03-12-2019, 11:29 AM
कहानीकार
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
कहानीकार
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03-12-2019, 11:29 AM
कहानीकार
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
03-12-2019, 03:57 PM
मेरी एक औरत दोस्त, वह मुझसे दो साल बड़ी है, उसने विचारधारा की फजीहतों की वजह से हाँ या ना में जवाब देना बंद कर दिया है और सिर्फ इसलिए मेरे हमबिस्तरी के संकेतों को मौन की सफेद चादर से उढ़ा दिया है। उसने मुझे धुँधले वक्त के लिए एक बीजक मंत्र के आह्वान की सलाह दी है : 'शब्दों और उससे भी ज्यादा कथाओं से सावधानी बरतो। कभी कभी वे पलटवार करते हैं और मारक बदला चुकाते हैं।'
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
03-12-2019, 03:58 PM
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पर फिलहाल, मेरी दोस्त, मुझे दो दशक पीछे जाना है!
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जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
03-12-2019, 03:59 PM
मैं कुल, समग्र, समूचा सत्ताइस बरस का हूँ। मुझे एक का दो दिखाई दे रहा है और दूरदृष्टि की जगह मैं दो दृष्टि के बारे में सोच रहा हूँ। बादल के धुँधलाने जैसा यह वाक्यांश 'कुल समग्र समूचा' शायद मेरे रुझान और मिजाज के एक खास मगर संकोची पक्ष पर रोशनी फेंकता है : कि मैं शब्दों और वाक्यों के साथ खेलने, उन्हें सहलाने ढालने के लिए तैयार रहता हूँ; जिस तरह अध्यात्मी रुद्राक्ष की माला पर उँगलियाँ फिराते हैं।
मतलब, मैं अपने भीतर एक कथाकार होने का बीज या कम से कम उर्वर जमीन देखता हूँ। कि अगर मैं खोदता चलूँ, गहरा और गहरा, एक दिन तनें और लताएँ निकलें और बड़ी हों, और कौन जानता है किसी वक्त एक पंखुरी खिल जाए... एक तितली उड़ती हुई आएगी, खुशबुओं से हवा भारी और घास के तिनगों पर ओस की बूँदें चमक रही होंगी। मेरे दिमाग में यह तस्वीर बनी है : एक कथाकार, एक कहानी के बुन कर, बनने की...। पर दो दृष्टियाँ क्यों? दो का अवबोधन कहना ज्यादा सटीक है। मैं इस तरह देखता हूँ कि मेरी पीठ पर एक दूसरा 'मैं' बँधा है जिसे मैं ढोता हूँ और जो मेरे खुद का एक संकोची, धुँधला लेखकीय रूपायन है : जो चेहरे, वस्तु और घटनाओं को भेद लेता है और उनका तत्व खींच पाता है (तत्व मुझे बढ़ी हथेली के बीचोबीच इत्र की एक बूँद की तरह दिखाई दे रहा है) जिनसे कहानी का तानाबाना बनता है। इस दृष्टिकोण में, इस प्रकार, हरेक व्यक्ति, वस्तु या घटना की दो असलियतें हैं : एक जो प्रकट यथार्थ है, यानि जिस तरह दुनिया है और खुलती है, और दूसरी जो उनकी कथा कहती है। इस तरह मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि प्रत्येक इनसान और वस्तु अपनी जिंदगी तो जीते ही हैं, वे सदा किसी कहानी का निर्वाह भी करते हैं। इसलिए उतनी ही कथाएँ हैं जितने प्राण, वस्तु और घटनाएँ। और यद्यपि यथार्थ और कथा अविभाज्य है, वे एक चीज नहीं। आसान समय के लिए दृष्टांत गढ़ने की तरह, मैं खुद को कहता हूँ कि जब मैं अपनी सामान्य जिंदगी जी रहा हूँ, वह जो मेरे कंधे पर आसीन है, इस यथार्थ को उघाड़ कर, अन्वेषित कर उनकी कहानियाँ रच रहा है। इस वजह से बिना किसी पूर्वाग्रह के, मैंने जिंदगी की बनिस्पत कथा को एक उच्चतर दर्जा दे दिया है। इस नियमन में कथा वह अधि यथार्थ है जिसमें आम जीवन बसता है। जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
03-12-2019, 03:59 PM
यह सांत्वना है। जब मैं कल्पना करता हूँ कि मैंने निःस्वार्थ भाव से अपने कंधे पर कंबखत कथाकार का बोझ स्वीकार किया है, वह लगातार मुझे धकियाता और धिक्कारता है, एक घुड़सवार की तरह मेरी पसलियों में एड़ियाँ गड़ाता है। उसके पास मेरी हर करनी पर इजलास बिठाने की क्षमता है और वह मैं नहीं बल्कि लेखक है जो हर अहम चुनाव के वक्त मनाही का अख्तियार रखता है। मानों यथार्थ से मेरी जद्दोजहद पूरी तरह इन जनाब कथाकार की मध्यस्थता और सद्भावना पर टिकी है।
एक दिन आएगा, मैं खुद से कहता हूँ, जब यह कहानीकार और मैं एक होंगे, एकभाव, एकरूप, एक दूसरे में सदा के लिए विलीन (क्या कुबड़े को अपने कूबड़ का ख्याल होता है, या ऊँट को अपनी मुश्किलाती गर्दन का), तब यह बोझ हल्का होगा और कायांतरण होगा एक पंख के क्षणिक स्पर्श में : कंधे पर पंख लिए मेरी कल्पनाओं का आकाश असीमित, आखिर मेरे कथाकार का समग्र अवतरण हो रहा है और तब मेरे पंजे धरती की सतह से कुछ इंच ऊपर रहते हैं...। जब भी हम अपने ताया और उनके परिवार से मिल कर लौटते माँ मुझे डबडबाई आँखों से देखती और गहरी आह भर (यह ध्यान रखते हुए कि पिता जी कहीं आसपास नहीं) कहती: कलाकारों के दिल जानलेवा कोमल होते हैं। जो टूटे तो न जुड़े। ताया के परिवार की हालत दयनीय थी, भूखे मरने की आसन्न नौबत। ताया पिता जी के मौसेरे भाई थे और पिता जी ऐसी मुलाकातों में पूरे वक्त कठोर और तटस्थ मौन रखते। जिन ताया का मैं जिक्र कर रहा हूँ वे पतंगसाज थे, सर्वमान्यता थी कि उनके लंबे, पतले हाथों में (मुझे वे हाथ खूब याद हैं) गजब का हुनर था। किसी वक्त मेरे ताया के दिमाग में जजबाती, इन्कलाबी बदलाव हुआ (इन्कलाबी नहीं कबाबी, बुढ़ऊ जी के खयालात में कीचड़ लग गई है, पिता जी फुँफकारते) और उन्होंने, रातोंरात, अपने छोटे से घर के पिछवाड़े एक कुम्हार का चक्का लगाया और अजीब, दिलकश गोलाइयों की नन्हीं मूर्तियाँ बनाने लगे। जब पूछा गया यह कौन से बाजार के लिए हैं, मेरे ताया ने, सुना है, कहा : कैसा बाजार? यह कला और सौंदर्य की उपासना है। यह सब बहुत पहले हुआ था, करीब डेढ़ दशक गुजर गया, जब मैं पैदाइश के कस्बे में रहता था और मुझे न शऊर था न अंदाजा मैं जिंदगी में क्या करना चाहता हूँ। जब ऐसे सवाल मुझसे कॉलेज में या दूसरे मौकों पर पूछे जाते तो मेरा जवाब परंपरागत और रटारटाया होता : डॉक्टर, इंजीनियर, कलेक्टर, इंसपैक्टर वगैरह। एक बार, बिरला सा क्षण, मैं ताया के सामने अकेला था, मैंने यह सवाल अतीत के काल में उनकी तरफ फेंका : आप अपनी जिंदगी में क्या करना चाहते थे? कुम्हार का पहिया चलता रहा, उनकी लंबी उँगलियाँ चमकदार, मुलायम मिट्टी में सनी थीं। कुछ क्षण बाद वे मुस्कराए और बोले : जो हो वही होना चाहिए, न ज्यादा न कम। बहुत समय बाद जब मेरे लेखक घुड़सवार ने एक बार मुझे नीत्शे की आग की ओर धकेला, तब मैंने जाना कि मेरे कुम्हार ताया ने अनजाने ही नीत्शे की गोलमगोल, आग्नेय बातों को बेहद सरल तरीके से कहा था। पर मेरे ताया की उदास सौम्यता नीत्शे के स्वभाव और लेखन से सर्वथा विपरीत थी। मुझे लगा कि जिस आग में ताया झुलस रहे थे उसके गुण एकदम अलग थे। अब महसूस होता है कि माँ के मन में कुम्हार ताया के लिए गहरी आस्था थी और उन्हें ताया के दुर्दिनों से बेहद पीड़ा रही जिसे वे व्यक्त न कर सकीं। ताया की कला की डूबती नाव की अदम्य पतवार बनने की बेदम ख्वाहिश की छाया में माँ ने एक अलंकृत थीसिस का निर्माण किया : वे कलाकारों के दिल की तुलना महीनतम काँच की, नाजुक कारीगरी से भरपूर, खूबसूरत कलाकृतियों से करतीं : नाइत्तफाकी का अकेला शब्द या खामोश तिरस्कार की तिल भर की सुगबुगाहट उसके हजार टुकड़े करने के लिए काफी है। इस तुलना से वह व्यथा से भर उठतीं और यह साफ दिखाई देता जब रात में सोने से पहले और पूजा करने के बाद वह काँच का एक दीपदान हाथ में लिए घर के हर कोने का चक्कर लगातीं। उस वक्त, मेरे बालक मन ने ऐसे संपर्क नहीं जोड़े थे पर माँ की वह छवि - खामोश कदम, दीप की लौ से दमकता मुखमंडल - अनुपम और जादुई थी। अब मैं मानता हूँ कि सावधानी से हाथ में दीपदान उठाए, माँ देश दुनिया के अनगिनत, अनाम कलाकारों और उनके कोमल, अभेद्य दिलों के प्रति अपनी आस्था अभिपुष्ट कर रही थीं। मुझे यह सब क्यों याद आता है? इसलिए क्योंकि मुझे लगता है कि कथाकार बनने की मेरी तमन्ना उस विरासत की देन है जिसे मैंने ताया से शायद चुराया। यह निष्कर्ष मुझे आनंदित करता है और मेरे संकल्पों, सपनों को पोषित भी करता है। कैसी रात है! देर हो गई है। मेज पर बिखरे खाली और भरे कागजों को मैं देखता हूँ। महीन सी लिखावट मानों कितनी ही सुथरी कतारों में चीटियाँ एक छोर से दूसरे छोर जा रही हैं : मेरा मन छलकते, भीचते संवेग से भर उठता है... एक माँ जैसे अपने नवजन्मे से पूछ रही है : कैसे मैंने तुझे जन्मा? तू मेरा है, यह चमत्कार है। विस्मय से मैं कह उठता हूँ : हमारे मुख और जीभ और कंठ निरर्थक स्वर का एक विविक्त, सीमित सेट पैदा करते हैं; शब्द और अक्षर का समूह सीमित है पर वे विचार और भावनाओं की अनंत दुनिया को प्रकट करते हैं, उनके संवाहक हैं। और साधारण से असाधारण की इस शाश्वत, चमत्कारी छलाँग में मैं एक सक्रिय सिपहसालार हूँ। तभी, एक छाया की स्मृति मेरे मस्तिष्क के पटल पर गुजर जाती है : जैसे किसी श्रद्धालु ने मंदिर की घंटी एक बार फिर बजाई है, या एक बच्चा अपनी माँ के आँचल के सिरे को एक बार फिर खींच रहा है, मेरा दिल एक भीने, कोमल आस्वाद के शहद से भर उठता है। क्या ये पन्ने महज एक छाया से उत्पन्न सृजन फल नहीं? अनुवर्ती विचार बिजली की गति से कौंधा है - वास्तु के महान उदाहरण : गिरजाघर मंदिर, मस्जिद, भव्य इमारतें किसी इबादत या दिव्य बोध की अमूर्त तस्वीर से उपजती हैं। क्या मेरे साथ ऐसा ही कुछ नहीं हुआ? यह प्रत्याशा पुलकित करती है। ऐसा रोज नहीं होता। आखिर, जिंदगी के इन क्षणों में, जब मैं राजधानी शहर में निरा अजनबी हूँ, घर से बहुत दूर, एक नया जीवन शुरू कर रहा हूँ, संकेत कहते हैं और घटनाएँ साक्ष्य हैं कि मैं अनपेक्षित और बेहतरीन किस्मत की एक अनुपम लहर पर आरूढ़ और आसीन हूँ। कहते हैं कि अच्छा वक्त बार बार नहीं आता। देर शाम थी जब मैंने अकस्मात वह छाया देखी थी। छाया जो निश्चित एक औरत की थी, एक अजनबी। पूरे मनोयोग और एकाग्रता से मुझे उस छाया का ध्यान करना है। असीम धीरज के साथ उन पलों का मंथन जरूरी है : धीमी आँच से मनन का गहरा आनंद और नुकीली कल्पना की गहन नजर। कुछ भी न छूटना है न छोड़ना है। इस करतब में कितना उत्साह है : एक तो ऐंद्रिक उद्दीपन की घनी संभावना और दूसरे, और ज्यादा महत्वपूर्ण, क्योंकि कंधे के मेरे बोझ ने यह निर्देश दिया है। जैसा मैंने कहा देर शाम का वक्त था। अगस्त के आखिरी दिन थे और मैं उस पुराने, दुमंजिला मकान की छत पर गया था, मौजूदा में यह मेरा अस्थायी घर है, और अगले कुछ महीनों के लिए रहेगा, मार्च के अंत तक तो निश्चित ही। सुबह हल्की बारिश हुई थी। दोपहर में कुछ देर के लिए नीले, चमकीले आकाश में सूरज ने अपना एकाधिकार बना लिया था। पर फिर, जैसे शाम आई, काले बादल नीचे आ गए और करीब पंद्रह मिनट तक घनी एकरस बारिश हुई। उसके बाद आसमान साफ हो गया और जब मैं छत पर पहुँचा अँधेरा घिरने लगा था और असंख्य, टिमटिमाते तारों की झिलमिल दूर से सुदूर तक फैली थी। तारों की उजास में उत्फुल्ल हर्ष के साथ एक शर्मीली झिझक का आग्रह भी था। छत के एक तरफ नीचे सड़क थी जिसके पार एक पार्क था। अमूमन मैं इसी तरफ खड़ा होता था। सड़क पर अचरजपूर्ण ढंग से साफ पानी के चकत्ते दिखाई दे रहे थे। पास और दूर की लाइटें उनमें चमक रही थीं मानों वे अपने सम्मेलन के लिए इकट्ठी हुई हैं। एक पतली, ठंडी हवा अब बहने लगी थी। पाइप, मुँडेर, अंसख्य छेद, पत्ते, टिन शेड के किनारे और लंबे लैंप पोस्ट की फैली बाँहों से पानी की बूँदें लगातार टपक रही थीं, इस स्वर में अदम्य सा सम्मोहन था। कुछ दूरी पर, एक मकान के सामने, जिसके पीछे एक छोटा सा अवैध, व्यावसायिक गोदाम चलता था, एक खुला टेंपो खड़ा था जिस पर गीले गत्ते के डिब्बे रखे थे। साइकिल, रिक्शे, स्कूटर, आटो एक सूक्ष्म, सरसराती आवाज के साथ सड़क पर जमा पानी को काटते हुए निकल रहे थे। मेढक निकल आए थे। जो भी आँखों के सामने था उस पर मानो बुझी प्यास का पर्दा खिंच गया था। प्रत्येक आत्मनिर्भर हो गया था, किसी को किसी की जरूरत नहीं थी। इस दृश्य वितान में मानो एक समझौता दस्तखत हो गया था जिसका आश्वासन था कि आज की शाम एक भी जन बदतर नहीं होगा और कम से कम एक जन के हालात बेहतर होंगे। इस इलाके के लिए यह शाम बेहतरीन और अनन्यता के सबसे निकट हो सकती थी...। मंद, ठंडी हवा से विभोर मैं छत के दूसरी तरफ चला गया जहाँ कोने में एक छोटा कमरा था। जो नजारा सामने दिखाई दे रहा था वह शायद जल्दी इतिहास के पन्नों में विलीन हो जाए। क्योंकि तेजी से बदलती नगर संस्कृति और वास्तु में बहुमंजिला रिहाइशें, कतारों में छतें और झोपड़ बस्तियाँ, इन तीन किस्मों के अलावा विकल्प का कोई स्थान बचता नहीं। इस इलाके को अब कॉलोनी कहते हैं पर स्वरूप एक बड़ा मोहल्ला या महामोहल्ला का है : हर आकार और प्रकार के घर और उन्हें जोड़ती, काटती सड़क, बड़ी सड़क, गली, छोटी गली, अंधी गली सर्विस लेन और वैध अवैध कट का अनोखा जाल। छत से जो दिखाई दे रहा था वह हर दिशा में फैला छतों का अनोखा विस्तार था जिनके बीच में अनेक जगह मात्र हाथ भर का फासला था। एक विशाल, एकल, सामुदायिक छत का आभास होता था जिस पर एक स्वतंत्र, वैकल्पिक जीवन संभव था...। यह घर आसपास की दूसरी रिहाइशों से ऊँचा था इसलिए चारों ओर नजर निर्बाध जाती थी। दूरी पर कुछ काली, मृत चिमनियाँ दिखाई देती थीं जो शायद एक बंद मिल की थीं जिसके जर्जर गेट के सामने से मैं कई बार निकला था। गेट के सामने मैंने सदा एक कुर्सी देखी जिस पर एक खुला रजिस्टर पड़ा होता। कुछ बूढ़े लोग वहाँ आते और रजिस्टर में दस्तखत करते। वे शायद इस मिल के एक जमाने के मजदूर थे। छत के चारों ओर चार फुट ऊँची सीमेंट की मुँडेर थी जिसके ऊपर कई जगह गमले रखे थे। मैंने मुँडेर की गीली, ठंडी सतह पर अपना हाथ रखा और आसपास देखने लगा। छतों और इमारतों के आपसी कोण और दूरियाँ इस तरह थीं कि सहजता से मेरी नजर एक अपेक्षाकृत कम ऊँचे, दुमंजिला मकान पर पड़ी जो संभवत: तीन कतार पीछे था। वह उस घर का पिछवाड़ा था। पहली मंजिल पर एक गहरा बारजा था जो इमारत की पूरी चौड़ाई तय कर रहा था। दो लैंपों की गुनगुनी, पीली रोशनी में पूरा छज्जा नहाया था। छज्जा खाली था, कोई गति नहीं। जो चीजें वहाँ थी : एक कसरती बाइक, दो बच्चों की तिपहिया साइकिल, कपड़े सुखाने का अल्मीनियम का एक ऊँचा खाँचा, कुर्सियाँ - सब बारिश बाद की शुद्धता से अभिभूत था। पीछे, करीब तीन चौथाई लंबाई में एक बड़ा कमरा था - सामने दीवार कद की ऊँची काँच की खिड़कियाँ जिन पर दुहरे पर्दे थे : भीतर एक पारभासी मलमली परदा और बाहर की ओर मोटे कपड़े का परदा जिस पर फूलों की आकृतियाँ थीं, या फल बेलों की। कमरे से सटा बाईं ओर एक गलियारा था जो भीतर तक चला गया था और बाएँ कोने में एक और कमरानुमा था जो स्टोर हो सकता था या टॉयलेट। इतना मैंने देखा और ऊपर आयताकार छत थी जो मेरी नजर से नीची थी और जिस पर भीमकाय काली पानी की टंकियाँ थीं जो सब कुछ अपने आकार में मानो समेट रही थीं। जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
03-12-2019, 04:00 PM
