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15-01-2020, 10:51 AM
(This post was last modified: 15-01-2020, 10:52 AM by neerathemall. Edited 1 time in total. Edited 1 time in total.)
लिख-लिख कर खुदा खोजता रहा वो बूढ़ा
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
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इल्म पढ़-पढ़ फ़ाज़िल होया, कदे अपने आप नू पढ्या नहीं ! बुल्ले शाह का ये गाना या फिर कबीर का पोथा पढ़-पढ़ बड़ा-बड़ा पंडित होया न कोय…लेव तोल्स्तोय की किताबों पर लागू नहीं होता है. लेव तोल्स्तोय, लियो टॉल्स्टॉय के नाम का मूल उच्चारण यही है, ने जो कुछ भी लिखा वो आज साहित्य की अमरनिधि है. तोल्स्तोय ने तीन भारी-भरकम पोथेनुमा उपन्यास लिखे. ‘युद्ध और शांति‘ जिसे दुनिया की सबसे बढ़िया किताब माना जाता है. ‘आन्ना कारेनिना‘ – दुनिया की सर्वश्रेष्ठ किताबों की कोई भी सूची ले लीजिए उसमें आन्ना कारेनिना का नाम ज़रूर होगा. ‘पुनरुत्थान‘ –
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तोल्स्तोय एक समय ताश के बहुत बड़े खिलाड़ी हुआ करते थे. जवानी में खूब दारू और जुआ चला करता था. अगर आपका बचपन संयुक्त राष्ट्र से मान्यता प्राप्त इंटरनेशनल कॉलेजों में नहीं बीता है तो तोल्स्तोय की एक-आध कहानी आपने ज़रूर पढ़ी होगी. उनकी सबसे चर्चित कहानी है – इवान इल्यीच की मौत. इस कहानी में एक अधेड़ और अमीर आदमी जवानी जाने के बाद आती हुई मौत के बारे में सोचकर ही सकपका जाता है और इस सकपकाहट का नतीजा ये कि इवान इल्यीच को बिताया गया अपना सारा जीवन निरर्थक नज़र आता है. मौत से डरे इंसान इवान इल्यीच की मौत हो जाती है और आसपास के लोग फिर अपने ढंग से जीने लगते हैं. आदमी बुलबुला है पानी का…
रोंगटे खड़े कर देने वाली कहानियों में तोल्स्तोय की क्रूज़र सोनाटा का नाम भी है. लव और सेक्स पर सबसे विवादित कहानियों में शुमार क्रूज़र सोनाटा ने प्रतिबंध भी झेला था. लेकिन तोल्स्तोय को रॉकस्टार की ख्याति मिली महाकाय, महान उपन्यास ‘युद्ध और शांति’ से. 4 खंड़ों और 1500 से ज़्यादा पन्नों में फैले इस उपन्यास को तोल्स्तोय ने अपनी शादी के ठीक बाद लिखना शुरू किया. इस काम को करने में उनकी मदद करती थीं उनसे 16 साल छोटी पत्नी सोफिया. रूसी में ‘वोयना इ मीर’ नाम से छपे इस उपन्यास को तोल्स्तोय ने 15 बार कांट-छाट कर अंतिम रूप दिया. यानी करीब 15-20 हज़ार पन्नों का लेखन. सोफिया, तोल्स्तोय के लिखे पन्नों में मात्रा ठीक करतीं, उन्हें अंतिम रूप देतीं. इस उपन्यास में नेपोलियन का रूस पर हमला और उसके बाद रूसी जनता की देशभक्ति के साथ बचपन से लेकर बुढ़ापे तक का सफर है. सैंकड़ों पात्रों से सजे ‘युद्ध और शांति’ में बच्चे, बच्चों के बाप बन जाते हैं और राजनीति से लेकर अर्थनीति और जीवन की निरर्थकता पर बात होती है. यूरोप में किताबें पढ़ने वाले लोग हफ्ते-हफ्ते की छुट्टियां लेकर इस उपन्यास को पढ़ते हैं. ये पूरे जीवन की यात्रा है. पढ़ने वाले की विश्व-दृष्टि बदलने का माद्दा रखता ये उपन्यास आते ही बेस्टसेलर बन गया था.
