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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
बयान - 20

महाराज जयसिंह और सुरेंद्रसिंह के पूछने पर सिद्धनाथ बाबा ने इस दिलचस्प पहाड़ी और कुमारी चंद्रकांता का हाल कहना शुरू किया।

बाबा जी – ‘मुझे मालूम था कि यह पहाड़ी एक छोटा-सा तिलिस्म है और चुनारगढ़ के इलाके में भी कोई तिलिस्म है। जिसके हाथ से वह तिलिस्म टूटेगा उसकी शादी जिसके साथ होगी उसी के दहेज के सामान पर यह तिलिस्म बँधा है और शादी होने के पहले ही वह इसकी मालिक होगी।’

सुरेंद्र – ‘पहले यह बताइए कि तिलिस्म किसे कहते हैं और वह कैसे बनाया जाता है?’

बाबा जी – ‘तिलिस्म वही शख्स तैयार कराता है जिसके पास बहुत माल-खजाना हो और वारिस न हो। तब वह अच्छे-अच्छे ज्योतिषी और नजूमियों से दरियाफ्त करता है कि उसके या उसके भाइयों के खानदान में कभी कोई प्रतापी या लायक पैदा होगा या नहीं? आखिर ज्योतिषी या नजूमी इस बात का पता देते हैं कि इतने दिनों के बाद आपके खानदान में एक लड़का प्रतापी होगा, बल्कि उसकी एक जन्म-पत्री लिख कर तैयार कर देते हैं। उसी के नाम से खजाना और अच्छी-अच्छी कीमती चीजों को रख कर उस पर तिलिस्म बाँधते हैं।

आजकल तो तिलिस्म बाँधने का यह कायदा है कि थोड़ा-बहुत खजाना रख कर उसकी हिफाजत के लिए दो-एक बलि दे देते हैं, वह प्रेत या साँप हो कर उसकी हिफाजत करता है और कहे हुए आदमी के सिवाय दूसरे को एक पैसा लेने नहीं देता, मगर पहले यह कायदा नहीं था। पुराने जमाने के राजाओं को जब तिलिस्म बाँधने की जरूरत पड़ती थी तो बड़े-बड़े ज्योतिषी, नजूमी, वैद्य, कारीगर और तांत्रिक लोग इकट्ठे किए जाते थे। उन्हीं लोगों के कहे मुताबिक तिलिस्म बाँधने के लिए जमीन खोदी जाती थी, उसी जमीन के अंदर खजाना रख कर ऊपर तिलिस्मी इमारत बनाई जाती थी। उसमें ज्योतिषी, नजूमी, वैद्य, कारीगर और तांत्रिक लोग अपनी ताकत के मुताबिक उसके छिपाने की बंदिश करते थे मगर साथ ही इसके उस आदमी के नक्षत्र और ग्रहों का भी ख्याल रखते थे जिसके लिए वह खजाना रखा जाता था। कुँवर वीरेंद्रसिंह ने एक छोटा-सा तिलिस्म तोड़ा है, उनकी जुबानी आप वहाँ का हाल सुनिए और हर एक बात को खूब गौर से सोचिए तो आप ही मालूम हो जाएगा कि ज्योतिषी, नजूमी, कारीगर और दर्शन-शास्त्र के जानने वाले क्या काम कर सकते थे।

जयसिंह – ‘खैर, इसका हाल कुछ-कुछ मालूम हो गया, बाकी कुमार की जुबानी तिलिस्म का हाल सुनने और गौर करने से मालूम हो जाएगा। अब आप इस पहाड़ी और मेरी लड़की का हाल कहिए और यह भी कहिए कि महाराज शिवदत्त इस खोह से क्यों कर निकल भागे और फिर क्यों कर कैद हो गए?’

बाबा जी – ‘सुनिए मैं बिल्कुल हाल आपसे कहता हूँ। जब कुमारी चंद्रकांता चुनारगढ़ के तिलिस्म में फँस कर इस खोह में आईं तो दो दिनों तक तो इस बेचारी ने तकलीफ से काटे। तीसरे रोज खबर लगने पर मैं यहाँ पहुँचा और कुमारी को उस जगह से छुड़ाया जहाँ वह फँसी हुई थी और जिसको मैं आप लोगों को दिखाऊँगा।’

सुरेंद्र – ‘सुनते हैं तिलिस्म तोड़ने में ताकत की भी जरूरत पड़ती है?’