लगभग पूरा चाँद पीछे निकल आया था। सलेटी बादलों के कतरे सामने टँगे थे और दृष्टि की राह में एक लंबा पेड़ था, पने कभी थिरकते, कभी काँपते। एक रजामंद उम्मीद का भाव तैरता सा लगा। मैंने ढेर गहरी साँस ली, पंजों को बरबस खींचा और पेशियों को कसा। ऐसा लालच कि मैं शरीर के हर तंतु, हर स्नायु को महसूस करना चाह रहा था।
तभी, एक आभा प्रेत की तरह, अज्ञात सीढ़ियों से एक छाया छत पर प्रकट हुई। जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
03-12-2019, 04:01 PM
परछाईं लंबी और करीब करीब स्थूल थी और मेरी नजर एक अजीब सी उतावली के साथ उससे बँध गई। मेरी कोशिशों के बावजूद मुझे आकृति के पैर दिखाई नहीं दे रहे थे, नतीजा यह था कि वह छत पर बिना किसी यत्न के तैरती सी दिख रही थी। दो बार उस परछाईं ने छत की लंबाई पूरी की, एक छोर से दूसरे और वापस। अब तक वह सिर्फ आकृति थी, एक ठोस स्याह मौजूदगी जिसका वजूद सिर्फ यही था : एक गतिमान पुंज या आकार। फिर वह छत के मेरी तरफ के हिस्से के पास आ कर रुकी। उसकी दिशा मुझसे नब्बे डिग्री के कोण में थी। पहली बार मैंने हाथ देखे जो उसने मुँडेर पर टिकाए थे।
परछाईं की रेखाकृति में एक कठिन, यत्नशील उभार था जो किसी धड़कन से प्रेरित लग रहा था। वे वक्ष थे, मैंने उतनी दूरी से तत्काल भाँप लिया। छाया एक औरत थी। इस पहचान से मेरे भीतर खोज का एक अजीब सा पूर्वबोध जागृत हुआ। मानो, आकाशीय मूर्तिकार की तरह मैंने मात्र हल्के स्पर्श से एक औरत प्रतिमा में जान फूँक दी है। अगले क्षण को अगर चमत्कार नहीं तो मैं अनुभूति के उत्कर्ष की संज्ञा देता हूँ। अकारण, अचानक, समूची प्रकृति इस नियम विरोध से स्तब्ध, बिजली की एक तीव्र रेखा चमकी क्षितिज से क्षितिज को काटती, और फिर, बाद में मैंने याद किया, बादल तक नहीं गरजे। क्षण भर का जगत प्रकाश : छाया एकाएक आलोकित हुई और फिर अंधकार में डूब गई। एक तस्वीर, एक उद्बोध हमेशा के लिए कैद हो गया। दो पैने नेत्र मुझे देख रहे थे, मैंने उन्हें देखा और उस क्षण ने हमें एक परस्पर, अटूट संज्ञान में बाँध लिया। पूरी तरह गुमनाम आजादी से आत्मस्वीकृति से लैस पहचान की क्षण भर की यात्रा, और यह असमय कड़की बिजली की देन थी! भाव के उछाल से मैं काँप गया था पर लौटे अँधेरे ने मुझे संयत किया। जिस चेहरे की धवल तस्वीर मेरी आँखों में बनी वह पार्श्व में था : कील के रत्न से पुलकित तीखी नाक; खिंची गर्दन; होंठ की थिरकन और खुले बेकाबू बालों का नृत्य। मुझे अहसास रहा कि उसने हल्के रंग की पारभासी नाइटी पहनी थी और ऊपर फड़फड़ाता गाउन जिसके बटन खुले थे। मैंने समझा था कि छाया अपने घर के परिचित नियमों में लौट जाएगी और मैं भी सीढ़ी उतर कर अपने खाली बिस्तर में नींद का इंतजार करूँगा, रोजमर्रा का अपना लगाव और सुकून है। पर अँधेरे ने हमें फिर आजाद कर दिया था। छाया आकृति अब छत के पिछले छोर पर पहुँच गई। मैं अपनी जगह बना रहा। हम एक दिशा में देख रहे थे, उसकी पीठ मेरी ओर थी। मुझे शक नहीं कि उन मिनटों में, उस संजीदे मौन में जिसका सृजन सिर्फ प्रकृति कर सकती है, हम, चंद लम्हों के लिए ही सही, एक अचेतन पर साझा नियति की डोर में बँध गए थे। एक ही सोच हमारी सोच थी; एक ही स्वर हमारे अंतर्मन में गूँजा था; एक ही भावनाओं के ज्वार ने हमें भिगोया था; चाहत और उत्कंठा की घनी चादर ने हमें लपेट लिया था जिसका अभी न नाम था न गंतव्य... हम वही चाँद देख रहे थे और वही रहस्य महसूस कर रहे थे। एक समान रास्ता हमारे सामने खुला था और प्रत्याशा की बर्फ ने हमें निश्चल कर दिया था। पर यह आभास दूर नहीं था कि अगर साहस है तो हम किसी भी दिशा में उड़ सकते हैं... जिस चाँदी की नदी में हम तैर रहे थे उसका उद्गम नहीं था। अचानक एक पक्षी जो अपने झुंड से बिछड़ गया था, वह आकाश में बड़ी तेजी से ऊपर उड़ा, फिर उसने नीचे की ओर गोता लगाया, हताशा और बिछोह से भरा उसका स्वर पक्षी के ओझल हो जाने के बाद तक हवा में तिरता रहा। परछाईं लौट गई थी, मैंने उसे जाते हुए नहीं देखा। मैं नीचे आ गया। मेरा जेहन प्रदीप्त था, मैंने लिखा : वही जो आपने अभी पढ़ा है। मैं थोड़ी देर टेबिल के सामने बैठा रहा। लिखे को दोबारा पढ़ने में एक अजबनियत का सुकून था, मानो जो मैं पढ़ रहा हूँ किसी और ने रचा है और जो हो रहा है वह किसी दूसरे के साथ... झूला तो रुक जाता है पर मस्तिष्क उसकी गति ले कर खुद झूलने लगता है। ऐसा ही मेरे साथ हो रहा था, मन का झूला इस ज्ञान से आसक्त था कि आखिर रचयिता मैं ही हूँ और घटना का पात्र भी। ऐसे छितरे पहलुओं को समेटने में अच्छा संतोष था : जैसे माँ की गोद में जुड़वाँ, दोनों एक से मगर फिर भी अलग, जो महसूस होता है पर बयान के परे है। पर इस सबके बावजूद कोरा यथार्थ कहता है मैंने एक छाया देखी थी। फिर था : असमय बिजली का कड़कना, नजर का मिलना और क्षणिक स्तब्धता, एक पक्षी की बिछोह भरी चीख। और इन घटना घटकों से एक कथा प्रकट होती है जिसकी संभावनाएँ अपरिमित हैं। अपने कंधे के बोझ के प्रति मुझे आभार व्यक्त करने का मन किया। जब मैं छोटा था, जिस पत्रिका का मैं बेसब्री से इंतजार करता था वह थी चंदामामा। उसके पहले कुछ पन्ने मुझे खूब याद रहे हैं : बेताल की कथाएँ। कहानी के साथ हमेशा एक तस्वीर होती थी : राजा के कंधे पर चिपका बेताल जिसे वह सदा ढोने के लिए अभिशप्त था (सही या गलत, यही मेरी याद है) राजा के अनवरत बोझ और थकान को कम करने के लिए बेताल उसे कहानियाँ सुनाता जिनकी गिनती अनंत थी, हर कहानी के पीछे एक सीख या चेतावनी... यह बेताल पतला, क्षीण सा, पगला सा था, रूखे लंबे धवल बाल उसके कंधे तक बिखरे रहते। यह तस्वीर मेरी पीठ पर लदे लेखक को एक ठोस रूप प्रदान करती है। उसे एक नाम देने की तीखी ख्वाहिश मेरे मन में उठी। नाम जो छोटा हो, मेरा दिया और मेरा भेद। ऐसे मौकों पर मेरे जैसे भावी लेखक अपने प्रिय कथाकारों की ओर रुख करते हैं। मेरे जेहन में काफ्का की दस्तक थी जिसने अपनी कितनी ही अभूतपूर्व कृतियों में शहर और पात्र के लिए 'के' अक्षर का इस्तेमाल किया... भाग्यवश 'क' से कथाकार भी है। सो इस रात यह सहमति हुई कि 'क' मेरे कंधे पर जुटा है : वह जो मुझसे पहले चीजें देख लेता है और मुझसे आगे। 'क' है जो अधिक देखता है, अधिक जानता है, जो मुझे पुकारता है और मेरे कानों में अनोखे भेद फुसफुसाता है। मैं मानता हूँ उसका भरोसा करना मेरी खुशी है और उसके बताए पदचिह्नों पर चलना : उस दिन तक जब वो मैं होगा और मैं वो। आखिर मैं लेट गया हूँ, चादर ने मुझे ओढ़ लिया है। नींद दूर है। मुझे इत्मीनान है 'क' आराम कर रहा है। वह मेरे बाल सहलाता है और विश्वास दिला रहा है मैं सही दिशा पर हूँ। नींद गहरी और बेरोक रही। सपनों में परछाईं का हस्तक्षेप नहीं है, अभी तो नहीं। मेरी माँ विश्वास नहीं करेगी पर सुबह जल्दी उठने के लिए मुझे अलार्म घड़ी की जरूरत नहीं पड़ती। भोर में छः बजे मेरी आँख खुद ब खुद खुल जाती है : एक ताजा पंखुरी की तरह, मुझे लगता है और इसमें कोई अति नहीं। सबसे पहले मैं नीचे मुख्य द्वार जाता हूँ और जमीन पर बिछे दो अखबार उठाता हूँ : चिकने, सफेद, एक खास किस्म की गंध जिसके केंद्र में एक भली चाक्षुक उत्सुकता है। चाय बना कर मैं बिस्तर पर बैठता हूँ। एक स्वस्थ भूख के साथ मैं अखबार खोलता हूँ और मेरे जेहन में लगातार यह फुरफुरा बोध है कि मेरे हिस्से में खूब समय है और इसे किसी कीमत पर मैं खोने को तैयार नहीं। मैं इतना आरामदेह और तृप्त महसूस करता हूँ कि मन करता है समय और धीरे गुजरे। अगर वक्त ठहर भी जाता तो मैं और खुश होता। आज भी वैसा ही मन है और मैंने खूब शौक से चाय का दूसरा प्याला बनाया। अखबार पन्ने दर पन्ने पढ़ लिए थे। फिर मानो एक जज्बाती लत की तरह मैं स्मृतियों का आखेट करने लगा, उस तरह जैसे आलसपन में लोग पैर के अँगूठों से खेलते हैं : अपने भाग्य के घोड़ों की सरपट, अनोखी दौड़ पर मेरा गहरा आश्चर्य बरकरार है। मेरी स्थिति अकल्पनीय है - मैं इस बड़े घर में अकेला रह रहा हूँ, सारी सुविधाओं का इंतजाम है, राजधानी में न मुझ पर किराए की मार है न फुटकर खर्चों की। एक मध्य आकार की कंपनी (वह तमाम धातुओं के तमाम प्रोडक्ट बनाती है जिनके गजब के रागमय और रहस्यमय नाम हैं) ने मुझे मार्केटिंग अफसर का पद दिया है। कंपनी ने मुझे पचास हजार रुपए का कैश रीटेनर एडवांस दिया है और मुझे तीन महीने बाद ज्वाइन करने के लिए कहा है। तनखा, पर्क और कमीशन की दरें मेरी आशाओं से बहुत ऊपर है। इस तरह मेरे पास नौकरी के अलावा जेब में पचास हजार रुपए हैं और तीन खाली महीने, मैं जो चाहे करूँ और भरूँ। यह कैसे हो गया जबकि मात्र एक महीने पहले मैं बंद और अँधेरी गलियों और रास्तों के दुखद और भयानक सपने देख रहा था। मेरे पिता कॉलेज में अध्यापक हैं, उन्होंने एक रोज मुझ पर उँगली तानी और निश्चयात्मक स्वर में ताकीद दी : बुरे से बुरे की कल्पना करो और तदनुसार खुद को तैयार करो। नहीं तो जिंदगी हमेशा दगा देगी। पिता कयामत के हिमायती कतई नहीं थे और न जिंदगी की ओर निर्मोही। पर इस दफा वे शायद अपनी उँगली नीचे लाना भूल गए थे। इस तरह मैं बचपन से जवानी के दिनों तक उठी उँगली के आतंक से किसी न किसी तरह उलझा रहा। आतंक उतना नहीं जितना एक हल्के नकारवादी अंदाज की ओर झुकाव : आधा खाली गिलास दिखता बनिस्बत आधा भरे के। माँ मुझे खूब खिलाती, दुलार से बिगाड़ती पर इस उलझे सवाल से उसने खुद को दूर रखा। इस तरह पराजय या बदकिस्मती का भय कभी हटा नहीं सिवाय उन अस्थायी मौकों के जब मैंने खुद को वैचारिक संघर्ष के उदान घमासान में डुबोया। तब जोखिम और लापरवाही में बलिदान के चार चाँद लग जाते। किसी तरह के मतवाद और मार्क्स, लेनिन के समेकित ग्रंथों के पठन पाठन से ज्यादा जोखिम से खेलने की यह शुद्ध उन्मुक्ति थी जिसकी वजह से कॉलेज में दाखिला लेने के बाद मैं मुस्तैदी से लाल झंडा छात्र संगठन के संघर्षों में कूद गया। आज भी मैं मानता हूँ वह समय बेकार नहीं गया। यूनियन के चुनाव, हड़ताल, सांप्रदायिकता विरोधी आंदोलन, न्यूनतम मजदूरी और जमीनी हक के लिए जनसंघर्ष और राज्य के दमनकारी ढाँचे और इलीट वर्ग की लुंपेन सेना के खिलाफ जंग : इन सब में मैंने पूरे मनोयोग से हिस्सा लिया। यह एक तरह से वरदान ही था कि जरूरी अनुभव के इस क्रम को मैंने फटाफट पूरा कर लिया। क्रांतिकारिता के इस छोटे मगर प्रबल दौर ने मुझे मूलभूत तरीके से आजाद कर दिया और वह मानसिक राह साफ की जिस पर सभ्य धूर्तता और छिपी खुदगर्जी से चलते हुए मैं मध्य वर्ग के स्वप्न साकार करने की ओर कदम बढ़ा सकता हूँ। ग्लानि, क्षोभ, अपराध भाव और नपुंसक युवाकाल की कोई दरकार नहीं। मेरी चेतना पर जितने लाल निशान थे उनसे रुखसत होने के बाद मैंने एम.ए. खत्म किया और फिर बेफोकस, नौसिखिया आँखों से मैं लंबी चौड़ी दुनिया को देखने लगा। मेरे कस्बे का यह संत्रास था या कहें लाइलाज बदकिस्मती थी कि वह उच्च आकांक्षाओं के लायक बड़ा नहीं था और लालसाओं पर सीमा की पाबंदी लगाने के लिए उतना छोटा भी नहीं। पिसने और कुटने के लिए बीच की अवस्था सबसे उपयुक्त है। मेरी किस्मत ठीक थी कि स्थानीय अखबार के संपादक से मेरी दोस्ती हो गई। न जाने क्यों मैं उसे पसंद था। उसने मुझे विश्व साहित्य की उत्प्रेरक और जादुई दुनिया से परिचित कराया। संपादक मित्र के अखबार में मैं रिपोर्टर हो गया। इस तरह मेरे चार कामकाजी, कुँवारे साल निकले। माँ बाप के साथ रहने के अलावा मेरे पास कोई विकल्प नहीं था। मैं धीरे धीरे कस्बे के 'बीचपन' का ग्रास बन रहा था। इसे करतब ही मानें कि मैंने ऐसी कंपनी में नौकरी के लिए अप्लाई किया जिसके बारे में मेरी जानकारी करीबन शून्य थी। और ऐसे पद पर जिसके लिए न मेरे पास ठीक अर्हता थी न ढंग का अनुभव। शायद मेरा क्षणिक बहकावा या ठसक थी क्योंकि कई दिन से अखबार, पत्रिका गा रहे थे कि भारत अवसरों की नायाब खान है; देश की कहानी हिट है; शीर्ष और शिखर की ओर मदमस्त चलता भारत का हाथी! इन शब्दों ने शायद मेरे भीतर कुछ ऊर्जा जगाई। फिर वेब का अजब सा सम्मोहन था। जिसकी वेबसाइट है वह बेहतर है, ऐसी मानसिकता। फिर कंपनी की वेबसाइट पर जो मार्गदर्शक सिद्धांत थे उनसे मैं आकृष्ट हुआ। लिखा था - हमारे लिए : अच्छा वह है जो अच्छा है; गुण वह है जो गुण है; खराब वह है जो खराब है; हमारी कंपनी के तानेबाने में अगर और मगर के लिए कोई जगह नहीं। नौकरी ऑफर करते हुए कंपनी के एम डी ने मुझमें आखिर क्या देखा, इसका मुझे रत्ती भर इल्म नहीं। इसके ऊपर रीटेनरशिप का कैश... इंटरव्यू के दौरान मैं साफ और सीधा बोला था। हो सकता है वह मेरी छात्र यूनियन की उग्र कारस्तानियों और दुस्साहस से उत्साहित हो गया हो : उत्साह और आशंका का पितृभाव एक ही होता है। तुमने अगर यह सब किया जो तुम कह रहे हो तुमने किया तो तुम मेरे आदमी हो, एम डी ने कहा। हमें अपने प्रोडक्ट के लिए देश के कस्बों, गाँवों को भेदना है। उसके लिए गुर्दा चाहिए। और हमारे लिए, एम डी एक क्षण के लिए रुका, गुर्दा वाला वह है जिसके पास गुर्दा है! कंपनी में तुम्हारा स्वागत है बंधु। इस अनोखे घटनाक्रम से चकित और प्रफुल्लित, मैं अपने मामा मामी के घर लौटा जहाँ मैं रात बिता रहा था। उन्हें यह खुशखबरी दी। मामा जितने खुश हुए आम तौर पर दूर के रिश्ते के मामा नहीं होते। मामा लगभग कूदे और मुझे गले लगा लिया। फिर उन्होंने कहा तुमने चमत्कार कर दिया बेटा। ऐसी दिक्कत का समाधान कर दिया जिसका कोई समाधान नहीं था। मैं मूर्ख सा उन्हें देखने लगा सो उन्होंने समझाया। बात यह थी कि मामा मामी की कई बरस से तमन्ना थी कि वे अमरीका में अपनी बेटी के पास जाएँ और वहाँ आराम से छह सात महीने रहें। पर घर की देखभाल और सुरक्षा की ऐसी समस्या थी जिसका तोड़ नहीं मिल रहा था। घर की सुरक्षा को ले कर उनकी चिंता और बढ़ गई जब उनके एक पड़ोसी के साथ हादसा हो गया। उन्होंने अपना घर लॉक किया था और विदेश चले गए। उनकी गैरमौजूदगी में फर्जी कागजों के सहारे और कोर्ट का आदेश ले कर कुछ अवांछित लोगों ने घर पर कब्जा कर लिया। अब वे बेचारे बेघर थे... मामा मामी के लिए मैं अचूक समाधान था। तुम यहाँ छह महीने आराम से रहो, मामा ने गद्गद् हो कर रहा। घर के मालिक की तरह। यह घर तुम्हारा है। तुम्हें कुछ नहीं करना है। खाने पीने, बाकी जरूरी चीजों का पूरा इंतजाम है। एक कार है जिसे तुम्हें चलाना ही होगा। रोजमर्रा के काम रमाबाई कर देगी, खाना, धोना, सफाई, बरतन सब कुछ। बिल और खर्चे की कोई चिंता नहीं, ज्यादातर ई पेमेंट पर है या भरपूर क्रेडिट है। मुझे लगा गश आ रहा है, मामा जिस तस्वीर का चित्रण कर रहे थे वह विश्वास के परे लग रही थी : इतनी सुविधा, इतना आसान! बाद में रात को मामा ने मुझे पूरे घर का विस्तृत दर्शन कराया, सारी चीजें समझाईं जो हर घर का रहस्य होती हैं : बिजली, पावर के स्विच, एसी के कनेक्शन, गैस, केबिल और इंटरनेट, वाशिंग मशीन, इनवर्टर आदि। मामा ने मुझे एक शीट दी जिस पर तमाम फोन नंबर थे : जनरल प्रोविजन स्टोर, किराए पर डी वी डी की होम