैस्ले डिज़ाइन के साथ — वो जो काम के लिए नहीं थी, और इंकार के लिए भी नहीं। उसका ब्लाउज़ सॉफ्ट था, स्लीवलेस, पीछे से बस दो पतली डोरियों से बंधा हुआ। उसने बालों में तेल लगाया, उन्हें समेटा, फिर छोड़ दिया। उंगलियों से उन्हें ऐसे सँवारा कि जैसे वो चमकते हों।
जब वो गलियारे में उतरी, उसने उसकी खिड़की की ओर देखा भी नहीं।
ज़रूरत ही नहीं थी।
परदा हिला।
उसके पीछे, रामू बैठा था — सांस रोके। ये इत्तेफ़ाक नहीं था। पवन जा चुका था। उसका संसार शांत हो चुका था। और अब वो किसी बंधन से मुक्त होकर चल रही थी।
रामू ने कुछ नहीं कहा। हिला भी नहीं।
साक्षी धीरे-धीरे उसके दरवाज़े से गुज़री — उसकी साड़ी की प्लीट्स हर कदम पर लहराती हुई। उसने तुलसी के गमले से एक फूल तोड़ा। उसका ब्लाउज़ खिसक गया, उसकी पीठ की ढलान खुल गई। उसने कुछ नहीं सुधारा। वैसे ही लौट गई — दरवाज़ा खुला छोड़ते हुए — लापरवाही से, और ख़तरनाक ढंग से।
कुछ मिनट बीते।
फिर एक आवाज़।
नॉकिंग। बस एक बार।
उसने दरवाज़ा खोला।
वो खड़ा था, अपनी छड़ी पर थोड़ा झुका हुआ। कमीज़ ग़लत बटन में बंद। होंठ भींचे हुए। आँखें एकदम खुली।
"मैंने कुछ गिरने की आवाज़ सुनी," उसने कहा।
उसने फूल उठाकर दिखाया।
"बस ये।"
उसकी नज़र नहीं झुकी। न ही उसकी।
वो एक तरफ हटी।
"अंदर आ जाओ, फिर।"
वो धीरे-धीरे अंदर आया — जैसे किसी याद में कदम रख रहा हो। दरवाज़ा पीछे से एक धीमी सी क्लिक में बंद हुआ।
वो खिड़की के पास वाली बेंत की कुर्सी पर बैठ गया — हाथ उसके हत्थों को कसकर पकड़े हुए। साक्षी बिना किसी जल्दी के, बिना किसी झिझक के चली। उसने उसे पानी दिया, उसकी कमर टेबल से छूती हुई झुकी। उसने चुपचाप पी लिया।
तभी पीछे वाले कमरे से एक आवाज़ आई। एक हल्की सिसकारी। फिर बढ़ती हुई रुलाई।
उसका बेटा जाग गया था।
साक्षी ने सिर टेढ़ा किया, सांस छोड़ी — न चिढ़ के, न थकान से, बल्कि एक तरह की देखभाल भरी मुस्कान के साथ। "माफ़ करना," उसने बुदबुदाया और मुड़ी — उसकी साड़ी की बनावट टाइल पर फिसलती हुई।
रामू उसकी चाल को देखता रहा — जैसे वो कोई आकृति हो जो धूप और छाया से गढ़ी गई हो।
जब वो लौटी, उसका बेटा उसकी बाहों में था — आँखें मलता हुआ, अपनी छोटी सी मुठ्ठी उसकी छाती के पास भींचे हुए।
"भूख लगी है, ज़ाहिर है," उसने हल्की मुस्कान के साथ कहा, फिर सीधे रामू की तरफ देखा। "बच्चे हमेशा जानते हैं उन्हें क्या चाहिए।"
रामू ने सिर हिलाया, उसकी आवाज़ गले में अटक गई।
वो उसके सामने वाले दीवान पर बैठ गई। थोड़ा सरकी। बेटे को अपने पास खींचा।
बहुत ही सहजता से, उसने अपना पल्लू ढीला किया — पर ज़्यादा नहीं। उसका ब्लाउज़ पहले से ही नीचा था, अब उसकी पीछे की डोरी भी खुली हुई थी। उसने कपड़ा कंधे से सरकाया। बस इतना कि कुछ दिख जाए। उसे थामा। बच्चे ने मुँह लगाया।
बच्चे ने तृप्ति से साँस छोड़ी। और रामू ने भी — चुपचाप।
उसका स्तन, भरपूर और उभरा हुआ, हर खिंचाव के साथ ऊपर आता। उसका झुकाव, उसकी साड़ी के ढलान से घिरा हुआ। उसकी उंगलियाँ बच्चे के बाल सहला रही थीं — एक ऐसी लय में जो शब्दों से पहले की थी।
उसने एक बार भी नज़रें नहीं हटाईं।
"बहुत खूबसूरत चीज़ है, है ना?" उसने पूछा। उसकी आँखें रामू से नहीं हटीं। "पिलाना। देना।"
"हाँ," उसने रुखे स्वर में कहा।
वो मुस्कराई। इस बार मुस्कान में वक़्त था। इरादा था।
"कभी-कभी सोचती हूँ... ये शरीर अब भी क्या-क्या देना जानता है।"
रामू की उंगलियाँ कस गईं। उसकी बाजू की नसें साफ़ दिखने लगीं।
उसने बच्चे को थोड़ा और सरकाया — थोड़ी और त्वचा दिखी। साड़ी का कपड़ा और नीचे खिसका। उसने खुद की त्वचा को ऐसे छुआ जैसे कुछ सोचना भूल गई हो।
"हर पवित्र चीज़ को छुपाना ज़रूरी नहीं होता," उसने जोड़ा, नीचे देखती हुई — उस बच्चे को जो आधी नींद में भूख से भरा चूस रहा था। "हर नैसर्गिक चीज़ मासूम भी नहीं होती।"
रामू चुप रहा।
वो बोल ही नहीं पाया।
उसने उस पल को खिंचने दिया — न शर्म, न रीति, न किसी परिणाम का डर। ये कोई दुर्घटना नहीं थी। ये कोई निमंत्रण भी नहीं था।
ये एक प्रदर्शन था।
और रामू देख रहा था — जैसे किसी ऐसे गुनाह की सज़ा भुगत रहा हो जो उसने अभी तक किया भी नहीं।
बच्चे ने दूध पीकर मुँह सटाया और सो गया। उसने धीरे से साड़ी को वापस ठीक किया — बिना जल्दबाज़ी के। ब्लाउज़ की डोरी बाँधी। जो ढकना था, ढक दिया।
लेकिन जो दिख चुका था — उसकी याद कमरे में अब भी लटकी थी।
वो धीरे-धीरे बच्चे को झुलाने लगी।
रामू खड़ा हुआ — धीरे से।
"अब मुझे चलना चाहिए।"
उसने सिर हिलाया। "बिलकुल।"
वो दरवाज़े की ओर मुड़ा।
उसने उसे नहीं रोका।
लेकिन जैसे ही दरवाज़ा बंद हुआ, उसने अपने बेटे की तरफ देखा, उसका माथा चूमा, और फुसफुसाई —
"अब उसने देख लिया है... जिसे वो छू नहीं सकता।"
और अगली चाल — अब उसकी थी।
Posts: 327
Threads: 0
Likes Received: 101 in 91 posts
Likes Given: 210
Joined: Feb 2022
Reputation:
0
•
|