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चन्द्रकान्ता - देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
#21
Badhia
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#22
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#23
Heart 
बयान - 13

तीन पहर रात गुजर गई, उनके सब दोस्त जो बेहोश पड़े थे वह भी होश में आए मगर अपनी हालत देख-देख हैरान थे। लोगों ने पूछा - ‘आप लोग कैसे बेहोश हो गए और दीवान साहब कहाँ हैं?’

उन्होंने कहा - ‘एक गंधी इत्र बेचने आया था जिसका इत्र सूँघते-सूँघते हम लोग बेहोश हो गए, अपनी खबर न रही। क्या जाने दीवान साहब कहाँ हैं? इसी से कहते हैं कि अमीरों की दोस्ती में हमेशा जान की जोखिम रहती है। अब कान उमेठतें हैं कि कभी अमीरों का संग न करेंगे।’

ऐसी-ऐसी ताज्जुब भरी बातें हो रही थीं और सवेरा होने ही वाला ही था कि सामने से दीवान हरदयालसिंह आते दिखाई पड़े जो दरअसल श्री तेजसिंह बहादुर थे। दीवान साहब को आते देख सभी ने घेर लिया और पूछने लगे कि - ‘आप कहाँ गए थे?’

दोस्तों ने पूछा - ‘वह नालायक गंधी कहाँ गया और हम लोग बेहोश कैसे हो गए?’

दीवान साहब ने कहा - ‘वह चोर था, मैंने पहचान लिया। अच्छी तरह से उसका इत्र नहीं सूँघा, अगर सूँघता तो तुम्हारी तरह मैं भी बेहोश हो जाता। मैंने उसको पहचान कर पकड़ने का इरादा किया तो वह भागा, मैं भी गुस्से में उसके पीछे चला गया लेकिन वह निकल ही गया, अफसोस... ।’

इतने में लौंडी ने अर्ज किया - ‘कुछ भोजन कर लीजिए, सब-के-सब घर में भूखे बैठे हैं, इस वक्त तक सभी को रोते ही गुजरा।’

दीवान साहब ने कहा - ‘अब तो सवेरा हो गया, भोजन क्या करूँ? मैं थक भी गया हूँ, सोने को जी चाहता है।’ यह कह कर पलँग पर जा लेटे, उनके दोस्त भी अपने घर चले गए।

सवेरे तय वक्त पर दरबारी पोशाक पहन गुप्त रीति से ऐयार का बटुआ कमर में बाँध दरबार की तरफ चले। दीवान साहब को देख रास्ते में बराबर दोपट्टी लोगों में हाथ उठने लगे, वह भी जरा-जरा सिर हिला सभी के सलामों का जवाब देते हुए कचहरी में पहुँचे। महाराज अब नहीं आए थे, तेजसिंह हरदयालसिंह की खसलत से वाकिफ थे। उन्हीं के मामूल के मुताबिक वह भी दरबार में दीवान की जगह बैठ काम करने लगे, थोड़ी देर में महाराज भी आ गए।

दरबार में मौका पा कर हरदयालसिंह धीरे-धीरे अर्ज करने लगे - ‘महाराजाधिराज, ताबेदार को पक्की खबर मिली है कि चुनारगढ़ के राजा शिवदत्तसिंह ने क्रूरसिंह की मदद की है और पाँच ऐयार साथ करके सरकार से बेअदबी करने के लिए इधर रवाना किया है, बल्कि यह भी कहा है कि पीछे हम भी लश्कर ले कर आएँगे। इस वक्त बड़ी मुसीबत आन पड़ी है क्योंकि सरकार में आजकल कोई ऐयार नहीं, नाजिम और अहमद थे सो वे भी क्रूर के साथ हैं, बल्कि सरकार के यहाँ वाले * भी उसी तरफ मिले हुए हैं। आजकल वे ऐयार जरूर सूरत बदल कर शहर में घूमते और बदमाशी की फिक्र करते होंगे।’

महाराज जयसिंह ने कहा - ‘ठीक है, *ों का रंग हम भी बेढब देखते हैं। फिर तुमने क्या बंदोबस्त किया?’

धीरे-धीरे महाराज और दीवान की बातें हो रही थीं कि इतने में दीवान साहब की निगाह एक चोबदार पर पड़ी जो दरबार में खड़ा छिपी निगाहों से चारों तरफ देख रहा था। वे गौर से उसकी तरफ देखने लगे। दीवान साहब को गौर से देखते हुए-पा वह चोबदार चौकन्ना हो गया और कुछ सँभल गया। बात छोड़ कड़क के दीवान साहब ने कहा - ‘पकड़ो उस चोबदार को।’

हुक्म पाते ही लोग उसकी तरफ बढ़े, लेकिन वह सिर पर पैर रख कर ऐसा भागा कि किसी के हाथ न लगा। तेजसिंह चाहते तो उस ऐयार को जो चोबदार बनके आया था पकड़ लेते, मगर इनको तो सब काम बल्कि उठना-बैठना भी उसी तरह से करना था जैसा हरदयालसिंह करते थे, इसलिए वह अपनी जगह से न उठे। वह ऐयार भाग गया जो चोबदार बना हुआ था, जो लोग पकड़ने गए थे वापस आ गए।

दीवान साहब ने कहा - ‘महाराज देखिए, जो मैंने अर्ज किया था और जिस बात का मुझको डर था वह ठीक निकली।’

महाराज को यह तमाशा देख कर खौफ हुआ, जल्दी दरबार बर्खास्त कर दीवान को साथ ले तखलिए में चले गए। जब बैठे तो हरदयालसिंह से पूछा - ‘क्यों जी अब क्या करना चाहिए? उस दुष्ट क्रूर ने तो एक बड़े भाई को हमारा दुश्मन बना कर उभारा है। महाराज शिवदत्त की बराबरी हम किसी तरह भी नहीं कर सकते।’

दीवान साहब ने कहा - ‘महाराज, मैं फिर अर्ज करता हूँ कि हमारे सरकार में इस समय कोई ऐयार नहीं, नाजिम और अहमद थे सो क्रूर ही की तरफ जा मिले, ऐयारों का जवाब बिना ऐयार के कोई नहीं दे सकता। वे लोग बड़े चालाक और फसादी होते हैं, हजार-पाँच सौ की जान ले-लेना उन लोगों के आगे कोई बात नहीं है, इसलिए जरूर कोई ईमानदार ऐयार मुकर्रर करना चाहिए, पर यह भी एकाएक नहीं हो सकता। सुना है राजा सुरेंद्रसिंह के दीवान का लड़का तेजसिंह बड़ा भारी ऐयार निकला है, मैं उम्मीद करता हूँ कि अगर महाराज चाहेंगे और तेजसिंह को मदद के लिए माँगेगे तो राजा सुरेंद्रसिंह को देने में कोई हज्र न होगा क्योंकि वे महाराज को दिल से चाहते हैं। क्या हुआ अगर महाराज ने वीरेंद्रसिंह का आना-जाना बंद कर दिया, अब भी राजा सुरेंद्रसिंह का दिल महाराज की तरफ से वैसा ही है जैसा पहले था।’

हरदयालसिंह की बात सुन के थोड़ी देर महाराज गौर करते रहे फिर बोले - ‘तुम्हारा कहना ठीक है, सुरेंद्रसिंह और उनका लड़का वीरेंद्रसिंह दोनों बड़े लायक है। इसमें कुछ शक नहीं कि वीरेंद्रसिंह वीर है और राजनीति भी अच्छी तरह जानता है, हजार सेना ले कर दस हजार से लड़ने वाला है और तेजसिंह की चालाकी में भी कोई फर्क नहीं, जैसा तुम कहते हो वैसा ही है। मगर मुझसे उन लोगों के साथ बड़ी ही बेमुरव्वती हो गई है जिसके लिए मैं बहुत शर्मिंदा हूँ, मुझे उसने मदद माँगते शर्म मालूम होती है, इसके अलावा क्या जाने उनको मेरी तरफ से रंज हो गया हो, हाँ, तुम जाओ और उनसे मिलो। अगर मेरी तरफ से कुछ मलाल उनके दिल में हो तो उसे मिटा दो और तेजसिंह को लाओ तो काम चले।’

हरदयालसिंह ने कहा - ‘बहुत अच्छा महाराज, मैं खुद ही जाऊँगा और इस काम को करूँगा। महाराज ने अपनी मोहर लगा कर एक मुख्तसर चिट्ठी अपने हाथ से लिखी और अँगूठी की मोहर लगा कर उनके हवाले किया।’

हरदयालसिंह महाराज से विदा हो अपने घर आए और अंदर जनाने में न जा कर बाहर ही रहे, खाने को वहाँ ही मँगवाया। खा-पी कर बैठे और सोचने लगे कि चपला से मिल के सब हाल कह लें तो जाएँ। थोड़ा दिन बाकी था जब चपला आई। एकांत में ले जा कर हरदयालसिंह ने सब हाल कहा और वह चिट्ठी भी दिखाई जो महाराज ने लिख दी थी। चपला बहुत ही खुश हुई और बोली - ‘हरदयालसिंह तुम्हारे मेल में आ जाएगा, वह बहुत ही लायक है। अब तुम जाओ, इस काम को जल्दी करो।’ चपला तेजसिंह की चालाकी की तारीफ करने लगी, अब वीरेंद्रसिंह से मुलाकात होगी यह उम्मीद दिल में हुई।

नकली हरदयालसिंह नौगढ़ की तरफ रवाना हुए, रास्ते में अपनी सूरत असली बना ली।
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#24
Heart 
बयान - 14

नौगढ़ और विजयगढ़ का राज पहाड़ी है, जंगल भी बहुत भारी और घना है, नदियाँ चंद्रप्रभा और कर्मनाशा घूमती हुईं इन पहाड़ों पर बहती हैं। जाबूजा खोह और दर्रे पहाड़ों में बड़े खूबसूरत कुदरती बने हुए हैं। पेड़ों में साखू, तेंद, विजयसार, सनई, कोरया, गो, खाजा, पेयार, जिगना, आसन आदि के पेड़ हैं। इसके अलावा पारिजात के पेड़ भी हैं। मील-भर इधर-उधर जाइए तो घने जंगल में फँस जाइएगा। कहीं रास्ता न मालूम होगा कि कहाँ से आए और किधर जाएँगे। बरसात के मौसम में तो अजब ही कैफियत रहती है, कोस भर जाइए, रास्ते में दस नाले मिलेंगे। जंगली जानवरों में बारहसिंघा, चीता, भालू, तेंदुआ, चिकारा, लंगूर, बंदर वगैरह के अलावा कभी-कभी शेर भी दिखाई देते हैं मगर बरसात में नहीं, क्योंकि नदी नालों में पानी ज्यादा हो जाने से उनके रहने की जगह खराब हो जाती है, और तब वे ऊँची पहाड़ियों पर चले जाते हैं। इन पहाड़ों पर हिरन नहीं होते मगर पहाड़ के नीचे बहुत से दीख पड़ते हैं। परिंदो में तीतर, बटेर, आदि की अपेक्षा मोर ज्यादा होते हैं। गरज कि ये सुहावने पहाड़ अभी तक लिखे मुताबिक मौजूद हैं और हर तरह से देखने के काबिल हैं।

उन ऐयारों ने जो चुनारगढ़ से क्रूर और नाजिम के संग आए थे, शहर में न आ कर इसी दिलचस्प जंगल में मय क्रूर के अपना डेरा जमाया, और आपस में यह राय हो गई कि सब अलग-अलग जा कर ऐयारी करें तथा जब जरूरत हो जंगल जफील बाजा कर इकठ्ठे हो जाया करें। बद्रीनाथ ने जो इन ऐयारों में सबसे ज्यादा चालाक और होशियार था यह राय निकाली कि एक दफा सब कोई अलग-अलग भेष बदल कर शहर में घुस दरबार और महल के सब आदमियों तथा लौंडियों बल्कि रानी तक को देख के पहचान आएँ तथा चाल-चलन तजबीज कर नाम भी याद कर लें जिससे वक्त पर ऐयारी करने के लिए सूरत बदलने और बातचीत करने में फर्क न पड़े। इस राय को सभी ने पसंद किया। नाजिम ने सभी का नाम बताया और जहाँ तक हो सका पहचनवा भी दिया। वे ऐयार लोग तरह-तरह के भेष बदल कर महल में भी घुस आए और सब कुछ देख-भाल आए, मगर ऐयारी का मौका चपला की होशियारी की वजह से किसी को न मिला और उनको ऐयारी करना मंजूर भी न था जब तक कि हर तरह से देख-भाल न लेते।

जब वे लोग हर तरह से होशियार और वाकिफ हो गए, तब ऐयारी करना शुरू किया। भगवानदत्त चपला की सूरत बना नौगढ़ में वीरेंद्रसिंह को फँसाने के लिए चला। वहाँ पहुँच कर जिस कमरे में वीरेंद्रसिंह थे उसके दरवाजे पर पहुँच पहरे वाले से कहा - ‘जा कर कुमार से कहो कि विजय गढ़ से चपला आई है।’ उस प्यादे ने जा कर खबर दी। कुछ रात गुजर गई थी, कुँवर वीरेंद्रसिंह चंद्रकांता की याद में बैठे तबीयत से युक्तियाँ निकाल रहे थे, बीच-बीच में ऊँची साँस भी लेते जाते थे, उसी वक्त चोबदार ने आ कर अर्ज किया - ‘पृथ्वीनाथ, विजयगढ़ से चपला आई है और ड्योढ़ी पर खड़ी हैं। क्या हुक्म होता है?

कुमार चपला का नाम सुनते ही चौंक उठे और खुश हो कर बोले - ‘उसे जल्दी अंदर लाओ।’

हुक्म के बमूजिब चपला हाजिर हुई, कुमार चपला को देख उठ खड़े हुए और हाथ पकड़ कर अपने पास बैठा बातचीत करने लगे, चंद्रकांता का हाल पूछा।

चपला ने कहा - ‘अच्छी हैं, सिवाय आपकी याद के और किसी तरह की तकलीफ नहीं है, हमेशा कह करती हैं कि बड़े बेमुरव्वत हैं, कभी खबर भी नहीं लेते कि जीती है या मर गई। आज घबरा कर मुझको भेजा है और यह दो नाशपातियाँ अपने हाथ से छील-काट कर आपके वास्ते भेजी हैं तथा अपने सिर की कसम दी है कि इन्हें जरूर खाइएगा।’

वीरेंद्रसिंह चपला की बातें सुन बहुत खुश हुए। चंद्रकांता का इश्क पूरे दर्जे पर था, धोखे में आ गए, भले-बुरे की कुछ तमीज न रही, चंद्रकांता की कसम कैसे टालते, झट नाशपाती का टुकड़ा उठा लिया और मुँह से लगाया ही था कि सामने से आते हुए तेजसिंह दिखाई पड़े। तेजसिंह ने देखा कि वीरेंद्रसिंह बैठे हैं, देखते ही आग हो गए। ललकार कर बोले - ‘खबरदार, मुँह में मत डालना।’

इतना सुनते ही वीरेंद्रसिंह रुक गए और बोले - ‘क्यों क्या है?’

तेजसिंह ने कहा - ‘मैं जाती बार हजार बार समझा गया, अपना सिर मार गया, मगर आपको ख्याल न हुआ। कभी आगे भी चपला यहाँ आई थी। आपने क्या खाक पहचाना कि यह चपला है या कोई ऐयार। बस सामने रंडी को देख, मीठी-मीठी बातें सुन मजे में आ गए।’

तेजसिंह की घुड़की सुन वीरेंद्रसिंह तो शर्मा गए और चपला के मुँह की तरफ देखने लगे मगर नकली चपला से न रहा गया, फँस तो चुकी ही थी, झट खंजर निकाल कर तेजसिंह की तरफ दौड़ी। वीरेंद्रसिंह भी जान गए कि यह ऐयार है, उसको खंजर ले तेजसिंह पर दौड़ते देख लपक कर हाथ से उसकी कलाई पकड़ी जिसमें खंजर था, दूसरा हाथ कमर में डाल उठा लिया और सिर से ऊँचा करना चाहते थे कि फेंके जिससे हड्डी पसली सब चूर हो जाएँ।

तेजसिंह ने आवाज दी - ‘हाँ, हाँ, पटकना मत, मर जाएगा, ऐयार लोगों का काम ही यही है, छोड़ दो, मेरे हवाले करो।’

यह सुन कुमार ने धीरे से जमीन पर पटक कर मुश्कें बाँध तेजसिंह के हवाले किया। तेजसिंह ने जबर्दस्ती उसके नाक में दवा ठूँस बेहोश किया और गठरी में बाँध किनारे रख बातें करने लगे।

तेजसिंह ने कुमार को समझाया और कहा - ‘देखिए, जो हो गया सो हो गया, मगर अब धोखा मत खाइएगा।’

कुमार बहुत शर्मिंदा थे, इसका कुछ जवाब न दे विजयगढ़ का हाल पूछने लगे। तेजसिंह ने सब खुलासा ब्यौरा कहा और चिट्ठी भी दिखाई जो महाराज जयसिंह ने राजा सुरेंद्रसिंह के नाम लिखी थी।

कुमार यह सब सुन और चिट्ठी देख उछल पड़े, मारे खुशी के तेजसिंह को गले से लगा लिया और बोले - ‘अब जो कुछ करना हो जल्दी कर डालो।’

तेजसिंह ने कहा - ‘हाँ, देखो सब कुछ हो जाता है, घबराओ मत।’

इसी तरह दोनों को बातें करते तमाम रात गुजर गई।

सवेरा होने ही वाला था जब तेजसिंह उस ऐयार की गठरी पीठ पर लादे उसी तहखाने को रवाना हुए जिसमें अहमद को कैद कर आए थे। तहखाने का दरवाजा खोल अंदर गए, टहलते-टहलते चश्मे के पास जा निकले। देखा कि अहमद नहर के किनारे सोया है और हरदयालसिंह एक पेड़ के नीचे पत्थर की चट्टान पर सिर झुकाए बैठे हैं। तेजसिंह को देख कर हरदयालसिंह उठ खड़े हुए और बोले - ‘क्यों तेजसिंह मैंने क्या कसूर किया जो मुझको कैद कर रखा है?’

तेजसिंह ने हँस कर जवाब दिया - ‘अगर कोई कसूर किया होता तो पैरों में बेड़ी पड़ी होती, जैसा कि अहमद को आपने देखा होगा। आपने कोई कसूर नहीं किया, सिर्फ एक दिन आपको रोक रखने से मेरा बहुत काम निकलता था इसलिए मैंने ऐसी बेअदबी की, माफ कीजिए। अब आपको अख्तियार है कि चाहे जहाँ जाएँ। मैं ताबेदार हूँ। विजयगढ़ में नेक ईमानदार इंसाफ पसंद सिवाय आपके कोई नहीं है, इसी सबब से मैं भी मदद का उम्मीदवार हूँ।’

हरदयालसिंह ने कहा - ‘सुनो तेजसिंह, तुम खुद जानते हो कि मैं हमेशा से तुम्हारा और कुँवर वीरेंद्रसिंह का दोस्त हूँ, मुझको तुम लोगों की खिदमत करने में कोई हर्ज नहीं। मैं तो आप हैरान था कि दोस्त आदमी को तेजसिंह ने क्यों कैद किया? पहले तो मुझको यह भी नहीं मालूम हुआ कि मैं यहाँ कैसे आया, मर के आया हूँ या जीते जी, पर अहमद को देखा तो समझ गया कि यह तुम्हारी करामात है, भला यह तो कहो मुझको यहाँ रख कर तुमने क्या कार्रवाई की और अब मैं तुम्हारा क्या काम कर सकता हूँ?’

तेजसिंह - मैं आपकी सूरत बना कर आपके जनाने में नहीं गया, इससे आप खातिर जमा रखिए।

हरदयालसिंह - तुमको तो मैं अपने लड़के से ज्यादा मानता हूँ, अगर जनाने में जाते भी तो क्या था। खैर, हाल कहो।

तेजसिंह ने महाराज जयसिंह की चिट्ठी दिखाई, हरदयालसिंह के कपड़े जो पहने हुए थे उनको दे दिए और अब खुलासा हाल कह कर बोले - ‘अब आप अपने कपड़े सहेज लीजिए और यह चिट्ठी ले कर दरबार में जाइए, राजा से मुझको माँग लीजिए जिससे मैं आपके साथ चलूँ, नहीं तो वे ऐयार जो चुनारगढ़ से आए हैं विजयगढ़ को गारत कर डालेंगे और महाराज शिवदत्त अपना कब्जा विजयगढ़ पर कर लेंगे। मैं आपके संग चल कर उन ऐयारों को गिरफ्तार करूँगा। आप दो बातों का सबसे ज्यादा ख्याल रखिएगा, एक यह कि जहाँ तक बने *ों को बाहर कीजिए और हिंदुओं को रखिए, दूसरे यह कि कुँवर वीरेंद्रसिंह का हमेशा ध्यान रखिए और महाराज से बराबर उनकी तारीफ कीजिए जिससे महाराज मदद के वास्ते उनको भी बुलाएँ।’

हरदयालसिंह ने कसम खा कर कहा - ‘मैं हमेशा तुम लोगों का खैर,ख्वाह हूँ, जो कुछ तुमने कहा है उससे ज्यादा कर दिखाऊँगा।’

तेजसिंह ने ऐयारी की गठरी खोली और एक खुलासा बेड़ी उसके पैर में डाल तथा ऐयारी का बटुआ और खंजर उसके कमर से निकालने के बाद उसे होश में लाए। उसके चेहरे को साफ किया तो मालूम हुआ कि वह भगवानदत्त है।

ऐयार होने के कारण चुनारगढ़ के सब ऐयारों को तेजसिंह पहचानते थे और वे सब लोग भी उनको बखूबी जानते थे। तेजसिंह ने भगवानदत्त को नहर के किनारे छोड़ा और हरदयालसिंह को साथ ले खोह के बाहर चले। दरवाजे के पास आए, हरदयालसिंह से कहा कि - ‘मेहरबानी करके मुझे इजाजत दें कि मैं थोड़ी देर के लिए आपको फिर बेहोश करूँ, तहखाने के बाहर होश में ले आऊँगा।’ हरदयालसिंह ने कहा - ‘इसमें मुझको कुछ हर्ज नहीं है, मैं यह नहीं चाहता कि इस तहखाने में आने का रास्ता देख लूँ, यह तुम्ही लोगों के काम हैं, मैं देख कर क्या करूँगा?’

तेजसिंह हरदयालसिंह को बेहोश करके बाहर लाए और होश में ला कर बोले - ‘अब आप कपड़े पहन लीजिए और मेरे साथ चलिए।’ उन्होंने वैसा ही किया।

शहर में आ कर तेजसिंह के कहे मुताबिक हरदयालसिंह अलग हो कर अकेले राजा सुरेंद्रसिंह के दरबार में गए। राजा ने उनकी बड़ी खातिर की और हाल पूछा। उन्होंने बहुत कुछ कहने के बाद महाराज जयसिंह की चिट्ठी दी जिसको राजा ने इज्जत के साथ ले कर अपने वजीर जीतसिंह को पढ़ने के लिए दिया, जीतसिंह ने जोर से खत पढ़ा। राजा सुरेंद्रसिंह चिट्ठी पढ़ कर बहुत खुश हुए और हरदयालसिंह की तरफ देख कर बोले - ‘मेरा राज्य महाराज जयसिंह का है, जिसे चाहें बुला लें मुझे कुछ हर्ज नहीं, तेजसिंह आपके साथ जाएगा।’ यह कह अपने वजीर जीतसिंह को हरदयालसिंह की मेहमानदारी का हुक्म दिया और दरबार बर्खास्त किया।

दीवान हरदयालसिंह की मेहमानदारी तीन दिन तक बहुत अच्छी तरह से की गई जिससे वे बहुत खुश हुए। चौथे दिन दीवान साहब ने राजा से रुखसत माँगी, राजा बहुत कुछ दौलत जवाहरात से उनकी विदाई की और तेजसिंह को बुला समझा-बुझा कर दीवान साहब के संग किया।

बड़े साज-सामान के साथ ये दोनों विजयगढ़ पहुँचे और शाम को दरबार में महाराज के पास हाजिर हुए। हरदयालसिंह ने महाराज की चिट्ठी का जवाब दिया और सब हाल कह सुरेंद्रसिंह की बड़ी तारीफ की जिससे महाराज बहुत खुश हुए और तेजसिंह को उसी वक्त खिलअत (सम्मान) दे कर हरदयालसिंह को हुक्म दिया कि - ‘इनके रहने के लिए मकान का बंदोबस्त कर दो और इनकी खातिरदारी और मेहमानदारी का बोझ अपने ऊपर समझो।’

दरबार उठने पर दीवान साहब तेजसिंह को साथ ले विदा हुए और एक बहुत अच्छे कमरे में डेरा दिलवाया। नौकर और पहले वाले तथा प्यादों का भी बहुत अच्छा इंतजाम कर दिया जो सब * थे। दूसरे दिन तेजसिंह महाराज के दरबार में हाजिर हुए। दीवान हरदयालसिंह के बगल में एक कुर्सी उनके वास्ते मुकर्रर की गई।
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#25
बयान - 15

हम पहले यह लिख चुके हैं कि महाराज शिवदत्त के यहाँ जितने ऐयार हैं सभी को तेजसिंह पहचानते हैं। अब तेजसिंह को यह जानने की फिक्र हुई कि उनमें से कौन-कौन चार आए हैं, इसलिए दूसरे दिन शाम के वक्त उन्होंने अपनी सूरत भगवानदत्त की बनाई जिसको तहखाने में बंद कर आए थे और शहर से निकल जंगल में इधर-उधर घूमने लगे, पर कहीं कुछ पता न लगा। बरसात का दिन आ चुका था, रात अँधेरी और बदली छाई थी, आखिर तेजसिंह ने एक टीले पर खड़े होकर जफील बजाई।

थोड़ी देर में तीनों ऐयार मय पंडित जगन्नाथ ज्योतिषी के उसी जगह पहुँचे और भगवानदत्त को खड़े देख कर बोले - ‘क्यों जी, तुम नौगढ़ गए थे ना? क्या किया, खाली क्यों चले आए?’