डिलिवरी, रेस्तराँ वगैरह। समझ लो ये सब तुम्हारे आशिक हैं, जैसे चाहो नचाओ, मामा ने मजाक किया (मैं एकाएक चौंक गया था क्योंकि मामा के बारे में हमारे घर में धारणाएँ एकदम अलग थीं : नकचढ़े, कठोर, निर्दयी, हमेशा गुप्पा) और मुझे ग्राउंड फ्लोर पर एक अलग कमरे में ले गए जो आँगन के दूसरी ओर और अकेला था। मामा ने लाइटें जलाईं और मैं अचंभित रह गया : एक बेहद खूबसूरत ढंग से सजी लाइब्रेरी और स्टडी थी। वहाँ दो आराम कुर्सियाँ थीं, एक पूफ, एक सोफा कम बेड, एक पुरानी और भव्य स्टडी टेबिल जो अमूमन मैंने फिल्मों में देखी थी और छत तक ऊँचे लकड़ी के खुले शेल्फ जिनमें किताबें ही किताबें थीं। इसके पहले सबसे उम्दा लाइब्रेरी मैंने अपने संपादक के घर देखी थी जो जर्जर थी और मामा की लाइब्रेरी के मुकाबले एक बटा दस। मेरा खुला मुँह देख कर मामा मुस्कराए। किताबों से प्यार है, उन्होंने दुलार से पूछा। उनकी महक से और भी ज्यादा, मैंने कहा और यह सच था। अब तक का मेरा जीवन ऐसा था कि मैंने खुद चार या पाँच किताबें खरीदी होंगी। पर उन्हें मैंने सदा सीने से लगा कर रखा। रेणु की प्रतिनिधि कहानियों के अलावा एक चेखव की कहानियों का संकलन था और एक पुराना, मोटा जिल्द संकलन : विश्व की सर्वश्रेष्ठ प्रेमकथाएँ। उस वक्त साहित्य मेरी प्रिय उधेड़बुन थी ओर फिर दर्शन पर कुछ किताबें जो मेरे संपादक ने मुझे पढ़ने के लिए दी थीं। इधर मैं हिंदी साहित्य की तरफ थोड़ा खुश्क हो गया था। वजह शायद वे कस्बाई लेखक थे जिनसे मेरी मुलाकात संपादक महोदय के कमरे में होती। उन सभी के दाँत खराब थे और उनसे एक थकी गंध आती थी। मेरी हैरत यह भी थी कि बेहद शराब पीने के बाद भी वे थोड़ी और पीने को तैयार रहते। मामा पीछे थे और मैंने किताबों के शेल्फ का जायजा लिया। बहुतेरे जिल्दबंद संकलन थे। और खुशी की बात, दुनिया भर का बहुतेरा साहित्य। आपकी साहित्य में खास रुचि है, मैंने अचकचा कर कहा। मामा जैसे लोग भी साहित्य पढ़ते हैं, यह मेरे लिए सूचना थी। अपनी बची उम्र के लिए इकट्ठा किया है, मामा ने मीठी आवाज में कहा। किताबें बदले में कुछ नहीं माँगती। पता है, मैं रोज बिना नागा पाँच पन्ने पढ़ता हूँ, न कम न ज्यादा। अगर मैं बीस बरस और जिंदा रहा तो 20 x 365 x 5 = 36500 पन्ने पढ़ लूँगा। इतना बहुत है। मैं अचकचा गया। पढ़ने के बारे में मैंने इस तरह कभी नहीं सोचा था। एक दिन मैंने मामा मामी को एयरपोर्ट पर विदा किया। मामा का छलकता, गद्गद् अनुराग और मेरे भीतर खामोश खुशी की उमंग। मामा की आँखें चमक रहीं थीं। अब मुझे कोई चिंता नहीं, मामा ने कहा। मैंने मामा मामी के पैर छुए। अपना आशीर्वाद दे कर वे अमरीका चले गए। जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
03-12-2019, 04:01 PM
तो पासे इस तरह गिरे हैं : जेब में नौकरी, पचास हजार रुपए कैश और राजधानी में अकेली, बेरोक रिहाइश के लिए अच्छा खासा मकान। मुझे लगा मामा ने इतने सालों में शानदार लाइब्रेरी इसलिए बनाई ताकि मैं उसका भरपूर आनंद ले सकूँ। इसे कहते हैं किस्मत और नियति। हर दिन मैं कार बैक करता हूँ, उसे कुछ देर रेस देता हूँ और सड़क पर खड़ी कर देता हूँ। कभीकभार कार में घूमने निकल जाता हूँ। बाई है : खाना बनाती है, सफाई रखती है, कपड़े धोती है और इस्त्री कर देती है, इस सब में उसे आधे घंटे से ज्यादा नहीं लगता।
और अब एक परछाईं आई है जिसे 'क' ने एक भरी पूरी औरत में तब्दील कर दिया है। छाया की रात के दो दिन बाद मैंने उसे देखा। 'क' का मान रखने के लिए यहाँ सामान्य अर्थ में 'सौंदर्य' और विशेष अर्थ में 'स्त्री संवेदन' के बारे में अनुच्छेद डालना ठीक लगता है। यूँ भी इन दो दिनों में और आगामी काल में ऐसे विषयों से मेरी आसक्ति सहज और जरूरी है। गूगल के साधन से इस मंत्रणा और मनन में सुगमता तय है (गूगल के शब्द : सौंदर्य, रूपबोध, स्त्रीरूप, ऐंद्रिक, सुंदर चेहरे, चेहरे, स्त्री आकृति, होंठ, कामना, स्त्री और चित्रकला आदि) मैंने ब्रिटानिका के वाल्यूम में इस तरह की इंट्री देखी और चेहरे और न्यूड्स पर श्वेत श्याम चित्रों की एक किताब। कई रातें थीं जब इस तरह के तमाम बिंब और तस्वीरें मेरे जेहन में विचरती रहतीं। मेरे शुरुआती निष्कर्ष कोई तटस्थ नहीं थे क्योंकि मेरा अधूरा अनुभव और उससे जुड़ी आकांक्षाएँ आड़े आती थीं, फिर भी उनका महत्व है : यह कथन कि सुंदरता देखनेवाले की नजर में है, कुछ अचरजपूर्ण तरीकों से उपयुक्त है। रूप के आकलन में भौतिक दूरी एक प्रमुख इकाई है। आँख और आकृति के बीच एक आदर्श दूरी होती है जो खूबसूरती की संभावना बढ़ाती है और बदसूरत के हालात नकारती है। इस दूरी को गुलाबी आभा की दूरी कह सकते हैं। इस अवस्था में स्त्री रूप तो सामने है ही उसके कल्पनाशील परिष्कार के अधिकतम अवसर भी हैं। मैंने उस छाया को गुलाबी आभा की दूरी से देखा था। वह इतनी पास थी कि पहचान के दायरे के भीतर थी और इतनी दूर भी थी कि उसके सौंदर्य की उपासना में कल्पना की सहज उड़ान वर्जित नहीं थी। पर मैं आगे की बात कह रहा हूँ। 'क' को धीरज रखना चाहिए। मैं विश्वविद्यालय के इलाके में जॉगिंग करके लौटा था। पसीने से तरबतर मैं छत पर पहुँचा और तब मैंने उसे देखा। बल्कि उसने मुझे देखा और इसका अपना महत्व था। 'क' के दृष्टिकोण से और मेरे नजरिए से भी। उसने वह वस्त्र पहना था जिसके लिए मेरे कस्बे के लोगों के बीच एक सर्व सम्मिलित नाम है : नाइटी। इस नामकरण में गाउन, किमोनो और हर एकल वस्त्र जो सिर से डाला जाता है और बदन पर फैल जाता है, वह नाइटी है। पर उसने जो पहना था वह असली नाइटी का लोकप्रिय और राष्ट्रीय संस्करण था : पतले और निष्प्रम सूती कपड़े की बिना सिलाई की एकल ड्रेस जो सिर से पहनी जाती है। हल्का नीला रंग था जिस पर बड़े पैटर्न में फुलकारी थी; कॉलर में पत्तेनुमा फ्रिल थे, बटन नहीं थे, बाँह के सिरों में पतले लेस थे, ढीला और हवादार पहनावा जिसके नीचे के हिस्से हवा में अजब ढंग से बरबस फूल जाते थे। जब समीर बहती, जैसे अभी था, तो इस पहनावे में वह अनोखा लचीलापन था कि वस्त्र, क्षणों के लिए देह के अलग अलग हिस्सों, घाटियाँ, ढलान और गोलाइयों में सिमट और चिपट जाता और इस तरह वह स्त्री के रूप, आकार, भंगिमा और गति की तस्दीक करता। पर स्त्री नाइटी की इस फड़फड़ाती भाषा से पूरी तरह अनभिज्ञ थी। उसके उलझे, बेतरतीब बालों के वजन में नींद लिपटी थी। वह धुले, निचुड़े कपड़ों की एक भरी बाल्टी के पास खड़ी थी और एक एक कर उन्हें तार पर डाल रही थी, बार बार उसे अपनी बाँहें और पंजे ऊपर उठाने पड़ते। यह शहर की असंख्य छतों (मेरा कस्बा भी इसमें शामिल है) पर रोज ब रोज घटनेवाला सामान्य सा दृश्य था और इस परिचित चित्र से मेरे भीतर एक अंतरंगता जागी : कि क्षितिज और तस्वीर की रचना नई और अजनबी हो, उनके प्रसंग तो वही कुछेक अभिज्ञ हैं जो हमारे स्मृति संसार में चुपचाप बसे रहते हैं। हर बार वह नीचे झुकती, गति से कपड़ा फटकारती, पानी की बूँदें चारों ओर छितरा जातीं और वह कपड़ा तार पर सुलझा देती। अपनी गुलाबी आभा की दूरी से मुझे उसकी पीठ के हिस्सों पर नाइटी की सिलवटों का अनुमान हो रहा था... फटाक की आवाज होती तो मैं एकाएक झुरझुरा जाता... ऐसे ख्यालों से मुझे किंचित शर्म और ग्लानि महसूस हुई। क्या यह संभव है कि वह छत पर मेरी मौजूदगी से अनजान थी? और यह कि मैं उसे देख रहा था? कहते हैं किसी भी दिशा से आदमी औरत का ख्याल करे, नजर तो दूर की बात है, औरत उसे तुरंत भाँप लेती है। पर इसके पहले मैं मुड़ता वह सीधी हो गई। अपने हाथ के पिछले हिस्से से उसने माथे पर गिरी लट को हटाने का उपक्रम किया। पर माथे पर कोई लट थी नहीं, यह आदत या स्मृति की देन थी। स्त्री अपनी छत के उस छोर पर आ गई जिस तरफ मैं था। तब अगले क्षण उसकी आँखें, एक अंधे श्रद्धालु की निश्चितता के साथ मुझ पर आ टिकी, जैसे कोई नन्हा पक्षी उड़ता हुआ अचानक किसी पतली, लगभग अदृश्य डाल पर आ टिकता है, क्षण भर के लिए ही, और फिर अकारण फिर उड़ जाता है... वह नजर मानो ऐसी ऊँचाई और जगह से आई थी जहाँ किसी का किसी पर अधिकार, उपकार नहीं है और सब कुछ माफ है। मेरे ख्याल से इसीलिए मेरे मन में न ग्लानि का भाव बचा था और न ही किसी प्रकार की शरम। उस क्षण में हमारी आँखें चार हुईं और वह तकलीफदेह तथ्य जैसे पिघल कर लुप्त हो गया : कि मैंने उसकी देह और रूप को चोरी चोरी नजर किया था और वह इस सच्चाई से बखूबी वाकिफ थी। यह इस तरह था जैसे उसने हमारे बीच की यंत्र रचना को शून्य, नितांत तटस्थ और डिफॉल्ट पर सेट कर दिया था; इस यंत्र रचना का उद्देश्य था हमारे बीच पहचान का कायम होना। तो क्या उस क्षण में हमने परिचय की पहली सीढ़ी पार कर ली थी, बीच का बर्फीला मैदान क्या सिकुड़ गया था? साफ कहूँ तो मैं नहीं जानता। यह पहल उसकी थी। शायद 'क' इस पर प्रकाश डाले। एक जाने माने कथाकार ने कहा है कि शादी या लंबे रिश्तों के अचूक नियम पहले के दिनों में बन जाते हैं इससे पहले कि युगल उन्हें जाने या समझे। मुझे इन मामलों का अभी तजुर्बा नहीं। पर मुझे ऐसा लगता है कि नजरें चार के उस क्षण में (बिजली की चमक के एकांतिक क्षण से यह एकदम अलग था) मैं न केवल हर संभव गुनाह से बरी हो गया था बल्कि मुझे यह आजादी मिल गई थी कि मैं आगे के कदम अपने विवेक के अनुसार उठाऊँ। इस तरह मैं तमाम जकड़नों से मुक्त हो गया था और स्त्री पुरुष के रिश्ते के नाजुक आचार व्यवहार में व्यापक सेंध लग गई थी। एक तरह से हम उन रास्तों पर चलने के लिए रजामंद हो गए थे जिन्हें राजनयिक हलकों में ट्रैक टू या बैक चैनल कहते हैं। सो, एक भी शब्द का आदान प्रदान नहीं हुआ था, न ही हलो, आप कैसे हैं, फिर भी लगा जैसे छत पर एक अंतरंग खेल शुरू हो चुका है, इसकी भाषा कालांतर में निर्मित होगी। ज्वर सी मारक कल्पनाएँ, उमंग और चाहत की उड़ानें, इसकी प्रेरणा कहाँ से आ रही है? देर दोपहर यह सवाल मैंने खुद से पूछा। भारी लंच के बाद मैं कुछ देर सो गया था और इस दौरान मेरी इंद्रियाँ शिथिल और मंद थीं। तभी एक विचार और आया : अगर इस औरत को मैं सड़क पर या भीड़ में देखता हूँ तो मैं शर्तिया उसे पहचान नहीं सकता। इस वक्त वह एक प्रतिनिधि मौजूदगी हैः गोलाई, रेखाओं और मात्रा की एक आकर्षक पर दूर की आकृति। पर जहाँ मेरी इंद्रियाँ कुंद थी, 'क' निरंतर मग्न था। उसके प्रभाव में मैं रात में लाइब्रेरी पहुँचा। अनेक महान और मशहूर रचनाकारों की पुस्तकों को मैं उँगली और हथेली से छूता चला गया। उम्दा लेखन में मेरे संपादक दोस्त की गहरी और आश्चर्यजनक पैठ थी। पत्रकारिता के हर नए प्रयोग और प्रयोजन में वह लगातार पिटता रहा, पर उसी अनुपात में साहित्य के प्रति उसकी मर्मज्ञता मुखर हुई थी। वह बेचारा देशी शराब पीने को अक्सर बाध्य था, पर महँगी से महँगी शराब और वाइन की उसकी जानकारी पक्की थी : दिल से राजा भोज गंगू तेली का जीवन व्यतीत कर रहा था... संपादक की बदौलत मैं उम्दा लेखन से वाकिफ था, उसकी मर्यादा का मुझे अनुमान था : रेणु से भारती; मोहन राकेश से निर्मल वर्मा; दूसरी भारतीय भाषाओं के साहित्यकार भी मैंने हिंदी अनुवाद में पढ़े थे : मनोज दास, अनंतमूर्ति, वासुदेवन नायर, बशीर आदि। मेरा संपादक ही था जो मुझे विश्व साहित्य के अनोखे संसार में ले गया : मार्खेज, योसा, पामुक, नेरूदा, ब्रेख्त और कितने ही और। मेरे हाथ ने मार्खेज की कहानियों की एक पतली पुस्तक उठा ली थी (कौन है इस हाथ का मार्गदर्शक?) उड़ते उड़ते मैंने यह भी सोचा कौन है जो मार्खेज की कहानी पढ़ने जा रहा है : वह अक्स जिसे मैं रोज शीशे में देखता हूँ या मेरी पीठ पर बैठा 'क' जो दिखता नहीं पर जिसे मैं खूब महसूस करता हूँ। पर कहानी तो दोनों के लिए एक है : आठ पतले, छोटे पन्नों में बसी कहानी जिसका अंग्रेजी में शीर्षक है : ब्यूटी एंड द एयर प्लेन। 'ब्यूटी' शब्द ही मानो एक पूरी लबालब कहानी कह रहा था। बाद में मैंने ब्यूटी के लिए तमाम हिंदी के शब्द ढूँढ़ निकाले : अनुपमा, उम्दा, काम्या, चारु, मोहिनी, रूपसी, सुदेह, सुदर्शनी, शोभा, हसीना, छवि, दीप्ति, माधुरी, सुषमा, अप्सरा, गौरांगी, मेनका, नाजनीन, प्रियदर्शिनी, शोभना, मीनाक्षी, रति, रमणी, माहताब, रूपा, चाँदनी, ज्योत्सना, कौमुदी, चंद्रप्रभा, ऐश्वर्या, महबूबा... कितनी बार तंग, खिंचे स्वर में मैंने इन शब्दों का पाठ किया, और हर शब्द के साथ एक ही अंगार था, चिन्गारी थी : मेरी छाया की आकृति! पर ब्यूटी के उच्चारण के साथ अंगार और चिन्गारी सबसे प्रबल और चंचल थी : ब्यूटी मतलब छाया की आकृति। कहानी मैं एक साँस में पढ़ गया, उन जगहों पर निशान लगाए जहाँ मैं अभिभूत हो गया था। कहानी इस तरह शुरू होती है : 'वह सुंदर थी और लता जैसी, आटे के रंग की कोमल देह और हरे बादाम सी आँखें, और उसके घने सीधे बाल कंधे तक झूल रहे थे, और प्राचीनता का ऐसा आभास था जो खुदा जाने इंडोनेशिया का हो सकता था या एंडीज का।' कहानी आठ घंटे की एक हवाई यात्रा का स्मरण है। ब्यूटी और लेखक का 'मैं' अगल बगल बैठे हैं। एक दूसरे के लिए पूरे अजनबी। पूरी यात्रा ब्यूटी सोई रहती है। कहानी इस तरह खत्म हुई : 'फिर उसने अपनी लिंक्स जैकिट पहनी, मेरे पैरों के ऊपर से निकलते हुए लड़खड़ाई, शुद्ध लातिन अमरीकी स्पैनिश में क्षमायाचना के कुछ शब्द बोले और बिना अलविदा कहे या मुझे शुक्रिया अदा किए कि मैंने हमारी रात को खुशनुमा बनाने के लिए कितना कुछ किया, वह न्यूयॉर्क के अमेजन जंगल में गुम हो गई।' कहानी में जिन जगहों पर मैंने निशान लगाए थे : 'इससे हसीन औरत मैंने जिंदगी में कभी नहीं देखी, मैंने सोचा जब वह मेरे बगल से गुजरी।' 'मैंने टिकिट क्लर्क से पूछा क्या उसे पहली नजर के प्यार में भरोसा है। बिल्कुल, उसने कहा, इसके अलावा प्यार असंभव है।' 'मेरा दिल हठात थम गया। मेरे बगल की खिड़कीवाली सीट पर ब्यूटी एक पेशेवर यात्री के हुनर से अपनी जगह बना रही थी। अगर कभी मैंने यह लिखा, कोई मेरा विश्वास नहीं करेगा, मैंने सोचा।' 'मैंने अकेले खाना खाया। मौन के एकाकीपन में मैं खुद से वह सब कह रहा था जो उससे कहता अगर वह जगी होती।' 'अटलांटिक की रात अनंत और निर्मल थी, और जहाज तारों के बीच निश्चल लग रहा था। फिर मैंने उसका मनन किया, इंच दर इंच, कई घंटों तक।' 'फिर मैंने अपनी सीट की पीठ ब्यूटी की सीट के बराबर तक पीछे कर दी, और हम दोनों साथ साथ लेटे थे इतने नजदीक जितने विवाह की सेज पर नहीं हो सकते थे।' 'उड़ान के आखिरी घंटे में मैं सिर्फ उसे जगे देखना चाहता था, चाहे वह कितनी भी गुस्सा हो, ताकि मैं अपनी स्वतंत्रता फिर से पा सकूँ, और शायद अपनी जवानी।' 