बाबा जी – ‘यह ठीक है, मगर इस तिलिस्म में कुमारी को कुछ भी तकलीफ न हुई और न ताकत की जरूरत पड़ी, क्योंकि इसका लगाव उस तिलिस्म से था, जिसे कुमार ने तोड़ा है। वह तिलिस्म या उसके कुछ हिस्से अगर न टूटते तो यह तिलिस्म भी न खुलता।’

कुमार - (सिद्धनाथ की तरफ देख कर) ‘आपने यह तो कहा ही नहीं कि कुमारी के पास किस राह से पहुँचे? हम लोग जब इस खोह में आए थे और कुमारी को बेबस देखा था, तब बहुत सोचने पर भी कोई तरकीब ऐसी न मिली थी जिससे कुमारी के पास पहुँच कर इन्हें उस बला से छुड़ाते।’

बाबा जी – ‘सिर्फ सोचने से तिलिस्म का हाल नहीं मालूम हो सकता है। मैं भी सुन चुका था कि इस खोह में कुमारी चंद्रकांता फँसी पड़ी है और आप छुड़ाने की फिक्र कर रहे हैं मगर कुछ बन नहीं पड़ता। मैं यहाँ पहुँच कर कुमारी को छुड़ा सकता था लेकिन यह मुझे मंजूर न था, मैं चाहता था कि यहाँ का माल-असबाब कुमारी के हाथ लगे।’

कुमार - ‘आप योगी हैं, योगबल से इस जगह पहुँच सकते हैं, मगर मैं क्या कर सकता था।’

बाबा जी – ‘आप लोग इस बात को बिल्कुल मत सोचिए कि मैं योगी हूँ, जो काम आदमी के या ऐयारों के किए नहीं हो सकता उसे मैं भी नहीं कर सकता। मैं जिस राह से कुमारी के पास पहुँचा और जो-जो किया सो कहता हूँ, सुनिए।’
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बयान - 21

सिद्धनाथ योगी ने कहा - ‘पहले इस खोह का दरवाजा खोल मैं इसके अंदर पहुँचा और पहाड़ी के ऊपर एक दर्रे में बेचारी चंद्रकांता को बेबस पड़े हुए देखा। अपने गुरु से मैं सुन चुका था कि इस खोह में कई छोटे-छोटे बाग हैं जिनका रास्ता उस चश्मे में से है जो खोह में बह रहा है, खोह के अंदर आने पर आप लोगों ने उसे जरूर देखा होगा, क्योंकि खो में उस चश्मे की खूबसूरती भी देखने के काबिल है।’

सिद्धनाथ की इतनी बात सुन कर सभी ने ‘हूँ-हाँ’ कह के सिर हिलाया। इसके बाद सिद्धनाथ योगी कहने लगे – ‘मैं लंगोटी बाँध कर चश्मे में उतर गया और इधर से उधर और उधर से इधर घूमने लगा। यकायक पूरब तरफ जल के अंदर एक छोटा-सा दरवाजा मालूम हुआ, गोता लगा कर उसके अंदर घुसा। आठ-दस हाथ तक बराबर जल मिला इसके बाद धीरे-धीरे जल कम होने लगा, यहाँ तक कि कमर तक जल हुआ। तब मालूम पड़ा कि यह कोई सुरंग है जिसमें चढ़ाई के तौर पर ऊँचे की तरफ चला जा रहा हूँ।

आधा घंटा चलने के बाद मैंने अपने को इस बाग में (जिसमें आप बैठे हैं) पश्चिम और उत्तर के कोण में पाया और घूमता-फिरता इस कमरे में पहुँचा, (हाथ से इशारा करके) यह देखिए दीवार में जो अलमारी है, असल में वह अलमारी नहीं दरवाजा है, लात मारने से खुल जाता है। मैंने लात मार कर यह दरवाजा खोला और इसके अंदर घुसा। भीतर बिल्कुल अंधकार था, लगभग दो सौ कदम जाने के बाद दीवार मिली। इसी तरह यहाँ भी लात मार कर दरवाजा खोला और ठीक उसी जगह पहुँचा जहाँ कुमारी चंद्रकांता और चपला बेबस पड़ी रो रही थीं। मेरे बगल से ही एक दूसरा रास्ता उस चुनारगढ़ वाले तिलिस्म को गया था, जिसके एक टुकड़े को कुमार ने तोड़ा है।