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Quote:Quote:क्रूज़र सोनाटा
पिता और पुत्र के नितान्त भिन्न व्यक्तित्वों और कारनामों के रूप में तोल्स्तोय ने दो पीढ़ियों को आमने–सामने खड़ा किया है।
‘दो हुस्सार’ तोल्स्तोय की पहली गल्प रचना थी जो उनके निजी अनुभवों से इतर विषयवस्तु पर थी। पिता और पुत्र के नितान्त भिन्न व्यक्तित्वों और कारनामों के रूप में तोल्स्तोय ने दो पीढ़ियों को आमने–सामने खड़ा किया है। ‘सुखी दम्पति’ (1859) में तोल्स्तोय ने अपने निजी जीवन की घटनाओं को बड़ी खूबसूरती से कला में ढाला है। कहानी के पहले भाग में एक संवेदनशील सत्रह वर्षीय युवती के मन में अपने से दूनी उम्र के व्यक्ति के लिए उपजते प्रेम का अद्भुत, काव्यात्मक वृत्तान्त है, पर पहले भाग का उल्लासमय, काव्यात्मक माहौल दूसरे भाग में वैवाहिक जीवन के तनावों और खिंचावों से छिन्न–भिन्न हो जाता है। ‘इवान इलिच की मौत’ एक सामान्य आदमी की कहानी है जिसे मौत की दहलीज पर अपने व्यतीत जीवन की निरर्थकता का अहसास होता है। इवान इलिच के जीवन के अन्तिम क्षणों की अनुभूति धार्मिक मुक्ति विषयक तोल्स्तोय की अवधारणा को प्रस्तुत करती है, लेकिन इन मिथ्याभासों के ऊपर रचना का गम्भीर मनोवैज्ञानिक यथार्थवाद हावी है। क्रूजर सोनाटा में ऐन्द्रिक प्यार और वासना के विरुद्ध संघर्ष को विषय बनाया गया है और नि%स्वार्थ प्यार के ईसाई सिद्धान्त की वकालत की गई है, लेकिन यहाँ भी तोल्स्तोय के धर्मोपदेशक के पहलू पर वस्तुस्थिति का आलोचनात्मक यथार्थवादी चित्रण हावी है। ‘इंसान और हैवान’ कहानी का मुख्य ‘नैरेटर’ एक घोड़ा है। तोल्स्तोय की अन्य प्रारम्भिक रचनाओं की तरह इस कहानी में भी मानव समाज की कृत्रिमता और परम्पराबद्धता पर, खासकर सम्पत्ति की संस्था पर व्यंग्य किया गया है। ‘नाच के बाद’ (1903) में पचहत्तर वर्षीय तोल्स्तोय ने एक बार फिर कज“ान विश्वविद्यालय में युवा छात्र के रूप में अपने एक प्रेम सम्बन्ध से प्रेरणा ली है। अपने गहरे यथार्थवाद और मनोवैज्ञानिक पड़ताल के उपकरणों से वह अतीत के वातावरण को बेहद जीवन्त और ताजगीभरे ढंग से पाठकों के सामने सजीव करते हैं। लेकिन कहानी के अन्त में तोल्स्तोय पाठकों के मन पर राज्य के प्रति नफरत का भाव छोड़ने में सफल रहते हैं जिसे वह न केवल नागरिकों का शोषण करने बल्कि उनके मनोबल को तोड़ डालने की एक साजिश मानते हैं।
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लेकिन इस कामयाबी के बाद तोल्स्तोय ने लिखना पढ़ना बंद कर दिया. युद्ध और शांति लिखने के दौरान लेखन कार्य ने तोल्स्तोय की शक्ति को निचोड़ दिया और तोल्स्तोय लिखना-पढ़ना बंद करके पहुंच जाते हैं अपने गांव. अपनी ज़मींदारी पर जाकर तोल्स्तोय अपने खेतों में काम करने लगे. अपने यहां काम करने वाले किसानों को पढ़ाने लगे. किसानों के बच्चों के लिए कॉलेज खोला, उन्हें कहानियां सुनाते. पर किसानों को पढ़ाने का प्लान मुंह के बल गिरा. जो पढ़ाई की कीमत न समझे वो बर्बाद होने के लिए अभिशप्त हैं, ये दुखभरा एहसास भी तोल्स्तोय के मन में घर करने लगा.
इसी निराशा के दिनों में एक ट्रेन यात्रा के दौरान उन्हें अपने दूसरे महान उपन्यास आन्ना कारेनिना का प्लॉट मिलता है. एक दिन तोल्स्तोय ने रेलवे प्लेटफॉर्म पर भीड़ देखी और पूछताछ करने पर पता चला कि एक खूबसूरत, अमीर महिला ने ट्रेन से कटकर आत्महत्या कर ली है. इस महिला का पति बड़ा अधिकारी और बड़ी उम्र वाला था. ये पति को तलाक देकर अपने प्रेमी से शादी करना चाहती थी. पैसे और खूबसूरती के बावजूद जीवन की ये दुर्गति तोल्स्तोय को इतना हिला गई कि अगले तीन साल आन्ना कारेनिना लिखने में लगा दिए.
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इस उपन्यास में तोल्स्तोय ने अपनी प्रेम कहानी और गांव में बिताए गए अपने सफल जीवन की कहानी को भी गूंथ दिया. तोल्स्तोय बहुत पैसे वाले थे. उन्होंने हाई सोसाइटी और शहरों की पार्टियों के पीछे की हक़ीक़त देखी थी और लिखी भी है जो पढ़ने पर आपको किसी भी देश की हाई सोसाइटी के किस्से जैसी लगेगी. आन्ना कारेनिना को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ सोशल नोवल माना जाता है.
और फिर आता है तोल्स्तोय का वो उपन्यास, पुनरुत्थान – जिसको पढ़कर मोहनदास करमचंद गांधी ने तोल्स्तोय को अपना आध्यात्मिक गुरू मान लिया. पुनरुत्थान में एक अमीरज़ादा अपने यहां काम करने वाली एक लड़की का लगातार बलात्कार करता है. वह लड़की उसे कई सालों बाद मिलती है – एक वेश्या और कैदी के रूप में. अदालत में इस वेश्या कैदी की सुनवाई करने वाली पंचायत में वह खुद भी होता है. एक मासूम लड़की को अपनी वजह से वेश्या बना हुआ देखकर हीरो पगला जाता है और फिर उसे छुड़ाने की कोशिश और पश्चाताप करता है. आखिर में हीरो इस वेश्या से शादी करना चाहता है लेकिन ये वेश्या ही इस पैसेवाले को ठुकरा देती है.
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तोल्स्तोय के ये तीनों महान उपन्यास सच्ची घटनाओं पर आधारित हैं. तोल्स्तोय अपने मित्रों को बताते थे, ‘कोई रचना तभी अच्छी होती है जब उसमें कल्पना और विवेक का सही सामंजस्य हो, जैसे ही इनमें से कोई एक, दूसरे पर हावी हो जाता है, सब कुछ समाप्त हो जाता है. तब बेहतर यही है कि इसे दरकिनार कर नई शुरूआत की जाए.’