तेजसिंह ने सभी को पहचानने के बाद जवाब दिया - ‘वहाँ तेजसिंह की बदौलत कोई कार्रवाई न चली, तुम लोगों में से कोई एक आदमी मेरे साथ चले तो काम बने।’

पन्ना – ‘अच्छा कल हम तुम्हारे साथ चलेंगे, आज चलो महल में कोई कार्रवाई करें।’

तेजसिंह – ‘अच्छा चलो, मगर मुझको इस वक्त भूख बड़े जोर की लगी है, कुछ खा लूँ तो काम में जी लगे। तुम लोगों के पास कुछ हो तो लाओ।’

जगन्नाथ – ‘पास में तो जो कुछ है बेहोशी मिला है। बाजार से जा कर कुछ लाओ तो सब कोई खा-पी कर छुट्टी करें।’

भगवान – ‘अच्छा एक आदमी मेरे साथ चलो।’

पन्नालाल साथ हुए, दोनों शहर की तरफ चले। रास्ते में पन्नालाल ने कहा - ‘हम लोगों को अपनी सूरत बदल लेना चाहिए क्योंकि तेजसिंह कल से इसी शहर में आया है और हम सभी को पहचानता भी है, शायद घूमता-फिरता कहीं मिल जाए।’

भगवानदत्त ने यह सोच कर कि सूरत बदलेंगे तो रोगन लगाते वक्त शायद यह पहचान ले, जवाब दिया - ‘कोई जरूरी नहीं, कौन रात को मिलता है?’

भगवानदत्त के इनकार करने से पन्नालाल को शक हो गया और गौर से इनकी सूरत देखने लगा, मगर रात अँधेरी थी पहचान न सका, आखिर को जोर से जफील बजाई। शहर के पास आ चुके थे, ऐयार लोग दूर थे जफील सुन न सके। तेजसिंह भी समझ गए कि इसको शक हो गया, अब देर करने की कुछ जरूरत नहीं, झट उसके गले में हाथ डाल दिया, पन्नालाल ने भी खंजर निकाल लिया, दोनों में खूब जोर की भिड़ंत हो गई। आखिर को तेजसिंह ने पन्ना को उठा के दे मारा और मुश्कें कस बेहोश कर गठरी बाँध ली तथा पीठ पर लाद शहर की तरफ रवाना हुआ। असली सूरत बनाए डेरे पर पहुँचे। एक कोठरी में पन्नालाल को बंद कर दिया और पहरे वालों को सख्त ताकीद कर आप उसी कोठरी के दरवाजे पर पलँग बिछवा सो रहे, सवेरे पन्नालाल को साथ ले दरबार की तरफ चले।

इधर रामनारायण, बद्रीनाथ और ज्योतिषी जी राह देख रहे थे कि अब दोनों आदमी खाने का सामाना लाते होंगे, मगर कुछ नहीं, यहाँ तो मामला ही दूसरा था। उन लोगों को शक हो गया कि कहीं दोनों गिरफ्तार न हो गए हों, मगर यह ख्याल में न आया कि भगवानदत्त असल में दूसरे ही कृपानिधान थे।

उस रात को कुछ न कर सके पर सवेरे सूरत बदल कर खोज में निकले। पहले महाराज जयसिंह के दरबार की तरफ चले, देखा कि तेजसिंह दरबार में जा रहे हैं और उसके पीछे-पीछे दस-पंद्रह सिपाही कैदी की तरह पन्नालाल को लिए चल रहे हैं। उन ऐयारों ने भी साथ-ही-साथ दरबार का रास्ता पकड़ा।

तेजसिंह, पन्नालाल को लिए दरबार में पहुँचे, देखा कचहरी खूब लगी हुई है, महाराज बैठे हैं, वह भी सलाम कर अपनी कुर्सी पर जा बैठे, कैदी को सामने खड़ा कर दिया। महाराज ने पूछा - ‘क्यों तेजसिंह किसको लाए हो?’

तेजसिंह ने जवाब दिया - ‘महाराज, उन पाँचों ऐयारों में से जो चुनारगढ़ से आए हैं एक गिरफ्तार हुआ है, इसको सरकार में लाया हूँ। जो इसके लिए मुनासिब हो, हुक्म किया जाए।’

महाराज गौर के साथ खुशी भरी निगाहों से उसकी तरफ देखने लगे और पूछा - ‘तेरा नाम क्या है?’

उसने कहा - ‘मक्कार खाँ उर्फ ऐयार खाँ।’

महाराज उसकी ढिठाई और बात पर हँस पड़े, हुक्म दिया - ‘बस इससे ज्यादा पूछने की कोई जरूरत नहीं, सीधे कैदखाने में ले जा कर इसको बंद करो और सख्त पहरे बैठा दो।’

हुक्म पाते ही प्यादों ने उस ऐयार के हाथों में हथकड़ी और पैरों में बेड़ी डाल दी और कैदखाने की तरफ ले गए। महाराज ने खुश हो कर तेजसिंह को सौ अशर्फी इनाम में दीं। तेजसिंह ने खड़े होकर महाराज को सलाम किया और अशर्फियाँ बटुए में रख लीं।

रामनारायण, बद्रीनाथ और ज्योतिषी जी भेष बदले हुए दरबार में खड़े यह सब तमाशा देख रहे थे जब पन्नालाल को कैदखाने का हुक्म हुआ, वे लोग भी बाहर चले आए और आपस में सलाह कर भारी चालाकी की। किनारे जा कर बद्रीनाथ ने तो तेजसिंह की सूरत बनाई और रामनारायण और ज्योतिषी जी प्यादे बन कर तेजी के साथ उन सिपाहियों के साथ चले जो पन्नालाल को कैदखाने की तरफ लिए जा रहे थे। पास पहुँच कर बोले – ‘ठहरो-ठहरो, इस नालायक ऐयार के लिए महाराज ने दूसरा हुक्म दिया है, क्योंकि मैंने अर्ज किया था कि कैदखाने में इसके संगी-साथी इसको किसी-न-किसी तरह छुड़ा ले जाएँगे, अगर मैं इसको अपनी हिफाजत में रखूँगा तो बेहतर होगा क्योंकि मैंने ही इसे पकड़ा है, मेरी हिफाजत में यह रह भी सकेगा , सो तुम लोग इसको मेरे हवाले करो।’

प्यादे तो जानते ही थे कि इसको तेजसिंह ने पकड़ा है, कुछ इनकार न किया और उसे उनके हवाले कर दिया। नकली तेजसिंह ने पन्नालाल को ले जंगल का रास्ता लिया। उसके चले जाने पर उसका हाल अर्ज करने के लिए प्यादे फिर दरबार में लौट आए। दरबार उसी तरह लगा हुआ था, तेजसिंह भी अपनी जगह बैठे थे। उनको देख प्यादों के होश उड़ गए और अर्ज करते-करते रुक गए। तेजसिंह ने इनकी तरफ देख कर पूछा - ‘क्यों? क्या बात है, उस ऐयार को कैद कर आए?’

प्यादों ने डरते-डरते कहा - ‘जी उसको तो आप ही ने हम लोगों से ले लिया।’

तेजसिंह उनकी बात सुन कर चौंक पड़े और बोले - ‘मैंने क्या किया है? मैं तो तब से इसी जगह बैठा हूँ।’

प्यादों की जान डर और ताज्जुब से सूख गई, कुछ जवाब न दे सके, पत्थर की तस्वीर की तरह जैसे-के-तैसे खड़े रहे।

महाराज ने तेजसिंह की तरफ देख कर पूछा - ‘क्यों? क्या हुआ?’

तेजसिंह ने कहा - ‘ऐयार चालाकी खेल गए, मेरी सूरत बना कर, उसी कैदी को इन लोगों से छुड़ा ले गए।’

तेजसिंह ने अर्ज किया - ‘महाराज इन लोगों का कसूर नहीं, ऐयार लोग ऐसे ही होते हैं, बड़े-बड़ों को धोखा दे जाते हैं, इन लोगों की क्या बिसात है।’

तेजसिंह के कहने से महाराज ने उन प्यादों का कसूर माफ किया, मगर उस ऐयार के निकल जाने का रंज देर तक रहा।

बद्रीनाथ वगैरह पन्नालाल को लिए हुए जंगल में पहुँचे, एक पेड़ के नीचे बैठ कर उसका हाल पूछा, उसने सब हाल कहा। अब इन लोगों को मालूम हुआ कि भगवानदत्त को भी तेजसिंह ने पकड़ के कहीं छिपाया है, यह सोच सभी ने पंडित जगन्नाथ से कहा - ‘आप रमल के जरिए दरियाफ्त कीजिए कि भगवानदत्त कहाँ है?’

ज्योतिषी जी ने रमल फेंका और कुछ गिन-गिना कर कहा - ‘बेशक भगवानदत्त को भी तेजसिंह ने ही पकड़ा है और यहाँ से दो कोस दूर उत्तर की तरफ एक खोह में कैद कर रखा है।’

यह सुन सभी ने उस खोह का रास्ता लिया। ज्योतिषी जी बार-बार रमल फेंकते और विचार करते हुए उस खोह तक पहुँचे और अंदर गए, जब उजाला नजर आया तो देखा, सामने एक फाटक है मगर यह नहीं मालूम होता था कि किस तरह खुलेगा। ज्योतिषी जी ने फिर रमल फेंका और सोच कर कहा - ‘यह दरवाजा एक तिलिस्म के साथ मिला हुआ है और रमल तिलिस्म में कुछ काम नहीं कर सकता, इसके खोलने की कोई तरकीब निकाली जाए तो काम चले।’

लाचार वे सब उस खोह के बाहर निकल आए और ऐयारी की फिक्र करने लगे।
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#26
Heart 
बयान - 16

एक दिन तेजसिंह बालादवी के लिए विजयगढ़ के बाहर निकले। पहर दिन बाकी था जब घूमते-फिरते बहुत दूर निकल गए। देखा कि एक पेड़ के नीचे कुँवर वीरेंद्रसिंह बैठे हैं। उनकी सवारी का घोड़ा पेड़ से बँधा हुआ है, सामने एक बारहसिंघा मरा पड़ा है, उसके एक तरफ आग सुलग रही है, और पास जाने पर देखा कि कुमार के सामने पत्तों पर कुछ टुकड़े गोश्त के भी पड़े हैं।

तेजसिंह को देख कर कुमार ने जोर से कहा - ‘आओ भाई तेजिसिंह, तुम तो विजयगढ़ ऐसा गए कि फिर खबर भी न ली, क्या हमको एक दम ही भूल गए?’

तेजसिंह - (हँस कर) ‘विजयगढ़ में मैं आप ही का काम कर रहा हूँ कि अपने बाप का?’

वीरेंद्रसिंह – ‘अपने बाप का।’

यह कह कर हँस पड़े। तेजसिंह ने इस बात का कुछ भी जवाब न दिया और हँसते हुए पास जा बैठे। कुमार ने पूछा - ‘कहो चंद्रकांता से मुलाकात हुई थी?’

तेजसिंह ने जवाब दिया - ‘इधर जब से मैं गया हूँ इसी बीच में एक ऐयार को पकड़ा था। महाराज ने उसको कैद करने का हुक्म दिया मगर कैदखाने तक पहुँचने न पाया था कि रास्ते ही में मेरी सूरत बना उसके साथी ऐयारों ने उसे छुड़ा लिया, फिर अभी तक कोई गिरफ्तार न हुआ।’

कुमार – ‘वे लोग भी बड़े शैतान हैं।’

तेजसिंह – ‘और तो जो हैं, बद्रीनाथ भी चुनारगढ़ से इन लोगों के साथ आया है, वह बड़ा भारी चालाक है। मुझको अगर खौफ रहता है तो उसी का। खैर, देखा जाएगा, क्या हर्ज है। यह तो बताइए, आप यहाँ क्या कर रहे हैं? कोई आदमी भी साथ नहीं है।

कुमार - ‘आज मैं कई आदमियों को लेकर सवेरे ही शिकार खेलने के लिए निकला, दोपहर तक तो हैरान रहा, कुछ हाथ न लगा, आखिर को यह बारहसिंघा सामने से निकला और मैंने उसके पीछे घोड़ा फेंका। इसने मुझको बहुत हैरान किया, संग के सब साथी छूट गए, अब इस समय तीर खा कर गिरा है। मुझको भूख बड़ी जोर की लगी थी इससे जी में आया कि कुछ गोश्त भून के खाऊँ। इसी फिक्र में बैठा था कि सामने से तुम दिखाई पड़े, अब लो तुम ही इसको भूनो। मेरे पास कुछ मसाला था उसको मैंने धो-धाकर इन टुकड़ों में लगा दिया है, अब तैयार करो, तुम भी खाओ मैं भी खाऊँ, मगर जल्दी करो, आज दिन भर से कुछ नहीं खाया।’

तेजसिंह ने बहुत जल्द गोश्त तैयार किया और एक सोते के किनारे जहाँ साफ पानी निकल रहा था बैठ कर दोनों खाने लगे। वीरेंद्रसिंह मसाला पोंछ-पोछ कर खाते थे, तेजसिंह ने पूछा - ‘आप मसाला क्यों पोंछ रहे हैं?’

कुमार ने जवाब दिया - ‘फीका अच्छा मालूम होता है।’

दो-तीन टुकड़े खा कर वीरेंद्रसिंह ने सोते में से चुल्लू-भर के खूब पानी पिया और कहा - ‘बस भाई, मेरी तबीयत भर गई, दिन भर भूखे रहने पर कुछ खाया नहीं जाता।’

तेजसिंह ने कहा - ‘आप खाइए चाहे न खाइए मैं तो छोड़ता नहीं, बड़े मजे का बन पड़ा है।’ आखिर जहाँ तक बन पड़ा खूब खाया और तब हाथ-मुँह धो कर बोले – ‘चलिए, अब आपको नौगढ़ पहुँचा कर फिर फिरेंगे।’

वीरेंद्रसिंह ‘चलो’ कह कर घोड़े पर सवार हुए और तेजसिंह पैदल साथ चले।

थोड़ी दूर जा कर तेजसिंह बोले - ‘न मालूम क्यों मेरा सिर घूमता है।’

कुमार ने कहा - ‘तुम मांस ज्यादा खा गए हो, उसने गर्मी की है।’ थोड़ी दूर गए थे कि तेजसिंह चक्कर खा कर जमीन पर गिर पड़े। वीरेंद्रसिंह ने झट घोड़े पर से कूद कर उनके हाथ-पैर खूब कसके गठरी में बाँध पीठ पर लाद लिया और घोड़े की बाग थाम विजयगढ़ का रास्ता लिया। थोड़ी दूर जा कर जोर से जफील (सीटी) बजाई जिसकी आवाज जंगल में दूर-दूर तक गूँज गई। थोड़ी देर में क्रूरसिंह, पन्नालाल, रामनारायण और ज्योतिषी जी आ पहुँचे। पन्नालाल ने खुश हो कर कहा - ‘वाह जी बद्रीनाथ, तुमने तो बड़ा भारी काम किया। बड़े जबर्दस्त को फाँसा। अब क्या है, ले लिया।।’

क्रूरसिंह मारे खुशी के उछल पड़ा। बद्रनीथ ने, जो अभी तक कुँवर वीरेंद्रसिंह बना हुआ था, गठरी पीठ से उतार कर जमीन पर रख दी और रामनारायण से कहा - ‘तुम इस घोड़े को नौगढ़ पहुँचा दो, जिस अस्तबल से चुरा लाए थे उसी के पास छोड़ आओ, आप ही लोग बाँध लेंगे।’ यह सुन कर रामनारायण घोड़े पर सवार हो कर नौगढ़ चला गया। बद्रीनाथ ने तेजसिंह की गठरी अपनी पीठ पर लादी और ऐयारों को कुछ समझा-बुझा कर चुनारगढ़ का रास्ता लिया।

तेजसिंह को मामूल था कि रोज महाराज जयसिंह के दरबार में जाते और सलाम करके कुर्सी पर बैठ जाते। दो-एक दिन महाराज ने तेजसिंह की कुर्सी खाली देखी, हरदयालसिंह से पूछा कि - ‘आजकल तेजसिंह नजर नहीं आते, क्या तुमसे मुलाकात हुई थी?’

दीवान साहब ने अर्ज किया - ‘नहीं, मुझसे भी मुलाकात नहीं हुई, आज दरियाफ्त करके अर्ज करूँगा।’ दरबार बर्खास्त होने के बाद दीवान साहब तेजसिंह के डेरे पर गए, मुलाकात ने होने पर नौकरों से दरियाफ्त किया। सभी ने कहा - ‘कई दिन से वे यहाँ नहीं है, हम लोगों ने बहुत खोज की मगर पता न लगा।’

दीवान हरदयालसिंह यह सुन कर हैरान रह गए। अपने मकान पर जा कर सोचने लगे कि अब क्या किया जाए? अगर तेजसिंह का पता न लगेगा तो बड़ी बदनामी होगी, जहाँ से हो, खोज लगाना चाहिए। आखिर बहुत से आदमियों को इधर-उधर पता लगाने के लिए रवाना किया और अपनी तरफ से एक चिट्ठी नौगढ़ के दीवान जीतसिंह के पास भेज कर ले जाने वाले को ताकीद कर दी कि कल दरबार से पहले इसका जवाब ले कर आना। वह आदमी खत लिए शाम को नौगढ़ को पहुँचा और दीवान जीतसिंह के मकान पर जा कर अपने आने की इत्तिला करवाई। दीवान साहब ने अपने सामने बुला कर हाल पूछा, उसने सलाम करके खत दिया। दीवान साहब ने गौर से खत को पढ़ा, दिल में यकीन हो गया कि तेजसिंह जरूर ऐयारों के हाथ पकड़ा गया। यह जवाब लिख कर कि वह यहाँ नहीं है, आदमी को विदा कर दिया और अपने कई जासूसों को बुला कर पता लगाने के लिए इधर-उधर रवाना किया। दूसरे दिन दरबार में दीवान जीतसिंह ने राजा सुरेंद्रसिंह से अर्ज किया - ‘महाराज, कल विजयगढ़ से दीवान हरदयालसिंह का पत्र ले कर एक आदमी आया था, यह दरियाफ्त किया था, कि तेजसिंह नौगढ़ में है कि नहीं, क्योंकि कई दिनों से वह विजयगढ़ में नहीं है। मैंने जवाब में लिख दिया है कि यहाँ नहीं हैं।’

राजा को यह सुन कर ताज्जुब हुआ और दीवान से पूछा - ‘तेजसिंह वहाँ भी नहीं हैं और यहाँ भी नहीं तो कहाँ चला गया? कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि ऐयारों के हाथ पड़ गया हो, क्योंकि महाराज शिवदत्त के कई ऐयार विजयगढ़ में पहुँचे हुए हैं और उनसे मुलाकात करने के लिए अकेला तेजसिंह गया था।’

दीवान साहब ने कहा - ‘जहाँ तक मैं समझता हूँ, वह ऐयारों के हाथ में गिरफ्तार हो गया होगा, खैर, जो कुछ होगा दो-चार दिन में मालूम हो जाएगा।’

कुँवर वीरेंद्रसिंह भी दरबार में राजा के दाहिनी तरफ कुर्सी पर बैठे यह बात सुन रहे थे। उन्होंने अर्ज किया - ‘अगर हुक्म हो तो मैं तेजसिंह का पता लगाने जाऊँ?’

दीवान जीतसिंह ने यह सुन कर कुमार की तरफ देखा और हँस कर जवाब दिया - ‘आपकी हिम्मत और जवाँमर्दी में कोई शक नहीं, मगर इस बात को सोचना चाहिए कि तेजसिंह के वास्ते, जिसका काम ऐयारी ही है और ऐयारों के हाथ फँस गया है, आप हैरान हो जाएँ इसकी क्या जरूरत है? यह तो आप जानते ही हैं कि अगर किसी ऐयार को कोई ऐयार पकड़ता है तो सिवाय कैद रखने के जान से नहीं मारता, अगर तेजसिंह उन लोगों के हाथ में पड़ गया है तो कैद होगा, किसी तरह छूट ही जाएगा क्योंकि वह अपने फन में बड़ा होशियार है, सिवाय इसके जो ऐयारी का काम करेगा चाहे वह कितना ही चालाक क्यों न हो, कभी-न-कभी फँस ही जाएगा, फिर इसके लिए सोचना क्या? दस-पाँच दिन सब्र कीजिए, देखिए क्या होता है? इस बीच में, अगर वह न आया तो आपको जो कुछ करना हो कीजिएगा।’

वीरेंद्रसिंह ने जवाब दिया - ‘हाँ, आपका कहना ठीक है मगर पता लगाना जरूरी है। यह सोच कर कि वह चालाक है, छूट आएगा-खोज न करना मुनासिब नहीं।’

जीतसिंह ने कहा - ‘सच है, आपको मुहब्बत के सबब से उसका ज्यादा ख्याल है, खैर, देखा जाएगा।’

यह सुन राजा सुरेंद्रसिंह ने कहा - ‘और कुछ नहीं तो किसी को पता लगाने के लिए भेज दो।’

इसके जवाब में दीवान साहब ने कहा - ‘कई जासूसों का पता लगाने के लिए भेज चुका हूँ।’ राजा और कुँवर वीरेंद्रसिंह चुप रहे मगर ख्याल इस बात का किसी के दिल से न गया।

विजयगढ़ में दूसरे दिन दरबार में जयसिंह ने फिर हरदयालसिंह से पूछा - ‘कहीं तेजसिंह का पता लगा?’

दीवान साहब ने कहा - ‘यहाँ तो तेजसिंह का पता नहीं लगता, शायद नौगढ़ में हों। मैंने वहाँ भी आदमी भेजा है, अब आता ही होगा, जो कुछ है मालूम हो जाएगा।’

ये बातें हो रही थीं कि खत का जवाब लिए वह आदमी आ पहुँचा जो नौगढ़ गया था। हरदयालसिंह ने जवाब पढ़ा और बड़े अफसोस के साथ महाराज से अर्ज किया कि नौगढ़ में भी तेजसिंह नहीं हैं, यह उनके बाप जीतसिंह के हाथ का खत मेरे खत के जवाब में आया है।

महाराज ने कहा - ‘उसका पता लगाने के लिए कुछ फिक्र की गई है या नहीं?’

हरदयालसिंह ने कहा - ‘हाँ, कई जासूस मैंने इधर-उधर भेजे हैं।’

महाराज को तेजसिंह का बहुत अफसोस रहा, दरबार बर्खास्त करके महल में चले गए। बात ही बात में महाराज ने तेजसिंह का जिक्र महारानी से किया और कहा - ‘किस्मत का फेर इसे ही कहते हैं। क्रूरसिंह ने तो हलचल मचा ही रखी थी, मदद के वास्ते एक तेजसिंह आया था सो कई दिन से उसका भी पता नहीं लगता, अब मुझे उसके लिए सुरेंद्रसिंह से शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी। तेजसिंह का चाल-चलन, बात-चीत, इल्म और चालाकी पर जब ख्याल करता हूँ, तबीयत उमड़ आती है। बड़ा लायक लड़का है। उसके चेहरे पर उदासी तो कभी देखी ही नहीं।’

महारानी ने भी तेजसिंह के हाल पर बहुत अफसोस किया। इत्तिफाक से चपला उस वक्त वहीं खड़ी थी, यह हाल सुन वहाँ से चली और चंद्रकांता के पास पहुँची। तेजसिंह का हाल जब कहना चाहती थी, जी उमड़ आता है, कुछ कह न सकती थी। चंद्रकांता ने उसकी दशा देख पूछा - ‘क्यों? क्या है? इस वक्त तेरी अजब हालत हो रही है, कुछ मुँह से तो कह।’

इस बात का जवाब देने के लिए चपला ने मुँह खोला ही था कि गला भर आया, आँखों से आँसू टपक पड़े, कुछ जवाब न दे सकी। चंद्रकांता को और भी ताज्जुब हुआ, पूछा - ‘तू रोती क्यों है, कुछ बोल भी तो।’

आखिर चपला ने अपने को सँभाला और बहुत मुश्किल से कहा - ‘महाराज की जुबानी सुना है कि तेजसिंह को महाराज शिवदत्त के ऐयारों ने गिरफ्तार कर लिया। अब वीरेंद्रसिंह का आना भी मुश्किल होगा क्योंकि उनका वही एक बड़ा सहारा था।’ इतना कहा था कि पूरे तौर पर आँसू भर आए और खूब खुल कर रोने लगी। इसकी हालत से चंद्रकांता समझ गई कि चपला भी तेजसिंह को चाहती है, मगर सोचने लगी कि चलो अच्छा ही है इसमें भी हमारा ही भला है, मगर तेजसिंह के हाल और चपला की हालत पर बहुत अफसोस हुआ, फिर चपला से कहा - ‘उनको छुड़ाने की यही फिक्र हो रही है? क्या तेरे रोने से वे छूट जाएँगे? तुझसे कुछ नहीं हो सकता तो मैं ही कुछ करूँ?’

चंपा भी वहाँ बैठी यह अफसोस भरी बातें सुन रही थी, बोली - ‘अगर हुक्म हो तो मैं तेजसिंह की खोज में जाऊँ?’

चपला ने कहा - ‘अभी तू इस लायक नहीं हुई है?’

चंपा बोली - ‘क्यों, अब मेरे में क्या कसर है? क्या मैं ऐयारी नहीं कर सकती?’

चपला ने कहा - ‘हाँ, ऐयारी तो कर सकती है मगर उन लोगों का मुकाबला नहीं कर सकती जिन लोगों ने तेजसिंह जैसे चालाक ऐयार को पकड़ लिया है। हाँ, मुझको राजकुमारी हुक्म दें तो मैं खोज में जाऊँ?’