मुझे देखते ही ये दोनों घबरा गईं। मैंने कहा – “तुम लोग डरो मत, मैं तुम दोनों को छुड़ाने आया हूँ।” यह कह कर जिस राह से मैं गया था, उसी राह से कुमारी चंद्रकांता और चपला को साथ ले इस बाग में लौट आया। इतना हाल, इतनी कैफियत, इतना रास्ता तो मैं जानता था, इससे ज्यादा इस खोह का हाल मुझे कुछ भी मालूम न था। कुमारी और चपला को खोह के बाहर कर देना या घर पहुँचा देना मेरे लिए कोई बड़ी बात न थी, मगर मुझको यह मंजूर था कि यह छोटा-सा तिलिस्म कुमारी के हाथ से टूटे और यहाँ का माल-असबाब इनके हाथ लगे।

मैं क्या सभी कोई इस बात को जानते होंगे और सबों को यकीन होगा कि कुमारी चंद्रकांता को इस कैद से छुड़ाने के लिए ही कुमार चुनारगढ़ वाले तिलिस्म को तोड़ रहे थे, माल-खजाने की इनको लालच न थी। अगर मैं कुमारी को यहाँ से निकाल कर आपके पास पहुँचा देता तो कुमार उस तिलिस्म को तोड़ना बंद कर देते और वहाँ का खजाना भी यों ही रह जाता। मैं आप लोगों की बढ़ती चाहने वाला हूँ। मुझे यह कब मंजूर हो सकता था कि इतना माल-असबाब बरबाद जाए और कुमार या कुमारी चंद्रकांता को न मिले।

मैंने अपने जी का हाल कुमारी और चपला से कहा और यह भी कहा कि अगर मेरी बात न मानोगी तो तुम्हें इसी बाग में छोड़ कर मैं चला जाऊँगा। आखिर लाचार हो कर कुमारी ने मेरी बात मंजूर की और कसम खाई कि मेरे कहने के खिलाफ कोई काम न करेगी।

मुझे यह तो मालूम ही न था कि यहाँ का माल-असबाब क्यों कर हाथ लगेगा, और इस खजाने की ताली कहाँ है, मगर यह यकीन हो गया कि कुमारी जरूर इस तिलिस्म की मालिक होगी। इसी फिक्र में दो रोज तक परेशान रहा। इन बागीचों की हालत बिल्कुल खराब थी, मगर दो-चार फलों के पेड़ ऐसे थे कि हम तीनों ने तकलीफ न पाई।

तीसरे दिन पूर्णिमा थी। मैं उस बावड़ी के किनारे बैठा कुछ सोच रहा था, कुमारी और चपला इधर-उधर टहल रही थीं, इतने में चपला दौड़ी हुई मेरे पास आई और बोली - ‘जल्दी चलिए, इस बाग में एक ताज्जुब की बात दिखाई पड़ी है।’

मैं सुनते ही खड़ा हुआ और चपला के साथ वहाँ गया जहाँ कुमारी चंद्रकांता पूरब की दीवार तले खड़ी गौर से कुछ देख रही थी। मुझे देखते ही कुमारी ने कहा - ‘बाबा जी, देखिए इस दीवार की जड़ में एक सूराख है जिसमें से सफेद रंग की बड़ी-बड़ी चींटियाँ निकल रही हैं। यह क्या मामला है?’

मैंने अपने उस्ताद से सुना था कि सफेद चींटियाँ जहाँ नजर पड़ें समझना कि वहाँ जरूर कोई खजाना या खजाने की ताली है। यह ख्याल करके मैंने अपनी कमर से खंजर निकाल कुमारी के हाथ में दे दिया और कहा कि तुम इस जमीन को खोदो। अस्तु मेरे कहे मुताबिक कुमारी ने उस जमीन को खोदा। हाथ ही भर के बाद कांच की छोटी-सी हाँडी निकली जिसका मुँह बंद था। कुमारी के ही हाथ से वह हाँडी मैंने तूड़वाई। उसके भीतर किसी किस्म का तेल भरा हुआ था जो हाँडी टूटते ही बह गया और ताली का एक गुच्छा उसके अंदर से मिला जिसे पा कर मैं बहुत खुश हुआ।

दूसरे दिन कुमारी चंद्रकांता के हाथ में ताली का गुच्छा दे कर मैंने कहा – ‘चारों तरफ घूम-घूम कर देखो, जहाँ ताला नजर पड़े, इन तालियों में से किसी ताली को लगा कर खोलो, मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूँ।’

मुख्तसर ही में बयान करके इस बात को खत्म करता हूँ। उस गुच्छे में तीस तालियाँ थीं, कई दिनों में खोज कर हम लोगों ने तीसों ताले खोले। तीन दरवाजे तो ऐसे मिले, जिनसे हम लोग ऊपर-ऊपर इस तिलिस्म के बाहर हो जाएँ। चार बाग और तेईस कोठरियाँ असबाब और खजाने की निकलीं जिसमें हर एक किस्म का अमीरी का सामान और बेहद खजाना मौजूद था।

