23-11-2023, 02:50 PM
सहेली के भाई ने दीदी की
कहानी उस समय की है, जब हम दोनों कॉलेज में पढ़ते थे. फर्क इतना था कि वो लड़कियों वाले कॉलेज में पढ़ती थी और मैं एक लड़कों वाले कॉलेज में था. हम दोनों का कॉलेज एक ही रास्ते पर पड़ता था. पहले दीदी का कॉलेज पड़ता था, उसके बाद मेरा.
श्वेता नाम की एक लड़की मेरी दीदी की अच्छी सहेली थी. वो हमारी पड़ोसन भी थी. वो दीदी के साथ एक ही क्लास में पढ़ती थी.
हम तीनों सुबह एक ही साथ कॉलेज के लिए निकलते थे. दीदी को कॉलेज छोड़ते हुए, मैं अपना कॉलेज चला जाता था.
एक दिन की बात है, मैं और दीदी श्वेता दीदी, हम तीनों कॉलेज से घर आ रहे थे. तभी रास्ते में कुछ लड़के मेरी दीदी को देख कर कमेंट करने लगे.
एक लड़के ने बोला- अरे यार क्या माल है … ये एक बार दे देगी, तो बहुत मजा आ जाएगा.
दूसरे लड़के ने कमेंट किया कि इसकी तो घोड़ी बनाकर लेने मजा आएगा.
हम लोगों ने उन लड़कों की बातों को सुन कर अनसुना कर दिया और हम लोग बिना कुछ बोले, आगे बढ़ गए.
इतने में एक लड़के ने जोर से बोला- चलेगी क्या?
मेरी दीदी बहुत शर्मीली टाईप की है, इसलिए वो कुछ नहीं बोली, पर श्वेता दीदी से नहीं रहा गया. वह वहीं रुक कर कर उन लड़कों को गाली देने लगी. इतने में श्वेता दीदी का एक मौसेरे बड़े भाई साकेत, जो श्वेता दीदी के यहां ही रहते हैं, वो वहां आ गए.
साकेत भैया अभी कुछ दिन पहले ही यहां अपनी पढ़ाई करने आए थे.
उन्होंने श्वेता दीदी से पूछा- क्या हुआ?
श्वेता- भैया, ये लड़के प्रिया को छेड़ रहे हैं.
साकेत भैया उन लड़कों के पास गए और उनसे झगड़ा करने लगे. मामला बढ़ता देख कर वे लड़के वहां से भाग गए.
फिर हम चारों लोग वहां से चलने लगे. इस बीच श्वेता दीदी ने साकेत भैया से हम लोगों का परिचय कराया.
कुछ दूर चलने के बाद रास्ते में एक गुपचुप का ठेला दिखा, तो साकेत भैया बोले कि चलो गुपचुप खाते हैं.
मेरी दीदी बोली- नहीं मैं नहीं खाऊंगी. मुझे जल्दी घर जाना है … आज वैसे ही बहुत देरी हो गई … मेरी मम्मी डांटेंगी.
साकेत- अरे चलो ना … ज्यादा समय नहीं लगेगा.
मेरी प्रिया दीदी बोली- नहीं, श्वेता चलो.
श्वेता- चलो ना प्रिया … मैं तुम्हारी मम्मी से बात कर लूंगी.
मैं- हां दीदी, चलो ना.
फिर दीदी मान गई. हम लोग गुपचुप खाने लगे. तभी मैंने नोटिस किया कि साकेत भैया दीदी की चूचियों को बड़ी गौर से घूर रहे थे. उन्होंने एक दो बार तो अपना हाथ भी मेरी दीदी की गांड पर टच कर दिया था.
शायद मेरी दीदी को इस बात का अहसास भी हो गया था, जिसके कारण दीदी थोड़ा असहज भी महसूस करने लगी थी. वो वहां से थोड़ा दूर हट गई. फिर गोलगप्पे खाने के बाद हम लोग घर की तरफ चल दिए.
लेकिन अब ये एक नया रूटीन हो गया था कि लगभग हर रोज साकेत भैया कॉलेज में छुट्टी के बाद हम लोग के साथ ही आते थे. वैसे तो वो उम्र में काफी बड़े थे. उस समय वो लगभग 28 साल के रहे होंगे. पर वो शायद हमारी दीदी को पसंद करने लगे थे. मुझे ये बात बहुत दिन बाद जाकर पता चली थी. उस समय मुझे इन सब बातों का इतना ज्ञान नहीं था.
उसी दिन जब हम दोनों अपने घर आए, तो मैं दीदी से ये पूछ लिया- वो लड़का आपसे क्या मांग रहा था?
दीदी- कौन लड़का और कब?
मैं- वही, जिससे कॉलेज से आते समय झगड़ा हुआ था.
दीदी- नहीं तो … उसने कहां कुछ मांगा था.
मैं- वो बोल रहा था ना … ये देगी तो घोड़ी बनाकर लेंगे … वो ऐसा कुछ नहीं बोल रहा था?
दीदी कुछ नहीं बोली … और चली गई.
पर मुझे ये जानने की बहुत जिज्ञासा हो रही थी कि वो मेरी से क्या मांग रहा था. पर मैं ये सब पूछता किससे, सो चुप रह गया. कुछ देर बाद श्वेता दीदी मेरे घर आई. मैंने उससे भी यही बात पूछी.
तब उसने बात घुमाते हुए कहा- अरे कुछ नहीं … नोट बुक मांग रहा था.