चंद्रकांता ने कहा - ‘इसमें भी हुक्म की जरूरत है? तेरी मेहनत से अगर वे छूटेंगे तो जन्म भर उनको कहने लायक रहेगी। अब तू जाने में देर मत कर, जा।’

चपला ने चंपा से कहा - ‘देख, मैं जाती हूँ, पर ऐयार लोग बहुत से आए हुए हैं, ऐसा न हो कि मेरे जाने के बाद कुछ नया बखेड़ा मचे। खैर, और तो जो होगा देखा जाएगा, तू राजकुमारी से होशियार रहियो। अगर तुझसे कुछ भूल हुई या राजकुमारी पर किसी तरह की आफत आई तो मैं जन्म-भर तेरा मुँह न देखूँगी।’

चंपा ने कहा - ‘इस बात से आप खातिर जमा रखें, मैं बराबर होशियार रहा करूँगी।’

चपला अपने ऐयारी के सामान से लैस हो और कुछ दक्षिणी ढंग के जेवर तथा कपड़े ले तेजसिंह की खोज में निकली।
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#27
Heart 
बयान - 17

चपला कोई साधारण औरत न थी। खूबसूरती और नजाकत के अलावा उसमें ताकत भी थी। दो-चार आदमियों से लड़ जाना या उनको गिरफ्तार कर लेना उसके लिए एक अदना-सा काम था, शस्त्र विद्या को पूरे तौर पर जानती थी। ऐयारी के फन के अलावा और भी कई गुण उसमें थे। गाने और बजाने में उस्ताद, नाचने में कारीगर, आतिशबाजी बनाने का बड़ा शौक, कहाँ तक लिखें, कोई फन ऐसा न था जिसको चपला न जानती हो। रंग उसका गोरा, बदन हर जगह सुडौल, नाजुक हाँथ-पाँव की तरफ ख्याल करने से यही जाहिर होता था कि इसे एक फूल से मारना खून करना है। उसको जब कहीं बाहर जाने की जरूरत पड़ती थी तो अपनी खूबसूरती जान-बूझ कर बिगाड़ डालती थी या भेष बदल लेती थी।

अब इस वक्त शाम हो गई बल्कि कुछ रात भी जा चुकी है। चंद्रमा अपनी पूरी किरणों से निकला हुआ है। चपला अपनी असली सूरत में चली जा रही है, ऐयारी का बटुआ बगल में लटकाए कमंद कमर में कसे और खंजर भी लगाए हुए जंगल-ही-जंगल कदम बढ़ाए जा रही है। तेजसिंह की याद ने उसको ऐसा बेकल कर दिया है कि अपने बदन की भी खबर नहीं। उसको यह मालूम नहीं कि वह किस काम के लिए बाहर निकली है या कहाँ जा रही है, उसके आगे क्या है, पत्थर या गड्ढा, नदी है या नाला, खाली पैर बढ़ाए जाना ही यही उसका काम है। आँखों से आँसू की बूँदे गिर रही हैं, सारा कपड़ा भीग गया है। थोड़ी-थोड़ी दूर पर ठोकर खाती है, उँगलियों से खून गिर रहा है मगर उसको इसका कुछ ख्याल नहीं। आगे एक नाला आया जिस पर चपला ने कुछ ध्यान न दिया और धम्म से उस नाले में गिर पड़ी, सिर फट गया, खून निकलने लगा, कपड़े बदन के सब भीग गए। अब उसको इस बात का ख्याल हुआ कि तेजसिंह को छुड़ाने या खोजने चली है। उसके मुँह से झट यह बात निकली - ‘हाय प्यारे मैं तुमको बिल्कुल भूल गई, तुम्हारे छुड़ाने की फिक्र मुझको जरा भी न रही, उसी की यह सजा मिली।’

अब चपला सँभल गई और सोचने लगी कि वह किस जगह है। खूब गौर करने पर उसे मालूम हुआ कि रास्ता बिल्कुल भूल गई है और एक भयानक जंगल में आ फँसी है। कुछ क्षण के लिए तो वह बहुत डर गई मगर फिर दिल को सँभाला, उस खतरनाक नाले से पीछे फिरी और सोचने लगी, इसमें तो कोई शक नहीं कि तेजसिंह को महाराज शिवदत्त के ऐयारों ने पकड़ लिया है, तो जरूर चुनारगढ़ ही ले भी गए होंगे। पहले वहीं खोज करनी चाहिए, जब न मिलेंगे तो दूसरी जगह पता लगाऊँगी।

यह विचार कर चुनारगढ़ का रास्ता ढूँढ़ने लगी। हजार खराबी से आधी रात गुजर जाने के बाद रास्ता मिल गया, अब सीधे चुनारगढ़ की तरफ पहाड़-ही-पहाड़ चल निकली, जब सुबह करीब हुई उसने अपनी सूरत एक मर्द सिपाही की-सी बना ली। नहाने–धोने, खाने-पीने की कुछ फिक्र नहीं सिर्फ रास्ता तय करने की उसको धुन थी। आखिर भूखी-प्यासी शाम होते चुनारगढ़ पहुँची। दिल में ठान लिया था कि जब तक तेजसिंह का पता न लगेगा-अन्न जल ग्रहण न करूँगी। कहीं आराम न लिया, इधर-उधर ढूँढ़ने और तलाश करने लगी। एकाएक उसे कुछ चालाकी सूझी, उसने अपनी पूरी सूरत पन्नालाल की बना ली और घसीटासिंह ऐयार के डेरे पर पहुँची।

हम पहले लिख चुके हैं कि छः ऐयारों में से चार ऐयार विजयगढ़ गए हैं और घसीटासिंह और चुन्नीलाल चुनारगढ़ में ही रह गए हैं। घसीटासिंह पन्नालाल को देख कर उठ खड़े हुए और साहब सलामत के बाद पूछा - ‘कहो पन्नालाल, अबकी बार किसको लाए?’

पन्नालाल – ‘इस बार लाए तो किसी को नहीं, सिर्फ इतना पूछने आए हैं कि नाजिम यहाँ है या नहीं, उसका पता नहीं लगता।’

घसीटासिंह – ‘यहाँ तो नहीं आया।’

पन्नालाल – ‘फिर उसको पकड़ा किसने? वहाँ तो अब कोई ऐयार नहीं है।’

घसीटासिंह – ‘यह तो मैं नहीं कह सकता कि वहाँ और कोई भी ऐयार है या नहीं, सिर्फ तेजसिंह का नाम तो मशहूर था सो कैद हो गए, इस वक्त किले में बंद पड़े रोते होंगे।’

पन्नालाल – ‘खैर, कोई हर्ज नहीं, पता लग ही जाएगा, अब जाता हूँ रुक नहीं सकता। यह कह नकली पन्नालाल वहाँ से रवाना हुए।’

अब चपला का जी ठिकाने हुआ। यह सोच कर कि तेजसिंह का पता लग गया और वे यहीं मौजूद हैं, कोई हर्ज नहीं। जिस तरह होगा छुड़ा लेगी, वह मैदान में निकल गई और गंगाजी के किनारे बैठ अपने बटुए में से कुछ मेवा निकाल के खाया, गंगाजल पी के निश्चिंत हुई और, तब अपनी सूरत एक गाने वाली औरत की बनाई। चपला को खूबसूरत बनाने की कोई जरूरत नहीं थी, वह खुद ऐसी थी कि हजार खुबूसूरतों का मुकाबला करे, मगर इस सबब से कोई पहचान ले उसको अपनी सूरत बदलनी पड़ी। जब हर तरह से लैस हो गई, एक बंशी हाथ में ले राजमहल के पिछवाड़े की तरफ जा एक साफ जगह देख बैठ गई और चढ़ी आवाज में एक बिरहा गाने लगी, एक बार फिर स्वयं गा कर फिर उसी गत को बंशी पर बजाती।

रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी, राजमहल में शिवदत्त महल की छत पर मायारानी के साथ मीठी-मीठी बातें कर रहे थे, एकाएक गाने की आवाज उनके कानों में गई और महारानी ने भी सुनी। दोनों ने बातें करना छोड़ दिया और कान लगा कर गौर से सुनने लगे। थोड़ी देर बाद बंशी की आवाज आने लगी जिसका बोल साफ मालूम पड़ता था। महाराज की तबीयत बेचैन हो गई, झट लौंडी को बुला कर हुक्म दिया - ‘किसी को कहो, अभी जा कर उसको इस महल के नीचे ले आए जिसके गाने की आवाज आ रही है।’

हुक्म पाते ही पहरेदार दौड़ गए, देखा कि एक नाजुक बदन बैठी गा रही है। उसकी सूरत देख कर लोगों के होशो-हवास ठिकाने न रहे, बहुत देर के बाद बोले - ‘महाराज ने महल के करीब आपको बुलाया है और आपका गाना सुनने के बहुत मुश्तहक (बैचेन) हैं’

चपला ने कुछ इनकार न किया, उन लोगों के साथ-साथ महल के नीचे चली आई और गाने लगी। उसके गाने ने महाराज को बेताब कर दिया। दिल को रोक न सके, हुक्म दिया कि उसको दीवान खाने में ले जा कर बैठाया जाए और रोशनी का बंदोबस्त हो, हम भी आते हैं।

महारानी ने कहा - ‘आवाज से यह औरत मालूम होती है, क्या हर्ज है अगर महल में बुला ली जाए।’

महाराज ने कहा - ‘पहले उसको देख-समझ लें तो फिर जैसा होगा किया जाएगा, अगर यहाँ आने लायक होगी तो तुम्हारी भी खातिर कर दी जाएगी।’

हुक्म की देर थी, सब सामान लैस हो गया। महाराज दीवान खाने में जा विराजे। बीबी चपला ने झुक कर सलाम किया। महाराज ने देखा कि एक औरत निहायत हसीन, रंग गोरा, सुरमई रंग की साड़ी और धानी बूटीदार चोली दक्षिणी ढंग पर पहने पीछे से लांग बाँधे, खुलासा गड़ारीदार जूड़ा कांटे से बाँधे, जिस पर एक छोटा-सा सोने का फूल, माथे पर एक बड़ा-सा रोली का टीका लगाए, कानों में सोने की निहायत खूबसूरत जड़ाऊ बालियाँ पहने, नाक में सरजा की नथ, एक टीका सोने का और घूँघरुदार पटड़ी गूथन के गले में पहने, हाथ में बिना घुंडी का कड़ा व छंदेली जिसके ऊपर काली चूड़ियाँ, कमर में लच्छेदार कर्धनी और पैर में साँकङा पहने, अजब आनबान से सामने खड़ी है। गहना तो मुख्तसर ही है मगर बदन की गठाई और सुडौली पर इतना ही आफत हो रहा है। गौर से निगाह करने पर एक छोटा-सा तिल ठुड्डी के बगल में देखा जो चेहरे को और भी रौनक दे रहा था।

महाराज के होश जाते रहे, अपनी महारानी साहब को भूल गए जिस पर रीझे हुए थे, झट मुँह से निकल पड़ा – ‘वाह। क्या कहना है।’ टकटकी बँध गई। महाराज ने कहा - ‘आओ, यहाँ बैठो।’ बीबी चपला कमर को बल देती हुई अठखेलियों के साथ कुछ नजदीक जा, सलाम करके बैठ गई। महाराज उसके हुस्न के रोब में आ गए, ज्यादा कुछ कह न सके एकटक सूरत देखने लगे। फिर पूछा - ‘तुम्हारा मकान कहाँ है? कौन हो? क्या काम है? तुम्हारी जैसी औरत का अकेली रात के समय घूमना ताज्जुब में डालता है।’ उसने जवाब दिया - ‘मैं ग्वालियर की रहने वाली पटलापा कत्थक की लड़की हूँ। रंभा मेरा नाम है। मेरा बाप भारी गवैया था। एक आदमी पर मेरा जी आ गया, बात-की-बात में वह मुझसे गुस्सा हो के चला गया, उसी की तलाश में मारी-मारी फिरती हूँ। क्या करूँ, अकसर दरबारों में जाती हूँ कि शायद कहीं मिल जाए क्योंकि वह भी बड़ा भारी गवैया है, सो ताज्जुब नहीं, किसी दरबार में हो, इस वक्त तबीयत की उदासी में यों ही कुछ गा रही थी कि सरकार ने याद किया, हाजिर हुई।’

महाराज ने कहा - ‘तुम्हारी आवाज बहुत भली है, कुछ गाओ तो अच्छी तरह सुनूँ।’

चपला ने कहा - ‘महाराज ने इस नाचीज पर बड़ी मेहरबानी की जो नजदीक बुला कर बैठाया और लौंडी को इज्जत दी। अगर आप मेरा गाना सुनना चाहते हैं तो अपने मुलाजिम सपर्दारों (साज बजाने वाले) को तलब करें, वे लोग साथ दें तो कुछ गाने का लुत्फ आए, वैसे तो मैं हर तरह से गाने को तैयार हूँ।’

यह सुन महाराज बहुत खुश हुए और हुक्म दिया कि - ‘सपर्दा हाजिर किए जाएँ।’ प्यादे दौड़ गए और सपर्दाओं का सरकारी हुक्म सुनाया। वे सब हैरान हो गए कि तीन पहर रात गुजरे महाराज को क्या सूझी है। मगर लाचार हो कर आना ही पड़ा। आ कर जब एक चाँद के टुकड़े को सामने देखा तो तबीयत खुश हो गई। कुढ़े हुए आए थे मगर अब खिल गए। झट साज मिला करीने से बैठे, चपला ने गाना शुरू किया। अब क्या था, साज व सामान के साथ गाना, पिछली रात का समा, महाराज को बुत बना दिया, सपर्दा भी दंग रह गए, तमाम इल्म आज खर्च करना पड़ा। बेवक्त की महफिल थी इस पर भी बहुत-से आदमी जमा हो गए। दो चीज दरबारी की गाई थी कि सुबह हो गई। फिर भैरवी गाने के बाद चपला ने बंद करके अर्ज किया - ‘महाराज, अब सुबह हो गई, मैं भी कल की थकी हूँ क्योंकि दूर से आई थी, अब हुक्म हो तो रुखसत होऊँ?’

चपला की बात सुन कर महाराज चौंक पड़े। देखा तो सचमुच सवेरा हो गया है। अपने गले से मोती की माला उतार कर इनाम में दी और बोले - ‘अभी हमारा जी तुम्हारे गाने से बिल्कुल नहीं भरा है, कुछ रोज यहाँ ठहरो, फिर जाना।’

रंभा ने कहा - ‘अगर महाराज की इतनी मेहरबानी लौंडी के हाल पर है तो मुझको कोई हर्ज रहने में नहीं।’

महाराज ने हुक्म दिया कि रंभा के रहने का पूरा बंदोबस्त हो और आज रात को आम महफिल का सामान किया जाए। हुक्म पाते ही सब सरंजाम हो गया, एक सुंदर मकान में रंभा का डेरा पड़ गया, नौकर मजदूर सब तयनात कर दिए गए।

आज की रात आज की महफिल थी। अच्छे आदमी सब इकट्ठे हुए, रंभा भी हाजिर हुई, सलाम करके बैठ गई। महफिल में कोई ऐसा न था जिसकी निगाह रंभा की तरफ न हो। जिसको देखो लंबी साँसें भर रहा है, आपस में सब यही कहते हैं कि वाह, क्या भोली सूरत है, क्यों?, कभी आज तक ऐसी हसीना तुमने देखी थी?’

रंभा ने गाना शुरू किया। अब जिसको देखिए मिट्टी की मूरत हो रहा है। एक गीत गा कर चपला ने अर्ज किया - ‘महाराज एक बार नौगढ़ में राजा सुरेंद्रसिंह की महफिल में लौंडी ने गाया था। वैसा गाना आज तक मेरा फिर न जमा, वजह यह थी कि उनके दीवान के लड़के तेजसिंह ने मेरी आवाज के साथ मिल कर बीन बजाई थी, हाय, मुझको वह महफिल कभी न भूलेगी। दो-चार रोज हुआ, मैं फिर नौगढ़ गई थी, मालूम हुआ कि वह गायब हो गया। तब मैं भी वहाँ न ठहरी, तुरंत वापस चली आई।’ इतना कह रंभा अटक गई। महाराज तो उस पर दिलोजान दिए बैठे थे। बोले - ‘आजकल तो वह मेरे यहाँ कैद है पर मुश्किल तो यह है कि मैं उसको छोड़ूँगा नहीं और कैद की हालत में वह कभी बीन न बजाएगा।’

रंभा ने कहा - ‘जब वह मेरा नाम सुनेगा तो जरूर इस बात को कबूल करेगा मगर उसको एक तरीके से बुलाया जाए, वह अलबत्ता मेरा संग देगा नहीं तो मेरी भी न सुनेगा क्योंकि वह बड़ा जिद्दी है।’

महाराज ने पूछा - ‘वह कौन-सा तरीका है?’

रंभा ने कहा - ‘एक तो उसके बुलाने के लिए ब्राह्मण जाए और वह उम्र में बीस वर्ष से ज्यादा न हो, दूसरे जब वह उसको लावे, दूसरा कोई संग न हो, अगर भागने का खौफ हो तो बेड़ी उसके पैर में पड़ी रहे इसका कोई मुजाएका (आपति) नहीं, तीसरे यह कि बीन कोई उम्दा होनी चाहिए।’

महाराज ने कहा - ‘यह कौन-सी बड़ी बात है।’ इधर-उधर देखा तो एक ब्राह्मण का लड़का चेतराम नामी उस उम्र का नजर आया, उसे हुक्म दिया कि तू जा कर तेजसिंह को ले आ, मीर मुंशी ने कहा - ‘तुम जा कर पहरे वालों को समझा दो कि तेजसिंह के आने में कोई रोक-टोक न करे, हाँ, एक बेड़ी उसके पैर में जरूर पड़ी रहे।’

हुक्म पा चेतराम तेजसिंह को लेने गया और मीरमुंशी ने भी पहरेवालों को महाराज का हुक्म सुनाया। उन लोगों को क्या हर्ज था, तेजसिंह को अकेले रवाना कर दिया। तेजसिंह तुरंत समझ गए कि कोई दोस्त जरूर यहाँ आ पहुँचा है तभी तो उसने ऐसी चालाकी की शर्त से मुझको बुलाया है। खुशी-खुशी चेतराम के साथ रवाना हुए। जब महफिल में आए, अजब तमाशा नजर आया। देखा कि एक बहुत ही खूबसूरत औरत बैठी है और सब उसी की तरफ देख रहे हैं। जब तेजसिंह महफिल के बीच में पहुँचेगा, रंभा ने आवाज दी - ‘आओ, आओ तेजसिंह, रंभा कब से आपकी राह देख रही है। भला वह बीन कब भूलेगी जो आपने नौगढ़ में बजाई थी।’ यह कहते हुए रंभा ने तेजसिंह की तरफ देख कर बाईं आँख बंद की। तेजसिंह समझ गए कि यह चपला है, बोले - ‘रंभा, तू आ गई। अगर मौत भी सामने नजर आती हो तो भी तेरे साथ बीन बजा के मरूँगा, क्योंकि तेरे जैसे गाने वाली भला कहाँ मिलेगी।’

तेजसिंह और रंभा की बात सुन कर महाराज को बड़ा ताज्जुब हुआ मगर धुन तो यह थी कि कब बीन बजे और कब रंभा गाए। बहुत उम्दी बीन तेजसिंह के सामने रखी गई और उन्होंनें बजाना शुरू किया, रंभा भी गाने लगी। अब जो समा बँधा उसकी क्या तारीफ की जाए। महाराज तो सकते की-सी हालत में हो गए। औरों की कैफियत दूसरी हो गई।

एक ही गीत का साथ दे कर तेजसिंह ने बीन हाथ से रख दी।

महाराज ने कहा – ‘क्यों और बजाओ?’

तेजसिंह ने कहा - ‘बस, मैं एक रोज में एक ही गीत या बोल बजाता हूँ इससे ज्यादा नहीं। अगर आपको सुनने का ज्यादा शौक हो तो कल फिर सुन लीजिएगा।’

रंभा ने भी कहा - ‘हाँ, महाराज यही तो इनमें ऐब है। राजा सुरेंद्रसिंह, जिनके यह नौकर थे, कहते-कहते थक गए मगर इन्होंने एक न मानी, एक ही बोल बजा कर रह गए। क्या हर्ज है कल फिर सुन लीजिएगा।’

महाराज सोचने लगे कि अजब आदमी है, भला इसमें इसने क्या फायदा सोचा है, अफसोस। मेरे दरबार में यह न हुआ। रंभा ने भी बहुत कुछ हर्ज करके गाना मौकूफ (स्थगित) किया। सभी के दिल में हसरत बनी रह गई। महाराज ने अफसोस के साथ मजलिस बर्खास्त की और तेजसिंह फिर उसी चेतराम ब्राह्मण के साथ जेल भेज दिए गए।

महाराज को तो अब इश्क को हो गया कि तेजसिंह के बीन के साथ रंभा का गाना सुनें। फिर दूसरे रोज महफिल हुई और उसी चेतराम ब्राह्मण को भेज कर तेजसिंह बुलाए गए। उस रोज भी एक बोल बजा कर उन्होंने बीन रख दी। महाराज का दिल न भरा, हुक्म दिया कि कल पूरी महफिल हो। दूसरे दिन फिर महफिल का सामान हुआ। सब कोई आ कर पहले ही से जमा हो गए, मगर रंभा महफिल में जाने के वक्त से घंटे भर पहले दाँव बचा चेतराम की सूरत बना कैदखाने में पहुँची। पहरेवाले जानते ही थे कि चेतराम अकेला तेजसिंह को ले जाएगा, महाराज का हुक्म ही ऐसा है। उन्होंने ताला खोल कर तेजसिंह को निकाला और पैर में बेड़ी डाल चेतराम के हवाले कर दिया। चेतराम (चपला) उनको ले कर चलते बने। थोड़ी दूर जा कर चेतराम ने तेजसिंह की बेड़ी खोल दी। अब क्या था, दोनों ने जंगल का रास्ता लिया।

कुछ दूर जा कर चपला ने अपनी सूरत बदल ली और असली सूरत में हो गई, अब तेजसिंह उसकी तारीफ करने लगे।

चपला ने कहा - ‘आप मुझको शर्मिंदा न करें क्योंकि मैं अपने को इतना चालाक नहीं समझती जितनी आप तारीफ कर रहे हैं, फिर मुझको आपको छुड़ाने की कोई गरज भी न थी, सिर्फ चंद्रकांता की बेमुरव्वत से मैंने यह काम किया।’

तेजसिंह ने कहा - ‘ठीक है, तुमको मेरी गरज काहे हो होगी। गरजूँ तो मैं ठहरा कि तुम्हारे साथ सपर्दा बना, जो काम बाप-दादों ने न किया था सो करना पड़ा।’ यह सुन चपला हँस पड़ी और बोली - ‘बस माफ कीजिए, ऐसी बातें न करिए।’

तेजसिंह ने कहा - ‘वाह, माफ क्या करना, मैं बगैर मजदूरी लिए न छोडूँगा।’

चपला ने कहा - ‘मेरे पास क्या है जो मैं दूँ?’

उन्होंने कहा - ‘जो कुछ तुम्हारे पास है वही मेरे लिए बहुत है।’

चपला ने कहा - ‘खैर, इन बातों को जाने दीजिए और यह कहिए कि यहाँ से खाली ही चलिएगा या महाराज शिवदत्त को कुछ हाथ भी दिखाइएगा?’

तेजसिंह ने कहा - ‘इरादा तो मेरा यही था, आगे तुम जैसा कहो।’

चपला ने कहा - ‘जरूर कुछ करना चाहिए।’

बहुत देर तक आपस में सोच-विचार कर दोनों ने एक चालाकी ठहराई जिसे करने के लिए ये दोनों उस जगह से दूसरे घने जंगल में चले गए।
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#28
बयान - 18

अब महाराज शिवदत्त की महफिल का हाल सुनिए। महाराज शिवदत्तसिंह महफिल में आ विराजे। रंभा के आने में देर हुई तो एक चोबदार को कहा कि जा कर उसको बुला लाएँ और चेतराम ब्राह्मण को तेजसिंह को लाने के लिए भेजा।

थोड़ी देर बाद चोबदार ने आ कर अर्ज किया कि महाराज, रंभा तो अपने डेरे पर नहीं है, कहीं चली गई।’ महाराज को बड़ा ताज्जुब हुआ क्योंकि उसको जी से चाहने लगे थे। दिल में रंभा के लिए अफसोस करने लगे और हुक्म दिया कि फौरन उसे तलाश करने के लिए आदमी भेजे जाएँ। इतने में चेतराम ने आ कर दूसरी खबर सुनाई कि कैदखाने में तेजसिंह नहीं है। अब तो महाराज के होश उड़ गए। सारी महफिल दंग हो गई कि अच्छी गाने वाली आई जो सभी को बेवकूफ बना कर चली गई।

घसीटासिंह और चुन्नीलाल ऐयार ने अर्ज किया - ‘महाराज बेशक वह कोई ऐयार था जो इस तरह आ कर तेजसिंह को छुड़ा ले गया।’

महाराज ने कहा - ‘ठीक है, मगर काम उसने काबिल इनाम के किया। ऐयारों ने भी तो उसका गाना सुना था, महफिल में मौजूद ही थे, उन लोगों की अक्ल पर क्या पत्थर पड़ गए थे कि उसको न पहचाना। लानत है तुम लोगों के ऐयार कहलाने पर।’ यह कह महाराज गम और गुस्से से भरे हुए उठ कर महल में चले गए।

महफिल में जो लोग बैठे थे उन लोगों ने अपने घर का रास्ता लिया। तमाम शहर में यह बात फैल गई, जिधर देखिए यही चर्चा थी।

दूसरे दिन जब गुस्से में भरे हुए महाराज दरबार में आए तो एक चोबदार ने अर्ज किया - ‘महाराज, वह जो गाने वाली आई थी असल में वह औरत ही थी। वह चेतराम मिश्र की सूरत बना कर तेजसिंह को छुड़ा ले गई। मैंने अभी उन दोनों को उस सलई वाले जंगल में देखा है।’

यह सुन महाराज को और भी ताज्जुब हुआ, हुक्म दिया कि बहुत-से आदमी जाएँ और उनको पकड़ लावें, पर चोबदार ने अर्ज किया - ‘महाराज इस तरह वे गिरफ्तार न होंगे, भाग जाएँगे, हाँ घसीटासिंह और चुन्नीलाल मेरे साथ चलें तो मैं दूर से इन लोगों को दिखला दूँ, ये लोग कोई चालाकी करके उन्हें पकड़ लें।’

महाराज ने इस तरकीब को पसंद करके दोनों ऐयारों को चोबदार के साथ जाने का हुक्म दिया। चोबदार ने उन दोनों को लिए हुए उस जगह पहुँचा जिस जगह उसने तेजसिंह का निशान देखा था, पर देखा कि वहाँ कोई नहीं है।

तब घसीटासिंह ने पूछा - ‘अब किधर देखें?’

