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मैं – अपनी जितनी ताकत थी. सभी को मिला के उसे चोदने पर तुला हुआ था. दोनों का शरीर पसीने में मानो डूबा हुआ था. उसके बाद मैंने उसको पैरो को अपने कंधे पर लेके चोदना शुरू किया. अंजू भी अच्छा कोआपरेट कर रही थी. करीबन आधे घंटे की चुदाई के बाद, मेरा निकलने वाला था. इस बीच उसने जाने कितनी बार अपना पानी मुझपर छोड़ दिया होगा. मैंने उसे पूछा, कि कहाँ छोडू? तो उसने अन्दर ही छोड़ने को कहा. तो १ मं के बाद, मैंने अपना सारा माल उसकी चूत के अन्दर डाल दिया
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
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झे आज से अपनी बना ले. अब से तू जब भी चाहे, तब मुझे चोदना. ये कहकर उसने मुझे अपने सीने से लगा लिया. १ घंटे बाद हम उठे और बाथरूम में साफ़ होने के लिए चले गये. बाथरूम से आकर हम दोनों नंगे ही एकदूसरे से चिपक कर सो गये. उसने मेरा लंड पकड़ा हुआ था और मैंने उसकी चुचियो को पकड़ा हुआ था
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श्री चरणकमलेषु!
आज पंद्रह वर्ष हो गये अपने विवाह को, मगर अब तक तुम्हें चिट्ठी नहीं लिखी. हमेशा तुम्हारे पास ही पड़ी रही. मुख-जबानी अनेक बातें तुमसे सुनीं, तुम्हें भी सुनायीं. चिट्ठी-पाती लिखने की दूरी भी तो कहां हुई?
आज मैं आयी हूं श्रीक्षेत्र का तीर्थ करने और तुम अपने ऑफिस के काम में जुटे हो. घोंघे के साथ जो सम्बंध शंख का है, कलकत्ता के साथ तुम्हारा वही नाता है. वह तुम्हारी देह से, तुम्हारे प्राण से जकड़ गया है. इस कारण तुमने छुट्टी की खातिर ऑफिस में दरखास्त नहीं दी. विधाता की यही मंशा थी, उन्होंने मेरी छुट्टी की दरखास्त मंजूर कर ली.
मैं तुम्हारे घर की मझली बहू हूं. आज पंद्रह वर्ष उपरांत इस समुद्र-तट पर खड़ी होकर मैं जान पायी हूं कि जगत और जगदीश्वर के साथ मेरा एक रिश्ता और भी है. इसलिए आज साहस करके यह चिट्ठी लिख रही हूं. इसे फकत मझली बहू की चिट्ठी मत समझना.
तुम्हारे संग, रिश्ते का लेख जिन्होंने मेरे भाग्य में लिखा था, उन्हें छोड़कर जब इस सम्भावना का और किसी को भी आभास नहीं था, उसी ठेठ बचपन में मेरा भाई और मैं एक साथ ही सन्निपात के ज्वर से पीड़ित हुए थे. भाई तो चल बसा, मगर मैं बच गयी. पड़ोस की सब औरतें कहने लगीं, ‘मृणाल लड़की है ना, इसलिए बच गयी, लड़का होती तो बच सकती थी भला?’ चोरी की विद्या में यमराज बड़े निपुण
है, कीमती चीज़ पर ही उनकी आंख लगी रहती है.
मैं मरने के लिए पैदा नहीं हुई, यही खुलासा करने के लिए चिट्ठी लिखने बैठी हूं. जिस दिन तुम्हारे दूर के मामा तुम्हारे मित्र नीरद को लेकर लड़की देखने आये, तब मेरी उम्र थी- बारह बरस. उज्जड़ दुर्गम देहात में मेरा घर था, जहां दिन में भी सियार बोलते हैं. स्टेशन से सात कोस बैलगाड़ी में चलने के बाद, डेढ़ कोस का कच्चा रास्ता पालकी से पार करने पर ही हमारे गांव पहुंचा जा सकता था. उस दिन तुम सबको कितनी परेशानी हुई थी. तिस पर हमारे पूर्वी बंगाल का भोजन; जिसका मखौल उड़ाना मामा आज भी नहीं भूलते.
तुम्हारी मां की बस एक ही ज़िद थी कि बड़ी बहू के रूप का अभाव मझली बहू के द्वारा पूरा करना. नहीं तो भला इतना कष्ट उठाकर तुम लोग हमारे गांव क्यों आते? बंगाल में- तिल्ली, यकृत, अम्लशूल और लड़की के लिए खोज नहीं करनी पड़ती. वे स्वयं आकर दबोच लेते हैं; छुड़ाये
नहीं छूटते.
बाबा का हृदय धक-धक करने लगा. मां दुर्गा का नाम जपने लगी. शहर के देवता को गांव का पुजारी कैसे तुष्ट करे? बेटी के रूप का भरोसा था. किंतु, बेटी के रूप का गुमान कुछ भी माने नहीं रखता. देखने वाला पारखी जो दाम निर्धारित करे, वही उसका मूल्य होता है. अतएव हज़ार रूप-गुण होने पर भी लड़कियों का संकोच
नहीं टूटता.
सारे घर का, नहीं-नहीं, समूचे मोहल्ले का वह आतंक मेरी छाती पर पत्थर के समान जमकर बैठ गया. उस दिन आकाश का समस्त आलोक व संसार का सम्पूर्ण सामर्थ्य, मानो दो परीक्षकों की दो जोड़ी आंखों के सामने, उस बारह-वर्षीय अबोध बालिका को पेश करने की खातिर प्यादागिरी कर रहे हों. मुझे कहीं भी छिपने की ठौर नहीं मिली.
सम्पूर्ण आकाश को रुलाती हुई शहनाई बज उठी. मैं तुम्हारे घर आ पहुंची. मेरे तमाम गुण-दोषों का ब्योरेवार हिसाब लगा कर सभी गृहिणियों को यह मानना पड़ा कि भले कुछ भी हो, मैं सुंदर ज़रूर हूं. यह बात सुनते ही मेरी बड़ी-जेठानी का मुंह चढ़ गया. मगर मेरे रूप की ज़रूरत ही क्या थी, बस, यही सोचती हूं? रूप नामक वस्तु को यदि किसी पुरातन पंडित ने गंगामाटी से गढ़ा हो तो उसका आदर-मान भी हो, किंतु उसे तो विधाता ने केवल अपनी मौज-मस्ती की रौ में निर्मित किया है. इसलिए तुम्हारे धर्म के संसार में उसका कोई दाम नहीं है.
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मैं अनिंद्य रूपवती हूं, इस सच्चाई को भूलने में तुम्हें ज़्यादा वक्त नहीं लगा. मगर मुझमें बुद्धि भी है, यह बात तुम सबको कदम-कदम पर याद रखनी पड़ी. मेरी यह बुद्धि कितनी सहज-स्वाभाविक है कि तुम्हारे घर-परिवार में इतना समय बिताने पर भी वह आज दिन तक टिकी हुई है. मेरी इस बुद्धि के मारे मां बड़ी उद्विग्न रहती थी. नारी के लिए यह तो एक बला है बला! बाधा-वर्जनाओं को मान कर भी जिसे चलना है, यदि वह बुद्धि को मान कर चले तो ठोकर दर ठोकर उसका सर फूटेगा ही. लेकिन, मैं क्या करूं, बताओ? तुम्हारे घर की बहू के लिए जितनी बुद्धि अपेक्षित है, उससे बहुत ज़्यादा बुद्धि विधाता ने भूल से दे डाली. अब उसे लौटाऊं भी तो किसको? तुम लोग मुझे पुरखिन कहकर दिन-रात कोसते रहे. कड़ी बातों से ही अक्षम को सांत्वना मिलती है, अतएव वह सब मैंने माफ किया.
मेरी एक बात तुम्हारे घर-परिवार से बाहर थी, जिसे कोई नहीं जानता. मैं छिपकर कविता करती थी. वह कूड़ा-करकट ही क्यों न हो, उस पर तुम्हारे अंतःपुर की दीवार नहीं उठ सकी. वहीं मुझे मुक्ति मिलती थी. वहीं पर मैं, मैं हो पाती थी. मेरे भीतर मझली बहू के अलावा जो कुछ भी है, उसे तुम लोगों ने कभी पसंद नहीं किया; पहचान भी नहीं सके. मैं कवि हूं, पंद्रह बरस तक यह भेद तुम्हारी पकड़ में नहीं आया.