नेज़्वस्तस्नया- 1883 में इवान क्रामस्कोई की बनाई अज्ञात महिला की पेंटिंग आन्ना कारेनिना के मुखपृष्ठों पर छपती है
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तोल्स्तोय का कुछ भी उठा लीजिए सब कुछ क्लासिक है. एक आदमी इतनी क्लासिक रचनाएं कैसे लिख सकता है, वो भी ऐसी किताबें जो अपने देश में ही नहीं, पूरी दुनिया में छा गईं ? अमीर ज़मींदार परिवार में पैदा हुए तोल्स्तोय ने भगवा चोला धारण नहीं किया था बस, बाकि उनका सब-कुछ खुद को और ईश्वर को ढूंढने में लगा रहा. वो अपनी तरह के बाबा थे जो अपने लिखने में भगवान ढूंढते थे. हालांकि उनकी आत्मकथा लिखने की इच्छा कभी पूरी नहीं हो पाई लेकिन एक पतली सी किताब ‘मुक्ति की खोज’ में तोल्स्तोय ने कई जगह लिखा है, ‘मैं ज़िंदगी के मकसद और भगवान् के अस्तित्व से जुड़े सवालों से तंग आकर आत्महत्या करना चाहता था.’ और भगवान् की खोज करते-करते तोल्स्तोय दुनिया का हर धर्म, हर दर्शन पढ़ गए. हमारे भारत का अध्यात्म भी चाट गए.
तोल्स्तोय भयंकर आस्तिक थे और जीवन के उत्तरार्ध में शाकाहारी हो गए थे. रूस में शाकाहारी होना मुश्किल और अनोखी बात थी तब. उनके उपन्यासों में ईसाई धर्म दिखेगा. इसका मतलब ये नहीं की वो कट्टर ईसाई थे. उनकी किताबों में सारे पात्र ही ईसाई धर्म के थे और उन कथानकों में दूसरी आस्थाओं का समावेश संभव नहीं था.
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तोल्स्तोय एक कामयाब प्रेमी थे. आन्ना कारेनिना में तोल्स्तोय ने अपनी पत्नी को ‘कहो ना प्यार है’ कहने से लेकर बाप बनने तक की खुशी का खूबसूरत चित्रण किया है. उनकी पत्नी ही उनकी निजी सचिव थीं. वही सारे काग़ज़ात तैयार करती थीं. जब तोल्स्तोय साहित्य के रॉकस्टार हो गए तब उनको पता चला कि कॉपीराइट और रॉयल्टी कैसे काम करती है. ये सुनकर तोल्स्तोय ने कहा,’यह तथ्य की पिछले दस सालों में मेरी रचनाओं की खरीद-बिक्री हुई है, मेरे लिए मेरे जीवन की सबसे दुखद घटना है.’
सौजन्य: http://humweb.ucsc.edu/
सौजन्य: http://humweb.ucsc.edu/
तोल्स्तोय गरीबों के मसीहा थे. अकाल पड़ने की ख़बर मिलते ही, घोड़े-गाड़ी जोड़कर किसानों और गरीबों की मदद करने यूरोपियन रूस से एशियन रूस तक पहुंच जाते थे. कितने ही तरीकों से उन्होंने गरीबों की मदद करनी चाही और की भी. और उनमें एक चीज़ और थी. हम अपने लिखे हुए को काटना तक पसंद नहीं करते और वो थे कि अपने लिखे हुए को नष्ट तक कर देते थे. जब आन्ना कारेनिना पूरे यूरोप में धूम मचा रहा था तब तोल्स्तोय बड़े शर्मिंदा हुए, जो कोई भी पूछता उसे कह देते – ऐसा वाहियात उपन्यास कोई कैसे लिख सकता है. एक अमीर औरत और जवान फ़ौजी अफ़सर की प्रेम कहानी लोगों को क्यों पसंद आ रही है ?
तोल्स्तोय की ख्याति पूरी दुनिया में फैल चुकी थी लेकिन तोल्स्तोय को अपने आध्यात्मिक शिष्य महात्मा गांधी की तरह ही नोबेल पुरस्कार कभी नहीं मिला. दरअसल नोबेल वाले कभी भी निष्पक्ष नहीं रहे हैं. तब भी नहीं थे. तोल्स्तोय के जीवनकाल में नोबेल देने वाले स्कैंडिनेवियन देशों के साथ रूस के संबंध खराब रहे. खैर, ये नोबेल का ही नुकसान है कि वो दुनिया के महानतम लेखक को नोबेल नहीं दे पाया.
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सफल और कामयाब दांपत्य जीवन और अच्छे-भरे पूरे परिवार के साथ रह रहे तोल्स्तोय जैसे-जैसे लिखते जा रहे थे वैसे-वैसे जीवन क्या है और भगवान कहां हैं जैसे प्रश्न और-और परेशान करते जा रहे थे. इसी दौरान उनकी एक बेटी का देहांत हो जाता है. इस दुख के बाद वृद्ध तोल्स्तोय अपने में ही खो गए. धीरे-धीरे परिवार और तोल्स्तोय की वैरागी होती जीवनशैली के बीच तालमेल नहीं बन पाया और तोल्स्तोय ने घर छोड़ने का फैसला कर लिया. इनकी एक बेटी भी इनके साथ चल दीं.
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15-01-2020, 11:06 AM
(This post was last modified: 15-01-2020, 11:07 AM by neerathemall. Edited 1 time in total. Edited 1 time in total.)
