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Misc. Erotica गरम रोज
"चलिए उठिए। घर नहीं जाना है क्या?" मैं घनश्याम को नंग धड़ंग अभी भी आराम फरमाते देख कर डांटती हुई बोली।
"अच्छा भई चलो। तुम डांटती हुई बड़ी प्यारी लग रही हो।" घनश्याम उठ कर आज्ञाकारी बन कर अपने कपड़े पहनने लगा। मैं भी झटपट अपने कपड़े पहन कर तैयार हो गई लेकिन गंजू अभी भी उसी तरह नंगा ही खड़ा मुझे देख कर मुस्कुरा रहा था। मैं देख रही थी कि ऊंचे कद का काला, टकला, दढ़ियल बूढ़ा सिर्फ उम्र से ही बूढ़ा था लेकिन उसका दैत्य समान शरीर अच्छे अच्छे मर्दों से भी मजबूत दिखाई दे रहा था। सिर्फ मजबूत दिखाई ही नहीं दे रहा था बल्कि उसने अपनी शक्ति का प्रदर्शन करके मुझे चमत्कृत भी कर दिया था। सोई हुई हालत में भी उसका अच्छा खासा लंबा और मोटा लिंग सामने झूल रहा था। सोई अवस्था में भी वह छः इंच से कम नहीं दिखाई दे रहा था।
"जाओ मेरी बच्ची, इस बुड्ढे को बीच बीच में याद करते रहना।" गंजू तनिक मायूसी से बोला।
"आपको भूल जाऊं यह तो हो ही नहीं सकता। आप दोनों मेरे लिए यादगार बन गये। इतने मायूस मत होईए, मैं आपसे मिलने आती रहूंगी, छोड़ूंगी नहीं।" मैं जाकर उस बूढ़े से लिपट कर चूमते हुए बोली। सच पूछिए तो मुझे उससे एक तरह का लगाव सा हो गया था।
"बहुत बढ़िया। एक बात और सुन लो। कभी भी, किसी से भी, किसी से भी मतलब किसी से भी, छोटे से छोटे या बड़े से बड़े गुंडे बदमाश से भी तुमको परेशानी हो तो हमको याद करना। हमारा वादा है कि आगे कभी किसी की हिम्मत नहीं होगी तुम्हारी तरफ बुरी नजर डालने की। यह गंजू दादा का वादा है। तुम जैसी सुंदरी छुटकी हम जैसे बूढ़े को इतनी खुशी दे सकती है यह तो हम कभी सोच भी नहीं सके थे। अब तो हमारा भी फर्ज बनता है कि तुमको कोई तकलीफ़ में न पड़ने दें। वादा करो कि हमारे पास आती रहोगी।" वह मुझे चूम कर बोला। वह गदगद था और उसकी आत्मीयता से मैं भी अंदर तक भीग गई।
"समस्या होगी तो जरूर याद करूंगी। सिर्फ समस्या में क्यों, आप जैसे लोगों को, जिन्होंने मेरी जिंदगी बदल कर रख दी, भूल जाऊं, यह तो हो ही नहीं सकता है। दिल लग गया है मेरा, वादा करती हूं, जब मर्जी दौड़ी चली आऊंगी।" मैं अब भी उसके नंगे जिस्म से लिपटी हुई थी।
"बहुत बढ़िया, बिटिया हो तो तुम्हारी तरह।" वह अपनी रुखड़ी हथेली से मेरी चूतड़ पर थपकी देते हुए बोला। उसकी थपकी से मेरी गुदा में फिर से झनझनाहट सी महसूस हुई, लेकिन उस वक्त मुझे वहां से जाना ही था।
"अच्छा तो मैं चलूं?" न चाहते हुए भी मुझे बोलना पड़ा।
"जाओ मेरी बच्ची। मन तो नहीं हो रहा है जाने देने का लेकिन तुमको रोक भी तो नहीं सकते।" उसकी आवाज से साफ महसूस हो रहा था कि उसकी हसरत अभी भी बाकी है, लेकिन मुझे इस वक्त जाना ही था। इन ठर्की बूढ़ों की हसरतें तो बाद में भी पूरी होती रहेंगी। मैं कहां भागी जा रही हूं। आज की यादगार चुदाई का मजा भला मैं कभी भूल पाऊंगी? नहीं, कभी नहीं। मेरे तन की भूख इस अविस्मरणीय चुदाई के लालच में मुझे खुद ही खींच लाएगी।
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wow shandar update............
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गरम रोजा (भाग 9)

उस बियाबान घने जंगल के बीच स्थित गंजू दादा की झोपड़ी के तहखाने में ड्राईवर घनश्याम और अनाकर्षक बूढ़े गंजू के बीच पिसती हुई युगल चुदाई के एक निहायत ही अनोखे आनंद से रूबरू हुई। एक साथ दो बूढ़ों ने जिस तरह मुझे चोदा था वह मेरी जिंदगी की यादगार चुदाई बन गई थी साथ ही मेरे सेक्स जीवन में एक नया अध्याय जुड़ गया था। पहले पहल घुसा ने अकेले मेरे साथ संभोग किया था और संभोग सुख से परिचित कराया था, तब मैं सोचने लगी थी कि मनुष्य के जीवन का यह अति आनंददायक खेल है। अब, जब यहां दो लोगों ने एक साथ मेरे साथ संभोग किया तो मैं अचंभे में आ गई थी कि दो मर्द एक नारी के साथ संयुक्त रूप से भी संभोग कर सकते हैं। उस संयुक्त संभोग में भागीदारी निभाना घुसा के साथ पहली एकल चुदाई से भी अधिक रोमांचक और आनंदप्रद था। एक से भले दो, दो से भले..... नहीं नहीं, यह मैं क्या फालतू बात सोचने लगी। उस रोमांचक चुदाई की मधुर याद को सीने में दबाए मैं घनश्याम के साथ वहां से निकल पड़ी। चलने में मुझे अब भी तकलीफ़ थी लेकिन उस तकलीफ़ में एक अलग तरह का अच्छा अच्छा सा अहसास हो रहा था। चलते समय मेरी चूत की दोनों फांकें आपस में रगड़ खा कर मुझे उस चुदाई की मस्ती की मीठी मीठी सी कसक भरी याद दिला रही थीं और साथ ही मेरी गुदा द्वार मेरे नितंबों के बीच पिसती हुई एक मीठी खुजली के रूप में उस मिठास को और बढ़ा रही थी। मैं उन्हीं यादगार अहसासों के रस में डूबी हुई चुपचाप घनश्याम के साथ कार तक आई और कार में बैठ गई। कार में मैं सामने की ही सीट पर बैठी थी और बार बार अपनी जांघों को सटा कर आपस में घिस रही थी। ऐसा करने से मुझे बड़ा अच्छा लग रहा था। कभी टांगें फैलाती कभी जांघों को आपस में भींचती रास्ते भर उसी चुदाई के रस में भीगती रही। वापस घर लौटते वक्त मैं रास्ता समझने की कोशिश कर रही थी। कार होने के बावजूद हमें जंगल से बाहर सड़क तक आने में पंद्रह मिनट लग गया था। मुझे ताज्जुब हो रहा था कि उस वक्त जंगल के इतने अंदर तक पहुंचने का मुझे पता ही नहीं चला था। उसका कारण यही था कि उस समय मैं रास्ता समझने की बजाय आंखें बंद कर दूसरी ही दुनिया में थी।
अब इसे मेरी नादानी ही समझ लीजिए कि खेलने कूदने की इतनी कम उम्र में ही मुझे सेक्स का चस्का लग गया था या यों कहिए कि लगा दिया गया था। उस नादान उम्र में पहली बार उस कृत्रिम आकस्मिक दुर्घटना की आड़ में मुझे बेवकूफ बना कर घुसा ने मेरे साथ जो कुछ किया, तकलीफदेह था लेकिन मुझे वह खेल जैसा ही लगा था, जो बाद में बेहद आनंददायक खेल लगने लगा था, लेकिन बाद में पता चला कि वह तो व्यस्कों वाला खेल है। वैसे मैं बचपन से निर्भीक स्वभाव की हूं लेकिन इस मामले में (चुदाई के मामले में), जिससे मैं सर्वथा अनभिज्ञ थी। मेरे स्तनों का आकार पूरी तरह विकसित हो चुका था और मेरी योनि के ऊपर हल्के रोयें उग आए थे लेकिन संभोग से बिल्कुल अनभिज्ञ थी। घुसा मेरे साथ पहली बार जो कुछ कर रहा था उससे मैं उत्तेजना का अनुभव तो कर रही थी लेकिन अंततः वह क्या करना चाह रहा था वह मेरे लिए सर्वथा नया था। उसका मेरे जननांगों से खेलना मुझे उत्तेजित किए जा रहा था और चूंकि मैं नादान थी, उस उत्तेजना