उसने कहा - ‘क्या यह जरूरी है कि वे तब से अब तक इसी पेड़ के नीचे बैठे रहें? इधर-उधर देखिए, कहीं होंगे।’

यह सुन घसीटासिंह ने कहा - ‘अच्छा चलो, तुम ही आगे चलो।

वे लोग इधर-उधर ढूँढ़ने लगे, इसी समय एक अहीरिन सिर पर खचिए में दूध लिए आती नजर पड़ी। चोबदार ने उसको अपने पास बुला कर पूछा - ‘कि तूने इस जगह कहीं एक औरत और एक मर्द को देखा है?’

उसने कहा - ‘हाँ-हाँ, उस जंगल में मेरा अडार है, बहुत-सी गाय-भैंसी मेरी वहाँ रहती हैं, अभी मैंने उन दोनों के पास दो पैसे का दूध बेचा है और बाकी दूध ले कर शहर बेचने जा रही हूँ।’ यह सुन कर चोबदार बतौर इनाम के चार पैसे निकाल उसको देने लगा, मगर उसने इनकार किया और कहा कि मैं तो सेंत के पैसे नहीं लेती, हाँ, चार पैसे का दूध आप लोग ले कर पी लें तो मैं शहर जाने से बचूँ और आपका अहसान मानूँ।’

चोबदार ने कहा - ‘क्या हर्ज है, तू दूध ही दे दे।’ बस अहीरन ने खाँचा रख दिया और दूध देने लगी। चोबदार ने उन दोनों ऐयारों से कहा - ‘आइए, आप भी लीजिए।’ उन दोनों ऐयारों ने कहा - ‘हमारा जी नहीं चाहता।’ वह बोली - ‘अच्छा आपकी खुशी।’ चोबदार ने दूध पिया और तब फिर दोनों ऐयारों से कहा - ‘वाह। क्या दूध है। शहर में तो रोज आप पीते ही हैं, भला आज इसको भी तो पी कर मजा देखिए।’ उसके जिद्द करने पर दोनों ऐयारों ने भी दूध पिया और चार पैसे दूध वाली को दिए।

अब वे तीनों तेजसिंह को ढूँढ़ने चले, थोड़ी दूर जा कर चोबदार ने कहा - ‘न जाने क्यों मेरा सिर घूमता है।’ घसीटासिंह बोले - ‘मेरी भी वही दशा है।’ चुन्नीलाल तो कुछ कहना ही चाहते थे कि गिर पड़े। इसके बाद चोबदार और घसीटासिंह भी जमीन पर लेट गए। दूध बेचने वाली बहुत दूर नहीं गई थी, उन तीनों को गिरते देख दौड़ती हुई पास आई और लखलखा सुँघा कर चोबदार को होशियार किया। वह चोबदार तेजसिंह थे, जब होश में आए अपनी असली सूरत बना ली, इसके बाद दोनों की मुश्कें बाँध गठरी कस एक चपला को और दूसरे को तेजसिंह ने पीठ पर लादा और नौगढ़ का रास्ता लिया।
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#29
बयान - 19

तेजसिंह को छुड़ाने के लिए जब चपला चुनारगढ़ गई तब चंपा ने जी में सोचा कि ऐयार तो बहुत से आए हैं और मैं अकेली हूँ, ऐसा न हो, कभी कोई आफत आ जाए। ऐसी तरकीब करनी चाहिए जिसमें ऐयारों का डर न रहे और रात को भी आराम से सोने में आए। यह सोच कर उसने एक मसाला बनाया। जब रात को सब लोग सो गए और चंद्रकांता भी पलँग पर जा लेटी तब चंपा ने उस मसाले को पानी में घोल कर जिस कमरे में चंद्रकांता सोती थी उसके दरवाजे पर दो गज इधर-उधर लेप दिया और निश्चिंत हो राजकुमारी के पलँग पर जा लेटी। इस मसाले में यह गुण था कि जिस जमीन पर उसका लेप किया जाए सूख जाने पर अगर किसी का पैर उस जमीन पर पड़े तो जोर से पटाखे की आवाज आए, मगर देखने से यह न मालूम हो कि इस जमीन पर कुछ लेप किया है। रात-भर चंपा आराम से सोई रही। कोई आदमी उस कमरे के अंदर न आया, सुबह को चंपा ने पानी से वह मसाला धो डाला। दूसरे दिन उसने दूसरी चालाकी की। मिट्टी की एक खोपड़ी बनाई और उसको रँग-रँगा कर ठीक चंद्रकांता की मूरत बना कर जिस पलँग पर कुमारी सोया करती थी तकिए के सहारे वह खोपड़ी रख दी, और धड़ की जगह कपड़ा रख कर एक हल्की चादर उस पर चढ़ा दी, मगर मुँह खुला रखा, और खूब रोशनी कर उस चारपाई के चारों तरफ वही लेप कर दिया।

कुमारी से कहा - ‘आज आप दूसरे कमरे में आराम करें।’

चंद्रकांता समझ गई और दूसरे कमरे में जा लेटी। जिस कमरे में चंद्रकांता सोई उसके दरवाजे पर भी लेप कर दिया और जिस कमरे में पलँग पर खोपड़ी रखी थी उसके बगल में एक कोठरी थी, चिराग बुझा कर आप उसमें सो गई।

आधी रात गुजर जाने के बाद उस कमरे के अंदर से जिसमें खोपड़ी रखी थी, पटाखे की आवाज आई। सुनते ही चंपा झट उठ बैठी और दौड़ कर बाहर से किवाड़ बंद कर खूब गुल करने लगी, यहाँ तक कि बहुत-सी लौंडियाँ वहाँ आ कर इकट्ठी हो गईं और एक ने जा कर महाराज को खबर दी कि चंद्रकांता के कमरे में चोर घुसा है। यह सुन महाराज खुद दौड़े आए और हुक्म दिया कि महल के पहरे से दस-पाँच सिपाही अभी आएँ। जब सब इकट्ठे हुए, कमरे का दरवाजा खोला गया। देखा कि रामनारायण और पन्नालाल दोनों ऐयार भीतर हैं। बहुत-से आदमी उन्हें पकड़ने के लिए अंदर घुस गए, उन ऐयारों ने भी खंजर निकाल चलाना शुरू किया। चार-पाँच सिपाहियों को जख्मी किया, आखिर पकड़े गए। महाराज ने उनको कैद में रखने का हुक्म दिया और चंपा से हाल पूछा। उसने अपनी कार्रवाई कह सुनाई। महाराज बहुत खुश हुए और उसको इनाम दे कर पूछा - ‘चपला कहाँ है?’ उसने कहा - ‘वह बीमार है’। फिर महाराज ने और कुछ न पूछा अपने आरामगाह में चले गए।

सुबह को दरबार में उन ऐयारों को तलब किया। जब वे आए तो पूछा - ‘तुम्हारा क्या नाम है?’

पन्नालाल बोला - ‘सरतोड़सिंह।’ महाराज को उसकी ढिठाई पर बड़ा गुस्सा आया। कहने लगे कि - ‘ये लोग बदमाश हैं, जरा भी नहीं डरते। खैर, ले जा कर इन दोनों को खूब होशियारी के साथ कैद रखो।’ हुक्म के मुताबिक वे कैदखाने में भेज दिए गए।

महाराज ने हरदयालसिंह से पूछा - ‘कुछ तेजसिंह का पता लगा?’

हरदयालसिंह ने कहा - ‘महाराज अभी तक तो पता नहीं लगा। ये ऐयार जो पकड़े गए हैं उन्हें खूब पीटा जाए तो शायद ये लोग कुछ बताएँ।’

महाराज ने कहा - ‘ठीक है, मगर तेजसिंह आएगा तो नाराज होगा कि ऐयारों को क्यों मारा? ऐसा कायदा नहीं है। खैर, कुछ दिन तेजसिंह की राह और देख लो फिर जैसा मुनासिब होगा, किया जाएगा, मगर इस बात का ख्याल रखना, वह यह कि तुम फौज के इंतजाम में होशियार रहना क्योंकि शिवदत्तसिंह का चढ़ आना अब ताज्जुब नहीं है।’

हरदयालसिंह ने कहा - ‘मैं इंतजाम से होशियार हूँ, सिर्फ एक बात महाराज से इस बारे में पूछनी थी जो एकांत में अर्ज करूँगा।’

जब दरबार बर्खास्त हो गया तो महाराज ने हरदयालसिंह को एकांत में बुलाया और पूछा - ‘वह कौन-सी बात है?’

उन्होंने कहा - ‘महाराज तेजसिंह ने कई बार मुझसे कहा था बल्कि कुँवर वीरेंद्रसिंह और उनके पिता ने भी फर्माया था कि यहाँ के सब * क्रूर की तरफदार हो रहे हैं, जहाँ तक हो इनको कम करना चाहिए। मैं देखता हूँ तो यह बात ठीक मालूम होती है, इसके बारे में जैसा हुक्म हो, किया जाए।’

महाराज ने कहा - ‘ठीक है, हम खुद इस बात के लिए तुमसे कहने वाले थे। खैर,, अब कहे देते हैं कि तुम धीरे-धीरे सब *ों को नाजुक कामों से बाहर कर दो।’

हरदयालसिंह ने कहा - ‘बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा।’ यह कह महाराज से रुखसत हो अपने घर चले आए।
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#30
बयान - 20

महाराज शिवदत्तसिंह ने घसीटासिंह और चुन्नीलाल को तेजसिंह को पकड़ने के लिए भेज कर दरबार बर्खास्त किया और महल में चले गए, मगर दिल उनका रंभा की जुल्फों में ऐसा फँस गया था कि किसी तरह निकल ही नहीं सकता था। उस महारानी से भी हँस कर बोलने की नौबत न आई।

महारानी ने पूछा - ‘आपका चेहरा सुस्त क्यों हैं?’

महाराज ने कहा - ‘कुछ नहीं, जागने से ऐसी कैफियत है।’

महारानी ने फिर से पूछा - ‘आपने वादा किया था कि उस गाने वाली को महल में ला कर तुम्हें भी उसका गाना सुनवाएँगे, सो क्या हुआ?’ जवाब दिया - ‘वह हमीं को उल्लू बना कर चली गई, तुमको किसका गाना सुनाएँ?’

यह सुन कर महारानी कलावती को बड़ा ताज्जुब हुआ। पूछा - ‘कुछ खुलासा कहिए, क्या मामला है?’

‘इस समय मेरा जी ठिकाने नहीं है, मैं ज्यादा नहीं बोल सकता।’ यह कह कर महाराज वहाँ से उठ कर अपने खास कमरे में चले गए और पलँग पर लेट कर रंभा को याद करने लगे और मन में सोचने लगे - ‘रंभा कौन थी? इसमें तो कोई शक नहीं कि वह थी औरत ही, फिर तेजसिंह को क्यों छुड़ा ले गई? उस पर वह आशिक तो नहीं थी, जैसा कि उसने कहा था। हाय रंभा, तूने मुझे घायल कर डाला। क्या इसी वास्ते तू आई थी? क्या करूँ, कुछ पता भी नहीं मालूम जो तुमको ढूँढूँ।’

दिल की बेताबी और रंभा के ख्याल में रात-भर नींद न आई। सुबह को महाराज ने दरबार में आ कर दरियाफ्त किया - ‘घसीटासिंह और चुन्नीलाल का पता लगा कर आए या नहीं?’

मालूम हुआ कि अभी तक वे लोग नहीं आए। ख्याल रंभा ही की तरफ था। इतने में बद्रीनाथ, नाजिम, ज्योतिषी जी, और क्रूरसिंह पर नजर पड़ी। उन लोगों ने सलाम किया और एक किनारे बैठ गए। उन लोगों के चेहरे पर सुस्ती और उदासी देख कर और भी रंज बढ़ गया, मगर कचहरी में कोई हाल उनसे न पूछा। दरबार बर्खास्त करके तखलिए में गए और पंडित बद्रीनाथ, क्रूरसिंह, नाजिम और जगन्नाथ ज्योतिषी को तलब किया। जब वे लोग आए और सलाम करके अदब के साथ बैठ गए तब महाराज ने पूछा - ‘कहो, तुम लोगों ने विजयगढ़ जा कर क्या किया?’

पंडित बद्रीनाथ ने कहा - ‘हुजूर काम तो यही हुआ कि भगवानदत्त को तेजसिंह ने गिरफ्तार कर लिया और पन्नालाल और रामनारायण को एक चंपा नामी औरत ने बड़ी चालाकी और होशियारी से पकड़ लिया, बाकी मैं बच गया।’

उनके आदमियों में सिर्फ तेजसिंह पकड़ा गया जिसको ताबेदार ने हुजूर में भेज दिया था सिवाय इसके और कोई काम न हुआ। महाराज ने कहा - ‘तेजसिंह को भी एक औरत छुड़ा ले गई। काम तो उसने सजा पाने लायक किया मगर अफसोस। यह तो मैं जरूर कहूँगा कि वह औरत ही थी जो तेजसिंह को छुड़ा ले गई, मगर कौन थी, यह न मालूम हुआ। तेजसिंह को तो लेती ही गई, जाती दफा चुन्नीलाल और घसीटासिंह पर भी मालूम होता है कि हाथ फेरती गई, वे दोनों उसकी खोज में गए थे मगर अभी तक नहीं आए। क्रूर की मदद करने से मेरा नुकसान ही हुआ। खैर, अब तुम लोग यह पता लगाओ कि वह औरत कौन थी जिसने गाना सुना कर मुझे बेताब कर दिया और सभी की आँखों में धूल डाल कर तेजसिंह को छुड़ा ले गई? अभी तक उसकी मोहिनी सूरत मेरी आँखों के आगे फिर रही है।’

नाजिम ने तुरंत कहा - ‘हुजूर मैं पहचान गया। वह जरूर चंद्रकांता की सखी चपला थी, यह काम सिवाय उसके दूसरे का नहीं।’ महाराज ने पूछा - ‘क्या चपला चंद्रकांता से भी ज्यादा खूबसूरत है?’

नाजिम ने कहा - ‘महाराज चंद्रकांता को तो चपला क्या पाएगी मगर उसके बाद दुनिया में कोई खूबसूरत है तो चपला ही है, और वह तेजसिंह पर आशिक भी है।’

इतना सुन महाराज कुछ देर तक हैरानी में रहे फिर बोले - ‘चाहे जो हो, जब तक चंद्रकांता और चपला मेरे हाथ न लगेंगी मुझको आराम न मिलेगा। बेहतर है कि मैं इन दोनों के लिए जयसिंह को चिट्ठी लिखूँ।’

क्रूरसिंह बोला - ‘महाराज जयसिंह चिट्ठी को कुछ न मानेंगे।’

महाराज ने जवाब दिया - ‘क्या हर्ज है, अगर चिट्ठी का कुछ ख्याल न करेंगे तो विजयगढ़ को फतह ही करूँगा।’ यह कह कर उन्होनें मीर मुंशी को तलब किया, जब वह आ गया तो हुक्म दिया, राजा जयसिंह के नाम मेरी तरफ से खत लिखो कि चंद्रकांता की शादी मेरे साथ कर दें और दहेज में चपला को दे दें।’

मीर मुंशी ने बमूजिब हुक्म के खत लिखा जिस पर महाराज ने मोहर करके पंडित बद्रीनाथ को दिया और कहा - ‘तुम्हीं इस चिट्ठी को ले कर जाओ, यह काम तुम्हीं से बनेगा।’

पंडित बद्रनाथ को क्या हर्ज था, खत ले कर उसी वक्त विजयगढ़ की तरफ रवाना हो गए।
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#31
बयान - 21

दूसरे दिन महाराज जयसिंह दरबार में बैठे हरदयालसिंह से तेजसिंह का हाल पूछ रहे थे कि अभी तक पता लगा या नहीं, कि इतने में सामने से तेजसिंह एक बड़ा भारी गट्ठर पीठ पर लादे हुए आ पहुँचे। गठरी तो दरबार के बीच में रख दी और झुक कर महाराज को सलाम किया। महाराज जयसिंह तेजसिंह को देख कर खुश हुए और बैठने के लिए इशारा किया। जब तेजसिंह बैठ गए तो महाराज ने पूछा - ‘क्यों जी, इतने दिन कहाँ रहे और क्या लाए हो? तुम्हारे लिए हम लोगों को बड़ी भारी परेशानी रही, दीवान जीतसिंह भी बहुत घबराए होंगे क्योंकि हमने वहाँ भी तलाश करवाया था।’

तेजसिंह ने अर्ज किया - ‘महाराज, ताबेदार दुश्मन के हाथ में फँस गया था, अब हुजूर के एकबाल से छूट आया है बल्कि आती दफा चुनारगढ़ के दो ऐयारों को जो वहाँ से, लेता आया है।’

महाराज यह सुन कर बहुत खुश हुए और अपने हाथ का कीमती कड़ा तेजसिंह को ईनाम दे कर कहा - ‘यहाँ भी दो ऐयारों को महल में चंपा ने गिरफ्तार किया जो कैद किए गए हैं। इनको भी वहीं भेज देना चाहिए।’ यह कह कर हरदयालसिंह की तरफ देखा। उन्होंने प्यादों को गठरी खोलने का हुक्म दिया, प्यादों ने गठरी खोली। तेजसिंह ने उन दोनों को होशियार किया और प्यादों ने उनको ले जा कर उसी जेल में बंद कर दिया, जिसमें रामनारायण और पन्नालाल थे।

तेजसिंह ने महाराज से अर्ज किया - ‘मेरे गिरफ्तार होने से नौगढ़ में सब कोई परेशान होंगे, अगर इजाजत हो तो मैं जा कर सभी से मिल आऊँ।’

महाराज ने कहा - ‘हाँ, जरूर तुमको वहाँ जाना चाहिए, जाओ, मगर जल्दी वापस चले आना।’

इसके बाद महाराज ने हरदयालसिंह को हुक्म दिया - ‘तुम मेरी तरफ से तोहफा ले कर तेजसिंह के साथ नौगढ़ जाओ।’

‘बहुत अच्छा’ कह के हरदयालसिंह ने तोहफे का सामान तैयार किया और कुछ आदमी संग ले तेजसिंह के साथ नौगढ़ रवाना हुए।

चपला जब महल में पहुँची, उसको देखते ही चंद्रकांता ने खुश हो कर उसे गले लगा लिया और थो़ड़ी देर बाद हाल पूछने लगी। चपला ने अपना पूरा हाल खुलासा तौर पर बयान किया। थोड़ी देर तक चपला और चंद्रकांता में चुहल होती रही। कुमारी ने चंपा की चालाकी का हाल बयान करके कहा कि - ‘तुम्हारी शागिर्दा ने भी दो ऐयारों को गिरफ्तार किया है यह सुन कर चपला बहुत खुश हुई और चंपा को जो उसी जगह मौजूद थी, गले लगा कर बहुत शाबाशी दी।

इधर तेजसिंह नौगढ़ गए थे रास्ते में हरदयालसिंह से बोले - ‘अगर हम लोग सवेरे दरबार के समय पहुँचते तो अच्छा होता क्योंकि उस वक्त सब कोई वहाँ रहेंगे।’

इस बात को हरदयालसिंह ने भी पसंद किया और रास्ते में ठहर गए, दूसरे दिन दरबार के समय ये दोनों पहुँचे और सीधे कचहरी में चले गए। राजा साहब के बगल में वीरेंद्रसिंह भी बैठे थे, तेजसिंह को देख कर इतने खुश हुए कि मानों दोनों जहान की दौलत मिल गई हो। हरदयालसिंह ने झुक कर महाराज और कुमार को सलाम किया और जीतसिंह से बराबर की मुलाकात की। तेजसिंह ने महाराज सुरेंद्रसिंह के कदमों पर सिर रखा, राजा साहब ने प्यार से उसका सिर उठाया। तब अपने पिता को पालागन करके तेजसिंह कुमार की बगल में जा बैठे। हरदयालसिंह ने तोहफा पेश किया और एक पोशाक जो कुँवर वीरेंद्रसिंह के वास्ते लाए थे, वह उनको पहनाई जिसे देख राजा सुरेंद्रसिंह बहुत खुश हुए और कुमार की खुशी का तो कुछ ठिकाना ही न रहा। राजा साहब ने तेजसिंह से गिरफ्तार होने का हाल पूछा, तेजसिंह ने पूरा हाल अपने गिरफ्तार होने का तथा कुछ बनावटी हाल अपने छूटने का बयान किया और यह भी कहा - ‘आती दफा वहाँ के दो ऐयारों को भी गिरफ्तार कर लाया हूँ जो विजयगढ़ में कैद हैं।’

यह सुन कर राजा ने खुश हो कर तेजसिंह को बहुत कुछ इनाम दिया और कहा - ‘तुम अभी जाओ, महल में सबसे मिल कर अपनी माँ से भी मिलो। उस बेचारी का तुम्हारी जुदाई में क्या हाल होगा, वही जानती होगी।’

बमूजिब मर्जी के तेजसिंह सभी से मिलने के वास्ते रवाना हुए। हरदयालसिंह की मेहमानदारी के लिए राजा ने जीतसिंह को हुक्म दे कर दरबार बर्खास्त किया। सभी के मिलने के बाद तेजसिंह कुँवर वीरेंद्रसिंह के कमरे में गए। कुमार ने बड़ी खुशी से उठ कर तेजसिंह को गले लगा लिया और जब बैठे तो कहा - ‘अपने गिरफ्तार होने का हाल तो तुमने ठीक बयान कर दिया मगर छूटने का हाल बयान करने में झूठ कहा था, अब सच-सच बताओ, तुमको किसने छुड़ाया?’ तेजसिंह ने चपला की तारीफ की और उसकी मदद से अपने छूटने का सच्चा-सच्चा हाल कह दिया। कुमार ने कहा - ‘मुबारक हो।’

तेजसिंह बोले - ‘पहले आपको मैं मुबारकबाद दे दूँगा तब कहीं यह नौबत पहुँचेगी कि आप मुझे मुबारकबाद दें।’ कुमार हँस कर चुप रहे।

कई दिनों तक तेजसिंह हँसी-खुशी से नौगढ़ में रहे मगर वीरेंद्रसिंह का तकाजा रोज होता ही रहा कि फिर जिस तरह से हो चंद्रकांता से मुलाकात कराओ। यह भी धीरज देते रहे।

कई दिन बाद हरदयालसिंह ने दरबार में महाराज से अर्ज किया - ‘कई रोज हो गए ताबेदार को आए, वहाँ बहुत हर्ज होता होगा, अब रुखसत मिलती तो अच्छा था, और महाराज ने भी यह फर्माया था कि आती दफा तेजसिंह को साथ लेते आना, अब जैसी मर्जी हो।’

राजा सुरेंद्रसिंह ने कहा - ‘बहुत अच्छी बात है, तुम उसको अपने साथ लेते जाओ।’ यह कह एक खिलअत दीवान हरदयालसिंह को दिया और तेजसिंह को उनके साथ विदा किया। जाते समय तेजसिंह कुमार से मिलने आए, कुमार ने रो कर, उनको विदा किया और कहा - ‘मुझको ज्यादा कहने की जरूरत नहीं, मेरी हालत देखते जाओ।’

तेजसिंह ने बहुत कुछ ढाँढ़स दिया और यहाँ से विदा हो उसी रोज विजयगढ़ पहुँचे। दूसरे दिन दरबार में दोनों आदमी हाजिर हुए और महाराज को सलाम करके अपनी-अपनी जगह बैठे। तेजसिंह से महाराज ने राजा सुरेंद्रसिंह की कुशल-क्षेम पूछी जिसको उन्होंने बड़ी बुद्धिमानी के साथ बयान किया। इसी समय बद्रीनाथ भी राजा शिवदत्त की चिट्ठी लिए हुए आ पहुँचे और आशीर्वाद दे कर चिट्ठी महाराज के हाथ में दे दी जिसको पढ़ने के लिए महाराज ने दीवान हरदयालसिंह को दिया। खत पढ़ते-पढ़ते हरदयालसिंह का चेहरा मारे गुस्से के लाल हो गया। महाराज और तेजसिंह, हरदयालसिंह के मुँह की तरफ देख रहे थे, उसकी रंगत देख कर समझ गए कि खत में कुछ बेअदबी की बातें लिखी गई हैं। खत पढ़ कर हरदयालसिंह ने अर्ज किया यह खत तखलिए में सुनने लायक है।

महाराज ने कहा - ‘अच्छा, पहले बद्रीनाथ के टिकने का बंदोबस्त करो फिर हमारे पास दीवानखाने में आओ, तेजसिंह को भी साथ ले आना।’

महाराज ने दरबार बर्खास्त कर दिया और महल में चले गए। दीवान हरदयालसिंह पंडित बद्रीनाथ के रहने और जरूरी सामानों का इंतजाम कर तेजसिंह को अपने साथ ले कोट में महाराज के पास गए और सलाम करके बैठ गए। महाराज ने शिवदत्त का खत सुनाने का हुक्म दिया। हरदयालसिंह ने खत को महाराज के सामने ले जा कर अर्ज किया कि अगर सरकार खत पढ़ लेते तो अच्छा था।

महाराज ने खत पढ़ा, पढ़ते ही आँखें मारे गुस्से के सुर्ख हो गईं। खत फाड़ कर फेंक दिया और कहा - ‘बद्रीनाथ से कह दो कि इस खत का जवाब यही है कि यहाँ से चले जाए।’

इसके बाद थोड़ी देर तक महाराज कुछ देखते रहे, तब रंज भरी धीमी आवाज में बोले। ‘क्रूर के चुनारगढ़ जाते ही हमने सोच लिया था कि जहाँ तक बनेगा वह आग लगाने से न चूकेगा, और आखिर यही हुआ। खैर, मेरे जीते जी तो उसकी मुराद पूरी न होगी, साथ ही आप लोगों को भी अब पूरा बंदोबस्त रखना चाहिए।’

तेजसिंह ने हाथ जोड़ कर अर्ज किया - ‘इसमें कोई शक नहीं कि शिवदत्त अब जरूर फौज ले कर चढ़ आएगा इसलिए हम लोगों को भी मुनासिब है कि अपनी फौज का इंतजाम और लड़ाई का सामान पहले से कर रखें। यों तो शिवदत्त की नीयत तभी मालूम हो गई थी जब उसने ऐयारों को भेजा था, पर अब कोई शक नहीं रहा।’

महाराज ने कहा - ‘मैं इस बात को खूब जानता हूँ कि शिवदत्त के पास तीस हजार फौज है और हमारे पास सिर्फ दस हजार, मगर क्या मैं डर जाऊँगा।’

तेजसिंह ने कहा - ‘दस हजार फौज महाराज की और पाँच हजार फौज हमारे सरकार की, पंद्रह हजार हो गई, ऐसे गीदड़ के मारने को इतनी फौज काफी है। अब महाराज दीवान साहब को एक खत दे कर नौगढ़ भेजें, मैं जा कर फौज ले आता हूँ, बल्कि महाराज की राय हो तो कुँवर वीरेंद्रसिंह को भी बुला लें और फौज का इंतजाम उनके हवाले करें, फिर देखिए क्या कैफियत होती है।’

दीवान हरदयालसिंह बोले - ‘कृपानाथ, इस राय को तो मैं भी पसंद करता हूँ।’

महाराज ने कहा - ‘सो तो ठीक है मगर वीरेंद्रसिंह को अभी लड़ाई का काम सुपुर्द करने को जी नहीं चाहता? चाहे वह इस फन में होशियार हों मगर क्या हुआ, जैसा सुरेंद्रसिंह का लड़का, वैरा मेरा भी, मैं कैसे उसको लड़ने के लिए कहूँगा और सुरेंद्रसिंह भी कब इस बात को मंजूर करेंगे?’