'मैंने पाया कि बूढ़े दंपति की तरह, जो लोग हवाई यात्रा में अगलबगल बैठते हैं, सुबह जागने पर एक दूसरे से गुड मार्निंग नहीं कहते। ब्यूटी ने भी नहीं कहा।' एक उन्मेष में मैंने कहानी दोबारा से पढ़ी और उसके बाद सिर्फ निशान वाले हिस्से। मैंने पाया कि मुझ पर कहानी का प्रभाव अनूठा और जबरदस्त था, बिजली की कौंध की तरह। ऐसा नहीं हुआ था जब मैंने कई बरस पहले यह कहानी पहली बार पढ़ी थी। आशंका और उत्तेजना के विस्मय भँवर में मैं देख रहा था कि करीने से मैं कहानीकार (मार्खेज) की जगह खुद को रख रहा था और सोई ब्यूटी में छतवाली औरत देख रहा था। मात्र आठ पन्नों में मार्खेज ने संवेदनाओं का विशाल फलक पकड़ा था : पहली नजर के प्यार से ऐसे मग्न दंपति जिनके ब्याह को दशकों हो गए। और मैं इस महारचना के सागर में अपनी व्यक्तिगत नियति का एक टापू बना रहा था क्योंकि मेरी कल्पना में सोई ब्यूटी का अवसर अब मेरे पास भी था। मार्खेज और ब्यूटी के बीच कोई संवाद नहीं हुआ। विमान उनका साझा मगर अजनबियों का सफर था। और यहाँ मैं था : दो बार हमारी नजरें मिली थीं; छतें हमारी शामिल जगह थी। मैं इस कल्पना के लिए तैयार था कि छत से कभी नीचे न आऊँ। एक अनूठे आवेग का दीवाना संगीत मेरे हृदय में घर भर रहा था। मैंने अपना प्रारब्ध मार्खेज के साथ जोड़ दिया था। उसके विशाल कृतित्व के सामने मैं बिंदु मात्र था। जो उसने आठ पन्नों में निरूपित किया, मुझमें अस्सी पन्नों में प्रकट करने की ताकत न थी, न हो सकती थी। पर जिसका महत्व था वह यह था : जो मार्खेज ने अनोखी व अडिग स्पष्टता से लिखा, वही हूबहू था जो मैं महसूस कर रहा था और निर्वाह करना चाहता था। पर साथ ही मुझे एक खोट या उलटपलट का अंदाजा भी था : मार्खेज ने अनुभव के एक झरोखे को बेशकीमती कहानी में तब्दील कर दिया। और मैं था जो कही कहानी से वाकिया और तजुर्बे की ईटें चिन रहा था...। उस रात मेरी आँखें चमक रही थीं ओर मैं सुबह होने के लिए व्याकुल था। छतवाली औरत मेरी चेतना के आगे झूल रही थी और अब उसकी तस्वीर उनींदी ब्यूटी की थी या सिर्फ ब्यूटी। ब्यूटी? जिस औरत को अब तक मैंने दूर से दो बार देखा था उसे रंग रूप देना अचानक बेहद जरूरी हो गया। तस्वीर : उसके नाक नक्श, रूप आकार और चेहरा मोहरा - विवरण जो उसे मुझ तक लाए और दुनिया तक ले जाए। ब्यूटी का पुनर्गठन न केवल कठिन था बल्कि जोखिम से भरा भी। और चूँकि छतवाली औरत अब ब्यूटी ही थी, उसे इस कसौटी पर खरा भी उतरना था। मैं बिस्तर पर लेट गया, मन की तपन को निस्तेज करने की जद्दोजहद लगातार ध्यान बँटा रही थी, मैं ब्यूटी के बारे में सोच रहा था, हर उस क्षण को मैंने बार बार उकेरा जब मैंने उसे देखा था। मैं सोच रहा था और इस खामोश मग्नता को शब्द दे रहा था : उसके होंठ अर्जदार, नम और हमेशा हल्के से खुले थे मानो वह उन्हें बंद करना भूल गई है; काले, लपकते बालों के घनत्व के कारण उसका चेहरा छोटा लगता था... चेहरे का गठन? अंडाकार और जबड़ा उदग्र व अशांत पर अजीब ढंग से कोमल। वह लंबी, घनी और बड़ी काठी की थी। असल में भरी छलकती देह थी और जाँघ, नितंब और पीछे की ओर दुहरी मांसल परत का आभास स्पष्ट था। पर इससे सौष्ठव का संतुलन बिगड़ा नहीं था। बल्कि उसकी कमर को एक नई कमनीयता मिल गई थी। बाँहें भरी और कोमल थीं, कोहनी एक मुलायम, गोल गहराई सी। पर आग्रह जहाँ सबसे प्रबल था वह थी देह की मखमल सी तरल श्वेत आभा जिसमें लेशमात्र भी दाग या दोष नहीं था। जितना भी मैं सोच रहा था, उतने ही शब्द मेरे मस्तिष्क में उतर रहे थे और उतना ही मुझे लग रहा था मैं सही भी हूँ और गलत भी। यह आवृत्ति, संशोधन और दुविधा का अंतहीन अभ्यास था : जितना मेरा वर्णन प्रत्यक्ष और ठोस होता गया उतना ही उसमें निरी कल्पना का पुट शामिल था और इसका अंत सिर्फ यही होता कि मैं पूरा का पूरा शायराना झूठ अख्तियार कर लेता। आखिर मैं उठा और मेज की तरफ गया जहाँ मेरी नोट बुक खुली पड़ी थी, शुरू के पन्ने कहानी की शुरुआत से भरे थे... लिखना शरीर पर ठंडा पानी डालने जैसा भी है, उसमें एक अनुशासन अनिवार्य है। मुझे कथा का प्रारंभिक अंश एकदम नागवार लगा, सो मैंने नए पन्ने पर नई शुरुआत की : 'वह बेहद खूबसूरत थी और ठोस और भरी, उसकी देह शहद और दूध की नदी की तरह बह रही थी, उसका निर्बंध आवरण निरुद्ध कामना के गतिशील लंपट भँवर में उसके बदन के साथ सट सिमट रहा था और उसके इर्दगिर्द वह गंध व्याप्त थी जो भोर के आग्रह से तर थी। मुझे अंतिमता की अखंडता सा ऐसा तात्कालिक आभास था कि वह पारिवारिक सुख के झरोखे से एकाएक असाध्य और प्रपाती छलाँग लेनेवाली है और यह लाजिमी था कि मैं छत पर से उड़ कर उसे अपनी बाँहों में ले लूँ और बचा लूँ। इस पैरे का लिखना मेरे लिए एक जंग जीतने जैसा था और ऐसा कि मैंने एक गहरा रहस्य अनावृत कर दिया है। थोड़ी देर बाद मैं सोने चला गया, आत्मसंतोष के रस में डूबा सा। मुझे धुँधला सा आभास था कि गुजरी प्रक्रिया ने कई एक परिचय रूप का गठन कर दिया था। एक स्तर पर मैं खुद नियुक्त कथाकार था जो किसी तरह एक प्रेम कहानी की रचना करने में जुटा था। दूसरे स्तर पर मैंने एक घनघोर बीड़ा उठा लिया था : कि छतवाली औरत की तरफ मेरी अधपकी, अव्यक्त आसक्ति को अनन्य प्रेमालाप और उदात्त जुनून के जादुई गुणों से सराबोर कर दूँ। तीसरे स्तर पर मैं सिर्फ आलसी 'मैं' था जो अपनी किस्मत से इतना अभिभूत था कि उसे आगे पीछे और सामान्य निर्वाह की सुध नहीं रह गई थी। फिर नींद ने सारी संवेदनाओं को पाट दिया। एक जवान देश है भारत या ऐसा राष्ट्र जिसकी आबादी में युवाओं की बहुतायत है। सड़कें और खुले आयाम टीनेज ऊर्जा की विस्मयकारी मात्रा से ओतप्रोत हैं। मैं एक बेहद संवेदनशील उम्र की अधबनी गाँठ पर जी रहा था। यह खतरा सदा आसन्न है कि बेपरवाह जवाँदिल के खेमे से तुम एक जवाबदेह वयस्क की तंग संज्ञा में सुशोभित कर दिए जाओ : दोनों स्थितियों में जमीन आसमान, भिखारी बादशाह का फरक है। अचानक, हथौड़े की घनघन चोट की तरह यह अहसास होता है कि स्वयं की अज्ञेयता और अमरता में भरोसा न जाने कब धूल के ढेर की तरह ढह गया। इस मूलभूत बदलाव का एक भोंडा, शरारती पहलू भी है : कि किसी भी वक्त कोई सड़कछाप, किसी काम का नहीं छोकरा तुम्हें सीना फुला कर आवाज दे - अंकल जरा बॉल तो फेंक दो! इस अधर सी उम्र में नई आदतें बनने लगती हैं : बिला वजह सीढ़ियाँ चढ़ते हुए उनका गिनना शुरू हो जाता है; अतीत को समय के बड़े खंड और उतार चढ़ाव जैसे पैमानों पर याद करना बनिस्बत उन पलों पर मर मिटना जो अद्वितीय और यादगार थे... मुझे आगाह कर देना चाहिए (आखिर क्यों? गिला या सिला किस बात का?) कि ऐसा वज्रपात अभी तीन महीने दूर था, सही गिनती 106 दिन की है : जिस दिन तरुणाई मुझसे जुदा होगी। इसका अर्थ कतई यह नहीं कि उस दिन पौरुष सिद्ध हुआ या शुचिता का अंत। मेरी कहानी में युवावस्था और कौमार्य दो अलग अलग चीजें हैं। लड़कियों और काम संबंधों के बारे में मेरा अनुभव प्रतापी न सही, पर्याप्त था। कुछ यादगार या चमत्कारी नहीं, साधारण तजुर्बे जिनकी पूरी रेंज थी : खामोश आसक्ति, एक के बाद एक सम्मोहन के अफसाने, आविष्ट कल्पनाएँ, पगले सनकी मनमौजी प्रेम, शायराना इश्क, मजनूँ मुहब्बत, स्वप्नदोषी उल्फत... चोरी चोरी के चुंबन, छुआछुई की मशक्कतें और गिनेचुने पर असल रति प्रसंग। पर इनके कोई स्थिर निशान नहीं थे। इन प्रसंगों के साथ मैं बहता रहा और हर बार किनारे जा लगा। एक स्पष्टीकरण दर्ज करना जरूरी है : अगले कुछ दिन, हफ्ते, महीने का वक्त ऐसा था जो कभी भुलाए नहीं भूलता : कहने को कुछ नहीं पर फिर भी नायाब। बल्कि समय के गुजरने के साथ इस वक्त की स्मृति अधिक सजग और जीवंत होती जाती है। ये ऐसे अनुभव हैं जो इनसान और समाज की नियति बदल सकते हैं, अगर आप में जज्बा है और प्रतिभा। साधारण इनसानों के लिए ऐसे मौके एक पहचान देते हैं और गुमनामी के तेजाब से बचाते हैं... अगर मैं चित्राकार होता, स्वेल बना रहा होता तो इन महीनों में नायाब और सबसे सुर्ख रंग भरता। पर मेरी अधर उम्र के लिए कठिनाइयाँ कम नहीं थी। मेरे आतंक पर गौर कीजिए कि ब्यूटी से अभी मैं प्रेम निवेदन कर भी नहीं पाया था, संसर्ग तो दूर की बात थी, पर मेरा कथाकार छटपटा रहा है और उसने इस संबंध का एक सौ छठे दिन का पटाक्षेप भी कर दिया है। लानत है, अपनी बिल्ली खुद को म्याऊँ। मेरा पहला और जरूरी काज था कि मैं ब्यूटी का रोज का संपूर्ण रुटीन पूरी तरह अधिगृहीत कर लूँ : वह क्या करती है पूरे दिन और रात्रिकाल के जगे वक्त में, कब, क्यों, कहाँ; उसके मूड की लय और जैविकी घड़ी; उसकी पोशाक, रूप रंग, भंगिमा और आचरण में बदलाव। इस तरह मैं सूक्ष्म विस्तार में उसका रोजाना का ग्राफ अंकित करना चाहता था। ताकि जिस तरह 'क' मुझ पर हर वक्त सवार था, एक तरह से मैं उस पर सवार हो जाऊँ। इस उपक्रम के लिए मेरे पास दो प्रेक्षण स्थान थे : छत का फैलाव और पहली मंजिल पर बेडरूम के बाहर बरामदा। यह बरामदा ब्यूटी के बेडरूम और उसके बगल के गलियारे के एकदम सीध में था : दूरी करीब चालीस, पचास फीट। जो बीड़ा मैंने उठाया था वह किसी रहस्य के धीमे और बारीक छीलने की तरह था। क्या मैं भेदिया नहीं था जिसने एक अनजान शरीर को लक्ष्य किया था? और शरीर के सबसे अंदरूनी कोनों को बींधने के उपरांत वह उसकी आत्मा तक में घुसपैठ करने को बाध्य था? हिचकॉक की फिल्म 'रियर विंडो' में नायक ने सामने के घर की जासूसी करने के लिए एक स्मार्ट टेलीस्कोप का इस्तेमाल किया था और एक हत्या उसके मत्थे पड़ी। इस तुलना को आगे बढ़ाते हुए मैंने सोचा कि मेरे ज्वर मस्तिष्क में सैकड़ों नन्हें टेलीस्कोप जड़े हैं : मैं असलियत से सिर्फ रूबरू नहीं था, मैं उस पर काबिज हो कर उसे हस्तगत कर रहा था। 'क' ने तुरंत मुझे रश्दी के 'मिडनाइट चिल्ड्रिन' की याद दिलाई। इस उपन्यास में एक अनोखे प्यार ने जन्म लिया (क्या प्यार हुआ था? अगर नहीं तो मैं मानना चाहता हूँ ऐसा हुआ था। लाइब्रेरी में यह नॉवेल नहीं था सो मैं पुष्टि नहीं कर सका) जब एक डॉक्टर ने अपनी एक युवती रोगी का महीनों उपचार किया। पर्दानशीनी के लिए डॉक्टर और रोगी के बीच सदा एक चादर तानी जाती जिसमें एक छेद था। उस छेद के जरिए डॉक्टर ने अपनी प्रेयसी की देह को इंच दर इंच नजर किया। और यह क्रम हफ्तों, महीनों चला। तो क्या छत की अठखेलियों से इश्क का सूत्रपात होगा, मैंने खुद से पूछा। मेरे तरीके सतर्क और त्रुटिहीन थे और बदले में ब्यूटी का दैनिंदिकी का निर्वहन कठोर और इकसार। वह एक मायने में अपनी जिंदगी के यथार्थ का सार और निचोड़ बिना किसी आडंबर के यथास्थान प्रस्तुत कर रही थी। दूसरे शब्दों में वह पूरी तरह नार्मल थी। मानो उसकी जिंदगी ज्यों की त्यों थी, उसमें कुछ नया नहीं था, कोई उसे देख नहीं रहा था, मैं नदारद था। कठोर संकल्प और गहरे अनुशासन से ही ऐसा प्रदर्शन संभव था। यह जानते हुए भी कि वह निरंतर रतिराग निगरानी की पात्र है, उसने इस बोध की अपनी चेतना से निष्कासित कर दिया था और वही व्यवहार किया जो वह हमेशा करती थी। इस अनूठी क्रीड़ा के प्रति उसका समादर मरने मिटने की तरह था। जहाँ तक मेरी बात है मैं किसी भी चैलेंज या पकड़े जाने के डर से मुक्त था, पूरी निर्लज्जता से मैं उसे देखूँ, ताकूँ इसके लिए मैं स्वतंत्र था। ऐसे समझौते की माँग थी कि हमारी आँखें कभी चार न हों। जब मैं उसे देख रहा हूँ उसे अपनी दृष्टि हटाए रखनी थी। नए बनते रिश्ते की सत्यनिष्ठा के लिए उसे सिरे से झुठलाना जरूरी था। इस निर्धारण में बराबरी पैदा करने के लिए मैं उसे मौके देता कि वह अगर चाहे तो मुझे नजर कर सके। तब मैं दूसरी दिशाओं में अपनी दृष्टि फिरा लेता। मैं यह मान कर चल रहा था वह इन मौकों का इस्तेमाल करेगी ताकि इस प्रोजेक्ट में उसकी दिलचस्पी और चाहना बनी रहे। पर मुझे उससे वैसी तीव्रता की उम्मीद नहीं थी जो मैं ब्यूटी के लिए निवेश कर रहा था। मैंने उसका चेहरा और आकार अधिकतर पार्श्व में देखा। मेरी तरफ से तिरछा चाक्षुक हमला होता था। या जब वह छत से नीचे देख रही होती या उसकी नजर कहीं आसमान में अटकी होती। मैं उसके शरीर को पीठ पीछे से बेहतर पढ़ने लगा था बनिस्बत सामने से। उसके वक्षों का गठन और कसाव, उदर की ढलानें और आयतन, इनसे मेरी वाकफियत उतनी नहीं थी जितनी, मसलन इनसे : कंधों के उपद्रव, रीढ़ के वक्र और तनाव और नितंबों के उभरे घनत्व। दो हफ्तों के भीतर मैं, आश्वस्त और स्थिर उँगलियों से हवा में उसके माथे से ठोड़ी तक की हूबहू पार्श्व रेखा खींच सकता था। अपने दिमाग में मैं किसी भी वक्त उसके वक्ष के निचले भार की पकी नाशपाती रेखा चित्रित कर सकता था और, पार्श्व के संदर्श से उस रेखा को बढ़ाते हुए व्यक्त कर पाता था : उसकी नाभि का कुआँ, योनि की भीतर की ओर उन्मुख ढलान और उसके बाद दूधिया जाँघों की मधुर, उल्लासपूर्ण छलकन, घुटने और पिंडलियों के दीर्घवृत्त... ये सभी मध्य दूरी के दृश्यबंध थे जिनके सूक्ष्म विवरण सौंदर्यबोध और ज्यामिति के सहज सिद्धांतों के कल्पनाशील हस्तक्षेप से भरे जा रहे थे : गठन, स्पर्श, रंग और भाव! मैं उसे रोज देखता था। या कहना चाहिए मेरा प्यासा दिल उसकी मौजूदगी का नित्य रसपान कर रहा था। इस वक्त छत पर आने में उसका कभी नागा नहीं होता : कहो कि साढ़े छः और आठ के बीच। वह सुबह जल्दी उठती थी जैसे उसकी परिस्थितियों की अधिसंख्य महिलाएँ। इतने सारे काम और जरूरतें इस वक्त की होतीं जो उसे छत पर बुलातीं। मैंने सब कुछ देखा मानो कोई सामाजिक अध्ययन कर रहा हूँ : वह धुले कपड़े दोनों हाथों से निचोड़ती और उन्हें सूखने के लिए लटकाती; सूखे वस्त्र उतारती और उन्हें एक लाल हरे बैग में भर कर नीचे ले जाती। छत धोनी होती : वह पानी से भरी बाल्टियों को चारों दिशाओं में उलटाती। छत पर एक नल था और कभी वह बाल्टियाँ भरने का इंतजार करती। अगर वक्त कम रहता और दूसरे कामों का दबाव तो वह ऊपर नीचे हैरतमंद तेजी से भागती : एक प्रभापूर्ण हिरनी की तरह, मैं सोचता। कुछेक बार उसकी साँस चढ़ जाती पर फिर भी उसके दिमाग के कोने में मेरा अहसास रहता (ऐसा मेरा विश्वास होता) क्योंकि वह पार्श्व में खड़ी होती : उखड़ी साँस से उसके वक्ष ऊपर नीचे होते और शारीरिक जतन की बहुतायत से उसकी देह काँपती सी लगती। वे बेशकीमती, न भूलने वाले क्षण थे। छत के चारों ओर किनारे किनारे गमले थे जिनमें पत्ते और फूल थे। कुछ गमले मुँडेर पर भी थे। ब्यूटी उन्हें भी पानी देती, अक्सर वह इसके लिए एक फव्वारेदार डोल का इस्तेमाल करती। पानी की धार में सूरज की किरणें फँस जातीं और फिर जल के कण चाँदी या सोने के रंग में चमकते। कई बार वह छत धोने या पौधों को पानी देने के लिए पाइप का उपयोग करती। मेरे लिए यह सब देखना, ये सारे काम दिलचस्प और सम्मोहक थे। पर मैं समझ सकता हूँ यह रुटीन ब्यूटी के लिए कभीकभार बोझिल हो जाता होगा और तब वह कुछ निस्तेज सी दिखाई देती। शायद यही वजह थी वह दो तीन बार पाइप से खेलती दिखाई दी। पाइप की लंबाई को वह कई चवें में घुमा देती या धार के मुँह पर हाथ रख उसे कई दिशाओं में मोड़ देती। जलपरी है ब्यूटी, तब मैं खुद से बुदबुदाता। नाइटी के कुछ हिस्से पूरे गीले हो जाते और वे उसकी देह से पूरे कामोक्रोध से चिपक जाते। मुझे यह सोचना अच्छा लगता वह यह सब मेरे लिए करती है। जैसे एक दिन उसने पाइप की गोलाइयों में खुद को फँसा लिया और खुद को निकालने के जतन में जल की धार ने उसके चेहरे और बालों को भरपूर गीला कर दिया। मुझे लगा वह गुपचुप, स्वमग्न हँस रही है। हो सकता है मैं गलत हूँ, पर मुझे लगा कि जैसे हफ्ते गुजरे उसकी नाइटी का कपड़ा पतला और पतला होता गया और एक सुबह, मेरी आँखें धोखा नहीं खा सकतीं, मैं नाइटी के आरपार देख रहा था। उस भेदभरी, खामोश नजदीकी में भी, जिसमें हम शरणागत थे, मैं शर्म से सुर्ख हो गया था और पहलेपहल चोर की तरह डर गया था। जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