घर से निकलने के 10 दिन बाद अस्तापोवो नाम के एक गांव में ठंड लगने से तोल्स्तोय को निमोनिया हो गया. वहां के रेलवे स्टेशन मास्टर तोल्स्तोय को अपने घर ले गए. लेकिन इस अस्तापोवो स्टेशन को इतिहास में ‘आखिरी स्टेशन’ के नाम से दर्ज होना था. 20 नबंवर 1910 को 82 साल की आयु में भगवान को लिख-लिखकर खोजते इस बुढ़े का देहांत हो जाता है. एक जुआरी, नशेड़ी से लेकर दुनिया के महानतम लेखक होने का सफर खत्म होता है. तोल्स्तोय के देहांत के बाद ये खबर आग की तरह फैल गई. सिक्युरिटी को भीड़ रोकने में पसीने छूट गए. किसान-गरीब टूट पड़े, विरोध प्रदर्शन भी हुए. सिक्युरिटी और प्रशासन की बंदिशों के बावजूद तोल्स्तोय की अंतिम यात्रा में हज़ारों लोग आए. इस किस्से पर हॉलीवुड में ‘लास्ट स्टेशन’ नाम से फिल्म भी बनी है.
तोल्स्तोय का स्थान आज तक खाली है. विश्व साहित्य में कोई ऐसा नहीं है जिससे तोल्स्तोय की तुलना की जा सके. वो लेखक तो बाद में हुए थे. किशोर अवस्था नशे और जुए में बिताई, फिर जबरदस्त वफ़ादार प्रेमी बने और फिर बने गरीबों के मसीहा…नए ज़माने में अहिंसा और आज़ादी का आईडिया सबसे पहले तोल्स्तोय ने लिख दिया था खुदा खोजते-खोजते…
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तोल्स्तोय का लिखा सब कुछ मूल रूसी से हिंदी में अनुवाद होकर छपा है और आज भी उपलब्ध है. डॉ मधुसूदन ‘मधु’ ने तो युद्ध और शांति का अनुवाद करने में तीन साल लगा दिए थे. वो भी तब जब रोज़ 6-8 घंटे अनुवाद करते थे. इन्होंने ही आन्ना कारेनिना का अनुवाद किया है और भीष्म साहनी ने पुनरुत्थान और इवान इल्यीच की मौत का हिंदी उल्था किया है. प्रेमचंद ने भी तोल्स्तोय की कुछ कहानियों का अनुवाद किया था. वक्त मिले तो पढ़िएगा…ये सब मिल जाता है.
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तोल्स्तोय का लिखा सब कुछ मूल रूसी से हिंदी में अनुवाद होकर छपा है और आज भी उपलब्ध है. डॉ मधुसूदन ‘मधु’ ने तो युद्ध और शांति का अनुवाद करने में तीन साल लगा दिए थे. वो भी तब जब रोज़ 6-8 घंटे अनुवाद करते थे. इन्होंने ही आन्ना कारेनिना का अनुवाद किया है और भीष्म साहनी ने पुनरुत्थान और इवान इल्यीच की मौत का हिंदी उल्था किया है. प्रेमचंद ने भी तोल्स्तोय की कुछ कहानियों का अनुवाद किया था. वक्त मिले तो पढ़िएगा…ये सब मिल जाता है.
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तीन प्रश्नों के उत्तर
~ लियो टोल्स्टोय की कहानियाँ
..
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यह कहानी उस राजा की है जो अपने तीन प्रश्नों के उत्तर खोज रहा था।
तो, एक बार एक राजा के मन में आया कि यदि वह इन तीन प्रश्नों के उत्तर खोज लेगा तो उसे कुछ और जानने की आवश्यकता नहीं रह जायेगी।
पहला प्रश्न: किसी भी कार्य को करने का सबसे उपयुक्त कौन सा है?
दूसरा प्रश्न: किन व्यक्तियों के साथ कार्य करना सर्वोचित है?
तीसरा प्रश्न: वह कौन सा कार्य है जो हर समय किया जाना चाहिए?
राजा ने यह घोषणा करवाई कि जो भी व्यक्ति उपरोक्त प्रश्नों के सही उत्तर देगा उसे बड़ा पुरस्कार दिया जाएगा। यह सुनकर बहुत से लोग राजमहल गए और सभी ने अलग-अलग उत्तर दिए। पहले प्रश्न के उत्तर में एक व्यक्ति ने कहा कि राजा को एक समय तालिका बनाना चाहिए और उसमें हर कार्य के लिए एक निश्चित समय नियत कर देना चाहिए तभी हर काम अपने सही समय पर हो पायेगा। दूसरे व्यक्ति ने राजा से कहा कि सभी कार्यों को करने का अग्रिम निर्णय कर लेना उचित नहीं होगा और राजा को चाहिए कि वह मनविलास के सभी कार्यों को तिलांजलि देकर हर कार्य को व्यवस्थित रूप से करने की ओर अपना पूरा ध्यान लगाये।
किसी और ने कहा कि राजा के लिए यह असंभव है कि वह हर कार्य को दूरदर्शिता पूर्वक कर सके। इसलिए राजा को विज्ञजनों की एक समिति का निर्माण करना चाहिए जो हर विषय को परखने के बाद राजा को यह बताये कि उसे कब क्या करना है। फिर किसी और ने यह कहा कि कुछ मामलों में त्वरित निर्णय लेने पड़ते हैं और परामर्श के लिए समय नहीं होता लेकिन ज्योतिषियों और भविष्यवक्ताओं की सहायता से राजा यदि चाहे तो किसी भी घटना का पूर्वानुमान लगा सकता है।
दूसरे प्रश्न के उत्तर के लिए भी कोई सहमति नहीं बनी। एक व्यक्ति ने कहा कि राजा को प्रशासकों में अपना पूरा विश्वास रखना चाहिए। दूसरे ने राजा से पुरोहितों और संन्यासियों में आस्था रखने के लिए कहा। किसी और ने कहा कि चिकित्सकों पर सदैव ही भरोसा रखना चाहिए तो किसी ने योद्धाओं पर विश्वास करने के लिए कहा।