तेजसिंह ने जवाब दिया - ‘महाराज इस बात की तरफ जरा भी ख्याल न करें। ऐसा नहीं हो सकता कि महाराज तो लड़ाई पर जाएँ और वीरेंद्रसिंह घर बैठे आराम करें। उनका दिल कभी न मानेगा। राजा सुरेंद्रसिंह भी वीर हैं कुछ कायर नहीं, वीरेंद्रसिंह को घर में बैठने न देंगे बल्कि खुद भी मैदान में बढ़ कर लड़ें तो ताज्जुब नहीं।’

महाराज जयसिंह, तेजसिंह की बात सुन कर बहुत खुश हुए और दीवान हरदयालसिंह को हुक्म दिया – ‘तुम राजा सुरेंद्रसिंह को शिवदत्त की गुस्ताखी का हाल और जो कुछ हमने उसका जवाब दिया है वह भी लिखो और पूछो कि आपकी क्या राय है? इस बात का जवाब आ जाने दो फिर जैसा होगा किया जाएगा, और खत भी तुम्हीं ले कर जाओ और कल ही लौट आओ क्योंकि अब देर करने का मौका नहीं है।’

हरदयालसिंह ने बमूजिब हुक्म के खत लिखा और महाराज ने उस पर मोहर करके उसी वक्त दीवान हरदयालसिंह को विदा कर दिया। दीवान साहब महाराज से विदा हो कर नौगढ की तरफ रवाना हुए। थोड़ा-सा दिन बाकी था जब वहाँ पहुँचे। सीधे दीवान जीतसिंह के मकान पर चले गए। दीवान जीतसिंह खबर पाते ही बाहर आए, हरदयालसिंह को ला कर अपने यहाँ उतारा और हाल-चाल पूछा। हरदयालसिंह ने सब खुलासा हाल कहा।

जीतसिंह गुस्से में आ कर बोले – ‘आजकल शिवदत्त के दिमाग में खलल आ गया है, हम लोगों को उसने साधारण समझ लिया है? खैर, देखा जाएगा, कुछ हर्ज नहीं, आप आज शाम को राजा साहब से मिलें।’

शाम के वक्त हरदयालसिंह ने जीतसिंह के साथ राजा सुरेंद्रसिंह की मुलाकात करने गए। वहाँ कुँवर भी बैठे थे। राजा साहब ने बैठने का इशारा किया और हाल-चाल पूछा। उन्होंने महाराज जयसिंह का खत दे दिया, महाराज ने खुद उस चिट्ठी को पढ़ा, गुस्से के मारे कुछ बोल न सके और खत कुँवर वीरेंद्रसिंह के हाथ में दे दिया। कुमार ने भी उसको बखूबी पढ़ा, इनकी भी वही हालत हुई, क्रोध से आँखों के आगे अँधेरा छा गया। कुछ देर तक सोचते रहे इसके बाद हाथ जोड़ कर पिता से अर्ज किया - ‘मुझको लड़ाई का बड़ा हौसला है, यही हम लोगों का धर्म भी है, फिर ऐसा मौका मिले या न मिले, इसलिए अर्ज करता हूँ कि मुझको हुक्म हो तो अपनी फौज ले कर जाऊँ और विजयगढ़ पर चढ़ाई करने से पहले ही शिवदत्त को कैद कर लाऊँ।’

राजा सुरेंद्रसिंह ने कहा - ‘उस तरफ जल्दी करने की कोई जरूरत नहीं है, तुम अभी विजयगढ़ जाओ, क्षत्रियों को लड़ाई से ज्यादा प्यारा बाप, बेटा, भाई-भतीजा कोई नहीं होता। इसलिए तुम्हारी मुहब्बत छोड़ कर हुक्म देता हूँ कि अपनी कुल फौज ले कर महाराज जयसिंह को मदद पहुँचाओ और नाम कमाओ। फिर जीतसिंह की तरफ देख कर - ‘फौज में मुनादी करा दो कि रात-भर में सब लैस हो जाएँ, सुबह को कुमार के साथ जाना होगा।’ इसके बाद हरदयायलसिंह से कहा - ‘आज आप रह जाएँ और कल अपने साथ ही फौज तथा कुमार को ले कर तब जाएँ।’ यह हुक्म दे राजमहल में चले गए।

जीतसिंह दीवान हरदयालसिंह को साथ ले कर घर गए और कुमार अपने कमरे में जा कर लड़ाई का सामान तैयार करने लगे। चंद्रकांता को देखने और लड़ाई पर चलने की खुशी में रात किधर गई कुछ मालूम ही न हुआ।
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#32
बयान - 22

सुबह होते ही कुमार नहा-धो कर जंगी कपड़े पहन हथियारों को बदन पर सजा माँ-बाप से विदा होने के लिए महल में गए। रानी से महाराज ने रात ही सब हाल कह दिया था। वे इनका फौजी ठाठ देख कर दिल में बहुत खुश हुईं। कुमार ने दंडवत कर विदा माँगी, रानी ने आँसू भर कर कुमार को गले से लगाया और पीठ पर हाथ फेर कर कहा - ‘बेटा जाओ, वीर पुरुषों में नाम करो, क्षत्रिय का कुल नाम रख फतह का डंका बजाओ। शूरवीरों का धर्म है कि लड़ाई के वक्त माँ-बाप, ऐश, आराम किसी की मुहब्बत नहीं करते, सो तुम भी जाओ, ईश्वर करे लड़ाई में बैरी तुम्हारी पीठ न देखे।’

माँ-बाप से विदा हो कर कुमार बाहर आए, दीवान हरदयालसिंह को मुस्तैद देखा, आप भी एक घोड़े पर सवार हो रवाना हुए। पीछे-पीछे फौज भी समुद्र की तरह लहर मारती चली। जब विजयगढ़ के करीब पहुँचे तो कुमार घोड़े पर से उतर पड़े और हरदयालसिंह से बोले - ‘मेरी राय है कि इसी जंगल में अपनी फौज को उतारूँ और सब इंतजाम कर लूँ तो शहर में चलूँ।’

हरदयालसिंह ने कहा - ‘आपकी राय बहुत अच्छी है। मैं भी पहले से चल कर आपके के आने की खबर महाराज को देता हूँ फिर लौट कर आपको साथ ले कर चलूँगा।’

कुमार ने कहा - ‘अच्छा जाइए।’

हरदयालसिंह विजयगढ़ पहुँचे, कुमार के आने की खबर देने के लिए महाराज के पास गए और खुलासा हाल बयान करके बोले - ‘कुमार सेना सहित यहाँ से कोस भर पर उतरे हैं।’

यह सुन महाराज बहुत खुश हुए और बोले - ‘फौज के वास्ते वह मुकाम बहुत अच्छा है, मगर वीरेंद्रसिंह को यहाँ ले आना चाहिए। तुम यहाँ के सब दरबारियों को ले जा कर इस्तकबाल करो और कुमार को यहाँ ले आओ।’

बमूजिब हुक्म के हरदयालसिंह बहुत से सरदारों को ले कर रवाना हुए। यह खबर तेजसिंह को भी हुई, सुनते ही वीरेंद्रसिंह के पास पहुँचे और दूर ही से बोले - ‘मुबारक हो।’ तेजसिंह को देख कर कुमार बहुत खुश हुए और हाल-चाल पूछा।

तेजसिंह ने कहा - ‘जो कुछ है सब अच्छा है, जो बाकी है अब बन जाएगा।’ यह कह तेजसिंह लश्कर के इंतजाम में लगे। इतने में दीवान हरदयालसिंह मय दरबारियों के आ पहुँचे और महाराज ने जो हुक्म दिया था, कहा। कुमार ने मंजूर किया और सज-सजा कर घोड़े पर सवार हो एक सौ फौजी सिपाही साथ ले महाराज से मुलाकात को विजयगढ़ चले। शहर भर में मशहूर हो गया कि महाराज की मदद को कुँवर वीरेंद्रसिंह आए हैं, इस वक्त किले में जाएँगे। सवारी देखने के लिए अपने-अपने मकानों पर औरत-मर्द पहले ही से बैठ गए और सड़कों पर भी बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गई। सभी की आँखें उत्तर की तरफ सवारों के इंतजार में थीं। यह खबर महाराज को भी पहुँची कि कुमार चले आ रहे हैं। उन्होंनें महल में जा कर महारानी से सब हाल कहा जिसको सुन कर वे प्रसन्न हुईं और बहुत-सी औरतों के साथ जिनमें चंद्रकांता और चपला भी थीं, सवारी का तमाशा देखने के लिए ऊँची अटारी पर जा बैठीं। महाराज भी सवारी का तमाशा देखने के लिए दीवानखाने की छत पर जा बैठे। थोड़ी ही देर बाद उत्तर की तरफ से कुछ धूल उड़त दिखाई दी और नजदीक आने पर देखा कि थोड़ी-सी फौज (सवारों की) चली आ रही है। कुछ अरसा गुजरा तो साफ दिखाई देने लगा।

कुछ सवार, जो धीरे-धीरे महल की तरफ आ रहे थे, फौलादी जिर्र (कवच) पहने हुए थे जिस पर डूबते हुए सूर्य की किरणें पड़ने से अजब चमक-दमक मालूम होती थी। हाथ में झंडेदार नेजा लिए, ढाल-तलवार लगाए जवानी की उमंग में अकड़े हुए बहुत ही भले मालूम पड़ते थे। उनके आगे-आगे एक खूबसूरत, ताकतवर और जेवरों से सजे हुए घोड़े पर जिस पर जड़ाऊ जीन कसी हुई थी और अठखेलियाँ कर रहा था, पर कुँवर वीरेंद्रसिंह सवार थे। सिर पर फौलादी टोप जिसमें एक हुमा (एक कल्पित पक्षी) के पर की लंबी कलगी लगी थी, बदन में बेशकीमती लिबास के ऊपर फौलादी जेर्र पहने हुए थे। गोरा रंग, बड़ी-बड़ी आँखें, गालों पर सुर्खी छा रही थी। बड़े-बड़े पन्ने के दानों का कंठा और भुजबंद भी पन्ने का था जिसकी चमक चेहरे पर पड़ कर खूबसूरती को दूना कर रही थी। कमर में जड़ाऊ पेटी जिसमें बेशकीमती हीरा जड़ा हुआ था, और पिंडली तक का जूता जिस पर कौदैये मोती का काम था, चमड़ा नजर नहीं आता था, पहने हुए थे। ढाल, तलवार, खंजर, तीर-कमान लगाए एक गुर्ज करबूस में लटकता हुआ, हाथ में नेजा लिए घोड़ा कुदाते चले आ रहे थे। ताकत, जवाँमर्दी, दिलेरी, और रोआब उनके चेहरे से ही झलकता था, दोस्तों के दिलों में मुहब्बत और दुश्मनों के दिलों में खौफ पैदा होता था। सबसे ज्यादा लुत्फ तो यह था कि जो सौ सवार संग में चले आ रहे थे वे सब भी उन्हीं के हमसिन थे। शहर में भीड़ लग गई, जिसकी निगाह कुमार पर पड़ती थी आँखों में चकाचौंध-सी आ जाती थी। महारानी ने, जो वीरेंद्रसिंह को बहुत दिनों पर इस ठाठ और रोआब से आते देखा, सौगुनी मुहब्बत आगे से ज्यादा बढ़ गई। मुँह से निकल पड़ा - ‘अगर चंद्रकांता के लायक वर है तो सिर्फ वीरेंद्र। चाहे जो हो, मैं तो इसी को दामाद बनाऊँगी।’ चंद्रकांता और चपला भी दूसरी खिड़की से देख रही थीं। चपला ने टेढ़ी निगाहों से कुमारी की तरफ देखा। वह शर्मा गई, दिल हाथ से जाता रहा, कुमार की तस्वीर आँखों में समा गई, उम्मीद हुई कि अब पास से देखूँगी। उधर महाराज की टकटकी बँध गई।

इतने में कुमार किले के नीचे आ पहुँचे। महाराज से न रहा गया, खुद उतर आए और जब तक वे किले के अंदर आएँ महाराज भी वहाँ पहुँच गए। वीरेंद्रसिंह ने महाराज को देख कर पैर छुए, उन्होंने उठा कर छाती से लगा लिया और हाथ पकड़े सीधे महल में ले गए। महारानी उन दोनों को आते देख आगे तक बढ़ आईं। कुमार ने चरण छुए, महारानी की आँखों में प्रेम का जल भर आया, बड़ी खुशी से कुमार को बैठने के लिए कहा, महाराज भी बैठ गए। बाएँ तरफ महारानी और दाहिनी तरफ कुमार थे, चारों तरफ लौंडियों की भीड़ थी जो अच्छे-अच्छे गहने और कपड़े पहने खड़ी थीं। कुमार की नीची निगाहें चारों तरफ घूमने लगी मानो किसी को ढूँढ़ रही हों। चंद्रकांता भी किवाड़ की आड़ में खड़ी उनको देख रही थी, मिलने के लिए तबीयत घबरा रही थी मगर क्या करे, लाचार थी। थोड़ी देर तक महाराज और कुमार महल में रहे, इसके बाद उठे और कुमार को साथ लिए हुए दीवानखाने में पहुँचे। अपने खास आरामगाह के पास वाला एक सुंदर कमरा उनके लिए मुकर्रर कर दिया। महाराज से विदा हो कर कुमार अपने कमरे में गए। तेजसिंह भी पहुँचे, कुछ देर चुहल में गुजरी, चंद्रकांता को महल में न देखने से इनकी तबीयत उदास थी, सोचते थे कि कैसे मुलाकात हो। इसी सोच में आँख लग गई।

सुबह जब महाराज दरबार में गए, वीरेंद्रसिंह स्नान-पूजा से छुट्टी पा दरबारी पोशाक पहने, कलंगी सरपेंच समेत सिर पर रख, तेजसिंह को साथ ले दरबार में गए। महाराज ने अपने सिंहासन के बगल में एक जड़ाऊ कुर्सी पर कुमार को बैठाया। हरदयालसिंह ने महाराज की चिट्ठी का जवाब पेश किया जो राजा सुरेंद्रसिंह ने लिखा था। उसको पढ़ कर महाराज बहुत खुश हुए। थोड़ी देर बाद दीवान साहब को हुक्म दिया कि कुमार की फौज में हमारी तरफ से बाजार लगाया जाए और गल्ले वगैरह का पूरा इंतजाम किया जाए, किसी को किसी तरह की तकलीफ न हो। कुमार ने अर्ज किया - ‘महाराज, सामान सब साथ आया है।’

महाराज ने कहा - ‘क्या तुमने इस राज्य को दूसरे का समझा है। सामान आया है तो क्या हुआ, वह भी जब जरूरत होगी काम आएगा। अब हम कुल फौज का इंतजाम तुम्हारे सुपुर्द करते हैं, जैसा मुनासिब समझो बंदोबस्त और इंतजाम करो।’

कुमार ने तेजसिंह की तरफ देख कर कहा - ‘तुम जाओ। मेरी फौज के तीन हिस्से करके दो-दो हजार विजयगढ़ के दोनों तरफ भेजो और हजार फौज के दस टुकड़े करके इधर-उधर पाँच-पाँच कोस तक फैला दो और खेमे वगैरह का पूरा बंदोबस्त कर दो। जासूसों को चारों तरफ रवाना करो। बाकी महाराज की फौज की कल कवायद देख कर जैसा होगा इंतजाम करेंगे।’ हुक्म पाते ही तेजसिंह रवाना हुए।

इस इंतजाम और हमदर्दी को देख कर महाराज को और भी तसल्ली हुई। हरदयालसिंह को हुक्म दिया कि फौज में मुनादी करा दो कि कल कवायद होगी। इतने में महाराज के जासूसों ने आ कर अदब से सलाम कर खबर दी कि शिवदत्तसिंह अपनी तीस हजार फौज ले कर सरकार से मुकाबला करने के लिए रवाना हो चुका है, दो-तीन दिन तक नजदीक आ जाएगा।

कुमार ने कहा - ‘कोई हर्ज नहीं, समझ लेंगे, तुम फिर अपने काम पर जाओ।’

दूसरे दिन महाराज जयसिंह और कुमार एक हाथी पर बैठ कर फौज की कवायद देखने गए। हरदयालसिंह ने *ों को बहुत कम कर दिया था तो भी एक हजार * रह गए थे। कवायद देख कुमार बहुत खुश हुए मगर *ों की सूरत देख त्योरी चढ़ गई। कुमार की सूरत से महाराज समझ गए और धीरे से पूछा - ‘इन लोगों को जवाब दे देना चाहिए?’

कुमार ने कहा - ‘नहीं, निकाल देने से ये लोग दुश्मन के साथ हो जाएँगे। मेरी समझ में बेहतर होगा कि दुश्मन को रोकने के लिए पहले इन्हीं लोगों को भेजा जाए। इनके पीछे तोपखाना और थोड़ी फौज हमारी रहेगी, वे लोग इन लोगों की नीयत खराब देखने या भागने का इरादा मालूम होने पर पीछे से तोप मार कर इन सभी की सफाई कर डालेंगे। ऐसा खौफ रहने से ये लोग एक दफा तो खूब लड़ जाएँगे, मुफ्त मारे जाने से लड़ कर मरना बेहतर समझेंगे।’

इस राय को महाराज ने बहुत पसंद किया और दिल में कुमार की अक्ल की तारीफ करने लगे।

जब महाराज फिरे तो कुमार ने अर्ज किया - ‘मेरा जी शिकार खेलने को चाहता है, अगर इजाजत हो तो जाऊँ?

महाराज ने कहा - ‘अच्छा, दूर मत जाना और दिन रहते जल्दी लौट आना।’ यह कह कर हाथी बैठवाया। कुमार उतर पड़े और घोड़े पर सवार हुए। महाराज का इशारा पा दीवान हरदयालसिंह ने सौ सवार साथ कर दिए। कुमार शिकार के लिए रवाना हुए। थोड़ी देर बाद एक घने जंगल में पहुँच कर दो सांभर तीर से मार कर फिर और शिकार ढूँढ़ने लगे। इतने में तेजसिंह भी पहुँचे।

कुमार से पूछा - ‘क्या सब इंतजाम हो चुका जो तुम यहाँ चले आए?’

तेजसिंह ने कहा - ‘क्या आज ही हो जाएगा? कुछ आज हुआ कुछ कल दुरुस्त हो जाएगा। इस वक्त मेरे जी में आया कि चलें जरा उस तहखाने की सैर कर आएँ जिसमें अहमद को कैद किया है, इसलिए आपसे पूछने आया हूँ कि अगर इरादा हो तो आप भी चलिए।’

‘हाँ, मैं भी चलूँगा।’ कह कर कुमार ने उस तरफ घोड़ा फेरा। तेजसिंह भी घोड़े के साथ रवाना हुए। बाकी सभी को हुक्म दिया कि वापस जाएँ और दोनों सांभरों का जो शिकार किए हैं, उठवा ले जाएँ। थोड़ी देर में कुमार और तेजसिंह तहखाने के पास पहुँचे और अंदर घुसे। जब अँधेरा निकल गया और रोशनी आई तो सामने एक दरवाजा दिखाई देने लगा। कुमार घोड़े से उतर पड़े। अब तेजसिंह ने कुमार से पूछा - ‘भला यह कहिए कि आप यह दरवाजा खोल भी सकते हैं कि नहीं?’

कुमार ने कहा - ‘क्यों नहीं, इसमें क्या कारीगरी है?’ यह कह झट आगे बढ़ शेर के मुँह से जुबान बाहर निकाल ली, दरवाजा खुल गया।

तेजसिंह ने कहा - ‘याद तो है।’

कुमार ने कहा - ‘क्या मैं भूलने वाला हूँ।’ दोनों अंदर गए और सैर करते-करते चश्में के किनारे पहुँचे। देखा कि अहमद और भगवानदास एक चट्टान पर बैठे बातें कर रहे हैं, पैर में बेड़ी पड़ी है। कुमार को देख दोनों उठ खड़े हुए, झुक कर सलाम किया और बोले – “अब तो हम लोगों का कसूर माफ होना चाहिए।”

कुमार ने कहा - ‘हाँ थोड़े रोज और सब्र करो।’

कुछ देर तक वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह टहलते और मेवों को तोड़ कर खाते रहे। इसके बाद तेजसिंह ने कहा - ‘अब चलना चाहिए। देर हो गई।’

कुमार ने कहा - ‘चलो।’ दोनों बाहर आए।

तेजसिंह ने कहा - ‘इस दरवाजे को आपने खोला है, आप ही बंद कीजिए।’ कुमार ने यह कह कर - अच्छा लो, हम ही बंद कर देते हैं।’ दरवाजा बंद कर दिया और घोड़े पर सवार हुए। जब विजयगढ़ के करीब पहुँचे तो तेजसिंह ने कहा - ‘अब आप जाइए, मैं जरा फौज की खबर लेता हुआ आता हूँ।’

कुमार ने कहा - ‘अच्छा जाओ।’ यह सुन तेजसिंह दूसरी तरफ चले गए और कुमार किले में चले आए, घोड़े से उतर कमरे में गए, आराम किया। थोड़ी रात बीते तेजसिंह कुमार के पास आए।

कुमार ने पूछा - ‘कहो, क्या हाल हैं?’

तेजसिंह ने कहा - ‘सब इंतजाम आपके हुक्म मुताबिक हो गया, आज दिनभर में एक घंटे की छुट्टी न मिली जो आपसे मुलाकात करता।’

यह सुन वीरेंद्रसिंह हँस पड़े और बोले - ‘दोपहर तक तो हमारे साथ रहे इस पर कहते हो कि मुलाकात न हुई।’ यह सुनते ही तेजसिंह चौंक पड़े और बोले - ‘आप क्या कहते हैं।’

कुमार ने कहा - ‘कहते क्या हैं, तुम मेरे साथ उस तहखाने में नहीं गए थे जहाँ अहमद और भगवानदत्त बंद हैं?’

अब तो तेजसिंह के चेहरे का रंग उड़ गया और कुमार का मुँह देखने लगे। तेजसिंह की यह हालत देख कर कुमार को भी ताज्जुब हुआ।

तेजसिंह ने कहा - ‘भला यह तो बताइए कि मैं आपसे कहाँ मिला था, कहाँ तक साथ गया और कब वापस आया?’ कुमार ने सब कुछ कह दिया।

तेजसिंह बोले – ‘बस, आपने चौका फेरा। अहमद और भगवानदत्त के निकल जाने का तो इतना गम नहीं है मगर दरवाजे का हाल दूसरे को मालूम हो गया इसका बड़ा अफसोस है।’

कुमार ने कहा - ‘तुम क्या कहते हो समझ में नहीं आता।’

तेजसिंह ने कहा - ‘ऐसा ही समझते तो धोखा ही क्यों खाते। तब न समझे तो अब समझिए, कि शिवदत्त के ऐयारों ने धोखा दिया और तहखाने का रास्ता देख लिया। जरूर यह काम बद्रीनाथ का है, दूसरे का नहीं, ज्योतिषी उसको रमल के जरिए से पता देता है।’

कुमार यह सुन दंग हो गए और अपनी गलती पर अफसोस करने लगे।

तेजसिंह ने कहा - ‘अब तो जो होना था हो गया, उसका अफसोस कहे का। मैं इस वक्त जाता हूँ, कैदी तो निकल गए होंगे मगर मैं जा कर ताले का बंदोबस्त करूँगा।’

कुमार ने पूछा - ‘ताले का बंदोबस्त क्या करोगे?’

