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Misc. Erotica गरम रोज
wah hmari ROJ RANI ..........KE MAZA
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"तुम बहुत अच्छी हो रोजा बिटिया। इस बूढ़े की हालत इतनी अच्छी तरह से समझती हो।" वह अपना पैजामा पहन कर हांफते हुए बोला।
"चुप हरामी। हांफना बंद कर और खुद को नॉर्मल रख।" मैं अपनी सांसों, चेहरे और बालों को दुरुस्त करती हुई बोली। जबतक मां अंदर आती, मैं सोफे पर सामान्य ढंग से बैठ कर चाय का कप इस तरह से पकड़ चुकी थी मानो मैंने अभी अभी चाय खत्म किया हो, हालांकि नाईटी के अंदर मैं बिना पैंटी के गीली चूत के साथ नंगी ही थी। इसी दौरान घुसा भी वहां से नौ दो ग्यारह होकर किचन में जा दुबका था। इधर मां अंदर आई और उधर घुसा किचन से बाहर निकलता दिखाई दिया। सब कुछ नॉर्मल। किसी संशय की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी थी हमने।
मुझे एक चीज देख कर बड़ा अजीब लगा था, जब मां घर के अंदर आई। सामान्यतः वह अपने वस्त्र को लेकर और अपने व्यक्तित्व को लेकर बेहद सतर्क रहती थी लेकिन इस वक्त वह बात नज़र नहीं आ रही थी। उनके बाल भी थोड़े बिखरे बिखरे से दिखाई दे रहे थे और उनकी साड़ी पर भी सलवटें पड़ी हुई थीं। चेहरा थोड़ा अधिक लाल दिखाई दे रहा था। वह हमसे नजरें चुराती हुई अपने कमरे की ओर बढ़ रही थी। उनकी चाल में थकान दिखाई दे रही थी और चाल भी थोड़ी बदली बदली सी थी। मुझे लगा कि शायद काम के अतिरिक्त बोझ के कारण उनमें यह सब परिवर्तन मुझे दिखाई दे रहा था। मैं सोफे से उठ कर उनकी ओर बढ़ी और उधर घुसा भी उसी वक्त उनकी ओर बढ़ा लेकिन मां हमें नजर अंदाज करते हुए बढ़ती रही।
"क्या हुआ मम्मी?" मैं बोली, तभी दरवाजे पर घनश्याम प्रकट हुआ और तेजी से मां की ओर बढ़ा। उसे शायद कार पार्क करने में कुछ समय लगा था।
"क क कुछ नहीं।" कहकर वह आगे बढ़ती गई लेकिन अबतक घनश्याम झपट कर मेरी मां के पास पहुंच गया था और उनकी कमर थामे कमरे की ओर ले चला। मेरी मां की कमर पर घनश्याम का हाथ! मैं हतप्रभ रह गयी। घुसा भी अपनी जगह जड़ हो गया था। घनश्याम का मेरी मां की कमर थामना, हम सबकी नजर में उसकी अक्षम्य हिमाकत थी, लेकिन मैं चकित रह गयी यह देखकर कि मम्मी ने कोई विरोध नहीं किया। कुछ तो गड़बड़ था। हां अवश्य गड़बड़ था। इससे पहले कि मैं कुछ और पूछती, घनश्याम ने इशारे से मुझे चुप करा दिया। उसकी मुख मुद्रा ने मुझे बहुत कुछ बता दिया था। मैं सशंकित नजरों से घनश्याम को देखने लगी। घनश्याम मेरे सशंकित चेहरे को एक नजर देखा तो उसके होंठों पर एक मुस्कान तैर गई। उस मुस्कान को मैं क्या समझूं? क्या वह विजयी मुस्कान थी?
हे भगवान, जो मैं समझ रही थी, वह क्या वाकई सच था? अगर सच था तो भी अविश्वसनीय था। इतनी जल्दी? आज ही तो डेढ़ दो घंटे पहले घर लौटने के दौरान मेरी और घनश्याम के बीच जो बातें हुईं थीं उसमें मैंने अपने मन के विचारों को व्यक्त किया था। तो क्या उसका परिणाम इतनी जल्दी आ गया? हो सकता है यह मेरा भ्रम हो। अब यह मेरे मन का वहम हो या सच, क्या फर्क पड़ता है। सच है तो भी बढ़िया और वहम हो तब भी आज नहीं तो कल, इसे सच में बदलने में देर थोड़ी ना होने वाली थी। मेरे मन में चल रहे इन विचारों से बेखबर घुसा चिंतित नजरों से मम्मी को घनश्याम के सहारे उसके कमरे की ओर जाते हुए देखता रहा। मम्मी को उसके कमरे में छोड़ कर जैसे ही घनश्याम बाहर निकला, मैं उसके सामने जा खड़ी हुई।
"मम्मी को क्या हुआ?" मैं ने सवाल दागा।
"कुछ नहीं। शायद ज्यादा काम का बोझ था।" वह मुझे टालते हुए बोला।
"मम्मी इतनी कमजोर नहीं है। काम के बोझ से उन्हें कोई खास फर्क नहीं पड़ता है। सच बताईए, क्या हुआ?" मुझे उसके जवाब से तसल्ली नहीं हुई।
"अभी बताना जरूरी है?" वह घुसा की उपस्थिति में बताना नहीं चाह रहा था शायद। अब मेरी शंका सच लगने लगी।
"जैसी आपकी मर्जी। शायद मुझे पता है, क्या हुआ है मम्मी को।" मैं बोली।
"पता है तो पूछ किसलिए रही हो बिटिया?" वह अर्थपूर्ण दृष्टि से मुझे देखते हुए बोला।
"ओह। बड़ा तेज निकले?" मैं बोली।
"समझदार हो।"
"हां।"
"तो मैं चलूं?" वह चलने को हुआ। वह सामान्य से कुछ ऊंचे स्वर में बोला था। उसकी आवाज न सिर्फ हम सुन सकते थे बल्कि ड्राईंगरूम के अगल बगल वाले कमरों तक सुनाई दे सकती थी।
"नहीं, अभी तुम कहीं नहीं जा रहे हो।" यह आवाज मम्मी के कमरे से आई। हम सभी उस ओर देखने लगे। मम्मी अपने कमरे के दरवाजे से बाहर आ चुकी थी। "तुम आज हमारे यहां खाना खा कर जाओगे और कल से यहीं हमारे घर में रहोगे। यहां उस किनारे वाले कमरे में।" वह अपने कमरे की लाईन में पूरब की ओर के एक किनारे वाले कमरे को दिखाते हुए बोली। वह कमरा कई दिनों से खाली पड़ा हुआ था। मैं और घुसा आश्चर्य से कभी मम्मी को देखते कभी घनश्याम को। अचानक घनश्याम इतना महत्वपूर्ण कब से हो गया? मैं सबकुछ समझ गई।
"नहीं मैडमजी, मैं अपने पुराने घर में ही ठीक हूं।" घनश्याम बोला। उसका दो कमरों का एक छोटा सा किराए का घर हमारे कंपाउंड से बाहर पश्चिम की ओर करीब पचास मीटर की दूरी पर था।
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wah shandar maa ke bhi maze.............
