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"गालियां भी सीख गई हो?" मेरी गांड़ सहलाते हुए वह उत्सुकता से पूछा।
"हां।"
"गंदी गंदी?"
"हां हां। गंदी गंदी गालियां भी।"
"अच्छा? सुनाओ तो।" वह अपनी आंखें बड़ी-बड़ी बड़ी करके बोला।
"लौड़े के ढक्कन मादरचोद, साले चोदू, मुझे बुरचोदी बना कर बहुत बड़ा चुदक्कड़ बन रहे हो चूतिया, चूतचटोरा कहीं का। साला लौड़ा का बाल.... बेटीचोद कहीं का.." और भी कुछ गंदी गालियां एक ही सांस में बोलती हुई उसके ऊपर चढ़ कर उसके गंदे होंठों को चूम उठी। छि छि, घुसा जैसे जंगली आदमी की संगति में कैसी गंदी होती जा रही थी मैं भी। सेक्स का चस्का लग जाने के बाद कॉलेज में भी मेरी संगति ऐसी ही लड़कियों से बढ़ गई थी, जिनसे गंदी गंदी बातें करती करती गंदी गंदी गालियां भी सीखती जा रही थी। अपनी ही झोंक में घुसा के सामने मेरा यह गंदा पहलू भी उजागर कर बैठी थी।
"बदमाश आदमी, क्या क्या बुलवा दिया मुझसे सूअर कहीं के।" मैं उसके सीने पर मुक्के मारती हुई बोली और शरमा गई।
"हा हा हा हा वाह वाह, यह हुई ना बात। बहुत बढ़िया, बहुत बढ़िया सीख गई हो मैडम। ई सब सुन सुन कर चोदने का मजा बढ़ जाता है। आगे से जब हम चोदा चोदी करेंगे तो अईसा ही गाली देना हमको। इससे जोश दुगुना हो जाता है। अब एक बात बोलूं?" वह खुश हो कर बोला।
"हट हरामी, जोश दुगुना हो जाता है। बड़ा आया जोश दुगुना करने वाला। हां और क्या बोल रहा था? बोलो बोलो। बोल साले चोदू कुत्ते बोल।"
"तुम्हारी गांड़ बहुत मस्त है।"
"हां है। मैं जानती हूं।"
"तुम्हारी गांड़ देखते हैं तो मेरा लंड अपने आप खड़ा हो जाता है।"
"तो इस मामले में मैं क्या करूं? अपने लंड को काबू में रखा करो।"
"ई साला लंड काबूए में तो नहीं रहता है। कभी कभी गांड़ भी खिला दिया करो ना।"
मैं सुनकर सन्न रह गई। इसका इरादा क्या है? कहीं अपने मोटे लंड से मेरी गांड़ फाड़ने का इरादा तो नहीं है? अपनी शैतान सहेलियों से गांड़ मरवाने वाली बातें भी सुन चुकी थी मैं। पता नहीं लोगों को गांड़ मारने और मरवाने में क्या मजा मिलता है।
"क्या मतलब है तुम्हारा?" मैं अनजान बन कर बोली।
"हमारे कहने का मतलब है तुम्हारी गांड़ चोदने का बहुत मन है।" वह मेरी गांड़ पर थपकी देता हुआ बोला।
"चुप हरामी कुत्ता कहीं का। गांड़ भी कोई चोदने की चीज है? गलीज आदमी।"
"हां हां है। देखो तो कितनी चिकनी गांड़ है तुम्हारी। ऐसी गांड़ कौन चोदना नहीं चाहेगा।" वह मेरी गांड़ सहलाते हुए बोला।
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WAH LGTA HAI PEECHHE SE BHI..................
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"नहीं, गांड़ चोदने नहीं दूंगी। कभी भी नहीं।" मैं ने साफ मना कर दिया।
"बहुत मजा आएगा। सच बोल रहे हैं।" वह बोला।
"चुप कमीना। अब मेरी गांड़ फाड़ने का इरादा है क्या? मैं ऐसा कभी नहीं होने दूंगी। बड़ा गांड़ का रसिया बन रहा है कुत्ता कहीं का।" मैं डपटते हुए बोली।
"एक बार, बस एक बार गांड़ मरवा के देखो, फिर मजा न आए तो बोलना।" वह शैतान मुझे फुसला रहा था।
"अच्छा अच्छा यह बकवास अभी रहने दो। फिलहाल उठो और काम में लग जाओ, नहीं तो मम्मी बोलेगी कि उनके जाने के बाद कुछ भी काम नहीं हुआ।" मैं बात टालते हुए बात बदल कर बोली। फिर हम अपने आप को व्यवस्थित करके कपड़े पहने और काम में लग गए।
"हमारी बात पर गौर जरूर करना छोटी मैडमजी।" गांड़ वाली बात को लेकर वह तो पीछे ही पड़ गया था।
"अब चुपचाप काम करते हो या दूं एक।" मैं झल्ला कर उसकी ओर मुक्का तान कर बोली।
"क्या दोगी? अगाड़ी या पिछाड़ी।" वह ढिठाई से बोला।
"तू ऐसे नहीं मानेगा। ठहर बताती हूं।" कहकर झाड़ू लेकर उसके पीछे दौड़ी मगर वह ठरकी कम फुर्तीला नहीं था, मुझे चकमा देकर इधर उधर भागने लगा। इसी तरह हंसी ठिठोली करते हुए हम सफाई के काम में लगे रहे।
आगे की घटना अगली कड़ी में। तब-तब के लिए अपनी बेहया रोजा को इजाजत दीजिए।
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intzaar main behya roj ka..................
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गरम रोजा (भाग 5)
पिछली कड़ी में आप लोगों ने पढ़ा कि किस तरह घुसा और मेरी मां के बीच के शारीरिक संबंध को देखकर क्रोधित होने की बजाय मेरे अंदर जो वासना की चिंगारी सुलगी थी, उसके वशीभूत मैं ने घर की सफाई में घुसा को सहयोग करने के बहाने खुद को उसके आगे समर्पित करके सेक्स का अनूठा आनंद प्राप्त किया और अपनी काम क्षुधा को शांत किया। अब आगे: -
घुसा ने बिल्कुल किसी पशु (कुत्ते) की तरह मेरे साथ संभोग किया था और मैं सेक्स की गुड़िया, प्रथम बार उसके इस तरह चोदने से आह्लादित हो कर उसकी दीवानी बन बैठी थी। मन ही मन उसे दाद देती हुई मुदित मन उसके साथ घर की सफाई का बाकी कार्य पूरा करने में जुट गई थी। हम दोनों ने खुल कर गंदी गंदी बातें और चुहलबाज़ी करते हुए सफाई के कार्य को संपन्न किया ही था कि मेरी मां ऑफिस से घर आ गई। मां ऑफिस से थकी मांदी घर आकर धम्म से सोफे पर बैठ गई और घुसा तुरंत किचन से उसके लिए पानी लेकर आया। करीब तीन घंटे ही लगे थे मेरी मां को ऑफिस जा कर वापस आने में। इन तीन घंटों में यहां एक तूफान आ कर गुजर चुका था।
"मात्र तीन घंटों के लिए आपको ऑफिस जाने की आवश्यकता क्यों पड़ गयी थी मम्मी?" मैं बोली।
"अरे अब इन ऑफिस वालों को भी क्या बोलूं। एक छोटा सा काम भी इन गधों से होता नहीं है। झूठ मूठ मुझे परेशान किया उल्लू के पट्ठों ने। और तुम सुनाओ। तुम्हारा रिहर्सल कैसा रहा?" मां थके स्वर में बोली।
"बहुत अच्छा। आज तो एकांकी के रिहर्सल में मजा ही आ गया। पहली बार इतना मज़ा आया।" मैं घुसा को अर्थपूर्ण नजरों से देखती हुई बोली, जो वहीं खड़ा हमारी बातें सुन रहा था। मेरी बातों का अर्थ समझ कर वह भी हल्का सा मुस्कुरा उठा।
"अच्छा! तुम्हारे एकांकी का नाम क्या है?" मां ने पूछा।
"जानवर और इंसान।" मैं बोली।
"वाह, रोचक नाम है। क्या है इस एकांकी में, जरा मैं भी तो सुनूं।"
"मत सुनिए मम्मी। रहस्य खत्म हो जाएगा, फिर देखने में मजा नहीं आएगा।" मैं हड़बड़ा कर बोली।
"अरे कमसे कम सार तो बता ही सकती हो।"
"इंसान अच्छा और बुरा, दोनों तरह का होता है। जिस की सोच पर अच्छाई हावी है वह दूसरों का भला करता है और अच्छा काम करता है और उसे हम अच्छा इंसान कहते हैं। जिसकी सोच पर बुराई हावी है वह सदा दूसरों का बुरा चाहता है, बुरा करता है, बुरा काम करता है और हम उसे बुरा इंसान कहते हैं। जो आदमी बुरी सोच वाला है और हमेशा दूसरों का बुरा करता है वह असामाजिक होता है, उसे हम जानवर की श्रेणी में रख सकते हैं क्योंकि जानवर भी सामाजिक प्राणी नहीं होता है। इंसान के अंदर का छिपा हुआ जानवर जब बाहर आता है तो वह इंसान, जानवर बन जाता है। कहने को तो इंसान रहता है लेकिन व्यवहार में वह जानवर बन जाता है। बस यही दिखाया गया है।" मैं बोली।
"बड़ा रोचक होगा यह तो?"
