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Misc. Erotica गरम रोज
owao so sexy , so kinky story. please make its a longgggg story
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ghusa to dono maa beti ke sath wah..............ab maza ane wala hai
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"जी मैडम जी, अभी आया।" घुसा की आवाज आई। मां की आवाज सुनकर घुसा का 'पाईप' कैसे उछल पड़ा होगा, इसकी कल्पना करना मुश्किल नहीं था। मैं मुस्कुरा उठी और अपने बिस्तर पर लंबी हो गई। बिस्तर पर पड़ते ही शीला के घर में जो कुछ हुआ, वह मेरी बंद आंखों के बावजूद चलचित्र की भांति दिखाई दे रहा था। उस घटना के पश्चात घनश्याम से जो बातचीत हुई, वह मेरे जेहन में फिर से ताजा हो गई। वह सिर्फ एक औपचारिक बातचीत नहीं थी, एक तरह से एक अलिखित अनुबंध था जिसे परवान चढ़ना तय था। लेकिन यह कब होगा और कैसे होगा, यही तय नहीं था।इसी उधेड़बुन में थी कि मुझे ख्याल आया कि रफीक के मोबाइल से जो फोटोग्राफ्स और वीडियोज मैंने अपने मोबाईल में ट्रांसफर किया था उसे रेखा, शीला और रश्मि को भेजना था। मैंने अपनी नग्न तस्वीरों और वीडियो को छोड़कर बाकी उनको भेज दी। उसके बाद कब मेरी आंख लग गई मुझे पता ही नहीं चला।
सुबह उठ कर प्रात: कालीन नित्यकर्म से निवृत्त होकर जब मैं कमरे से बाहर निकली, मेरा सामना घुसा से हो गया। वह मुझे देख कर मुस्कुरा उठा। मैं उसका चेहरा देखकर ही समझ गई कि रात उसकी बड़ी मजेदार गुजरी है। आस पास मां नहीं थी। मैं उसके पास पहुंच कर बोली,
"बड़े खुश नजर आ रहे हो?"
"खुश होने वाली बात ही है।" वह मुस्कुरा कर बोला।
"लगता है रात बड़ी मजेदार रही।" मैं बोली।
"हां, उम्मीद से ज्यादा।"
"ऐसा क्या हुआ?"
"पीछे का दरवाजा खोल दिया।" वह पहेलियों में बोला।
"साला हरामी, मां का भी?" मैं ऐसी पहेली न समझूं, इतनी भोली नहीं रह गई थी।
"हां, पीछे का दरवाजा तो सामने के दरवाजे से भी जबरदस्त है।" वह होंठों पर जुबान फेरते हुए बोला।
"आराम से तो दी नहीं होगी?"
"हां वो तो है।"
"फिर जबरदस्ती?"
"नहीं, थोड़ा बहला फुसलाकर।"
"चिल्लाई नहीं?"
"थोड़ा रोई, थोड़ा चिल्लाई, लेकिन फिर कुछ देर बाद खुशी-खुशी सब कुछ हुआ। सचमुच बहुत मजा आया।"
"कमीना कहीं का। साला, फाड़ कर रख दिया होगा।"
"पता नहीं।" वह इतना ही बोला कि हमने मां को अपने कमरे से निकलते देखा। मैं झट से घुसा के पास से गुजर कर डाइनिंग टेबल की ओर बढ़ गयी। मैं डाइनिंग टेबल पर बैठ कर अपनी मां को आते हुए देख रही थी लेकिन मेरी मां की संदेह भरी दृष्टि घुसा पर थी जो किचन की ओर जा रहा था। मां की चाल देख कर मुझे मन ही मन बड़ी हंसी आ रही थी। बेचारी, थोड़ी सी पैरों को फैला कर चल रही थी। चेहरे से जाहिर नहीं कर रही थी लेकिन मैं जानती थी कि उसको चलने में थोड़ी तकलीफ़ तो जरूर हो रही थी।
"क्या हुआ मम्मी, पैरों में कोई तकलीफ़ है क्या?" मैं अनजान बन कर बोली।
"पता नहीं। आज सबेरे बाथरूम में फिसली थी, शायद उसी का असर हो। दाहिने पैर में थोड़ा दर्द है।" मेरे सवाल से उसका चेहरा थोड़ा सफेद हो गया था लेकिन खुद को संभाल कर डाइनिंग टेबल की कुर्सी पर बैठते हुए बोली। मैं ने गौर किया कि उन्हें बैठने में भी तकलीफ़ हो रही थी।
"कहीं चोट तो नहीं आई?" मैं चिंता व्यक्त करते हुए बोली।
"नहीं, कोई बाहरी चोट तो नहीं है। थोड़ा झटका लगा होगा, उसी का असर हो। वैसे चिंताजनक कोई बात नहीं लग रही है।" मां अब संभल गई थी।
तभी घुसा नाश्ता लेकर कर आ गया। मैं घूर कर उसे देख रही थी। घुसा मेरी नज़र को नजरंदाज करते हुए शरारत से मुस्कुरा उठा था जिसे मम्मी देख नहीं पाई। बदमाश कहीं का, मेरी मम्मी की गांड़ मारते समय कम से कम इतना तो ख्याल रखता कि पहली बार उसकी गांड़ का उद्घाटन हो रहा था और वह भी गधे जैसे लंड से। मुझे अपनी गांड़ की दशा का ध्यान हो आया। कैसे बहला फुसलाकर मां बेटी, दोनों की गांड़ खोल कर रख दिया था हरामी। मैं बड़ी अच्छी तरह से अपनी मां की हालत समझ सकती थी। मैं मां से और ज्यादा कुछ कह कर उससे ज्यादा झूठ नहीं बुलवाना चाहती थी इसलिए मैं चुपचाप नाश्ता करने लगी। हम नाश्ता करने के बाद अपनी अपनी तैयारी के लिए अपने कमरों में चले गए। मां का ऑफिस दस बजे से था इसलिए उन्हें साढ़े नौ बजे घर से निकलना था। मेरी क्लास ग्यारह बजे से शुरू होती थी, इसलिए साढ़े दस बजे मुझे निकलना होता था। हालांकि मेरी मां का ऑफिस आठ किलोमीटर और मेरा कॉलेज दस किलोमीटर की दूरी पर था लेकिन ट्रैफिक में संभावित रुकावटों के कारण थोड़ा जल्दी निकलना पड़ता था। पहले मां को बैंक छोड़ कर फिर घनश्याम मुझे कॉलेज छोड़ता था। इसी तरह चूंकि कॉलेज आम तौर पर चार बजे खत्म होता था तो मैं साढ़े चार बजे तक घर पहुंच जाती थी और मां की छुट्टी पांच बजे होती थी इसलिए वह करीब साढ़े पांच बजे घर पहुंचती थी। कुछ विशेष अवसरों को छोड़कर सामान्य स्थिति में हम इसी समय सारिणी का पालन करते थे।
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excellent, but very small update. please give rose more low class men kindly.
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जैसे ही मां ऑफिस के लिए निकली, मैं ने घुसा को जा पकड़ा। वह किचन में था।
"हां अब बता, मां की पिछाड़ी मारने के लिए कैसे मनाया?" मैं सीधे मुद्दे की बात शुरू की।
"बस ऐसे ही जैसे तुम्हारी मारी थी।"
"गलत। मैं तो चुदने के लिए मरी जा रही थी। उसी मौके पर तूने अपनी मंशा जाहिर की थी। मैं उस वक्त कुछ भी करने को तैयार थी और उसी मौके का तुमने फायदा उठाया था। लेकिन जहां तक मैं समझती हूं, मेरी मां के साथ ऐसा नहीं हुआ होगा। बताओ, कैसे राजी किया मां को?"