जब ऊपर-ही-ऊपर तिलिस्म से बाहर हो जाने का रास्ता मिला, तब मैं अपने घर गया और कई लौंडियाँ और जरूरी चीजें कुमारी के वास्ते ले कर फिर यहाँ आया। कई दिनों में यहाँ के सब ताले खोले गए, तब तक यहाँ रहते-रहते कुमारी की तबीयत घबरा गई, मुझसे कई दफा उन्होंने कहा – ‘मैं इस तिलिस्म के बाहर घूमान-फिराना चाहती हूँ।’

बहुत जिद करने पर मैंने इस बात को मंजूर किया। अपनी कारीगरी से इन लोगों की सूरत बदली और दो-तीन घोड़े भी ला दिए जिन पर सवार हो कर ये लोग कभी-कभी तिलिस्म के बाहर घूमने जाया करती। इस बात की ताकीद कर दी थी कि अपने को छिपाए रहें, जिससे कोई पहचानने न पाए। इन्होंने भी मेरी बात पूरे तौर पर मानी और जहाँ तक हो सका अपने को छिपाया। इस बीच में धीरे –धीरे में इन बागों की भी दुरुस्ती की गई।

कुँवर वीरेंद्रसिंह ने उस तिलिस्म का खजाना हासिल किया और यहाँ का माल-असबाब जो कुछ छिपा था, कुमारी को मिल गया। (जयसिंह की तरफ देख कर) आज तक यह कुमारी चंद्रकांता मेरी लड़की या मालिक थी, अब आपकी जमा आपके हवाले करता हूँ।

महाराज शिवदत्त की रानी पर रहम खा कर कुमारी ने दोनों को छोड़ दिया था और इस बात की कसम खिला दी थी कि कुमार से किसी तरह की दुश्मनी न करेंगे। मगर उस दुष्ट ने न माना, पुराने साथियों से मुलाकात होने पर बदमाशी पर कमर बाँधी और कुमार के पीछे लश्कर की तबाही करने लगा। आखिर लाचार हो कर मैंने उसे गिरफ्तार किया और इस खोह में उसी ठिकाने फिर ला रखा जहाँ कुमार ने उसे कैद करके डाल दिया था। अब और जो कुछ आपको पूछना हो पूछिए, मैं सब हाल कह आप लोगों की शंका मिटाऊँ।’

सुरेंद्र – ‘पूछने को तो बहुत-सी बातें थीं मगर इस वक्त इतनी खुशी हुई है कि वे तमाम बातें भूल गया हूँ, क्या पूछूँ? खैर, फिर किसी वक्त पूछ लूँगा। कुमारी की मदद आपने क्यों की?’

जयसिंह – ‘हाँ यही सवाल मेरा भी है, क्योंकि आपका हाल जब तक नहीं मालूम होता तबीयत की घबराहट नहीं मिटती, इस पर आप कई दफा कह चुके हैं कि मैं योगी महात्मा नहीं हूँ, यह सुन कर हम लोग और भी घबरा रहे हैं कि अगर आप वह नहीं हैं जो सूरत से जाहिर है तो फिर कौन हैं।’

बाबा जी – ‘खैर, यह भी मालूम हो जाएगा।’

जयसिंह - (कुमारी चंद्रकांता की तरफ देख कर) ‘बेटी, क्या तुम भी नहीं जानतीं कि यह योगी कौन हैं?’

चंद्रकांता - (हाथ जोड़ कर) ‘मैं तो सब-कुछ जानती हूँ मगर कहूँ क्यों कर, इन्होंने तो मुझसे सख्त कसम खिला दी है, इसी से मैं कुछ भी नहीं कह सकती।’

बाबा जी – ‘आप जल्दी क्यों करते हैं। अभी थोड़ी देर में मेरा हाल भी आपको मालूम हो जाएगा, पहले चल कर उन चीजों को तो देखिए जो कुमारी चंद्रकांता को इस तिलिस्म से मिली हैं।’

जयसिंह – ‘जैसी आपकी मर्जी।’

बाबा जी उसी वक्त उठ खड़े हुए और सभी को साथ ले, दूसरे बाग की तरफ चले।
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बयान - 22

बाबा जी यहाँ से उठ कर महाराज जयसिंह वगैरह को साथ ले दूसरे बाग में पहुँचे और वहाँ घूम-फिर कर तमाम बाग, इमारत, खजाना और सब असबाबों को दिखाने लगे जो इस तिलिस्म में से कुमारी ने पाया था।