के आवेग में घुसा के लिए बड़ी आसान शिकार बन गई। उस समय मेरे साथ जो कुछ हो रहा था उससे थोड़ी सशंकित थी लेकिन शंका और झिझक के बावजूद मैं घुसा की कुचेष्टा के सामने समर्पण कर बैठी। कौमार्य को खोने वाली उस पहली चुदाई में मुझे कष्ट तो हुआ लेकिन एक नये तरह का मजा मिला। जब चुदाई का खुमारी उतरा तो मुझे अहसास भी हुआ था कि जो कुछ हुआ गलत हुआ इसलिए थोड़ा डर भी था लेकिन दूसरी, तीसरी चुदाई के बाद मुझे लगने लगा कि नहीं, जो हो रहा है उससे मुझे मजा भी तो बहुत आ रहा है और अगर गलत भी है तो उतना भी गलत नहीं है कि उसको लेकर मैं चिंता करूं। सही ग़लत के पचड़े में पड़ कर इतने आनंददायक खेल से क्यों वंचित रहूं और इसी सोच के चलते मुझे चुदाई का चस्का लग गया। गलत सही के बारे में मुझे ज्यादा सोचना बेमानी लगने लगा था। मेरे अंदर के अपराधबोध को मैं एक कोने में दफन करती चली गई और मेरे अंदर थोड़ा बहुत जो डर था वह भी खत्म होता चला गया। सेक्स के प्रति थोड़ी बहुत लाज शर्म एवं डर भय, थोड़ा बहुत जो मेरे अंदर था वह, कुछ मेरी चुड़ैल सहेलियों की संगति से और अभी कुछ देर पहले घनश्याम और गंजू के साथ बेशर्मी भरी सामूहिक चुदाई से खत्म हो गया।
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Roj ki Man ki bat ................Wah
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"क्या हुआ, एक दम चुपचाप हो गयी हो?" घनश्याम की आवाज से मेरा ध्यान भंग हुआ। वह सामने सड़क पर नजरें जमाए हुए बोला।
"अं ... बस ऐसे ही। सोच रही हूं कि कुछ गलत तो नहीं हुआ।" मैं जैसे तंद्रा से जाग उठी।
"ओह तो अभी भी सही ग़लत के बीच में लटक रही हो। मेरी समझ से, जो अच्छा लगे वह सही और जो बुरा लगे वह ग़लत।" वह मुझ नादान को अपने कुतर्क से मेरी मति भ्रष्ट करते हुए बोला।
"अच्छा ऐसा?" मैं उसकी ओर देखते हुए बोली। मैं जानती थी कि यह कुतर्क है लेकिन मेरे अंदर जो वासना की देवी का वास हो चुका, उसने मुझसे कहा कि बेकार बहस में मत पड़ पगली और खुले मन से जिंदगी का मजा ले। मैंने देखा कि बीच-बीच में वह अपने पैंट के ऊपर से लंड को सहलाता जा रहा था और उसके होंठों पर मुस्कान थी।
"हां ऐसा। सच बोलो, तुम्हें हम दोनों के साथ यह सब करने में कैसा लगा?"
"अ अच्छा तो लगा। लेकिन.. ‌‌.. "
"लेकिन क्या? जो हुआ वह आज नहीं तो कल होना ही था। हम दोनों नहीं होते तो कोई और होते। होते कि नहीं?"
"अ अ शायद हां।" असमंजस में मेरे मुंह से निकला।
"शायद नहीं। जरूर होता। इस सच्चाई से तुम इनकार नहीं कर सकती हो।" वह बोला। सच ही तो बोल रहा था वह। जैसी मेरी संगति थी, जो कुछ मेरे साथ हो रहा था उससे मेरे अंदर जो परिवर्तन हो रहा था, मेरी शारीरिक भूख में जो इजाफा हो रहा था और इस कामुक खेल के प्रति मेरा लगाव बढ़ता जा रहा था, उसके कारण आज नहीं तो कल यह तो होना ही था। कल तक सिर्फ घुसा मेरी जिंदगी में था और आज घनश्याम और गंजू का नाम भी इस सूची में दर्ज हो गया था। इन सबका परिणाम आगे चल कर क्या होगा, उस उम्र में यह सोचने की परिपक्वता मुझमें तो थी ही नहीं, जिसका पूरा लाभ ये बूढ़े उठा रहे थे।
"आप ठीक कह रहे हैं। मैं कहां इनकार कर रही हूं। आप उम्र में मुझसे काफी बड़े हैं, आप मुझसे ज्यादा जानते हैं।" मैं बोली।
"बड़ी अच्छी बच्ची हो तुम। आज तुमने साबित कर दिया पता कि तुम्हारे अंदर कितनी क्षमता है। सिर्फ क्षमता ही नहीं, हिम्मत भी है। आम तौर पर हम जैसे मर्दों को झेलना सबके बस की बात नहीं है। लेकिन तुम सबसे अलग हो, अनमोल हो, अद्भुत हो। आज पता चला कि तुम जितनी सुंदर और सेक्सी ऊपर से दिखाई देती हो, अंदर से भी उतनी ही जबरदस्त हो। बहुत गजब का मजा देती हो। मैं सोच रहा था तुम केवल ऊपर ऊपर से मुझ बूढ़े को ललचा कर मजा ले रही हो, लेकिन जब वास्तव में समय आया तो तुमने दिखा दिया कि हमें भरपूर खुशी देने का गुण भी है तुम्हारे अंदर। मुझे जिंदगी में पहली बार किसी को चोदने का इतना आनंददायक अनुभव हुआ। देखो तो, बेचारा बूढ़ा गंजू भी कितना खुश हुआ। मैंने आज तक गंजू को इतना खुश कभी नहीं देखा था। अब तो गंजू दादा का आशीर्वाद भी तुम्हें मिल गया है। गंजू दादा का आशीर्वाद मतलब समझती हो? अब तुम्हें किसी से कोई डर भय नहीं होना चाहिए। हमें और क्या चाहिए, बस तुम इसी तरह हम बूढ़ों को खुशी देती रहो। दोगी ना?" घनश्याम मुझे देखते हुए बोला।
"बस बस, बड़े आए मेरी प्रशंसा करने वाले। मुझे क्या पता कि कौन कैसे खुश होता है। यह तो आप लोग जैसा मेरा इस्तेमाल करके मुझे सिखा रहे हैं, सीख रही हूं। अब यह सही है या ग़लत यह तो आप लोगों को मुझसे बेहतर पता है, आखिर आप लोगों ने मुझसे ज्यादा दुनिया देखी है, लेकिन सिखाने के चक्कर में आप लोगों ने आज शुरू में मुझे कितनी पीड़ा दी है उसका कुछ पता है? मेरी छाती को कितनी बुरी तरह निचोड़ रहा था आपका गंजू बुढ़ऊ पता है?" मैं बोली। सचमुच मेरी चूचियों को गंजू ने बड़ी बुरी तरह दबा दबा कर चोदा था। बाथरूम में मैंने देखा था कैसे लाल कर दिया था मेरी चूचियों को। ऐसा लग रहा था जैसे दबा दबा कर फुला दिया हो। ब्रा पहनना भी मुश्किल हो रहा था। दर्द का भी अहसास हो रहा था।
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"पता है। सबकुछ पता है। शुरू में पीड़ा होती है लेकिन तुमने जिस तरह उस पीड़ा को झेल कर मजा लिया और मजा दिया, वह मैं कभी भूल नहीं सकता हूं। आगे पीछे से एक साथ ले कर तो तुमने गजब ही कर दिया। खास कर पीछे से गंजू जैसे आदमी का लंड इतने मजे से लेना, वाह वाह, क्या बात है मेरी प्यारी छुटकी। मैं सोच रहा था गंजू तेरी चूतड़ की झूठी प्रशंसा कर रहा है, लेकिन मैं गलत था। तुझे गंजू के ऊपर चढ़ कर चुदते हुए और चुदते हुए तेरी थिरकती गांड़ को देखना जिंदगी का सबसे आकर्षक नजारा था। गजब की गांड़ है तुम्हारी और इसका हिलना तो दिल में छुरी चला रहा था। तेरी चूत तो चूत, गांड़ तो बाप रे बाप। गोल गोल, चिकनी, भरी भरी और रसीली। ऐसी गजब की गांड़ में लंड डाल कर मैं तो पगला ही गया था। हम तो भई दीवाने हो गए। जहां तक तेरी चूचियों को निचोड़ने की बात है तो इसमें किसी का कहां कोई वश चलता है। जब आदमी जोश में आ जाता है तो उसे होश ही कहां रहता है कि वह कितनी जोर से दबा रहा है। लेकिन हमें पता है कि चूचियां दबाने से दबाने वाले को और दबवाने वाले को बराबर का मजा मिलता है। जहां तक दर्द की बात है तो सच बताओ, अब कोई तकलीफ़ हो रही है क्या?"