03-12-2019, 04:01 PM
जहाँ तक मेरी बात है, मैं इस वक्त (जिसे मैंने 'सुबह' कहा है) को कैसे गुजारता था? आदत, विवरण, स्मृति और कहानी के लिहाज से दिन को चार रिवाजी हिस्सों में बाँटना ठीक लगा : सुबह, दोपहर, शाम और रात। भोर, गोधूलि और तारों भरी रात की गहराई (वे रातें जब नींद दूर थी) इस बँटवारे में चौंधियाते बिंदु थे : मानो चाँदी की अँगूठी जिसकी नोंक पर हीरे जड़े हैं।
इन हफ्तों में मैंने कई एक महान प्रेम कहानियाँ पढ़ीं, उनका चिंतन किया और उनसे सीखा कि इश्क के सरोवर के उत्तेजक तजुर्बे में विडंबनाओं को कैसे पहचानते हैं और उनका रस लेते हैं। जैसे मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि मेरे प्रणय गीत की अलौकिक आभा को कायम रखने के लिए जरूरी था कि मैं अपना मलिन, उनींदा रुटीन एक आत्मग्रस्त कठोरता से जारी रखूँ। यह पृष्ठभूमि कि सब कुछ पूर्ववत है, एक उजले रोमांस की शुद्धता बरकरार रखने के लिए जरूरी था। यह समीकरण अनेक सामान्य और सही उक्तियों के अनुकूल था जैसे : एक प्रतिशत अंत:प्रेरणा के पीछे निन्यानबे प्रतिशत पसीने की चट्टान होती है; महान नेतृत्व असंख्य चेहराविहीन जनमानस के हाथों पर ऊँचाई पाता है, वगैरह। एक महास्वप्न जीने के लिए उसकी असलियत के भ्रम को पालना नितांत आवश्यक है। सो मैंने अपनी दिनचर्या में कोई बदलाव नहीं किया। सुबह मैं आधा घंटा दौड़ के लिए एक निकट के पार्क में जाता, वहाँ एक जॉगिंग ट्रैक था। लौटने के बाद चाय के कई कप बीच बीच में चलते। नाश्ते का कोई निश्चित समय नहीं था। टीवी से सीखा मैं थोड़ा योग अभ्यास करता और वजन उठाना भी : मामा के दो किलो के वेट्स थे जिन्हें वे शायद पचास वर्ष पहले इस्तेमाल करते थे। वजन उठाने का अभ्यास मैं छत पर करता या बरामदे में। यह वर्जिश यदाकदा नंगी छाती पर होती। सुबह अखबार पढ़ने के लिए भी थी जिसे ले कर मैं बरामदे की डाइनिंग टेबिल पर बैठता था। नहाने मैं जाता जब बाई आ जाती। हफ्ते में कम से कम दो दिन मैं कार निकालता और शहर की अलग अलग दिशाओं में ड्राइव पर निकल जाता। मैं सड़कें और शहर की नाड़ी से वाकफियत बना रहा था। अब कोई मुझे बाहरी के रूप में नहीं देखता था। मैंने उस इलाके का भी सर्वेक्षण किया जहाँ मेरे भावी नियोक्ता के दफ्तर थे। यह कल्पना करना अच्छा लगा मैं किस तरह ऑफिस पहुँचूँगा और वहाँ से निकलूँगा। हफ्ते में एक दिन मैं सिनेमा हॉल में फिल्म देखता। हालाँकि डीवीडी की प्रचुरता थी, मेरे छोटे शहर की यह आदत मैंने नहीं छोड़ी। अक्सर शाम में मैं पैदल घूमने निकल जाता। अनेक गलियों और बाजार के मैंने च्क्कर लगाए। कहीं रुक कर पान या सिगरेट खरीदना हो जाता। मैं पटरी की दुकानों और ठेलों पर भी रुकता, उनके सामान देखता। कभी कोक पी लेता या आइ्सक्रीम या चॉकलेट। मैं जानता था पड़ोसियों में मुझे ले कर कौतुहल है और वे मुझ पर नजर रखते हैं। पर मुझे चिंता नहीं थी कि वे, जवान और बूढ़े, औरतें और आदमी, मेरे बारे में अटकलें लगाते हैं, फैसला सुनाते हैं। या अफवाहों की किचकिच जिनका फैलना लाजिमी था। मेरे छोटे शहर ने मुझे ऐसे खतरों के लिए बखूबी तैयार रखा था। एक बालक और फिर उग्र नौजवान, मैं यह खेल जीतने में माहिर था। फितरती ताकझाँक करनेवालों की आँखों में किस तरह धूल झोंकी जाती है, मैंने यह पाठ खूब सीखा था। उस वक्त की सीख थी कि जितने बेबुनियाद झूठ और अफवाहें हों, वे असली और गंभीर रहस्य के लिए बेहतरीन कवर हैं। और मेरा एक गंभीर रहस्य था जिसे मैं हर कीमत पर बचाना चाहता था। आखिर ब्यूटी का भविष्य था और मेरे मामा मामी की प्रतिष्ठा। बहरहाल, मौजूद आबोहवा में इस रहस्य को खोजती नजरों से बचाना आसान रहा। मुझे सिर्फ ब्यूटी की खोजती नजर की दरकार थी। मेरे तरीके मेरी ठहरी मीमांसा पर टिके थे : कि मैं ब्यूटी के साथ अपना आखेट रोजमर्रा के बोझिल, प्रकट रुटीन में विलीन कर दूँ। दोपहर और रात वह वक्त का तार होता जब मैं अकेला होता। खासतौर से दोपहर जब नजर रखने के लिए कोई ब्यूटी नहीं थी। कई रातें मैं बैडरूम के दोहरे परदों की बानगी के जरिए 'ब्यूटी शिकार' करता। अकेली दोपहर और रातें मैं अक्सर मेज पर बैठ कर बिताता या लाइब्रेरी में। मैंने तमाम किताबें खँगाली, महान प्रेम कहानियों को चुना और पढ़ा, अपने चहेते लेखक और कथाएँ पढ़ीं और उन्हें जिनसे किसी न किसी तरह अतीत जागृत हो उठता था। मेरे पास खूब वक्त था, जो पढ़ता उस पर खूब और स्वतंत्र तरीके से मनन करता : पूरी कहानियाँ, कथानक, कुछ अनुच्छेद, शब्द या वाक्यों के टुकड़े जो खास और गहरे प्रतीत होते। इन कोरे और नौसिखिये मंथन में मकसद एक ही होता या समान प्रकृति का : समानताएँ खोजना और विचार, संवेदनाएँ, तर्क और अंतर्बोध के प्रमाण ढूँढ़ना जिनमें एक तरफ ब्यूटी और मैं होते और दूसरी ओर कथा के नायक, नायिकाएँ। इस तरह एक जटिल योजना की तरह, मैं महान साहित्य और अपने हाल के अनुभवों को आपस में बुन कर एक सुनहरा कालीन तैयार कर रहा था जो मेरे प्रेम का उड़नखटोला था। प्रेम, हाँ प्रेम, आखिर मैंने प्रेम के ढाई अक्षर का इस्तेमाल कर ही दिया। यूँ नहीं कि मेरे जेहन में प्रेम की कोई स्पष्ट या समृद्ध धारणा थी, बल्कि इन ढाई अक्षरों में मैंने अपनी सारी अनुभूतियाँ उँड़ेल दीं : चाहत, ऐंद्रिक लालसा, ग्रस्तता, उत्कंठाएँ, आवेग के भँवर, इच्छाओं के टीले, टापू, कामोत्तेजक उड़ानें वगैरह। इसके पीछे यह भी दृढ़ विश्वास था कि ब्यूटी मेरे प्रति उतनी ही आसक्त है जितना कि मैं। इस प्रेम का पकना, फलना, इसका प्रस्फुटन सिर्फ समय की बात है। तो मेरे प्रणय का उड़नखटोला, जिसे मैंने सुनहरे कालीन का रूप दिया है, उसके गुण प्रकट हो रहे हैं इस कहानी में, जिसे मैं रोज लिख रहा हूँ। लिखना कभी कभी बेहद कष्टदायक भी होता पर इस जतन के जरिए मेरे प्रणय और दीवानगी की ज्वाला प्रज्ज्वलित रही। शरीरी आवेश और उत्ताप, कितना भी तीक्ष्ण और हठीला क्यों न हो, उसे इकतरफा जागृत रखना कठिन है। इसका अर्थ यह नहीं कि मेरे मन में संशय थे। मैं आश्वस्त था (क्यों? कैसे?) कि ब्यूटी और मेरे बीच रति कामना की विद्युत बह रही है। पर यह एकआयामी थी और इसलिए अपूर्ण। ब्यूटी को आवाज चाहिए, भावनाओं का ज्वार और अभिव्यक्ति। जो मैं लिख रहा था वह छतों के बीच की कल्पनाशील फुसफसाहटें थीं, आसन्न प्रेम के तरल, मौन नृत्य की अभिव्यंजना। मैं थोक में लिखता था : लंबे, स्वतंत्र अनुच्छेद जिन्हें जोड़ने की कवायद बाद की थी। पर कथा की शुरुआत थी जो मुझे लगातार तंग करती थी। और मैं बार बार उसे सुधारता। मैंने मन की आवाज सुनी और चेखव ढूँढ़ लाया और उसकी मशहूर कहानी : 'द लेडी विद द डॉग'। जब मैंने उसे एक उमस भरी दोपहर में पढ़ा, और फिर नम, ठंडी रात में दोबारा पढ़ा, तो लगा जैसे दिमित्री गुरोब का बहुत अंश मुझमें घुल रहा है और मैं ब्यूटी में आन्ना की तस्वीर और रचना देख रहा हूँ, आन्ना जिसकी शादी एक अमीर आदमी से थी जिसके पास अपने घोड़े थे, उसका अजीब सा नाम था, वॉन डिडरिट्स और वे एक पुराने शहर में रहते थे। कहानी इन शब्दों में शुरू होती है : 'यह सुनने में आया कि एक नवागत युवती समुद्र किनारे देखी गई है : उसके पास एक छोटा पोमेरियन कुना है। दिमित्री गुरोब जो विगत दो सप्ताह से याल्टा में था, उसका मन रम गया था, वह नवागंतुकों में खास दिलचस्पी लेने लगा था। वरनी पवेलियन में बैठे हुए, उसने एक काले बालोंवाली नवयुवती को समुद्र किनारे चलते हुए देखा : युवती मध्यम ऊँचाई की थी, उसने एक टोपी पहनी थी और एक सफेद पोमेरियन उसके पीछे पीछे भाग रहा था। ...किसी को नहीं मालूम था वह औरत कौन है, सभी उसके लिए कहते : कुकुर वाली मेम। अगर यह अकेली है बिना दोस्त या खसम के, तो इससे मित्रता गाँठने में कोई बुराई नहीं, गुरोब सोचने लगा। इस तरह चेखव ने कहानी की चंद शुरुआती पंक्तियों में उसे ऐसी गति प्रदान कर दी, कि आखिर में एक थकानशुदा, अंतहीन मगर बरबस उन्मत्त प्रेम तय था : ऐसी मुहब्बत जिसने उन्हें जलाया पर जिसमें मुक्तिदान की अबाध संभावना थी। गुरोब, जो अधेड़ था और औरतों के मामले में तजुर्बेकार, उसे इस जवान, संकोची महिला के साथ हल्काफुल्का प्रेमराग बनाने के ख्याल ने आकृष्ट किया। उनके बीच इश्क की डोर तनी और जब औरत घर लौटने लगी, उसने कहा : हम हमेशा के लिए अलग हो रहे हैं, यही ठीक है, हमारी मुलाकात कभी न होती तो ही अच्छा होता...। पर गुरोब आन्ना को भूल नहीं पाया... उसकी यादें सपनों में बदल गईं, और कल्पनाओं में अतीत की घटनाएँ भविष्य की अपेक्षाओं के साथ गड्मड् हो गईं। उसे आन्ना सपनों में दिखाई नहीं देती पर वह हमेशा उसके पीछे होती एक परछाईं की तरह, उसे निरंतर कोंचती... सड़कों पर गुरोब औरतों को देखता कि कहीं आन्ना जैसा चेहरा दिख जाए। फिर गुरोब आन्ना से मिलने उसके शहर गया और उनकी मुलाकातों का सिलसिला फिर कायम हो गया... गुरोब ने सोचा उसकी दो जिंदगियाँ हैं एक प्रकट, खुली जिसे सब जानते हैं... शिष्टता के सच और झूठ से भरपूर... और दूसरी जो रहस्य की गुफा में साँस लेती है। और... वह सब जो महत्वपूर्ण है, जिसका उसके लिए मूल्य है, वह सब जिसमें वह ईमानदार है... सब जो उसके जीवन का तत्व है, वह दुनिया से छिपा है। गुरोब बूढ़ा हो रहा था। और अब जा कर.. वह सच में, वास्तव में प्यार की गिरफ्त में था - जिंदगी में पहली बार! आन्ना और गुरोब का प्रेम उन लोगों की तरह था जो बेहद निकट होते हैं और एक से... उन्हें समझ में नहीं आता था कि आन्ना का पति क्यों है और गुरोब की पत्नी... उन्होंने एक दूसरे को हर उस चीज के लिए माफ कर दिया जिसके प्रति उन्हें अतीत में शर्म थी, उन्होंने वर्तमान का सब कुछ माफ किया और उन्हें यह आभास था कि उनके प्यार ने उन्हें बदल दिया है। कैसे जादुई शब्द, मैं सोचता। कहानी इस तरह खत्म होती है : और उन दोनों को यह साफ था कि उन्हें अभी बहुत लंबा सफर तय करना है, और सफर का सबसे कठिन और दुरूह हिस्सा तो अभी शुरू हो रहा था। आन्ना और गुरोब की कहानी मेरे जेहन के उन हिस्सों में गहरे समाती चली गई जिनका मुझे इल्म तक नहीं था और मैं न जाने कैसे आवेग के जंगल में जल रहा था, सराबोर था। यह इफरात थी और भयानक कि मैं कहानी के असहनीय जुनून को ब्यूटी और मेरे बीच का पुल बना रहा था। कई दिन और कई रातों तक ब्यूटी आन्ना हो गई और आन्ना ब्यूटी। और कई व्याकुल दोपहर मैंने गुजारी जब मैं अपनी जिंदगी को अधेड़पन की ओर फास्ट फारवर्ड कर रहा था जब मैं शादीशुदा हूँगा और एक पिता। फिलहाल मेरे लिए यह कल्पना कठिन थी कि मैं समुद्र किनारे किसी रिसोर्ट में रह रहा हूँ और वहाँ ब्यूटी से मुलाकात होती है जो अकेली है... मेरा परिवार भी मेरे साथ नहीं और इस तरह मेरी दो जिंदगियाँ शुरू होती हैं...। बाद में जब सब कहा और किया जा चुका, अफेयर खत्म हुआ (धमाके की जगह फिस्स सा समापन?) और मैं ढर्रे की जिंदगी पर चल निकला, तो मैंने इस अनुभव को एक सफर की तरह याद किया; कल्पना की उड़ानें भी एक यात्रा है... और इस सफर में जो जज्बा और तपिश थी वह आज भी मुझसे दूर नहीं। पर इस लम्हा मैं आन्ना मैं डूबा हूँ और उसके शब्द मेरे जेहन में लगातार घूम रहे हैं : 'मेरे दुख का कोई छोर नहीं। मैं हर वक्त सिर्फ तुम्हारे बारे में सोचती हूँ। यही मेरा अकेला सहारा है, आसरे का स्पर्श है। और मैं तुम्हें भूलना चाहती थी; पर क्यों, तुम क्यों लौट आए।'... मुझे आधा विश्वास हो चला था कि ब्यूटी के पास भी एक सफेद पोमेरियन है (मोहल्ले के आधे घरों में सचमुच पोमेरियन थे और उनकी खास भौंकने की आवाज दिन भर सुनाई देती थी) और एक दिन वह भी सीढ़ियों से फुदकता हुआ छत पर आएगा, ब्यूटी की नाइटी के पीछे वह छिपा होगा। फिर मैंने कहानी की शुरुआत पर काम किया। चेखव के गहरे प्रभाव में मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि मेरी कहानी के दो संभव अभिप्राय प्रतीक हैं : छत और नाइटी। इस तरह कहानी के दो शीर्षक हो सकते हैं : छतवाली औरत; या, नाइटीवाली औरत। मैंने कहानी की शुरुआत के लिए दो नए मसौदे लिखे : 'छत, उसके लिए, आजादी का स्थल था। किसी तरह छत उसे जिंदगी के छितरे, संचित जुल्मों से मुक्त करती थी। वहाँ, छत पर, जब हवा उसके केश लहराती या सीमेंट का गर्म फर्श उसके पैर झुलसाता, वह पंजों के बल चलने के लिए मजबूर हो जाती, या जब रात की स्याही उसे अंधकार में डुबो देती, वह एक खास तरह से स्वतंत्र और बरी महसूस करती। इसलिए छत वाली नवयौवना को कोई अचरज नहीं हुआ जब एक जागृत स्वप्न में एक उड़नकालीन छत पर उतरा... दुनिया का सबसे खूबसूरत मर्द उतरा, युवती का हाथ पकड़ा और, हाथ में हाथ, उस औरत ने उड़नकालीन पर अपना पैर रखा... मेरे लिए वह बस छतवाली औरत थी।' दूसरे ड्राफ्ट में मैंने नाइटी का अभिप्राय रूप इस्तेमाल किया : 'मैं देख रहा था कि नाइटी का पहनना उसके लिए एक सर्वांग छलाँग थी। पेटीकोट, ब्लाउज, साड़ी, लंबा पल्लू और घँघट, सलवार कमीज, चूड़ीदार और न भूलनेवाली चुन्नी की अनगढ़ सीमा और मादक घेराबंदी से छुटकारा। ज्यों ही वह नाइटी पहनती उसके भीतर फव्वारा छलकता, हजार ख्वाहिशें फूट पड़तीं। नाइटी, उसकी सभी नाइटी, जो आसानी से आधे सूटकेस में समा जाती थीं, उसके वक्षों के दो उरोज बिंदुओं पर टिकती थी। शरीर से उसकी बस इतनी ही जरूरत थी और बाकी समूची देह आवरण की साटनी चिकनाहट से हर तरह की क्रीड़ा करने के लिए स्वतंत्र थी। यह मुक्ति उसे गहरी आत्मानुभूति और गर्व से भर देती। नाइटीवाली औरत की गतियों की बेफिक्री का मैं एक सुबह प्रथम दृष्टा था और मेरी जिंदगी बदल गई।' इस ड्राफ्ट को लिखने के बाद मैं कुछ देर नाइटी के दृश्यविधान की अजूबियत के बारे में सोचने लगा। सोचता रहा। इस देश के हर शहर, कस्बे के हर मिडिल क्लास घर में नाइटी एक लोकप्रिय और सर्वस्वीकृत परिधान है। मुझे अपने कस्बे के बड़े, सम्मिलित परिवारों के घर खूब याद हैं जहाँ सुबह और शाम औरतें तमाम तरह की नाइटी में नजर आती थीं। बेहद कम लड़कियाँ या औरतें थी जो शर्ट पतलून, जींस पहनती थीं या ऐसे वस्त्र जिन्हें आधुनिक या उत्तेजक कहा जाता है। औरत और लड़की के पहनावे में अमूमन संयम का नियम था। अब जो मैं सोच रहा हूँ, तो लगता है कि नाइटी रूढ़िवाद के इस लौह नियम का अजीब अपवाद था। नाइटी न केवल एक खुली और उत्तेजक ड्रेस है, यह अंतरंग है और संकेतों से भरपूर। फिर भी, मुझे खूब याद है, सबसे सौम्य और सावधान महिलाएँ भी अजनबियों के सामने नाइटी में प्रकट होने में कोई गुरेज नहीं करतीं। फिर इस ड्रेस के कट और स्टाइल को ले कर न के बराबर अंकुश था। अधिकतर वे रेडीमेड और आयातित होतीं और अनजान समाजों के फैशन