महाराज जयसिंह उन सब चीजों को देखते ही एकदम बोल उठे - ‘वाह-वाह, धन्य थे वे लोग जिन्होने इतनी दौलत इकट्ठी की थी। मैं अपना बिल्कुल राज्य बेच कर भी अगर इस तरह के दहेज का सामान इकट्ठा करना चाहता तो इसका चौथाई भी न कर सकता।’

सबसे ज्यादा खजाना और जवाहिरखाना उस बाग और दीवानखाने के तहखाने में नजर पड़ा जहाँ कुँवर वीरेंद्रसिंह ने कुमारी चंद्रकांता की तस्वीर का दरबार देखा था।

तीसरे और चौथे भाग के शुरू में पहाड़ी बाग, कोठरियों और रास्ते का कुछ हाल हम लिख चुके हैं। दो-तीन दिनों में सिद्ध बाबा ने इन लोगों को उन जगहों की पूरी सैर कराई। जब इन सब कामों से छुट्टी मिली और सब कोई दीवानखाने में बैठे उस वक्त महाराज जयसिंह ने सिद्ध बाबा से कहा - ‘आपने जो कुछ मदद कुमारी चंद्रकांता की करके उसकी जान बचाई, उसका एहसान तमाम उम्र हम लोगों के सिर रहेगा। आज जिस तरह हो आप अपना हाल कह कर हम लोगों के आश्चर्य को दूर कीजिए, अब सब्र नहीं किया जाता।’

महाराज जयसिंह की बात सुन सिद्ध बाबा मुस्कराकर बोले - ‘मैं भी अपना हाल आप लोगों पर जाहिर करता हूँ जरा सब्र कीजिए।’ इतना कह कर जोर से जफील (सीटी) बजाई। उसी वक्त तीन-चार लौंडियाँ दौड़ती हुई आ कर उनके पास खड़ी हो गईं। सिद्धनाथ बाबा ने हुक्म दिया - ‘हमारे नहाने के लिए जल और पहनने के लिए असली कपड़ों का संदूक (उँगली का इशारा करके) इस कोठरी में ला कर जल्द रखो। आज मैं इस मृगछाले और लंबी दाढ़ी को इस्तीफा दूँगा।’

थोड़ी ही देर में सिद्ध बाबा के हुक्म की तामील हो गई। तब तक इधर-उधर की बातें होती रहीं। इसके बाद सिद्ध बाबा उठ कर उस कोठरी में चले गए जिसमें उनके नहाने का जल और पहनने के कपड़े रखे हुए थे।

थोड़ी ही देर बाद नहा-धो और कपड़े पहन कर सिद्ध बाबा उस कोठरी के बाहर निकले। अब तो इनको सिद्ध बाबा कहना मुनासिब नहीं, आज तक बाबा जी कह चुके बहुत कहा, अब तो तेजसिंह के बाप जीतसिंह कहना ठीक है।

अब पूछने या हाल-चाल मालूम करने की फुरसत कहाँ। महाराज सुरेंद्रसिंह तो जीतसिंह को पहचानते ही उठे और यह कहा – ‘तुम मेरे भाई से भी हजार दर्जे बढ़ के हो।’ गले लगा लिया और कहा – “जब महाराज शिवदत्त और कुमार से लड़ाई हुई तब तुमने सिर्फ पाँच सौ सवार ले कर कुमार की मदद की थी। आज तो तुमने कुमार से भी बढ़ कर नाम पैदा किया और पुश्तहापुश्त के लिए नौगढ़ और विजयगढ़ दोनों राज्यों के ऊपर अपने अहसान का बोझ रखा।” देर तक गले लगाए रहे, इसके बाद महाराज जयसिंह ने भी उन्हें बराबरी का दर्जा दे कर गले लगाया। तेजसिंह और देवीसिंह वगैरह ने भी बड़ी खुशी से पूजा की।

अब मालूम हुआ कि कुमारी चंद्रकांता की जान बचाने वाले, नौगढ़ और विजयगढ़ दोनों की इज्जत रखने वाले, दोनों राज्यों की तरक्की करने वाले, आज तक अच्छे-अच्छे ऐयारों को धोखे में डालने वाले, कुँवर वीरेंद्रसिंह को धोखे में डाल कर विचित्र तमाशा दिखाने वाले, पहाड़ी से कूदते हुए कुमार को रोक कर जान बचाने और चुनारगढ़ राज्य में फतह का डंका बजाने वाले, सिद्धनाथ योगी बने हुए यही महात्मा जीतसिंह थे।