तुम्हारे घर की प्रारम्भिक स्मृतियों के बीच मेरे मन में जो स्मृति सबसे ज़्यादा कौंध रही है- वह है तुम लोगों की गौशाला. अंतःपुर के जीने की बगल वाले कोठे में तुम्हारी गायें रहती है. सामने के आंगन को छोड़कर उनके हिलने-डुलने के लिए और कोई जगह नहीं है. उसी आंगन के कोने में चाकर उलझे रहते, भूखी गायें, तक्षण नांद के किनारों को चाट-चाट कर, चबा-चबा कर गड्ढे डाल देती थीं. मेरे प्राण सिहर उठते. मैं थी देहात की लड़की- जिस घड़ी तुम्हारे घर में पहली बार आयी, सारे शहर के बीच उस दिन वे ही दो गायें और तीन बछड़े मुझे चिर परिचित आत्मीय-से-जान पड़े. जितने दिन नयी बहू बनकर रही, खुद न खाकर, लुका-छिपा कर उन्हें खिलाती रही. जब सयानी हुई तो गायों के प्रति मेरी सहज ममता को लक्ष्य करके मेरे साथ हंसी-ठिठौली का रिश्ता रखने वाले, मेरे गोत्र के बारे में संदेह व्यक्त करने लगे.
मेरी बिटिया जन्म के साथ ही चल बसी. जाते समय उसने साथ चलने के लिए मुझे भी पुकारा था. यदि वह ज़िंदा रहती तो मेरे जीवन में जो कुछ महान है, जो कुछ सत्य है, वह सब मुझे ला देती, तब मैं मझली बहू से एकदम मां बन जाती. एक घर-परिवार के बीच रहकर भी वह पूरे संसार की मां होती है. मुझे मां होने की पीड़ा ही मिली, मातृत्व का मुक्ति-वरदान प्राप्त
नहीं हुआ.
मुझे याद है, अंग्रेज़ डॉक्टर को अंतःपुर का दृश्य देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ था और जच्चाघर पर तो नज़र पड़ते ही उसने झुंझला कर काफी बुरा-भला कहा था. बाहर सदर में तुम लोगों का छोटा-सा बगीचा है. बैठक में साज-शृंगार व असबाब की कोई कमी नहीं, मगर भीतर का भाग मानो ऊन-कढ़ाई की उलटी परत हो, वहां न कोई लज्जा, न कोई श्री और न कोई सजावट. वहां मद्धिम-सी रोशनी जला करती है. हवा चोर की तरह प्रवेश करती है. आंगन का कूड़ा-कचरा हटने का नाम नहीं लेता. फर्श व दीवारों पर समस्त कालिमा अक्षय रूप से विराजमान है. मगर डॉक्टर से एक गलती हो गयी थी. उसने सोचा था कि शायद इससे हमें आठों पहर दुख होता होगा. पर सच्चाई एकदम उल्टी है. अनादर नाम की च़ाज राख के समान होती है. शायद भीतर ही भीतर वह आग को छिपाये रहती है, बाहर से तप को प्रकट नहीं होने देती. जब आत्म-सम्मान कम हो जाता है, तब अनादर भी अन्याय नहीं लगता. उससे वेदना महसूस नहीं होती. तभी तो नारी दुख का अनुभव करने में शर्माती है. इसीलिए मैं कहती हूं, स्त्राr-जाति का दुखी होना अवश्यम्भावी है, अगर यही तुम्हारी व्यवस्था है, तो फिर जहां तक सम्भव हो, उसे अनादर में रखना ही उचित है. आदर से दुख की व्यथा और बढ़ जाती है.
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चाहे जिस तरह रखो, उसमें दुख ही है, इसे याद करने की बात कभी मेरे मन में ही नहीं आयी. जच्चाघर में जब मौत सिरहाने आकर खड़ी हो गयी थी, तब भी मुझे डर नहीं लगा. हमारा जीवन ही क्या है, जो मौत से डरना पड़े. आदर और यत्न से जिनके प्राण कसकर बंधे रहते हैं, उन्हें ही मरने में झिझक होती है. यदि उस दिन यमराज मुझे खींचते तो मैं उसी तरह उखड़ जाती, जिस तरह पोली ज़मीन से गुच्छों सहित घास सहज ही उखड़ आती है. बंगाल की बेटी तो बात-बात में मरने को आमादा रहती है. किंतु इस तरह मरने में क्या बहादुरी है? हमारे लिए मरना इतना आसान है कि मरते लज्जा आती है.
मेरी बिटिया तो सांध्य-तारे की नाईं क्षण भर के लिए उदित होकर अस्त हो गयी. मैं फिर से अपने नित्य-कर्म और गाय-बछड़ों में खो गयी. और इसी ढर्रे में मेरा जीवन जैसे-तैसे निःशेष हो जाता; आज तुम्हें यह चिट्ठी लिखने की दरकार ही नहीं होती. किंतु, कभी कभार हवा एक सामान्य-सा बीज उड़ाकर ले आती है और पक्के दालान में पीपल का अंकुर फूट उठता है; और अंत में उसी से काठ-पत्थर की छाती विदीर्ण हो जाती है. मेरे घर-संसार के माकूल बंदोबस्त में भी जीवन का एक छोटा-सा कण न जाने कहां से उड़कर आन पड़ा कि तभी से दरार पड़नी शुरू हो गयी.
विधवा मां की मृत्यु के बाद मेरी बड़ी जेठानी की बहन बिंदु ने जिस दिन अपने चचेरे भाइयों के अत्याचार से तंग आकर हमारे घर में अपनी दीदी का आश्रय लिया, तब तुम लोगों ने सोचा कि यह कहां की आफत आ पड़ी. आग लगे मेरे स्वभाव को, क्या करती बोलो- जब देखा तुम सभी मन ही मन विरक्त हो उठे, तब उस निराश्रिता लड़की के लिए मेरा समूचा मन कमर बांध कर उद्यत हो उठा. पराये घर में, पराये लोगों की अनिच्छा के बावजूद आश्रय लेना- यह कितना बड़ा अपमान है! जिसे विवश होकर यह अपमान भी मंजूर करना पड़े, क्या एक कोने में ठेलकर उसकी उपेक्षा की जा सकती है?
तत्पश्चात मैंने अपनी बड़ी जेठानी की दशा देखी. उन्होंने नितांत द्रवित होकर असहाय बहन को अपने पास बुलाया था. किंतु, जब स्वामी की अनिच्छा का आभास हुआ, तब वे ऐसा दिखावा करने लगी जैसे कोई अचीती बला आ पड़ी हो. जस-तस दूर हो जाय तो जान बचे. अपनी अनाथ बहन के प्रति खुले मन से स्नेह प्रदर्शित कर सकें, उनमें इतना साहस नहीं था. वे पतिव्रता जो थीं.
उनका यह संकेत देखकर मेरा मन और भी व्यथित हो उठा. मैंने देखा, बड़ी जेठानी ने विशेष तौर से सर्वत्र दासी-वृत्ति के काम इस तरह सौंप दिये कि मुझे केवल दुख ही नहीं, घोर लज्जा भी हुई. वे सबके सामने यह प्रमाणित करने में लगी रहती थीं कि हमारे घरवालों को बिंदु झांसे में आकर बहुत ही सस्ते दामों में हाथ लग गयी है. न जाने कितना काम करती है और खर्च के हिसाब से बिल्कुल सस्ती.
बड़ी जेठानी के पितृ-वंश में कुल के अलावा कुछ भी बड़ी बात नहीं थी. रूप भी नहीं था. धन भी नहीं था. मेरे श्वसुर के पांव पड़ने पर, किस तरह तुम लोगों के घर में उनका ब्याह हुआ था, यह सब तो जानते ही हो. उनके विवाह से इस वंश में भारी अपराध हुआ है, वे हमेशा यही सोचा करती थीं. इसलिए यथासम्भव अपने-आपको सब बातों से अलग रखकर वे तुम्हारे घर में निहायत अकिंचन होकर रहने लगी थीं.
किंतु, उनके इस साधु-दृष्टांत से मैं बड़ी मुश्किल में पड़ जाती थी. मैं किसी भी तरह अपने-आपको इतना छोटा नहीं बना पाती थी. मैं जिस बात को अच्छा समझती हूं, उसे किसी और की खातिर बुरा मानना, मुझे उचित नहीं जान पड़ता, जिसके बहुतेरे प्रमाण तुम्हें मिल चुके हैं.