तेजसिंह ने कहा - ‘उस फाटक में और भी दो ताले हैं जो इससे ज्यादा मजबूत हैं। उन्हें लगाने और बंद करने में बड़ी देर लगती है इसलिए उन्हें नहीं लगाता था मगर अब लगाऊँगा।’

कुमार ने कहा - ‘मुझे भी वह ताला दिखाओ।’ तेजसिंह ने कहा - ‘अभी नहीं, जब तक चुनारगढ़ पर फतह न पाएँगे न बताएँगे, नहीं तो फिर धोखा होगा।’

कुमार ने कहा - ‘अच्छा तुम्हारी मर्जी।’

तेजसिंह उसी वक्त तहखाने की तरफ रवाना हुए और सवेरा होने के पहले ही लौट आए। सुबह को जब कुमार सो कर उठे तो तेजसिंह से पूछा - ‘कहो तहखाने का क्या हाल है?’ उन्होंने जवाब दिया - ‘कैदी तो निकल गए मगर ताले का बंदोबस्त कर आया हूँ।’

नहा-धो कर कुछ खा कर कुमार को तेजसिंह दरबार ले गए। महाराज को सलाम करके दोनों आदमी अपनी-अपनी जगह बैठ गए। आज जासूसों ने खबर दी कि शिवदत्त की फौज और पास आ गई है, अब दस कोस पर है।

कुमार ने महाराज से अर्ज किया - ‘अब मौका आ गया है कि *ों की फौज दुश्मनों को रोकने के लिए आगे भेजी जाए।’ महाराज ने कहा - ‘अच्छा भेज दो।’

कुमार ने तेजसिंह से कहा - ‘अपना एक तोपखाना भी इस *ी फौज के पीछे रवाना करो।’ फिर कान में कहा – “अपने तोपखाने वालों को समझा देना कि जब फौज की नीयत खराब देखें तो जिंदा किसी को न जाने दें।”

तेजसिंह इंतजाम करने के लिए चले गए, हरदयालसिंह को भी साथ लेते गए। महाराज ने दरबार बर्खास्त किया और कुमार को साथ ले महल में पधारे। दोनों ने साथ ही भोजन किया, इसके बाद कुमार अपने कमरे में चले गए। छटपटाते रह गए मगर आज भी चंद्रकांता की सूरत न दिखी, लेकिन चंद्रकांता ने आड़ से इनको देख लिया।
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#33
बयान - 23

शाम को महाराज से मिलने के लिए वीरेंद्रसिंह गए। महाराज उन्हें अपनी बगल में बैठा कर बातचीत करने लगे। इतने में हरदयालसिंह और तेजसिंह भी आ पहुँचे। महाराज ने हाल पूछा। उन्होंने अर्ज किया कि फौज मुकाबले में भेज दी गई है। लड़ाई के बारे में राय और तरकीबें होने लगीं। सब सोचते-विचारते आधी रात गुजर गई, एकाएक कई चोबदार ने आ कर अर्ज किया - ‘महाराज, चोर-महल में से कुछ आदमी निकल भागे जिनको दुश्मन समझ पहरे वालों ने तीर छोड़े, मगर वे जख्मी हो कर भी निकल गए।’

यह खबर सुन महाराज सोच में पड़ गए। कुमार और तेजसिंह भी हैरान थे। इतने में ही महल से रोने की आवाज आने लगी। सभी का ख्याल उस रोने पर चला गया। पल में रोने और चिल्लाने की आवाज बढ़ने लगी, यहाँ तक कि तमाम महल में हाहाकार मच गया। महाराज और कुमार वगैरह सभी के मुँह पर उदासी छा गई। उसी समय लौंडियाँ दौड़ती हुई आईं और रोते-रोते बड़ी मुश्किल से बोलीं - ‘चंद्रकांता और चपला का सिर काट कर कोई ले गया।’ यह खबर तीर के समान सभी को छेद गई। महाराज तो एकाएक हाय कह के गिर ही पड़े, कुमार की भी अजब हालत हो गई, चेहरे पर मुर्दनी छा गई। हरदयालसिंह की आँखों से आँसू जारी हो गए, तेजसिंह काठ की मूरत बन गए। महाराज ने अपने को सँभाला और कुमार की अजब हालत देख कर गले लगा लिया, इसके बाद रोते हुए कुमार का हाथ पकड़े महल में दौड़े चले गए। देखा कि हाहाकार मचा हुआ है, महारानी चंद्रकांता की लाश पर पछाड़ें खा रही हैं, सिर फट गया, खून जारी है। महाराज भी जा कर उसी लाश पर गिर पड़े। कुमार में तो इतनी भी ताकत न रही कि अंदर जाते। दरवाजे पर ही गिर पड़े, दाँत बैठ गया चेहरा जर्द और मुर्दे की-सी सूरत हो गई।

चंद्रकांता और चपला की लाशें पड़ी थीं, सिर नहीं थे, कमरे में चारों तरफ खून-ही-खून दिखाई देता था। सभी की अजब हालत थी, महारानी रो-रो कर कहती थीं - ‘हाय बेटी। तू कहाँ गई। उसका कैसा कलेजा था जिसने तेरे गले पर छुरी चलाई। हाय-हाय। अब मैं जी कर क्या करूँगी। तेरे ही वास्ते इतना बखेड़ा हुआ और तू ही न रही तो अब यह राज्य क्या हो?’ महाराज कहते थे - ‘अब क्रूर की छाती ठंडी हुई, शिवदत्त को मुराद मिल गई। कह दो, अब आए विजयगढ़ का राज्य करे, हम तो लड़की का साथ देंगे।’

एकाएक महाराज की निगाह दरवाजे पर गई। देखा वीरेंद्रसिंह पड़े हुए हैं, सिर से खून जारी है। दौड़े और कुमार के पास आए, देखा तो बदन में दम नहीं, नब्ज का पता नहीं, नाक पर हाथ रखा तो साँस ठंडी चल रही है। अब तो और भी जोर से महाराज चिल्ला उठे, बोले - ‘गजब हो गया। हमारे चलते नौगढ़ का राज्य भी गारत हुआ। हम तो समझे थे कि वीरेंद्रसिंह को राज्य दे जंगल में चले जाएँगे, मगर हाय। विधाता को यह भी अच्छा न लगा। अरे कोई जाओ, जल्दी तेजसिंह को लिवा लाओ, कुमार को देखें। हाय-हाय। अब तो इसी मकान में मुझको भी मरना पड़ा। मैं समझता हूँ राजा सुरेंद्रसिंह की जान भी इसी मकान में जाएगी। हाय, अभी क्या सोच रहे थे, क्या हो गया। विधाता तूने क्या किया?’

इतने में तेजसिंह आए। देखा कि वीरेंद्रसिंह पड़े हैं और महाराज उनके ऊपर हाथ रखें रो रहे हैं। तेजसिंह की जो कुछ जान बची थी वह भी निकल गई। वीरेंद्रसिंह की लाश के पास बैठ गए और जोर से बोले - ‘कुमार, मेरा जी तो रोने को भी नहीं चाहता क्योंकि मुझको अब इस दुनिया में नहीं रहना है, मैं तो खुशी-खुशी तुम्हारा साथ दूँगा।’ यह कह कर कमर से खंजर निकाला और पेट में मारना ही चाहते थे कि दीवार फाँद कर एक आदमी ने आ कर हाथ पकड़ लिया।

तेजसिंह ने उस आदमी को देखा जो सिर से पैर तक सिंदूर से रंगा हुआ था उसने कहा -

‘काहे को देते हो जान, मेरी बात सुनो दे कान।

यह सब खेल ठगी को मान, लाश देख कर लो पहचान।

उठो देखो भालो, खोजो खोज निकालो।।’

यह कह वह दाँत दिखलाता-उछलता-कूदता भाग गया।



(पहला अध्याय समाप्त)
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#34
दूसरा अध्याय 


बयान - 1

इस आदमी को सभी ने देखा मगर हैरान थे कि यह कौन है, कैसे आया और क्या कह गया। तेजसिंह ने जोर से पुकार के कहा - ‘आप लोग चुप रहें, मुझको मालूम हो गया कि यह सब ऐयारी हुई है, असल में कुमारी और चपला दोनों जीती हैं, यह लाशें उन लोगों की नहीं हैं।’

तेजसिंह की बात से सब चौंक पड़े और एकदम सन्नाटा हो गया। सभी ने रोना-धोना छोड़ दिया और तेजसिंह के मुँह की तरफ देखने लगे।

महारानी दौड़ी हुई उनके पास आईं और बोलीं - ‘बेटा, जल्दी बताओ यह क्या मामला है। तुम कैसे कहते हो कि चंद्रकांता जीती है? यह कौन था जो यकायक महल में घुस आया?’

तेजसिंह ने कहा - ‘यह तो मुझे मालूम नहीं कि यह कौन था मगर इतना पता लग गया कि चंद्रकांता और चपला को शिवदत्तसिंह के ऐयार चुरा ले गए हैं और ये बनावटी लाश यहाँ रख गए हैं जिससे सब कोई जानें कि वे मर गईं और खोज न करें।’

महाराज बोले - ‘यह कैसे मालूम कि यह लाश बनावटी हैं?’

तेजसिंह ने कहा - ‘यह कोई बड़ी बात नहीं है, लाश के पास चलिए मैं अभी बतला देता हूँ।’ यह सुन कर महाराज तेजसिंह के साथ लाश के पास गए, महारानी भी गईं। तेजसिंह ने अपनी कमर से खंजर निकाल कर चपला की लाश की टाँग काट ली और महाराज को दिखला कर बोले – “देखिए इसमें कहीं हड्डी है।”

महाराज ने गौर से देख कर कहा - ‘ठीक है, बनावटी लाश है।’ इसके पीछे चंद्रकांता की लाश को भी इसी तरह देखा, उसमें भी हड्डी नहीं पाई। अब सभी को मालूम हो गया कि ऐयारी की गई है। महाराज बोले – “अच्छा यह तो मालूम हुआ कि चंद्रकांता जीती है, मगर दुश्मनों के हाथ पड़ गई इसका गम क्या कम है?”

तेजसिंह बोले - ‘कोई हर्ज नहीं, अब तो जो होना था हो चुका। मैं चंद्रकांता और चपला को खोज निकालूँगा।’

तेजसिंह के समझाने से सभी को कुछ ढाँढ़स बँधा, मगर कुमार वीरेंद्रसिंह अभी तक बदहोशो-हवास पड़े हैं, उनको इन सब बातों की कुछ खबर नहीं। अब महाराज को यह फिक्र हुई कि कुमार को होशियार करना चाहिए। वैद्य बुलाए गए, सभी ने बहुत-सी तरकीबें की मगर कुमार को होश न आया। तेजसिंह भी अपनी तरकीब करके हैरान हो गए मगर कोई फायदा न हुआ, यह देख महाराज बहुत घबराए और तेजसिंह से बोले - ‘अब क्या करना चाहिए?’

बहुत देर तक गौर करने के बाद तेजसिंह ने कहा कि कुमार को उठवा के उनके रहने के कमरे में भिजवाना चाहिए, वहाँ अकेले में मैं इनका इलाज करूँगा।’

यह सुन महाराज ने उन्हें खुद उठाना चाहा मगर तेजसिंह ने कुमार को गोद में ले लिया और उनके रहने वाले कमरे में ले चले । महाराज भी संग हुए।

तेजसिंह ने कहा - ‘आप साथ न चलिए, ये अकेले ही में अच्छे होंगे।’ महाराज उसी जगह ठहर गए। तेजसिंह कुमार को लिए हुए उनके कमरे में पहुँचे और चारपाई पर लिटा दिया, चारों तरफ से दरवाजे बंद कर दिए और उनके कान के पास मुँह लगा कर बोलने लगे - ‘चंद्रकांता मरी नहीं, जीती है, वह देखो महाराज शिवदत्त के ऐयार उसे लिए जाते हैं। जल्दी दौड़ो, छीनो, नहीं तो बस ले ही जाएँगे। क्या इसी को वीरता कहते हैं। छीः चंद्रकांता को दुश्मन लिए जाएँ और आप देख कर भी कुछ न बोलें? राम राम राम।’

इतनी आवाज कान में पड़ते ही कुमार में आँखें खोल दीं और घबरा कर बोले - ‘हैं। कौन लिए जाता है? कहाँ है चंद्रकांता?’ यह कह कर इधर-उधर देखने लगे। देखा तो तेजसिंह बैठे हैं। पूछा – ‘अभी कौन कह रहा था कि चंद्रकांता जीती है और उसको दुश्मन लिए जाते हैं?’

तेजसिंह ने कहा - ‘मैं कहता था और सच कह रहा था। कुमारी जीती हैं मगर दुश्मन उनको चुरा ले गए हैं और उनकी जगह नकली लाश रख कर इधर-उधर रंग फैला दिया है जिससे लोग कुमारी को मरी हुई जान कर पीछा और खोज न करें।’

कुमार ने कहा - ‘तुम हमें धोखा देते हो। हम कैसे जानें कि वह लाश नकली है?’

तेजसिंह ने कहा - ‘मैं अभी आपको यकीन करा देता हूँ।’ यह कह कमरे का दरवाजा खोला, देखा कि महाराज खड़े हैं, आँखों से आँसू जारी हैं।

तेजसिंह को देखते ही पूछा - ‘क्या हाल है?’ जवाब दिया - ‘अच्छे हैं, होश में आ गए, चलिए देखिए।’ यह सुन महाराज अंदर गए, उन्हें देखते ही कुमार उठ खड़े हुए, महाराज ने गले से लगा लिया। पूछा - ‘मिजाज कैसा है।’

कुमार ने कहा - ‘अच्छा है।’ कई लौंडियाँ भी उस जगह आईं जिनको कुमार का हाल लेने के लिए महारानी ने भेजा था। एक लौंडी से तेजसिंह ने कहा - ‘दोनों लाशों में से जो टुकड़े हाथ-पैर के मैंने काटे थे उन्हें ले आ।’ यह सुन लौंडी दौड़ी गई और वे टुकड़े ले आई। तेजसिंह ने कुमार को दिखला कर कहा – “देखिए यह बनावटी लाश है या नहीं, इसमें हड्डी कहाँ है?”

कुमार ने देख कर कहा - ‘ठीक है, मगर उन लोगों ने बड़ी बदमाशी की।’ तेजसिंह ने कहा - ‘खैर, जो होना था हो गया, देखिए अब हम क्या करते हैं।’

सवेरा हो गया। महाराज, कुमार और तेजसिंह बैठे बातें कर रहे थे कि हरदयालसिंह ने पहुँच कर महाराज को सलाम किया। उन्होंने बैठने का इशारा किया। दीवान साहब बैठ गए और सभी को वहाँ से हट जाने के लिए हुक्म दिया। जब निराला हो गया हरदयालसिंह ने तेजसिंह से पूछा - ‘मैंने सुना है कि वह बनावटी लाश थी जिसको सभी ने कुमारी की लाश समझा था?’ तेजसिंह ने कहा - ‘जी हाँ ठीक बात है।’ और तब बिल्कुल हाल समझाया।

इसके बाद दीवान साहब ने कहा - ‘और गजब देखिए। कुमारी के मरने की खबर सुन कर सब परेशान थे, सरकारी नौकरों में से जिन लोगों ने यह खबर सुनी दौड़े हुए महल के दरवाजे पर रोते-चिल्लाते चले आए, उधर जहाँ ऐयार लोग कैद थे पहरा कम रह गया, मौका पा कर उनके साथी ऐयारों ने वहाँ धावा किया और पहरे वालों को जख्मी कर अपनी तरफ के सब ऐयारों को जो कैद थे छुड़ा ले गए।’

यह खबर सुन कर तेजसिंह, कुमार और महाराज सन्न हो गए।

कुमार ने कहा - ‘बड़ी मुश्किल में पड़ गए। अब कोई भी ऐयार उनका हमारे यहाँ न रहा, सब छूट गए। कुमारी और चपला को ले गए यह तो गजब ही किया। अब नहीं बर्दाश्त होता, हम आज ही कूच करेंगे और दुश्मनों से इसका बदला लेंगे।’ यह बात कह ही रहे थे कि एक चोबदार ने आ कर अर्ज किया कि लड़ाई की खबर ले कर एक जासूस आया है, दरवाजे पर हाजिर है, उसके बारे में क्या हुक्म है?’

हरदयालसिंह ने कहा - ‘इसी जगह हाजिर करो।’

जासूस लाया गया। उसने कहा - ‘दुश्मनों को रोकने के लिए यहाँ से *ी फौज भेजी गई थी। उसके पहुँचने तक दुश्मन चार कोस और आगे बढ़ आए थे। मुकाबले के वक्त ये लोग भागने लगे, यह हाल देख कर तोपखाने वालों ने पीछे से बाढ़ मारी जिससे करीब चौथाई आदमी मारे गए। फिर भागने का हौसला न पड़ा और खूब लड़े, यहाँ तक कि लगभग हजार दुश्मनों को काट गिराया लेकिन वह फौज भी तमाम हो चली, अगर फौरन मदद न भेजी जाएगी तो तोपखाने वाले भी मारे जाएँगे।’

यह सुनते ही कुमार ने दीवान हरदयालसिंह को हुक्म दिया – ‘पाँच हजार फौज जल्दी मदद पर भेजी जाए और वहाँ पर हमारे लिए भी खेमा रवाना करो, दोपहर को हम भी उस तरफ कूच करेंगे।’

हरदयालसिंह फौज भेजने के लिए चले गए।

महाराज ने कुमार से कहा - ‘हम भी तुम्हारे साथ चलेंगे।’

कुमार ने कहा - ‘ऐसी जल्दी क्या है? आप यहाँ रहें, राज्य का काम देखें। मैं जाता हूँ, जरा देखूँ तो राजा शिवदत्त कितनी बहादुरी रखता है, अभी आपको तकलीफ करने की कुछ जरूरत नहीं।’

थोड़ी देर तक बातचीत होने के बाद महाराज उठ कर महल में चले गए। कुमार और तेजसिंह भी स्नान और संध्या-पूजा की फिक्र में उठे। सबसे जल्दी तेजसिंह ने छुट्टी पाई और मुनादी वाले को बुला कर हुक्म दिया कि तू तमाम शहर में इस बात की मुनादी कर आ कि - ‘दंतारबीर का जिसको इष्ट हो वह तेजसिंह के पास हाजिर हो।’ बमूजिब हुक्म के मुनादी वाला मुनादी करने चला गया। सभी को ताज्जुब था कि तेजसिंह ने यह क्या मुनादी करवाई है।
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#35
बयान - 2

मामूली वक्त पर आज महाराज ने दरबार किया। कुमार और तेजसिंह भी हाजिर हुए। आज का दरबार बिल्कुल सुस्त और उदास था, मगर कुमार ने लड़ाई पर जाने के लिए महाराज से इजाजत ले ली और वहाँ से चले गए। महाराज भी उदासी की हालत में उठ के महल में चले गए। यह तो निश्चय हो गया कि चंद्रकांता और चपला जीती हैं मगर कहाँ हैं, किस हालत में हैं, सुखी हैं या दु:खी, इन सब बातों का ख्याल करके महल में महारानी से ले कर लौंडी तक सब उदास थीं, सभी की आँखों से आँसू जारी थे, खाने-पीने की किसी को भी फिक्र न थी, एक चंद्रकांता का ध्यान ही सभी का काम था।

महाराज जब महल में गए महारानी ने पूछा कि चंद्रकांता का पता लगाने की कुछ फिक्र की गई?’

महाराज ने कहा - ‘हाँ तेजसिंह उसकी खोज में जाते हैं, उनसे ज्यादा पता लगाने वाला कौन है जिससे मैं कहूँ? वीरेंद्रसिंह भी इस वक्त लड़ाई पर जाने के लिए मुझसे विदा हो गए, अब देखो क्या होता है।’

बयान - 3

कुछ दिन बाकी है, एक मैदान में हरी-हरी दूब पर पंद्रह-बीस कुर्सियाँ रखी हुई हैं और सिर्फ तीन आदमी कुँवर वीरेंद्रसिंह, तेजसिंह और फतहसिंह सेनापति बैठे हैं, बाकी कुर्सियाँ खाली पड़ी हैं। उनके पूरब की तरफ सैकड़ों खेमे अर्धाचंद्राकार खड़े हैं। बीच में वीरेंद्रसिंह के पलटन वाले अपने-अपने हरबों को साफ और दुरुस्त कर रहे हैं। बड़े-बड़े शामियानों के नीचे तोपें रखी हैं जो हर एक तरह से लैस और दुरुस्त मालूम हो रही हैं। दक्षिण की तरफ घोड़ों का अस्तबल है जिसमें अच्छे-अच्छे घोड़े बँधे दिखाई देते हैं। पश्चिम तरफ बाजे वालों, सुरंग खोदने वालों, पहाड़ उखाड़ने वालों और जासूसों का डेरा तथा रसद का भंडार है।

कुमार ने फतहसिंह सिपहसालार से कहा - ‘मैं समझता हूँ कि मेरा डेरा-खेमा सुबह तक ‘लोहरा’ के मैदान में दुश्मनों के मुकाबले में खड़ा हो जाएगा?’

फतहसिंह ने कहा - ‘जी हाँ, जरूर सुबह तक वहाँ सब सामान लैस हो जाएगा, हमारी फौज भी कुछ रात रहते यहाँ से कूच करके पहर दिन चढ़ने के पहले ही वहाँ पहुँच जाएगी। परसों हम लोगों के हौसले दिखाई देंगे, बहुत दिन तक खाली बैठे-बैठे तबीयत घबरा गई थी।’

इसी तरह की बातें हो रही थीं कि सामने देवीसिंह ऐयारी के ठाठ में आते दिखाई दिए। नजदीक आ कर देवीसिंह ने कुमार और तेजसिंह को सलाम किया। देवीसिंह को देख कर कुमार बहुत खुश हुए और उठ कर गले लगा लिया, तेजसिंह ने भी देवीसिंह को गले लगाया और बैठने के लिए कहा। फतहसिंह सिपहसालार ने भी उनको सलाम किया। जब देवीसिंह बैठ गए, तेजसिंह उनकी तारीफ करने लगे।

कुमार ने पूछा - ‘कहो देवीसिंह, तुमने यहाँ आ कर क्या-क्या किया?’

तेजसिंह ने कहा - ‘इनका हाल मुझसे सुनिए, मैं मुख्तसर में आपको समझा देता हूँ।

कुमार ने कहा - ‘कहो।’

तेजसिंह बोले - ‘जब आप चंद्रकांता के बाग में बैठे थे और भूत ने आ कर कहा था कि खबर भई राजा को तुमरी सुनो गुरु जी मेरे।’ जिसको सुन कर मैंने जबर्दस्ती आपको वहाँ से उठाया था, वह भूत यही थे। नौगढ़ में भी इन्होंने जा कर क्रूरसिंह के चुनारगढ़ जाने और ऐयारों को संग लाने की खबर खंजरी बजा कर दी थी। जब चंद्रकांता के मरने का गम महल में छाया हुआ था और आप बेहोश पड़े थे तब भी इन्हीं ने चंद्रकांता और चपला के जीते रहने की खबर मुझको दी थी, तब मैंने उठ कर लाश पहचानी नहीं होती तो पूरे घर का ही नाश हो चुका था। इतना काम इन्होंने किया। इन्हीं को बुलाने के वास्ते मैंने सुबह मुनादी करवाई थी, क्योंकि इनका कोई ठिकाना तो था ही नहीं।’

यह सुन कर कुमार ने देवीसिंह की पीठ ठोंकी और बोले - ‘शाबास। किस मुँह से तारीफ करें, दो घर तुमने बचाए।’ देवीसिंह ने कहा - ‘मैं किस लायक हूँ जो आप इतनी तारीफ करते हैं, तारीफ सब कामों से निश्चिंत होकर कीजिएगा, इस वक्त चंद्रकांता को छुड़ाने की फिक्र करनी चाहिए, अगर देर होगी तो न जाने उनकी जान पर क्या आ बने। सिवाय इसके इस बात का भी ख्याल रखना चाहिए कि अगर हम लोग बिल्कुल चंद्रकांता ही की खोज में लीन हो जाएँगे तो महाराज की लड़ाई का नतीजा बुरा हो जाएगा।’

यह सुन कुमार ने पूछा - ‘देवीसिंह यह तो बताओ चंद्रकांता कहाँ है, उसको कौन ले गया।’

देवीसिंह ने जवाब दिया कि यह तो नहीं मालूम कि चंद्रकांता कहाँ है, हाँ इतना जानता हूँ कि नाजिम और बद्रीनाथ मिल कर कुमारी और चपला को ले गए, पता लगाने से लग ही जाएगा।’

तेजसिंह ने कहा - ‘अब तो दुश्मन के सब ऐयार छूट गए, वे सब मिल कर नौ हैं और हम दो ही आदमी ठहरे। चाहे चंद्रकांता और चपला को खोजें, चाहे फौज में रह कर कुमार की हिफाजत करें, बड़ी मुश्किल है।’

देवीसिंह ने कहा - ‘कोई मुश्किल नहीं है सब काम हो जाएगा, देखिए तो सही। अब पहले हमको शिवदत्त के मुकाबले में चलना चाहिए, उसी जगह से कुमारी के छुड़ाने की फिक्र की जाएगी।’

तेजसिंह ने कहा - ‘हम लोग महाराज से विदा हो आए हैं, कुछ रात रहते यहाँ से पड़ाव उठेगा, पेशखेमा जा चुका है।’

आधी रात तक ये लोग आपस में बातचीत करते रहे, इसके बाद कुमार उठ कर अपने खेमे में चले गए। कुमार के बगल में तेजसिंह का खेमा था, जिसमें देवीसिंह और तेजसिंह दोनों ने आराम किया। चारों तरफ फौज का पहरा फिरने लगा, गश्त की आवाज आने लगी। थोड़ी रात बाकी थी कि एक छोटी तोप की आवाज हुई, कुछ देर बाद बाजा बजने लगा, कूच की तैयारी हुई और धीर-धीर फौज चल पड़ी। जब सब फौज जा चुकी, पीछे एक हाथी पर कुमार सवार हुए जिन्हें चारों तरफ से बहुत-से सवार घेरे हुए थे। तेजसिंह और देवीसिंह अपने ऐयारी के सामान से सजे हुए, कभी आगे, कभी पीछे, कभी साथ, पैदल चले जाते थे। पहर दिन चढ़े कुँवर वीरेंद्रसिंह का लश्कर शिवदत्तसिंह की फौज के मुकाबले में जा पहुँचा, जहाँ पहले से महाराज जयसिंह की फौज डेरा जमाए हुए थी। लड़ाई बंद थी और * सब मारे जा चुके थे, खेमा-डेरा पहले ही से खड़ा था, कायदे के साथ पलटनों का पड़ाव पड़ा।

जब सब इंतजाम हो चुका, कुँवर वीरेंद्रसिंह ने अपने खेमे में कचहरी की और मीर मुंशी को हुक्म दिया - ‘एक खत शिवदत्त को लिखो कि मालूम होता है आजकल तुम्हारे मिजाम में गर्मी आ गई है जो बैठे-बैठाए एक नालायक क्रूर के भड़काने पर महाराज जयसिंह से लड़ाई ठान ली है। यह भी मालूम हो गया कि तुम्हारे ऐयार चंद्रकांता और चपला को चुरा लाए हैं, सो बेहतर है कि चंद्रकांता और चपला को इज्जत के साथ महाराज जयसिंह के पास भेज दो और तुम वापस जाओ नहीं तो पछताओगे, जिस वक्त हमारे बहादुरों की तलवारें मैदान में चमकेंगी, भागते राह न मिलेगी।’ बमूजिम हुक्म के मीर मुंशी ने खत लिख कर तैयार की।

कुमार ने कहा - ‘यह खत कौन ले जाएगा?’