और शौक के अनुरूप। न जाने कैसे नाइटी के साथ एक घरेलूपन और अपनापे का लेबिल चिपक गया है और शायद इस कारण उसे एक खुली सामाजिक स्वीकृति मिल गई है। आंटियाँ और कजन, मित्र और रिश्तेदार को नाइटियों में देखना और पहचानना आम ही है। पर असल तो यह है कि नाइटी ही थी जो मेरे शहर की औरतों की कामुकता को पूरे वैभव में उघाड़ती थी। जो नजर के कच्चे थे और जिनकी आँखें चंचल थीं, उनके लिए नाइटी से उद्घाटित उरोज के दो बिंदु पर्याप्त सरगर्मी और उत्ताप के संदेश थे। बचपन में मेरी प्रकृति डरपोक की थी और कॉलेज के दिनों में विचारधारा की राजनीति करने के कारण मैंने गंभीर रुख अपनाया था; पर इसके बावजूद भी मैं नाइटी के नृत्यों का उत्साही दर्शक था और मैं कह सकता हूँ कि इस नृत्य की भाषा हमारे शहर के काम इतिहास का प्रमुख हिस्सा थी। करीब एक महीना गुजर गया। हमने (क्या पहली बार मैंने ब्यूटी और खुद को इस तरह मिला लिया है?) अपनी अवस्थाएँ कायम रखीं और हमारी कामोत्तेजक जंग में एक तरह का संतुलन बन गया था। हम उन तलवारबाजों की तरह थे जो अपने हथियार के सिरों से जानकारी का आदान प्रदान कर रहे थे। स्थिति इस तरह थी मानों दो कीड़े एक शहद की बंद बोतल में फँस गए हैं। विनिमय का माध्यम हमारा एक था पर हम इस वक्त न आगे बढ़ पा रहे थे न पीछे। बस स्थिर और शिथिल। एक दिन मैंने ब्यूटी के बेटे को देखा : करीब दस साल का, दिखने में गंभीर मग्नशील लड़का। यह अचरजपूर्ण है पर मैं उसे देख भावुक हो उठा। वह सीढ़ियों से छत पर आया था, कॉलेज जाने को तैयार। कंधे पर कॉलेज बैग झूल रहा था। वह अपनी माँ के सामने खड़ा हो गया। साफ था कि यह रोज का नियम है। मैं पहली बार देख रहा था क्योंकि उसी दिन मैंने सुबह की दौड़ का समय बदला था। माँ (ब्यूटी माँ भी है!) ने बच्चे के बाल सँवारे, देखने के लिए पीछे सरकी और फिर घुटनों के बल हो गई। मैं न भी चाहता पर मेरी आँखें ब्यूटी के फैले, सुनम्य नितंबों पर जा टिकीं जहाँ नाइटी में खिंचाव के कारण बल पड़ गए थे। मुझे यह ढाढ़स था कि ब्यूटी इस वक्त भी अपना पार्श्व दिखा रही है। बेटे के होने से हमारे नियम नहीं बदले। ब्यूटी ने बालक के जूते के लेस कसे और फिर जमीन पर अपनी उँगलियाँ टिका कर उठ खड़ी हुई। तभी एक आदमी दरवाजे से छत पर आया। जाहिराना, वह ब्यूटी का खाविंद था। उसके हाथ में एक टिफिन बॉक्स था और दूसरे हाथ में पानी की एक छोटी बोतल। उसने उन्हें बच्चे के बैग में रखा। फिर वे साथ साथ खड़े थे। अगर समय रहता तो वे कुछ देर इसी तरह ऊपर रहते। आदमी अपने हाथ उठाता, उन्हें नीचे गिराता या झुक कर अपने पैरों के पंजे छूने का प्रयत्न करता। सुबह के व्यायाम के प्रति यह उसका प्रतीकात्मक चढ़ावा था। सिर्फ ब्यूटी को देख कर लगता वह छत पर तल्लीन है। छत उसका इलाका था, उसका गणराज्य। एक बार भी वह इस तरह नहीं मुड़ी या चली कि उसकी आँखें मेरी ओर उठ जाएँ। यह एहतियात वह बरतती थी (मेरे हिसाब से) ताकि कोई शक न रहे मैं उसके लिए पूर्णतः नामौजूद हूँ; मेरी हस्ती वही है जो छतों पर दिखाई देते तमाम कबाड़ और अनुपयोगी सामान की हो सकती है... यह सोच कर मैं मन ही मन मुस्कुराता और अपनी वर्जिश जारी रखता : वजन उठाना या फिर कभी कभी रस्सी कूदना : लाल प्लास्टिक की रस्सी जिसके किनारों पर पीले हैंडिल थे। ठीक सवा सात बजे बाप और बेटा नीचे उतर जाते, पहले पिता जो पीछे मुड़ कर नहीं देखता और उसके पीछे बालक जो आखिरी क्षण एड़ियों पर मुड़ता और माँ की तरफ हाथ हिलाता। बॉय, माँ कहती, और ब्यूटी की आवाज में मैंने सिर्फ यही एक शब्द सुना। बाप और बेटा, जाहिर है, बस स्टैंड जाते थे। और अगले करीब बीस मिनट ब्यूटी न केवल छत पर बल्कि पूरे घर में एकदम अकेली होती, यह समय उसका पूरा अपना था, निर्बाध। पहले मैं इसी वक्त छत पर पहुँचता था, हालाँकि इसके पीछे कोई पूर्वगणना नहीं थी, मात्र संयोग था। इसलिए ब्यूटी की मेरी पहली स्मृतियाँ उस वक्त की थीं जब वह निपट स्वतंत्र और पूर्ण थी। आजकल टीवी चैनलों पर औरतें इस वक्त को 'मेरा वक्त' कहती हैं। मुझे शुरू में अचंभा हुआ कि ब्यूटी के पति के प्रति मेरे मन में लेशभाग भी जलन या द्वेष नहीं पनपा। शास्त्रीय या सामान्य, दोनों ही दृष्टियों से यह बेतुका लगता है। मैं एक शादीशुदा औरत पर नजरें गड़ाए था और उसके आदमी के लिए मेरे जेहन में कोरी उदासीनता के अलावा कुछ नहीं था; बल्कि उसे पहली बार देखने पर एक क्षणिक, निर्लिप्त दया भाव झंकृत हुआ था, वह भी बाद में नदारद हो गया। मेरे लिए यह बेजोड़ सबूत था कि ब्यूटी और मेरे बीच जो कुछ है या होने को है वह इस जमीन का नहीं, वह अलौकिक है। मैं ब्यूटी तक पहुँचने के लिए उसके पति के बीच से निकल सकता हूँ, न उसे आभास होगा न मुझे, हमारे स्तर अलग हैं, हम अलग अलग दुनिया में जी रहे हैं... पर वह ठीकठाक आदमी दिखाई देता था; सभ्य, सुसंस्कृत। ब्यूटी कितने साल की है? यह सवाल न जाने कब और क्यों मेरे मन में घर कर गया। इसमें दो राय नहीं थी कि वह चालीस वर्ष से बड़ी नहीं थी और तीस साल से कम भी नहीं : मतलब वह तीस और कुछ थी। वह इकत्तीस हो सकती थी या उंतालिस और यह इस पर निर्भर था कि शादी किस उम्र में हुई, यह देखते हुए कि लड़का करीब दस साल का था। वह बेहद पुरकशिश उम्र में थी (मेरी आँखों में), स्फुट और छलकल। उसे देख कर मुझे अनायास आँखों के नीचे, गालों पर बहते हुए काजल की याद आती... यह वह उम्र है जब चाहत और जरूरत में पहली बार संतुलन और मेल कायम होता है। अगर युवती की उम्र को हम सफर का रूपक दें तो यह वह अनोखा पड़ाव है जब औरत मन के दर्पण के सबसे निकट पहुँच जाती है, वह आईने में झाँकती है और उसे अपना ही अक्स दिखाई देता है और उसे इत्मीनान हो जाता है...। ब्यूटी का पति मजबूत और गठीला था, काले गुच्छेदार बाल और मूँछ जो होंठों को करीब पूरा ढाँप रही थी। उसका पेट निकला था मगर ढीला या थुलथुल न हो कर ठोस था। उसके हाथ जरूर कठोर और चौड़े होंगे। वह इस इलाके के तमाम दूसरे रहने वालों की तरह दुकानदार या उद्यमी नहीं था। इसलिए क्योंकि उनका सम्मिलित परिवार नहीं था। वे यहाँ के नहीं थे, बाहर से रहने आए थे। मेरा ख्याल था कि इमारत के भूतल पर मालिक का परिवार था और ब्यूटी का पति किरायेदार था। वह डॉक्टर, सीए, वकील, बैंक मैनेजर, कुछ भी हो सकता था। वैसे भी इससे फर्क क्या पड़ता था। काम की बात यह थी कि वह पूरे दिन बाहर होता, इतवार को छोड़ कर, और ब्यूटी घर में रहती थी, पूरी घरवाली। सुबह के अलावा पति बिरले ही छत पर दिखाई देता। अगर वह कभी कभार आता भी तो तुरंत ही चला भी जाता : मानो छत पर उसका कोई दखल नहीं था, न लेना देना, वह यहाँ घुसपैठिया था और यह ब्यूटी की अपनी रियासत थी। यह मेरे लिए बेहतर था। बालक भी छत से दूर दूर ही रहता, इसमें वह बस पिता का भोला अनुसरण कर रहा था। जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
03-12-2019, 04:02 PM
हालाँकि बाप और बेटा छत के गर्भगृह में बिरले ही पहुँचते, उनसे जुड़े सवाल जरूर वहाँ हवा में मँडराते, ये सवाल धूल के भँवर की तरह थे जो ब्यूटी के सिर के ऊपर तैरता लगता। कम से कम मैंने इस तरह सोचा, ब्यूटी के बारे में पता नहीं। इन सवालों की अपनी अहमियत थी और उनके जवाबों की दरकार कभी न कभी बननी ही थी। उस व्यक्ति से मुझे जलन क्यों नहीं थी? कितना ही धुँधला क्यों न सही, जो अपरिहार्य त्रिकोण अब बन रहा था, उसके बारे में ब्यूटी क्या सोचती थी? अपने पुत्रा की छाया में ब्यूटी मुझे किस रूप में स्वीकार कर रही थी? इन सवालों को कुरेदने के लिए मेरे पास अनुभव का कोई भंडार नहीं था। सिर्फ कही कहानियाँ ही मुझे मार्ग दिखला सकती थीं। तो मैं फिर कथा साहित्य के सागर में डुबकियाँ लगाने लगा : मुहब्बत और दीवानेपन का साहित्य; गुनाह और जुदाई का, संताप और वंचना का; दिल-ओ-धड़कन की अंतरंग बेवफाई का साहित्य... यह प्रेम कथाओं की असीम नदी में मेरे मुकुल उद्वेग के बेदाग वस्त्र को भिगोने की तरह था, बार बार भिगोना और बाहर निकाल कर देखना उस पर कौन से रंग और छींटे हैं। और क्या इससे वह पोशाक बनेगी जो पूरी तरह मेरी होगी।
विदेशी साहित्य की जगह कुछ दिन मैंने अपना ध्यान भारतीय कथा संसार की ओर मोड़ा। वह भाषा जिसमें मैं अपना बचपन, मेरे कस्बे के अफसानों को याद करता हूँ। जो भाषा है : भूली यादों और तस्वीरों की, पहलेपहल के तजुर्बों की; एक गहन, घनिष्ठ पारिवारिक जीवन की खुशबुएँ, गीत और अमिट फुसफुसाहटें; भाषा जिसमें मौसम के बदलाव, बादलों की संरचनाएँ, मेरी कुंठा, आशंकाएँ, दुख, सुख, ग्लानि और अव्यक्त भावनाओं की कुंजियाँ हैं। मेरे मकसद तीक्ष्ण और तात्कालिक थे। किताबों के अंदाजन पर माकूल चुनाव में जैसे ब्यूटी का हाथ मुझे राह बतला रहा था। यह कमजोर पक्ष था कि गूगल सर्च का फायदा नहीं था। बहरहाल, मैंने खुद को मामा की लाइब्रेरी की सीमा में बाँध लिया। अंत में जो शार्टलिस्ट बनी उसमें निम्न थे : शेखर जोशी का 'कोसी का घटवार', रेणु की मशहूर 'तीसरी कसम', धर्मवीर भारती का उपन्यास, 'गुनाहों का देवता'; ज्ञानरंजन, अनंतमूर्ति और वासुदेवन नायर की कुछ कहानियाँ। यह अहसास लगातार था कि कहानियों का सरोवर विशाल, बल्कि अनंत है। और भी कृतियाँ और लेखक थे जिन्हें मैंने छुआ, कुछ विचार किया और फिर अलग रख दिया : जिस तरह फोटो में महान आत्माओं के पैर छूते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। महान शास्त्रीय साहित्यकारों का आभास तो हमेशा था ही : कालिदास, जयदेव और मुझे जैसे बोध था कि किन्हीं तन्हा शामों में मैं जरूर मेघदूत का पाठ करूँगा। जिन किताबों का मैंने ऊपर जिक्र किया है, उन्हें मैंने मेज के एक तरफ रख दिया था। इस ख्याल में गजब की स्फूर्ति थी कि किताबों का यह नन्हा सा टीला मेरा कवच था जिसे पहन कर मैं जंग में ब्यूटी का हाथ जीतने के लिए निकल रहा था। पर क्या मैं वास्तव में ब्यूटी का हाथ जीतना चाहता हूँ? आखिर हो क्या रहा है? मार्खेज की कहानी से अभिभूत हो कर मैंने उसका नाम ब्यूटी रख दिया। मैं उसे ताक रहा था, उसके बारे में सोच रहा था। इतना सही था। फिर ये मेज के बाएँ कोने में किताबें थीं। और आखिर में, वे पन्ने जिन्हें मैं लिख रहा था और सोच रहा था यह एक कथा है। तो क्या मैं कथाकार हूँ और ब्यूटी मेरी कहानी की नायिका? या मैं प्रेमी हूँ और ब्यूटी मेरी महबूबा? ब्यूटी थी जिसने मेरी कल्पना, उड़ानों और चाहतों को झंकृत किया था। समस्या यह थी मैं कहाँ खड़ा हूँ? क्या कथा मेरे अनुभव को निर्मित कर रही थी? या यह अनुभव मेरी कहानी का आधार है? और भी खराब, क्या कहानी की रचना के लिए या ब्यूटी का हाथ जीतने के लिए या दोनों मंसूबों के लिए मैं प्रेम और भावावेग का अनुपम साहित्य चुरा रहा था? अगर ऐसा ही है, तो समाधान एकमात्र ही दिखता है : कि कथा और अनुभव यथार्थ का चरम या उत्कर्ष एक साथ हों! पर इस वक्त मैं मात्र गुरोब का कैप पहनने से संतुष्ट नहीं था। आन्ना की छवि में ब्यूटी का सम्मोहन बरकरार था। पर आगे बढ़ने का समय आ गया था। अचानक, तीन दिन के लिए (आज मैं याद करता हूँ यह वक्त अनंत संत्रास का था मानो फुटबॉल के गोल पोस्ट के बीच वेदना के तार खिंचे हैं) मौसम पूरी तरह बदल गया। गर्मी और उमस, हवा मानो फुसफुसाती-सी, और निचले बादल आकाश में टँगे थे, मृत और निश्चेष्ठ। शहर और देश पर एक के बाद एक नए संकट मँडरा रहे थे, इंसान जनित और प्रकृति के कहर। अनेक डर सार्वजनिक कोनों में दुबके थे और उनमें से एक डेंगी का बुखार भी था... दो दिन लगातार ब्यूटी छत पर नहीं आई। यह पहली बार हुआ था। मैं इंतजार करता रहा : न कोई संकेत न लक्षण। ब्यूटी उतनी ही सर्वव्याप्त और गुम हो गई थी जितनी कि बारिश जो बादलों से गिरने को तैयार ही नहीं। बेडरूम के दोनों परदे पूरे वक्त, पूरी ढिठाई से खिंचे रहे। परदों में कोई कंपन नहीं था, न ही पीछे कोई गति। गलियारे की पीली, धूमिल रोशनी दिन में अधिकांश समय जली रहती और रात में, पर किसी मौजूदगी या छाया का नामोनिशान नहीं था। कभी मैं चिंतित होता कभी व्याकुल। तनाव मुझे डसने लगा। कभी एकाएक गुस्सा आता। मैं लगातार चौकसी कर रहा था पर हर जतन के बाद हाथ लगी गहरी, खाली निराशा। पहली बार मुझे अहसास हुआ कि मेरा दिल और आत्मा किस गहराई तक ब्यूटी की इत्तला और लय से जुड़ गए थे। मेरे अस्तित्व का उतार चढ़ाव मानो उसकी साँस में समा गया था। यह साफ हो गया कि यह कोई खेल या परीक्षण नहीं था, और अगर था, तो वह मुझसे कहीं आगे निकल गया था और उसकी अलग अस्मिता बन गई थी। क्या हो सकता है मैंने सोचा? क्या परिवार छुट्टियाँ मनाने निकल गया है, शायद? पर गलियारे की रोशनी, कितनी भी धुँधली, यह इत्तला दे रही थी कि ऐसा नहीं है। हो सकता है पति न हो? या बच्चा बीमार हो? या दोनों। यह मेरी कल्पना के परे था कि ब्यूटी कुछ और हो सकती थी सिवाय ब्यूटी के। उसका छत पर न आना फिर भी बर्दाश्त योग्य था। मेरा तनाव परदों की खामोशी से और ज्यादा खिंच गया था। अचानक वे परदे एक मोटी दीवार की तरह अभेद्य हो गए थे और मेरा जिगर डूबा जा रहा था कि ब्यूटी जो उनके पीछे है, वह मेरे लिए असमाधेय तरीके से खो गई है। कई घंटों तक मैंने विगत हफ्तों के परदों के जादुई करतबों को पुन: जिया : किस तरह वे मुझसे ब्यूटी के अंतरतम की कहानियाँ कहते थे। यह मुझे तरसा रहा था, तड़पा रहा था। परदों की वह भाषा थी जिसे मैंने अपना बना लिया था। मैं जानता था और मेरा विश्वास था कि वह ब्यूटी थी जो दिन और रात में परदे खींचती थी, उन्हें खोलती थी। और इस खुलने बंद होने की क्रिया में, उसकी बुनावट में वह अपने संकेत मुझे भेजती थी। एक खलबल ढेर में चित्र मेरे सामने प्रकट हुए : देर दोपहर, भीतर अँधियारा दोनों परदे इस तरह खिंचे कि दो दरारें दिखाई दे रही थीं। ज्यों ब्यूटी शयनकक्ष के एक कोने से दूसरे तक जाती तो मुझे दिखाई देती, दो क्षणिक तस्वीरें, एकाएक बिजली की कौंध की तरह! शाम का धुँधलका : सामने सिर्फ पतले परदे खिंचे हैं, भीतर झीना प्रकाश जिसमें ब्यूटी को परछाईं अचानक बड़ी होती है और फिर लुप्त...। मैं बरामदे में गोल खाने की टेबिल के निकट बैठ कर परदों की यह सांकेतिक नुमाइश देखता। खाने के बाद मैं वहाँ एक सिगरेट पीता और बरामदे के अँधेरे में मेरी आँखें अधीर व तत्पर रहतीं। ब्यूटी ने कई बार बेहद चालाकी और निपुणता का परिचय दिया। एक शाम उसने परदों में इस तरह दरार बनाई कि मैं उसे ड्रेसिंग टेबिल पर बैठे बस इंच भर देख रहा था, उसकी पीठ मेरी ओर और वह सीधे, लंबे और आरामदेह प्रयास में अपने बाल बना रही थी। वह एक बार भी पीछे नहीं मुड़ी, बस अंत में उठी और परदे ढाँप दिए। परदों में दरारें इस तरह होतीं कि मुझे ब्यूटी का पति बिरले ही दिखाई देता... कभी कभी, लंबा पढ़ने या लिखने के बाद मैं यंत्रवत सा रात में बरामदे में चला आता। एक ऐसी रात, देर हो गई थी, मैंने सीधे बेडरूम की ओर देखा। तभी कमरे की ऊपर की लाइटें बुझ गईं, एक अनदेखे हाथ ने मोटे परदे खोल दिए और मानो इस अनावृति से खुश हो कर सफेद, पारभासी परदे