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"यह मेरा हुक्म है। जब तब तुम्हारी जरूरत पड़ती रहती है। तुम्हारा यहीं रहना हम सबके लिए अच्छा है। पैसा उतना ही मिलेगा और रहना खाना हमारे साथ ही होगा।" वह आदेश था।
"लेकिन... " वह कुछ और कहता उससे पहले ही उसकी बात काट कर मम्मी बोली,
"लेकिन लेकिन कुछ नहीं। मुझे आगे कुछ नहीं सुनना है।" कहकर वह फिर अपने कमरे में घुस गई।
"जैसी आपकी मर्जी।" बोलने को तो ऐसे बोल रहा था जैसे मजबूरी में मम्मी की बात मान रहा हो, लेकिन मैं जानती थी कि घनश्याम अंदर ही अंदर कितना खुश था। साला पता नहीं क्या जादू कर दिया था मम्मी पर। जादू क्या, स्पष्ट था कि अपनी कारस्तानी से मम्मी को प्रभावित करने में सफल हो गया होगा। मैं ने मन ही मन सोचा कि चलो अच्छा है, अब घर में ही घुसा के साथ साथ घनश्याम जैसा एक और विश्वसनीय 'मनपसंद और अपने मतलब का कुशल और सक्षम' मर्द उपलब्ध रहेगा।
"अब क्या सोचने लगे अंकल? आपकी तो निकल पड़ी।चुपचाप बैठ जाईए। अब मम्मी का हुक्म है तो खाना खा कर ही जाना होगा। कल अपना सामान भी ले आईएगा, फिर तो दो दो डबल सिलिंडर इंजिन...." मैं प्रफुल्लित मन से उनकी आंखों में देखते हुए उसकी खिंचाई करती हुई बोली। मेरी बातें सुनकर वह सामने सोफे पर बैठ गया। वह मुझे चंचल नजरों से ऐसे घूर रहा था मानो उसका वश चले तो अभिए पटक कर मेरी सिलिंडर में पिस्टन घुसेड़ कर इंजन चालू कर देगा। घुसा अब भी सारी बातों से अनजान था। इस बात से अनजान था कि अब इस घर में उसका 'हम दोनों मां बेटी पर एकछत्र साम्राज्य' खत्म हो चुका था। उसकी आंखों में इस बात के लिए ईर्ष्या का भाव भी था कि घनश्याम को इतना महत्व क्यों मिल रहा है। उसे इस बात का क्या पता था कि हम मां बेटी को चोदने के लिए एक और साझेदार पैदा हो चुका है। अगर यह बात उसे पता चल जाता तो पता नहीं उसके दिल पर क्या बीतती। वैसे घुसा सिर्फ इतना जानता था कि घनश्याम ने मुझे उसके साथ आपत्तिजनक स्थिति में देखा था और हमारे बीच के शारीरिक संबंध का गवाह था। उसे क्या पता था कि घनश्याम मेरे साथ क्या कुछ कर चुका था और निश्चित तौर पर, अगर मैं गलत नहीं हूं तो मेरी मां की देह का भी रसास्वादन कर चुका था।
"दो दो पिस्टन भी।" घनश्याम बोला। उसका इशारा घुसा की ओर था।
"दूसरा अभी अनभिज्ञ है इसलिए बेहतर है कि फिलहाल तो इस दूसरे पिस्टन को निष्क्रिय ही मान कर चलिए। आगे चलकर देखा जाएगा।" मैं बोल पड़ी। घनश्याम को क्या पता था कि अभी कुछ देर पहले घुसा का पिस्टन कितनी सक्रियता के साथ मेरे सिलिंडर में भौकाल मचा रहा था।
सारा घटनाक्रम इतनी तेजी से चल रहा था कि मुझे सोचने समझने का अवसर ही नहीं मिल रहा था। सोचने समझने की जरूरत भी मुझे महसूस नहीं हो रही थी। जो कुछ हो रहा था, मुझ नादान के लिए बड़ा आनंददायक था। बिना कुछ सोचे समझे बस इन वासनापूर्ण खेलों में शामिल होकर मजा लिए जा रही थी। यह सबकुछ बड़ी सहजता से होता जा रहा था और मैं वासना के इस तूफान में बही चली जा रही थी। मैं अपने कॉलेज के आवारा लड़कों, राजू, विशाल, अशोक और रफीक के नंगे देह का दर्शन कर चुकी थी लेकिन उनका शरीर और उनका मर्दाना जुगाड़ मेरी नज़र में घुसा, घनश्याम और गंजू के सामने फीका था। हां, दरबान रघु, जो उम्र में अधेड़ जरूर था लेकिन उनमें से अलग था, शारीरिक सौष्ठव से ही नहीं बल्कि अपने मर्दाना अस्त्र से भी, इसीलिए आज नहीं तो कल रघु मेरी जिंदगी के सेक्स जीवन में आने वाले मर्दों की सूची में अवश्य शामिल होगा, ऐसा मेरा मानना था लेकिन उन लड़कों का नाम तो इस सूची में कत्तई शामिल नहीं होगा, यह पक्का था। रघु का जिक्र आया तो यहां मैं बता दूं कि रघु की नग्न देह को देखने का मौका कॉलेज के पुराने प्रयोगशाला में देखने का मौका मिला था। उन आवारा लड़कों के चक्कर में पड़कर वहां मुझे फोकट में चोदने चला आया था और मेरे हाथों उसकी भी कुटाई हो गयी थी। उसका शारीरिक गठन अच्छा तो था ही, उसका हथियार भी अच्छा खासा था। उस वक्त मैंने उसके हथियार की झलक ही देखी थी। पूरी तरह तना हुआ नहीं था लेकिन फिर भी कम से कम आठ इंच लंबा तो अवश्य था और उसी के अनुपात में मोटा भी था। अबतक तो मुझे अनुभव हो गया था कि अर्द्ध सुशुप्तावस्था में यदि उसका लंड आठ इंच के करीब था तो पूर्ण तनावपूर्ण स्थिति में अंदाजतन दस इंच तो अवश्य ही होता होगा और उसी के अनुपात में मोटा भी। मेरे जेहन में गंजू का लंड घूम गया। आरंभ में तकलीफदेह था लेकिन एक बार अभ्यस्त हुई तो बड़ा मजा आया। उसी सोच के कारण मेरे अंदर रघु को कम से कम एक बार ट्राई करने का विचार आया। यह ख्याल आते ही मैं रोमांचित हो उठी लेकिन गंजू से चुदवा कर जो अनुभव मुझे मिला, उसके कारण मुझे लगा कि रघु को ट्राई करने के पहले अपनी क्षमता को भी जांच लेना अच्छा होगा। जांचने का एक दो तरीका मेरे पास था और वह थोड़ा घर के पीछे वाले बगीचे में अलग अलग साईज के खीरे और बैंगन। मैंने सोच लिया कि आज रात को ही बगीचे से अपने हिसाब से खीरा और बैंगन तोड़ लाऊंगी। यह विचार आते ही मेरे होंठों पर एक मुस्कान तैर गई।
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bhai maa ke sath kay huya pura batao to aur maza aageya..........