"नहीं, लेकिन आगे पीछे बड़ी अजीब सी मीठी मीठी खुजली और सुरसुरी मची हुई है। आप भी कम नहीं हैं। गंजू ने मेरी गांड़ मारने में जो कसर छोड़ी थी उसे आपने पूरी कर दी। और मेरी छाती तो लग रहा है जैसे पहले से ज्यादा फूल कर कुप्पा हो गयी है।" मैं अपने सीने पर हाथ फेरती और जांघों को आपस में रगड़ते हुए बोली।
"हा हा हा हा, होता है, होता है। ऐसा ही होता है। चिंता मत करो यह सब थोड़ी देर की बात है, फिर सब ठीक हो जाएगा।" वह ठठाकर हंसा और बोला।
"बहुत हंसी आ रही है ना? लड़की होते तब ना पता चलता।" मैं बनावटी रोष के साथ बोली। बनावटी इसलिए, क्योंकि उसकी बातें सोलह आने सच थीं और मुझे भी महसूस हो रहा था कि सारी पीड़ा धीरे धीरे कम होने लगी थी।
"अब भगवान ने हमें मर्द बनाया और तुम्हें लड़की बनाया तो इसमें हमारा क्या दोष। किसी न किसी को औरत बनना ही था और किसी न किसी को मर्द। हो सकता है अगले जन्म में मैं औरत बनकर पैदा होऊं और तुम मर्द। औरत और मर्द बनाने का मकसद तो यही है ना कि इसी तरह हमलोग आपस में मजे से चुदाई करते हुए आनंद पूर्वक जीवन जिएं। नहीं तो जीवन में दुख ही दुख होता।" वह बोला।
"बात तो सही है। भगवान मुझे अगले जनम घनश्याम, गंजू या घुसा बनाए और आप लोगों को रोजा, फिर दिखाऊंगी अपना जलवा।" मैं बोली।
"अच्छा अच्छा ठीक है। तुम भी हमें ऐसे ही चोदना। लेकिन तुम या तो घनश्याम या गंजू या घुसा ही बन सकती हो। एक साथ तो ये सब बन नहीं सकती और हम भी एक साथ रोजा तो बन नहीं सकते।" वह शरारत से बोला।
"ठीक है आपलोग रोजा, रश्मि, रेखा, शीला तो बन सकते हैं।"
"अब ये रश्मि, रेखा और शीला कौन हैं?"
"ये सब मेरी सहेलियां हैं। हम सब घनश्याम, गंजू और घुसा बन कर पैदा लेंगे और आप लोगों की खबर लेंगे।"
"अच्छा तो ये सब तेरी सहेलियां हैं। सब तुम्हारी तरह ही हैं? कभी मौका मिला तो इनको भी चखेंगे।" घनश्याम धूर्तता पूर्वक मुस्कुराते हुए बोला।
"आप सभी मर्द लोग एक ही तरह के हैं। जहां भी लड़की दिखी नहीं कि बस लार टपकना शुरू। अब मैंने अपनी सहेलियों के नाम का जिक्र क्या किया कि उनको भी चखने का सपना देखने लगे।" मैं बोली।
"अब हम मर्द लोग क्या करें। हम तो स्वभाव से ऐसे ही हैं।"
"और हम लड़कियों का क्या? आपलोग तो झट से अपने मन की बात बेधड़क बोल देते हैं लेकिन लड़कियां ऐसी बातें खुलकर बोल भी नहीं सकती हैं भले ही उनके मन में भी ऐसी कामनाएं जागती हों।"
"लेकिन अब तक जितनी औरतों को चोदने का मौका मिला, तुम उन सबसे अलग हो।"
"हे भगवान, जंगली कहीं के, मुझसे पहले कितनी औरतों को चोदा है आपने?" मैं उसकी जांघ पर थप्पड़ मारती हुई बोली।
"क्या पता, शायद दस बारह।" वह ढिठाई से हंसते हुए बोला।
"दस बारह? अबतक तो बड़े शरीफ बने फिरते थे आप।" मैं आश्चर्य से उसे देखते हुए बोली।
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WAH ROJ KI NAI NAI KAHANI.............
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"शरीफ बनना पड़ा था। नहीं तो यहां नौकरी कैसे करता।"
"अब आपकी शराफत कहां चली गई?"
"मेरी शराफत तुमने छीन ली।"
"लीजिए, मेरे साथ इतना कुछ करने के बाद अब मुझे ही दोष देने लगे?"
"आग तुमने सुलगाई थी, मैंने तो सिर्फ आग बुझाई।"
"आपसे बहस में जीतना मुश्किल है।" मैं झल्ला कर बोली।
"छोड़ो यह बहस। लेकिन मैं सच कह रहा हूं कि अब तक मेरी जिंदगी में जितनी औरतें आई हैं, उन सबमें तुम बिल्कुल अलग हो।"
"मुझे क्या पता कि अलग हूं या नहीं। हो सकता है आप सबसे ऐसी ही बात करते हों?"