"सच बोली तुम। मैडमजी को मनाना थोड़ा मुश्किल था लेकिन तुम्हारी मां की पिछाड़ी पर कई दिनों से हमारी नजर थी। तुम्हारी मां को चलते हुए जब भी पीछे से देखता था तो मेरा खंभा खड़ा हो जाता था। अगाड़ी मारने की बात और है लेकिन पिछाड़ी मारने की बात करने की हिम्मत नहीं होती थी, लेकिन तुम्हारा पिछला दरवाजा खोलने के बाद मेरी हिम्मत बढ़ गई थी। सोच लिया था कि जैसे भी हो, आज रात को तुम्हारी मां की पिछाड़ी तो किसी भी हालत में मार कर रहेंगे। बस मार लिया।"
"अरे हरामी, यह अगाड़ी पिछाड़ी क्यों बोल रहे हो? सीधे सीधे चूत गांड़ बोलने में शरम आ रही है? साला, मुझे बेशर्म बना कर बड़ा शरीफों की भाषा बोल रहा है। यहां कौन सुन रहा है? मैं सीधे साफ शब्दों में पूछ रही हूं, गांड़ मारने के लिए कैसे मनाया?" मैं झल्ला कर बोली।
"हाय मेरी बेशर्म छुटकी मैडम। लो हम भी साफ शब्दों में बता रहे हैं कि तुम्हारी भोली भाली मां की गांड़ मारने के लिए कौन मादरचोद को ज्यादा बुद्धि लगाने की जरूरत है? थोड़ा सा बुद्धू बनाया और मेरा काम हो गया।" वह धूर्तता पूर्वक मुस्कुराते हुए बोला।
"ऐसा क्या किया कि वह मान गई?'"
"उसको तो पता भी नहीं था कि हम उसकी गांड़ मारने वाले हैं। हम पहिले उसको खूब गरम किए और कुतिया बनने को बोले तो वह तुरंत कुतिया बन गई। बस, पीछे से उसकी चूत को चाटने लगे। चाटते चाटते उसकी गांड़ भी चाटने लगे तो वह बोली,
"गांड़ काहे चाट रहे हो?"
"अच्छा नहीं लग रहा है?" हम बोले।
"बहुत अच्छा लग रहा है।" वह गांड़ उठा कर बोली। तो हम उसकी गांड़ में जीभ घुसा घुसा कर चाटने लगे।
"छि गंदा आदमी।" वह बोली।
"अच्छा नहीं लग रहा है?" हम फिर बोले।
"बहुत बढ़िया लग रहा है लेकिन यह गंदी जगह है।" वह बोली।
"हमको तो गंदा नहीं लग रहा है। आप बोलिए कि आपको कैसा लग रहा है?"
"मजा आ रहा है।" वह गांड़ हिला हिला कर चटवाती हुई बोली।
"इससे भी ज्यादा मजा आएगा, अगर आप अपनी गांड़ के साथ कुछ और करने दें तो।" हम बोले।
"अरे तो कर ना गधे कहीं के। इधर मैं मरी जा रही हूं और तू खाली बकवास किए जा रहा है। जो करना है जल्दी कर बेवकूफ।" वह बोली हमको और क्या चाहिए था, बस लोहा गरम हो चुका था, खाली हथौड़ा चलाना बाकी था।
"तो आपकी इजाजत है ना?" हम फिर बोले।
"कुत्ता कहीं का। अब और किस तरह से बोलूं। जो करना है जल्दी कर।" तुम्हारी मां तड़प कर बोली।
"ठीक है, करते हैं। मां कसम आज आप खुशी से पागल हो जाएंगी।" कहकर हम अपने लंड पर तेल लगाने लगे।
"अब यह क्या करने लगे?"
"तैयारी कर रहे हैं मैडम जी।" कहकर हम तेल लगे लंड को तुम्हारी मां की गांड़ के छेद पर टिका दिए।
"अब यह क्या करने लगे?"
"अब आप शांत रहिएगा तब तो करेंगे।"
"अच्छा लो शांत हो गई।" कहकर वह स्थिर हो गई। अब हम अपने लंड पर जोर लगाने लगे तो तेरी मां की गांड़ का मुंह खुलने लगा।
"यह क्या कर रहे हो? मुझे दर्द हो रहा है।"
"शुरू में थोड़ा सा दर्द होगा, फिर मजा ही मजा है।"
"तुम गांड़ में लंड घुसेड़ रहे हो क्या?" वह बोली।
"हां मैडमजी, लेकिन चिंता मत कीजिए, मां कसम, बहुत मज़ा आएगा।" हम बोले लेकिन वह छटपटाने लगी और आगे खिसकने लगी। हम जानते थे यही होगा लेकिन हम तैयार थे। मेरे लंड का सुपाड़ा उसकी गांड़ में घुस चुका था और इस मौके को हम गंवाना नहीं चाहते थे। हमने तुम्हारी मां की कमर को कस के पकड़ रखा था इसलिए वह आगे ज्यादा खिसक नहीं पा रही थी। हमने एक जोरदार धक्का लगा दिया और मेरा आधा लंड उसकी गांड़ में घुस गया।
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"अरे हरामी, मेरी गांड़ फट रही है। निकाल बाहर।" वह चिल्लाने लगी लेकिन ऐसी हालत में हम छोड़ देते तो फिर कभी हमको उसकी गांड़ मारने का मौका नहीं मिलता। हम दुबारा धक्का लगाए तो मेरा पूरा लंड अंदर चला गया।
"अरे धोखेबाज। धोखा देकर मेरी गांड़ फाड़ दिया हरामी। छोड़ दो छोड़ दो। यह क्या कर दिया कुत्ता कहीं का।" वह और जोर से चिल्लाए जा रही थी। लेकिन हम जानते थे कि कुछ ही देर में वह शांत हो जाएगी और धीरे धीरे धक्के लगाने से उसकी गांड़ फैल कर ढीली हो जाएगी। वही हुआ।
"धीरज रखिए मैडमजी। अब आपको तकलीफ़ नहीं होगी बल्कि मजा तो अब आएगा।" बोलकर धीरे धीरे धक्के लगाने लगा और तुम्हारी मां की चूचियों से खेलने लगा। उसकी चूत पर भी उंगली करने लगा। कुछ ही मिनटों में वह शांत हो गई और अपनी गांड़ उछालने लगी। अब हम अपनी मर्जी के मालिक थे।
"अब कैसा लग रहा है मैडमजी?" हम बोले।
"चुप बदमाश। मेरी गांड़ फाड़ कर पूछ रहा है कैसा लग रहा है। चुपचाप चोदता रह कुत्ता कहीं का।" वह बोली। उसकी बोली में कोई गुस्सा नहीं था और ना ही दर्द था। वह तो मजे से गांड़ हिला रही थी। हम को तो अब तेरी मां की गांड़ चोदने का लाईसेंस मिल गया था। हमको तो इतना मज़ा आ रहा था कि पूछो ही मत। फिर क्या था, हम लगे गचागच तेरी मां की गांड़ मारने और तुम्हारी मां सिसकारियां निकालने लगी। करीब दस मिनट में ही तुम्हारी मां झड़ने लगी। हमने चोदने की स्पीड बढ़ा दी और दो मिनट बाद ही मेरा लंड भी अपना माल गिराने लगा। हम दोनों झड़ गए तब तुम्हारी मां हांफती हुई बोली,
"लुच्चा कहीं का। मुझे बुद्धू बना कर मेरी गांड़ मार ली ना?"