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वह भी बताऊंगी
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"अब क्यों मुस्कुरा रही हो?" घनश्याम मुझे मुस्कुराते हुए देख कर बोला।
"बस यूं ही।" मैं सकपका गई।
"तुम पागल हो गई हो। कोई सामान्य व्यक्ति यूं ही मुस्कुराता है क्या?" वह बोला।
"हां, पागल हो गई हूं। अच्छा आप बैठिए, मैं अभी आई।" कहकर उसकी बात की प्रतीक्षा किए बगैर अपनी जगह से उठ गयी और पीछे के दरवाजे की ओर बढ़ गई। जब मैं चल रही थी तो मुझे महसूस हो रहा था कि मेरी चूत अभी भी सूखी नहीं है। कुछ घुसा का वीर्य और कुछ मेरी योनि का लसलसा रस चिपचिप कर रहा था। मैं चाहती थी कि जब बाहर निकलूंगी तो कोई कपड़े के टुकड़े से यह गीलापन पोंछ लूंगी लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा कोई कपड़ा नहीं मिला। मैं उसी अवस्था में उस चिपचिपे पन को महसूस करती हुई चलती चली गई। यह गंदा लेकिन बड़ा अजीब सा मजेदार अनुभव था। चलते या उठते बैठते समय मैं पूरी तरह सावधान थी कि मेरी नाईटी में किसी प्रकार का गीला दाग न लगे। पीछे का दरवाजा खोल कर मैंने अपने मोबाईल की लाईट की सहायता से सबसे बड़ा एक खीरा और एक बड़ा सा बैंगन तोड़ कर चुपके से पीछे वाले गलियारे के कोने में पड़े डिब्बे में डाल आई। खीरा तो अच्छा खासा लंबा था लेकिन बैंगन उतना लंबा नहीं था। लंबाई में बैंगन अपेक्षाकृत थोड़ा कम था लेकिन अच्छा खासा मोटा जरूर था। इन दोनों का इस्तेमाल करके अपनी दोनों छेदों की अधिकतम क्षमता का परीक्षण करना मेरी समझ से अवश्य संभव होगा, यह सोचकर मैं अपनी बुद्धिमत्ता की दाद देने लगी। यह काम खत्म करके मैं पुनः ड्राईंगरूम में आ गई।
अभी मैं सोफे पर बैठी ही थी कि मां अपने कमरे से निकल कर वहां आ गयी। अब वह तरोताजा और ठीक ठाक नजर आ रही थी। मुझे उनसे कुछ देर पहले वाली स्थिति के बारे में कुछ भी पूछना उचित नहीं लग रहा था क्योंकि मुझे पता था कि उनकी उस स्थिति का कारण घनश्याम के अलावा और कोई नहीं हो सकता था। मैं कभी मां को देखती कभी घनश्याम को।
"हमलोग डाइनिंग हॉल में चलें?" मां की बातों से वहां की शांति भंग हुई।
"हां हां, चलिए सब लोग। खाना तैयार है।" घुसा ने किचन से बाहर आ कर घोषणा की और हम सभी डाइनिंग हॉल में खाने के लिए हाजिर हो गये।
"याद है ना कि कल से आप हमारे घर में रहेंगे?" खाना खाते खाते मां ने घनश्याम से कहा।
"याद है मैडमजी।" घनश्याम बोला।
खाना खाने के बाद घनश्याम जब जाने को हुआ तो मैं भी उसके साथ बाहर जाने को उठी।
"तुम कहां चली?" मां ने मुझे टोका।
"बस बाहर तक इन्हें छोड़ कर आती हूं।" मैं बोली।
"नहीं, मैं चला जाऊंगा।" घनश्याम बोला लेकिन उसकी नजरें मेरी मां पर थीं और मेरी मां भी उसे ही देख रही थी। घनश्याम बोलने के साथ रुका नहीं और बाहर निकल गया। मैं जानती थी कि मेरी मां के मन में क्या चल रहा था। उसे अवश्य संदेह हो रहा था कि मैं घनश्याम से कुछ न कुछ सवाल जवाब करूंगी और घनश्याम पता नहीं मेरे सवालों का क्या उत्तर देने वाला था। मैं फिर चुपचाप हाथ धोने के लिए वाश बेसिन की ओर बढ़ गयी और घनश्याम के पीछे जाना उचित नहीं समझी। आखिर कल तो मेरी जिज्ञासा शांत होनी ही थी। हम इधर-उधर की बातें करने के बाद अपने अपने कमरे में जाने को उठे। मैं मां को अपने कमरे में जाते हुए देखती रही। घुसा भी मां को ही देख रहा था लेकिन मां ने एक बार भी हमारी ओर मुड़ कर नहीं देखा। जैसे ही मां अपने कमरे में दाखिल हुई, मेरी और घुसा की नजरें चार हुईं।
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"क्या देख रहे हो?" मैं मुस्कुरा कर बोली।
"देख रहे हैं कि आज मैडमजी कुछ बदली बदली सी लग रही हैं।" वह अन्यमनस्क स्वर में बोला।
"तुम्हें इससे क्या, जो चाहते थे वह तो मिल तो गया ना।" मैं बोली।
"फिर भी उनका इस तरह हमको नजर अंदाज करना हमको थोड़ा अजीब लग रहा है।" वह बोला।
"आज पहली बार है ना इसलिए अजीब लग रहा है। धीरे-धीरे आदत हो जायेगी।" मैं बोली। मुझे पता था कि अबतक घुसा ही मां के आकर्षण का एकमात्र केंद्रबिंदु था लेकिन अब यह स्थिति बदल चुकी थी। मुझे पता था कि अब घुसा का एक और साझेदार पैदा हो चुका है।
"क्या मतलब?" घुसा जो इस बात से अनभिज्ञ था, पूछ बैठा।
"मतलब भी एक दो दिन में समझ जाओगे। फिलहाल परेशान होने की जरूरत नहीं है। वैसे भी मैं तो हूं ना तुम्हारे लिए।" मैं घुसा को आश्वस्त करते हुए बोली।
"हां तुम तो हो ही, मुझ बूढ़े की छुटकी बुढ़िया। अभी फिर से एक राउंड हो जाय?" घुसा पैजामे के ऊपर से अपना लंड पकड़ कर बोला। उसकी बातों से लग रहा था कि हड़बड़ी में चुदाई के कारण उसका मन पूरी तरह नहीं भरा है।
"चुप हरामी बुढ़ऊ। बहुत लंड में खुजली मची है? अभी कहीं मां का बुलावा आ गया तो मेरी चूत से लंड निकाल कर उसकी चूत में डुबकी लगाने के लिए दौड़ना पड़ेगा। चुपचाप खिसको।" मैं उसे टालते हुए बोली और अपने कमरे की ओर बढ़ने को तत्पर हो गयी। मेरा कथन सत्य भी था। कहीं मां का मूड हुआ तो घुसा का बुलावा कभी भी आ सकता था। इतना तो निश्चित था कि रास्ते में ही कहीं सुनसान जगह में मां की भाव भंगिमाओं को ताड़ कर घनश्याम अपने मन की करने में सफल हो चुका था लेकिन जो कुछ भी हुआ होगा, असुविधाजनक स्थान में और असुविधाजनक स्थिति में फटाफट हुआ होगा इसलिए रही सही कसर पूरी करने के लिए घुसा की जरूरत महसूस कर सकती है, ऐसा मेरा सोचना था और लो, मेरा सोचना शत-प्रतिशत सच साबित हुआ।
"घुसा, जरा पानी लेकर आना तो।" मां की आवाज आई और मैं मुस्कुरा कर घुसा को देखने लगी। घुसा तो जैसे इसी तरह आवाज के लिए तरस रहा था।