तीसरे प्रश्न के जवाब में भी विविध उत्तर मिले। किसी ने कहा कि विज्ञान का अध्ययन सबसे महत्वपूर्ण है तो किसी ने धर्मग्रंथों के पारायण को सर्वश्रेष्ठ कहा। किसी और ने कहा कि सैनिक कौशल में निपुणता होना ही सबसे ज़रूरी है।
राजा को इन उत्तरों में से कोई भी ठीक नहीं लगा इसलिए किसी को भी पुरस्कार नहीं दिया गया। कुछ दिन तक चिंतन-मनन करने के बाद राजा ने एक महात्मा के दर्शन का निश्चय किया। वह महात्मा एक पर्वत के ऊपर बनी कुटिया में रहते थे और सभी उन्हें परमज्ञानी मानते थे।
राजा को यह पता चला कि महात्मा पर्वत से नीचे कभी नहीं आते और राजसी व्यक्तियों से नहीं मिलते थे। इसलिए राजा ने साधारण किसान का वेश धारण किया और अपने सेवक से कहा कि वह पर्वत की तलहटी पर लौटने का इंतज़ार करे। फिर राजा महात्मा की कुटिया की ओर चल दिया।
महात्मा की कुटिया तक पहुँचने पर राजा ने देखा कि वे अपनी कुटिया के सामने बने छोटे से बगीचे में फावड़े से खुदाई कर रहे थे। महात्मा ने राजा को देखकर सर हिलाया और खुदाई करते रहे। बगीचे में काम करना उनके लिए वाकई कुछ कठिन था, वे वृद्ध हो चले थे। हांफते हुए वे जमीन पर फावड़ा चला रहे थे।
राजा महात्मा तक पहुंचा और बोला, “मैं आपसे तीन प्रश्नों का उत्तर जानना चाहता हूँ। पहला: किसी भी कार्य को करने का सबसे अच्छा समय क्या है? दूसरा: किन व्यक्तियों के साथ कार्य करना सर्वोचित है? तीसरा: वह कौन सा कार्य है जो हर समय किया जाना चाहिए?
महात्मा ने राजा की बात ध्यान से सुनी और उसके कंधे को थपथपाया और खुदाई करते रहे। राजा ने कहा, “आप थक गए होंगे। लाइए, मैं आपका हाथ बंटा देता हूँ।” महात्मा ने धन्यवाद देकर राजा को फावड़ा दे दिया और एक पेड़ के नीचे सुस्ताने के लिए बैठ गए।
दो क्यारियाँ खोदने के बाद राजा महात्मा की ओर मुड़ा और उसने फिर से वे तीनों प्रश्न दोहराए। महात्मा ने राजा के प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया और उठते हुए कहा, “अब तुम थोड़ी देर आराम करो और मैं बगीचे में काम करूंगा।” लेकिन राजा ने खुदाई करना जारी रखा। एक घंटा बीत गया, फिर दो घंटे। शाम हो गयी। राजा ने फावड़ा रख दिया और महात्मा से कहा, “मैं यहाँ आपसे तीन प्रश्नों के उत्तर पूछने आया था पर आपने मुझे कुछ नहीं बताया। कृपया मेरी सहायता करें ताकि मैं समय से अपने घर जा सकूं।”
महात्मा ने राजा से कहा, “क्या तुम्हें किसी के दौड़ने की आवाज़ सुनाई दे रही है?”। राजा ने आवाज़ की दिशा में सर घुमाया। दोनों ने पेड़ों के झुरमुट से एक आदमी को उनकी ओर भागते आते देखा। वह अपने पेट में लगे घाव को अपने हाथ से दबाये हुए था। घाव से बहुत खून बह रहा था। वह दोनों के पास आकर धरती पर गिर गया और अचेत हो गया। राजा और महात्मा ने देखा कि उसके पेट में किसी शस्त्र से गहरा वार किया गया था।राजा ने फ़ौरन उसके घाव को साफ़ किया और अपने वस्त्र को फाड़कर उसके घाव पर बाँधा ताकि खून बहना बंद हो जाए। कपड़े का वह टुकड़ा जल्द ही खून से पूरी तरह तर हो गया तो राजा ने उसके ऊपर दूसरा कपडा बाँधा और ऐसा तब तक किया जब तक खून बहना रुक नहीं गया।
कुछ समय बाद घायल व्यक्ति को होश आया और उसने पानी माँगा। राजा कुटिया तक दौड़कर गया और उसके लिए पानी लाया। सूरज अस्त हो चुका था और वातावरण में ठंडक आने लगी। राजा और महात्मा ने घायल व्यक्ति को उठाया और कुटिया के अन्दर बिस्तर पर लिटा दिया। वह आँखें बंद करके चुपचाप लेटा रहा। राजा भी पहाड़ चढ़ने और बगीचे में काम करने के बाद थक चला था। वह कुटिया के द्वार पर बैठ गया और उसे नींद आ गयी। सुबह जब उसकी आँख खुली तब सूर्योदय हो चला था और पर्वत पर दिव्य आलोक फैला हुआ था।
एक पल को वह भूल ही गया कि वह कहाँ है और वहां क्यों आया था। उसने कुटिया के भीतर बिस्तर पर दृष्टि डाली। घायल व्यक्ति अपने चारों ओर विस्मय से देख रहा था। जब उसने राजा को देखा तो बहुत महीन स्वर में बुदबुदाते हुए कहा, “मुझे क्षमा कर दीजिये”।
“लेकिन तुमने क्या किया है और मुझसे क्षमा क्यों मांग रहे हो”, राजा ने उससे पूछा।
“आप मुझे नहीं जानते पर मैं आपको जानता हूँ। मैंने आपका वध करने की प्रतिज्ञा ली थी क्योंकि पिछले युद्ध में आपने मेरे राज्य पर हमला करके मेरे बंधु-बांधवों को मार डाला और मेरी संपत्ति हथिया ली। जब मुझे पता चला कि आप इस पर्वत पर महात्मा से मिलने के लिए अकेले आ रहे हैं तो मैंने आपकी हत्या करने की योजना बनाई। मैं छुपकर आपके लौटने की प्रतीक्षा कर रहा था पर आपके सेवक ने मुझे देख लिया। वह मुझे पहचान गया और उसने मुझपर प्रहार किया। मैं अपने बचाव के लिए भागता हुआ यहाँ आ गया और आपके सामने गिर पड़ा। मैं आपकी हत्या को उद्यत था पर आपने मेरे जीवन की रक्षा की। मैं बहुत शर्मिंदा हूँ। मुझे समझ नहीं आ रहा कि आपके उपकार का मोल कैसे चुकाऊँगा। मैं जीवनपर्यंत आपकी सेवा करूंगा और मेरी संतानें भी सदैव आपके कुल की सेवा करेंगीं। कृपया मुझे क्षमा कर दें”।