"वह सब छोड़िए, अच्छा लगा कि नहीं, यह बताईए?" हम तेरी मां के बगल में लुढ़क कर बोले।
"बहुत अच्छा लगा लेकिन शुरू में तो तुमने मेरी जान ही निकाल दी थी।" वह भी बिस्तर पर पसर कर हांफती हुई बोली।
"पहली बार थी ना इसलिए थोड़ी तकलीफ़ हुई। अब आगे तकलीफ़ नहीं होगी।" हम उसकी गांड़ सहलाते हुए बोले।
"शायद तुम सही बोल रहे हो। तुम बहुत माहिर शिकारी हो। किसका शिकार कैसे करना है बहुत अच्छी तरह से जानते हो। सच में मैं बहुत खुश हुई।"
"हम यही सुनना चाहते थे। तो अब हम चलें मैडमजी?"
"जाओ, लेकिन याद रखना, मेरी बेटी से दूर ही रहना।"
"जी मैडम जी, याद रखेंगे।" हम बोले। फिर वह बोलने लगी कि उसकी डांट से हमको बुरा लगा हो तो माफ कर दें। हम भी बोले कि कौन मां होगी जो ऐसी बात का पता लगने पर गुस्सा नहीं होगी। हम बोले कि गलती किया है तो डांट लगना तो बनता ही है।
वह बोली, "सही बोला। आईंदा ऐसी ग़लती नहीं होनी चाहिए। तुम सिर्फ मेरे हो। समझ गये?'"
"जी मैडम जी समझ गया। आईंदा से ऐसी ग़लती नहीं होगी।" हम बोले।
यह सुनकर मैं हंस पड़ी और बोली, "आईंदा से कैसी गलती नहीं होगी?" मेरी बात सुन कर वह मुझे देखने लगा। उसे मेरी बात समझ नहीं आई। "अरे पागल बुड्ढे, आईंदा से पकड़े जाने की ग़लती मत करना। समझे?"
"समझ गया छुटकी मैडमजी।" वह मुस्कुरा कर बोला। बातों बातों में समय का पता ही नहीं चला। जो कुछ मैं सुन रही थी वह इतनी उत्तेजक थीं कि आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि मेरी क्या हालत हो रही थी होगी। मैं तन्मयतापूर्वक उसकी बातें सुनती रही और उसकी बातें सुनते-सुनते मेरे कॉलेज जाने का समय हो गया।
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woh ...............................maaza aa ya
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"बहुत बढ़िया। देखो तुम्हारी बातें सुनकर मेरी पैंटी भी गीली हो गई। मां सच ही बोली, तुम लुच्चे हो। तुम्हारे जैसा लुच्चा हमें बड़ी किस्मत से मिला है। तुम बोल रहे हो कि मेरी मां बड़ी खुश हुई, लेकिन उस खुशी की कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी यह तुम्हें दिखाई नहीं दे रहा है? वह बेचारी आज सबेरे कितनी मुश्किल से चल रही थी यह तुम्हें दिखाई नहीं दिया? बदमाश कहीं के। अब मां के ज़ख्म पर कैसे मरहम लगाना है, यह सोचो। उसकी गांड़ खोलकर गांड़ चुदाई के मजे से अवगत करा कर एक तरह से तुमने अच्छा ही किया। अब आगे उसे खुश रखने के लिए तुम अपने मनमाफिक जो करना चाहो जरूर करो, उसमें यथासंभव मेरा पूरा सहयोग मिलेगा, लेकिन सिर्फ मेरी मां को ही खुश रखने की सोचोगे तो यह मैं होने नहीं दूंगी। इधर मैं भी हूं, समझ गये ना? अरे, अब देखो तो, तुमसे बात करते करते कैसे समय निकल गया पता ही नहीं चला। मेरा कॉलेज जाने का समय हो गया है। फिलहाल तो मैं चलती हूं। शाम को तुमसे मिलती हूं।" कहकर जैसे ही जाने के लिए मुड़ी,
"ऐसे ही चली जाओगी छुटकी मालकिन?" वह मेरा हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींचा। मैं इसके लिए तैयार नहीं थी। उस झटके से मैं खिंची उसके सीने से जा चिपकी। उसने मुझे बांहों में भर कर चूम लिया। मेरी चूत पर घुसा के सख्त खंभे की दस्तक को महसूस करके मैं गनगना उठी।
"छोड़ कमीने।" मैं उसकी छाती पर मुक्के मारती हुई बोली।
"जा, छोड़ दिया।" कहकर उसने मुझे छोड़ दिया। "तुझे तो मैं शाम को देखती हूं।" कहती हुई अपने कमरे में चली गई। सबेरे सबेरे घुसा के मुंह से इतनी उत्तेजक घटना का वृत्तांत सुनकर मेरे तन मन की कामना बेलगाम हुई जा रही थी। बड़ी मुश्किल से मैंने खुद को काबू में किया। सबसे पहले मुझे अपनी गीली पैंटी को बदलना था। जल्दी जल्दी तैयार हो कर जैसे ही बाहर निकली, घनश्याम मेरा इंतजार करता हुआ मिला। मेरे मन में एक झमाका सा हुआ। घनश्याम को देख कर मेरे मन में कुछ कुछ होने लगा। इस वक्त अगर मुझे कॉलेज नहीं जाना होता तो निश्चय ही घनश्याम का अरमान इसी वक्त पूरा हो जाता। फिर भी मेरे मन में कुछ उमड़ने घुमड़ने लगा था। साला ठर्की बुढ़ऊ घनश्याम इस वक्त मुझे ऐसी हसरत भरी निगाहों से देख रहा था, मानो उसी की गोद में बैठने आ रही हूं।
"चलिए।" कार में मैं सामने वाली सीट पर ही बैठती हुई बोली।
"कहां चलूं?" शरारत से वह बोला।
"अब यह भी बताने की जरूरत है?" मैं बोली।
"जरूरत है। आज तुम्हारा हुलिया रोज की तरह कॉलेज जाने जैसा नहीं है, इसलिए सोचा कि पूछ लूं।" वह अर्थपूर्ण दृष्टि मुझपर डालते हुए बोला।
"कॉलेज जाने से मेरे हुलिए का क्या ताल्लुक है" मैं समझ रही थी कि घनश्याम ऐसा क्यों बोल रहा था।
"ताल्लुक तो है, तभी तो पूछ लिया।"
"आप कार स्टार्ट कीजिए, ज्यादा मनोवैज्ञानिक बनने की जरूरत नहीं है।" अपनी मन: स्थिति को छिपा पाने की अपनी असफलता से मैं अपनी खीझ निकालती हुई बोली।
"जैसी तुम्हारी मर्जी।" कहकर घनश्याम कार स्टार्ट करके आगे बढ़ा दिया। मेरा चेहरा अपेक्षाकृत ज्यादा लाल हो चुका था। घुसा की बातें सुनकर मेरे मन के अंदर जो उथल-पुथल चल रही थी, यह उसी का परिणाम था। आज कॉलेज जाऊं कि न जाऊं, यह द्वंद्व मन में चल रहा था। मन वैसे ही बड़ा चंचल हो रहा था और अब घनश्याम के टोकने से तो मैं बड़ी असमंजस की स्थिति में फंस गई। आज शारीरिक उपस्थिति क्लास में तो जरूर रहेगी लेकिन मेरा ध्यान पढ़ाई में बिल्कुल ही नहीं लगने वाला था। मेरी हालत अपनी कमीनी सहेलियों से छिपाना भी नामुमकिन सा लग रहा था। वे तो हाथ धो कर मेरे पीछे ही पड़ जाने वाली थी। इसी उहापोह की स्थिति में मैं कॉलेज भी पहुंच गयी। जैसे ही मैं कार से उतर रही थी कि,
"आ गई आ गई, हमारी हिरोइन आ गई।" मैं आवाज की तरफ दृष्टि फेरी तो सामने शीला को खड़ी पाई।