"अभी लाया मैडमजी।" कहते हुए वह तीर की तरह किचन की ओर भागा और मैं अपने कमरे की ओर बढ़ने की बजाय पीछे वाले गलियारे की ओर बढ़ गयी। वहां कोने में पड़े हुए डिब्बे में मेरी परीक्षण सामग्रियां रखी हुई थीं।
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(03-03-2024, 04:59 PM)Rajen4u Wrote: "चाहे हम तुम्हें कितना भी चोद लें, यह काफी नहीं है। तू तो बहुत बड़ी बुरचोदी निकली मैडम। वाह वाह, मेरे लौड़े से चुदवाने में अच्छी अच्छी औरतों की गांड़ फटती है लेकिन तू तो मजे ले चुदी जा रही है। मजा आ गया आज तो। मिल गई तू हमारी मनपसंद लंडरानी।" वह चोदे जा रहा था और ऐसे ही उद्गार निकाल रहा था।

       मैं भी कहां पीछे थी। चुदाई की मस्ती में इतनी डूब गई थी कि मेरे मुंह से भी क्या उल्टा सीधा निकल रहा था मुझे होश ही नहीं था, "साले कुत्ते, चोद हरामी चोद। आह आह, ओह ओह मां बड़ा मज़ा आ रहा है। ओह मां, ओह मेरे चोदू बुड्ढे, और जम के मार मेरी चूत ओओओओओहहहहह....." मैं ऐसे ही और न जाने क्या क्या बके जा रही थी और चुदे जा रही थी। अंततः पसीने से लथपथ हम दोनों कुछ पलों के अंतराल में करीब करीब एक साथ ही चरमसुख में पहुंच गए। उसके लंड से गरमागरम वीर्य का फौवारा फचफच करके मेरे गर्भ को सींचने लगा था और मैं उसके विकृत शरीर से किसी छिपकली की तरह चिपक कर अपने जीवन के उस पहले स्खलन का रसास्वादन करती हुई मानो स्वर्ग की सैर कर रही थी। जैसे ही चुदाई की खुमारी उतरी, मैं थक कर चूर उसके ऊपर ही गिर गयी। हम दोनों कुछ देर वैसे ही लेटे रहे और उसने धीरे से अपने खुरदुरे हाथ मुझ पर रगड़े।  

       वाह, मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं अभी-अभी इस जानवर से इस छोटी सी गंदी धूल भरी जगह में चुदी। मेरे जीवन की इस पहली चुदाई का अनुभव बेहतरीन थी। यादगार था। जीवन के नये आनंद से रूबरू हो कर मैं आह्लादित थी।

      मुझे पता ही नहीं चला कि कितना समय बीत गया। नौकर ने मुझसे कहा कि मेरी माँ के घर आने से पहले मैं तैयार हो जाऊँ।  मुझे आश्चर्य हुआ कि वह मेरी मां की अनुपस्थिति के बारे में पहले से जानता था।  शायद माँ ने जाने से पहले उसे बता दिया होगा। कमीना कहीं का।

     “हम यहाँ से कैसे निकलेंगे?  क्या तुम्हें लोहे की शेल्फ़ दिखाई नहीं दे रही है?”  मैंने उससे पूछा।

     उसने मुझसे कहा कि अगर मैं थोड़ा सा भी हट जाऊं तो वह इस शेल्फ को उठा लेगा। उसका लंड पुच्च करके मेरी चूत से बाहर निकल चुका था। मेरे कौमार्य के फटने से निकले खून से सराबोर उसका लंड भीगे चूहे की तरह सिकुड़ कर मुरझा चुका था, लेकिन न तो उस वक्त मुझे इसका ध्यान था और न ही उसे। हमें तो अब वहां से किसी तरह निकलना था। मैं किसी तरह खिसकने में कामयाब हो गयी और वह शेल्फ को उठाने के लिए स्वतंत्र हो गया। उसने अपनी शक्ति लगा कर उस शेल्फ को उठा लिया और सीधा खड़ा कर दिया। फिर मैंने अपनी चूत को अच्छी तरह से पोंछा और मेरे खून से सने अपने लंड को उसने पोंछा और हम अपने कपड़े पहनने लगे। अब चूंकि चुदाई का नशा उतर चुका था, मैं उस गंदे आदमी के हाथों अपना कौमार्य खोने के कारण बहुत शर्मिन्दा थी। जहां मुझे उससे नजरें मिलाने में भी शर्म आ रही थी वहीं वह कमीना तो विजयी मुस्कान के साथ बड़ी बेशर्मी से मुझे देख रहा था। फिर हमने मिलकर उस कमरे को व्यवस्थित किया।

      कमरे से बाहर निकलने से पहले, मैंने उसे कस कर एक थप्पड़ मारा और गुस्से से बोली, "कमीने, तुमने मुझे चोदने के लिए मेरे साथ धोखा किया,” और उसकी प्रतिक्रिया देखे बगैर वहाँ से चलने लगी। पहली बार इतने मोटे लंड से चुदने के कारण मेरी चूत में जलन हो रही थी और चूत फूल कर मालपुआ हो चुकी थी इसलिए मेरी चाल भी बदल चुकी थी। चलने में हल्की सी तकलीफ़ का अनुभव कर रही थी।

      "धोखा ही सही लेकिन आप को भी मज़ा तो आ रहा था ना, नहीं तो आपके मुंह से ऐसा ऐसा बात निकल रहा था जिसे सुनना हमारे लिए नया बात था। वैसा बात तुम्हारे मुंह से निकलते सुन कर हम चकित भी थे और खुश भी थे कि चलो तुमको मजा तो आ ही रहा था। अब बोलो वैसा बात कैसे निकल रहा था अगर तुमको मजा नहीं आ रहा था तो?" वह बोला।

       "चुप हो जाओ। वह तो, वह तो....." आगे मुझसे कुछ बोलते नहीं बन रहा था। मैं जानती थी कि सचमुच मुझे बड़ा मजा आ रहा था। ऐसे मजे की हालत में मेरे मुंह से क्या क्या निकल रहा था मुझे होश ही कहां था। मैं तो चुदाई की मस्ती में डूबी हुई थी। मेरी बात सुन कर वह मुस्करा उठा।                    "अब हंस रहे हो मक्कार कहीं के।" मैं विफर कर बोली।        "नहीं मैडम, आपने यह सब गलत समझा।  हम समझा सकते हैं'' वह कहता रहा लेकिन मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। उस धूर्त के जाल में फंस कर कुछ पलों की उत्तेजना में ही मैं एक कुरूप बूढ़े, जंगली जानवर के हाथों अपना कौमार्य खो कर एक लड़की से औरत बन चुकी थी। अब बड़ी शरम आ रही थी और अपने आप को कोस भी रही थी। खैर जो हुआ सो हुआ, जीवन के एक अनजाने आनंद से रूबरू होने का मौका तो मिला, बस इसी बात की तसल्ली थी। यह थी बड़े ही अटपटे ढंग से मेरे सेक्स जीवन की शुरुआत।

      अगली बार, मैं आपको बताऊंगी कि कैसे वह जानवर नौकर मुझे फिर से बहकाने और मेरे साथ संबंध बनाने में कामयाब रहा और यह एक सिलसिला बन गया।
Heart Heart (फिर मैंने अपनी चूत को अच्छी तरह से पोंछा और मेरे खून से सने अपने लंड को उसने पोंछा और हम अपने कपड़े पहनने लगे।)
Aah kya mast chudawayi ho ohh Mai hota to Sara khun aur virya chus chat kar saf karta
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wah wah.................