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बिंदु को मैं अपने कमरे में खींच लायी. दीदी कहने लगीं, ‘मझली बहू गरीब घर की बेटी का माथा खराब करने लगी है.’ वे सबके पास जाकर हरदम इस ढंग से मेरी शिकायत करती रहतीं, जैसे मैंने कोई विषम कहर ढा दिया. किंतु, मैं अच्छी तरह जानती हूं कि अपने बचाव से वे मन ही मन संतुष्ट थीं. अब सारा दोष मेरे मत्थे आ पड़ा. अपनी बहन के प्रति वे स्वयं जो स्नेह प्रकट नहीं कर सकती थीं, मेरे द्वारा वह स्नेह चरितार्थ होने पर उनका मन हलका होने लगा. मेरी बड़ी जेठानी बिंदु की आयु से दो-एक बरस बाद देने की चेष्टा किया करती थीं. किंतु, उसकी उम्र चौदह साल से कम नहीं थी, यदि एकांत में उनसे कहा जाता तो यह कोई असंगत बात नहीं होती. तुम तो जानते ही हो, वह देखने में इतनी भद्दी है कि फर्श पर गिरने से उसका सिर फूट जाय तो लोगों को फर्श की ही चिंता होगी. यही कारण है कि माता-पिता के अभाव में कोई ऐसा न था, जिसे उसके ब्याह की फिक्र हो और ऐसे लोग भी कितने हैं, जिनके सीने में यह दम हो कि उससे ब्याह रचायें.
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बिंदु बहुत डरती-सहमती मेरे पास आयी. जैसे मेरी देह उससे छू जाय तो मैं सहन नहीं कर पाऊंगी. विश्व-संसार में जन्म लेने के निमित्ति मानो उसकी कोई शर्त न हो. इसीलिए वह हमेशा आंख बचाकर दूर-दूर रहती थी. उसके पिता के घर में चचेरे भाई उसके लिए ऐसा एक भी कोना नहीं छोड़ना चाहते थे, जिसमें वह अनावश्यक जिन्स की तरह पड़ी रह सके. अनावश्यक कूड़े-कचरे को घर के आस-पास अनायास ही स्थान मिल जाता है, क्योंकि मनुष्य उसे अनदेखा कर जाता है, किंतु अनावश्यक लड़की एक तो अनावश्यक होती है और उसे भूल पाना भी कठिन होता है. इसी कारण उसे घूरे पर भी स्थान नहीं मिलता. फिर भी यह कहने की रंचमात्र भी गुंजाइश नहीं है कि उसके चचेरे भाई ही संसार में परमावश्यक पदार्थ हैं. किंतु वे लोग हैं बड़े मजे में.
इसीलिए, जब मैं बिंदु को अपने कमरे में लायी तो उसकी छाती धक-धक करने लगी. उसे भयभीत देख कर मुझे बड़ा दुख हुआ. मेरे कमरे में उसके लिए थोड़ी लिए थोड़ी-सी जगह है, यह बात मैंने उसे बड़े लाड़-प्यार से समझायी.
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किंतु, मेरा कमरा फकत मेरा ही तो कमरा नहीं था. इसलिए मेरा काम सरल नहीं हुआ. दो-चार दिन में ही उसके शरीर में लाल-लाल न जाने क्या उभर आया? शायद अम्हौरी या ऐसी ही कुछ बीमारी होगी. तुमने कहा बसंत. क्यों न हो, वह बिंदु थी न? तुम्हारे मोहल्ले के एक अनाड़ी डॉक्टर ने कहा कि दो-एक दिन और पड़ताल किये बिना ठीक से कुछ नहीं कहा जा सकता. किंतु, दो-एक दिन का सब्र किसे होता? बिंदु तो अपनी बीमारी की लज्जा से ही मरी जा रही थी. मैंने कहा, बसंत है तो है, मैं उसके साथ अपने जच्चाघर में रहूंगी; किसी को भी कुछ करने की ज़रूरत नहीं. इस बात पर तुम सभी भड़क कर मेरे लिए संहार की प्रतिमूर्ति बन गये, यही नहीं, जब बिंदु की दीदी भी छद्म विरक्त भाव से हतभागी लड़की को अस्पताल भेजने का प्रस्ताव करने लगीं, तभी उसके शरीर पर से तमाम लाल-लाल दाग विलुप्त हो गये. पर मैंने देखा- तुम सब तो और अधिक व्यग्र हो उठे. कहने लगे अब तो निश्चित रूप से बसंत बैठ गयी है. क्यों न हो, बिंदु थी न?
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अनादृत पालन-पोषण का एक बड़ा गुण है कि वह शरीर को एकदम अजर-अमर कर देता है. बीमारी आस-पास फटक ही नहीं पाती. मरने के सदर रास्ते बिल्कुल बंद हो जाते हैं. रोग उसके साथ मखौल कर गया, उसे कुछ भी नहीं हुआ. लेकिन यह बात अच्छी तरह समझ में आ गयी
कि संसार में असहाय व्यक्ति को आश्रय देना ही सबसे कठिन है. जिसे आश्रय की दरकार जितनी अधिक होती है, आश्रय की बाधाएं भी उसके लिए उतनी ही विषम बन जाती हैं.
बिंदु के मन से जब मेरा भय मिट गया तब उसे एक और दुष्ट-ग्रह ने दबोच लिया. वह मुझे इस कदर बेइन्तहा प्यार करने लगी कि मैं डर के मारे विचलित हो उठी. प्यार की ऐसी मूर्ति तो इस मायावी-संसार में कभी नज़र नहीं आयी. पुस्तकों में पढ़ा अवश्य था, वह भी स्त्राr-पुरुष के बीच ही. बहुत दिनों से ऐसी कोई घटना नहीं हुई कि मुझे अपने रूप का खयाल आता. अब इतने दिन बाद यह कुरूप लड़की मेरे उसी रूप पर बौरा गयी. आठों पहर मेरा मुंह निहारने पर भी उसके नयनों की आस कभी बुझ ही नहीं पाती थी. कहती, ‘दीदी तुम्हारी यह सलोनी सूरत मेरे अलावा किसी को भी नज़र नहीं आयी.’ जिस दिन मैं स्वयं अपना जूड़ा बांध लेती, उस दिन वह बहुत रूठ जाती. मेरी केश-राशि को अपने दोनों हाथों में झुलाने मात्र से उसके आनंद की सीमा नहीं रहती. किसी दावत में जाने के अलावा मुझे साज-शृंगार की ज़रूरत ही नहीं पड़ती थी. लेकिन बिंदु मुझे तंग कर-करके हमेशा थोड़ा-बहुत सजाती रहती. सचमुच, वह लड़की मेरे पीछे पागल हो गयी थी.
तुम्हारे घर के भीतरी हिस्से में कहीं खाली ज़मीन नहीं थी. उत्तर दिशा की दीवार में नाली के किनारे न जाने कैसे एक गाब का पौधा उग आया? जिस दिन देखती कि उस गाब के पौधे में नयी लाल-लाल कोंपलें निकल आयी हैं, उस दिन जान पड़ता कि धरती पर वास्तव में बसंत आ गया है. और जिस दिन मेरी घर-गृहस्थी में इस अनादृत लड़की के चित्त का ओर-छोर इस तरह रंगीन हो उठा, उस दिन मैंने जाना कि हृदय के जगत में भी बसंत की बयार बहती है- वह किसी स्वर्ग-लोक से आती है, गली के मोड़ से नहीं.
बिंदु की प्रीत के दुसह वेग ने मुझे अस्थिर कर डाला था. मानती हूं कि मुझे कभी-कभार उस पर गुस्सा आ जाता. किंतु, उस प्रीत की भव्य अनुभूति में मुझे अपने स्वरूप की ऐसी छवि दिखलाई पड़ी जो पहले कभी नज़र नहीं आयी. वह मेरा मुक्त स्वरूप है. मुक्त छवि है.
इधर मैं बिंदु जैसी लड़की को इतना लाड़-दुलार कर रही हूं, यह तुम लोगों को बड़ी ज़्यादती लगी. उस नुक्ताचीनी व खटपट का कोई अंत नहीं था. जिस दिन मेरे कमरे से बाजूबंद की चोरी हुई, उस दिन इस बात का आभास देते हुए तुम लोगों को तनिक भी लज्जा नहीं आयी कि उस चोरी में किसी न किसी तरह बिंदु का हाथ है. जब स्वदेशी आंदोलन में लोगों के घर की तलाशियां होने लगीं, तब तुम लोग अनायास ही यह संदेह कर बैठे कि बिंदु सिक्युरिटी द्वारा रखी
गयी स्त्राr-गुप्तचर है. उसका और तो कोई प्रमाण नहीं था, प्रमाण केवल यही था कि वह बिंदु थी.