"अरे, हमारी हिरोइन का हुलिया तो देखो। क्या हुआ मेरी जान, आज आईने में चेहरा नहीं देखी हो क्या?" यह रश्मि की आवाज थी। मैं समझ गई कि आज मेरी शामत आने वाली है। इधर घनश्याम अब भी कार रोका हुआ था और हमारी ओर देख कर मुस्कुरा रहा था।
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"ओओओओओ हमारी बन्नो रानी तो लाल भभूका हो रही है। क्या बात है? लगता है इसका बुढ़ऊ रात को सोने नहीं दिया होगा।" यह रेखा थी।
"छि छि क्या बोले जा रही हो गधी कहीं की। कमसे कम जगह तो देख कर बात करो।" रेखा की बात सुनकर मैं बिगड़ती हुई उनसे बोली। रेखा की बात सुनकर मेरा दिल धक्क से रह गया। सच ही तो था, कोई यहां सुन लेता तो हमारे बारे में क्या सोचता। मैं मुड़ कर घनश्याम की ओर देखने लगी तो ऐसा लगा जैसे उसने भी हमारी बातें सुन ली थीं, यह उसके माथे की शिकन बता रही थी।
"ओय होय हमारी शरीफजादी, जरा उधर देखो तो, एक और इसका बुड्ढा ठर्की, कैसे हमें घूर रहा है। साली एक से एक नमूना पाल कर रखी हुई है।" घनश्याम की ओर देखते हुए शीला बोली।
"तुमलोग ऐसी ही बातें करोगी तो आज मुझसे क्लास नहीं हो पाएगा।" मैं बोली।
"क्लास कौन मां का ....... करना चाह रहा है। हम तो आज तुम्हारी ही क्लास लेने वाली हैं।" रेखा बोली।
"ऐसी बात है तो फिर मैं चली।" कहकर कार की ओर मुड़ी ही थी कि शीला ने मुझे थाम लिया।
"अरे बन्नो रानी, कहां चली। चल चल मूर्ख, हम तो ऐसे ही मजाक कर रही थीं। तुम्हारा हुलिया ही ऐसा है कि तुम्हारी खिंचाई करने से हम खुद को रोक नहीं पा रही हैं।" कहकर मुझे खींचती हुई कॉलेज परिसर में ले आई। शीला को क्या पता था कि रेखा और रश्मि के मन में घनश्याम के बारे में क्या धारणा बन चुकी है।
हमें कॉलेज परिसर में प्रवेश करते देख कर घनश्याम भी वापस चला गया। गेट में घुसते वक्त गेटकीपर से मेरी आंखें चार हुईं। वह बड़ी हसरत भरी निगाहों से मुझे देख रहा था। मुझे उसपर तरस आ रहा था। बेचारा, उसने मेरे नग्न जिस्म का दीदार जो कर लिया था। किसी लड़की की नंगी देह को देखने के बाद किसी के दिल पर क्या बीतती होगी , यह मैं सिर्फ अंदाजा ही लगा सकती थी। जब जब उसकी आंखों के सामने से गुजरती हूंगी, मेरा नंगा जिस्म उसकी आंखों के सामने घूमता होगा। एक आह भरकर रह जाता था होगा। यही हाल क्या घनश्याम की नहीं हो रही थी होगी? कॉलेज में मेरे साथ हुए कांड के दिन उत्तेजना के वशीभूत जिस तरह से घनश्याम के मन में अपने प्रति कामनाएं जगाने के लिए मैं ने हरकतें कीं और उसके बाद मेरी सेक्सी देह को घुसा के साथ निर्वस्त्र देख कर उसकी जो हालत हुई होगी वह मैं भलीभांति जानती थी। उसके दिल में भी हूक सी उठती होगी कि घुसा के स्थान पर वह क्यों नहीं था। अवसर उसके हाथ में था, चाहता तो रास्ते में ही किसी सुनसान जगह में मुझे ले कर मेरी उत्तेजना का लाभ उठा सकता था। परिस्थितियों ने रघु और घनश्याम के मन में मेरे लिए कामनाओं का तूफान ला दिया था होगा। बस अब बहुत हुआ। अब और उनके सब्र का इम्तिहान लेना उनके साथ ज्यादती थी। घुसा की कारस्तानी (मेहरबानी) से चुदाई का चस्का भी मुझे लग चुका था। मैं सोचने लगी कि जब सेक्स का मजा ही लेना है तो घुसा के साथ ही क्यों? आखिर वह मेरा कौन सा खासमखास है जो मैं उसे ही तरजीह दूं? इस नादान उम्र में ही सेक्स का नया स्वाद चख चुकी थी और लगातार घुसा के द्वारा सेक्स की गुड़िया की तरह इस्तेमाल की जा रही थी तो सेक्स का मजा लेने की एक तरह से आदी सी होने लगी थी। ऐसी हालत में अपने शरीर के अदम्य वासना की आग ही बुझाने के लिए क्या घुसा, क्या घनश्याम और क्या रघु, क्या फर्क पड़ता था मेरे लिए। घनश्याम और रघु के लंड का दर्शन ही मेरे मन को ललचाने के लिए काफी था। मेरी दृष्टि में वे घुसा से किसी भी तरह कम नहीं थे। मुझे चुदाई के मजे से मतलब था। सच कहूं तो रघु का और घनश्याम का हथियार देख लेने के बाद से मेरे मन में भी एक हलचल सी मची हुई थी। बस मैंने तत्काल निर्णय कर लिया कि इनकी मुराद पूरी करने में और विलंब नहीं करूंगी ताकि मेरे मन में भी उनसे चुदने की जो उत्कंठा जाग उठी है, वह भी पूरी हो जाए और मेरे भावी सेक्स जीवन में उनकी क्या भूमिका रहेगी उसका भी निर्णय हो जाए।
उस दिन क्लास में मेरा मन ही नहीं लग रहा था। मेरा शरीर ही क्लास में था लेकिन मेरे मन में घुसा द्वारा सबेरे बताई हुई मां के साथ सेक्स वाली घटना ही घूम रही थी और उस घटना की कल्पना कर करके पागल हुई जा रही थी। भगवान जाने पहली बार घुसा जैसे मोटे लंड वाले आदमी से गांड़ मरवाने से मां को कैसा अनुभव हुआ होगा। उसकी चाल ढाल में थोड़ा परिवर्तन हुआ था लेकिन चेहरे पर एक सुकून सा दिखाई दे रहा था। जरूर मां को घुसा से गांड़ मरवाना अच्छा लगा था होगा और उसको भरपूर संतोष भी मिला होगा। आखिर घुसा एक नंबर का खेला खाया, चतुर और दमदार चुदक्कड़ जो ठहरा। जब बहला फुसलाकर मुझ जैसी कमसिन कली की गांड़ मारने में सफल हो सकता था तो मेरी मां तो पकी पकाई प्रौढ़ महिला थी, उसे मुझसे ज्यादा तकलीफ़ तो अवश्य नहीं हुई होगी। हां बस उसकी चाल थोड़ी बदल गई थी, जो कि स्वाभाविक भी थी। उस चुदाई की कल्पना के साथ ही साथ रघु और घनश्याम के साथ मेरा सेक्स संबंध कैसे स्थापित हो, यह भी मेरे मन में चल रहा था। अगर वे पहल नहीं करेंगे तो मैं कैसे पहल करूंगी यह बातें भी मेरे मन में चल रही थीं। सच पूछिए तो आज कॉलेज आना ही मेरे लिए बेकार सिद्ध हो रहा था। सबेरे ही सबेरे मन में जो कुलबुलाहट शुरू हुई थी उसके बाद मन अशांत ही रहा। ब्रेक में भी मेरी सहेलियां मेरी खिंचाई करती रहीं लेकिन मैं अनमनी सी ही रही।
"क्यों री, रात को ज्यादा ठुकाई हो गई क्या?" शीला बोली।
"नहीं ऐसी कोई बात नहीं।"
"फिर?"