"सच कह रहा हूं। मैं झूठ नहीं बोल रहा हूं।"
"चलिए मैं मान लेती हूं। इतनी औरतों को चोदने के अनुभव को मैं कैसे चुनौती दे सकती हूं। वैसे भी मुझे क्या पता कि मैं बाकी औरतों से किस मामले में अलग हूं। मैं तो इस मामले में कुछ दिन पहले तक बिल्कुल अनाड़ी थी। मुझे तो घुसा जैसे हरामी से ही पता चला कि औरत मर्द के बीच में यह सब होता है। रही सही कसर मेरी सहेलियों की संगति से पूरी हो रही थी कि आज आपसे और गंजू दादा से कुछ अनुभव मिला।"
"बार बार सहेलियां सहेलियां मत करो, सुन सुनकर मेरा लंड अंडरवियर फाड़ कर बाहर निकलने को मचल रहा है।" वह अपना लंड सहलाते हुए बोला।
"चुप हरामी। अंडरवियर ही क्या, और क्या क्या फाड़ सकता है यह तो जान ही गई हूं। मुझे फाड़ने में कोई कसर छोड़ी थी क्या इस जालिम ने?" मैं उसके लंड पर हाथ फेरती हुई बोली।
"फाड़ा तो नहीं ना, हां सक्षम जरूर बना दिया।" वह बोला।
"हां हां, वही, सक्षम बना दिया।" मैं उसके लंड को थपथपाते हुए बोली।
"हां हां, सक्षम ही नहीं, डबल सिलिंडर इंजिन भी...." वह इतना बोलकर चुप हो गया।
"क्या बोले? डबल सिलिंडर इंजिन? यह क्या होता है?" मैं उसकी बात समझी नहीं।
"कुछ नहीं, बस ऐसे ही मेरे मुंह से निकल गया..." वह मुस्कुरा कर बात टालते हुए बोला।
"बात बोलनी है तो खुलकर पूरी बोलिए। इस तरह आधी बात बोलकर आधी अंदर रखना मुझे पसंद नहीं है।" मैं जिद करते हुए बोली।
"अरे छोड़ो, तुम नहीं समझोगी।" वह अब भी टालना चाहता था।
"समझाईएगा तब तो समझूंगी ना।"
"तुम मानोगी नहीं तो सुनो। ये जो गाड़ी का इंजन होता है ना, उसमें अलग अलग पावर के हिसाब से अलग-अलग साईज के सिलिंडर होते हैं और उसी के हिसाब से सिलिंडरों की संख्या भी होती है। हर सिलिंडर में एक एक पिस्टन आगे पीछे चलता रहता है तभी इंजन चलता है। जितने सिलिंडर उतने पिस्टन।" वह बोला और मैं समझ गई कि उसके कहने का तात्पर्य क्या था। वह हरामी मेरी तुलना डबल सिलिंडर इंजिन से कर रहा था।
"आप एक नंबर के हरामी हैं।" मैं गुस्से से बोली।
"पहले हरामी था। फिर शरीफ बन गया था। अब तुमने मुझे फिर से हरामी बनने को मजबूर कर दिया।" वह ढिठाई से हंसते हुए बोला।
"हां वह तो दिखाई दे रहा है।"
"हां, तुम कुछ देर पहले क्या बोल रही थी?" वह बात के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए बोला।
"क्या बोल रही थी मैं?"
"यही कि लड़कियां ऐसी बातें मुंह खोल कर नहीं व्यक्त कर पाती हैं।"
"हां सही तो बोली। लड़कियां ही क्यों, बड़ी औरतें भी किसी और के सामने अपने मन की ऐसी इच्छा मर्दों की तरह खुल कर कैसे व्यक्त कर पाएंगी? बेशर्म बोलेंगे, नहीं क्या?" मैं अपने रौ में बोलती चली जा रही थी।
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SHANDAR BAT CHHET HO RHI HAI ROJ KI............
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"बड़ी औरतें मतलब? तुम बड़ी औरतों के बारे में जानती ही कितना हो?"
"जानती हूं तभी तो बोल रही हूं। न जाने कितनी शादीशुदा औरतें अपने पति से महिनों दूर रहने को मजबूर रहती हैं। उनको मन नहीं करता होगा? लेकिन वे बोलें तो कैसे बोलें और किससे बोलें।" मैं बोली।
"जैसे?"
"जैसे मेरी....." हाय राम, अपनी धुन में यह मैं क्या बोल रही थी। मैं चुप हो गई।
"हां हां बोलो बोलो, चुप क्यों हो गयी, जैसे तुम्हारी कौन?" घनश्याम का कान खड़ा हो गया था।
"नहीं नहीं कोई नहीं।" मैं झट से बोली।
"देखो, तुम्हीं बोल रही थी ना कि आधी बात बोलने वाले पसंद नहीं हैं, फिर तुम्हीं आधी बात बोल कर चुप क्यों हो गयी?" मेरी बात मुझी पर लागू करते हुए बोला। उसकी बातों में जानने की उत्सुकता साफ झलक रही थी।
"छोड़िए, कोई और बात कीजिए।" मैं बात बदलने की कोशिश करने लगी।
"छोड़ कैसे दूं? बताना तो पड़ेगा ही तुम्हें।" अब वह जिद पर अड़ गया।
"सुने बिना मानिएगा नहीं?"
"नहीं, बिल्कुल नहीं। सुने बिना मानूंगा नहीं।" वह बोला।
"जैसे, जैसे.. ‌" मैं बोलने में झिझक रही थी। पता नहीं वह क्या सोचेगा, यही सोच कर रुक गई।
"हां हां बोलो बोलो जैसे?"
"जैसे कि मेरी मां।" हाय राम। बोलने को तो बोल गयी। अब उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी? मेरा दिल जोरों से धड़कने लगा।
"ओह, मैं तो सोच भी नहीं सका। कितना बेवकूफ हूं मैं भी। अंदाजा लगाना कितना आसान था। तुम बिल्कुल सच बोल रही हो। बेचारी मैडम तुम्हारे पिता के बिना कैसे दिन बिता रही होगी। चार चार, पांच पांच महीने बिना पति के किसी शादीशुदा महिला के लिए दिन बिताना, सचमुच कितना तकलीफदेह है, यह अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। बेचारी।" घनश्याम की बातों में मेरी मां के लिए सहानुभूति तो थी, लेकिन जब उसने मेरी ओर देखा तो उसकी आंखों में एक अनोखी चमक भी मैंने देख ली थी। उसके होंठों पर एक अजीब सी मुस्कान भी तैर रही थी।
"पता नहीं मुझे यह बात कहनी चाहिए थी या नहीं। आप भी क्या सोच रहे होंगे कि कैसी बेटी हूं मैं जो अपनी मां के लिए ऐसी बातें सोच रही हूं।" मैं बोली। कहीं पराए मर्द के सामने मैं अपनी मां के बारे में गलत तो नहीं बोल बैठी थी, यह सोच कर चिंतित हो रही थी लेकिन घनश्याम की बातों से ऐसा लगा कि मैंने जो कुछ कहा उसमें कुछ गलत नहीं था। उस समय तो मुझे ऐसा ही लगा।
"जो सच है वही तो तुमने कहा। अपने पति से दूर रह कर पति संसर्ग से वंचित रहने की पीड़ा कोई स्त्री किसी और के सामने कैसे व्यक्त कर सकती है? तुम इतनी कम उम्र में ही उस पीड़ा को महसूस कर सकती हो इससे अच्छी बात तुम्हारी मां के लिए और क्या हो सकती है? अपनी मर्यादा के बंधन में बंधे रहने की मजबूरी के कारण तुम्हारी मां अपनी कामना व्यक्त नहीं कर सकती है और घुट घुट कर जीने को बाध्य है, यह तुझ जैसी समझदार बेटी समझ गई यह बहुत बड़ी बात है और इतने दिनों से तुम लोगों की जिंदगी का हिस्सा बने रह कर भी मेरी आंखों में पट्टी बंधी हुई थी। और देखो तो, तुमने क्या किया? मुझे अपना समझते हुए इतनी अच्छी तरह से यह बात मेरे सामने रख कर मेरी आंखों पर से वह पट्टी उतार दी।" वह अजीब सी दृष्टि से मुझे देखते हुए बोला।
"सचमुच आपकी आंखों पर पट्टी पड़ी हुई थी या पट्टी पड़े रहने का ढोंग कर रहे थे?" मैं सवालिया निगाहों से घनश्याम को घूरते हुए बोली। मैं जान गई थी कि वह कितना बड़ा औरतखोर है और उसके मुंह से इस तरह की बातें सुनकर मुझे विश्वास नहीं हो रहा था।
"मैं पहले ही बता चुका हूं कि मैं पहले बहुत बड़ा हरामी था, लेकिन यहां कई सालों से नौकरी करते हुए शराफत की जिंदगी बसर करते करते सचमुच मैंने पराई औरतों को उस नज़र से देखना छोड़ दिया था, इसलिए शायद मुझे तुम्हारी मां का दर्द दिखाई नहीं दिया। अब, जब मेरे अंदर के हरामी को तुमने जगा दिया और अभी जो कुछ तुमने कहा, उससे जैसे मेरी आंखें खुल गईं और मुझे सबकुछ साफ दिखाई देने लगा और सबकुछ समझ में आ गया।" वह बोला।
"आपकी बातों से पता चल रहा है कि आपके दिमाग में कुछ न कुछ खिचड़ी पकना शुरू हो गया है।" मैं समझ गई कि मेरी मां के लिए उसकी नीयत डोल गयी है।
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wow........................good update
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"तुम ऐसा सोच सकती हो?"