इस वक्त की खुशी का क्या अंदाजा है। अपने-अपने में सब ऐसे मग्न हो रहे हैं कि त्रिभुवन की संपत्ति की तरफ हाथ उठाने को जी नहीं चाहता। कुँवर वीरेंद्रसिंह को कुमारी चंद्रकांता से मिलने की खुशी जैसी भी थी आप खुद ही सोच-समझ सकते हैं, इसके सिवाय इस बात की खुशी बेहद हुई कि सिद्धनाथ का अहसान किसी के सिर न हुआ, या अगर हुआ तो जीतसिंह का, सिद्धनाथ बाबा तो कुछ थे ही नहीं।

इस वक्त महाराज जयसिंह और सुरेंद्रसिंह का आपस में दिली प्रेम कितना बढ़-चढ़ रहा है वे ही जानते होंगे। कुमारी चंद्रकांता को घर ले जाने के बाद शादी के लिए खत भेजने की ताब किसे? जयसिंह ने उसी वक्त कुमारी चंद्रकांता के हाथ पकड़ के राजा सुरेंद्रसिंह के पैर पर डाल दिया और डबडबाई आँखों को पोंछ कर कहा - ‘आप आज्ञा कीजिए कि इस लड़की को मैं अपने घर ले जाऊँ और जात-बिरादरी तथा पंडित लोगों के सामने कुँवर वीरेंद्रसिंह की लौंडी बनाऊँ।’

राजा सुरेंद्रसिंह ने कुमारी को अपने पैर से उठाया और बड़ी मुहब्बत के साथ महाराज जयसिंह को गले लगा कर कहा - ‘जहाँ तक जल्दी हो सके आप कुमारी को ले कर विजयगढ़ जाएँ क्योंकि इसकी माँ बेचारी मारे गम के सूख कर काँटा हो रही होगी।’

इसके बाद महाराज सुरेंद्रसिंह ने पूछा - ‘अब क्या करना चाहिए?’

जीतसिंह – ‘अब सभी को यहाँ से चलना चाहिए, मगर मेरी समझ में यहाँ से माल-असबाब और खजाने को ले चलने की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि अव्वल तो यह माल-असबाब सिवाय कुमारी चंद्रकांता के किसी के मतलब का नहीं, इसलिए कि दहेज का माल है, इसकी तालियाँ भी पहले से ही इनके कब्जे में रही हैं, यहाँ से उठा कर ले जाने और फिर इनके साथ भेज कर लोगों को दिखाने की कोई जरूरत नहीं, दूसरे यहाँ की आबोहवा कुमारी को बहुत पसंद है, जहाँ तक मैं समझता हूँ, कुमारी चंद्रकांता फिर यहाँ आ कर कुछ दिन जरूर रहेंगी, इसलिए हम लोगों को यहाँ से खाली हाथ सिर्फ कुमारी चंद्रकांता को ले कर बाहर होना चाहिए।’

बहादुर और पूरे ऐयार जीतसिंह की राय को सभी ने पसंद किया और वहाँ से बाहर होकर नौगढ़ और विजयगढ़ जाने के लिए तैयार हुए।

जीतसिंह ने कुल लौंडियों को जिन्हें कुमारी की खिदमत के लिए वहाँ लाए थे, बुला के कहा - ‘तुम लोग अपने-अपने चेहरे को साफ करके असली सूरत में उस पालकी को ले कर जल्द यहाँ आओ, जो कुमारी के लिए मैंने पहले से मँगा रखी है।’

जीतसिंह का हुक्म पा कर वे लौंडियाँ जो गिनती में बीस होंगी दूसरे बाग में चली गईं और थोड़ी ही देर बाद अपनी असली सूरत में एक निहायत उम्दा सोने की जड़ाऊ पालकी अपने कंधो पर लिए हाजिर हुईं। कुँवर वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह ने अब इन लौंडियों को पहचाना।

तेजसिंह ने ताज्जुब में आ कर कहा - ‘वाह-वाह, अपने घर की लौंडियों को आज तक मैंने न पहचाना। मेरी माँ ने भी यह भेद मुझसे न कहा।’
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बयान - 23

जिस राह से कुँवर वीरेंद्रसिंह वगैरह आया-जाया करते थे और महाराज जयसिंह वगैरह आए थे, वह राह इस लायक नहीं थी कि कोई हाथी, घोड़ा या पालकी पर सवार हो कर आए और ऊपर वाली दूसरी राह में खोह के दरवाजे तक जाने में कुछ चक्कर पड़ता था, इसलिए जीतसिंह ने कुमारी के वास्ते पालकी मँगाई मगर दोनों महाराज और कुँवर वीरेंद्रसिंह किस पर सवार होंगे, अब वे सोचने लगे।