"बस, तबियत थोड़ी ठीक नहीं है।" बोल कर चुप हो गई।
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waoooo
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wow nice...........
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अब आगे
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"अरे ऐसा ही होता है। जिस रात को थोड़ी ज्यादा ठुकाई हो जाए तो ऐसा ही होता है।" रेखा बोली।
"चुप हरामजादी। तुम्हें होता होगा।"
"अच्छा गुरु मां, तुम तो गुरु हो, तुम्हें भला क्या होगा।" रश्मि बोली।
"अब तुम मुंह बंद करोगी कि लगाऊं एक?'" मैं खीझ कर बोली।
"कल राधा को लगाई, अब मुझे लगाने की बात कर रही है? लगाओ। मजा आ जायेगा।"
"तुम लोग अर्थ का अनर्थ करने में माहिर हो। बस अब आगे कुछ मत बोलो। वरना ठीक नहीं होगा।" मैं अब झल्ला उठी थी।
"अच्छा लो चुप हो गये। बस एक बात बताना था कि कल तुमने जो वीडियो और फोटो भेजी थी, बड़ी जबरदस्त थीं।" शीला बोली।
"लेकिन उसमें एक कमी थी।"
"क्या कमी थी?" मैं जानती थी कि कमी से उसका तात्पर्य क्या था।
"उसमें असली हिरोईन वाली गायब है।"
"असली हिरोईन?"
"हां, सबसे मस्त वाली।"
"कौन सी?"
"रोजा की, और किसकी।" शीला बोली।
"धत, कोई अपनी इस तरह की फोटो किसी को दिखाता है क्या?" मैं बोली।
"कोई बात नहीं। हमने साक्षात दर्शन कर लिया है फिर फोटो की क्या जरूरत। अच्छा, आज किसके यहां जाना है?" रेखा बोली।
"आज मैं कहीं नहीं जा रही हूं। फिर कभी।" मैं तुरंत बोली।
"अच्छा कल?"
"कल की बात कल करेंगे।" मैं बोली।
"अच्छा ठीक है कल।"
"लेकिन किसके पास?" रेखा बोली।
"वह भी कल तय करेंगे।"
"ठीक है लेकिन कल पक्का ना?"
"हां बाबा कल पक्का।" बोलकर मैंने पल्ला झाड़ लिया।
इसी तरह हमारी चंडाल चौकड़ी की बातें हुईं और भी इधर उधर की बातें करते हुए बेकार की नोंक झोंक के साथ ब्रेक खत्म हुआ फिर हम क्लास में चले गए लेकिन मेरे मन में शांति नहीं थी। कॉलेज में क्लासेस का एक एक पल पहाड़ जैसा लग रहा था। जैसे ही कॉलेज खत्म हुआ मैं भागी भागी बाहर निकल रही थी कि,
"अरे बन्नो रानी कहां भागी जा रही हो?" पीछे से शीला की आवाज आई।
"मुझे आज जल्दी घर जाना है। कल मिलते हैं। बाय।" कहती हुई मैं शीला को हक्की-बक्की छोड़कर जल्दी से सामने खड़ी अपनी कार की ओर बढ़ी, जहां, घनश्याम पहले से मौजूद था। मैं ने हड़बड़ी में गेटकीपर रघु की ओर एक नजर देखा तो वह हल्का सा झुक कर मुझे सलाम करता दिखा। मैं ने हल्का सा सर हिला कर उसके अभिवादन का उत्तर दिया।
"चलिए।" मैं जल्दी से कार की सामने सीट पर बैठते हुए बोली।
"क्या बात है, बहुत जल्दी में हो?" घनश्याम मुझे घूर कर देखते हुए बोला।
"हां, जल्दी में हूं लेकिन आपको इससे क्या?" मैं तल्ख स्वर में बोली।
"मैं सुबह से तुम्हें परेशान देख रहा हूं। मैं तुम्हारी परेशानी जान सकता हूं?"
"जानकर क्या कीजिएगा?" मैं अपनी स्कर्ट को हल्के से ऊपर की ओर उठा कर बोली। वह एक नजर मेरी जांघों की ओर देख कर मुस्कुरा उठा।
"बहुत कुछ कर सकता हूं। तुम बोल कर तो देखो।"
मैं अपनी टॉप के ऊपरी दो बटनों को खोल कर बोली, "आप या तो बेवकूफ हैं या बेवकूफ बनने का दिखावा कर रहे हैं।"
"न मैं बेवकूफ हूं और न ही बेवकूफ बनने का दिखावा कर रहा हूं। सीधे सीधे पूछ रहा हूं कि सीधे घर चलें या...." वह अपनी बोली में अर्थ पूर्ण विराम दिया।
""या?" मैं समझ गई कि वह मुद्दे की बात मुझसे कहलवाना चाहता है। मैं इतनी बड़ी भी रंडी नहीं हूं कि सीधे सीधे बोलती कि चलिए कहीं एकान्त में मुझे चोद कर अपनी और मेरी तमन्ना पूरी कर लीजिए।
"ठीक है, मैं समझ गया कहां जाना है।" कहकर उसने गाड़ी दूसरी तरफ मोड़ दी और साथ ही अपना बायां हाथ मेरी बायीं जांघ पर रख दिया।
"यह यह कककहां ले जा रहे हैं और यह क्या कर रहे हैं?" मैं उसके इस तरह बेलौस आक्रामक पहल से पल भर को हतप्रभ रह गयी।
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"वहीं ले जा रहा हूं जहां इस वक्त तुम्हें मेरे साथ होना चाहिए और वही कर रहा हूं जो कि मुझे बहुत पहले करना चाहिए था। तुम ऐसे घबरा क्यों रही हो? तुम भी तो यही चाहती हो ना? अपना हाथ यहां रखो। अच्छा लगेगा।" कहकर उसने मेरा दायां हाथ पैंट के ऊपर ठीक अपने लंड पर रख दिया। मुझे जैसे 440 वॉल्ट का करंट सा लगा। उसका लंड पैंट के अंदर खंभा बना हुआ था। मैं मानो बुत बन गई थी। मेरा हाथ मानो उसके लिंग के ऊपर चिपक सा गया था। क्या मैं सुबह से यही चाहती थी? अवश्य, अवश्य ही यही चाहती थी। तभी तो मन इतना उद्विग्न था। अब देखो, जैसे एक करार सा आने लगा था। इसकी अंतिम परिणति की कल्पना से ही रोमांचित हो उठी। मैं नशीली आंखों से उस बुड्ढे के चेहरे को देखती रह गई। पचपन साठ साल का आदमी मेरे हिसाब से बुड्ढा ही तो था। सांवला रंग, अधपके बाल, गठा हुआ शरीर और कद करीब पांच फुट दस इंच। बुड्ढा ही सही मगर देखने में दमदार मर्द था। मेरी उम्र के हिसाब से तो बिल्कुल भी बेमेल, लेकिन इस वक्त मुझे तलब थी एक अदद मर्द की। इस वक्त जो हो रहा था और जो होने वाला था उस पर निर्भर था कि आने वाले समय में हमारे बीच और क्या क्या और कितना कुछ हो सकता था।
वह मुस्कुरा रहा था। उसकी मुस्कराहट में एक आत्मविश्वास था। किसी भी प्रकार की झिझक का नामोनिशान नहीं था। इधर उसकी मुस्कराहट देखकर मैं घबरा रही थी साथ ही आज अचानक उसकी हिमाकत पर मैं भयमिश्रित विस्मय की स्थिति में थी। आखिर आज वह दिन आ ही गया जिसके लिए मैं उतनी गंभीर तो नहीं थी लेकिन प्रयास रत जरूर थी। मेरा दिल जोरों से धड़कने लगा था। अब वह अपने मन की करने को आगे बढ़ने के लिए पूरी तरह से तैयार था। मेरा हाथ उसने अपने हथियार के ऊपर रख तो दिया था लेकिन मुझे समझ नहीं आ रहा था कि अब मैं करूं तो क्या करूं।
"क्या हुआ, बस यूं ही हाथ रखी रहोगी?" वह बोला।
"मुझे पता नहीं क्या हो रहा है। सही हो रहा है कि गलत?" मैं कांपती हुई आवाज में बोली।
"यह बेवजह की तुम्हारी घबराहट है। सही ग़लत की बात तुम बोल रही हो? विश्वास नहीं होता है। घुसा जैसे आदमी के साथ तुम्हारा जो होता आ रहा है, वह सही है या ग़लत? सही ही होगा तभी ना यह सब चल रहा है? जब घुसा जैसे आदमी के साथ यह सब हो सकता है तो मेरे साथ क्यों नहीं? मैं घुसा की तुलना में खराब हूं क्या? अगर खराब हूं तो अभी बोल दो।" वह बोला।
"नहीं नहीं ऐसी बात नहीं है।" मैं नर्वस होती हुई बोली। "फिर क्या बात है?"