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(08-03-2024, 04:55 PM)Rajen4u Wrote: माफ कीजिएगा, गलती से यह दुबारा पोस्ट हो गया था। असुविधा के लिए खेद है।

Heart Heart Aah koi baat nahi rani ghee ka laddu hai aapki kahani
(फिर नौकर मेरी चूत के पास गया और उसे सूँघा। फिर वो उसे चूसने लगा। मैंने उसका सर पकड़ लिया और जोर-जोर से कराहती रही। यह बूढ़ा, बदसूरत आदमी तो चुदाई का जादुगर निकला। अपनी जीभ से बहुत अच्छा काम कर रहा था। इससे पहले कि मैं अपनी चरम सीमा तक पहुँच पाती, वह रुक गया।)
Sach me naukar bahut hi badhiya chodu ha uff chusne se pahle sungh kar dekh liya ki chut chusne layak hai ki nahi uff Rajen ji ye line padh kar Lund ke pani aa gaya badi muskil se nikale se roka
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(28-02-2024, 01:22 PM)Rajen4u Wrote: गरम रोजा
     नमस्ते दोस्तों। मैं आत्मकथा के रूप में अलग अलग कड़ियों में अपने सेक्स जीवन की कहानी लिखने की कोशिश कर रही हूं। कृपया इसे पढ़ने के बाद अपनी प्रतिक्रियाएं अवश्य भेजिएगा जिससे मुझे और अच्छी तरह लिखते रहने में उत्साह मिलता रहे।
आप लोगों की रोजा।
Aah jarur Roja rani bahut mast chudwati ho jara apni chut ki pic bhi dalo to aur pratikriya Dene me Maja ayega
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गरम रोजा (भाग 10)

इधर घुसा मां के लिए पानी लेने किचन की ओर बढ़ा और मैं पीछे के गलियारे की ओर बढ़ गयी। घुसा पानी लेकर मां के कमरे में जाएगा और क्या करेगा वह तो स्पष्ट था और मुझे उसके बारे में सोचना नहीं था लेकिन अब मैं जो कुछ करने वाली थी वह सोच मुझे भीतर से आंदोलित कर रहा था। मैं धड़कते हृदय से पीछे गलियारे के कोने की ओर बढ़ रही थी। जैसे जैसे मैं कोने पर रखे हुए डिब्बे की ओर बढ़ रही थी वैसे वैसे मेरे दिल की धड़कन बढ़ती जा रही थी। एक अजीब सी घबराहट महसूस कर रही थी, मानो उस डिब्बे से कोई अनजानी सी, कोई अजीब सी चीज निकलने जा रही हो। रखी मैं ही थी, निकालना भी मुझे ही था लेकिन उन चीजों को दुबारा हाथ से निकालने के लिए मुझे उन्हें दुबारा छूना था और हाथ में उठाना था और अपने कमरे में ले कर आना था। इतनी सी बात के लिए मेरे मन में अजीब सी हलचल मची हुई थी। मेरे हाथ पांव कांप रहे थे।
उस डिब्बे के पास पहुंच कर कुछ पलों के लिए मैं जड़ हो गई। हालांकि उस डिब्बे में मैंने ही उन सामानों को रखा था लेकिन जब मैं झुक कर डिब्बे का ढक्कन खोल रही थी उस वक्त मेरे हाथ कांप रहे थे जैसे उस डिब्बे से उन चीजों के बदले कोई और अपरिचित और भयभीत करने वाली चीजें निकलने जा रही हों। अंततः मुझसे डिब्बा खोला नहीं गया लेकिन मैंने हिम्मत करके डिब्बे को बिना खोले ही हाथ में उठा लिया और उसे लेकर सशंकित मुद्रा में अपने कमरे की ओर चलने लगी।
अभी मैं अपने कमरे में घुसने ही वाली थी कि किचन की ओर से घुसा पानी लेकर आता हुआ दिखाई दिया। मुझे लगा कि मेरी चोरी पकड़ी गई। मेरा हाथ कांप उठा। मैंने खुद को दिलासा दिया कि डिब्बे के अंदर क्या है उसके बारे में उसे क्या पता होगा।
"डिब्बे में क्या है बिटिया?" घुसा मेरे हाथ में डिब्बा देख कर बोला। उसके सवाल को सुनकर डिब्बा मेरे हाथ से गिरते गिरते बचा।
"क क क कुछ नहीं। यह खाली है। मैं इस खाली डिब्बे का इस्तेमाल अपनी कुछ चीजें रखने के लिए ला रही हूं।" मैं खुद को संभाल कर किसी प्रकार बोली और जल्दी से अपने कमरे में जा घुसी। मेरी घबराकर घुसा की नजरों से छिपी नहीं रह सकी थीं, यह मैं उसके चेहरे को देख कर समझ गई थी और उसके अगले सवाल का सामना करने की हिम्मत नहीं थी इसलिए मैंने कमरे में घुस कर तुरंत दरवाजा बंद कर दिया। कमरे में घुसते ही मैंने उस डिब्बे को अपने बिस्तर पर ऐसे फेंका जैसे उस डिब्बे में कोई जहरीला सांप हो या कोई बिच्छू हो। डिब्बा जैसे ही बिस्तर पर गिरा, उसके अंदर से खीरा और बैंगन निकल कर बिस्तर पर छितराए मुझे मुंह चिढ़ा रहे थे। मेरा ही तोड़ा हुआ एक फुट लंबा, ढाई इंच मोटा खीरा और एक करीब साढ़े तीन इंच मोटा और बलिश्त भर लंबा, चिकना बैंगन ही तो थे वे। अपनी बेवकूफी भरे बेवजह भय पर मुझे हंसी आ गई। मैं ने आगे बढ़ कर जैसे ही खीरा और बैंगन को स्पर्श किया तो रोमांचित हो उठी। हरा, लंबा खीरा और चमचमाता बैंगन एक एक हाथ में लेकर मैं चूम उठी। ये ही वे सब्जियां (यंत्र) थीं जिनसे मैं अपनी चूत और गांड़ की क्षमताओं का परीक्षण करना चाहती थी। हालांकि इन चीजों का साईज मेरी समझ से किसी भी आदमी के लंड से कहीं बड़ा था। इन्हें ले पाई तो समझो किसी भी आदमी का आराम से ले पाऊंगी।
अचानक मुझे रघु का लंड याद आ गया। जब मैंने देखा था उस समय रघु का लंड पूरी तरह तना हुआ नहीं था, तो पूरी तरह तनाव में आ कर उसका लंड कितना बड़ा हो सकता है? मैं रघु के पूरे तने हुए लंड की कल्पना करने लगी। क्या पूरी तनी हुई अवस्था में उसका लंड इन्हीं की तरह का आकार ले लेगा? पता नहीं। लेकिन चलो कमसे कम इनके द्वारा अपनी क्षमता का आंकलन कर लेने में हर्ज क्या है। अगर पूर्ण तनाव में आकर उसके लंड की आकृति बढ़ भी जाए तो एक दो इंच और लंबा हो सकता है, तो अनुमान के अनुसार पूरी लंबाई कम से कम दस से ग्यारह इंच हो सकती है। उतना लंबा लंड अपनी लंबाई के अनुपात में मोटा होगा तो कितना होगा? कम से कम ढाई से तीन इंच। ठीक है, तो चलो उसी को मान लूं तो पहले खुद को जांच लूं, फिर क्या घुसा का, क्या घनश्याम का, क्या गंजू का या क्या रघु का या किसी और का, भविष्य में मुझे किसी के लंड के साईज से भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं है। आखिर एक आदमी का लंड उससे बड़ा और क्या हो सकता है। यही सोच कर मैं अपनी खुराफाती दिमाग की उपज को अंजाम देने के लिए तत्पर हो गयी। मैं ने दरवाजे से बाहर झांक कर देखा तो बाहर सन्नाटा पसरा हुआ था। निश्चित ही घुसा के साथ मम्मी धींगामुश्ती में व्यस्त हो गयी होगी। अब मैं निश्चिंत हो कर अपने शरीर से नाईटी उतार फेंकी। पैंटी तो पहनी नहीं थी, सो कमर से नीचे मैं पूरी तरह नंगी थी। पंखे की शीतल हवा मेरी चूत को सहलाने लगी थी। मैं रोमांचित हो उठी।
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wah hmari ROJ ke naye karnaame..........