मैं तो उनकी बातें सुनकर चुप हो गया. पर मैं उनकी बातों से संतुष्ट नहीं हुआ था. वो इसलिए कि कोई नोट बुक के लिए क्यों लड़ेगा. और नोटबुक के घोड़ी बनाने को क्यों कहा.
कुछ दिनों तक ऐसे ही चलता रहा. फि
श्वेता नाम की एक लड़की मेरी दीदी की अच्छी सहेली थी. वो हमारी पड़ोसन भी थी. वो दीदी के साथ एक ही क्लास में पढ़ती थी.
हम तीनों सुबह एक ही साथ कॉलेज के लिए निकलते थे. दीदी को कॉलेज छोड़ते हुए, मैं अपना कॉलेज चला जाता था.
एक दिन की बात है, मैं और दीदी श्वेता दीदी, हम तीनों कॉलेज से घर आ रहे थे. तभी रास्ते में कुछ लड़के मेरी दीदी को देख कर कमेंट करने लगे.
एक लड़के ने बोला- अरे यार क्या माल है … ये एक बार दे देगी, तो बहुत मजा आ जाएगा.
दूसरे लड़के ने कमेंट किया कि इसकी तो घोड़ी बनाकर लेने मजा आएगा.
हम लोगों ने उन लड़कों की बातों को सुन कर अनसुना कर दिया और हम लोग बिना कुछ बोले, आगे बढ़ गए.
इतने में एक लड़के ने जोर से बोला- चलेगी क्या?
मेरी दीदी बहुत शर्मीली टाईप की है, इसलिए वो कुछ नहीं बोली, पर श्वेता दीदी से नहीं रहा गया. वह वहीं रुक कर कर उन लड़कों को गाली देने लगी. इतने में श्वेता दीदी का एक मौसेरे बड़े भाई साकेत, जो श्वेता दीदी के यहां ही रहते हैं, वो वहां आ गए.
साकेत भैया अभी कुछ दिन पहले ही यहां अपनी पढ़ाई करने आए थे.
उन्होंने श्वेता दीदी से पूछा- क्या हुआ?
श्वेता- भैया, ये लड़के प्रिया को छेड़ रहे हैं.
साकेत भैया उन लड़कों के पास गए और उनसे झगड़ा करने लगे. मामला बढ़ता देख कर वे लड़के वहां से भाग गए.
फिर हम चारों लोग वहां से चलने लगे. इस बीच श्वेता दीदी ने साकेत भैया से हम लोगों का परिचय कराया.
कुछ दूर चलने के बाद रास्ते में एक गुपचुप का ठेला दिखा, तो साकेत भैया बोले कि चलो गुपचुप खाते हैं.
मेरी दीदी बोली- नहीं मैं नहीं खाऊंगी. मुझे जल्दी घर जाना है … आज वैसे ही बहुत देरी हो गई … मेरी मम्मी डांटेंगी.
साकेत- अरे चलो ना … ज्यादा समय नहीं लगेगा.
मेरी प्रिया दीदी बोली- नहीं, श्वेता चलो.
श्वेता- चलो ना प्रिया … मैं तुम्हारी मम्मी से बात कर लूंगी.
मैं- हां दीदी, चलो ना.
फिर दीदी मान गई. हम लोग गुपचुप खाने लगे. तभी मैंने नोटिस किया कि साकेत भैया दीदी की चूचियों को बड़ी गौर से घूर रहे थे. उन्होंने एक दो बार तो अपना हाथ भी मेरी दीदी की गांड पर टच कर दिया था.
शायद मेरी दीदी को इस बात का अहसास भी हो गया था, जिसके कारण दीदी थोड़ा असहज भी महसूस करने लगी थी. वो वहां से थोड़ा दूर हट गई. फिर गोलगप्पे खाने के बाद हम लोग घर की तरफ चल दिए.
लेकिन अब ये एक नया रूटीन हो गया था कि लगभग हर रोज साकेत भैया कॉलेज में छुट्टी के बाद हम लोग के साथ ही आते थे. वैसे तो वो उम्र में काफी बड़े थे. उस समय वो लगभग 28 साल के रहे होंगे. पर वो शायद हमारी दीदी को पसंद करने लगे थे. मुझे ये बात बहुत दिन बाद जाकर पता चली थी. उस समय मुझे इन सब बातों का इतना ज्ञान नहीं था.
उसी दिन जब हम दोनों अपने घर आए, तो मैं दीदी से ये पूछ लिया- वो लड़का आपसे क्या मांग रहा था?
दीदी- कौन लड़का और कब?
मैं- वही, जिससे कॉलेज से आते समय झगड़ा हुआ था.
दीदी- नहीं तो … उसने कहां कुछ मांगा था.
मैं- वो बोल रहा था ना … ये देगी तो घोड़ी बनाकर लेंगे … वो ऐसा कुछ नहीं बोल रहा था?
दीदी कुछ नहीं बोली … और चली गई.
पर मुझे ये जानने की बहुत जिज्ञासा हो रही थी कि वो मेरी से क्या मांग रहा था. पर मैं ये सब पूछता किससे, सो चुप रह गया. कुछ देर बाद श्वेता दीदी मेरे घर आई. मैंने उससे भी यही बात पूछी.
तब उसने बात घुमाते हुए कहा- अरे कुछ नहीं … नोट बुक मांग रहा था.
मैं तो उनकी बातें सुनकर चुप हो गया. पर मैं उनकी बातों से संतुष्ट नहीं हुआ था. वो इसलिए कि कोई नोट बुक के लिए क्यों लड़ेगा. और नोटबुक के घोड़ी बनाने को क्यों कहा.
कुछ दिनों तक ऐसे ही चलता रहा. फि
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.