सरसराने लगे, उनका अपना अनोखा संगीत था। कमरे के दो कोनों में बिस्तर किनारे लैंप जल रहे थे, दो डोलते से रोशनी के वृत्त थे। फिर दाईं ओर का प्रकाशवृत्त बुझा। मेरा विश्वास अडिग था यह घेरा पति का था। मैंने सिगरेट जलाई, यह गहन अनुभूति कि सिर्फ ब्यूटी जगी थी। कुछ क्षण गुजरे, कुछ पल फिर कुछ मिनट। जिंदगी इतनी परिष्कृत कभी नहीं थी, आशा और उम्मीद के तारों से जगमग। मैं एक साथ उत्तप्त और प्रशांत था। जैसे किसी शिलालेख पर उभरी हाल की लिपि पढ़ रहा हूँ, मैंने सबूत देखा : कि मैं उसके लिए साँस ले रहा था और वह मेरे लिए। यह उन्निद्र निगरानी साझा थी, यह आपस का अकहा वादा था। उन क्षणों में मैं उसका आभास था, वह मेरी तस्वीर... फिर एक छाया हिली और आगे बढ़ी। विशाल हो गई परछाईं और तब उसने परदे पर एक स्पर्श बनाया। परदे के बीच एक महीन दरार उत्पन्न हो गई थी और उसके पीछे एक नीला अँधेरा था। परछाईं फिर एक बिंदु मात्रा में गुम हो गई और अचानक गहन अँधियारा। इस अँधेरे और निश्चलता को मैंने अपनी हड्डी की गहराइयों में महसूस किया। और मैं ब्यूटी के और निकट आ गया। हवा की उस गंध में मुझे ब्यूटी की साँस की पहचान महसूस हो रही थी मानों वह बस मेरे बगल में बैठी है, चाँदनी रात की मिठास में डूबे दिलबर...। चौथे दिन, सुबह, मैंने ब्यूटी को फिर देखा। हर्ष और उल्लास की लहरें दौड़ पड़ीं मेरे दिल में, तीन दिन की यंत्रणा के बाद एक भार उठता सा लगा और मैं एक वर्णन के परे भावातिरेक से काँप काँप गया। उसके देह प्राण में मुझे गुलाबी कतरे से महसूस हुए, उसकी आँखें और शरीर अतिरिक्त सौंदर्य से दमकते से जान पड़े। जैसे उफान में नदी जिसे नतीजों से कोई भय नहीं, जुदाई की इस अवधि में मेरे आवेग का स्तर उठ गया था... मैंने दो तरह की दुनिया देख ली थी : एक संसार ब्यूटी के बिना जहाँ अँधेरा घिरा था और एक संसार जो ब्यूटी की आभा से प्रकाशमान था। मैं इन दो संसार के बीच कूदा, झूला था और इस छलाँग ने मुझे प्यार की बेसुधी का नया पैमाना दिया। ऐसा लगा कि मेरी भावनाओं की उछाल से ब्यूटी भी उद्वेलित हुई थी और उसने हमारे प्यार की मूल भाषा के स्तर को ऊँचा कर दिया। मैंने ब्यूटी की भंगिमाओं में नई गति देखी और नवीन आत्मीयताएँ : अक्सर, छत पर वह अपने हाथ उठाती और खुले, बहते बालों का जूड़ा बनाती; मेरे ख्याल से प्रभाव को गहरा करने के लिए वह दाँतों में क्लिप दबा लेती। उसकी खुली, सफेद बाँहें एक घुमाव में ऊपर खिंचती और काँख की हल्की, स्याह रंगत दिखाई देती। वहाँ जो स्वेद की अपरिहार्य परत बनी होती, उसकी मृदु गंध, मुझे लगता, मुझ तक आ रही है। रात में, सफेद झीने परदे हल्के से अलग होते (गुलाब की सटी पंखुड़ी की तरह), सिर्फ ब्यूटी की तरफ का लैंप जला होता, और वह कभी कभी कोई कोमल, सुहाना सा गीत चला देती। नम मौन इस तरह का होता, कि गीत का सुरीला स्वर आसानी से मुझ तक पहुँच जाता। और मुझे स्टेनढाल की याद आई जिसने लिखा था कि प्रेम और संगीत की जड़ें एक हैं और वे अव्यक्त को व्यक्त करते हैं... यह मेरी अधिकाधिक कल्पना का धोखा हो सकता है पर मुझे लगता है एक रात ब्यूटी ने झीने परदे की ओट में अपने कपड़े भी उतारे थे। ऐसा नहीं कि मैं उसे देख पा रहा था पर उसे तब पूरा अहसास था कि मैं बरामदे में बैठा हूँ और मेरे नेत्र लगातार परदे के झीनेपन पर दस्तक दे रहे थे। जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
03-12-2019, 04:03 PM
जिन तीन दिनों में ब्यूटी नदारद थी, मैंने उसकी गैरमौजूदगी को उसे उन दो उपन्यासों में ढूँढ़ते हुए पूरा किया जिन्हें मैंने तब पढ़ा : धर्मवीर भारती का गुनाहों का देवता और एमिली ब्रांट का इकलौता नॉवल, 'वुदरिंग हाइट्स'। भारती का उपन्यास, जो करीब चालीस साल पहले छपा था, आज भी लोकप्रिय है और 'वुदरिंग हाइट्स' जिसकी रचना 1847 की है, अनेक अंतरराष्ट्रीय मतदान में दुनिया की सर्वश्रेष्ठ प्रेमकथाओं में शुमार हुआ है। दोबारा सोचने पर लगता है मैं ब्यूटी को ढूँढ़ नहीं रहा था। अपितु मैं इन दो कथानकों में उसके लिए वाजिब जगह तलाश रहा था।
कई घंटे मैं अपनी पीठ के बल ध्यानमग्न लेटा रहा। मेरे सामने एक बड़े स्क्रीन पर ब्यूटी की मेरी गढ़ी तस्वीर थी। और उसके ऊपर एक पतली फिल्म स्ट्रिप चल रही थी जिस पर दोनों नॉवल की नायिकाओं और स्त्री चरित्रों के नाम थे : पम्मी, बिनती, सुधा, गेसु... और इंग्लैंड के कठोर, निर्जन बीहड़ से आकृतियाँ : कैथरीन, उसकी भौजाई इसा बैला, बेटी केथी.. स्ट्रिप रुकी नहीं, चलती रही। मेरी प्रांजल, बहती कल्पना ने चरित्रों को चेहरे प्रदान किए थे, जो जरूर मैग्जीन, फिल्म और बिलबोर्ड की उड़ती यादों से रचे थे... सभी हवाओं से निखरे चेहरे, मैंने सोचा। मुझे लगा कि चलती स्ट्रिप पर मुझे किसी भी जगह उँगली रख देनी है और ब्यूटी वहाँ जगह पा लेगी। ऐसा करने की चाहत बहुतेरी थी पर मैं निश्चेष्ठ रहा और एक जड़, जमे उद्गार से बस देखता रहा। अजीब है पर मैं खुद को हीथक्लिफ या चंदर के रूप में कभी देख न पाया। मैं बस मैं बना रहा। 'वुदरिंग हाइट्स' के संवादों के टुकड़े बारंबार मेरा हृदय छलनी कर देते। जैसे जब कैथरीन, लिंटन से शादी का निश्चय करने के बाद, नैली (ऐलेन डीन) से अपने आकुल, धुँधले दिल का इजहार करती है... 'अगर सब खत्म हो जाता और वो (हीथक्लिफ) रहता, तो मैं फिर भी बनी रहती; और अगर बाकी सब बरकरार रहता और वह नष्ट हो जाता, तो संसार बस एक अजनबी दैत्य है... नैली, मैं हीथक्लिफ हूँ! वह हमेशा, हमेशा मेरे दिलोदिमाग में है : सुख की अनुभूति की तरह नहीं, जो उतनी ही है जो मैं खुद से पाती हूँ, बल्कि मेरा ही अस्तित्व बन कर...।' फिर, जब कैथरीन का अंत निकट था, उसने हीथक्लिफ को बाँहों में भरा और कहा : 'काश मैं तब तक तुम्हें बाँहों में भरे रहती जब तक हम दोनों मर नहीं जाते... मेरी बस इतनी ख्वाहिश है कि हम कभी जुदा न हों; और अगर मेरे शब्द मेरे बाद तुम्हें पीड़ा दें तो सोचना कि जमीन के भीतर मैं भी वही पीड़ा सह रही हूँ, और मेरे लिए, मुझे माफ कर देना...।' नैली एक जगह कहती हैः 'एक क्षण के लिए वे अलग रहे, और फिर वे कब पास आ गए मैं देख भी नहीं पायी, पर कैथरीन ने एक छलाँग ली थी, और उसने (हीथक्लिफ) उसे थामा और वे दोनों एक आलिंगन में जज्ब थे जिससे, मुझे लगा मेरी मालकिन कभी जिंदा रिहा नहीं होगी।' मैंने सोचा : आलिंगन जिससे प्रेमी कभी जिंदा रिहा नहीं हो सकते! ऐसी अंगीकारता को मैं चित्रित भी नहीं कर सकता था, महसूस करना तो दूर की बात थी... सैकड़ों फिल्मों की तस्वीरें जेहन के आईने के सामने घूमती हैं... हजारों कलाकारों और तकनीशियनों की सम्मिलित मेहनत होती है, अपने दशक के श्रेष्ठतम अभिनेता, निर्देशक, संगीत, प्रकाश, परिवेश, रंग संयोजन, मिजाज, ये सब सावधानी से निर्मित, फिर दोबारा, तिबारा, अनेक बार, तब जा कर वह शॉट या फिल्म का टुकड़ा बनता है जो उस क्षणिक, कौंध से और रहस्यमय आलिंगन को पकड़ता है जिसका एकाकी वर्णन ब्रॉन्ट ने किया...। मैं सोच रहा था, मग्न था, चाहत और आकुलता से सराबोर... और चाह रहा था पहुँचना उस उत्कर्ष पर जिसके आगे भावावेग का भी वश नहीं, वह चुक जाता है। और मेरे पास कोई नहीं था, बस ब्यूटी जिसके सहारे मैं ऐसे सपने बुन सकता था। मेरी जिंदगी में कोई नैली नहीं थी और, एक हीरो की जिंदगी की कल्पना करते हुए, मेरा अस्थिर दिल मना रहा था कि एक दिन कोई मिसेज डीन ब्यूटी और मेरे बारे में ऐसी एक कहानी कहेगी... पर अपने दिल की गहराई में मैं जानता था कि मैं हीथक्लिफ या एडगर लिन्टन नहीं हो सकता और ब्यूटी को बुदरिंग हाइट्स के भयावह बीहड़ में स्थापित करना असंभव है। प्रेम के आवेग की ऐसी ऊँचाइयाँ, सबसे ऊँचे पहाड़ों पर फैली धुंध की तरह थीं और यही वजह थी कि मैंने महान, शाश्वत प्रेम कहानियों में कभी तसल्ली या प्रेरणा नहीं तलाशी : रोमियो एंड जूलियट, शीरी फरहाद, हीर राँझा आदि। इसलिए मैंने अपना ध्यान चंदर की अपेक्षाकृत हल्की कहानी पर केंद्रित किया जिसे भारती ने उपन्यास में गुनाहों का देवता कहा है। इतना वाजिब है और संभावनाएँ असीम। पर कहानी में असफल प्रेमोन्माद का वह प्रताप नहीं है जो दूर अतीत की घटनाओं को खँगालने और सुनाने से उत्पन्न होता है। भारती का कथानक पूरी तरह साधारण वर्तमान में स्थित है और घटनाओं के स्थान में वह कठोर उग्रता और नग्न धार नहीं है, जो बुदरिंग हाइट्स के परिवेश में था। फिर भी पाठक उन भावनाओं की चुभन महसूस करता है जो चंदर और उसके संपर्क में आई महिलाओं की जिंदगियों को घेरती है, धुँधलाती है; वे औरतें जो किसी न किसी रूप में चंदर का प्यार, उसकी अस्मिता और चाहतों को अपनाती हैं, भोगती हैं। नॉवल पढ़ना, लेकिन, श्रेष्ठ उन्माद के सागर में तैरने जैसा है, पर भीगने के प्रति अनास्था और वितृष्णा है। मुझे यह दयापूर्ण और कायरता लगी, कि चंदर, सुधा, बिनती, गेसु और किसी स्तर पर पम्मी भी अपनी देह और शरीर की चाहतों के प्रति सहज और अनुरक्त नहीं हैं। मुझे क्षोभ था और द्वेष भी कि भारती सेक्स और दैहिक आकांक्षाओं के विचार से आतंकित से थे। यह नीरस है और प्रपंच कि भारती जी ने देह के मामले में अपनी बुजदिली से पार पाने के लिए नॉवल को प्रेम और कामना की कहानी बताने के बजाय उसे मध्यवर्गीय जीवन की कथा की संज्ञा दी। चंदर और सुधा दोनों अंत तक खुद को झुठलाते रहे कि उनका प्रेम दैहिक संबंध की अनदेखी कर आत्माओं का उच्चतर मिलन है, इस कोशिश में वे चुक गए। यह इस तरह था मानो अपनी आत्माओं को सींचने के लिए उन्हें देह की आहुति देनी थी। कथाकार और उसके चरित्र रति और संसर्ग के प्रति अपने भय से बखूबी वाकिफ हैं और यह भी कि उनका डर निर्मूल और अर्थहीन है। पम्मी के साथ शरीरी प्यार का जश्न मना कर चंदर जरूर अपने दैत्यों का संहार करने की भरसक कोशिश करता है। पर यह प्रयत्न क्षमायाचना ज्यादा थी और अपनी खुद की शर्म और दोष को ढाँपने का निरर्थक प्रयास और आखिर में वह पम्मी का इस्तेमाल ही करता है। नॉवल में बार बार लौटता विषाद घुटन पैदा करता है। ऐंद्रिक ऊर्जा का दमन स्याह धुएँ की तरह था जिसने चंदर और उसकी औरतों के संबंधों में विष भर दिया और कथानक का स्तर एक निचले दर्जे की भावानुभूति पर आ गया, जहाँ प्रेम की असली, पूज्य ऊँचाई पाना संभव नहीं रहा। उनका प्यार, चंदर और सुधा का, कमतर और अधूरा था। उसमें एक विलाप विराजा था, न कि प्यार की स्वर्णिम आभा। इन्सानी फितरतों की असंभव ऊँचाइयाँ पाने की अमानवीय प्यास में वे अपनी जिंदगी के जीने में बौने हो गए थे। फिर भी सब खोया नहीं था। उनके नि:स्वार्थ कृत्यों में काफी कुछ प्रशंसनीय था : उनका समर्पण और निष्ठा; उनकी पीड़ा और त्याग; संशय और ईमानदार नाराजगियाँ; उनकी विफलताएँ और कमियाँ; और कैसे उन्होंने अपनी सहनशक्ति को सदा चुनौती दी ताकि वे प्रेम के उस अनुपम स्वप्न को पा सकें, जो हर प्रेम के आगे है...। इसलिए कहानी ने मुझे छुआ भी, और जुगुप्सा भी जगाई। एक तरफ समृद्ध महसूस करने का जज्बा था, वहीं लुटने का भी आभास। यही भावनाएँ बनी रहीं बल्कि आगे पुख्ता हुईं जब मैंने और भारतीय प्रेमकथाएँ पढ़ीं। कुछ कथाकार मुझे याद हैं, कुछ नहीं। लगभग सभी प्यार की जगह प्यार के रूपकों में आश्रय पाते प्रतीत हुए : अकेलापन और अभाव; घोर उदासी; खोई राहों को पाने की ललक; चाहतें जो पूरी न हो सकीं... वह साँड़ जिसके सींग पकड़ने से वे डरते थे, वह था इंद्रियों की इच्छाएँ, और उसका सीधा स्वरूप : संसर्ग, रति, काम संगीत। यह मनाही और अनिच्छा उन्हें साँड़ को काबू करने के लिए बेवजह के उपायों की ओर ले जाती। इसलिए ऐसी प्रेमकथाओं में व्यंग्य और हास्य का पर्याप्त प्रसाद है; विडंबना और सूखे मजाक का। कोशिश यह कि शरीरी गंध, गुंथन, जलन और ज्वाला और उनके वैभव से किसी तरह ध्यान हटे और इस, अगर निचली नहीं तो, नीचे की हरकत को हम किसी उच्च और श्रेष्ठ स्तर से देखें - जरूर प्रेम और उसकी अभिव्यक्तियों की तरफ संवेदनशील, सावधान और सर्वज्ञानी। यह रोग काफी फैला है। मुझे याद है जब हम कॉलेज में थे, टीनेजर थे, हमारे दो चेहरे थे : एक सेक्स और लड़कियों के बारे में खराब से खराब, खूब से खूब जानता और बतियाता और दूसरा अचंभित चेहरा यह मानने को तैयार नहीं कि भले, परिचित आदमी और औरत, जो शादीशुदा नहीं, वे आपस में स्पर्श या आलिंगन भी कर सकें। यह अब एक परिकथा लगती है पर एक वक्त था जब हमने अपने कस्बे में उन तकनीकों का अनावरण किया जिनके इस्तेमाल से (हमारे अनुसार) फिल्मों में नायक और नायिकाओं को अद्भुत और उत्तेजक नजदीकियों में आलिंगनबद्ध दिखाया जाता था। मूल धारणा यह थी कि हीरो हीरोइन चूँकि हमारी तरह पाक हैं, एक दूसरे को वास्तव में छूते तक नहीं, यह बस फिल्म का कमाल है। हमने बेहद सजीव और आश्चर्यजनक विस्तार से यह बताया किस तरह कैमरा एक के बाद एक हजारों शॉट लेता है ज्यों नायक और नायिका एक दूसरे के निकट आते हैं, यह नाटक है, सच्चाई नहीं, वे एक दूसरे को कभी स्पर्श नहीं करते (यह घिनौना है, पाप है) वे एक दूसरे से मात्रा मिलीमीटर दूर हो सकते हैं, उनके होंठ, बाँहें, सीने और जाँघें, पर वह दरार जितनी दूरी अमिट है। यह फर्क करता है कोरे घिनौने सेक्स को और उसके पाक प्रस्तुतिकरण को। और फिर, हमारा विज्ञान की भाषा से परिपूर्ण आख्यान कहता है कि कैमरा एक तेज स्पीड पर चलता है जिससे आलिंगन या चुंबन का दृष्टिभ्रम पैदा होता है। हमारी विवेकपूर्ण लज्जा इस तरह संतोष पाती है। इसलिए जब हम फिल्म स्क्रीन पर कोई उत्तेजक, काम दृश्य देखते हैं, वह, वस्तुगत रूप में, काम दृश्य नहीं है। इस तरह हमारा कौमार्य गुजरा था...। मैं खुद को चंदर के रूप में नहीं देख पाता था। न कि ब्यूटी का नाम सुधा, बिनती, पम्मी या गेसु है। मैं न खुद को गुनाहगार मान सकता था न देवता। मेरी इच्छा थी मैं आईने में देखूँ और फुसफुसाऊँ : महबूब! बाद में, सालों में, मैंने अक्सर सोचा वह कौन सी ऊर्जा थी जिसने मेरे भीतर ऐसा आवेग, इतनी कल्पनाएँ पैदा कर दीं। मुझे याद है उन दिनों एक व्यक्ति ने अखबार में इंटरव्यू दिया था कि फिदेल कास्त्रो ने अपनी तब तक की जिंदगी में करीब 35000 औरतों से सेक्स संबंध बनाए। मेरे कम्युनिस्ट दिनों में कास्त्रो हमारा नायक, हमारा ईशू था। बाद में मैं सिमीनोन नाम के एक फ्रांसीसी लेखक का समर्पित फैन हो गया। सिमीनोन इतना प्रसिद्ध नहीं पर उसकी एक कल्ट है। वह अद्भुत, वातावरणीय, रहस्यमय उपन्यास लिखता था। अपराध और असामान्य के मनोविज्ञान का वह पारखी था। उसके लेखन की ताकत अद्वितीय थी और अपनी जिंदगी में उसने 200 से ज्यादा नॉवल लिखे। और माना जाता है कि 10,000 से अधिक महिलाओं के साथ सेक्स संबंध किए! अक्सर, लिखते हुए वह वाक्य के बीच में रुक जाता, उसे अधूरा छोड़ वह किसी प्रेमिका के साथ दोपहर बिताने चला जाता। उसे वरदान था। उसके लिए लेखन और रतिक्रिया में मूल फरक नहीं था। वे पूरक थे। अगर बाद में मेरी कोई अभिलाषा रही तो यही थी कि मैं सिमीनोन की तरह एक सौंवा जीवन भी जी सकूँ। सिर्फ इतना : लेखन और प्यार। जिन दगाबाज