"मुझे घबराहट हो रही है।" मैं अपनी घबराहट छिपा नहीं पाई।
"अब घबराने की क्या जरूरत है। अब वही तो होने जा रहा है जो तुम चाहती थी। उस दिन तो बड़े आराम से मेरा पकड़ी थी? अब क्या हुआ?"
"अअ उस वक्त तो जोश जोश में वह सब कर गयी थी।" मैं अपनी आवाज की कंपन को छिपा नहीं पा रही थी। "अब क्या हो गया? सारा जोश खत्म?"
"न न नहीं, एक अअअ अजीब तरह की फीलिंग हो रही है। एक तरह का डर सा लग रहा है। जो जो जोश जोश में जो सोच रही थी वह सच होने जा रहा है ना। द द देख रही हूं आप इतने सीरियस हैं और इस वक्त आप सचमुच में करने के पूरे मूड में हैं ततत तो सोचना पड़ रहा है, प प पता नहीं आपके साथ हो पाएगा कि नहीं।" मैं घबरा कर हकलाते हुए बोली। मेरा गला सूख रहा था।
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roja ke sath dusra mard wow................
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"अब बात बहुत आगे निकल गयी है। अब घबराकर पीछे हटने की मत सोचो। अब आगे अच्छा अच्छा सोचो, क्योंकि तुम्हीं ने बात यहां तक पहुंचाई है और अब मैं तो पीछे हटने वाला नहीं हूं।" वह निश्चिंत होकर कार चलाते हुए दृढ़ स्वर में बोला। सच ही तो बोल रहा था वह। स्थिति यहां तक पहुंचाने की जिम्मेदार मैं ही हूं और अब घबराहट के मारे मेरा बुरा हाल था। पहली बार मेरी नादानी का फायदा घुसा ने उठाया। फिर उसके द्वारा वही कृत्य दुहराया जाने लगा तो मुझे मजा आने लगा था, नतीजा यह हुआ कि अब तो मैं सेक्स की आदी हो गयी थी। घुसा वह पहला आदमी था जिसने मेरे साथ संभोग किया था और अब तक करता आ रहा था। सच कहूं तो मैं न सिर्फ सेक्स की आदी हुई थी बल्कि घुसा की भी आदी हो गयी थी। अब घनश्याम के रूप में यह दूसरा आदमी मेरे सेक्स जीवन में शामिल होने जा रहा था। यह दूसरा आदमी मेरे लिए अजनबी नहीं था और न ही नया था। लेकिन पचपन साठ साल का ऐसा आदमी जिसे मैं बचपन से घनश्याम चाचा कहती आ रही थी, उसके साथ सेक्स करने की कल्पना से ही मुझे बड़ा अजीब लग रहा था। जोश जोश में मेरे उकसावे पर घनश्याम का तो मन बन चुका था, लेकिन अब जब उस उकसावे का परिणाम मेरे सामने दिखाई देने लगा तो मेरे मन में एक डर सा महसूस होने लगा था। अबतक मैं सोच रही थी कि घुसा हो, घनश्याम हो या रघु, क्या फर्क पड़ता है लेकिन अब मालूम हो रहा था कि फर्क तो पड़ता है। घुसा की मैं अभ्यस्त थी और अबतक मेरे जीवन में घुसा ही एकमात्र पुरुष था जिससे मेरा शारीरिक संबंध था। लेकिन मेरे लिए घनश्याम के साथ सेक्स करने के बारे में सोचना एक पराए पुरुष के साथ सेक्स करने जैसा लग रहा था। हालांकि घनश्याम को मैं बचपन से जानती थी लेकिन एक ड्राईवर की हैसियत से और जिसे मैं बचपन से घनश्याम चाचा बुलाया करती थी। वे भी मुझे रोजा बिटिया ही बुलाते थे। उनके साथ सेक्स करने की सोच मात्र दो तीन दिन पहले ही मेरे दिमाग में आयी थी, वह भी परिस्थिति जन्य उत्तेजना के कारण। अब वही सोच वास्तविकता के रुप में सामने आ गया तो मैं हतप्रभ रह गयी थी। घनश्याम मुझे बचपन से जिस नजर से देखता आ रहा था, आज अचानक वह नजर बदल गयी थी। उसकी नजर में मैं सिर्फ एक भोग्या नारी थी। उम्र का इतना बड़ा फर्क का भी उसके लिए कोई मायने नहीं रह गया था।
अब, मैं पचास साल की उम्र में पहुंच चुकी हूं और इस उम्र तक पहुंचते पहुंचते कई मर्दों के साथ मैं शारीरिक संबंधों का लुत्फ लेती आ रही हूं, तब भी मैं जब उस समय की बात सोचती हूं तो लगता है कि घनश्याम यदि चाहता तो मेरी कमसिन उम्र की नादानी समझ कर मुझे डांट कर मना कर सकता था और परपुरुषों के साथ इस तरह के संबंध बनाने की मेरी हवस को रोकने में मददगार हो सकता था लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। बल्कि उल्टे उसे बहती गंगा में हाथ धोना फायदेमंद लगा। उस नादान उम्र में ही मुझे इस सच को स्वीकार करना पड़ा कि सेक्स संबंध बनाने के लिए, अपना पराया, उम्र का फर्क या ऊंच नीच, व्यक्ति की हैसियत कोई मायने नहीं रखता है।
अरे, यह मैं क्या लेकर बैठ गई। हां तो मैं कह रही थी कि मेरा हाथ पैंट के ऊपर से ही ठीक घनश्याम के लिंग के ऊपर था और मुझे लग रहा था जैसे मेरा हाथ वहीं चिपक गया हो। मेरा हाथ कांप रहा था। मेरी हालत को भांप कर घनश्याम ने झट से अपने पैंट की बेल्ट ढीली की और चेन खोल कर अपना विशाल लिंग बाहर निकाल दिया।