"बिल्कुल।" मैं सोच रही थी कि अगर मैं सही सोच रही हूं तो मेरी मां के लिए घनश्याम जैसा मर्द एक और अच्छा विकल्प होगा।
"शायद सही सोच रही हो।"
"शायद नहीं, सौ फीसदी सही सोच रही हूं, क्या मैं गलत हूं?" मैं अपनी सोच पर घनश्याम के हामी का पक्का मोहर लगवाना चाहती थी।
"नहीं, तुम गलत नहीं हो।" उसकी आवाज में सच्चाई थी, जिसे सुनकर मेरी बांछें खिल गईं।
"तो मेरी मां के बारे में क्या चल रहा है आपके मन में चाचाजी?" मैं घनश्याम को खोदने लगी।
"अब क्या बताऊं कि क्या चल रहा है। चलना तो अब शुरू हुआ है जब तुमने मेरी आंखों पर से पर्दा हटा दिया। पहले मेरे लिए मालकिन थी, अब हम जैसे मर्दों की जरूरतमंद मात्र एक औरत और हम जैसे मर्दों की जरूरत की पूर्ति हेतु उपलब्ध एक नारी। और नारी भी कैसी, एक जबरदस्त गदराए शरीर वाली आकर्षक नारी, जिसको चोदने की कल्पना मात्र से ही लंड उछल पड़े। अब समस्या यह जानने की है कि सचमुच में उनके मन में इस तरह की चाहत है भी कि नहीं और अगर चाहत है भी तो किसी परपुरुष के साथ संसर्ग के बारे में उनकी सोच क्या है? क्या उनकी चाहत इतनी गहरी है कि वह हम जैसे मर्दों के साथ शारीरिक संबंध बनाने से परहेज़ नहीं करेगी?" कहते हुए उसके माथे पर मुझे शिकन दिखाई देने लगी। मैं मन ही मन मुस्कुरा उठी। इसका मतलब यह था कि घनश्याम उनके मन में मेरी मां के लिए चाहत का उदय हो चुका था, उसे सिर्फ मेरी मां की सोच को लेकर संशय था।
"बस इतनी सी बात? यह तो कोई समस्या नहीं हुई। मैं स्पष्ट तौर पर उनकी मन:स्थिति जानती हूं, बेचारी भीतर ही भीतर कितनी घुट रही है लेकिन अपने मुंह से कैसे कहे। चलिए मान लेती हूं कि पहले आपकी सोच वैसी नहीं थी इसलिए उनकी शारीरिक भाषा आपको समझ नहीं आयी। अब तो आप की सोच में परिवर्तन आ गया है ना, तो जरा दिमाग पर जोर डालकर सोचिए कि उनमें ऐसा कोई लक्षण दिखाई नहीं दिया?" मैं अपनी मां के लिए उसके मन में जो चिंगारी सुलगा चुकी थी उसको हवा देती हुई बोली। वह पहले कुछ पल सोचा फिर धीरे-धीरे उसके होंठों पर मुस्कान नाचने लगी।
"मैं भी कितना बड़ा गधा हूं। उनके बात करने का लहजा, बात करते वक्त उनकी दृष्टि, उसके चेहरे का हाव भाव, सब कुछ तो चीख चीखकर बता रहा था, मैं ही बेवकूफ था जो समझ नहीं पाया।" वह बोला।
"जरा मैं भी तो सुनूं कि अब आपको मेरी मां के हाव-भाव में जो कुछ दिखाई दे रहा था वह क्या था?" मैं मुस्कुरा कर बोली।
"बोल दूं?" वह मुझे देख कर बोला।
"बोल दीजिए।" मैं जानती थी वह क्या बोलने वाला था।
"अपने शब्दों में बोलूं?"
"हां हां।"
"तुम्हें शायद अच्छा नहीं लगेगा।"
"अच्छे और बुरे का लिहाज आप कब से करने लगे?" मैं ताना देते हुए बोली।
"तो सुनो।"
"हां हां सुनाईए, मैं सुन रही हूं।" मैं उसके मुंह से सुनने की उत्सुकता दबा नहीं पा रही थी।
"उनके कहने का लहजा और चेहरे का हाव भाव चीख चीखकर कह रहा था कि, साले मां के लौड़े, अगर तुम्हारा लंड खड़ा होता है तो किस बात का इंतजार कर रहे हो, इधर चुदवाने के लिए मेरी देह में आग लगी हुई है और तू मां चुदाने के लिए लंड लटकाए इधर उधर घूम रहा है मादरचोद। आंख के अंधे चूतिए आकर मुझे चोद काहे नहीं लेते? मुझे भी खुश कर और तू भी मजे ले।" अब वह मुंह फाड़कर बोला और मैं उसकी बिंदास अभिव्यक्ति को सुनकर रोमांचित हो उठी।
"बाप रे, ऐसा?" मैं आंखें फाड़कर उसे देखते हुए बोली।
"हा हा हा हा हां बिल्कुल ऐसा। सुनकर बुरा लगा?" वह अपनी अभिव्यक्ति पर मेरी प्रतिक्रिया पर हंसने लगा।
"नहीं नहीं, बिल्कुल बुरा नहीं लगा, बल्कि आपके मुंह से बिंदास अभिव्यक्ति सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई। तो अब?" मैं उसके मन में जो चलने लगा था उसे सुनने को मरी जा रही थी।
"अब क्या। अब तो सबकुछ स्पष्ट हो गया है कि तुम्हारी मां को क्या चाहिए। मन में अब कोई संशय और दुविधा नहीं है। उन्हें चोदने में कोई दिक्कत वाली बात नहीं है। इतनी जबरदस्त भरी भरी रसीली देह वाली खूबसूरत औरत के मौन आमंत्रण को ठुकरा दूं, इतना मूर्ख नहीं हूं। इतने सालों से सोई हुई चूत की भूख को जो खूबसूरत लौंडिया फिर से जगा कर अपनी मां के रूप में इतना जबरदस्त माल परोस रही हो, उसे भला कैसे निराश कर दूं? सच कह रहा हूं कि नहीं? यही तो तुम भी चाहती हो ना?" वह अपने लंड को पैंट के ऊपर से मसलते हुए बोला।
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(19-06-2024, 03:55 PM)neerathemall Wrote: [Image: 67337662_034_bb42.jpg]


Brandi A


[Image: 67337662_009_165e.jpg]
itne sare Pik dal ke story ki ma bahen mat karo yar
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कृपया घटनाक्रम में इतने फोटो और पुरानी लाईनें डालकर इस क्रम को न बिगाड़ें। पढ़ने वालों का मजा खराब हो जाता है।
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"बिल्कुल बिल्कुल। मैं यही चाहती हूं।" मैं झट से बोली।
"तुम सचमुच अब छुटकी नहीं रही, बड़ी बन गई हो। बड़ी समझदार।" घनश्याम मेरी प्रशंसा के पुल बांधते हुए बोला।
"बस बस ज्यादा प्रशंसा करने की जरूरत नहीं है। बड़ी बन नहीं गई, बड़ी बना दी गई आप जैसे बुड्ढों द्वारा नोच चोद कर। बड़े आए समझदार बोलने वाले। कहां कुछ दिन पहले तक नादान और नासमझ थी और कहां आज की तारीख में आप जैसे लोगों से नुच चुद कर समझदार का ठप्पा लग रहा है।" मैं डांट लगाती हुई बोली।
"अच्छा बाबा अच्छा, ज्यादा उलाहना देने की जरूरत नहीं है। तुमने उकसाया और मुझसे हो गया।"
"हो गया मतलब? गलत हुआ क्या? अब पछतावा हो रहा है क्या?" मैं बोली।
"नहीं भी और हां भी।" वह बोला और मुझे उसके हां नहीं का अर्थ समझ नहीं आया।
"क्या मतलब?"