यह सुन देवीसिंह सामने हाथ जोड़ कर बोले - ‘मुझको इजाजत मिले कि इस खत को ले जाऊँ क्योंकि शिवदत्तसिंह से बातचीत करने की मेरे मन में बड़ी लालसा है।’

कुमार ने कहा - ‘इतनी बड़ी फौज में तुम्हारा अकेला जाना अच्छा नहीं है।’

तेजसिंह ने कहा - ‘कोई हर्ज नहीं, जाने दीजिए।’ आखिर कुमार ने अपनी कमर से खंजर निकाल कर दिया जिसे देवीसिंह ने ले कर सलाम किया, खत बटुए में रख ली और तेजसिंह के चरण छू कर रवाना हुए।

महाराज शिवदत्तसिंह के पलटन वालों में कोई भी देवीसिंह को नहीं पहचानता था। दूर से इन्होंने देखा कि बड़ा-सा कारचोबी खेमा खड़ा है। समझ गए कि यही महाराज का खेमा है, सीधे धड़धड़ाते हुए खेमे के दरवाजे पर पहुँचे और पहरे वालों से कहा - ‘अपने राजा को जा कर खबर करो कि कुँवर वीरेंद्रसिंह का एक ऐयार खत ले कर आया है, जाओ जल्दी जाओ।’ ‘सुनते ही प्यादा दौड़ा गया और महाराज शिवदत्त से इस बात की खबर की।

उन्होंने हुक्म दिया - ‘आने दो।’

देवीसिंह खेमे के अंदर गए। देखा कि बीच में महाराज शिवदत्त सोने के जड़ाऊ सिंहासन पर बैठे हैं, बाईं तरफ दीवान साहब और इसके बाद दोनों तरफ बड़े-बड़े बहादुर बेशकीमती पोशाकें पहने उम्दे-उम्दे हरबे लगाए चाँदी की कुर्सियों पर बैठे हैं, जिनके देखने से कमजोरों का कलेजा दहलता है। बाद इसके दोनों तरफ नीम कुर्सियों पर ऐयार लोग विराजमान हैं। इसके बाद दरजे-बे-दरजे अमीर और ओहदेदार लोग बैठे हैं, बहुत से चोबदार हाथ बाँधें सामने खड़े हैं। गरज कि बड़े रोआब का दरबार देखने में आया।

देवीसिंह किसी को सलाम किए बिना ही बीच में जा कर खड़े हो गए और एक दफा चारों तरफ निगाह दौड़ा कर गौर से देखा, फिर बढ़ कर कुमार की खत महाराज के सामने सिंहासन पर रख दी।

देवीसिंह की बेअदबी देख कर महाराज शिवदत्त मारे गुस्से के लाल हो गए और बोले - ‘एक मच्छर को इतना हौसला हो गया कि हाथी का मुकाबला करे। अभी तो वीरेंद्रसिंह के मुँह से दूध की महक भी गई न होगी।’ यह कहते हुए खत हाथ में ले कर फाड़ दिया।

खत का फटना था कि देवीसिंह की आँखें लाल हो गईं। बोले - ‘जिसके सर मौत सवार होती है उसकी बुद्धि पहले ही हवा खाने चली जाती है।’ देवीसिंह की बात तीर की तरह शिवदत्त के कलेजे के पार हो गई।

बोले - ‘पकड़ो इस बेअदब को।’ इतना कहना था कि कई चोबदार देवीसिंह की तरफ झुके। इन्होंने खंजर निकाल दो-तीन चोबदारों की सफाई कर डाली और फुर्ती से अपने ऐयारी के बटुए में से एक गेद निकाल कर जोर से जमीन पर मार, जिससे बड़ी भारी आवाज हुई। दरबार दहल उठा, महाराज एकदम चौंक पड़े जिससे सिर का शमला जिस पर हीरे का सरपेंच था जमीन पर गिर पड़ा। लपक के देवीसिंह ने उसे उठा लिया और कूद कर खेमे के बाहर निकल गए। सब के सब देखते रह गए किसी के किए कुछ बन न पड़ा।

सारा गुस्सा शिवदत्त ने ऐयारों पर निकाला जो कि उस दरबार में बैठे थे। कहा - ‘लानत है तुम लोगों की ऐयारी पर जो तुम लोगों के देखते दुश्मन का एक अदना ऐयार हमारी बेइज्जती कर जाए।’

बद्रीनाथ ने जवाब दिया - ‘महाराज, हम लोग ऐयार हैं, हजार आदमियों में अकेले घुस कर काम करते हैं मगर एक आदमी पर दस ऐयार नहीं टूट पड़ते। यह हम लोगों के कायदे के बाहर है। बड़े-बड़े पहलवान तो बैठे थे, इन लोगों ने क्या कर लिया।’

बद्रीनाथ की बात का जवाब शिवदत्त ने कुछ न दे कर कहा - ‘अच्छा कल हम देख लेंगे।’
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#36
बयान - 4

महाराज शिवदत्त का शमला लिए हुए देवीसिंह कुँवर वीरेंद्रसिंह के पास पहुँचे और जो कुछ हुआ था बयान किया।

कुमार यह सुन कर हँसने लगे और बोले - ‘चलो सगुन तो अच्छा हुआ?’

तेजसिंह ने कहा - ‘सबसे ज्यादा अच्छा सगुन तो मेरे लिए हुआ कि शागिर्द पैदा कर लाया।’ यह कह शमले में से सरपेंच खोल बटुए में दाखिल किया।

कुमार ने कहा - ‘भला तुम इसका क्या करोगे, तुम्हारे किस मतलब का है?’

तेजसिंह ने जवाब दिया - ‘इसका नाम फतह का सरपेंच है, जिस रोज आपकी बारात निकलेगी महाराज शिवदत्त की सूरत बना इसी को माथे पर बाँध मैं आगे-आगे झंडा ले कर चलूँगा।’

यह सुन कर कुमार ने हँस दिया, पर साथ ही इसके दो बूँद आँसू आँखों से निकल पड़े जिनको जल्दी से कुमार ने रूमाल से पोंछ लिया। तेजसिंह समझ गए कि यह चंद्रकांता की जुदाई का असर है। इनको भी चपला का बहुत कुछ ख्याल था।

देवीसिंह से बोले - ‘सुनो देवीसिंह, कल लड़ाई जरूर होगी इसलिए एक ऐयार का यहाँ रहना जरूरी है और सबसे जरूरी काम चंद्रकांता का पता लगाना है।’

देवीसिंह ने तेजसिंह से कहा - ‘आप यहाँ रह कर फौज की हिफाजत कीजिए। मैं चंद्रकांता की खोज में जाता हूँ।’

तेजसिंह ने कहा - ‘नहीं चुनारगढ़ की पहाड़ियाँ तुम्हारी अच्छी तरह देखी नहीं हैं और चंद्रकांता जरूर उसी तरफ होगी, इससे यही ठीक होगा कि तुम यहाँ रहो और मैं कुमारी की खोज में जाऊँ।’

देवीसिंह ने कहा - ‘जैसी आपकी खुशी।’

तेजसिंह ने कुमार से कहा - ‘आपके पास देवीसिंह है। मैं जाता हूँ, जरा होशियारी से रहिएगा और लड़ाई में जल्दी न कीजिएगा।’

कुमार ने कहा - ‘अच्छा जाओ, ईश्वर तुम्हारी रक्षा करें।’

बातचीत करते शाम हो गई बल्कि कुछ रात भी चली गई, तेजसिंह उठ खड़े हुए और जरूरी चीजें ले, ऐयारी के सामान से लैस हो वहाँ के एक घने जंगल की तरफ चले गए।
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#37
बयान - 5

‘चंद्रकांता को ले जा कर कहाँ रखा होगा? अच्छे कमरे में या अँधेरी कोठरी में? उसको खाने को क्या दिया होगा और वह बेचारी सिवाय रोने के क्या करती होगी। खाने-पीने की उसे कब सुध होगी। उसका मुँह दु:ख और भय से सूख गया होगा। उसको राजी करने के लिए तंग करते होंगे। कहीं ऐसा न हो कि उसने तंग होकर जान दे दी हो।’ इन्हीं सब बातों को सोचते और ख्याल करते कुमार को रात-भर नींद न आई। सवेरा होने ही वाला था कि महाराज शिवदत्त के लश्कर से डंके की आवाज आई।

मालूम हुआ कि दुश्मनों की तरफ लड़ाई का सामान हो रहा है। कुमार भी उठ बैठे, हाथ-मुँह धोए। इतने में हरकारे ने आ कर खबर दी कि दुश्मनों की तरफ लड़ाई का सामान हो रहा है। कुमार ने भी कहा - ‘हमारे यहाँ भी जल्दी तैयारी की जाए।’ हुक्म पा कर हरकारा रवाना हुआ। जब तक कुमार ने स्नान-संध्या से छुट्टी पाई तब तक दोनों तरफ की फौजें भी मैदान में जा डटीं। बेलदारों ने जमीन साफ कर दी।

कुमार भी अपने अरबी घोड़े पर सवार हो मैदान में गए और देवीसिंह से कहा - ‘शिवदत्त को कहना चाहिए कि बहुत से आदमियों का खून कराना अच्छा नहीं, जिस-जिस को बहादुरी का घमंड हो एक-एक लड़ के जल्दी मामला तय कर लें। शिवदत्तसिंह अपने को अर्जुन समझते हैं, उनके मुकाबले के लिए मैं मौजूद हूँ, क्यों बेचारे गरीब सिपाहियों की जान जाए।’ देवीसिंह ने कहा - ‘बहुत अच्छा, अभी इस मामले को तय कर डालता हूँ।’ यह कह मैदान में गए और अपनी चादर हवा में दो-तीन दफा उछाली। चादर उछालनी थी कि झट बद्रीनाथ ऐयार महाराज शिवदत्त के लश्कर से निकल के मैदान में देवीसिंह के पास आए और बोले - ‘जय माता की।’

देवीसिंह ने भी जवाब दिया - ‘जय माता की।’

बद्रीनाथ ने पूछा - ‘क्यों क्या बात है जो मैदान में आ कर ऐयारों को बुलाते हो?’

देवीसिंह - ‘तुमसे एक बात कहनी है।’

बद्रीनाथ – ‘कहो।’

देवीसिंह – ‘तुम्हारी फौज में मर्द बहुत हैं कि औरत?’

बद्रीनाथ – ‘औरत की सूरत भी दिखाई नहीं देती।’

देवीसिंह – ‘तुम्हारे यहाँ कोई बहादुर भी है कि सब गरीब सिपाहियों की जान लेने और आप तमाशा देखने वाले ही हैं?’

बद्रीनाथ – ‘हमारे यहाँ बहादुरों कि भरमार है।’

देवीसिंह – ‘तुम्हारे कहने से तो मालूम होता है कि सब खेत की मूली ही हैं।’

बद्रीनाथ – ‘यह तो मुकाबला होने ही से मालूम होगा।’

देवीसिंह – ‘तो क्यों नहीं एक पर एक लड़ के हौसला निकाल लेते? ऐसा करने से मामला भी जल्द तय हो जाएगा और बेचारे सिपाहियों की जानें भी मुफ्त में न जाएँगी। हमारे कुमार तो कहते हैं कि महाराज शिवदत्त को अपनी बहादुरी का बड़ा भरोसा है, आएँ पहले हम से ही भिड़ जाएँ, या वही जीत जाएँ या हम ही चुनारगढ़ की गद्दी के मालिक हों, बात-ही-बात में मामला तय होता है।’

बद्रीनाथ – ‘तो इसमें हमारे महाराज कभी न हटेंगे, वह बड़े बहादुर हैं। तुम्हारे कुमार को तो चुटकी से मसल डालेंगे।’

देवीसिंह – ‘यह तो हम भी जानते हैं कि उनकी चुटकी बहुत साफ है, फिर आएँ मैदान में।’

इस बातचीत के बाद बद्रीनाथ लौट कर अपनी फौज में गए और जो कुछ देवीसिंह से बातचीत हुई थी जा कर महाराज शिवदत्त से कहा। सुनते ही महाराज शिवदत्त तो लाल हो गए और बोले - ‘यह कल का लड़का मेरे साथ मुकाबला करना चाहता है।’

बद्रीनाथ ने कहा - ‘फिर हियाव ही तो है, हौसला ही तो है, इसमें रंज होने की क्या बात है? मैं जहाँ तक समझता हूँ, उनका कहना ठीक है।’

यह सुनते ही महाराज शिवदत्त झट घोड़ा कुदा कर मैदान में आ गए और भाला उठा कर हिलाया, जिसको देख वीरेंद्रसिंह ने भी अपने घोड़े को एड़ मारी और मैदान में शिवदत्त के मुकाबले में पहुँच कर ललकारा - ‘अपने मुँह अपनी तारीफ करता है और कहता है कि मैं वीर हूँ? क्या बहादुर लोग चोट्टे भी होते हैं? जवाँमर्दी से लड़ कर चंद्रकांता न ली गई? लानत है ऐसी बहादुरी पर।’ वीरेंद्रसिंह की बात तीर की तरह महाराज शिवदत्त के कलेजे में लगी। कुछ जवाब तो न दे सके, गुस्से में भरे हुए बड़े जोर से कुमार पर नेजा चलाया, कुमार ने अपने नेजे से ऐसा झटका दिया कि उनके हाथ से नेजा छटक कर दूर जा गिरा।

यह तमाशा देख दोस्त-दुश्मन दोनों तरफ से ‘वाह-वाह’ की आवाज आने लगी। शिवदत्त बहुत बिगड़ा और तलवार निकाल कर कुमार पर दौड़ा, कुमार ने तलवार का जवाब तलवार से दिया। दोपहर तक दोनों में लड़ाई होती रही, दोपहर बाद कुमार की तलवार से शिवदत्त का घोड़ा जख्मी हो कर गिर पड़ा, बल्कि खुद महाराज शिवदत्त को कई जगह जख्म लगे। घोड़े से कूद कर शिवदत्त ने कुमार के घोड़े को मारना चाहा, मगर मतलब समझ के कुमार भी झट घोड़े पर से कूद पड़े और आगे हो कर एक कोड़ा इस जोर से शिवदत्त की कलाई पर मारा कि हाथ से तलवार छूट कर जमीन पर गिर पड़ी, जिसको दौड़ के देवीसिंह ने उठा लिया। महाराज शिवदत्त को मालूम हो गया कि कुमार हर तरह से जबर्दस्त है, अगर थोड़ी देर और लड़ाई होगी तो हम बेशक मारे जाएँगे या पकड़े जाएँगे। यह सोच कर अपनी फौज को कुमार पर धावा करने का इशारा किया। बस एकदम से कुमार को उन्होंने घेर लिया। यह देख कुमार की फौज ने भी मारना शुरू किया। फतहसिंह सेनापति और देवीसिंह कोशिश करके कुमार के पास पहुँचे और तलवार और खंजर चलाने लगे। दोनों फौजें आपस में खूब गुथ गईं और गहरी लड़ाई होने लगी।

शिवदत्त के बड़े-बड़े पहलवानों ने चाहा कि इसी लड़ाई में कुमार का काम तमाम कर दें मगर कुछ बन न पड़ा। कुमार के हाथ से बहुत दुश्मन मारे गए। शाम को उतारे का डंका बजा और लड़ाई बंद हुई। फौज ने कमर खोली। कुमार अपने खेमे में आए मगर बहुत सुस्त हो रहे थे, फतहसिंह सेनापति भी जख्मी हो गए थे। रात को सभी ने आराम किया।

महाराज शिवदत्त ने अपने दीवान और पहलवानों से राय ली थी कि अब क्या करना चाहिए। फौज तो वीरेंद्रसिंह की हमसे बहुत कम है मगर उनकी दिलावरी से हमारा हौसला टूट जाता है क्योंकि हमने भी उससे लड़ के बहुत जक उठाई। हमारी तो यही राय है कि रात को कुमार के लश्कर पर धावा मारें। इस राय को सभी ने पसंद किया। थोड़ी रात रहे शिवदत्त ने कुमार की फौज पर पाँच सौ सिपाहियों के साथ धावा किया। बड़ा ही गड़बड़ मची। अँधेरी रात में दोस्त-दुश्मनों का पता लगाना मुश्किल था। कुमार की फौज दुश्मन समझ अपने ही लोगों को मारने लगी। यह खबर वीरेंद्रसिंह को भी लगी। झट अपने खेमे से बाहर निकल आए। देवीसिंह ने बहुत से आदमियों को महताब जलाने के लिए बाँटीं। यह महताब तेजसिंह ने अपनी तरकीब से बनाई थीं। इसके जलाते ही उजाला हो गया और दिन की तरह मालूम होने लगा। अब क्या था, कुल पाँच सौ आदमियों को मारना क्या, सुबह होते-होते शिवदत्त के पाँच सौ आदमी मारे गए मगर रोशनी होने के पहले करीब हजार आदमी कुमार की तरफ के नुकसान हो चुके थे, जिसका रंज वीरेंद्रसिंह को बहुत हुआ और सुबह को लड़ाई बंद न होने दी।

दोनों फौजें फिर गुँथ गईं। कुमार ने जल्दी से स्नान किया और संध्या-पूजा करके हरबों को बदन पर सजा दुश्मन की फौज में घुस गए। लड़ाई खूब हो रही थी, किसी को तनोबदन की खबर न थी। एकाएक पूरब और उतर के कोने से कुछ फौजी सवार तेजी से आते हुए दिखाई दिए जिनके आगे-आगे एक सवार बहुत उम्दा पोशाक पहने अरबी घोड़े पर सवार घोड़ा दौड़ाए चला आता था। उसके पीछे और भी सवार जो करीब-करीब पाँच सौ के होंगे। घोड़ा फेंके चले आ रहे थे। अगले सवार की पोशाक और हरबों से मालूम होता था कि यह सभी का सरदार है। सरदार ने मुँह पर नकाब डाल रखा था।

इस फौज ने पीछे से महाराज शिवदत्त की फौज पर धावा किया और खूब मारा। इधर से वीरेंद्रसिंह की फौज ने जब देखा कि दुश्मनों को मारने वाला एक और आ पहुँचा, तबीयत बढ़ गई और हौसले के साथ लड़ने लगे। दो तरफी चोट महाराज शिवदत्त की फौज सँभाल न पाई और भाग चली। फिर तो कुमार की बन पड़ी, दो कोस तक पीछा किया, आखिर फतह का डंका बजाते अपने पड़ाव पर आए, मगर हैरान थे कि ये नकाबपोश सवार कौन थे, जिन्होंने बड़े वक्त पर हमारी मदद की और फिर जिधर से आए थे उधर ही चले गए। कोई किसी की जरा मदद करता है तो अहसान जताने लगता है मगर इन्होंने हमारा सामना भी नहीं किया, यह बड़ी बहादुरी का काम है। बहुत सोचा मगर कुछ समझ न पड़ा।

महाराज शिवदत्त का बिल्कुल माल-खजाना और खेमा वगैरह कुमार के हाथ लगा। जब कुमार निश्चित हुए उन्होंने देवीसिंह से पूछा - ‘क्या तुम कुछ बता सकते हो कि वे नकाबपोश कौन थे जिन्होंने हमारी मदद की?’

देवीसिंह ने कहा - ‘मेरे कुछ भी ख्याल में नहीं आता, मगर वाह। बहादुरी इसको कहते हैं।।’ इतने में एक जासूस ने आ कर खबर दी कि दुश्मन थोड़ी दूर जा कर अटक गए हैं और फिर लड़ाई की तैयारी कर रहे हैं।
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#38
बयान – 6

तेजसिंह चंद्रकांता और चपला का पता लगाने के लिए कुँवर वीरेंद्रसिंह से विदा हो फौज के हाते के बाहर आए और सोचने लगे कि अब किधर जाएँ, कहाँ ढूँढ़े? दुश्मन की फौज में देखने की तो कोई जरूरत नहीं क्योंकि वहाँ चंद्रकांता को कभी नहीं रखा होगा, इससे चुनारगढ़ ही चलना ठीक है। यह सोच कर चुनारगढ़ ही की तरफ रवाना हुए और दूसरे दिन सवेरे वहाँ पहुँचे। सूरत बदल कर इधर-उधर घूमने लगे। जगह-जगह पर अटकते और अपना मतलब निकालने की फिक्र करते थे, मगर कुछ फायदा न हुआ, कुमारी की खबर कुछ भी मालूम न हुई। रात को तेजसिंह सूरत बदल किले के अंदर घुस गए और इधर-उधर ढूँढ़ने लगे। घूमते-घूमते मौका पा कर वे एक काले कपड़े से अपने बदन को ढाँक, कमंद फेंक महल पर चढ़ गए। इस समय आधी रात जा चुकी होगी। छत पर से तेजसिंह ने झाँक कर देखा तो सन्नाटा मालूम पड़ा, मगर रोशनी खूब हो रही थी। तेजसिंह नीचे उतरे और एक दालान में खड़े हो कर देखने लगे। सामने एक बड़ा कमरा था जो कि बहुत खूबसूरती के साथ बेशकीमती असबाबों और तस्वीरों से सजा हुआ था। रोशनी ज्यादा न थी सिर्फ शमादान जल रहे थे, बीच में ऊँची मसनद पर एक औरत सो रही थी। चारों तरफ उसके कई औरतें भी फर्श पर पड़ी हुई थीं। तेजसिंह आगे बढ़े और एक-एक करके रोशनी बुझाने लगे, यहाँ तक कि सिर्फ उस कमरे में एक रोशनी रह गई और सब बुझ गईं। अब तेजसिंह उस कमरे की तरफ बढ़े, दरवाजे पर खड़े हो कर देखा तो पास से वह सूरत बखूबी दिखाई देने लगी जिसको दूर से देखा था। तमाम बदन शबनमी से ढ़का हुआ मगर खूबसूरत चेहरा खुला था, करवट के सबब कुछ हिस्सा मुँह का नीचे के मखमली तकिए पर होने से छिपा हुआ था, गोरा रंग, गालों पर सुर्खी जिस पर एक लट खुल कर आ पड़ी थी जो बहुत ही भली मालूम होती थी। आँख के पास शायद किसी जख्म का घाव था, मगर यह भी भला मालूम होता था। तेजसिंह को यकीन हो गया कि बेशक महाराज शिवदत्त की रानी यही है। कुछ देर सोचने के बाद उन्होंने अपने बटुए में से कलम-दवात और एक टुकड़ा कागज का निकाला और जल्दी से उस पर यह लिखा -

‘न मालूम क्यों इस वक्त मेरा जी चंद्रकांता से मिलने को चाहता है। जो हो, मैं तो उससे मिलने जाती हूँ। रास्ते और ठिकाने का पता मुझे लग चुका है।’

इसके बाद पलँग के पास जा बेहोशी का धतूरा रानी की नाक के पास ले गए जो साँस लेती दफा उसके दिमाग पर चढ़ गया और वह एकदम से बेहोश हो गई। तेजसिंह ने नाक पर हाथ रख कर देखा, बेहोशी की साँस चल रही थी, झट रानी को तो कपड़े में बाँधा और पुर्जा जो लिखा था वह तकिए के नीचे रखा और वहाँ से उसी कमंद के जरिए से बाहर हुए और गंगा किनारे वाली खिड़की जो भीतर से बंद थी, खोल कर तेजी के साथ पहाड़ी की तरफ निकल गए। बहुत दूर जा एक दर्रे में रानी को और ज्यादा बेहोश करके रख दिया और फिर लौट कर किले के दरवाजे पर आ एक तरफ किनारे छिप कर बैठ गए।
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#39
बयान - 7