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तुम्हारे घर की दासियां उसका कोई भी काम करने से मना कर देती थीं. उनमें से किसी भी दासी को मैं उसके काम की फरमाइश करती, तब भी वह लड़की संकोच के मारे एकदम जड़वत हो जाती थी. इन्हीं सब कारणों से उस पर मेरा खर्च दिन-ब-दिन बढ़ता गया. मैंने खासतौर से एक अलग दासी रख ली. यह भी तुम लोगों को गवारा नहीं हुआ. बिंदु को पहनने के लिए जो कपड़े देती थी, उन्हें देखकर तुम इतने नाराज हुए कि मेरा हाथ-खर्च ही बंद कर दिया. दूसरे ही दिन से मैंने सवा रुपये जोड़े की मिल की गाढ़ी व कोरी धोती पहननी शुरू कर दी. और जब मोती की मां मेरी जूठी थाली उठाने के लिए आयी तो मैंने उसे मना कर दिया. मैंने खुद जूठा भात बछड़े को खिलाया और आंगन के नल पर बासन मांजे. एक दिन अकस्मात इस दृश्य को देखकर तुम खुश नहीं हुए. मेरी खुशी के बिना तो चल सकता है, पर तुम्हारी खुशी के बिना नहीं चल सकता, यह सुबुद्धि आज दिन तक मेरे भेजे में नहीं आयी.
इधर ज्यों-ज्यों तुम लोगों का रोष बढ़ता जा रहा था, त्यों-त्यों बिंदु की उम्र भी बढ़ती जा रही थी. इस स्वाभाविक बात पर तुम लोग अस्वाभाविक रूप से विभ्रत हो उठे थे. एक बात याद करके मुझे आश्चर्य होता रहा है कि तुम लोगों ने बिंदु को जबरदस्ती अपने घर से खदेड़ क्यों नहीं दिया? मैं खूब जानती हूं कि तुम लोग मन ही मन मुझसे डरते थे. विधाता ने मुझे बुद्धि दी है, भीतर ही भीतर इस बात की तवज्जुह दिये बिना
तुम लोगों से रहा नहीं
जाता था.
अंत में अपनी शक्ति से बिंदु को विदा करने में असमर्थ होकर तुम लोगों ने प्रजापति देवता की शरण ली. बिंदु का वर ठीक हुआ. बड़ी जेठानी बोलीं, ‘जान बची, मां काली ने अपने वंश की लाज रख ली.’
वर कैसा था, मैं नहीं जानती. तुम लोगों से ही सुना कि सब तरह से अच्छा है. बिंदु मेरे पांवों से लिपट कर रोने लगी- ‘दीदी, मेरा ब्याह क्यों कर रही हो भला।’
मैंने उसे समझाते-बुझाते कहा- ‘बिंदु, डर मत, सुना कि तेरा वर अच्छा है.’
बिंदु बोली- ‘अगर वर अच्छा है
तो मुझमें भला ऐसा क्या है, जो उसे पसंद आ सके.’
वर-पक्ष वालों ने तो बिंदु को देखने तक की इच्छा जाहिर नहीं की. बड़ी दीदी इससे बड़ी आश्वस्त हुई.
लेकिन बिंदु रात-दिन रोती रहती. चुप होने का नाम ही नहीं लेती. उसे क्या कष्ट है, मैं जानती थी. बिंदु के लिए मैंने घर में बहुत बार झगड़ा किया था, लेकिन उसका ब्याह रुक जाय, यह बात कहने का साहस नहीं होता था. कहती भी किस बूते पर? यदि मैं मर जाऊं तो इसकी गति क्या होगी?
एक तो लड़की, तिस पर काली-कुरूप लड़की- किसके घर जा रही है? वहां उसकी क्या दशा होगी? इन बातों की चिंता न करना ही उचित है. सोचती तो प्राण सिहर-सिहर उठते.
बिंदु ने कहा- ‘दीदी, ब्याह के अभी पांच दिन और हैं. इस बीच क्या मुझे मौत नहीं आयेगी?’
मैंने उसे खूब धमकाया. किंतु अंतर्यामी जानते हैं, यदि स्वाभाविक ढंग से बिंदु की मृत्यु हो जाती तो मैं राहत की सांस लेती.
विवाह के एक दिन पहले बिंदु ने अपनी दीदी के पास जाकर कहा- ‘दीदी मैं गौशाला में पड़ी रहूंगी, जो कहोगी वह करूंगी. तुम्हारे पांव पड़ती हूं, मुझे इस तरह मत धकेलो.’
कुछ दिनों से दीदी की आंखों में चोरी-चोरी आंसू झर रहे थे, उस दिन भी झरने लगे. किंतु, स़िर्फ हृदय ही तो नहीं होता, शास्त्र भी तो है. उन्होंने कहा- ‘बिंदी, तू क्या जानती नहीं कि पति ही सब-कुछ है- स्त्राr की गति, स्त्राr की मुक्ति. भाग्य में यदि दुख बदा है तो उसे कोई मिटा नहीं सकता.’
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असली बात तो यह है कि कहीं कोई रास्ता नहीं था. बिंदु को ब्याह तो करना ही पड़ेगा. फिर जो हो, सो हो.
मैं चाहती थी कि विवाह हमारे घर से हो. किंतु, तुम लोग कह बैठ, वर के ही घर में हो, उनके कुल की यही प्रथा है.
मैं समझ गयी, बिंदु के विवाह में यदि तुम लोगों को खर्च करना पड़े तो तुम्हारे गृह-देवता उसे किसी भांति सह नहीं सकेंगे. इसीलिए चुप रह जाना पड़ा. किंतु, एक बात तुम में से कोई नहीं जानता. दीदी को बताने की इच्छा थी, मगर बतायी नहीं. वरना वे डर के मारे मर जातीं. मैंने अपने थोड़े बहुत गहने लेकर चुपचाप बिंदु का साज-सिंगार कर दिया. सोचा, शायद दीदी की नज़र में पड़ा होगा. किंतु, उन्होंने जैसे देख कर भी नहीं देखा. दुहाई है धर्म की, इसके लिए तुम उन्हें क्षमा कर देना.
जाने से पहले बिंदु मुझसे लिपट कर बोली- ‘दीदी, तो क्या तुम लोगों ने मुझे एकदम ही त्याग दिया.’
मैंने कहा- ‘ना बिंदु, तुम चाहे जैसी स्थिति में रहो, मैं तुम्हें प्राण रहते नहीं
त्याग सकती.’
तीन दिन बीते. तुम्हारे ताल्लुके की प्रजा ने, खाने के लिए तुम्हें जो भेड़ा दिया था, उसे तुम्हारी जठराग्नि से बचाकर मैंने कोयले की, नीचे वाली कोठरी के एक कोने में बांध दिया था. अल्ल-सवेरे ही मैं खुद जाकर उसे दाना-पानी दे आती. तुम्हारे चाकरों पर दो-एक दिन
तो एतबार किया, मगर उसे खिलाने की बजाय, उसीको खा जाने की ललक उनमें ज़्यादा थी.
उस दिन सवेरे कोठरी में गयी तो देखा, बिंदु एक कोने में दुहरी होकर बैठी. मुझे देखते ही मेरे पांवों में गिर कर चुपचाप
रोने लगी.
बिंदु का पति पागल था.
‘सच कह रही है, बिंदी?’
‘इतना बड़ा झूठ तुम्हारे सामने बोल सकती हूं, दीदी? वे पागल हैं. ससुर की राय नहीं थी, इस विवाह के लिए- किंतु, वे मेरी सास से यमराज की तरह डरते हैं. ब्याह के पहले ही वे काशी चले गये. सास ने हठपूर्वक अपने लड़के का ब्याह कर दिया.’
मैं वहीं कोयले की ढेरी पर बैठ गयी. औरत को औरत पर दया नहीं आती. सास कहती है- ‘यह लड़की थोड़े ही है. लड़का पागल है तो क्या हुआ? है तो पुरुष ही.’
बिंदु का पति पहली नज़र में ठीक पागल जैसा नहीं लगता. किंतु, कभी-कभार उस पर ऐसा उन्माद सवार हो जाता कि ताला लगाकर उसे कमरे में रखना पड़ता. विवाह की रात वह ठीक था, किंतु रात भर जगने व अन्य झंझटों के फलस्वरूप दूसरे ही दिन से उसका माथा बिल्कुल खराब हो गया. बिंदु दोपहर को पीतल की थाली में भात खाने बैठी थी. सहसा उसके पति ने भात-सहित थाली उठा कर फेंक दी. हठात न जाने क्यों उसे महसूस हुआ कि बिंदु स्वयं रानी रासमणि है. नौकर ने निश्चय ही सोने की थाल चुराकर रानी को अपने ही थाल में भात परोसा है. यही उसके क्रोध का कारण था. बिंदु तो डर के मारे मरी जा रही थी. तीसरी रात जब सास ने उसे पति के कमरे में सोने के लिए कहा तो बिंदु के प्राण सूख गये. सास को क्रोध आने पर कुछ भी होश नहीं रहता था. वह भी पागल थी, किंतु पूरी तरह से नहीं, इसीलिए वह ज़्यादा घातक थी. बिंदु को कमरे में जाना पड़ा. उस रात स्वामी जब बहुत रात ढलने पर सो गया तो वह किस कौशल से भाग कर चली आयी, इसका विस्तृत विवरण लिखने की ज़रूरत नहीं है.