"मतलब यह है कि तुम जैसी जबरदस्त लड़की को चोदने का पछतावा कैसा। तुम्हें चोद कर जो मजा मिला वह तो अद्भुत था। उसके लिए पछतावा नहीं है, बल्कि खुशी है लेकिन पछतावा सिर्फ इस बात का है कि तुम्हारा उद्घाटन करने का मौका हाथ से निकल गया। तुम्हारी जैसी लड़की के कीमती कुंवारापन का स्वाद चखने का सुनहरा मौका जो हाथ से निकल गया, उसी का पछतावा है। कितना मजेदार रहा होगा तुम्हें पहली बार चोदना। तुम्हारी सील तोड़ने की कल्पना मात्र से मैं रोमांचित हो रहा हूं, लेकिन वह मौका हाथ से निकल गया। साला घुसा बड़ा किस्मत का धनी निकला। साला मादरचोद।" वह खुद को कोसते हुए बोला।
"अच्छा अच्छा, अब अपने आप को कोसना बंद कीजिए।जो हो गया वह हो गया, उसे तो वापस नहीं ला सकती। अभी भी अगर मैं नहीं उकसाती तो तो क्या आप यह सब करते? नहीं ना?" मैं बोली।
"हां वह तो है। तुम उकसाई तभी यह सब हुआ नहीं तो अब भी मैं इस मजेदार चुदाई से वंचित रहता।" वह बोला। "लेकिन यह बात तो आप मानते हैं ना कि आप स्वभाव से ऐसे ही हैं। वरना मैं उकसाई तो आपको मुझे नसीहत देनी चाहिए थी, लेकिन आप मुझे नसीहत देने के बदले उल्टे मुझ में डुबकी ही मार बैठे। वह भी अकेले नहीं, अपने खड़ूस दोस्त के साथ। अच्छी नसीहत दी आपने और आपके दोस्त ने।" मैं उलाहना देते हुए बोली।
"देखो हमलोग बेकार बहस कर रहे हैं। मुद्दे की बात यह है कि तुम्हारी मां को अब चोदा कैसे जाय।" वह बोला।
"यह आप समझिए। वैसे आपको बता दूं कि पर पुरुष के मामले में आप मेरी मां के लिए पहले पुरुष नहीं हैं।"
"क्या?" उसका मुंह खुला का खुला रह गया।
"हां।"
"वह कौन मादरचोद है?"
"घुसा।" जैसे मैंने बम फोड़ दिया हो।
"घुसा?" अविश्वास से वह मुझे देखने लगा।
"हां।"
"साला मादरचोद, बेटी को भी पहले और मां को भी पहले? सबका उद्घाटन पहले पहले। अकेले अकेले मलाई खा रहा है साला कमीना।" वह खीझ कर बोला।
"अब खीझने की जरूरत नहीं है। वह चतुर चालाक चुदक्कड़ है, सो चोद लिया। अब तो पता चल गया ना? मलाई खाने से कौन रोक रहा है आपको।" मैं मुस्कुरा कर बोली।
"बात तो सच है। मैं ही साला चूतिया हूं। खैर देर आए दुरुस्त आए।" वह बोला।
"सच बोल रहे हैं आप। देर आए दुरुस्त आए।" मैं बोली और सामने देखने लगी। बातों ही बातों में हम घर पहुंच गए। जैसे ही कार रुकी, मैं कार से उतरने लगी। उतरते उतरते मैं लड़खड़ा गई और तभी मेरी अगाड़ी और पिछाड़ी की दशा का आभास मुझे हो गया। खास कर मेरी पिछाड़ी में जो खुजली भरी जलन का अहसास हो रहा था वह साफ तौर से बता रहा था कि कितने मोटे मोटे दो दो मूसल से बारी बारी से मेरी गांड़ की कुटाई हुई थी। मैं अपनी हालत छुपाती हुई घर में दाखिल हुई। उस वक्त संध्या का साढ़े छः बज रहा था। उधर मेरे पीछे फिर से कार स्टार्ट होने की आवाज आई और मैं समझ गई कि घनश्याम अब मेरी मां को लेने जा रहा था।
दरवाजे की घंटी बजाते ही सामने दरवाजा खोल कर घुसा का चेहरा दिखाई दिया।
"क्या हुआ छोटी मालकिन, आज बड़ी देर हो गई?" घुसा मुझे ऊपर से नीचे तक देखते हुए बोला।
"हां बस देर हो गई।" कहकर मैं अपने कमरे की ओर बढ़ गयी।
"तुम्हें चोट वोट लगी है क्या?" घुसा पीछे से बोला।
"नहीं तो। क्यों पूछा?" मुझे लगा कि मेरी चाल चुगली कर रही है, इसलिए संभल कर बोली।
"तुम्हारी चाल से लग रहा है जैसे तुम्हारे पैर में चोट लगी है, इसलिए पूछा।" घुसा बोला।
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bahut dino ke namari ROJ aa gai hai hume to roj chahiye.............
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"नहीं, कुछ नहीं हुआ मुझे। देखो, ठीक ठाक तो हूं।" मैं खुद की चाल को मुश्किल से सामान्य करके चलती हुई अपने कमरे में जा घुसी। अपने को सामान्य दिखाने में मुझे तकलीफ़ तो हो रही थी क्योंकि मेरी चूत और गांड़ में जलन और खुजली सी मची हुई थी लेकिन मैं घुसा के सामने जाहिर होने नहीं देना चाह रही थी।
अपने कमरे में घुसते ही मैं धम्म से बिस्तर पर गिर कर लंबी लंबी सांसें लेने लगी। कुछ मिनटों में जैसे ही मैं कुछ सामान्य हुई, बाथरूम में जाकर अपने कपड़ों को फेंका और अपनी चूत और गांड़ को रगड़ रगड़ कर नहाने लगी। ठंढे पानी के फौवारे के नीचे इस तरह रगड़ रगड़ कर नहाने से मुझे बड़ी राहत महसूस हो रही थी। रगड़ते वक्त मैंने महसूस किया कि मेरी चूत काफी खुल गयी थी। थोड़ी फूल कर बाहर भी उभर आई थी। इसी तरह मेरी गुदा का मुंह भी थोड़ा सूज गया था। मैंने गुदा द्वार पर उंगली रखा तो बड़ा अजीब सा लगा। मैं साबुन की चिकनाई के साथ उंगली का दबाव गुदा द्वार में डाला तो बड़ी आसानी से अंदर चला गया। मेरा दिल धक से रह गया। मैंने दो उंगलियां डाली तो दोनों उंगलियां आसानी से अंदर चली गयीं। हे भगवान, मेरी गांड़ भी फैल गई थी। तीन उंगलियों को एक साथ डालने की कोशिश की तो मेरे आश्चर्य का पारावार न रहा, थोड़ी सी कोशिश से तीन उंगलियां भी अंदर जाने लगीं। उफ भगवान, गंजू ने मेरी गांड़ को अपने मोटे लंड से काफी ढीला कर दिया था। घुसा ने जब मेरी गांड़ मारी थी तब भी मेरी गांड़ इतनी ढीली नहीं हुई थी। मैंने जब अपनी उंगलियां निकाली तो चकित रह गयी, गुदा द्वार अपने आप बंद हो गया और थोड़े से प्रयास से ही मेरी गांड़ का दरवाजा सामान्य रूप से बंद हो गया। मैंने राहत की सांस ली, चलो, मेरी गांड़ के दरवाजे का खुलना और बंद होना मेरे नियंत्रण में था।