"हां रोचक तो है लेकिन....।" मैं कहते कहते चुप हो गई।
"लेकिन क्या?" मां ने पूछा।
"मैं सोच रही हूं, कि समाज में बुरे कर्म के द्वारा जिसकी बुराई सामने आ जाती है उसे तो हम बुरा आदमी कहते हैं और हम उनसे बच कर रहते हैं लेकिन जिनके बुरे कर्म समाज में प्रकट रूप से सामने नहीं आते हैं उनका क्या? ऐसे बुरे लोग समाज के अंदर शराफत का चोला ओढ़े अपने कुकृत्य को अंजाम देते रहते हैं या अंजाम देने की ताक में रहते हैं उनसे कैसे बचा जाय?" मैं तिरछी नजरों से घुसा की ओर देखती हुई बोली। अनायास ही मेरी मां की नजरें भी घुसा की ओर उठीं और उनका चेहरा लाल हो उठा। उन्होंने नजरें नीची कर लीं। घुसा भी मेरी बातों का अर्थ समझ कर नजरें चुराते हुए इधर उधर देखने लगा। हमारे वार्तालाप के बीच में मां चोरी चोरी घुसा को देख रही थी और घुसा, जो मां के आने से पहले मुझे चोद चुका था, मेरी मां से नजरें चुरा रहा था। मैं इन बातों को ताड़ रही थी और मन ही मन मजा ले रही थी।
"हां सो तो है। फिर भी अपनी ओर से सावधान रहना हर व्यक्ति की अपनी जिम्मेदारी है।" मां बोली। यह सुनकर मुझे मन ही मन हंसी आ गई। वाह री सावधान मम्मी, फंस गयी नौकर से और उपदेश झाड़ रही है।
"सही कहा आपने। क्या पता हमारे परिचितों में भी ऐसे भेड़ की खाल में भेड़िए हों, या क्या पता ये घुसा भी......" मैं कहने को तो हल्के-फुल्के ढंग से मजाकिया लहजे में यह बात बोली, लेकिन सुनकर पल भर को तो घुसा और मम्मी के चेहरों का रंग ही उड़ गया था जिसे मेरी पैनी नजरों ने अच्छी तरह से पढ़ लिया था लेकिन मैं अनजान बनी रही।
"ह ह हे भगवान यह यह कैसी बात कह रही हैं रोज बिटिया। हम भला किसी के बारे में क्यों बुरा सोचेंगे?" घबराकर कर घुसा हकलाते हुए बोला।
"अरे अरे घबरा काहे रहे हो। मैं तो बस ऐसे ही मजाक में बोल रही थी।" मैं उसकी घबराहट को देख कर मन ही मन मुस्कुरा कर बोली।
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"छि छि, यह कैसा मजाक है? बड़ी शैतान हो गई हो तुम। वैसे तुम बहुत बड़ी बड़ी बातें करना सीख गई हो।" मां मुझे गौर से देखते हुए बोली।
"बड़ी हो रही हूं और कॉलेज जाने लगी हूं तो कुछ तो असर होना ही चाहिए ना।" मैं बोली।
"अच्छा है, दिमाग खुल रहा है तुम्हारा। ठीक है, तो अब मैं भी थोड़ा फ्रेश हो लूं। ऑफिस में दिमाग चटवा कर आ रही हूं और अब तुम मेरा दिमाग चाट रही हो।" कहकर वह उठी और अपने कमरे में चली गई। मैं अपनी मम्मी की मनोदशा समझ रही थी। कहीं न कहीं मेरी मम्मी के मन में चोर भी था शायद, इसलिए इस प्रकार की बातों को और ज्यादा खींचना नहीं चाहती थी होगी।
"यह तुम अपनी मां के सामने क्या बोल रही थी रोज मैडम? हमको तो डरा ही दिया था तुमने।" मां के वहां से जाते ही घुसा बोला।
"क्या बोल रही थी मैं? सच नहीं है क्या?" मैं उसे छेड़ते हुए बोली।
"सच है लेकिन..... ऐसी बात अपनी मां के सामने?"
"लेकिन क्या? मजाक कर रही थी हरामी, इतना भी नहीं समझते?" मैं बोली।
"मजाक मजाक में मेरी जान निकल जाएगी किसी दिन।"
"अच्छा छोड़ो। अब नहीं बोलूंगी ऐसी बात। अब खुश?"
"हां यही बेहतर होगा, हम सबके लिए।" कहकर वह किचन की ओर बढ़ गया।
शाम को जब हम सब चाय पीने के लिए बैठे थे तो मैंने गौर किया कि मेरी मां चोरी चोरी घुसा की हरेक गतिविधियों को देख रही थी। मुझे मेरी मां की हालत पर बड़ा तरस आ रहा था, लेकिन मैं कर भी क्या सकती थी। अब मेरी मां की प्यासी देह की प्यास बुझाने के लिए बैठे बिठाए आकस्मिक रूप से अपने ही घर में एक मनोवांछित, सुलभ साधन मिल चुका था जिसका मधुर स्वाद भी वह चख चुकी थी। इसके चलते उनकी वर्षों की दमित कामना अंगड़ाई लेने लगी थी लेकिन वह ठहरी समाज की एक सम्मानित, संभ्रांत महिला। वह यह भलीभांति जानती थी कि घुसा जैसे पराए मर्द के साथ सोना समाज की नजरों में अनैतिक था, फलस्वरूप आगे उसे यह संबंध जारी रखना था तो चोरी छिपे ही जारी रह सकता था। नैतिकता और अनैतिकता के पहरेदार इस निष्ठुर समाज को मेरी मां के दर्द से क्या लेना-देना था। इस के अलावा मुझ जैसी बाधा भी तो थी, जिसकी उपस्थिति में उनका यह अनैतिक संबंध निर्बाध रूप से चल नहीं सकता था। मेरी जानकारी में कैसे वे एक ही कमरे में सो सकते थे? अब यह तो उसकी अपनी सोच थी। काश कि उसे यह पता चलता कि मुझे उनके इस अनैतिक संबंध के बारे में अच्छी तरह से पता था मगर मुझे इसपर कोई आपत्ती नहीं थी, लेकिन यह मैं अपने मुंह से कैसे बता देती। लेकिन भविष्य के गर्भ में क्या छिपा हुआ था किसे पता था? मन ही मन मैंने निश्चय किया कि अब आगे से मेरी कोशिश यही रहेगी कि उन्हें भरसक एकांत का अवसर मिलता रहे और वह घुसा के साथ संसर्ग सुख का उपभोग करती हुई संपूर्णता के साथ जीवन जीती रहे। हां यह और बात है कि उनकी अनभिज्ञता में घुसा के साथ मैं भी मज़े लेती रही।
घुसा की तो मानो लॉटरी लग गई थी। मेरी अनुपस्थिति में मां के साथ और मां की अनुपस्थिति में मेरे साथ चुदाई का सिलसिला चल निकला था। एक आदर्श परिवार की परिभाषा और क्या होती है? यही ना, कि परिवार के सारे सदस्य आपस में मिल जुल कर प्रेम से रहें और एक दूसरे की खुशी को ध्यान में रखकर घर में जो कुछ है उसे मिल बांट कर खाएं और प्रसन्न रहें। यही तो हो रहा था यहां। घुसा एक खाना ही तो था हमारे लिए, जिसे हम मां बेटी आपस में मिल बांट कर खा रही थीं। यह और बात थी कि मैं अपनी मां की खुशी के लिए मां के साथ घुसा को बांट कर खा रही थी और मेरी मां इस बात से बिल्कुल बेखबर, अपने हिस्से के घुसा को खा कर तृप्ति के आनंद में मगन थी।
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अविश्वसनीय लेकिन बेहद उत्तेजक दृश्य
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मेरी मां के साथ यह लुका छिपी का खेल भला कब तक चलता। एक ही छत के नीचे मां बेटी, दोनों के साथ, गुपचुप तरीके से अलग अलग, घुसा की रंगरेलियों का भांडा तो फूटना ही था। आखिरकार एक दिन मेरी मां के सामने यह भांडा फूट ही गया। उफ, वह दिन भला मैं कैसे भूल सकती हूं।