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घृणा व क्रोध के मारे मेरा समूचा शरीर जलने लगा. मैंने कहा- ‘ऐसे धोखे का ब्याह, ब्याह ही नहीं है. बिंदु, तू जैसे रहती थी, वैसे ही मेरे पास रह. देखूं, तुझे कौन ले जाता है?’
तुम लोगों ने उज्र किया, ‘बिंदु झूठ
बोलती है.’
मैंने कहा, ‘उसने कुछ भी झूठ नहीं बताया.’
तुम लोगों ने पूछा, ‘तुम्हें क्यों कर पता चला?’
मैंने कहा, ‘मैं अच्छी तरह जानती हूं.’
तुम लोगों ने भय दिखाया, ‘बिंदु के ससुराल वालों ने सिक्युरिटी को रपट कर दी तो मुश्किल में पड़ जायेंगे.’
मेरा जवाब था- ‘क्या अदालत इस पर गौर नहीं करेगी कि धोखे से पागल व्यक्ति के साथ उसका ब्याह किया है.’
तुमने कहा, ‘तो क्या इसके लिए कोर्ट-कचहरी जायेंगे? क्यों, हमें क्या पड़ी है?’
मैंने कहा- ‘अपने गहने बेचकर, जो बन पड़ेगा, करूंगी.’
तुमने कहा- ‘वकील के घर चक्कर काटोगी?’
भला इसका क्या जवाब देती? सर पीटने के अलावा दूसरा चारा ही क्या था?
उधर बिंदु की ससुराल से आकर उसके जेठ ने बाहर बड़ा हंगामा कर दिया. थाने में रपट करने की बार-बार धमकी देने लगा.
मुझ में क्या शक्ति थी, नहीं जानती- किंतु, कसाई के हाथ से जो गाय प्राण छुड़ा कर मेरे आश्रय में आयी है, उसे सिक्युरिटी के डर से फिर कसाई के हवाले कर दूं, मेरा मन किसी भी तरह यह बात मानने के लिए तैयार नहीं था. मैंने चुनौती स्वीकार करते कहा, ‘करने दो थाने में खबर.’
इतना कहकर मैंने सोचा कि इसी वक्त बिंदु को अपने सोने के कमरे में ले जाकर भीतर से ताला जड़ दूं. मैंने सब जगह तलाश की, बिंदु का कहीं पता नहीं चला. तुम लोगों के साथ जब मेरी बहस चल रही थी, तब बिंदु ने स्वयं बाहर जाकर जेठ के आगे आत्मसमर्पण कर दिया. वह समझ गयी, यदि उसने घर नहीं छोड़ा तो मैं संकट में पड़ जाऊंगी.
बीच में भाग आने से बिंदु ने अपना दुख और बढ़ा लिया. उसकी सास का तर्क यह था कि उसका लड़का उसे खाये तो नहीं जा रहा था. अयोग्य पति के दृष्टांत दुनिया में दुर्लभ नहीं है. उसकी तुलना में तो उसका बेटा सोने का चांद है.
बड़ी जेठानी ने कहा, ‘जिसकी किस्मत ही खराब हो, उसके लिए दुख करना
व्यर्थ है. पागल-वागल कुछ भी हो, है तो स्वामी ही न.’
एक स्त्राr अपने कोढ़ी-पति को कंधों पर बिठाकर वेश्या के घर ले गयी थी, सती-साध्वी का वह दृष्टांत तुम सबके मन में मचल रहा था. दुनिया के इतिहास में कायरता के उस शर्मनाक आख्यान का प्रचार करते हुए तुम लोगों के पौरुष को रंचमात्र भी संकोच नहीं हुआ. इसलिए मानव-जन्म पाकर भी बिंदु के व्यवहार पर तुम लोग क्रोध कर सके, तुम्हारा सिर नहीं झुका. बिंदु के लिए मेरी छाती फटी जा रही थी, किंतु तुम लोगों के लिए भी मेरी लज्जा का अंत नहीं था. मैं तो गांव की लड़की हूं, तिस पर तुम लोगों के घर आ पड़ी; फिर भगवान ने न मालूम किस तरह मुझे ऐसी बुद्धि दे डाली. तुम लोगों की ये सब नीति-कथाएं मेरे लिए नितांत असह्य थीं.
मैं निश्चय-पूर्वक जानती थी कि बिंदु मर भले ही जाय, अब हमारे घर नहीं आयेगी. किंतु, मैं तो उसे ब्याह के एक दिन पहले दिलासा दे चुका थी कि प्राण रहते उसे छोडूंगी नहीं. मेरा छोटा भाई शरत कलकत्ता में एक कॉलेज में पढ़ रहा था. तुम तो जानते ही हो कि तरह-तरह की वालंटियरी करना, प्लेग वाले मोहल्लों में चूहे मारना, दामोदर में बाढ़ आने की खबर सुनकर दौड़ पड़ना- इन सब बातों में उसका इतना उत्साह था कि एफ.ए. की परीक्षा में लगातार दो मर्तबा फेल होने पर भी उसके जोश में कोई कमी नहीं आयी. मैंने उसे बुलाकर कहा, ‘जैसे भी हो, बिंदु की खबर पाने का बंदोबस्त तुझे करना ही पड़ेगा, शरत! मुझे चिट्ठी लिखने का बिंदु साहस नहीं जुटा पायेगी. लिखने पर भी मुझे मिल नहीं सकेगी.’
इस काम की बजाय यदि मैं उसे डाका डालकर बिंदु को लाने की बात कहती या उसके पागल पति का सिर फोड़ने का आदेश करती तो उसे ज़्यादा खुशी होती.
शरत के साथ बातचीत कर रही थी कि तुमने कमरे में आते ही पूछा- ‘फिर क्या हंगामा कर रही हो?’
मैंने कहा, ‘वही जो शुरू से करती आयी हूं. यह हंगामा तो तभी से चालू है जब से तुम्हारे घर आयी हूं- किंतु इसका श्रेय तो तुम्हीं लोगों को है.’
तुमने जिज्ञासा की, ‘बिंदु को लाकर फिर कहीं छिपा रखा है क्या?’
मैंने कहा, ‘बिंदु आती तो उसे ज़रूर छिपा कर रख लेती. किंतु, वह अब आयेगी नहीं, तुम निश्चिंत रहो.’
शरत् को मेरे पास देखकर तुम्हारा संदेह और भी बढ़ गया. मैं जानती थी कि हमारे घर में शरत् का आना-जाना तुम लोगों को पसंद नहीं है. तुम्हें आशंका थी कि उस पर सिक्युरिटी की नज़र है. किसी दिन राजनैतिक मामले में फंस गया तो तुम सबको भी ले डूबेगा. इसीलिए मैं भैया-दूज का तिलक भी किसी के साथ भिजवा देती थी, उसे घर नहीं बुलाती थी.
तुम्हीं से सुना कि बिंदु फिर भाग गयी है. उसका जेठ तुम्हारे घर उसे खोजने आया है. सुनते ही मेरी छाती शूलों से बिंध गयी. हतभागिन का असह्य कष्ट तो समझ गयी, मगर कुछ भी करने का उपाय नहीं था.
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शरत् इसकी खोज-खबर लेने दौड़ा. सांझ की वेला लौटकर मुझ से बोला, ‘बिंदु अपने चचेरे भाइयों के घर गयी थी, किंतु उन्होंने अत्यंत क्रुद्ध होकर उसी समय फिर उसे ससुराल पहुंचा दिया. इसके लिए उन्हें गाड़ी-किराया और हरजाने का जो दंड भोगना पड़ा; उसकी चुभन अब भी मिटी नहीं है.’
तुम्हारी चाची तीर्थयात्रा के लिए श्रीक्षेत्र जाते समय तुम्हारे यहां आकर ठहरीं. मैंने तुमसे आग्रह किया- ‘मैं भी जाऊंगी.’
सहसा मेरे मन में धर्म के प्रति यह श्रद्धा देखकर तुम इतने खुश हुए कि तनिक भी आपत्ति नहीं की. तुम्हें इस बात का भी ध्यान था कि यदि मैं कलकत्ता रही तो फिर किसी दिन बिंदु को लेकर फसाद कर बैठूंगी. मेरी वज़ह से तुम्हें काफी परेशानी थी.
मुझे बुधवार को जाना था; रविवार को ही सब ठीक-ठाक हो गया. मैंने शरत् को बुलाकर कहा- ‘जैसे भी हो, बुधवार को पुरी जानेवाली गाड़ी में तुझे बिंदु को बिठा देना होगा.’