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Nice way keep it up
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जांच में उत्तीर्ण या अनुत्तीर्ण होने का सवाल नहीं था, यह तो मात्र अपनी क्षमता का आंकलन करना था। सो सर्वप्रथम मैंने खीरा से आरंभ करने की सोची। जैसे ही मैंने बारह इंच खीरा को हाथ में लिया मेरा हाथ कांप उठा। ऐसा लगा जैसे किसी गधे का लंड मेरे हाथ में हो। हरा, चिकना, चमचमाता खीरा एक निर्जीव फल ही तो था लेकिन पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा था मानो वह सजीव लंड था जो हरे रंग के सांप जैसा दंश मारने को फुंफकार मार रहा हो। कुछ पल मैं भयभीत नजरों से उसे देखती रही फिर हिम्मत करके उसे अपनी चूत के मुंह पर रख दी। जैसे ही खीरा का स्पर्श मेरी चूत पर हुआ, मैं गनगना उठी। हे भगवान, यह मेरी चूत में जा सकेगा? मैं सुविधा के लिए बिस्तर पर बैठ गई और अपनी टांगें फैला कर खीरे को चूत के मुंह पर रख कर अपने हाथ का दबाव देने लगी। ओह ओह, मेरी चूत ने मानो उसे ग्रहण करने से इन्कार कर दिया और एक पीड़ा का अहसास मुझे होने लगा। ओह अब समझी। इस खीरे के ऊपरी परत को फिसलन भरा बनाने के लिए किसी तेल या क्रीम की आवश्यकता थी। मेरा ध्यान अपने बालों पर लगाने वाले तेल पर गया। नहीं नहीं, तेल नहीं, क्रीम लगाना उचित होगा। तेल तो बह जायेगा। अब मैं उठी और वैसलीन ले कर आ गई। बड़े प्रेम से मैंने उस खीरे पर वैसलीन लगाया और थोड़ा वैसलीन अपनी चूत पर लगाया और वही क्रिया दुबारा दुहराने लगी। हां, हां, अब ठीक है‌। अब खीरा का अगला भाग मेरी चूत के मुंह को फैलाता हुआ अंदर प्रविष्ट होने लगा था।
उफ उफ, ऐसा लग रहा था मानो कोई बहुत मोटा जीवित लंड मेरी चूत के मुंह को जबरदस्ती फैलाता हुआ अंदर घुसता चला जा रहा हो। ओह ओह, दर्द हो रहा था लेकिन खीरा फिसलता हुआ घुसता चला जा रहा था। खीरा का अभी मात्र दो इंच लंबाई ही मेरी चूत में घुसा था लेकिन दर्द के मारे मेरे हाथों ने और दबाव बढ़ाने से इंकार कर दिया। अब क्या करूं? अब मैंने अब एक दूसरा निर्णय ले लिया। खीरा को फंसाए फंसाए ही मैं खीरा को खड़े पोजीशन में रख कर खीरा का दूसरा सिरा फर्श पर टिका कर अपने शरीर को नीचे करने लगी। दूसरी तरह कहूं तो खीरा को खड़ा करके अब मैं नीचे फर्श पर बैठने लगी थी, नतीजा यह हुआ कि मेरे शरीर के बोझ से खीरा मेरी चूत में और अंदर सरकने लगा था। ओह ओह, मुझे अचानक ऐसा लगा मानो रघु नीचे फर्श पर लेटा हो और उसके तने हुए लंड पर मैं बैठ रही हूं। रघु का मोटा लंड सरकता हुआ मेरी चूत को फाड़ता हुआ घुसता अंदर घुसता जा रहा हो।
"ओह रघु, ओह बस बस, फट रही है मेरी चूत उफ उफ" मेरे मुंह से सिसकारी निकल पड़ी। लेकिन प्रत्युत्तर में मुझे पीड़ा के अलावा और कुछ नहीं मिला। कोई मानव होता तब न उत्तर मिलता। यहां तो निर्जीव खीरा मेरी गरम चूत में समाए जा रहा था। अबतक करीब आधा खीरा मेरी चूत में समा चुका था। इतने में ही मैं पसीना पसीना हो उठी थी। मुझमें और नीचे बैठने की हिम्मत नहीं हो रही थी। मैं रुक गई। कुछ पल उसी स्थिति में रुकना मेरे लिए बहुत लाभदायक सिद्ध हुआ। धीरे-धीरे दर्द गायब हो गया और मुझे पता चल गया कि इतना मोटा खीरा इतना भी मोटा नहीं है कि मैं अपनी चूत में ले न सकूं। उस मोटे खीरे को लेने के लिए मेरी चूत को जितना फैलना था फैल चुकी थी, अब और पीड़ा नहीं हो रही थी। अब मुझे देखना था कि इस खीरे को मैं अपनी चूत मे कितना अंदर ले सकती हूं। मैं और नीचे बैठने लगी। ओह ओह खीरा सरकता हुआ एक एक मिलीमीटर अंदर घुसता जा रहा था और हर मिलीमीटर के साथ मुझे एक अद्भुत रोमांच का अनुभव हो रहा था। मैं बड़े नियंत्रण के साथ और अपनी बर्दाश्त करने की क्षमता के अनुसार नीचे बैठती जा रही थी और निर्जीव खीरा किसी सजीव प्राणी की भांति सरकता हुआ अंदर घुसता जा रहा था। ओह ओह गजब का अनुभव हो रहा था। अबतक लगभग दो तिहाई, मतलब आठ इंच लंबाई अंदर जा चुकी थी और एक तिहाई बाकी था। तभी मुझे लगा कि खीरा मेरे अंदर किसी कोमल भाग का स्पर्श कर रहा हो। हे भगवान, यह कौन-सा अंदरुनी अंग है? कहीं यह मेरा गर्भाशय तो नहीं है? सहसा मेरा हाथ मेरे पेट के निचले स्थान पर चला गया। नाभी से करीब एक इंच नीचे मुझे कुछ आभास हुआ। निश्चित रूप से यह खीरा ही था। अबतक मुझे कोई खास पीड़ा का अनुभव नहीं हुआ था। मैंने अपने शरीर को थोड़ा और नीचे करके देखने का निर्णय किया और ऐसा ही करने लगी। खीरा सरकता हुआ और अंदर जाने लगा था। कितना अंदर जा सकता है? कहीं पूरा खीरा अंदर तो नहीं चला जाएगा? अब मैं डरने लगी। कहीं मेरे शरीर का कोई कोमल अंदरुनी अंग जख्मी न हो जाए। कहीं मुझे कोई नुक्सान न हो जाए। यही सोच कर रुक गई। अबतक करीब दस इंच या शायद ग्यारह इंच खीरा अंदर जा चुका था। मुझे लगा कि खीरा मेरे गर्भाशय में प्रवेश कर चुका है। बस बस हो चुका, मैं समझ गई कि मैं बारह इंच लंबा लंड भी ले सकती हूं। यह एक नारी के लिए चमत्कार से कम नहीं था। मुझ नादान को अपनी क्षमता पर गर्व हो रहा था। मैं अपने हाथ से अनुभव कर सकती थी कि खीरा मेरे नाभी तक पहुंच चुका था।
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ek naya anubhav hamri ROJ ka ...........shandaar