उस दिन मैं कॉलेज में एक पीरियड खाली था तो उस समय मैं अपनी गंदी और बदचलन सहेलियों के साथ कैंटीन में बैठी गप्पें मारते हुए चाय की चुस्कियां ले रही थी। मैं उस दिन स्कर्ट ब्लाउज में थी। हमारी टेबल से कुछ ही दूरी पर एक और टेबल पर हमारी क्लास के ही आवारा टाईप के चार पांच लड़के बैठे हमारी ओर ही देखते हुए आपस में कुछ बातें कर रहे थे। उनकी आंखों से और बात करने के तरीके और चेहरे के हाव भाव से साफ पता चल रहा था कि वे हमारे बारे में अच्छी बातें तो निश्चय ही नहीं कर रहे थे। खैर हमें क्या, मैंने अपनी सहेलियों में से शीला, जो हम सबमें ज्यादा स्मार्ट थी, से बोली,
"उधर देखो, वे लड़के हमारे बारे में जरूर कुछ उल्टा सीधा बातें कर रहे हैं।"
"अरे यह राजू (राजू उन लड़कों में सबसे ज्यादा स्मार्ट और एक नंबर का छंटा हुआ बदमाश था) और उनके दोस्तों का काम ही क्या है। पढ़ाई लिखाई में तो सबके सब फिसड्डी, लेकिन लड़कियों के पीछे बड़े रोमियो बने फिरते हैं। कभी हमसे पाला पड़ जाए तो आटा दाल का भाव मालूम हो जाएगा। उनको नजर अंदाज करो, साले सब दिखावे का स्मार्ट बने फिरते हैं। सालों के लंड में दम होता तो अबतक हमारा आमना सामना हो चुका होता, साले हिजड़े कहींके।" वह तिक्त स्वर में बोली और हम सभी एक बार उन्हें हिकारत भरी दृष्टि से देखकर अपनी बातों में व्यस्त हो गयीं। लेकिन मेरी छठी इंद्री कह रही थी कि आज ही हमारा आमना सामना होना तय है।
"मुझे लग रहा है कि ये लोग आज कुछ गड़बड़ करने वाले हैं। मुझे उनके हाव-भाव में कुछ अस्वभाविक दिखाई दे रहा है" मैं बोली।
"अरे तो उससे क्या। खा थोड़ी न जाएंगे। ज्यादा से ज्यादा चोदेंगे और क्या। हम कौन सी दूध की धुली हैं। पानी न पिला दिया तो कहना। क्या मैं गलत बोल रही हूं?" शीला उनकी ओर चुनौती भरी दृष्टि फेरती हुई बोली।
"हां हां, और क्या। उनको छठी का दूध नहीं पिलाया तो हमारी ऐसी चौकड़ी किस काम की।" अब रेखा बोली। रेखा एक संपन्न घर से ताल्लुक रखती थी, इसलिए उसका तेवर भी वैसा ही कड़क था। वैसे वह भी काफी बिगड़ी हुई लड़की थी। हमारे कॉलेज में तो नहीं लेकिन कॉलेज से बाहर के दो तीन रईसजादे उसके ब्वायफ़्रेंड थे।
"सही बोली। अगर मुझे हाथ लगाने की हिम्मत करेंगे तो मां कसम, मैं इनका लंड उखाड़ के इनकी गांड़ में घुसेड़वा दूंगी।" रश्मि बोली। रश्मि भी कम नहीं थी। एक नंबर की छंटी हुई बदमाश थी। कॉलेज में तो किसी लड़के को घास नहीं डाली थी लेकिन बाहर मे न जाने कितने आशिक थे इसके।
"बिल्कुल।" सबके सब एक स्वर में बोल उठे। मुझे छोड़कर सबके सब अपने अपने ब्वॉयफ्रेंडों से पिटवा सकते थे लेकिन मैं क्या करूं। खैर मुझे इसकी इतनी चिंता नहीं थी। अपने हाथों पैरों पर मुझे पूरा विश्वास था। आखिर मेरे जूडो कराटे की ट्रेनिंग किस दिन काम आती। मैं निश्चिंत हो गई।
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उस दिन कॉलेज की छुट्टी कुछ देर से हुई। मेरी सहेलियां मुझसे कुछ आगे आगे चलती हुईं कॉलेज के गेट तक पहुंच चुकी थीं। कॉलेज के गेट की बाईं ओर ऊंचे और घने पौधे एक कतार से लगाए गये थे जिन्हें क़रीने से छांट दिया गया था जिससे कॉलेज परिसर की सुंदरता काफी निखरी हुई थी। उन्हीं ऊंचे घने पौधों की कतार से सटा हुआ कंक्रीट का चार फुट चौड़ा रास्ता था। मैं अपनी ही धुन में धीरे धीरे चलती हुई आगे बढ़ रही थी तभी बगल की झाड़ियों में सरसराहट हुई और एक मजबूत हाथ मेरे मुंह पर कस गया और दूसरा हाथ मेरी कमर को मजबूती के साथ पकड़ कर झाड़ियों के पीछे खींच लिया। यह सब इतनी जल्दी हुआ कि एक पल को मुझे समझ ही नहीं आया कि यह अचानक क्या हो गया। आगे चलने वालों की पीठ मेरी ओर थी और शायद मेरे पीछे कोई नहीं था जिसके कारण किसी को कुछ भनक तक नहीं लगी। जबतक मुझे कुछ समझ आता, तब-तब मैं चार लड़कों के बीच असहाय अवस्था में घिर चुकी थी। ये वही चारों लड़के थे जो कैंटीन में हमारी ओर देख देख कर भद्दी मुस्कुराहट के साथ बातें कर रहे थे। मुझे पकड़ कर खींचने वाला राजू ही था। मेरा मुंह सख्ती से बंद था इसलिए मैं चिल्ला भी नहीं सकती थी। उस एकांत में हमें कोई देख भी नहीं सकता था। वे मुझे खींचते हुए कुछ दूर कॉलेज के पीछे वाले एक पुराने भवन की ओर ले गये। उस पुराने भवन में एक पुराना साईंस लेबोरेट्री था जिसका इस्तेमाल अब नहीं होता था और उधर कोई आता जाता भी नहीं था। उस लेबोरेट्री के दरवाजे पर ताला लगा हुआ था। अब तो नये लेबोरेट्री में ही साईंस का प्रैक्टिकल होता था जो कॉलेज की बाईं ओर करीब करीब कॉलेज भवन से सटा हुआ था। जैसे ही मुझे खींच कर वे मुझे पुराने लेबोरेट्री के दरवाजे तक लाए, उनमें से एक, विशाल, अपनी जेब से एक चाबी निकालकर कर दरवाजे का ताला खोलने लगा। मैं समझ गयी कि ये कमीने इस लेबोरेट्री को अपनी हवस पूर्ति का सुरक्षित अड्डा बनाए हुए हैं। जैसे ही मुझे खींच कर राजू मुझे उस लेबोरेट्री के अंदर लाया मैंने देखा कि पुराने टेस्ट टेबल्स अबतक उसी तरह क़रीने से रखे हुए थे। बीच के टेबल्स को हटा कर करीब दस फुट बाई दस फुट का जगह बना दिया गया था और उस खाली स्थान के फर्श पर गत्ते बिछा कर रखे हुए थे। हे भगवान, ये लोग तो इस परित्यक्त लेबोरेट्री को अपनी ऐय्याशी का अड्डा बनाए हुए थे।
"अबे साले, जल्दी से चौकिदार को भी फोन करके बुला ले। आज इस बेहतरीन चिड़िया को हम पांचों मिल बांट कर खाएंगे।" राजू विशाल से बोला और विशाल झट से फोन निकाल कर वहां के चौकिदार को फोन कर दिया। लो, अब किससे मदद की उम्मीद करूं, यहां का चौकीदार भी इस चंडाल चौकड़ी का हिस्सा बना हुआ था। तभी तो ये लोग इतनी निर्भीकता से इसी कॉलेज के परिसर में अपने कुकृत्य को अंजाम देते होंगे। मुझे यह समझते देर नहीं लगी कि यह उनकी चुनी हुई जगह थी जहां लड़कियों को लाकर अपनी कारगुजारियों को अंजाम देते हैं। विशाल के फोन करने के दो मिनट बाद ही वहां का चौकीदार भी हाजिर हो गया। यह काला कलूटा, अधेड़ उम्र का औसत व्यक्तित्व का मालिक था लेकिन देखते ही पता चल गया था कि यह भी एक नंबर का हरामी था। उसने अंदर आते ही अपने पीछे उस लेबोरेट्री का दरवाजा बंद कर दिया था।
"लो, रघु भाई भी आ गया।" विशाल बोला।
चौकीदार की नजर जैसे ही मुझ पर पड़ी उसकी बांछें खिल गयीं। उसकी आंखें चमक उठीं। बड़ी बुरी फंसी थी मैं आज। अब ये पांच लोग मिलकर मुझे नोचेंगे और चोदेंगे। सोचकर ही मैं सिहर उठी।