शरत् का चेहरा खिल उठा. बोला- ‘तुम निश्चिंत रहो दीदी, मैं उसे गाड़ी में बिठाकर, पुरी तक चला चलूंगा. इसी बहाने जगन्नाथ के दर्शन भी हो जायेंगे.’
उसी दिन शाम को शरत् फिर आया. उसका मुंह देखते ही मेरा दिल बैठ गया. मैंने पूछा, ‘क्या बात है, शरत्? शायद कोई उपाय नहीं हुआ.’
वह बोला, ‘नहीं.’
मैंने पूछा, ‘क्या उसे राजी नहीं कर पाये?’
उसने कहा, ‘अब ज़रूरत भी नहीं है. कल रात अपने कपड़ों में आग लगाकर उसने आत्महत्या कर ली. उस घर के जिस भतीजे के साथ मैंने मेलजोल बढ़ाया था, उसी से खबर मिली. हां, तुम्हारे नाम वह एक चिट्ठी रख गयी थी, किंतु वह चिट्ठी उन्होंने नष्ट कर दी.’
चलो शांति हुई.
गांव भर के लोग भन्न उठे. कहने लगे, ‘कपड़ों में आग लगाकर मर जाना तो अब लड़कियों के लिए एक फैशन हो गया है.’
तुम लोगों ने कहा, ‘अच्छा नाटक है.’ हुआ करे. किंतु नाटक का तमाशा केवल बंगाली लड़कियों की साड़ी पर ही क्यों
होता है, बंगाली वीर-पुरुषों की धोतियों पर क्यों नहीं होता? इस पर भी तो विचार करना चाहिए.
ऐसा ही था बिंदी का दुर्भाग्य. जितने दिन ज़िंदा रही, न रूप का यश मिला और न गुण का. मरते समय भी ज़रा सोच-समझ कर कुछ ऐसे ढंग से मरती कि दुनिया-भर के पुरुष खुशी से ताली बजा उठते. यह भी नहीं सूझा उसे. मरकर भी उसने लोगों को नाराज़ ही किया.
दीदी कमरे में छिप कर रोयी. किंतु उस रोने में एक सांत्वना थी. कुछ भी हुआ, जान तो बची. मर गयी, यही क्या कम है? ाf़जंदा रहती तो न जाने क्या होता?
मैं श्रीक्षेत्र में आ पहुंची हूं. बिंदु के आने की अब कोई ज़रूरत नहीं रही. किंतु, मुझे ज़रूरत थी.
लोग जिसे दुख मानते हैं, वह तुम्हारी गृहस्थी में मुझे कभी नहीं मिला. तुम्हारे घर में खाने-पहनने की कोई कमी नहीं थी. तुम्हारे बड़े भाई का चरित्र चाहे जैसा हो, तुम्हारे चरित्र में ऐसा कोई दोष नहीं, जिसके लिए विधाता को बुरा कह सकूं. यदि तुम्हारा स्वभाव बड़े भाई की तरह होता तो भी शायद मेरे दिन इसी तरह कट जाते और मैं अपनी सती-साध्वी बड़ी जेठानी की तरह पति-परमेश्वर को दोष न देकर विश्व-देवता को ही दोष देने की चेष्टा करती. अतएव, मैं तुमसे कोई शिकवा-शिकायत नहीं करना चाहती. मेरी चिट्ठी का कारण दूसरा है.
किंतु, मैं अब माखन-बढ़ाल की गली के उस सत्ताईस नम्बर वाले घर में लौटकर नहीं आऊंगी. मैं बिंदु को देख चुकी हूं. इस संसार में नारी का सच्चा परिचय क्या है, वह मैं पा चुकी हूं. और कुछ भी जानने की ज़रूरत नहीं.
मैंने यह भी देखा है कि हां, वह लड़की ही थी, फिर भी भगवान ने उसका परित्याग नहीं किया. उस पर तुम लोगों का चाहे कितना ही ज़ोर क्यों न रहा हो, उस ज़ोर की सीमा है. वह अपने हतभागे मानव-जीवन से बड़ी थी. तुम मनमाने ढंग से, अपने दस्तूर से, उसके जीवन को चिरकाल के लिए अपने पांवों तले दबा कर रख सकते, तुम्हारे पांव इतने लम्बे नहीं है. मृत्यु तुम लोगों से बड़ी है. अपनी मृत्यु के बीच वह महान है. वहां बिंदु केवल बंगाली घर की लड़की नहीं है, केवल चचेरे भाइयों की बहन नहीं है, केवल अपरिचित पागल पति की प्रवंचिता पत्नी नहीं है. वहां वह अनंत है.
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मृत्यु की वह बांसुरी उस बालिका के भग्न-हृदय से निकल कर जब मेरी जीवन-यमुना के तीर बजने लगी तो पहले-पहल मानो मेरी छाती में कोई बाण बिंध गया हो. मैंने विधाता से प्रश्न किया- संसार में जो कुछ सबसे अधिक तुच्छ है, वही सबसे अधिक कठिन क्यों है? इस गली में चहार-दीवारी से घिरे इस निरानंद स्थान में यह जो तुच्छतम बुदबुदा है, वह इतनी भयंकर बाधा कैसे बन गया. तुम्हारा विश्व-जगत अपनी षट ऋतुओं का सुधा-पात्र हाथ में लेकर कितना ही क्यों न पुकारे, एक क्षण-भर के लिए भी मैं उस अंतःपुर की ज़रा-सी चौखट को पार क्यों न कर सकी? तुम्हारे ऐsसे भुवन में अपना ऐसा जीवन लेकर मुझे इस अत्यंत तुच्छ काठ-पत्थर की आड़ में ही तिल-तिलकर क्यों मरना होगा? कितनी तुच्छ है, प्रतिदिन की यह मेरी जीवन-यात्रा? कितने तुच्छ हैं इसके बंधे नियम, बंधे अभ्यास, बंधी हुई बोली और इन सबकी बंधी हुई मार. फिर भी क्या अंत में दीनता के उस नागपाशी बंधन की ही जीत होगी और तुम्हारी अपनी सृष्टि के इस आनंदलोक की हार?
किंतु, मृत्यु की बांसुरी बजने लगी. कहां गयी राजमिस्त्रियों की बनायी हुई वह दीवार, कहां गया तुम्हारे घोर नियमों से बंधा वह कांटों का घेरा? कौन-सा है वह दुख और कौन-सा है वह अपमान जो मनुष्य को बंदी बनाकर रख सकता है? यह लो, मृत्यु के हाथ में जीवन की जय-पताका उड़ रही है. अरी मझली बहू, तुझे अब डरने की कोई ज़रूरत नहीं. मझली बहू के इस तेरे खोल को छिन्न होते एक क्षण भी नहीं लगा.
तुम्हारी गली का अब मुझे कोई डर नहीं है. मेरे सामने है आज नीला समुद्र और सिर पर हैं आषाढ़ के बादल.
तुम लोगों की रीति-नीति के अंधकार ने मुझे ढंक रखा था. क्षणभर के लिए बिंदु ने आकर उस आवरण के छिद्र से मुझे देख लिया. वही लड़की अपनी मृत्यु के ज़रिये मेरे समूचे आवरण को चिंदी-चिंदी कर गयी. आज बाहर आकर देखती हूं, अपना गौरव रखने के लिए कहीं ठौर ही नहीं है. मेरा अनादृत रूप जिनकी आंखों को भाया है, वे चिर-सुंदर सम्पूर्ण आकाश से मुझे निहार रहे हैं. अब मझली बहू मर चुकी है.
तुम सोच रहे होगे कि मैं मरने जा रही हूं- डरो नहीं, तुम लोगों के साथ मैं ऐसा बासी ठट्ठा नहीं करूंगी. मीराबाई भी तो मुझ जैसी ही नारी थी- उनकी शृंखलाएं भी तो कम भारी नही थीं, मुक्ति के लिए उन्हें तो मरना नहीं पड़ा. मीराबाई ने अपनी वाणी में कहा है, ‘भले ही बाप छोड़े, मां छोड़े, चाहें तो सब छोड़ दें, मगर मीरा की लगन वही रहेगी प्रभु, अब जो होना है सो हो.’ यह लगन ही तो मुक्ति है.
मैं भी जीवित रहूंगी. मैं सदा-सर्वदा मुक्त हो गयी.
तुम्हारी शरण से विमुक्त
मृणाल
(जनवरी 2016)
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17-11-2020, 02:31 PM
(This post was last modified: 17-11-2020, 02:32 PM by neerathemall. Edited 2 times in total. Edited 2 times in total.)
पत्र-कथाअन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी
– सुधा अरोड़ा
प्यारी मां और बाबा,
चरण स्पर्श
मुझे मालूम है बाबा, ल़िफ़ाफे पर मेरी हस्तलिपि देखकर ल़िफ़ाफे को खोलते हुए तुम्हारे हाथ कांप गये होंगे. तुम बहुत एहतियात के साथ ल़िफ़ाफा खोलोगे कि भीतर रखा हुआ मेरा खत फट न जाये.