वहाँ खोह में दो घोड़े भी थे जो कुमारी की सवारी के वास्ते लाए गए थे। जीतसिंह ने उन्हें महाराज जयसिंह और राजा सुरेंद्रसिंह की सवारी के लिए तजवीज करके कुमार के वास्ते एक हवादार मँगवाया, लेकिन कुमार ने उस पर सवार होने से इनकार करके पैदल चलना कबूल किया।

उसी बाग के दक्खिन तरफ एक बड़ा फाटक था, जिसके दोनों बगल लोहे की दो खूबसूरत पुतलियाँ थीं। बाईं तरफ वाली पुतली के पास जीतसिंह पहुँचे और उसकी दाहिनी आँख में उँगली डाली, साथ ही उसका पेट दो पल्ले की तरह खुल गया और बीच में चाँदी का एक मुट्ठा नजर पड़ा जिसे जीतसिंह ने घुमाना शुरू किया।

जैसे-जैसे मुट्ठा घुमाते थे वैसे-वैसे वह फाटक जमीन में घुसता जाता था। यहाँ तक कि तमाम फाटक जमीन के अंदर चला गया और बाहर खुशनुमा सब्ज से भरा हुआ मैदान नजर पड़ा।

फाटक खुलने के बाद जीतसिंह फिर इन लोगों के पास आ कर बोले - ‘इसी राह से हम लोग बाहर चलेंगे।’

दिन आधी घड़ी से ज्यादा न बीता होगा, जब महाराज जयसिंह और सुरेंद्रसिंह घोड़े पर सवार हो कुमारी चंद्रकांता की पालकी आगे कर फाटक के बाहर हुए। दोनों महाराजों के बीच में दोनों हाथों से दोनों घोड़ों की रकाब पकड़े हुए जीतसिंह बातें करते और इनके पीछे कुँवर वीरेंद्रसिंह अपने ऐयारों को चारों तरफ लिए कन्हैया बने खोह के फाटक की तरफ रवाना हुए।

पहर भर चलने के बाद ये लोग उस लश्कर में पहुँचे जो खोह के दरवाजे पर उतरा हुआ था। रात-भर उसी जगह रह कर सुबह को कूच किया। यहाँ से खूबसूरत और कीमती कपड़े पहन कर कहारों ने कुमारी की पालकी उठाई और महाराज जयसिंह के साथ विजयगढ़ रवाना हुए मगर वे लौंडियाँ भी जो आज तक कुमारी के साथ थीं और यहाँ तक कि उनकी पालकी उठा कर लाई थीं, मुहब्बत की वजह और महाराज सुरेंद्रसिंह के हुक्म से कुमारी के साथ गई।

राजा सुरेंद्रसिंह कुमार को साथ लिए हुए नौगढ़ पहुँचे। कुँवर वीरेंद्रसिंह पहले महल में जा कर अपनी माँ से मिले और कुलदेवी की पूजा करके बाहर आए।

.........................................................


अब तो बड़ी खुशी से दिन गुजरने लगे, आठवें ही रोज महाराज जयसिंह का भेजा हुआ तिलक पहुँचा और बड़ी धुमधाम से वीरेंद्रसिंह को चढ़ाया गया।
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Wink 
पाठक, अब तो कुँवर वीरेंद्रसिंह और चंद्रकांता का वृत्तांत समाप्त ही हुआ समझिए। 


बाकी रह गई सिर्फ कुमार की शादी। इस वक्त तक सब किस्से को मुख्तसर लिख कर सिर्फ बारात के लिए कई वर्क कागज के रँगना मुझे मंजूर नहीं। मैं यह नहीं लिखना चाहता कि नौगढ़ से विजयगढ़ तक रास्ते की सफाई की गई, केवड़े के जल से छिड़काव किया गया, दोनों तरफ बिल्लौरी हाँडियाँ रोशन की गईं, इत्यादि। आप खुद ख्याल कर सकते हैं कि ऐसे आशिक-माशूक की बारात किस धुमधाम की होगी, इस पर दोनों ही राजा और दोनों ही की एक-एक औलाद। तिलिस्म फतह करने और माल-खजाना पाने की खुशी ने और दिमाग बढ़ा रखा था। मैं सिर्फ इतना ही लिखना पसंद करता हूँ कि अच्छी सायत में कुँवर वीरेंद्रसिंह की बारात बड़े धूमधाम से विजयगढ़ की तरफ रवाना हुई।