इसी तरह मैंने अपनी चूत का भी परीक्षण करना चाहा। पहले एक उंगली चूत के अंदर डाली तो बड़े आराम से अन्दर चला गया। दो उंगलियां डाली तो भी आराम से अन्दर चला गया। तीन उंगलियों को डालने की कोशिश की तो थोड़े प्रयास से तीन उंगलियां भी अंदर चली गयीं। चार उंगलियों को भी थोड़ी और कोशिश से अंदर डालने में सफल हो गयी। हे भगवान, मेरी चूत भी ढीली हो गई थी। घबराहट से मेरा बुरा हाल हो गया। सहसा मुझे अपनी गांड़ का ख्याल आया। मैं सोचने लगी कि क्या मैं अपनी चूत को भी अपनी मर्जी के अनुसार संकुचित कर सकती हूं? मैंने कोशिश की और मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं रही जब मैंने देखा कि मैं न केवल चूत को अपनी मर्जी के अनुसार संकुचित कर सकती हूं, बल्कि अपनी उंगली को भी दबोच सकती हूं। ओह ओह, मजा आ गया। मैं रोमांचित हो उठी। तभी मेरे मन में एक सवाल आया कि क्या मैं चूत और गांड़ में गंजू के मोटे लंड से भी ज्यादा मोटा लंड ले सकती हूं? अपनी इस क्षमता का परीक्षण कैसे करूं? क्या मोटा बैंगन से, या मोटा खीरा से? अपनी क्षमता की जांच करके अवश्य देखूंगी। किचन में तो ये चीजें सुलभता से उपलब्ध हो जाएंगे। ठीक है, रात में इसकी भी जांच कर लूंगी। मुझे यह सब बड़ा सुखद खेल लग रहा था। अपने शरीर के कामुक अंगों के आनंददायक इस्तेमाल का पता चलता जा रहा था और मैं खुश हो रही थी। मुझ पगली को उस समय यह अहसास ही नहीं था कि मेरी नादानी का लाभ उठा कर ये कामुक बुजुर्ग मेरे शरीर के साथ जिस्मानी संबंध का सुख भोग रहे थे उससे मैं खुद भी कामुक होती जा रही थी और मेरी जिस्मानी भूख बढ़ती जा रही थी। उस कामुक खेल के परिणामस्वरूप मेरे अंदर जो एक अदम्य कामुकता जन्म ले रही थी। उस कुपरिणाम या सुपरिणाम जो भी हो, मैं बेखबर मजा लिए जा रही थी। कुपरिणाम या सुपरिणाम मैं इसलिए कह रही हूं क्योंकि बाद में भी मुझे पछताना नहीं पड़ा। उस वक्त मेरे साथ जो कुछ हो रहा था उससे भड़कती जा रही कामुकता को यदि मैं नियंत्रण में नहीं रख पाई तो यह मुझे कहां तक ले जा सकती है इसका अंदाजा भी नहीं था मुझे। मेरे लिए तो जैसे खुशी का एक नया रास्ता मिल गया था, जिसका मैं भरपूर लुत्फ उठा रही थी।
खैर उस वक्त तो मैं नहा धोकर फ्रेश हो गई और बिना पैंटी के ही कपड़े बदल कर प्रफुल्लित मन बड़े आत्मविश्वास के साथ तरोताजा होकर सिर्फ नाईटी पहन कर अपने कमरे से बाहर आई। पैंटी के बिना मैं खुद को बड़ा फ्री महसूस कर रही थी। स्वतंत्र, स्वच्छंद, बंधनमुक्त, बड़ा अच्छा लग रहा था। कमरे से करीब एक घंटे बाद बाहर निकली थी। आम तौर पर मैं कॉलेज से लौट कर अपने कमरे से बाहर निकलने में मात्र पंद्रह मिनट का समय लगाती थी।
"बहुत देर लगा दी?" सामने ही घुसा भूत की तरह प्रकट हुआ और पूछा।
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"हां, थोड़ी देर हुई।" मेरा संक्षिप्त उत्तर था।
"काहे?" वह पीछे ही पड़ गया था।
"अरे ऐसे ही। इतना क्यों पूछ रहे हो?" मैं ज्यादा बात करने के मूड में नहीं थी।
"ऐसे ही पूछ लिया।" मेरे शुष्क स्वर से वह थोड़ा सकपका गया।
"मां अबतक आई नहीं?" मैं पूछ बैठी।
"नहीं। पता नहीं काहे इतनी देर हो रही है। तुम्हें छोड़कर घनश्याम तो तुरंत चला गया था।" घुसा बोला।
"उस समय साढ़े छः बज रहा था और इस वक्त साढ़े सात बज रहा है। आधे घंटे में ही तो आ जाना चाहिए था। इतनी देर तो कभी होती नहीं है? तुम मेरे लिए चाय लेकर आओ।" मैं भी चिंतित होती हुई बोली और ड्राइंग रूम की ओर बढ़ गई। मेरी बात सुनकर घुसा किचन की ओर चल पड़ा। पांच मिनट बाद ही घुसा चाय लेकर आ गया।
"पता नहीं क्या हो रहा है तुम लोगों को। बिना बताए आज तुम इतनी देर से लौटी और अब तुम्हारी मां भी बिना बताए इतनी देर कर रही है। पहले तो ऐसा नहीं होता था।" मुझे चाय थमाते हुए वह बोला।
"तुम तो ऐसे बोल रहे हो जैसे बहुत दिनों से हो यहां।"
"जब से हूं तब से यह पहली बार देख रहे हैं ना, इसलिए बोला।"
"पहले भी ऐसा होता था। यह कोई नयी बात नहीं है। वैसे तुमने भी आते ही बहुत कुछ बदल दिया है।" मैं अर्थपूर्ण दृष्टि से उसे देखते हुए बोली। अब मैं सामान्य ढंग से बात कर रही थी इसलिए घुसा भी अपने स्वाभाविक रंग में आ गया और मेरे सामने ही सामान्य ढंग से सोफे पर बैठ गया।
"क्या बदल दिया?"
"खोल कर बताऊं की खोल कर दिखाऊं कि क्या बदल दिया?" मैं घुसा की चुटकी लेते हुए बोली।
"खोल कर बताओ। खोल कर दिखाने से हमको भी खोल कर दिखाना पड़ेगा।" वह शैतानी से मुस्कराते हुए बोला।
"बताने की जरूरत नहीं है। तुम्हें पता है। वैसे खोल कर दिखाने का आईडिया भी गलत नहीं है लेकिन यह समय उपयुक्त नहीं है। खोल कर दिखाने के चक्कर में कहीं मम्मी पहुंच गयी तो हो जाएगा झोल।" मैं चाय पीते हुए बोली।
"झोल? हां उस दिन हुआ था झोल। मगर इस पोल का क्या ?" वह अपना पैजामे के ऊपर से ही लंड पकड़ कर बोला साला खड़ूस। "क्या करूं इसका बोल?" वह मूड में बोले जा रहा था। "कल से अभी तक न मिला मैडम का और न ही तुम्हारा होल। इससे बड़ा और क्या होगा झोल?"