सोचते होगे कि एक साल बाद आखिर मैं तुम लोगों को खत क्यों लिखने बैठी. कभी तुम अपने डाकघर से, कभी बाबला या बउदी अपने ऑ]िफस से फोन कर ही लेते हैं फिर खत लिखने की क्या ज़रूरत. नहीं, डरो मत, ऐसा कुछ भी नया घटित नहीं हुआ है. कुछ नया हो भी क्या सकता है.
बस, हुआ इतना कि पिछले एक सप्ताह से मैं अपने को बार-बार तुम लोगों को खत लिखने से रोकती रही. क्यों? बताती हूं. तुम्हें पता है न, बम्बई में बरसात का मौसम शुरू हो गया है. मैं तो मना रही थी कि बरसात जितनी टल सके, टल जाये, लेकिन वह समय से पहले ही आ धमकी. और मुझे जिसका डर था, वही हुआ. इस बार बरसात में पार्क की गीली मिट्टी सनी सड़क से उठकर, उन्हीं लाल केंचुओं की फौज घर के भीतर तक चली आयी है. रसोई में जाओ तो मोरी के कोनों से ये केंचुए मुंह उचका-उचका कर झांकते हैं, नहाने जाओ तो बाल्टी के नीचे कोनों पर वे बेखौफ चिपके रहते हैं. कभी-कभी पैरों के नीचे अचानक कुछ पिलपिला-सा महसूस होता है और मैं डर जाती हूं कि कहीं मेरे पांव के नीचे आकर कोई केंचुआ मर तो नहीं गया?
इस बार मुझे बांकुड़ा का वह अपना (देखो, अब भी वही घर अपना लगता है) घर बहुत याद आया. बस, ये यादें ही तुम्हारे साथ बांटना चाहती थी. पता नहीं तुम्हें याद है या नहीं, पता नहीं बाबला को भी याद होगा या नहीं, हम कितनी बेसब्री से बरसात के आने का इन्तज़ार करते थे. मौसम की पहली बरसात देखकर हम कैसे उछलते-कूदते मां को बारिश के आने की खबर देते जैसे पानी की बूंदें स़िर्फ हमें ही दिखाई देती हैं, और किसी को नहीं. पत्तों पर टप-टप-टप बूंदों की आवाज़ और उसके साथ हवा में गमकती फैलती मिट्टी की महक हमें पागल कर देती थी, हम अखबार को काट-काट कर कागज़ की नावें बनाते और उन्हें तालाब में छोड़ते. मां झींकती रहतीं और हम सारा दिन पोखर के पास और आंगन के बाहर, हाथ में नमक की पोटली लिये, बरसाती केंचुओं को ढूंढ़ते रहते थे. हम उन्हें ढूंढ़-ढूंढ़ कर मारते थे. नमक डालने पर उनका लाल रंग कैसे बदलता था, केंचुए हिलते थे और उनका शरीर सिकुड़कर रस्सी हो जाता था. बाबला और मुझमें होड़ लगती थी कि किसने कितने ज़्यादा केंचुओं को मारा. बाबला तो एक-एक केंचुए पर मुट्ठी भर-भर कर नमक डाल देता था.
मां, तुम्हें याद है, तुम कितना चिल्लाती थीं बाबला पर- इतना नमक डालने की क्या ज़रूरत है रे खोका. पर फिर हर बार जीतता भी तो बाबला ही था- उसके मारे हुए केंचुओं की संख्या ज़्यादा होती थी. बाबा, तुम डाकघर से लौटते तो पूछते- आज कितनों की हत्या की? फिर मुझे अपने पास बिठाकर प्यार से समझाते- बाबला की नकल क्यों करती है रे. तू तो मां अन्नपूर्णा है, देवीस्वरूपा, तुझे क्या जीव-जंतुओं की हत्या करना शोभा देता है? भगवान पाप देगा रे.
आज मुझे लगता है बाबा, तुम ठीक कहते थे. हत्या चाहे मानुष की हो या जीव-जंतु की, हत्या तो हत्या है.
तो क्या बाबा, उस पाप की सज़ा यह है कि बांकुड़ा के बांसपुकुर से चलकर इतनी दूर बम्बई के अंधेरी इलाके के महाकाली केव्स रोड के फ्लैट में आने के बाद भी वे सब केंचुए मुझे घेर-घेर कर डराते हैं, जिन्हें पुकुर के आस-पास नमक छिड़क-छिड़क कर मैंने मार डाला था.
यह मेरी शादी के बाद की पांचवीं बरसात है. बरसात के ठीक पहले ही तुमने मेरी शादी की थी. जब बांकुड़ा से बम्बई के लिए मैं रवाना हुई, तुम सब की नम आंखों में कैसे दिये टिमटिमा रहे थे जैसे तुम्हारी बेटी न जाने कौन-से परीलोक जा रही है जहां दिव्य अप्सराएं उसके स्वागत में फूलों के थाल हाथों में लिये खड़ी होंगी. यह परीलोक, जो तुम्हारा देखा हुआ नहीं था पर तुम्हारी बेटी के सुन्दर रूप के चलते उसकी झोली में आ गिरा था, वर्ना क्या अन्नपूर्णा और क्या उसके डाकिये बापू शिबू मंडल की औकात थी कि उन्हें रेलवे की स्थायी नौकरी वाला सुदर्शन वर मिलता? तुम दोनों तो अपने जमाई राजा को देख -देख कर ऐसे फूले नहीं समाते थे कि मुझे बी.ए. की सालाना परीक्षा में भी बैठने नहीं दिया और दूसरे दर्जे की आरक्षित डोली में बिठाकर विदा कर दिया. जब मैं अपनी बिछुआ-झांझर संभाले इस परीलोक के द्वार दादर स्टेशन पर उतरी तो लगा जैसे तालाब में तैरना भूल गयी हूं. इतने आदमी तो मैंने अपने पूरे गांव में नहीं देखे थे. यहां स्टेशन के पुल की भीड़ के हुजूम के साथ सीढ़ियां उतरते हुए लगा जैसे पेड़ के सूखे पत्तों की तरह हम सब हवा की एक दिशा में झर रहे हैं. देहाती-सी लाल साड़ी में तुम्हारे जीवन भर की जमा-पूंजी के गहने और कपड़ों का बक्सा लिये जब अंधेरी की ट्रेन में इनके साथ बैठी तो साथ बैठे लोग मुझे ऐसे घूर रहे थे जैसे मैं और बाबला कभी-कभी कलकत्ता के चिड़ियाघर में वनमानुष को घूरते थे. और जब महाकाली केव्स रोड के घर का जंग खाया ताला खुला तो जानते हो, सबसे पहले दहलीज़ पर मेरा स्वागत किसने किया था दरवाज़े की फांकों में सिमटे-सरकते, गरदन उचकाते लाल-लाल केंचुओं ने. उस दिन मैं बहुत खुश थी. मुझे लगा, मेरा बांकुड़ा मेरे आंचल से बंधा-बंधा मेरे साथ-साथ चला आया है. मैं मुस्कुरायी थी. पर मेरे पति तो उन्हें देखते ही खूंख्वार हो उठे. उन्होंने चप्पल उठायी और चटाख-चटाख सबको रौंद डाला. एक-एक वार में इन्होंने सबका काम तमाम कर डाला था. तब मेरे मन में पहली बार इन केंचुओं के लिए माया-ममता उभर आयी थी. उन्हें इस तरह कुचले जाते हुए देखना मेरे लिए बहुत यातनादायक था.