अब सवेरा होने ही वाला था, महल में लौंडियों की आँखें खुलीं तो महारानी को न देख कर घबरा गईं, इधर-उधर देखा, कहीं नहीं। आखिर खूब गुल-शोर मचा, चारों तरफ खोज होने लगी, पर कहीं पता न लगा। यह खबर बाहर तक फैल गई, सभी को फिक्र पैदा हुई। महाराज शिवदत्तसिंह लड़ाई से भागे हुए दस-पंद्रह सवारों के साथ चुनारगढ़ पहुँचे, किले के अंदर घुसते ही मालूम हुआ कि महल में से महारानी गायब हो गईं। सुनते ही जान सूख गई, दोहरी चपेट बैठी, धड़धड़ाते हुए महल में चले आए, देखा कि कुहराम मचा हुआ है, चारों तरफ से रोने की आवाज आ रही है।

इस वक्त महाराज शिवदत्त की अजब हालत थी, होशो-हवास ठिकाने नहीं थे, लड़ाई से भाग कर थोड़ी दूर पर फौज को तो छोड़ दिया था और अब ऐयारों को कुछ समझा-बुझा आप चुनारगढ़ चले आए थे, यहाँ यह कैफियत देखी। आखिर उदास हो कर महारानी के बिस्तरे के पास आए और बैठ कर रोने लगे। तकिए के नीचे से एक कागज का कोना निकला हुआ दिखाई पड़ा जिसे महाराज ने खोला, देखा कुछ लिखा है। यह कागज वही था जिसे तेजसिंह ने लिख कर रख दिया था। अब उस पुर्जे को देख महाराज कई तरह की बातें सोचने लगे। एक तो महारानी का लिखा नहीं मालूम होता है, उनके अक्षर इतने साफ नहीं हैं। फिर किसने लिख कर रख दिया? अगर रानी ही का लिखा है तो उन्हें यह कैसे मालूम हुआ कि चंद्रकांता फलाने जगह छिपाई गई है? अब क्या किया जाए? कोई ऐयार भी नहीं जिसको पता लगाने के लिए भेजा जाए। अगर किसी दूसरे को वहाँ भेजूँ जहाँ चंद्रकांता कैद है तो बिल्कुल भंडा फूट जाए।

ऐसी-ऐसी बहुत-सी बातें देर तक महाराज सोचते रहे। आखिर जी में यही आया कि चाहे जो हो मगर एक दफा जरूर उस जगह जा कर देखना चाहिए जहाँ चंद्रकांता कैद है। कोई हर्ज नहीं अगर हम अकेले जा कर देखें, मगर दिन में नहीं, शाम हो जाए तो चलें। यह सोच कर बाहर आए और अपने दीवानखाने में भूखे-प्यासे चुपचाप बैठे रहे, किसी से कुछ न कहा मगर बिना हुक्म महाराज के बहुत से आदमी महारानी का पता लगाने जा चुके थे।

शाम होने लगी, महाराज ने अपनी सवारी का घोड़ा मँगवाया और सवार हो अकेले ही किले के बाहर निकले और पूरब की तरफ रवाना हुए। अब बिल्कुल शाम बल्कि रात हो गई, मगर चाँदनी रात होने के सबब साफ दिखाई देता था। तेजसिंह जो किले के दरवाजे के पास ही छिपे हुए थे, महाराज शिवदत्त को अकेले घोड़े पर जाते देख साथ हो लिए, तीन कोस तक पीछे-पीछे तेजी के साथ चले गए मगर महाराज को यह न मालूम हुआ कि साथ-साथ कोई छिपा हुआ आ रहा है। अब महाराज ने अपने घोड़े को एक नाले में चलाया जो बिल्कुल सूखा पड़ा था। जैसे-जैसे आगे जाते थे नाला गहरा मिलता जाता था और दोनों तरफ के पत्थर के करारे ऊँचे होते जाते थे। दोनों तरफ बड़ा भारी डरावना जंगल तथा बड़े-बड़े साखू तथा आसन के पेड़ थे। खूनी जानवरों की आवाजें कान में पड़ रही थीं। जैसे-जैसे आगे बढ़ते जाते थे करारे ऊँचे और नाले के किनारे वाले पेड़ आपस में ऊपर से मिलते जाते थे।

इसी तरह से लगभग एक कोस चले गए। अब नाले में चंद्रमा की चाँदनी बिल्कुल नहीं मालूम होती क्योंकि दोनों तरफ से दरख्त आपस में बिल्कुल मिल गए थे। अब वह नाला नहीं मालूम होता बल्कि कोई सुरंग मालूम होती है। महाराज का घोड़ा पथरीली जमीन और अँधेरा होने के सबब धीरे-धीरे जाने लगा, तेजसिंह बढ़ कर महाराज के और पास हो गए। यकायक कुछ दूर पर एक छोटी-सी रोशनी नजर पड़ी जिससे तेजसिंह ने समझा कि शायद यह रास्ता यहीं तक आने का है और यही ठीक भी निकला। जब रोशनी के पास पहुँचे देखा कि एक छोटी-सी गुफा है जिसके बाहर दोनों तरफ लंबे-लंबे ताकतवर सिपाही नंगी तलवार हाथ में लिए पहरा दे रहे हैं जो बीस के लगभग होंगे। भीतर भी साफ दिखाई देता था कि दो औरतें पत्थरों पर ढासना लगाए बैठी हैं। तेजसिंह ने पहचान तो लिया कि दोनों चंद्रकांता और चपला हैं मगर सूरत साफ-साफ नहीं नजर पड़ी।

महाराज को देख कर सिपाहियों ने पहचाना और एक ने बढ़ कर घोड़ा थाम लिया, महाराज घोड़े पर से उतर पड़े। सिपाहियों ने दो मशाल जलाए जिनकी रोशनी में तेजसिंह को अब साफ चंद्रकांता और चपला की सूरत दिखाई देने लगी। चंद्रकांता का मुँह पीला हो रहा था, सिर के बाल खुले हुए थे, और सिर फटा हुआ था। मिट्टी में सनी हुई बदहोशो-हवास एक पत्थर से लगी पड़ी थी और चपला बगल में एक पत्थर के सहारे उठती हुई चंद्रकांता के सिर पर हाथ रखे बैठी थी। सामने खाने की चीजें रखी हुई थीं जिनके देखने ही से मालूम होता था कि किसी ने उन्हें छुआ तक नहीं। इन दोनों की सूरत से नाउम्मीदी बरस रही थी जिसे देखते ही तेजसिंह की आँखों से आँसू निकल पड़े।

महाराज ने आते ही इधर-उधर देखा। जहाँ चंद्रकांता बैठी थी वहाँ भी चारों तरफ देखा, मगर कुछ मतलब न निकला क्योंकि वह तो रानी को खोजने आए थे, उस पुर्जे पर, जो रानी के बिस्तर पर पाया था महाराज को बड़ी उम्मीद थी मगर कुछ न हुआ, किसी से कुछ पूछा भी नहीं, चंद्रकांता की तरफ भी अच्छी तरह नहीं देखा और लौट कर घोड़े पर सवार हो पीछे फिरे, सिपाहियों को महाराज के इस तरह आ कर फिर जाने से ताज्जुब हुआ मगर पूछता कौन? मजाल किसकी थी? तेजसिंह ने जब महाराज को फिरते देखा तो चाहा कि वहीं बगल में छिप रहें, मगर छिप न सके क्योंकि नाला तंग था और ऊपर चढ़ जाने को भी कहीं जगह न थी, लाचार नाले के बाहर होना ही पड़ा। तेजी के साथ महाराज के पहले नाले के बाहर हो गए और एक किनारे छिप रहे। महाराज वहाँ से निकल शहर की तरफ रवाना हुए।

अब तेजसिंह सोचने लगे कि यहाँ से मैं अकेले चंद्रकांता को कैसे छुड़ा सकूँगा। लड़ने का मौका नहीं, करूँ तो क्या करूँ? अगर महाराज की सूरत बन जाऊँ और कोई तरकीब करूँ तो भी ठीक नहीं होता क्योंकि महाराज अभी यहाँ से लौटे हैं, दूसरी कोई तरकीब करूँ और काम न चले, बैरी को मालूम हो जाए, तो यहाँ से फिर चंद्रकांता दूसरी जगह छिपा दी जाएगी, तब और भी मुश्किल होगी। इससे यही ठीक है कि कुमार के पास लौट चलूँ और वहाँ से कुछ आदमियों को लाऊँ क्योंकि इस नाले में अकेले जा कर इन लोगों का मुकाबला करना ठीक नहीं है।

यही सब-कुछ सोच तेजसिंह विजयगढ़ की तरफ चले, रात-भर चले, दूसरे दिन दोपहर को वीरेंद्रसिंह के पास पहुँचे। कुमार ने तेजसिंह को गले लगाया और बेताबी के साथ पूछा - ‘क्यों कुछ पता लगा?’ जवाब में ‘हाँ’ सुन कर कुमार बहुत खुश हुए और सभी को विदा किया, केवल कुमार, देवीसिंह, फतहसिंह सेनापति और तेजसिंह रह गए। कुमार ने खुलासा हाल पूछा, तेजसिंह ने सब हाल कह सुनाया और बोले - ‘अगर किसी दूसरे को छुड़ाना होता या किसी गैर को पकड़ना होता तो मैं अपनी चालाकी कर गुजरता, अगर काम बिगड़ जाता तो भाग निकलता, मगर मामला चंद्रकांता का है जो बहुत सुकुमार है। न तो मैं अपने हाथ से उसकी गठरी बाँध सकता हूँ और न किसी तरह की तकलीफ देना चाहता हूँ। होना ऐसा चाहिए कि वार खाली न जाए। मैं सिर्फ देवीसिंह को लेने आया हूँ और अभी लौट जाऊँगा, मुझे मालूम हो गया कि आपने महाराज शिवदत्त पर फतह पाई है। अभी कोई हर्ज भी देवीसिंह के बिना आपका न होगा।’

कुमार ने कहा - ‘देवीसिंह भी चलें और मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूँ, क्योंकि यहाँ तो अभी लड़ाई की कोई उम्मीद नहीं और फिर फतहसिंह हैं ही और कोई हर्ज भी नहीं।’

तेजसिंह ने कहा - ‘अच्छी बात है आप भी चलिए।’

यह सुन कर कुमार उसी वक्त तैयार हो गए और फतहसिंह को बहुत-सी बातें समझा-बुझा कर शाम होते-होते वहाँ से रवाना हुए। कुमार घोड़े पर, तेजसिंह और देवीसिंह पैदल कदम बढ़ाते चले। रास्ते में कुमार ने शिवदत्तसिंह पर फतह पाने का पूरा हाल कहा और उन सवारों का हाल भी कहा जो मुँह पर नकाब डाले हुए थे और जिन्होंने बड़े वक्त पर मदद की थी। उनका हाल सुन कर तेजसिंह भी हैरान हुए मगर कुछ ख्याल में न आया कि वे नकाबपोश कौन थे।

यही सब सोचते जा रहे थे, रात चाँदनी थी, रास्ता साफ दिखाई दे रहा था, कुल चार कोस के लगभग गए होंगे कि रास्ते में पंडित बद्रीनाथ अकेले दिखाई पड़े और उन्होंने भी कुमार को देख कर पास आ सलाम किया। कुमार ने सलाम का जवाब हँस कर दिया।

देवीसिंह ने कहा - ‘अजी बद्रीनाथ जी, आप क्या उस डरपोक गीदड़ दगाबाज और चोर का संग किए हैं। हमारे दरबार में आइए, देखिए हमारा सरदार क्या शेरदिल और इंसाफ पसंद है।’

बद्रीनाथ ने कहा - ‘तुम्हारा कहना बहुत ठीक है और एक दिन ऐसा ही होगा, मगर जब तक महाराज शिवदत्त से मामला तय नहीं होता, मैं कब आपके साथ हो सकता हूँ और अगर हो भी जाऊँ तो आप लोग कब मुझ पर विश्वास करेंगे, आखिर मैं भी ऐयार हूँ।’ इतना कह कर और कुमार को सलाम कर जल्दी दूसरा रास्ता पकड़ एक घने जंगल में जा नजर से गायब हो गए।

तेजसिंह ने कुमार से कहा - ‘रास्ते में बद्रीनाथ का मिलना ठीक न हुआ, अब वह जरूर इस बात की खोज में होगा कि हम लोग कहाँ जाते हैं?’

देवीसिंह ने कहा - ‘हाँ इसमें कोई शक नहीं कि यह सगुन खराब हुआ।’

यह सुन कर कुमार का कलेजा धड़कने लगा। बोले - ‘फिर अब क्या किया जाए?’

तेजसिंह ने कहा - ‘इस वक्त और कोई तरकीब तो हो नहीं सकती है, हाँ एक बात है कि हम लोग जंगल का रास्ता छोड़ मैदान-मैदान चलें। ऐसा करने से पीछे का आदमी आता हुआ मालूम होगा।’

कुमार ने कहा - ‘अच्छा तुम आगे चलो।’

अब वे तीनों जंगल छोड़ मैदान में हो लिए। पीछे फिर-फिर के देखते जाते थे मगर कोई आता हुआ मालूम न पड़ा। रात-भर बेखटके चलते गए। जब दिन निकला एक नाले के किनारे तीनों आदमियों ने बैठ, जरूरी कामों से छुट्टी पा, स्नान संध्या-पूजा किया और फिर रवाना हुए। पहर दिन चढ़ते-चढ़ते एक बड़े जंगल में ये लोग पहुँचे जहाँ से वह नाला जिसमें चंद्रकांता और चपला थीं, दो कोस बाकी था।

तेजसिंह ने कहा - ‘दिन इसी जंगल में बिताना चाहिए। शाम हो जाए तो वहाँ चलें, क्योंकि काम रात ही में ठीक होगा।’ यह कह एक बहुत बड़े सलई के पेड़ तले डेरा जमाया। कुमार के वास्ते जीनपोश बिछा दिया, घोड़े को खोल गले में लंबी रस्सी डाल कर पेड़ से बाँधा और चरने के लिए छोड़ दिया। दिन भर बातचीत और तरकीब सोचने में गुजर गया, सूरज अस्त होने पर ये लोग वहाँ से रवाना हुए। थोड़ी ही देर में उस नाले के पास जा पहुँचे, पहले दूर ही खड़े हो कर चारों तरफ निगाह दौड़ा कर देखा, जब किसी की आहट न मिली तब नाले में घुसे।

कुमार इस नाले को देख बहुत हैरान हुए और बोले - ‘अजब भयानक नाला है।’ धीरे-धीरे आगे बढ़े, जब नाले के आखिर में पहुँचे जहाँ पहले दिन तेजसिंह ने चिराग जलते देखा था तो वहाँ अँधेरा पाया। तेजसिंह का माथा ठनका कि यह क्या मामला है। आखिर उस कोठरी के दरवाजे पर पहुँचे जिसमें कुमारी और चपला थीं। देखा कि कई आदमी जमीन पर पड़े हैं। अब तो तेजसिंह ने अपने बटुए में से सामान निकाल रोशनी की जिससे साफ मालूम हुआ कि जितने पहरे वाले पहले दिन देखे थे, सब जख्मी हो कर मरे पड़े हैं। अंदर घुसे, कुमारी और चपला का पता नहीं, हाँ दोनों के गहने सब टूटे-फूटे पड़े थे और चारों तरफ खून जमा हुआ था। कुमार से न रहा गया, एकदम ‘हाय’ करके गिर पड़े और आँसू बहाने लगे।

तेजसिंह समझाने लगे कि आप इतने बेताब क्यों हो गए। जिस ईश्वर ने यहाँ तक हमें पहुँचाया वही फिर उस जगह पहुँचाएगा जहाँ कुमारी है।’

कुमार ने कहा - ‘भाई, अब मैं चंद्रकांता के मिलने से नाउम्मीद हो गया, जरूर वह परलोक को गई।’

तेजसिंह ने कहा - ‘कभी नहीं, अगर ऐसा होता तो इन्हीं लोगों में वह भी पड़ी होती।’

देवीसिंह बोले - ‘कहीं बद्रीनाथ की चालाकी तो नहीं भाई।’

उन्होंने जवाब दिया - ‘यह बात भी जी में नहीं बैठती, भला अगर हम यह भी समझ लें कि बद्रीनाथ की चालाकी हुई तो इन प्यादों को मारने वाला कौन था? अजब मामला है, कुछ समझ में नहीं आता। खैर, कोई हर्ज नहीं, वह भी मालूम हो जाएगा, अब यहाँ से जल्दी चलना चाहिए।’

कुँवर वीरेंद्रसिंह की इस वक्त कैसी हालत थी उसका न कहना ही ठीक है। बहुत समझा-बुझा कर वहाँ से कुमार को उठाया और नाले के बाहर लाए।

देवीसिंह ने कहा - ‘भला वहाँ तो चलो जहाँ तुमने शिवदत्त की रानी को रखा है।’

तेजसिंह ने कहा – ‘चलो।’

तीनों वहाँ गए, देखा कि महारानी कलावती भी वहाँ नहीं है, और भी तबीयत परेशान हुई।

आधी रात से ज्यादा जा चुकी थी, तीनों आदमी बैठे सोच रहे थे कि यह क्या मामला हो गया। यकायक देवीसिंह बोले - ‘गुरु जी, मुझे एक तरकीब सूझी है जिसके करने से यह पता लग जाएगा कि क्या मामला है। आप ठहरिए, इसी जगह आराम कीजिए मैं पता लगाता हूँ, अगर बन पड़ेगा तो ठीक पता लगाने का सबूत भी लेता आऊँगा।’

तेजसिंह ने कहा - ‘जाओ तुम ही कोई तारीफ का काम करो, हम दोनों इसी जंगल में रहेंगे।’

देवीसिंह एक देहाती पंडित की सूरत बना रवाना हुए। वहाँ से चुनारगढ़ करीब ही था, थोड़ी देर में जा पहुँचे। दूर से देखा कि एक सिपाही टहलता हुआ पहरा दे रहा है। एक शीशी हाथ में ले उसके पास गए और एक अशर्फी दिखा कर देहाती बोली में बोले - ‘इस अशर्फी को आप लीजिए और इस इत्र को पहचान दीजिए कि किस चीज का है। हम देहात के रहने वाले हैं, वहाँ एक गंधी गया और उसने यह इत्र दिखा कर हमसे कहा कि अगर इसको पहचान दो तो हम पाँच अशर्फी तुमको दें’ सो हम देहाती आदमी क्या जानें कौन चीज का इत्र है, इसलिए रातों-रात यहाँ चले आए, परमेश्वर ने आपको मिला दिया है, आप राजदरबार के रहने वाले ठहरे, बहुत इत्र देखा होगा, इसको पहचान के बता दीजिए तो हम इसी समय लौट के गाँव पहुँच जाएँ, सवेरे ही जवाब देने का उस गंधी से वादा है।’

देवीसिंह की बात सुन और पास ही एक दुकान के दरवाजे पर जलते हुए चिराग की रोशनी में अशर्फी को देख खुश हो वह सिपाही दिल में सोचने लगा कि अजब बेवकूफ आदमी से पाला पड़ा है। मुफ्त की अशर्फी मिलती है ले लो, जो कुछ भी जी में आए बता दो, क्या कल मुझसे अशर्फी फेरने आएगा? यह सोच अशर्फी तो अपने खलीते में रख ली और कहा - ‘यह कौन बड़ी बात है, हम बता देते हैं।’ उस शीशी का मुँह खोल कर सूँघा, बस फिर क्या था सूँघते ही जमीन पर लेट गया, दीन दुनिया की खबर न रही, बेहोश होने पर देवीसिंह उस सिपाही की गठरी बाँधा तेजसिंह के पास ले आए और कहा कि यह किले का पहरा देने वाला है, पहले इससे पूछ लेना चाहिए, अगर काम न चलेगा तो फिर दूसरी तरकीब की जाएगी।’ यह कह उस सिपाही को होश में लाए। वह हैरान हो गया कि यकायक यहाँ कैसे आ फँसे, देवीसिंह को उसी देहाती पंडित की सूरत में सामने खड़े देखा, दूसरी ओर दो बहादुर और दिखाई दिए, कुछ कहा ही चाहता था कि देवीसिंह ने पूछा - ‘यह बताओ कि तुम्हारी महारानी कहाँ हैं? बताओ जल्दी।’

उस सिपाही ने हाथ-पैर बँधे रहने पर भी कहा कि तुम महारानी को पूछने वाले कौन हो, तुम्हें मतलब?’

तेजसिंह ने उठ कर एक लात मारी और कहा - ‘बताता है कि मतलब पूछता है।’ अब तो उसने बेहर्ज कहना शुरू कर दिया कि महारानी कई दिनों से गायब हैं, कहीं पता नहीं लगता, महल में गुल-गपाड़ा मचा हुआ है, इससे ज्यादा कुछ नहीं जानते।’

तेजसिंह ने कुमार से कहा - ‘अब पता लगाना कई रोज का काम हो गया, आप अपने लश्कर में जाइए, मैं ढूँढ़ने की फिक्र करता हूँ।’

कुमार ने कहा - ‘अब मैं लश्कर में न जाऊँगा।’

तेजसिंह ने कहा - ‘अगर आप ऐसा करेंगे तो भारी आफत होगी, शिवदत्त को यह खबर लगी तो फौरन लड़ाई शुरू कर देगा, महाराज जयसिंह यह हाल पा कर और भी घबरा जाएँगे, आपके पिता सुनते ही सूख जाएँगे।’

कुमार ने कहा - ‘चाहे जो हो, जब चंद्रकांता ही नहीं है तो दुनिया में कुछ हो मुझे क्या परवाह।’ तेजसिंह ने बहुत समझाया कि ऐसा न करना चाहिए, आप धीरज न छोड़िए, नहीं तो हम लोगों का भी जी टूट जाएगा, फिर कुछ न कर सकेंगे। आखिर कुमार ने कहा - ‘अच्छा कल भर हमको अपने साथ रहने दो, कल तक अगर पता न लगा तो हम लश्कर में चले जाएँगे और फौज ले कर चुनारगढ़ पर चढ़ जाएँगे। हम लड़ाई शुरू कर देंगे, तुम चंद्रकांता की खोज करना।’

तेजसिंह ने कहा - ‘अच्छा यही सही।’ ये सब बातें इस तौर पर हुई थीं कि उस सिपाही को कुछ भी नहीं मालूम हुआ जिसको देवीसिंह पकड़ लाए थे।

तेजसिंह ने उस सिपाही को एक पेड़ के साथ कस के बाँध दिया और देवीसिंह से कहा - ‘अब तुम यहाँ कुमार के पास ठहरो मैं जाता हूँ और जो कुछ हाल है पता लगा लाता हूँ।’

देवीसिंह ने कहा - ‘अच्छा जाइए।’ तेजसिंह ने देवीसिंह से कई बातें पूछीं और उस सिपाही का भेष बना, किले की तरफ रवाना हुए।’
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#40
बयान - 8

जिस जंगल में कुमार और देवीसिंह बैठे थे और उस सिपाही को पेड़ से बाँधा था वह बहुत ही घना था। वहाँ जल्दी किसी की पहुँच नहीं हो सकती थी। तेजसिंह के चले जाने पर कुमार और देवीसिंह एक साफ पत्थर की चट्टान पर बैठे बातें कर रहे थे। सवेरा होने ही वाला था कि पूरब की तरफ से किसी का फेंका हुआ एक छोटा-सा पत्थर कुमार के पास आ गिरा। ये दोनों ताज्जुब से उस तरफ देखने लगे कि एक पत्थर और आया मगर किसी को लगा नहीं।

देवीसिंह ने जोर से आवाज दी - ‘कौन है जो छिप कर पत्थर मारता है, सामने क्यों नहीं आता है?’

जवाब में आवाज आई - ‘शेर की बोली बोलने वाले गीदड़ों को दूर से ही मारा जाता है।’

यह आवाज सुनते ही कुमार को गुस्सा चढ़ आया, झट तलवार के कब्जे पर हाथ रख कर उठ खड़े हुए।

देवीसिंह ने हाथ पकड़ कर कहा - ‘आप क्यों गुस्सा करते हैं, मैं अभी उस नालायक को पकड़ लाता हूँ, वह है क्या चीज?’ यह कह देवीसिंह उस तरफ गए जिधर से आवाज आई थी। इनके आगे बढ़ते ही एक और पत्थर पहुँचा जिसे देख देवीसिंह तेजी के साथ आगे बढ़े। एक आदमी दिखाई पड़ा मगर घने पेड़ों में अँधेरा ज्यादा होने के सबब उसकी सूरत नहीं नजर आई। वह देवीसिंह को अपनी तरफ आते देख एक और पत्थर मार कर भागा। देवीसिंह भी उसके पीछे दौड़े मगर वह कई दफा इधर-उधर लोमड़ी की तरह चक्कर लगा कर उन्हीं घने पेड़ों में गायब हो गया। देवीसिंह भी इधर-उधर खोजने लगे, यहाँ तक कि सवेरा हो गया, बल्कि दिन निकल आया लेकिन साफ दिखाई देने पर भी कहीं उस आदमी का पता न लगा। आखिर लाचार हो कर देवीसिंह उस जगह फिर आए जिस जगह कुमार को छोड़ गए थे। देखा तो कुमार नहीं। इधर-उधर देखा कहीं पता नहीं। उस सिपाही के पास आए जिसको पेड़ के साथ बाँध दिया था, देखा तो वह भी नहीं। जी उड़ गया, आँखों में आँसू भर आए, उसी चट्टान पर बैठे और सिर पर हाथ रख कर सोचने लगे, अब क्या करें, किधर ढूँढ़े, कहाँ जाएँ। अगर ढूँढ़ते-ढूँढ़ते कहीं दूर निकल गए और इधर तेजसिंह आए और हमको न देखा तो उनकी क्या दशा होगी?

इन सब बातों को सोच देवीसिंह और थोड़ी देर इधर-उधर देख-भाल कर फिर उसी जगह चले आए और तेजसिंह की राह देखने लगे। बीच-बीच में इस तरह कई दफा देवीसिंह ने उठ-उठ कर खोज की, मगर कुछ काम न निकला।
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