विजयगढ़ में जनवासे की तैयारी सबसे बढ़ी-चढ़ी थी। बारात पहुँचने के पहले ही समा बँधा हुआ था, अच्छी-अच्छी खूबसूरत और गाने के इल्म को पूरे तौर पर जानने वाली रंडियों से महफिल भरी हुई थी, मगर जिस वक्त बारात पहुँची, अजब झमेला मचा।

बारात के आगे-आगे महाराज शिवदत्त बड़ी तैयारी से घोड़े पर सवार सरपेंच बाँधे कमर से दोहरी तलवार लगाए, हाथ में झंडा लिए, जनवासे के दरवाजे पर पहुँचे, इसके बाद धीरे-धीरे कुल जुलूस पहुँचा। दूल्हा बने हुए कुमार घोड़े से उतर कर जनवासे के अंदर गए।


कुमार वीरेंद्रसिंह का घोड़े से उतर कर जनवासे के अंदर जाना ही था कि बाहर हो-हल्ला मच गया। सब कोई देखने लगे कि दो महाराज शिवदत्त आपस में लड़ रहे हैं। दोनों की तलवारें तेजी के साथ चल रही हैं और दोनों ही के मुँह से यही आवाज निकल रही है – ‘हमारी मदद को कोई न आए, सब दूर से तमाशा देखें।’ एक महाराज शिवदत्त तो वही थे जो अभी-अभी सरपेंच बाँधे हाथ में झंडा लिए घोड़े पर सवार आए थे और दूसरे महाराज शिवदत्त मामूली पोशाक पहने हुए थे मगर बहादुरी के साथ लड़ रहे थे।

थोड़ी ही देर में हमारे शिवदत्त को (जो झंडा उठाए घोड़े पर सवार आए थे) इतना मौका मिला कि कमर में से कमंद निकाल, अपने मुकाबले वाले दुश्मन महाराज शिवदत्त को बाँध लिया और घसीटते हुए जनवासे के अंदर चले। पीछे-पीछे बहुत से आदमियों की भीड़ भी इन दोनों को ताज्जुब भरी निगाहों से देखती हुई अंदर पहुँची।

हमारे महाराज शिवदत्त ने दूसरे साधारण पोशाक पहने हुए महाराज शिवदत्त को एक खंबे के साथ खूब कस कर बाँध दिया और एक मशालची के हाथ से, जो उसी जगह मशाल दिखा रहा था मशाल ले कर उनके हाथ में थमाई, आप कुँवर वीरेंद्रसिंह के पास जा बैठे। उसी जगह सोने का जड़ाऊ बर्तन गुलाबजल से भरा हुआ रखा था, उससे रूमाल तर करके हमारे महाराज ने अपना मुँह पोंछ डाला। पोशाक वही, सरपेंच वही, मगर सूरत तेजसिंह बहादुर की।

अब तो मारे हँसी के पेट में बल पड़ने लगा। 

पाठक, आप तो इस दिल्लगी को खूब समझ गए होंगे, लेकिन अगर कुछ भ्रम हो गया तो मैं लिखे देता हूँ।


हमारे तेजसिंह अपने कौल के मुताबिक महाराज शिवदत्त की सूरत बना सरपेंच (फतह का सरपेंच जो देवीसिंह लाए थे) बाँध झंडा ले कुमार की बारात के आगे-आगे चले थे, उधर असली महाराज शिवदत्त जो महाराज सुरेंद्रसिंह से जान बचा, तपस्या का बहाना कर जंगल में चले गए थे कुँवर वीरेंद्रसिंह की बारात की कैफियत देखने आए। फकीरी करने का तो बहाना ही था असल में तो तबीयत से बदमाशी और खुटाई गई नहीं थी।

महाराज शिवदत्त बारात की कैफियत देखने आए मगर आगे-आगे झंडा हाथ में लिए अपनी सूरत देख समझ गए कि किसी ऐयार की बदमाशी है। क्षत्रीपन का खून जोश में आ गया, गुस्से को सँभाल न सके, तलवार निकाल कर लड़ ही गए। आखिर नतीजा यह हुआ कि उनको महफिल में मशालची बनना पड़ा और कुँवर वीरेंद्रसिंह की शादी खुशी-खुशी कुमारी चंद्रकांता के साथ हो गई।


(चंद्रकांता समाप्त)
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thanks 





fight fight fight
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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(06-10-2021, 02:25 PM)neerathemall Wrote:

Namaskar
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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(06-10-2021, 02:25 PM)neerathemall Wrote:

Arrow Koi aur
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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Nice story
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