राजा यह जानकर बहुत हर्षित हुआ कि प्रकार उसके शत्रु का रूपांतरण हो गया। उसने न केवल उसे क्षमा कर दिया बल्कि उसकी संपत्ति लौटाने का वचन भी दिया और उसकी चिकित्सा के लिए अपने सेवक के मार्फ़त अपने निजी चिकित्सक को बुलावा भेजा। सेवक को निर्देश देने के बाद राजा महात्मा के पास अपने प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए पुनः आया। उसने देखा, महात्मा पिछले दिन खोदी गयी क्यारियों में बीज बो रहे थे।
महात्मा ने उठकर राजा से कहा, “आपके प्रश्नों के उत्तर तो पहले ही दिए जा चुके हैं।”
“वह कैसे?”, राजा ने चकित होकर कहा।
“कल यदि आप मेरी वृद्धावस्था का ध्यान करके बगीचे में कार्य करने में मेरी सहायता नहीं करते तो आप वापसी में घात लगाकर बैठे हुए शत्रु का शिकार बन जाते। तब आपको यह खेद होता कि आपको मेरे समीप अधिक समय व्यतीत करना चाहिए था। अतः आपका कल बगीचे में कार्य करने का समय ही सबसे उपयुक्त था। आप जिस सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति से मिले वह मैं ही था। और आपका सबसे आवश्यक कार्य था मेरी सहायता करना। बाद में जब घायल व्यक्ति यहाँ चला आया तब सबसे महत्वपूर्ण समय वह था जब आपने उसके घाव को भलीप्रकार बांधा। यदि आप ऐसा नहीं करते तो रक्तस्त्राव के कारण उसकी मृत्यु हो जाती। तब आपके और उसके मध्य मेल-मिलाप नहीं हो पाता। अतः उस क्षण वह व्यक्ति सर्वाधिक महत्वपूर्ण था और उसकी सेवा-सुश्रुषा करना सबसे आवश्यक कार्य था।”
“स्मरण रहे, केवल एक ही समय सर्वाधिक महत्वपूर्ण है और वह समय यही है, इस क्षण में है। इसी क्षण की सत्ता है, इसी का प्रभुत्व है। सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति वही है जो आपके समीप है, आपके समक्ष है, क्योंकि हम नहीं जानते कि अगले क्षण हम किसी अन्य व्यक्ति से व्यवहार करने के लिए जीवित रहेंगे भी या नहीं। और सबसे आवश्यक कार्य यह है कि आपके समीप आपके समक्ष उपस्थित व्यक्ति के जीवन को सुख-शांतिपूर्ण करने के प्रयास किये जाएँ क्योंकि यही मानवजीवन का उद्देश्य है।”
By Premchand
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
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प्रेम में परमेश्वर ~ लियो टोल्स्टोय की कहानियाँ
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(15-01-2020, 12:13 PM)neerathemall Wrote: प्रेम में परमेश्वर ~ लियो टोल्स्टोय की कहानियाँ
किसी गांव में मूरत नाम का एक बनिया रहता था। सड़क पर उसकी छोटीसी दुकान थी। वहां रहते उसे बहुत काल हो चुका था, इसलिए वहां के सब निवासियों को भलीभांति जानता था। वह बड़ा सदाचारी, सत्यवक्ता, व्यावहारिक और सुशील था। जो बात कहता, उसे जरूर पूरा करता। कभी धेले भर भी कम न तोलता और न घीतेल मिलाकर बेचता। चीज़ अच्छी न होती, तो गराहक से साफसाफ कह देता, धोखा न देता था।
चौथेपन में वह भगवत्भजन का प्रेमी हो गया था। उसके और बालक तो पहले ही मर चुके थे, अंत में तीन साल का बालक छोड़कर उसकी स्त्री भी जाती रही। पहले तो मूरत ने सोचा, इसे ननिहाल भेज दूं, पर फिर उसे बालक से प्रेम हो गया। वह स्वयं उसका पालन करने लगा। उसके जीवन का आधार अब यही बालक था। इसी के लिए वह रातदिन काम किया करता था। लेकिन शायद संतान का सुख उसके भाग्य में लिखा ही न था।
पलपलाकर बीस वर्ष की अवस्था में यह बालक भी यमलोक को सिधार गया। अब मूरत के शोक की कोई सीमा न थी। उसका विश्वास हिल गया। सदैव परमात्मा की निन्दा कर वह कहा करता था कि परमेश्वर बड़ा निर्दयी और अन्यायी है; मारना बू़े को चाहिए था, मार डाला युवक को। यहां तक कि उसने ठाकुर के मंदिर में जाना भी छोड़ दिया।
एक दिन उसका पुराना मित्र, जो आठ वर्ष से तीर्थयात्रा को गया हुआ था, उससे मिलने आया। मूरत बोला—मित्र देखो, सर्वनाश हो गया। अब मेरा जीना अकारथ है। मैं नित्य परमात्मा से यही विनती करता हूं कि वह मुझे जल्दी इस मृत्युलोक से उठा ले, मैं अब किस आशा पर जीऊं।
मित्र—मूरत, ऐसा मत कहो। परमेश्वर की इच्छा को हम नहीं जान सकते। वह जो करता है, ठीक करता है। पुत्र का मर जाना और तुम्हारा जीते रहना विधाता के वश है, और कोई इसमें क्या कर सकता है! तुम्हारे शोक का मूल कारण यह है कि तुम अपने सुख में सुख मानते हो। पराए सुख से सुखी नहीं होते।
मूरत—तो मैं क्या करुं?