"वाह भाई वाह। क्या माल हाथ लगी है आज। सच में मज़ा आ गया। इस लौंडिया को तो आते जाते जितनी भी बार देखते थे, साला मेरा लौड़ा एकदम से खड़ा हो जाता था। बड़ा अच्छा काम किया है तुम लोगों ने। आज मेरे लंड की मुराद पूरी हो जाएगी।" चौकीदार खुशी से किलक कर बोला।
"हां सच बोला रघु भाई। साला आज तो बड़ी मस्त जुगाड़ हाथ लगी है। इस ग्रुप पर बहुत दिनों से नजर थी और खास कर के इस लौंडिया पर तो खास नजर थी। आज लगी है हाथ। इस साली को तो देखते ही मेरा हमारा लौड़ा भी खड़ा हो जाता था। आज जाकर मिला है इसे चोदने का मौका। चल बे शुरू हो जाओ सबके सब।" राजू बोला। अबतक राजू मुझे घसीट कर लेबोरेट्री के बीच में ले आया था। उसके बोलने की देर थी कि विशाल, जो उनमें से थोड़ा नाटा था, करीब पांच फुट का, लेकिन था बड़ा हट्ठा-कट्टा, आगे आया और सामने से मेरी ब्लाऊज के ऊपर से ही चूचियों को पकड़ कर मसलने लगा। मैं छटपटाने लगी लेकिन राजू की पकड़ इतनी सख्त थी कि मैं कुछ कर नहीं सकती थी। विशाल का हाथ ज्योंहि मेरी उन्नत चूचियों पर पड़ा, मैं गनगना उठी। मेरी चूचियां मेरी सबसे कमजोर जगह थीं जहां किसी मर्द का हाथ लगे तो मेरे शरीर पर से मेरा नियंत्रण छूट जाने का खतरा हमेशा रहता था। इसका पता घुसा की कारगुजारियों से मुझे भली भांति पता हो गया था। विशाल इतने पर ही नहीं रुका था। वह अपनी हथेलियों को मेरे ब्लाऊज के अंदर घुसेड़ कर मेरी ब्रा को खिसका दिया था और मेरी नंगी चूचियों को पकड़ कर मसलने लगा था।
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"अरे यार, क्या मस्त चूचियां हैं इसकी। साली इसी उम्र में इतनी बड़ी बड़ी चूचियां किस लौंडिया की होती हैं? बड़ी बड़ी भी और सख्त सख्त भी। पक्का कोई न कोई इसकी चूचियां मसलता होगा।" विशाल मेरी चूचियों को मसलते हुए बोला। ओह मेरी मां, उस वक्त मेरी क्या हालत हो रही थी वह बयान करना बड़ा ही मुश्किल है। गुस्से से मैं आग बबूला हो रही थी लेकिन उसकी हथेलियों के स्पर्श से मेरे अंदर चिंगारी सी सुलग उठी थी। मैं मदहोश हुई जा रही थी। मेरी पैंटी भीगने लगी थी।
"साले मादरचोद, खोल दे न पूरी तरह इसका ब्लाऊज और ब्रा और हां, खाली चूचियां दबाएगा कि इसकी स्कर्ट भी उतारेगा। मां के लौड़े जल्दी से इसकी स्कर्ट उतार। पूरी की पूरी नंगी कर दे साली को। फटाफट काम खत्म करके फूटेंगे यहां से। वैसे तो रघु की मेहरबानी से कोई इधर आएगा नहीं, फिर भी झूठ मूठ का समय बर्बाद करने का क्या फायदा।" यह आवाज अशोक की थी। यह दुबला पतला लेकिन एक नंबर का हरामी था। साला काला भुजंग, मरियल सा साढ़े पांच फुटा, कुत्ता कहीं का।
"अबे तू भी मिल कर उतार ना। देख नहीं रहा, मैं इसकी चूचियां दबा रहा हूं।" विशाल बोला। उसके कहने की देर थी कि आनन फानन में अशोक मेरे स्कर्ट को खोल कर नीचे खींच लिया। हे भगवान, स्कर्ट पल भर में ही फर्श पर पड़ी हुई थी और कमर से नीचे अब मैं सिर्फ पैंटी में थी।
"अरे, इसकी पैंटी तो भीग चुकी है। साली चुदवाने के लिए बिल्कुल तैयार है।" यह चौथे लड़के रफीक की थी। यह उनके ग्रुप का * सदस्य था। यह भी दुबला पतला मरियल सा था लेकिन अच्छे खासे कद का मालिक था। करीब छः फुट का कद था उसका। वह पैंटी के ऊपर से ही मेरी चूत को सहलाते हुए बोला,
"खुदा कसम, इस लौंडिया को चोदने में सचमुच बड़ा मज़ा आने वाला है।"
पैंटी के ऊपर से ही मेरी चूत पर उसकी उंगलियों का स्पर्श महसूस करके मेरे तन बदन में सुरसुरी सी दौड़ गई। हालांकि उनकी हरकतों से मैं उत्तेजित होती जा रही थी लेकिन उत्तेजना के आवेग में भी मैंने अपने होशोहवास को बनाए रखा था।
"अबे भोंसड़ी के, उतार साली की पैंटी। देख क्या रहा है मादरचोद, बिना पैंटी उतारे ही चोदेगा क्या?" राजू खीझ कर बोला। उसके बोलते ही रफीक ने एक झटके से मेरी पैंटी खींच कर नीचे उतार दी।
"ले, उतार दिया।" रफीक बोला। उफ मेरे राम। अब मेरी चिकनी चूत नंगी हो कर उनके सामने थी। मेरी चूत को देख कर उनकी आंखें फटी की फटी रह गईं। मैं कमर से नीचे नंगी हो चुकी थी। इधर मेरी नंगी चूतड़ों पर मुझे राजू के लंड का उभार चुभता हुआ सा महसूस हो रहा था। मुझे लगा कि आज तो इन लोगों से बिना चुदे मेरी खैर नहीं। हालांकि यह मेरा बलात्कार था, मेरे साथ जबरदस्ती हो रही थी लेकिन इसके बावजूद मेरी उत्तेजना का पारावार न था। बस दुख इस बात का था कि ये चारों मुझे नापसंद थे और इन शैतानों के हाथों का मेरे शरीर पर यहां वहां पड़ना मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रहा था। वे मेरे नाजुक अंगों को छेड़ रहे थे। इस प्रकार की जबर्दस्ती मुझे बड़ी नागवार गुजर रही थी। मुझे बड़ा बुरा लग रहा था। मेरी मर्जी के बगैर इस तरह कोई ऐरा गैरा मुझे हाथ लगाए, यह मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रहा था लेकिन उनकी हरकतों से न चाहते हुए भी मेरे शरीर में वासना की चिंगारी को हवा मिल रही थी और मैं पागल हुई जा रही थी। इसी दौरान मेरी ब्लाऊज और ब्रा भी खोल कर एक तरफ फेंके जा चुके थे। अब मेरा पूरा नंगा जिस्म उनके सामने खुला हुआ था। मैं शर्म से मरी जा रही थी लेकिन फिर भी उनसे छूटने की जुगत मेरे दिमाग में निरंतर चल रही थी। तभी मेरी नज़र कोने पर रखे हुए डंडे पर पड़ी और मैं सोचने लगी कि जैसे ही इनकी गिरफ्त से आजाद हो जाऊंगी, इसी डंडे से इनकी वो धुलाई करूंगी कि जिंदगी में फिर किसी लड़की की ओर आंख उठाकर देखने की हिम्मत भी नहीं करेंगे। लेकिन फिलहाल तो मुझे उनकी गिरफ्त से किसी प्रकार छूटना था।
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"अरे साली की चूत तो देखो। मां की लौड़ी एकदम मस्त चूत पाई है। साली मालपुए की तरह फूली हुई चूत। लगता है यह पहले से लंड खाती आ रही है। मगर ऐसी चिकनी चूत जिंदगी में पहली बार दिखाई दे रही है। मां कसम आज तो चोदने में मज़ा ही आ जाएगा।" रफीक मेरी चूत को छुआ, सहलाया और बोला। उफ उफ, उसकी उंगलियों का स्पर्श ज्यों ही मेरी नंगी चूत पर हुआ, मुझे तो जैसे 440 वॉल्ट का करंट सा लगा। रफीक आनन फानन अपना पैंट खोलने लगा। जैसे ही उसका पैंट खुला, उसका खतना किया हुआ लंड फनफना कर बाहर आ कर फुदकने लगा। मुझे हंसी आ गई। मात्र साढ़े पांच इंच का लंड था उसका। कहां घुसा का आठ इंच का लंड और कहां यह चूहा।