"लो अब इसे पकड़ कर अपने मन की झिझक और डर को दूर भगाने की कोशिश करो।" कहकर उसने मेरे हाथ में अपना तना हुआ लिंग पकड़ा दिया। उफ उस गरमागरम रॉड को हाथ से पकड़ते ही जैसे उस रॉड की गर्मी मेरे डर से ठंढे पड़ते जिस्म में गर्मी का संचार करने लगी। मेरा हाथ उसके लंड पर चिपक कर रह गया था। वैसे तो उसके लंड की मोटाई मुझे महसूस हो रही थी लेकिन मैं एक नजर नीचे डाली तो उसके लंड की मोटाई के साथ ही साथ उसकी लंबाई देखकर मेरी घिग्घी बंध गई। लंड के सामने बड़ा सा गुलाबी सुपाड़ा चमचमा रहा था। इधर घनश्याम कार चलाते चलाते गीयर बदलते समय मेरी जांघों पर हाथ फेरता जा रहा था और धीरे धीरे उसका हाथ मेरी स्कर्ट के अंदर तक जाने लगा। उस समय तो मैं चिहुंक ही उठी जब उसके हाथ का स्पर्श मैंने अपनी पैंटी के ऊपर ठीक अपनी चूत पर महसूस किया। मेरी तो मानो सांसें ही कुछ पलों के लिए थम सी गई थीं। मेरा पूरा शरीर थरथरा उठा था। उस उत्तेजक हरकत से भी और मेरे साथ जो होने वाला था उसके बारे में सोच कर भी।
"नहीं नहीं, यह मुझसे नहीं होगा।" मैं बुदबुदा उठी।
"क्या बोली? नहीं होगा? सब होगा। अब तुम मेरे लंड को ऐसे ही पकड़े मत रहो। थोड़ा खेलो इससे। ऐसा करने से तुम्हारे अंदर का सारा डर खत्म हो जाएगा।" वह बोला और मेरा हाथ जो उसके लंड को पकड़े हुए था, पकड़ कर ऊपर नीचे करके छोड़ दिया। उसके निर्देश के अनुसार मैं वही क्रिया को धीरे धीरे यंत्रवत करने लगी। इधर उसका हाथ जो मेरी पैंटी के ऊपर पहुंच चुका था, पैंटी के ऊपर से ही मेरी चूत को सहलाने लगा। "ओओओओओ ओओओहहह..... नननननहींईंईंईंई नहींईंईंईंईंईंईं......" मैं सिसक भी उठी और मरी मरी आवाज में इनकार भी कर बैठी लेकिन एक दम कमजोर इनकार। मेरे इस कमजोर इनकार को सुनकर उसे कोई फर्क नहीं पड़ा और कार चलता रहा। मेरी आंखें बंद हो चुकीं थीं और एक अजीब सी उत्तेजना मुझपर हावी हो रही थी। मन में अब भी उहापोह की स्थिति थी। इसी स्थिति में कार आगे बढ़ती जा रही थी। मैं महसूस कर रही थी कि कार कभी दाईं ओर मुड़ती, कभी बाईं ओर मुड़ती और कभी यू टर्न लेती, पता नहीं कहां जा रही थी।
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kahi jungal main maganl to nhi
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अचानक कार रुक गयी। कार के रुकते ही मेरी आंखें खुलीं तो मैंने पाया कि हमारी कार एक ऐसी जगह में खड़ी थी जहां एक तरफ ऊंची ऊंची चट्टानें थीं और दूसरी तरफ घनी झाड़ियां। चट्टानों और झाड़ियों के बीच एक कच्चा समतल रास्ता था जिसपर सिर्फ एक चारपहिया ही चल सकता था। मुझे पता नहीं था कि यह कौन सी जगह थी।
"हम यह कहां आ गए हैं?" मैं उस सुनसान जगह के चारों ओर देखती हुई घबराई आवाज में बोली।
"वहीं, जहां हमें इस वक्त आना चाहिए था। थोड़ा और आगे चलते हैं। वह जगह और सुरक्षित है।" कहकर वह कार को थोड़ा और आगे लेकर बाईं ओर मोड़ दिया और देखते ही देखते हम ऊंची ऊंची झाड़ियों के बीच एक छोटे से खुले स्थान में थे। अब हमारे चारों ओर ऊंची ऊंची झाड़ियां थीं। यह मेरे लिए बिल्कुल नयी जगह थी। एकदम सुनसान। हाय राम, इस सुनसान स्थान में यह बुड्ढा मेरे साथ क्या करने जा रहा था वह मुझसे छिपा हुआ नहीं था। उस सुनसान स्थान में मुझे एक अनजानी सी घबराहट का आभास होने लगा था।
"नहीं, प्लीज़, मुझे वापस जाना है।" मैं सचमुच भयभीत थी।
"यहां तक आने के बाद बिना कुछ किए वापस जाने का ख्याल तो भूल ही जाओ। अब कार से नीचे उतरो।" वह मुझे हुक्म देने लगा।
"नहीं। मैं नहीं उतरूंगी।" मैं बोली।
"खुद उतरोगी या खींच कर उतारूं?'" उसके चेहरे का भाव अब बिल्कुल बदल चुका था। उसकी आंखों में वही घुसा वाली शिकारी सी चमक मुझे दिखाई दे रही थी। मैं अब भी कार से उतरने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी। मेरी झिझक को देख कर वह कार से नीचे उतरा। उसने मेरी ओर आ कर कार का दरवाजा खोला और मेरी बांह पकड़ कर किसी गुड़िया की तरह झटके से बाहर खींच लिया। मैं उसके एक ही ताकतवर झटके कार से बाहर आ गई और नीचे गिरने ही वाली थी कि उसने मुझे बांहों में कस लिया। मैं उसकी मजबूत बांहों में परकटी पंछी की भांति छटपटाने लगी।
"प्लीज़ मुझे जाने दीजिए।" मैं गिड़गिड़ाने लगी।
"क्यों छोड़ दूं?'"
"मुझे आपसे डर लग रहा है।" मैं रोनी सूरत बना कर बोली
"अबतक डर रही हो? किसलिए डर रही हो? मैं तुम्हें खा थोड़ी ना जाऊंगा। बस थोड़ा मज़ा ले लेने दो और तुम भी मजा ले लो। यही तो चाहती थी ना तुम?'" वह मुझे ज़मीन पर उतार कर बोला।
"चाहती थी मगर यहां इस तरह....?" मैं इस वक्त उसके रूप को देखकर सचमुच भयभीत हो रही थी और किसी तरह बच निकलने की जुगत सोच रही थी।
"फिर किस तरह?"
"फिलहाल तो मुझे वापस ले चलिए।"
"यह तो हो नहीं सकता। इतनी हिम्मत करके तो तुम्हें यहां तक लाया हूं, ऐसे ही वापस कैसे जाने दूं?"