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NExt Update...................Rajen bhai
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कुछ देर मैं उसी अवस्था में स्थिर रह कर रोमांचित होती रही। मुझे लग रहा था एक जीवित लंड मेरे अंदर समा चुका था। लेकिन नहीं, यह तो निर्जीव खीरा था। जीवित लंड होता तो इतने लंबे लंड की सक्रिय चुदाई का मजा लेना शुरू कर चुकी होती। खैर कोई बात नहीं। फिलहाल अपनी क्षमता का आंकलन तो कर चुकी थी। आज नहीं तो कल ऐसे लंड से मामना तो होना ही था। जब सामना होगा तो कितना मजा आएगा, यही सोच कर मैं आह्लादित हो उठी। अब मैं ऊपर उठने लगी लेकिन खीरा ज्यों का त्यों मेरी चूत में फंसा हुआ था और ऐसा लग रहा था जैसे वह खीरा मेरे शरीर का अंग बन चुका हो। अब मैं थोड़ी चिंतित हो उठी। कहीं यह ऐसा ही तो नहीं रहेगा? मैं ने अपने अंदर से थोड़ा जोर लगाया तो खीरा खुद ब खुद थोड़ा बाहर निकल आया। ओह निकलेगा, यह सोच कर तसल्ली हुई। अब मैं उसी तरह खीरा को अपनी चूत में फंसाए हुए बिस्तर पर चली गई और अपने हाथ से खीरा के बाहर वाले हिस्से को पकड़ लिया। मैं पीठ के बल लेट कर अपने पैरों को फैलाई और घुटनों को मोड़कर चुदने वाली पोजीशन में आ गई और अपने हाथ से खीरा को बाहर निकालने लगी। मेरी चूत में खीरा का घर्षण मुझे बड़ा आनंद दे रहा था इसलिए मैंने धीरे धीरे खीरा को बाहर खींचा लेकिन पूरी तरह बाहर निकालने के पहले ही पता नहीं मुझ पर क्या पागलपन सवार हुआ था कि फिर से अंदर ठेलने लगी। यह अनुभव अनोखा था। धीरे-धीरे मैं अंदर करते करते कुछ ज्यादा ही अंदर ठेल बैठी। मुझे इस बात का अंदाजा तब हुआ जब करीब करीब पूरा ही खीरा अंदर हो गया। खीरा को पकड़ने के लिए दूसरा छोर भी नहीं बचा। हे राम यह क्या हो गया, मुझे भय के मारे पसीना आ गया जब समझ में आया कि पूरा का पूरा खीरा अंदर समा गया था। अब इसे निकालूं तो कैसे निकालूं? खीरा का दूसरा सिरा भी गायब हो गया था। पूरा का पूरा खीरा मेरे अंदर घुस कर गायब हो गया था। मैं ऊपर से ही अपनी पेट छू कर महसूस कर सकती थी। अब यह निकलेगा तो कैसे निकलेगा? यह यक्ष प्रश्न मुझे खाए जा रहा था। क्या यह अंदर ही रह जाएगा? अगर अंदर ही रह गया तो मेरे साथ क्या होने वाला था? मैं पसीना पसीना हो चुकी थी। अपनी चूत की क्षमता का आंकलन करना मेरे लिए बहुत महंगा पड़ने वाला था। खुद निकालूं तो कैसे निकालूं? किसी बाहरी व्यक्ति से सहायता लूं तो किस मुंह से सहायता लूं? क्या किसी डाक्टर की जरूरत पड़ेगी? भय से मेरी जान निकली जा रही थी। जिसे भी पता चलेगा वह मेरे बारे में क्या सोचेगा। हे भगवान, यह मैं किस मुसीबत में फंस गयी थी। इन्हीं विचारों से परेशान हो कर मैंने अंतिम प्रयास करने का निर्णय लिया। मैं उसी तरह घुटनों को मोड़ कर पैरों को फैला कर पीठ के बल लेटी लेटी अपने अंदर से जोर लगाने लगी और साथ ही साथ अपने हाथों से पेट दबाने लगी। पहले प्रयास में मैं असफल हो गयी। मैं मन को कड़ा करके दूसरा प्रयास करने लगी और इस वक्त मैंने पूरी शक्ति लगा दी मानो अपनी जान बचाने के लिए इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा था। मरता क्या नहीं करता। मैंने पूरी जान लगा दी और अप्रत्याशित रूप से धीरे धीरे खीरा बाहर आने लगा। मैं जोर लगाती रही और मेरा दृढ़ संकल्प और कठोर प्रयास रंग लाने लगा। चमत्कारिक परिणाम सामने था। धीरे-धीरे धीरे-धीरे खीरा तीन चार इंच बाहर निकल आया। अब मैं अपने हाथ से खीरा को पकड़ कर बाहर खींचने लगी। ओह ओह, अब मैं राहत की सांस लेने लगी थी। जैसे जैसे खीरा बाहर निकल रहा था, मेरी चूत में उसके घर्षण से मुझे बड़ा आनंद मिलने लगा। कुछ देर पहले का भय अब आनंद में बदल चुका था। जैसे जैसे खीरा बाहर निकल रहा था मेरे अंदर एक खालीपन का अहसास महसूस होने लगा था। वह खालीपन मुझे फिर से खीरा को अंदर ढकेलने के लिए उकसाने लगा। यह एक प्रलोभन था जिसके जाल में फंस कर फिर से अंदर ठेलने लगी। फिर वही आनंददायक घर्षण। ठेलती गयी ठेलती गयी, फिर वही परिपूर्णता का सुखद अहसास। लेकिन इस बार मैंने खीरे पर अपनी पकड़ बनाए रखी थी। ओह ओह यह तो खीरे द्वारा मेरी चूत की चुदाई थी। उफ उफ, अब मेरे अंदर का भय तिरोहित हो चुका था। मैं समझ गई कि अब मैं मजे से इस खीरे से चुद सकती हूं। अब मैं यही क्रिया बार बार दुहराने लगी। एक बार, दो बार, तीन बार और फिर बार बार, ओर ओर मैं अपने ही हाथों में खीरा को पकड़ कर चुदने का आनंद लेने लगी। मात्र पांच मिनट में ही मेरा शरीर थरथराने लगा और मेरा शरीर अकड़ने लगा। आआआआआआहहहहह, ओओओओओ हहहह यह मेरा सुखद स्खलन था। मैं झड़ कर निढाल हो गई। बड़ा आनंद आया। मैं उसी तरह पड़ कर हांफ रही थी। एक अद्भुत नया अनुभव मुझे मिला था। मेरे हाथ में वह खीरा था जो मेरी चूत रस से सना हुआ चमचमा रहा था और मानो सजीव प्राणी की तरह मुझ पर संतुष्टि की मुस्कान फेंक रहा था। मुझे उस पर बड़ा प्यार आया और मैंने उसे चूम लिया।
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मैंने लेटे लेटे ही सर घुमा कर देखा तो बगल मे वह बैंगन पड़ा हुआ मानो हंस रहा था और बड़ी हसरत से पूछ रहा था, "अब मेरा नंबर कब आएगा?"