"अबे लौड़े के ढक्कन, पीछे हट। सबसे पहले मैं चोदूंगा। और हां, अपना मोबाइल तैयार रखना। इसकी फोटो खींचनी है और वीडियो बनाना है, समझ गये ना?" कहकर उसने अपने पैंट उतारने के लिए मुझे पकड़ने के लिए विशाल को इशारा किया। उसकी बातें सुनकर मेरा खून खौल उठा। इसका मतलब ये लोग ऐसी अश्लील फोटो और वीडियो के बल पर पीड़िता का मुंह बंद रखते होंगे साले कमीने कहीं के। इसी लिए आज तक इनकी कारगुजारियों के बारे में किसी को पता नहीं है, मगर आज इनका पाला मुझसे पड़ा था। इनको आज पता चलेगा कि इनका पाला किससे पड़ा है।
"अरे यह भी कोई कहने की बात है भाई। ये लो, तुमने कहा और मैं शुरू हो गया।" रफीक झट से अपना मोबाइल निकाला और अलग अलग कोण से मेरी नंगी देह का फोटो खींचने लगा। मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच चुका था लेकिन मैं सिर्फ छटपटा कर रह गई।
इधर विशाल आगे आया और राजू की तरह मुझे पीछे से दबोच लिया। मैं जोर लगाती रही लेकिन विशाल जैसे हट्ठे कट्ठे लड़के ने मुझे जिस तरह से पीछे से पकड़ रखा था, उस कारण मैं पूरी तरह बेबस थी और उसके आगे मेरी एक न चली। मैं बेबसी के आलम में अपने सामने राजू को पैंट उतारते हुए देखती रही। जैसे ही राजू अपने पैंट और जंघिए से आजाद हुआ तो मेरे सामने राजू का काला, मोटा लंड टन्न से बाहर निकल कर अपनी मर्दानगी का प्रदर्शन करने लगा। उसका लंड मोटा जरूर था लेकिन लंबाई मुश्किल से छः इंच रही होगी। मैं समझ गई कि आज तो गयी मैं। ये पांचों आज मुझे नोचेंगे और बारी बारी से मुझे चोदेंगे। बगैर चुदे तो मेरा छुटकारा संभव नहीं दिखाई दे रहा था। उधर बाकी दोनों भी फटाफट अपने पैंट खोलने लगे। रघु भी अबतक पैंट खोल चुका था। सबसे जबरदस्त लंड तो रघु का ही था, करीब करीब घुसा के लंड जैसा ही लंबा और मोटा। पल भर को तो मैं उसके लंड को देखती रह गई। अभी मैं रघु के लंड की लंबाई मुटाई का आंकलन कर ही रही थी कि तभी मुझे महसूस हुआ कि एक हाथ से मेरा मुंह दबोचे हुए विशाल अपना दूसरा हाथ अपना पैंट खोलने के लिए मेरी कमर छोड़कर को छोड़कर नीचे ले जा रहा है। समझ गई कि अब इसकी गिरफ्त से आजाद होना मुश्किल नहीं है। ऐसे ही मौके की तलाश में तो थी मैं। इधर उसने अपना दायां हाथ पैंट खोलने के लिए नीचे किया और बस मुझे मौका मिल गया।
तभी, "नीचे पटक कर दबा के रख साले। आज इस मालपुआ को तो पहले मैं ही खाऊंगा......" राजू बड़ा बेताब हुआ जा रहा था, लेकिन उसकी बात पूरी होने से पहले ही मैं जोरदार झटका देकर थोड़ा साईड होकर आगे झुक गई और विशाल की थोड़ी सी असावधानी उसे महंगी पड़ गयी। वह अपनी झोंक मैं आगे की ओर औंधे मुंह गिर पड़ा। अब क्या था, इससे पहले कि वे कुछ समझ पाते, मैं ने स्कर्ट पहनने के बदले झट से खुद को संभाला और नंगी ही उन पर पिल पड़ी। यहां मेरी जूडो कराटे की परीक्षा थी, जिसमें फेल होने का मतलब था मेरी दुर्गति। मेरे शरीर में रक्त का संचार द्रुत गति से होने लगा। पलक झपकते मेरी पूरी शक्ति से लगाई हुई लात राजू की जांघों के बीच हुआ था जिसके कारण राजू दर्द से कराह उठा और अपना अंडकोष पकड़ कर झुका और इसी पल मेरे घुटने का दूसरा प्रहार उसके मुंह पर पड़ा। राजू इस दूसरे प्रहार से उलट गया। फिर क्या था, मैं ने अपनी लातों और घूसों से शुरुआत की और इससे पहले कि वे संभल कर मुझे काबू में करते, मैंने झपट कर कोने के डंडे को हाथ में उठा लिया। डंडा भारी था लेकिन उस वक्त मेरे अंदर न जाने कहां से इतनी शक्ति आ गई थी कि उसी भारी डंडे से उनकी धुलाई शुरू कर दी। मैं इतनी तेजी से डंडा चला रही थी कि डंडे की मार किसे कहां लग रही थी मुझे होश ही नहीं था। किसी का सर फूटा, किसी की हाथ टूटी तो किसी की टांग। तीन चार मिनट में ही वे धराशाई हो कर फर्श पर पड़े आह ओह कर रहे थे। वे तो मुझे अबला नारी समझ कर आश्वस्त थे कि अब मैं बिल्कुल नंगी पुंगी क्या कर लूंगी। अपनी नग्नता छिपाने की कोशिश ही न करूंगी और असहाय नारी की तरह उनकी गिरफ्त में परकटी पंछी की तरह छटपटा कर शांत हो जाऊंगी। वे अपनी जीत का जश्न मनाने ही वाले थे और इस चक्कर में असावधान हो गये थे, यही असावधानी उनके लिए महंगी साबित हुई। मेरे इस प्रतिरोधात्मक आकस्मिक आक्रमण की तो उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी होगी। जबतक वे इस अकल्पनीय सदमे से उबर पाते, उनकी सारी हेकड़ी निकल चुकी थी और वहां की कहानी खत्म हो चुकी थी।
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wah hamari ROJ ki hero nikali
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"साले मां के दल्लों, अब जाकर अपनी मां बहनों को चोदो मादरचोदों।" मैं गुस्से में गंदी गालियां देती हुई रण चंडी की तरह उनके गिरे हुए शरीरों को दो चार और डंडे लगा कर ठोकर मारती हुई बोली। मैं अबतक नंगी ही थी और अपने नंगे पन की परवाह भी नहीं थी मुझे। गुस्से से मेरा पारा सातवें आसमान पर था। सबसे ज्यादा खुन्नस मुझे राजू और रफीक पर था। उन घायल पड़े बदमाशों को देखकर मुझे उन पर जरा भी दया नहीं आ रही थी। मैंने राजू और रफीक की बड़ी तसल्ली से मरम्मत की तब जाकर मेरा गुस्सा थोड़ा शांत हुआ। फिर मैंने उनके अधनंगे शरीरों से उनके बाकी कपड़ों को खींच खांच कर अलग कर दिया। इस क्रम में उनके शर्ट फट गये लेकिन मैं ने परवाह नहीं की। उन्हें पूरी तरह से नंगा कर के अपना मोबाईल निकाल कर अलग अलग कोणों से फोटो लेने लगी। अब जाकर मुझे पूरी तसल्ली हुई। अब मैं जल्दी जल्दी बिना पैंटी के ही अपना स्कर्ट उठा कर पहनने लगी। फिर मैं जल्दी से बिना ब्रा के ही ब्लाऊज पहनी। इस दौरान वे कमीने वहां जमीन पर पड़े पड़े दर्द से कराहते रहे और हाय हाय करते रहे। कोई भी इस काबिल नहीं बचा था कि मुझे किसी तरह रोकने की कोशिश करता। अब मैं बड़े आराम से हाथ झाड़ती हुई वहां से निकलने को तैयार हो गई। फिर मैंने रफीक का मोबाइल उठा लिया जो इस आपाधापी में वहीं गिर गया था। मैंने उस मोबाइल में बहुत सी लड़कियों के नग्न और अश्लील फोटो और संभोगरत वीडियो को देखा तो मेरा पारा और चढ़ गया। मैं उसके मोबाइल को अपने कब्जे में लेकर फिर से रफीक की अच्छी खासी धुनाई कर दी। उसका दाहिना हाथ शायद टूट चुका था जिसे पकड़ कर दर्द से कराह रहा था।