"आज डाल लेना मम्मी की होल में तेरा पोल।" मैं भी अपनी रौ में बोली।
"कल तो मैडम की मेहरबानी हुई नहीं, आज का भी क्या भरोसा। इधर तुम्हारा भी अता पता नहीं। एक होल के लिए कल से तरस रहा है मेरा पोल।" वह खड़ा हो गया। सचमुच उसके तने हुए लंड से उसका पैजामा तंबू बना हुआ था।
"सूअर कहीं का, मुंह से निकलेगा तो बस चोदने की बोल। आ, चूस लेती हूं तेरा पोल। आ, अपना पैजामा खोल।" मैं धुनकी में बोली। मेरे बोलने की देर थी कि उसका पैजामा नीचे गिर गया और उसका फनफनाता लंड मुझे सलामी देने लगा। काला, मोटा, गधे समान लंड। भगवान जाने कहां से ऐसा मरदूद हमारे घर में आ टपका है। घर के काम के अलावा उसे सिर्फ चोदने की पड़ी रहती है। वह झट से मेरे सामने आ खड़ा हुआ। मैं भी सोचने लगी कि चलो इसे निपटा ही दूं। मैंने बिना और कुछ कहे सीधे उसके सख्त लंड को अपने हाथों में लेकर देखा। बाप रे बाप कितना गरम था। मुझे देर करना उचित नहीं लगा और गप्प से मुंह में उसके लंड के सुपाड़े को लेकर आईसक्रीम की तरह चूसना शुरू कर दिया।
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this is so hot story...
amazing

the detailed description adds to the erotic appeal

thanks for sharing and please continue
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"आआआआआआह ओओओहहह तुम कितनी अच्छी हो, हां हां, ओह" उसके मुंह से निकला और जैसे उसे उतने से तसल्ली नहीं मिली, वह मेरे सर को पकड़ कर अपने लंड पर दबाव बढ़ाने लगा। मजबूर हो कर मुझे उसके लंड को अपने मुंह में और अंदर लेना पड़ा। धीरे-धीरे उसका आधा से ज्यादा लंड मेरे मुंह में समा गया। उसका लंड मेरे गले के अंदर तक घुस चुका था। उसी अवस्था में मैं हाथों से उसकी गांड़ पकड़ कर अपनी ओर खींची और उसे मुख मैथुन का मजा देने लगी। घुसा भी मेरी नाईटी के गले के बटनों को खोल कर ऊपर से ही हाथ घुसा कर मेरी चूचियों को (कामुकता भड़काने वाले स्विच) दबाने लगा और अपनी कमर चलाते हुए मेरा मुंह चोदने लगा। उसका हथेलियों से मेरी चूचियों को दबाना मुझे बड़ा अच्छा लग रहा था। अच्छा क्या, कामाग्नि का स्विच ऑन हो गया था। मेरी काम क्षुधा पुनः भड़क उठी थी। नहीं नहीं, ऐसे नहीं होना चाहिए। इस तरह तो सिर्फ उसकी इच्छा पूरी होगी। मैं तो प्यासी ही रह जाऊंगी। मैंने झट से उसके लंड को मुंह से निकाल दिया। मैं बेकार ही घुसा की इच्छा का सम्मान करने चली थी। उसकी इच्छा की अनदेखी न करने के चक्कर में मैं खुद ही अंदर से सुलग उठी थी।
"क्या हुआ बिटिया?" वह उत्तेजना के मारे हांफते हुए बोला।
"तेरे पोल को होल चाहिए ना?" मैं बोली।
"हां हां।"
"तो ये ले। मेरे होल में डाल तेरा पोल भकलोल।" कहकर मैं बदहवासी के आलम में उठ कर खड़ी हो गई और अपनी नाईटी उठा बैठी। पैंटी तो मैं पहनी नहीं थी, सो मेरी फकफकाती नंगी चूत उसके सामने चमचमाने लगी थी। इस दृश्य को देखकर वह पल भर को हतप्रभ रह गया। उसे उम्मीद नहीं थी कि मैं इतनी जल्दी ख़ुद को समर्पित कर बैठूंगी।
"वाह, इसे कहते हैं किस्मत। एकदम तैयार, मस्त चूत झकास।" उसकी आंखें चमक उठी थीं।
"अब मत कर बकवास। जल्दी से चोद बदमाश, मां आ गई तो हम दोनों खल्लास।" मैं झल्ला कर बोली।
"ठीक ठीक, तेरी होल तैयार तो मेरा पोल तैयार।" कहकर वहीं सोफे पर मुझे ढकेल कर मेरी टांगों को फैला कर उठा दिया और खुद टांगों के बीच घुस गया और आव देखा न ताव, झट से अपना लंड मेरी चूत के मुंह में रखकर एक झटके में ही भक्क से घुसेड़ दिया।
"आआआआआआह धीरे हरामी धीरे....ठेलो" मेरी आह निकल गई। एक ही झटके में उसने पूरा लंड घुसेड़ दिया था।
"अब काहे का धीरे ठेलो। जो ठेलना था ठेल दिया, कल से बहुत तरस लिया, अब जाकर तो मिला होल, अब तो मन भर के पेलेंगे, पूरी कसर निकालेंगे।" कहकर वह दनादन ठुकाई में जुट गया।
"हां हां, ओह हां, ठोक मादरचोद, चोद मां के लौड़े आह आह... मेरी मां की चूत के रसिया, साला बूढ़ा, मां का लौड़ा, बेटी को चोद साले बेटीचोद आह आह ओह ओह.... ‌" मैं पूरी तरह जोश में आ गई और अनाप-शनाप बोलने लगी।
"हुं हुं हुं हुं.... ‌, ले साली कुतिया, ले ले ले रंडी मां की लौड़ी साली रंडी बिटिया ले ले .... ‌ले ले मेरी लंड रानी ले ले मेरा लौड़ा आह आह....ओह ओह." वह भी मेरे शब्दों से और मेरे खुल्लम खुल्ला सक्रिय सहभागिता से पूरे जोश में पागलों की तरह बकबक करते हुए मुझमें समाता जा रहा था और भकाभक चोदे जा रहा था। मेरे उद्गारों से उसकी हिमाकत इतनी बढ़ गई थी कि वह किन किन शब्दों का इस्तेमाल कर रहा था उसका उसे होश ही नहीं था। जो भी हो रहा था, वह सब मेरे लिए बड़ा आनंददायक था। मैं अपनी दोनों टांगें उसकी कमर पर चढ़ा कर उसे खुद में समा लेने की पुरजोर कोशिश में लगी हुई थी। हम दोनों एक दूसरे से गुथ कर एकाकार हुए जा रहे थे और हमारे बीच धक्कमपेल चरम पर पहुंच गया था।
दस पंद्रह मिनट में ही उसका लंड और सख्त और मोटा होने लगा। मैं जानती थी कि अब उसका लंड वीर्य उगलने वाला है लेकिन मैंने परवाह नहीं की। मैं उत्तेजना के आवेग में जोर जोर से अपनी चूतड़ उछालती रही।
"आआआआआआह ओओओओओ...." कहते हुए उसका लंड पिचकारी की तरह वीर्य उगलने लगा। मैं ने अपनी चूत को संकुचित करके उसके लन्ड को दबोच लिया और अपनी चूत से उसके वीर्य को अपने अंदर जज्ब करने लगी। मैं चरमोत्कर्ष में पहुंचने वाली ही थी कि घुसा खल्लास हो गया। मुझे बड़ी कोफ्त होने लगी थी। मैं बदहवासी की हालत में घुसा को जोरों से पकड़ कर उसके मुर्झाते लंड पर ही चूत रगड़ने लगी थी। गनीमत थी कि मेरा प्रयास रंग लाया और इससे पहले कि उसका लंड पूरी तरह मुर्झा कर चूहे की तरह बाहर निकल आता, मैं झड़ने लगी।
"ओओओओओ मांआंआंआंआंआंआं......." कहते हुए वहीं सोफे पर ढह गई। अभी हम चुदाई से निवृत्त हो कर एक दूसरे से चिपके हुए हांफ ही रहे थे कि बाहर कार रुकने की आवाज आई। हमारे शरीर में जैसे बिजली का झटका सा लगा और हम पल भर में एक दूसरे से अलग हो गए। न ही मेरे पास अपनी चूत पोंछने का समय था और ना ही घुसा को अपना लंड। मैं झटके से खड़ी हुई और मेरी नाईटी यथावत हो गई। घुसा भी पलक झपकते पैजामा ठीक करके मुझसे ऐसे दूर गया जैसे हमारे बीच कुछ हुआ ही नहीं हो। बाल बाल बचे थे हम दोनों। मैंने दीवार घड़ी की ओर दृष्टि फेरी तो पता चला, इस वक्त आठ बज रहा था।
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