मैंने खीरा को बिस्तर के नीचे बड़े प्यार से रखा और बड़बड़ा उठी,
"ओह मेरे प्यारे बैंगन, मुझे माफ कर दो, मैं तो तुम्हें भूल ही गई थी।" मैंने हाथ बढ़ा कर उस बैंगन का स्पर्श किया और स्पर्श करते ही गनगना उठी। मैंने थरथराते हाथ से उठा लिया और चूम उठी। बैंगन मानो मेरी इस आत्मीयता से गदगद हो उठा। उसकी लंबाई खीरा के मुकाबले कम थी लेकिन मोटाई, ओह माई गॉड, सामने मोटाई तो तीन से साढ़े तीन इंच के करीब थी लेकिन पीछे डंठल की ओर क्रमशः पतली होती चली गई थी। चमचम करता बैंगन भी शायद खीरा की किस्मत से ईर्ष्या कर रहा था लेकिन अपनी हसरत को पूरी करने के करीब आकर उसकी बैंगनी रंगत मानो और निखर उठी थी। मैं बड़े प्यार से उसे सहलाने लगी। जैसे जैसे मैं उसे सहलाती जा रही थी, वैसे वैसे मेरे निढाल शरीर में फिर से उत्तेजना का संचार होने लगा। मेरे अंदर दुबारा चुदने की कामना अंगड़ाई लेने लगी लेकिन उसकी मोटाई मुझे जरा भयभीत कर रही थी।
"ऐसे हिम्मत हार जाओगी तो अपनी जांच कैसे करोगी पगली। डर मत और ट्राई तो करके देख।" मेरे अंदर जैसे किसी ने कहा। हां हां ज़रूर, एक बार ट्राई तो जरूर करूंगी, मैंने मन ही मन कहा। अबतक मेरी उत्तेजना फिर से पूर्ववत बढ़ चुकी थी। मैंने बैंगन को ध्यान से देखा तो मुझे ऐसा लगा जैसे बैंगन भी किसी सजीव तने हुए लंड की तरह मेरी चूत में प्रवेश करने हेतु उतावला हुआ जा रहा हो। मैं सनसना उठी। मोटा बैंगनी लंड। बैंगन को किसी लंड की तरह दोनों हाथों में थाम कर पहले चूम उठी और अपने होंठों को खोल कर मुंह में लेने की कोशिश करने लगी लेकिन बैंगन इतना मोटा था कि पूरी तरह मुंह फाड़ने के बाद भी उसे मुंह में प्रवेश नहीं करा पाई। शायद मेरे मुंह की इतनी ही क्षमता थी क्योंकि मैं अपने जबड़ों को इससे ज्यादा खोल नहीं सकती थी लेकिन मेरी चूत तो लचीली थी। शायद चूत में समा जाय।
यही सोच कर मैंने वैसलीन से बैंगन को और चिकना किया और मेरी चुदी चुदाई चूत के मुंह पर रख दिया। ओह मां, बैंगन का स्पर्श ज्यों ही मेरी चूत के मुंह पर हुआ मैं बेहद रोमांचित हो उठी। "आजा मेरे प्यारे बैंगन, आजा, तू भी आज अपनी मुराद पूरी कर ले।" मैं बड़बड़ा उठी। इस चिकने मोटे बैंगन को मैं एक अविश्वसनीय मोटे लंड के रूप में अपने अंदर लेने वाली थी। मैं पूर्ववत पोजीशन ले कर अपने हाथ से बैंगन पर दबाव देने लगी। मेरी चूत का मुंह खुलने लगा। ओह ओह जैसे जैसे मेरे हाथ का दबाव बैंगन पर बढ़ता जा रहा था मेरी चूत का मुंह भी फैलता जा रहा था। ओह ओह, कुछ अंदर जाने के बाद बैंगन जब अपनी अधिकतम मोटाई के करीब पहुंचा तो मेरी चूत में दर्द होने लगा। ओह ओह, यह मेरी चूत के फैलने की सीमा थी। हे भगवान, क्या बैंगन से मुझे हार मान लेनी चाहिए? मेरी चूत की इतनी ही सीमा है? मैं रुक गई लेकिन मन की तमन्ना के आगे कब किसकी चली है। चलो थोड़ा और जोर लगा कर देख लेती हूं कि जब इतना घुस गया है तो थोड़ा और घुसा कर देखने में क्या हर्ज है, यही सोच कर मैं ने थोड़ा और अतिरिक्त जोर लगाया तो मेरी चीख निकलते निकलते रह गई, आआआआआआह , मुझे लगा मेरी चूत फट रही है, लेकिन तभी गजब हो गया। बैंगन की अधिकतम मोटाई वाला हिस्सा फुच्च से मेरी चूत में घुस गया और इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाती या बैंगन को रोकने की कोशिश करती, सरसराता हुआ चिकना बैंगन अंदर घुसता चला गया क्योंकि बैंगन के पीछे का हिस्सा अपेक्षाकृत पतला था और मेरे बिना अतिरिक्त कोशिश के पूरा बैंगन डंठल तक घुस गया। अब सिर्फ बैंगन का डंठल ही मेरी चूत के बाहर था। पूरा बैंगन अब मेरी चूत में समा चुका था। जैसे ही बैंगन का सबसे मोटा हिस्सा अंदर समा गया, वह अकथनीय दर्द भी धीरे धीरे कम होता चला गया। अब मुझे उस दर्द का अहसास नहीं हो रहा था जो बैंगन के सबसे मोटे हिस्से के घुसते समय हुआ था।
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