"साले मादरचोद, फोटो और वीडियो बनाकर तुमलोग लड़कियों को ब्लैकमेल करते हो ना? अब तुम सब देखना मैं तुम लोगों का क्या हश्र करती हूं। कल जब कॉलेज के सारे लोग तुम पर थूकेंगे तब तुम लोगों को समझ में आएगा कि तुम लोगों का पाला किससे पड़ा था।" कहकर मैं उन्हें हक्के-बक्के उसी तरह छोड़ कर बाहर निकल ही रही थी कि पीछे से रघु की गिड़गिड़ाने की आवाज आई। मेरे पांव जहां के तहां जम गये।
"मुझे माफ कर दो बिटिया। मैं बाल बच्चों वाला हूं। मेरी नौकरी चली जाएगी। मेरी मति मारी गयी थी कि मैं इन लोगों के चक्कर में फंस गया था। प्लीज़ मुझे माफ कर दो।" वह रोने लगा था। मुझे उस पर दया आ गई।
"बाल बच्चों की इतनी ही फिक्र थी तो इन कमीनों की संगति में यह कुकर्म क्यों कर रहे थे। मालूम भी है कि इसके चलते कितनी लड़कियों की जिंदगी नर्क बन गई है?" मैं चीख कर बोली।
"मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी बेटी। मैं कान पकड़ता हूं कि आज से ही ऐसा गंदा काम नहीं करूंगा। तुम जो सजा देना है दे दो लेकिन कॉलेज के मैनेजमेंट के सामने मेरी शिकायत मत करना, नहीं तो मेरा पूरा परिवार बर्बाद हो जाएगा।" वह हाथ जोड़कर रोते हुए बोला। मैं सचमुच द्रवित हो उठी।
"सजा तो दूंगी लेकिन तुम्हारी नौकरी नहीं जाने दूंगी। तुम चलो मेरे साथ।" कहकर मैं उसे सहारा देकर उठाने लगी। उसके हाथ पांव सही सलामत थे क्योंकि मैंने डंडा चलाते समय इस बात का खास ख्याल रखा था कि चोट तो उसे अच्छी तरह लगे और दर्द का अहसास भी हो लेकिन उसका कोई अंग भंग न हो। इसका कारण तो आपलोग समझ ही रहे होंगे। मैं उसकी पैंट शर्ट उसकी तरफ उछाल कर बोली, "जल्दी से पहन लो और मेरे साथ चलो। इन कमीनों को पड़े रहने दो।"
रघु उठा लेकिन ठीक से खड़ा नहीं हो पा रहा था। मैं आगे बढ़कर उसे सहायता करने लगी। इसी क्रम में मैंने उसके लंड को कई बार छू लिया। उसके लंड को स्पर्श करना मेरे अंतर्मन को आंदोलित कर रहा था। यह सब करते हुए मैं ऐसा दिखा रही थी जैसे यह अनचाहे और अनजाने में हो रहा हो। सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह थी कि वह दर्द से ठीक से खड़ा नहीं हो पा रहा था लेकिन मेरे हाथ का स्पर्श ज्यों ज्यों उसके लंड पर हो रहा था, उसका लंड खड़ा होता जा रहा था। हद तो तब हो गई जब उसके पैंट की चेन लगाना मुश्किल हो गया था क्योंकि उसका लंड पूरी तरह खड़ा हो कर सख्त हो चुका था।
"बेशरम , यह क्या हो रहा है? तेरी गर्मी अभी तक उतरी नहीं?" मैं बनावटी गुस्से से लाल पीली होती हुई बोली।
"अब क्या करूं? कंट्रोल नहीं होता है।" वह झेंप कर बोला।
"कंट्रोल नहीं होता है सूअर कहीं का।" मैं झिड़कती हुई बोली लेकिन मेरी आवाज कांप रही थी। बड़ी मुश्किल से उसका लंड पकड़ कर उसकी पैंट के अंदर डाल पाई। क्या आप लोग अंदाजा लगा सकते हैं कि उस समय मेरी हालत क्या हो रही थी होगी? मैं उत्तेजित हुई जा रही थी लेकिन बमुश्किल खुद को कंट्रोल कर पा रही थी। कपड़े पहन कर जब वह किसी तरह तैयार हुआ तो उसके दाएं हाथ को अपने कंधे पर रख कर मैं सहारा देते हुए उसे लेकर बाहर निकली। वह लंगड़ा कर चल रहा था और मैं उसके हाथ को मेरे कंधे पर लेकर ऐसे सहारा दे रही थी कि उसका हाथ बिना ब्रा वाली मेरी चूची पर पहुंच गया था। मैं उसके हाथ को जोर से पकड़ कर अपनी दाईं चूची पर रखी हुई थी और उसी तरह मैं उसे गेट तक ले कर आई। इस छोटे से सफर में ही मेरे तन में वासना की ज्वाला भड़क उठी थी। उसका हाल क्या था यह तो वही जाने।
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यह सारी घटना मात्र दस पंद्रह मिनट के अंदर हो गई थी। मेरा हुलिया जरा अस्त व्यस्त सा हो गया था लेकिन मैं उस पर ज्यादा ध्यान देना जरूरी नहीं समझी। उसे गेट पर छोड़ कर निकलते हुए मैं बोली,
"तुम्हें तो छोड़ रही हूं लेकिन उन कमीनों को छोड़ूंगी नहीं। हां, अगर जरूरत पड़ी तो मेरी ओर से गवाही देने के लिए तैयार रहना नहीं तो तुम जानते हो कि मैं क्या कर सकती हूं।" मैं उससे चेतावनी भरे लहजे में बोली।
"जी बिटिया, समझ गया।" वह इतना ही बोल कर कृतज्ञता भरी (और हसरत भरी) दृष्टि से मुझे देखने लगा।
"और हां, यह बिटिया बिटिया कहने का ढोंग मत करो। यह शब्द तुम्हारे मुंह से बड़ा खोखला लग रहा है। क्या तुम्हें पता है कि मैं तुम्हें क्यों माफ कर रही हूं?'" मैं वहां से जाने से पहले बोली।
"नहीं।" वह प्रश्नवाचक निगाहों से मुझे देखते हुए बोला।
"पहली बात, कि तुम बाल बच्चों वाले हो और तुम्हारी नौकरी का सवाल है। दूसरी बात, तुम्हारा पपलू मुझे भा गया है।" मैं शर्म से लाल होती हुई बोली।
"थैंक्यू बिटिया।"
"फिर बिटिया बोले तो सचमुच तुम भी इनके साथ फंस जाओगे।"
"ओह सॉरी मैडम जी।" अब वह आश्वस्त हुआ और हल्का सा मुस्कुरा उठा।
"गुड। तो अब मैं चलती हूं और मेरी बातों का ख्याल रखना।"
"जी मैडम जी, बहुत मेहरबानी है आपकी। कभी भी मेरी 'जरूरत' हो तो याद कीजिएगा, यह बंदा आपकी खिदमत में हाजिर हो जाएगा।" वह कृतज्ञ और हसरत भरी निगाहों से मुझे देखते हुए बोला। मैं भी एक चित्ताकर्षक दृष्टि से उसे देखते हुए वहां से रुखसत हुई।
यहां मेरे साथ बहुत कुछ हो चुका था। जो कुछ भी हुआ था उससे मेरे अंदर आग सी लगी हुई थी। कई चरणों में मेरे अंदर की कामुकता बढ़ती चली गई थी। एक तो इन कमीनों ने मेरे शरीर के साथ जो कुछ किया था उसके कारण। अभी भी मेरे स्तनों पर विशाल के हाथों का दबाव महसूस हो रहा था जिससे मेरे अंदर अजीब सा नशा सा छाया हुआ था। मुझे गुस्सा होना चाहिए था कि उन्होंने मेरी नंगी चूत का दर्शन भी कर लिया लेकिन गुस्सा और शर्मिंदगी के साथ ही साथ यह सोच कर सनसना रही थी कि इन गलीज लड़कों ने मेरी नंगी चूत का दीदार कर लिया था। दीदार तो दीदार, कमीना रफीक की उंगलियों का स्पर्श अब भी मेरी चूत पर महसूस हो रहा था। मेरी हालत बड़ी अजीब हो रही थी। मेरे शरीर के साथ इन कमीनों ने जो छेड़ छाड़ की थी, उसके कारण मेरा मन गुस्से से भरा हुआ था लेकिन तन में वासना की अदम्य आग भड़क उठी थी। दूसरा, रघु के लंड का दर्शन। गजब का लंड था उसका। सिर्फ दर्शन ही नहीं हुआ बल्कि मैं कमीनी तो उसके लंड को छू कर और पकड़ कर महसूस भी कर चुकी थी। एक अजीब सी हलचल मची हुई थी मेरे अंदर। तीसरा, मेरी चूची पर रघु के हाथ का स्पर्श, जो उसे गेट तक लाने के दौरान मैंने जानबूझ कर अपनी चूची पर दबा रखा था। इन सभी चीजों के कारण एक अजीब तरह की मनःस्थिति के साथ अस्त व्यस्त हालत में मैं गेट से बाहर निकली तो सामने ही हमारी कार मुझे खड़ी मिली। कार के सामने पहुंच कर मैंने देखा कि ड्राईवर घनश्याम, जो कि करीब पचपन साल का अधेड़ था, मुझे घूर कर देख रहा था। मैं समझ गई कि मेरा हुलिया मेरे साथ हुई कुछ न कुछ अनहोनी की चुगली कर रहा है।