मित्र—परमात्मा की निष्काम भक्ति करने से अन्तःकरण शुद्ध होता है। जब सब काम परमेश्वर को अर्पण करके जीवन व्यतीत करोगे तो तुम्हें परमानंद पराप्त होगा।
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मूरत—चित्त स्थिर करने का कोई उपाय तो बतलाइए।
मित्र—गीता, भक्तमालादि गरन्थों का श्रवण, पाठन, मनन किया करो। ये गरन्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों फलों को देने वाले हैं। इनका पॄना आरम्भ कर दो, चित्त को बड़ी शांति पराप्ति होगी।
मूरत ने इन गरन्थों को पढ़ना आरम्भ किया। थोड़े ही दिनों में इन पुस्तकों से उसे इतना प्रेम हो गया कि रात को बारह-बारह बजे तक गीता आदि पढता और उसके उपदेशों पर विचार करता रहता था।
पहले तो वह सोते समय छोटे पुत्र को स्मरण करके रोया करता था, अब सब भूल गया। सदा परमात्मा में लवलीन रहकर आनंदपूर्वक अपना जीवन बिताने लगा। पहले इधरउधर बैठकर हंसी-ठहाका भी कर लिया करता था, पर अब वह समय व्यर्थ न खोता था। या तो दुकान का काम करता था या रामायण पॄता था। तात्पर्य यह कि उसका जीवन सुधर गया।
एक रात रामायण पॄतेपढ़ते उसे ये चौपाइयां मिलीं—
एक पिता के विपुल कुमारा। होइ पृथक गुण शील अचारा॥
कोई पंडित कोइ तापस ज्ञाता। कोई धनवंत शूर कोइ दाता॥
कोइ सर्वज्ञ धर्मरत कोई। सब पर पितहिं परीति सम होई॥
अखिल विश्व यह मम उपजाया। सब पर मोहि बराबर दाया॥
[ads-post] मूरत पुस्तक रखकर मन में विचारने लगा कि जब ईश्वर सब प्राणियों पर दया करते हैं, तो क्या मुझे सभी पर दया न करनी चाहिए? तत्पश्चात सुदामा और शबरी की कथा पॄकर उसके मन में यह भाव उत्पन्न हुआ कि क्या मुझे भी भगवान के दर्शन हो सकते हैं!
यह विचारते-विचारते उसकी आंख लग गई। बाहर से किसी ने पुकारा—मूरत! बोला—मूरत! देख, याद रख, मैं कल तुझे दर्शन दूंगा।
यह सुनकर वह दुकान से बाहर निकल आया। वह कौन था? वह चकित होकर कहने लगा, यह स्वप्न है अथवा जागृति। कुछ पता न चला। वह दुकान के भीतर जाकर सो गया।
दूसरे दिन परातःकाल उठ, पूजापाठ कर, दुकान में आ, भोजन बना मूरत अपने कामधंधे में लग गया; परंतु उसे रात वाली बात नहीं भूलती थी।
रात्रि को पाला पड़ने के कारण सड़क पर बर्फ के ढेर लग गए थे। मूरत अपनी धुन में बैठा था। इतने में बर्फ हटाने को कोई कुली आया। मूरत ने समझा कृष्णचन्द्र आते हैं, आंखें खोलकर देखा कि बूढा लालू बर्फ हटाने आया है, हंसकर कहने लगा—आवे बूढा लालू और मैं समझूं कृष्ण भगवान्, वाह री बुद्धि!
लालू बर्फ हटाने लगा। बूढा आदमी था। शीत के कारण बर्फ न हटा सका। थककर बैठ गया और शीत के मारे कांपने लगा। मूरत ने सोचा कि लालू को ठंड लग रही है, इसे आग तपा दूं।
मूरत—लालू भैया, यहां आओ, तुम्हें ठंड सता रही है। हाथ सेंक लो।
लालू दुकान पर आकर धन्यवाद करके हाथ सेंकने लगा।
मूरत—भाई, कोई चिंता मत करो। बर्फ मैं हटा देता हूं। तुम बूढ़े हो, ऐसा न हो कि ठंड खा जाओ।
लालू—तुम क्या किसी की बाट देख रहे थे?