"यहां मुझे डर लग रहा है।" मैं बहाना बनाकर बच निकलना चाहती थी।
"अच्छा तो यह बात है? समझ गया। तुम्हारा डर आज हमेशा के लिए खत्म कर देता हूं। ठीक है चलो मेरे साथ।" वह अपना झूलता लंड पैंट के अंदर किया और चेन बंद करके बेल्ट कस लिया फिर मेरा हाथ पकड़ कर खींचता हुआ आगे चलने लगा। मैं उसके साथ खिंचती चली जा रही थी। मैं भूल ही गई थी कि मेरी टॉप के ऊपरी दो बटन खुले हुए थे और मेरी चूचियां बाहर झांक रही थीं। मेरा दिमाग काम करना बंद कर चुका था। कोई जुगत नहीं सूझ रही थी। कार वहीं खड़ी थी और वह मुझे खींचते हुए कुछ आगे तक बढ़ा। झाड़ियों को पार करने पर मुझे एक पुआल के छप्पर वाली मिट्टी की दीवारों वाली झोपड़ी दिखाई दी। वह मुझे खींचते हुए उसी झोपड़ी की ओर बढ़ा। झोपड़ी के छत पर सोलर पैनल लगा हुआ था। झोपड़ी के पास पहुंच कर मैंने देखा कि सामने का जर्जर दरवाजा बंद था।
"इस झोपड़ी में?'" मैं और घबरा गई।
"यहां तुम्हें डर नहीं लगेगा।" कहकर वह दरवाजा खटखटाने लगा।
"कौन है भाई?" अंदर से आवाज आई और साथ ही दरवाजा खुला। दरवाजा चर्र की आवाज से खुला। सामने एक काला सा लंबे कद का सफेद दाढ़ी वाला, करीब साठ साल का, मजबूत कद काठी वाला गंजा बूढ़ा, मात्र एक पैजामा में खड़ा हुआ था। उसका चेहरा झुर्रियों से भरा हुआ था और उसकी बाईं आंख के नीचे गाल पर एक लंबा घाव का निशान था।
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"ओह घंशू! और ई कौन सी चिड़िया है साथ में?" हमें देख कर वह बूढ़ा बोला।
"अब दरवाजे पर ही सवाल करेगा कि अंदर भी आने देगा?" घनश्याम उस बूढ़े से बोला। लगता था ये एक दूसरे के पुराने परिचित थे।
"आओ आओ, अंदर आओ।" कहकर वह दरवाजे से हट कर अंदर बढ़ गया। घनश्याम मुझे खींच कर उस बूढ़े के पीछे पीछे अंदर घुस गया। अब तो मेरा डर दुगुना हो गया। मैंने अंदर दृष्टि घुमाई तो देखा कि कच्ची दीवारें, कच्चे फर्श का कमरा था। एक तरफ दो पुरानी कुर्सियां और एक स्टूल रखा हुआ था। स्टूल पर एक पानी का जग और दो ग्लास रखे हुए थे। कमरा साफ सुथरा था लेकिन यह कमरा गरीबी का रोना रोना रो रहा था।
"मैं इसे नीचे के कमरे में ले जा रहा हूं।" घनश्याम बोला।
"अरे भाई पहले ई तो बता कि यह है कौन?" वह बूढ़ा बोला।
"ज्यादा पूछो मत। बस जान लो कि अच्छे घर की पढ़ने लिखने वाली लड़की है।" घनश्याम बोला।
"फिर इसे यहां काहे ले कर आए हो?'" वह बूढ़ा हैरानी से बोला।
"अरे यार, हमारे बड़े 'काम' की चीज है।" काम शब्द पर जोर देते हुए वह बोला।
"अईसा क्या? लगती तो नहीं है। इतनी कम उम्र में ही?'" बूढ़ा आश्चर्य से मुझे सर से पांव तक देखते हुए बोला। उसकी नजरों में जो चमक थी वह और बढ़ गई।
"हां हां, इतनी कम उम्र में ही।" घनश्याम मुस्कुरा कर बोला।
"ठीक है ठीक है इसे नीचे के कमरे में ले जाओ। अच्छे घर की लड़की है तो थोड़ी अच्छी जगह रखना चाहिए न इसे।" वह बूढ़ा मुस्कुरा उठा। अब घनश्याम मुझे खींचते हुए कमरे के कोने की ओर ले चला। उस कोने के बिल्कुल पास पहुंच कर पता नहीं घनश्याम ने क्या किया कि वहां दरवाजे के साईज का एक हिस्सा अपने आप बिना आवाज खुल गया। मैं चमत्कृत सी देखती रह गयी। जैसे ही वह गुप्त दरवाजा खुला, घनश्याम मुझे खींचते हुए अंदर ले गया। अब मैं बहुत भयभीत हो चुकी थी।
"यह यह कहां ले कर जा रहे हैं मुझे?" भय के मारे मेरे मुंह से निकला।
"तुम चलो तो। अच्छी जगह है।" वह मुझे खींचते हुए जैसे ही आगे बढ़ा, सामने नीचे जाने की सीढ़ियां दिखाई दीं। निश्चित तौर पर यह कोई गुप्त तहखाना था। नीचे जाने तक का पूरा रास्ता पूरी तरह रोशन था। सीढ़ियां जहां खत्म हुईं, सामने एक शानदार दरवाजा मिला। हम जैसे ही दरवाजे के पास पहुंचे, न जाने घनश्याम ने क्या किया कि दरवाजा अपने आप खुल गया। मुझे यह जगह बड़ा ही रहस्यमय जगह लग रहा था। किसी तिलस्मी जगह की तरह। उस दरवाजे के अंदर जाने से मुझे हिचकिचाहट हो रही थी। एक अनजाना सा भय मेरे भीतर घर कर गया था। घनश्याम मेरी हिचकिचाहट को ताड़ कर मुझे खींच कर अंदर ले आया।
जैसे ही मैं उस दरवाजे के अंदर आई, मेरे पीछे दरवाजा अपने आप बंद हो गया। अंदर का दृश्य देख कर मैं दंग रह गई कि बाहर से झोपड़ी दिखाई देने वाले इस घर के अंदर इतना सुसज्जित कमरा भी हो सकता है। कमरा पूरी तरह से सजा हुआ था और साफ सुथरा था। अंदर की सीमेंटेड दीवारों पर आकर्षक टेक्सचर पेंटिंग थीं। फर्श पर टाईल्स लगे हुए थे। बीच फर्श पर कालीन बिछा हुआ था। यह कमरा काफी बड़ा था और बीच में सोफा सेट और सेंटर टेबल था। एक तरफ बड़ा सा किंग साईज शानदार बेड था। सामने दीवार पर 48" का टीवी लगा हुआ था। अंदर घुसते ही घनश्याम ने एयर कंडीशन ऑन कर दिया।
"जाओ उस सोफे पर बैठ जाओ।" घनश्याम मुझे हुक्म देते हुए बोला। मैं कांपते पैरों के साथ उस सोफे की ओर बढ़ी। जैसे ही मैं सोफे पर बैठी मैंने देखा कि वह बूढ़ा भी कब अंदर आ चुका था, मुझे पता ही नहीं चला। वह मुझे घूर घूर कर देख रहा था। उसकी नजर भी काफी डरावनी थी। उसकी नजरें मेरे सीने पर टिक गई थीं। सहसा मुझे अहसास हुआ कि मेरी टॉप के बटन खुले हुए थे। मैं जल्दी जल्दी बटन लगाने लगी। मैंने देखा कि वह बूढ़ा मुस्कुरा रहा था।
"यह यह अअअअआप मुझे कहां ले आए?" मैं हकलाते हुए बोली।
"तुम्हें डर लग रहा था ना? तुम यहां निश्चिंत रह सकती हो। यहां तुम्हें डर नहीं लगेगा। सच बोलूं तो यहां तुम्हारा सारा डर ही खत्म हो जाएगा।" घनश्याम धूर्तता पूर्वक मुस्कुराते हुए बोला और मैंने देखा कि वह बूढ़ा भी मुस्कुरा रहा था। इस वक्त घनश्याम से ज्यादा उस बूढ़े की मुस्कान डरा रही थी। सामने के ऊपर वाले चार दांत गायब थे उसके। मैं सोच रही थी कि इससे अच्छा तो वहीं झाड़ियों के बीच ही ठीक थी। जो होता वहीं घनश्याम के साथ होता। उसे झेल भी लेती, लेकिन यहां तो इस बूढ़े की उपस्थिति से, इतने अच्छे कमरे में भी मैं असहज महसूस कर रही थी। घनश्याम को इनकार करना बड़ा महंगा साबित हो रहा था। वहीं जंगल में घनश्याम की बात मान लेती तो यह नौबत नहीं आती। यह कहां आ फंसी थी मैं। आसमान से गिरी तो खजूर में अटकी। अब मुझे अपनी दुर्गति स्पष्ट दिखाई दे रही थी।
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are bhai ghansyam to bahut hi katarnaak lag rha hai abhi .......................bechari hmari ROJ
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