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"क्या बात है बिटिया, आज देर कर दी निकलने में?" उसने पूछा। पूछना तो शायद कुछ और भी चाहता था होगा लेकिन पूछा नहीं।
"कुछ नहीं, बस ऐसे ही एक छोटा सा काम था इसलिए जरा सी देर हो गई। चलिए।" मैं कार की पिछली सीट पर बैठते हुए बोली। अचानक मेरी नज़र कार के रीयर व्यू वाले आईने पर पड़ी तो मैंने पाया कि घनश्याम मुझे घूर रहा था। मैं समझ गई कि मेरे अस्त व्यस्त बाल और मेरे चेहरे पर उभर आई लालिमा पर उसकी पैनी नजर गड़ी हुई थी। मुझे उस वक्त इस बात का भी पता नहीं था कि मेरी चूचियां दबाने के चक्कर में विशाल के हाथों मेरे टॉप का ऊपरी बटन टूट चुका था और उसके कारण सामने से मेरे स्तनों का काफी हिस्सा दिखाई पड़ रहा था और स्तनों के बीच की गहरी घाटी भी दिखाई दे रही थी। उसकी नजरों में जो सवाल तैर रहा था उसे नजर अंदाज करके लापरवाह होने का दिखावा करने लगी लेकिन पता नहीं क्या हुआ मुझे और अचानक ही मेरा दिल मचल उठा। जी हां, उस ड्राइवर के लिए। पता नहीं वह बार-बार मुझे इस तरह क्यों देख रहा था लेकिन मेरी जो मनःस्थिति इस वक्त थी, उसमें मुझे और कुछ सूझ नहीं रहा था। मुझे तो बस इस वक्त एक ऐसे मर्द की जरूरत थी जो मेरे अंदर सुलग रही अग्नि को शांत कर सके। सोच रही थी कि काश यह घनश्याम इस वक्त किसी सुनसान जगह में कार लेकर मुझे दबोच ले और मेरे अंदर जो आग भड़क उठी है उसे अपनी मर्दानगी से बुझा दे। पता नहीं उसके मन में क्या चल रहा था लेकिन मेरे मन में तो बस यही चल रहा था।
मैं आज तक इसे मात्र एक ड्राईवर की तरह देखती थी। हां यह अलग बात है कि इसके साथ हम परिवार के सदस्य की तरह ही व्यवहार करते थे। मैं इन्हें घनश्याम चाचा कहती थी लेकिन घर के अंदरूनी मामलों से दूर ही रखते थे। इसे महीने महीने बीस हजार पेमेंट दिया करते थे। ये हमारे लिए बड़े ही समर्पित , विश्वसनीय और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति थे। ये भी मुझे बचपन से बिटिया बिटिया कहा करते थे लेकिन आज मैं इन्हें अलग ही नजर से देख रही थी। अभी मेरी नज़र में ये मात्र एक ऐसे मर्द थे जो इस वक्त मेरी नारी देह की जिस्मानी जरूरत को पूरी करने में मददगार हो सकते थे। पचास पचपन की उम्र में ये अच्छी खासी देहयष्टि के मालिक थे। कद करीब पांच फुट दस इंच होगा और शारीरिक रूप से अच्छे खासे हट्ठे कट्ठे थे। रंग थोड़ा सांवला था और इनके बाल भी आधे से ज्यादा पक चुके थे। ऐसे गौर से मैंने इन पर कभी ध्यान नहीं दिया था लेकिन अभी की बात कुछ और थी। इन पर मेरी नीयत खराब हो रही थी और इनके साथ जिस्मानी संबंध बनाने के लिए तन मन में एक अजीब सी ख्वाहिश जाग उठी थी। हालांकि यह परिस्थिति जन्य एक तत्कालिक ख्वाहिश थी लेकिन मन में चाहत का जन्म हो चुका था तो हो चुका था। जैसे जैसे रास्ता तय हो रहा था वैसे वैसे यह चाहत भी बढ़ती जा रही थी जिसे काबू में रखना मुझे बड़ा मुश्किल हो रहा था लेकिन करूं तो क्या करूं और कैसे करूं। पता नहीं ये मेरे बारे में क्या सोचते हैं। अब उसे क्या पता था कि घर के अंदर मेरी मां और मैं घुसा के साथ क्या गुल खिला रहे हैं। उसकी नजरों में तो मैं अब भी नादान और शरीफ बालिका ही थी। कहीं वासना के वशीभूत मेरी किसी प्रकार की पहल का प्रतिकूल परिणाम तो नहीं आ जाएगा? कहीं मेरे प्रति उसकी धारणा एकाएक धराशाई हो गयी और उसकी नजरों में गिर गई तो मेरी बड़ी फजीहत हो जाएगी। तो क्या करूं? अपने मन की इच्छा को उसके सामने किस तरह प्रकट करूं कि उसे बुरा भी नहीं लगे और मेरी मनोकामना भी पूर्ण हो जाए। इसी उधेड़बुन में उलझी हुई थी।
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अब मेरे दिमाग में एक शैतानी योजना ने जन्म लिया।मेरे टॉप का ऊपरी बटन तो टूट चुका था, मैं थोड़ी झुक कर उसकी नजर बचाकर दूसरा बटन भी खोलने में कामयाब हो गयी। अब मैं ऐसे बैठी थी जैसे इन सब बातों से अनजान हूं कि मेरे उन्नत वक्ष स्पष्ट रूप से मेरी ब्लाऊज से छलक कर बाहर आने को तैयार हैं। मैं इस तरह बैठी थी कि मेरा आकर्षक 'सामान' घनश्याम को बहुत अच्छी तरह से दिखाई दे सके। यही हुआ भी। अब उसकी नजरें मेरे चेहरे से फिसल कर मेरे सीने की ओर बार बार जा रही थीं। मैं जानबूझकर उसके चेहरे को सीधी आंखों से नहीं, बल्कि चोरी चोरी देख रही थी। मैं जानती थी कि जैसे ही हमारी नजरें मिलेंगी, सारा खेल खत्म हो जाएगा। तभी मैंने महसूस किया कि वह दाएं हाथ से स्टीयरिंग पकड़ कर बाएं हाथ को अपनी गोद में ले गया। कार अपनी रफ़्तार से बढ़ रही थी और उसके बाएं हाथ में जो हरकत हो रही थी उससे साफ साफ पता चल रहा था कि उसका बायां हाथ पैंट के ऊपर से ही लंड को सहला रहा था। मैं रोमांचित हो उठी। पीछे सीट पर बैठ कर जो कुछ मैं देख रही थी उससे मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा। मेरी योजना सफल हो रही थी। मैं चोरी चोरी देख रही थी कि उसका चेहरा लाल हो उठा था और माथे पर पसीने की हल्की बूंदें आ चुकी थीं। निश्चय ही वह उत्तेजित हो चुका था। वह समझ रहा था कि उसकी मनोदशा से मैं अनभिज्ञ हूं लेकिन वह गलतफहमी में था। मैं सबकुछ समझ रही थी। उसके मन में जो कुछ चल रहा था उसे वह मेरे सामने व्यक्त भी तो नहीं कर सकता था। मैं लोहा गरम करने में सफल हो चुकी थी, बस एक हथौड़ा चलाने की देर थी।
"घनश्याम चाचा, जरा कार रोकिए तो, मैं भी सामने की सीट पर बैठूंगी।" मैं अचानक बोली।
"क्यों ?" वह कार रोक कर बोला।