हमें एकांत देकर आखिर इनकी मां और बहन भी अपने घर लौट आयी थीं. अब हम रसोई में परदा डालकर सोने लगे थे. रसोई की मोरी को लाख बंद करो, ये केंचुए आना बंद नहीं करते थे. पति अक्सर अपनी रेलवे की ड्यूटी पर सफर में रहते और मैं रसोई में. और रसोई में बेशुमार केंचुए थे. मुझे लगता था, मैंने अपनी मां की जगह ले ली है और मुझे सारा जीवन रसोई की इन दीवारों के बीच इन केंचुओं के साथ गुज़ारना है. एक दिन एक केंचुआ मेरी निगाह बचाकर रसोई से बाहर चला गया और सास ने उसे देख लिया. उनकी आंखें गुस्से से लाल हो गयीं. उन्होंने चाय के खौलते हुए पानी की केतली उठायी और रसोई में बिलबिलाते सब केंचुओं पर गालियां बरसाते हुए उबलता पानी डाल दिया. सच मानो बाबा, मेरे पूरे शरीर पर जैसे फफोले पड़ गये थे, जैसे खौलता हुआ पानी उन पर नहीं, मुझ पर डाला गया हो. वे सब फौरन मर गये, एक भी नहीं बचा. लेकिन मैं ज़िंदा रही. मुझे तब समझ में आया कि मुझे अब बांकुड़ा के बिना ज़िंदा रहना है. पर ऐसा क्यों हुआ बाबा, कि मुझे केंचुओं से डर लगने लगा. अब वे जब भी आते, मैं उन्हें वापस मोरी में धकेलती, पर मारती नहीं. उन दिनों मैंने यह सब तुम्हें खत में लिखा तो था, पर तुम्हें मेरे खत कभी मिले ही नहीं. हो सकता है, यह भी न मिले. या मिल भी जाये तो तुम कहो कि नहीं मिला. फोन पर मैंने पूछा भी था- चिट्ठी मिली? तुमने अविश्वास से पूछा- पोस्ट तो की थी या… मैं हंस दी थी- अपने पास रखने के लिए थोड़े ही लिखी थी. तुमने आगे कुछ नहीं कहा. और बात खतम.
फोन पर इतनी बातें करना सम्भव कहां है. फोन की तारों पर मेरी आवाज़ जैसे ही तुम तक तैरती हुई पहुंचती है, तुम्हें लगता है, सब ठीक है. जैसे मेरा ज़िंदा होना ही मेरे ठीक रहने की निशानी है. और फोन पर तुम्हारी आवाज़ सुनकर मैं परेशान हो जाती हूं क्योंकि फोन पर मैं तुम्हें बता नहीं सकती कि तुम जिस आवाज़ को मेरी आवाज़ समझ रहे हो, वह मेरी नहीं है. तुम फोन पर मेरा कुशल-क्षेम ही सुनना चाहते हो और मैं तुम्हें केंचुओं के बारे में कैसे बता सकती हूं? तुम्हारी आवाज़ से मैं चाहकर भी तो लिपट नहीं सकती. मुझे तब सत्रह सौ किलोमीटर की दूरी बुरी तरह खलने लगती है. इतनी लम्बी दूरी को पार कर डेढ़ साल पहले जब मैं वहां बांकुड़ा पहुंची थी, मुझे लगा था, मैं किसी अजनबी गांव में आ गयी हूं जो मेरा नहीं है. मुझे वापस जाना ही है, यह सोचकर मैं अपने आने को भी भोग नहीं पायी. मैंने शिथिल होकर खबर दी थी कि मुझे तीसरा महीना चढ़ा है. मैं आगे कुछ कह पाती कि तुम सब में खुशी की लहर दौड़ गयी थी. मां ने मुझे गले से लगा लिया था, बउदी ने माथा चूम लिया था. मैं रोई थी, चीखी थी, मैंने मिन्नतें की थीं कि मुझे यह बच्चा नहीं चाहिए, कि उस घर में बच्चे की किलकारियां सिसकियों में बदल जायेंगी, पर तुम सब पर कोई असर नहीं हुआ. तुम चारों मुझे घेरकर खड़े हो गये- भला पहला बच्चा भी कोई गिराता है, पहले बच्चे को गिराने से फिर गर्भ ठहरता ही नहीं, मां बनने में ही नारी की पूर्णता है, मां बनने के बाद सब ठीक हो जाता है, औरत को जीने का अर्थ मिल जाता है. मां, तुम अपनी तरह मुझे भी पूर्ण होते हुए देखना चाहती थी. मैंने तुम्हारी बात मान ली और तुम सब के सपनों को पेट में संजोकर वापस लौट गयी.
वापस. उसी महाकाली की गुफाओं वाले फ्लैट में. उन्हीं केंचुओं के पास. बस, फर्क यह था कि अब वे बाहर फर्श से हटकर मेरे शरीर के भीतर रेंग रहे थे. नौ महीने मैं अपने पेट में एक दहशत को आकार लेते हुए महसूस करती रही. पांचवें महीने मेरे पेट में जब उस आकार ने हिलना-डुलना शुरू किया, मैं भय से कांपने लगी थी. मुझे लगा, मेरे पेट में वही बरसाती केंचुए रेंग रहे हैं, सरक रहे हैं. आखिर वह घड़ी भी आयी, जब उन्हें मेरे शरीर से बाहर आना था और सच मां, जब लम्बी बेहोशी के बाद मैंने आंख खोलकर अपनी बगल में लेटी सलवटों वाली चमड़ी लिये अपनी जुड़वां बेटियों को देखा, मैं सकते में आ गयी. उनकी शक्ल वैसी ही गिजगिजी लाल केंचुओं जैसी झुर्रीदार थी. मैंने तुमसे कहा भी था- देखो तो मां, ये दोनों कितनी बदशक्ल हैं, पतले-पतले ढीले-ढाले हाथ-पैर और सांवली-मरगिल्ली सी. तुमने कहा था- बड़ी बोकी है रे तू, कैसी बातें करती है, ये तो साक्षात् लक्ष्मी-सरस्वती एक साथ आयी हैं तेरे घर. तुम सब ने कलकत्ता जाकर अपनी बेटी और जमाई बाबू के लिए कितनी खरीदारी की थी, बउदी ने खास सोने का सेट भिजवाया था. सब दान-दहेज समेटकर तुम यहां आयी और चालीस दिन मेरी, इन दोनों की और मेरे ससुराल वालों की सेवा-टहल करके लौट गयीं. इन लक्ष्मी-सरस्वती के साथ मुझे बांधकर तुम तो बांकुड़ा के बांसपुकुर लौट गयीं, मुझे बार-बार यही सुनना पड़ा- एक कपालकुण्डला को अस्पताल भेजा था, दो को और ले आयी.
बाबा, कभी मन होता था इन दोनों को बांधकर तुम्हारे पास पार्सल से भिजवा दूं कि मुझसे ये नहीं संभलतीं, अपनी ये लक्ष्मी सरस्वती-सी नातिनें तुम्हें ही मुबारक हों पर हर बार इनकी बिटर-बिटर-सी ताकती हुई आंखें मुझे रोक लेती थीं.
मां, मुझे बार-बार ऐसा क्यों लगता है कि मैं तुम्हारी तरह एक अच्छी मां कभी नहीं बन पाऊंगी जो जीवन भर रसोई की चारदीवारी में बाबला और मेरे लिए पकवान बनाती रही और फालिज की मारी ठाकुर मां की चादरें धोती-समेटती रही. तुम्हारी नातिनों की आंखें मुझसे वह सब मांगती हैं जो मुझे लगता है, मैं कभी उन्हें दे नहीं पाऊंगी.
इन पांच सात महीनों में कब दिन चढ़ता था, कब रात ढल जाती थी, मुझे तो पता ही नहीं चला. इस बार की बरसात ने आकर मेरी आंखों पर छाये सारे परदे गिरा दिये हैं. ये दोनों घिसटना सीख गयी हैं. सारा दिन कीचड़ मिट्टी में सनी केंचुओं से खेलती रहती हैं. जब ये घुटनों घिसटती हैं, मुझे केंचुए रेंगते दिखाई देते हैं और जब बाहर सड़क पर मैदान के पास की गीली मिट्टी में केंचुओं को सरकते देखती हूं तो उनमें इन दोनों की शक्ल दिखाई देती है. मुझे डर लगता है, कहीं मेरे पति घर में घुसते ही इन सब पर चप्पलों की चटाख-चटाख बौछार न कर दें या मेरी सास इन पर केतली का खौलता हुआ पानी न डाल दें. मैं जानती हूं, यह मेरा वहम है पर यह लाइलाज है और मैं अब इस वहम का बोझ नहीं उठा सकती.
इन दोनों को अपने पास ले जा सको तो ले जाना. बाबला और बउदी शायद इन्हें अपना लें. बस, इतना चाहती हूं कि बड़ा होने पर ये दोनों अगर आसमान को छूना चाहें तो यह जानते हुए भी कि वे आसमान को कभी छू नहीं पायेंगी, इन्हें रोकना मत.
इन दोनों के रूप में तुम्हारी बेटी तुम्हें सूद सहित वापस लौटा रही हूं.
बाबा, तुम कहते थे न- आत्माएं कभी नहीं मरतीं. इस विराट व्योम में, शून्य में, वे तैरती रहती हैं- परम शांत होकर. मैं उस शांति को छू लेना चाहती हूं. मैं थक गयी हूं बाबा. हर शरीर के थकने की अपनी सीमा होती है. मैं जल्दी थक गयी, इसमें दोष तो मेरा ही है. तुम दोनों मुझे माफ कर सको तो कर देना. इति.
तुम्हारी आज्ञाकारिणी बेटी,
अन्नपूर्णा मंडल
(जनवरी 2016)
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thanks
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