मूरत—क्या कहूं, कहते हुए लज्जा आती है। रात मैंने एक ऐसा स्वप्न देखा है कि उसे भूल नहीं सकता। भक्तमाल पॄतेपढ़ते मेरी आंख लग गई। बाहर से किसी ने पुकारा—‘मूरत!’ मैं उठकर बैठ गया। फिर शब्द हुआ, ‘मूरत! मैं तुम्हें दर्शन दूंगा!’ बाहर जाकर देखता हूं तो वहां कोई नहीं। मैं भक्तमाल में सुदामा और शबरी के चरित पॄकर यह जान चुका हूं कि भगवान ने परमेवश होकर किस परकार साधारण जीवों को दर्शन दिए हैं। वही अभ्यास बना हुआ है। बैठा कृष्णचन्द्र की राह देख रहा था कि तुम आ गए।
लालू—जब तुम्हें भगवान से परेम है तो अवश्य दर्शन होंगे। तुमने आग न दी होती, तो मैं मर ही गया था।
मूरत—वाह भाई लालू, यह बात ही क्या है! इस दुकान को अपना घर समझो। मैं सदैव तुम्हारी सेवा करने को तैयार हूं।
लालू धन्यवाद करके चल दिया। उसके पीछे दो सिपाही आये। उनके पीछे एक किसान आया। फिर एक रोटी वाला आया। सब अपनी राह चले गए। फिर एक स्त्री आयी। वह फटेपुराने वस्त्र पहने हुए थी। उसकी गोद में एक बालक था। दोनों शीत के मारे कांप रहे थे।
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मूरत—माई, बाहर ठंड में क्यों खड़ी हो? बालक को जाड़ा लग रहा है, भीतर आकर कपड़ा ओ़ लो।
स्त्री भीतर आई। मूरत ने उसे चूल्हे के पास बिठाया और बालक को मिठाई दी।
मूरत—माई, तुम कौन हो?
स्त्री—मैं एक सिपाही की स्त्री हूं। आठ महीने से न जाने कर्मचारियों ने मेरे पति को कहां भेज दिया है, कुछ पता नहीं लगता। गर्भवती होने पर मैं एक जगह रसोई का काम करने पर नौकर थी। ज्योंही यह बालक उत्पन्न हुआ, उन्होंने इस भय से कि दो जीवों को अन्न देना पड़ेगा, मुझे निकाल दिया। तीन महीने से मारीमारी फिरती हूं। कोई टहलनी नहीं रखता। जो कुछ पास था, सब बेचकर खा गई। इधर साहूकारिन के पास जाती हूं। स्यात नौकर रख ले।
मूरत—तुम्हारे पास कोई ऊनी वस्त्र नहीं है?
स्त्री—वस्त्र कहां से हो, छदाम भी तो पास नहीं।
मूरत—यह लो लोई, इसे ओढ़ लो।
स्त्री—भगवान तुम्हारा भला करे। तुमने बड़ी दया की। बालक शीत के मारे मरा जाता था।
मूरत—मैंने दया कुछ नहीं की। श्री कृष्णचन्द्र की इच्छा ही ऐसी है।
फिर मूरत ने स्त्री को रात वाला स्वप्न सुनाया।
स्त्री—क्या अचरज है, दर्शन होने कोई असम्भव तो नहीं।
स्त्री के चले जाने पर सेव बेचने वाली आयी। उसके सिर पर सेवों की टोकरी थी और पीठ पर अनाज की गठरी। टोकरी धरती पर रखकर खम्भे का सहारा ले वह विश्राम करने लगी कि एक बालक टोकरी में से सेव उठाकर भागा। सेव वाली ने दौड़कर उसे पकड़ लिया और सिर के बाल खींचकर मारने लगी। बालक बोला—मैंने सेव नहीं उठाया।
मूरत ने उठकर बालक को छुड़ा दिया।
मूरत—माई, क्षमा कर, बालक है।
सेव वाली—यह बालक बड़ा उत्पाती है। मैं इसे दंड दिये बिना कभी न छोडूंगी।
मूरत—माई, जाने दे, दया कर। मैं इसे समझा दूंगा। वह ऐसा काम फिर नहीं करेगा।
बुढ़िया ने बालक को छोड़ दिया। वह भागना चाहता था कि सूरत ने उसे रोका और कहा—बुढ़िया से अपना अपराध क्षमा कराओ और प्रतिज्ञा करो कि चोरी नहीं करोगे। मैंने आप तुम्हें सेव उठाते देखा है। तुमने यह झूठ क्यों कहा?
बालक ने रोकर बुढ़िया से अपना अपराध क्षमा कराया और प्रतिज्ञा की कि फिर झूठ नहीं बोलूंगा। इस पर मूरत ने उसे एक सेव मोल ले दिया।
बुढ़िया —वाहवाह, क्या कहना है! इस प्रकार तो तुम गांव के समस्त बालकों का सत्यानाश कर डालोगे। यह अच्छी शिक्षा है! इस तरह तो सब लड़के शेर हो जायेंगे।
मूरत—माई, यह क्या कहती हो! बदला और दंड देना तो मनुष्यों का स्वभाव है, परमात्मा का नहीं, वह दयालु है। यदि इस बालक को एक सेव चुराने का कठिन दंड मिलना उचित है, तो हमको हमारे अनन्त पापों का क्या दंड मिलना चाहिए? माई, सुनो, मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूं। एक कर्मचारी पर राजा के दस हजार रुपये आते थे। उसके बहुत विनय करने पर राजा ने वह ऋ़ण छोड़ दिया। उस कर्मचारी की भी अपने सेवकों से सौ-सौ रुपये पावने थे, वह उन्हें बड़ा कष्ट देने लगा। उन्होंने बहुतेरा कहा कि हमारे पास पैसा नहीं, ऋण कहां से चुकावें? कर्मचारी ने एक न सुनी। वे सब राजा के पास जाकर फरियादी हुए। राजा ने उसी दम कर्मचारी को कठिन दंड दिया। तात्पर्य यह कि हम जीवों पर दया नहीं करेंगे, तो परमात्मा भी हम पर दया नहीं करेगा।
बुढ़िया —यह सत्य है, परंतु ऐसे बर्ताव से बालक बिगड़ जाते हैं।
मूरत—कदापि नहीं। बिगड़ते नहीं, वरन सुधरते हैं।
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मनुष्य का जीवन आधार क्या है
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