"पीछे सीट पर ए सी की ठंढक नहीं मिल रही है।" मैं बोली और सामने की सीट पर आ बैठी। मैं बैक रेस्ट को थोड़ा और पीछे करके अधलेटी हो कर बैठ गई थी। मैं जानबूझकर अपनी स्कर्ट को बेध्यानी का ढोंग करती हुई थोड़ा और पीछे की ओर खिसका कर बैठ गई थी ताकि मेरी चिकनी जांघें ज्यादा से ज्यादा दिखाई दें। मैंने तिरछी नजरों से देखा कि मेरी अर्धनग्न जांघों ने उसे आकर्षित कर लिया था। मैं अधलेटी अपनी आंखें बंद करके लापरवाही से ऐसी बैठी थी कि मेरी छाती भी सामने से खुली हुई थी जिससे मेरी चूचियां साफ़ साफ़ दिखाई दे रही थीं। चूंकि मैं अपनी ब्रा को वहीं लेबोरेट्री में छोड़ आई थी इसलिए मेरी चूचियां ब्लाऊज़ के अंदर बिल्कुल नंगी थीं और अब ब्लाऊज का सामने का हिस्सा खुला होने के कारण स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही थीं। मैं अधमुंदी आंखों से देख रही थी कि घनश्याम बार बार तिरछी नजरों से कभी मेरी जांघों को तो कभी मेरी चूचियों को देखे जा रहा था। मैं उसकी जांघों के बीच देखी तो यह देख कर हैरान रह गई कि उसकी पैंट के अगले स्थान में बहुत बड़ा सा उभार पैदा हो चुका था। मैं मन ही मन प्रसन्न हो उठी की मेरा प्रयास व्यर्थ नहीं गया था। अभी मैं सोच ही रही थी कि अगला कदम मैं कैसे बढ़ाऊंगी कि बदकिस्मती से घर ही पहुंच गये। हम अपने अपने मन की कामनाओं को व्यक्त करने के बारे में सोचने में ही इतना वक्त जाया कर चुके थे कि मौका हाथ से निकल गया था। उधर घनश्याम और इधर मैं मन ही मन झुंझला उठे।
जैसे ही कार रुकी, मेरी तंद्रा भंग हुई। मैं खुद को कोसती हुई कार से उतरी और बड़ी हसरत भरी निगाहों से घनश्याम को एक नजर देखी। बेचारा घनश्याम, वह भी कितनी हसरत भरी निगाहों से मुझे देख रहा था। खैर एक बात तो तय हो गई थी कि घनश्याम के मन में भी मेरे लिए एक 'खास तरह' की चाहत तो पैदा हो चुकी थी। यही तो मैं चाहती थी लेकिन इस वक्त तो हम अपनी अपनी चाहतों का इजहार करने का मौका गंवा चुके थे। भविष्य के गर्भ में क्या था यह तो ऊपर वाला ही बेहतर जानता था।
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ab dekhte hai hamari roj ko
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"थैंक्स अंकल।" कहकर मैं मुड़ने ही वाली थी कि घनश्याम की लरजती हुई आवाज आई,
"रोज बिटिया, एक बात थी....." बोल कर वह चुप हो गया।
"हां हां बोलिए" मै धड़कते हृदय से बोली।
"क क क कुछ नहीं....." वह इतना ही बोल कर चुप हो गया। बेचारा, बोल कर अपनी मनोदशा को व्यक्त भी नहीं कर पा रहा था।
"बोलिए ना, क्या बात है?" मैं सुनने को बेताब थी।
"बाद में बोलूंगा।" कहकर वह चुप हो गया और कार को पार्क करने के लिए कार को आगे बढ़ाने ही वाला था कि मेरे मुंह से निकला,
"हाय राम, यह मेरे ब्लाऊज का बटन कब टूट कर गिर गया?" मैं बनावटी हैरानी के साथ बोली और बोलने के क्रम में अपने ब्लाऊज को सामने की ओर और ज्यादा खोल कर बेध्यानी का ढोंग करती हुई इस तरह अपने शरीर का पोज बनाई जिससे मेरी उन्नत चूचियों का पूरा दर्शन घनश्याम को हो जाए। सचमुच यह लोमहर्षक दृष्य देख कर घनश्याम की आंखें तो फटी की फटी रह गईं। मैं समझ गई कि तीर निशाने पर लग गया है। उफ, क्या बीती होगी मेरी मदमस्त बड़ी बड़ी चूचियों को देख कर घनश्याम के दिल पर, यह कल्पना करना मुश्किल नहीं था। घनश्याम की हसरत को हवा देकर उसे हतप्रभ हालत में छोड़कर मैं फुर्ती से अपनी छाती ढंकती हुई घर के दरवाजे की ओर बढ़ गयी। उधर घनश्याम बुत बना मुझे जाती हुई पीछे से देखता रह गया।
इधर जैसे ही कॉल-बेल की आवाज आई कि पल भर बाद ही दरवाजा खुला और सामने घुसा खड़ा मिला। ऐसा लगा जैसे वह मेरा ही इन्तजार कर रहा हो। तभी पीछे से फिर से कार के बाहर जाने की आवाज आई। जा रहा होगा बेचारा घनश्याम कहीं, पर मुझे क्या, सामने मेरे तपते जिस्म को ठंढक प्रदान करने हेतु घुसा जो प्रस्तुत था।
"आज बहुत देर हो गई बिटिया?" प्रश्न दाग बैठा था घुसा। उसकी आवाज में मेरे देर होने के कारण परेशानी नहीं बल्कि मेरे इंतजार की बेकरारी स्पष्ट दिखाई पड़ रही थी। मैंने उत्तर में अपने ब्लाऊज के सामने का हिस्सा छोड़ दिया जिस कारण सामने से मेरी भरी पूरी चूचियां मचलती हुई दिखाई दे रही थीं।
"कुछ बोलने की जरूरत है मुझे?" मैं बोली।
"नहीं, कुछ नहीं। कुछ न बोलो बिटिया। सब कुछ समझ गये हम।" कहकर उसने मेरे दरवाजे के अंदर दाखिल होते ही मुझे दबोच लिया और बेहताशा चूमने लगा। मुझे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे तपती गर्मी में मुझपर शीतल जल की बौछार हो रही हो। इतनी देर से अपने अंदर जो ज्वाला धधक रही थी उसकी तपन कम हो रही हो।
"यहीं?" वह बेहताशा चूमते हुए बोला।
"हां यहीं।" मैं उसकी बांहों में समा कर उत्तेजना के मारे हांफती हुई बोली।
"तुम्हारी मां आ गई तो?" वह मुझे सावधान करने के मतलब से बोला।
"साले मादरचोद, देख नहीं रहे हो मेरी हालत? चुदने के लिए मरी जा रही हूं। भगवान इतना निर्दई नहीं है कि इस वक्त मां को यहां भेजेगा।" मैं बेताब हो कर अपने कपड़े उतारने लगी। आनन-फानन मैं स्कर्ट और पैंटी उतार कर कमर से नीचे नंगी हो गई। ब्लाऊज को पूरी तरह उतारने की जरूरत भी क्या थी। फिर भी उतार कर मादरजात नंगी हो गई। मेरी उतावली घुसा को पागल करने के लिए काफी थी। वह भी होश खो बैठा और आव देखा न ताव, उसने मेरे नंगे जिस्म के नाजुक अंगों से खेलना शुरू कर दिया।
"बहुत जोश में हो।" वह बोला।
"मां के लौड़े, होश की बात कर रहे हो? पागल हो रही हूं मैं। जल्दी निकाल अपने पपलू को बाहर।" मुझसे रहा नहीं जा रहा था। इससे पहले कि वह और कुछ करता, मैं खुद ही झपट कर उसके पैजामे के नाड़े को खोल कर पैजामा नीचे खिसका दिया। साला हरामी आज भी अंडरवियर नहीं पहना था। एकदम साफ था कि जैसे ही मैं पहुंचुंगी, वह मुझे चोदने के लिए झपटने को तैयार था। जैसे ही उसका पैजामा नीचे खिसका, उसका मस्ताना मूसल उछल कर सामने फुंफकार मारने लगा। मैं ने आव देखा न ताव, दोनों हाथों से उसके लंड को पकड़ कर मुंह में ले कर चूसने लगी।
"आह मेरी बिटिया रानी। चूस मेरा लौड़ा। ओह साली पगली कहीं की। बहुत बढ़िया चूस रही हो। आज तो पागल हो गई हो। इतना बढ़िया तो पहिले कभी चूसी नहीं थी। बाप रे बाप, पूरा लंड खा जाओगी क्या? बहुत बढ़िया।" घुसा मेरी बेताबी से चूसने से खुशी के मारे पागल हुआ जा रहा था। अब मैं उसका लंड हाथों से छोड़ कर उसकी कमर पकड़ कर अपनी ओर खींचती हुई चूस रही थी। वह भी अब मेरा सर पकड़ कर अपनी कमर चलाते हुए मेरा मुंह चोदने लगा था।
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