राहों में मैं अपनी राह काटने की कोशिश कर रहा था, मेरे अतीत ने मुझे उसके लिए कतई तैयार नहीं किया था। यूँ नहीं कि मैं कोरी स्लेट था या भोला कुमार। पर मेरे तजुर्बे का सागर उथला था, उसमें गहराई और लहरें नहीं थीं। इस मामले में जो मेरी सीवी थी, वह एक छोटे कस्बे की सीमित संभावनाओं से आबद्ध और परिभाषित थी। मैं मानता हूँ कि प्रेम और रतिराग का संसार शहर की किस्म से स्वतंत्र है और वह सदा घना और विस्तृत होता है पर मैं उसका भाग कभी बन नहीं पाया। अनुभव के लिहाज से वही परिचित आहें थीं, जानलेवा नजरे इनायत, प्रेम के झूठे अफसाने और प्रेमिकाओं पर घोषित पर न पूरे होने वाले अधिकार। इश्क के विषय पर मर्द दोस्तों के बीच गर्म जोश और तीक्ष्ण वाद विवाद थे और औरत जात के लिए अथक, न मिटने वाली मुहब्बत का इजहार। ये भंगिमाएँ आकाश और हवा में चुंबन तिराने की तरह थीं जिनका कोई ग्राह्य आशिक नहीं था। खूब शायरी होती और प्रेमपीड़ा और जुदाई के गीत संगीत। हम अक्सर वे मजनूँ थे जिनकी कोई लैला नहीं थी। और अगर कहीं लैला थी, तो मजनूँ को काठ मार जाता था। यह बनावटी संसार अंतहीन था और प्रेमाशा की कोई किरण नहीं थी। सफलताएँ कम और कभी कभी की थीं और उनके रूप थे : खामोश शरीरी टोह, अकस्मात चोरी के चुंबन, फिल्मी संवादों का आदान प्रदान और देव वरदान को तरह धधकती रति संसर्ग की एक दोपहर जो शुरू होते ही खत्म भी हो जाती, इतना तनाव और डर होता और यह हैरत कि यहाँ तक पहुँचे कैसे। यह सब नौसिखिया था और इससे कोई तैयारी संभव नहीं थी। पर इस अकालग्रस्त, सूखे पठार में भी ओस के नन्हें चाँदी के कण थे। कम से कम एक वाक्या था, जब मैंने सचमुच पूरे संवेदन और अंतरदृष्टि से स्त्री सौंदर्य के अभिप्राय पर गहन ध्यान लगाया। कॉलेज का पहला साल था और वह मेरे क्लास में थी। आडिटोरियम की तरह इस नए क्लासरूम में छोटी ऊँचाई की सीढ़ियाँ थीं और गहराई में ढलान थी। मैं इस लड़की के दो कतार पीछे कोण में बैठता था, मेरी नजर की लकीर ऊँचाई पर थी। क्लास की मेरी सीट मेरा निजी, गुप्त प्रणय घोंसला बन गया। कोई रुकावट नहीं, पूरी तल्लीनता, मैंने करीब पाँच महीने अपनी अघोषित पर लक्षित महबूबा पर रोज कई घंटे मनन किया। जब तक मैं जान गया, जैसे वो न जानती थी, उसके गले के पिछले हिस्से की आत्मा और भाषा, उसके तनाव और नाड़ियों के जाल और उसकी छितरी लटों, नाक के झुकाव और अधर की रेखाओं में सूक्ष्म नोकझोंक... मुझे लगता है वह मनन अंत में अधूरा ही रहा और अब ब्यूटी ने उस अपूर्णता को खत्म करने के लिए मेरी जिंदगी में पदार्पण किया है। इस तरह मैंने अपनी गरीब प्रेम कहानी में पूर्व निर्धारण की अलौकिक आभा को प्रदीप्त किया। यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं : कि एक दिव्य मनोवेग ने मेरे इर्दगिर्द एक प्रभामंडल रच दिया है और अब मेरा हर कथन और काज उसी के वश में है, दिव्य रोशनी से संचालित है। जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
03-12-2019, 04:03 PM
किसी औरत की देह के स्पर्श और उसके गुणों के रहस्य से मेरी पहलेपहल वाकफियत आदर्श गुमनामी में हुई जहाँ पकड़े जाने या पोल खुलने का लेशमात्र भी भय नहीं था। इस उन्मुक्ति ने ऐसा पापमय, रोमांचक और एकाकी उद्वेग जगाया जिसका कोई सानी नहीं था। शादी और त्यौहारों के अवसर पर परिवार और रिश्तेदारों का उद्दंड और निरंकुश जमावड़ा होता। कालीन, दरियों और गद्दों पर बिस्तर लग जाते, आँगन में, छतों और टेरेस पर जहाँ सफेद तकियों और चादरों से पूरा विस्तार अट जाता। और सोते, उनींदा शरीर होते जिन्हें हर दिशा में और कितनी भी दूर सरकने और लुढ़कने की आजादी होती। वहाँ हर उम्र के दोस्त, दूर और पास के रिश्ते की बहनें, उनकी सखियाँ और आंटियाँ होतीं। मुझे वे लंबी रातें खूब याद हैं जब मेरे हाथ बाहर निकलते और शरीर की कोमल मांसलता को छू कर दंग रह जाते। लुकछिप के, कुहनी, उँगलियाँ, जाँघें और पैर के आकस्मिक स्पर्श और छुअन के बाद, हाथ किसी वक्ष या उदर की सतह पर थम जाता, या घुटने की गर्तिका में, या जाँघ की मुलायम ऊष्मा। खुद अँधेरे में होना, न देख पाना और देखना न चाहना कल्पनाओं को आग देता था। इसके बाद यह फिक्र और उत्सुकता थी : कि पेट है या पीठ, नाभि कहीं नाक का द्वार न हो या जिस वस्त्र के सिरे को तुम घंटे भर से ऊपर खींच रहे हो वह चादर का सिरा है... ब्लाउज के बटन खोलने में लंबे मिनट लगते, हर सफलता के साथ मानो बम भी फटा है; ब्रा के आगे या पीछे की गाँठ से अनोखा संघर्ष, साड़ी की कभी खत्म न होनेवाली लंबाई का त्रास, चूड़ीदार और स्लैक्स के बेरहम तंग सिरे, चेन के पतले धातु के धागे से आरामदेह खेल, अँगूठी का चाँदी का खुरदरा जड़ा, कानों की बाली के बीच में जीभ फँसाने की कोशिश... इन सब जतन में एक निरपेक्ष गति थी जो कि जरूरत पड़ने पर अन्यत्र का अभेद्य सबूत थी... एक छिपकली की तरह जो घंटों एक ही मुद्रा में स्थिर और निश्चल रहती है, उसका पूरा ध्यान अगले कदम पर है। पर पकड़े जाने और बचाव का अवसर कभी आया नहीं और यह भी अपने आप में रहस्य है।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
03-12-2019, 04:04 PM
इस डाँवाडोल स्पर्श की तलाश में मुझे कभी जलालत नहीं उठानी पड़ी। और यह सिर्फ स्पर्श का खेल ही रहा, इसमें आगे जाने की और गुंजाइश नहीं थी। सिर्फ एक या दो वाकये थे जब निमंत्रण और छूने की पहल किसी लड़की या औरत की थी : चूड़ियों की वह खनखनाहट आज भी मैं सुन लेता हूँ। पर इन अनुभवों का यथार्थ कभी बाहर नहीं आया और, कह सकते हैं, एक तरह से वह उन रातों के साथ ही दफन हो गया। कौन कौन था और किसने किसे स्पर्श किया यह राज बस राज था।
मैं अपने कस्बे के उन गिनेचुने जवानों में हूँगा जिसका वास्तव में एक ठीकठाक उत्कट अफेयर हुआ। यह उस वक्त की बात है जब मैं कम्युनिस्ट हो गया था। अफेयर उतनी ही जल्दी और अचानक खत्म भी हो गया जितना यूनियन राजनीति से मेरा जुड़ाव। वाम विचारधारा से जरूर मेरा हमेशा के लिए मोहभंग हो गया पर इस लड़की के प्रति मेरे मन में आज भी दुलार और जिज्ञासा बची है। वह साथी कॉमरेड थी और शहर के एकमात्र लड़कियों के कॉलेज के हॉस्टल में रहती थी। वह हमारे कोर ग्रुप की अकेली महिला सदस्य थी (लेफ्ट यूनियन की संभवतः पहली लड़की सदस्य) और कुछ अज्ञात कारण थे कि दूसरों के बनिस्बत जो ज्यादा निपुण और प्रभावशाली थे, उसका झुकाव मेरी तरफ ज्यादा था। ग्रुप से मेरे निष्कासन के बीज उसी दिन पड़ गए थे जब उसने खुले रूप से मुझे चुना। मैंने वह जगह हस्तगत कर ली थी जो हमारे प्रत्येक कॉमरेड की दिली और दबी ख्वाहिश थी। वह जोखिम लेना जानती थी। वह आक्रामक, स्पष्टवादी और निडर थी। मुझसे कहीं ज्यादा साहसी। उसके समक्ष मैं कतरा कतरा हो जाता, उसके पतले, पर शक्तिशाली हाथों में मैं जेली की तरह था। उसने वह बरसाती खोजी जो उस वीरान, जर्जर इमारत में थी जहाँ हमारा दफ्तर होता था। और वह हमारे रतिरंग का आशियाना था। प्यार का बनाना तय था जिस दिन हम मोर्चा निकालते, घेराव करते या उन तबकों से लोहा लेते जिन्हें वह पतित पूँजीवादी व्यवस्था का स्तंभ बुलाती। अश्लील और भद्दे मजाक से उसे कोई गुरेज नहीं था। वही कहती : तुम्हारा स्तंभ लचर जरूर है वह पतित नहीं! वह बेहद उत्साह और दमखम से मेरी सवारी करती, उसकी ऊर्जा में उतनी ही प्रचुरता जितना वह नारे लगाने में इस्तेमाल करती। वह बेहद पतली थी और होंठ ऐसे थे मानो हजारों मधुमक्खियों ने उनका रसपान किया है। वह सुंदर नहीं तो असुंदर भी नहीं थी। नन्हें, उग्र वक्ष थे उसके, मानो नवजागृत, पर रुपए के सिक्के जैसे उभरे मंडल और लंबे, स्याह स्तनाग्र। पर उसकी कमर थी जो नंगेपन में मुझे सम्मोहित करती थी। कमर इतनी पतली थी कि हैरत होती उसके शरीर का ऊपरी भाग टाँगों और नितंबों से कैसे जुड़ा है। इस तंग सी राह से खून भी कैसे बहता होगा, मैं सोचता। और गुस्से या उन्माद के पलों में मेरा उसकी कमर को दोनों हाथों में भर कर निचोड़ने का मन करता ताकि वह मेरी एक हथेली में समा जाए गर्दन की तरह। हमारे समूह में वह सबसे खामोश और दृढ़ संकल्प थी, हमेशा धीर गंभीर। और मानो इस खामोशी का खामियाजा पाने के लिए वह प्रेम आचार में हद दर्जे की मुखर और उल्लासपूर्ण थी। वह चीख चिल्लाती, हुंकारें भरती, गलियाती और हमारे सभी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दुश्मनों के खिलाफ तान छेड़ देती। बरसाती की दीवारें हमारे क्रांतिकारी नायकों के फोटो और पोस्टरों से अटी थीं : शे और लेनिन से ले कर गदर और चारु मजूमदार। उसकी हथकड़ी जैसी जकड़न के नीचे कैद, मैं एक ऐतिहासिक निश्चयात्मकता की अजीब अनुभूति के साथ रति के उत्कर्ष में फिस्स हो जाता। ज्यों यह सब चलता रहा, मुझे लगने लगा जैसे मैं उत्पीड़ित हूँ : मानो मेरा कायांतरण उस दुश्मन के रूप में हो गया है जिसे मेरी इश्क परी नेस्तनाबूद करना चाहती है। हमारा अफेयर वैसे ही अकारण और अचानक खत्म हो गया जिस तरह वह शुरू हुआ था, जब उसके माता पिता ने उसे घर बुला भेजा। उस वक्त मेरे लिए दोनों घटनाएँ रहस्यपूर्ण थीं : अफेयर की शुरुआत और उसका अंत। यह सब लिखने के क्षणों में भी मैं कभी कभी सोचता क्या मैं असली में कहानी लिख रहा हूँ, या यूँ ही कलम चला रहा हूँ ताकि ब्यूटी को पढ़ कर सुना सकूँ। क्या यह सब ब्यूटी के साथ एक कल्पित संवाद है या उसके समक्ष इकबाल, या यह वास्तव में लेखन की तमन्ना है जिसमें कहानी के कला सिद्धांत अपनाना पहली जरूरत है? यह सब कुछ उलझन भरा था और इस उलझन के घने जंगल में वह सवाल था जिसे मैं लगातार स्थगित कर रहा था। सवाल, जिसमें जोंक की तरह चिपटने का गुण था और खून चूसने का, यह था : मैंने खुद को कहानीकार होने का लाइसेंस और गौरव किस आधार पर प्रदान कर दिया? जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
03-12-2019, 04:04 PM
मेरे पास अपने कस्बाई अखबार का कॉपी इडिटर होने का सवा चार साल का तजुर्बा था : अखबार कहने को दैनिक था पर सप्ताह में दो या तीन बार ही बमुश्किल निकल पाता था। संपादकीय और लेख अक्सर दूसरी जानीमानी मैगजीन या अखबारों के कॉपी होते या भद्दे अनुवाद। और मेरा काम था इस बुद्धिमान गोबर की इडिटिंग, जिसका असल में अर्थ था शुद्धिकरण। इस तरह मैं गंभीर लेखन की परिभाषा से दो स्तर दूर था। हाँ, यह जरूर है कि मेरा संपादक गुणी और बुद्धिमान था, पर अखबारी हुनर में जोकर। मैं ईमानदारी से यह कह सकता हूँ कि इससे पहले मैंने दो कहानियाँ लिखी थीं। पर उन्हें किसी प्रकाशक या साहित्य संपादक के पास भेजने की मुझमें हिम्मत नहीं थी। पर खोटे स्तर की आशंका वजह नहीं थी। अपने लिखे को आँकने के पैमाने मेरे पास नहीं थे। मेरी शंका की वजह दूसरी थी : मेरी कृतियों के पीछे कथाकार बनने का ख्वाब था ही नहीं; वे साधन थे या माध्यम जिनके जरिए मैं अपनी त्रासद स्थितियों (मेरी नजर में) और खराब तकदीर पर लांछन दे रहा था, अपना रोना रो रहा था। यह अंदाजा लगाना कठिन नहीं कि पहली कृति एक बेटे का अपने बाप के प्रति विरोध और विलाप था। पिता का स्वभाव और चरित्र एकदम काले रंग में था और पुत्र में सुर्खाब के पर लगे थे। कथानक मेरे अपने जवानी के संघर्षों की कुटिल हेराफेरी थी। कहानी पढ़ने का अहसास इस तरह था मानो कोई ट्रेन भयावह सीटी बजाती हुई हादसे के मुँह में जा रही थी। दूसरी कहानी 'मैं' के फॉरमेट में लिखी गई थी : एक जवान लड़की का, जो विज्ञान में ठीकठाक स्नातक है, अपनी लियाकत और बुद्धि के लायक नौकरी पाने की अथक कोशिश - यह कहानी एक रोचक, या कहना चाहिए मौलिक, तरीके से लिखी गई थी। लड़के का पिता एक हलवाई पहले और बाद में केटरर है (मतलब नाममात्र का केटरर) लड़का हर संभावित नियोक्ता से अपने परिवार की असलियत और पुश्तैनी काम छिपाता है। कई असफलताओं के बाद लड़के ने एक झूठी विरासत तक ईजाद की और कहा कि उसके बाबा इलाके में पहले केमिस्ट्री के ग्रेजुएट थे... पर हर जगह हार, फिर एक दिन एक नियोक्ता न जाने किस मूड में कहता है कि वह अच्छे केटरर की कमी से बेहद परेशान है, उसे अपनी कई कंपनियों के लिए एक जिम्मेदार और उम्दा केटरर की तलाश है, खास तौर से अगर उसे मिठाइयाँ बनाने की भी तमीज है (नियोक्ता अपने हाथों के लच्छेदार इशारों से गुलाबजामुन, रसमलाई और कलाकंद जैसी मिठाइयाँ दर्शा रहा था, मानो अभी जादू से वे उसके हाथ में होंगी) तब लड़के से रहा न गया और उसने हलवाई, शेफ और केटरर के रूप में अपनी अच्छाइयाँ गिनाईं और विरासत खोल कर रख दी... इस तरह, आखिर में, लड़के ने वही काम लिया जो उसका बाप उसे हाथ में लेने के लिए शुरू से जिद कर रहा था।
जब मैंने ये दो कहानियाँ लिखी थीं तो लेखक होने का कोई विचार मेरे मन में दूर दूर तक नहीं था। सो इस बार क्या अलग है? मेरे भीतर या बाहरी दुनिया में आखिर क्या बदल गया? यह लेखन तो और भी आत्मकथात्मक था। इस कहानी का 'मैं' तो पूरी तरह मैं ही था और अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य को पूरी तरह गड्डमड्ड कर दिया था। पर सवाल पूछे जाने से पहले ही उत्तर मुझे पता था : फरक ब्यूटी थी और उसका बाध्यकारी, सम्मोहक यथार्थ। ब्यूटी ने मुझे आजादी का अहसास कराया और कहानी में और अपनी संकीर्ण, बोझिल जिंदगी में उम्मीद जगाई। यह ऐसा था मानो ढेर सी नन्हीं खिड़कियाँ और दरवाजे मेरे लिए खुल गए हैं जो अब तक बंद थे या वर्जित थे। सुयोग और अच्छे अवसरों के कल्पनाशील संसार में मैं किसी से कम नहीं था। क्योंकि ब्यूटी मेरे साथ थी। वह मेरे साथ थी, मेरे भीतर और बाहर; ऊपर, पीछे, मध्य में, नीचे : जैसे मेरी अपनी साँस या परछाईं। वुदरिंग हाइट्स से अभिभूत, मैं यह भी कह सकता हूँ कि ब्यूटी मैं थी और मैं ब्यूटी। उसने मेरे चारों ओर अपराजेयता की अदृश्य चादर डाल दी। उसका चित्र था जो मेरी गर्दन में लिपटा था, मेरे दिल में था। मुझे लगता जैसे मेरे हाथ में ब्यूटी का हाथ बँधा है और रिश्ते की इस हामी में वह सब है और होगा जिसकी मुझे आकांक्षा और तलाश है। तो क्या, मेरी जुबान तालु से चिपक रही है, ब्यूटी मेरी मूज मेरी कला उपासना है? मेरी खुशी, मेरी सदाबहार तकदीर? हाँ, मैं खुद से फुसफुसाया। और उन क्षणों में मैंने यह माना कि ब्यूटी मेरा प्यार है। एक और महीना गुजर रहा था और मेरी मनोदशा कह रही थी कि मेरी चाहतें मेरे संग हैं। मुझे ज्यादा की लालसा नहीं थी और ज्यादा मेरे पास खुदबखुद था। ब्यूटी का नाम जानने का लालच अचानक एक दिन मेरे दिल में पैने शहतीर की तरह उठा। जैसे मुझे याद है, एक ठंडी, ओस बूँद सुबह थी और मैं जॉगिंग का आखिरी राउंड खत्म कर रहा था। सड़क और पार्क सैर करनेवालों से अटे थे (मेरे ख्याल से शनिवार का दिन था) कई एक लड़कियाँ और औरतें मेहनत से चुने ड्रेस और ट्रैक सूट में दौड़ रही थीं। उनमें से एक, उसने एक लंबी शर्ट और स्लैक्स पहने थे और बाल खुले थे, मेरे बगल में लगभग छूती हुई आगे निकली। एकदम से मेरा उसे पुकारने का मन किया, कि उसके कुछ कहूँ। बाद में, घर लौटते हुए मैंने सोचा कि अगर मैं हिम्मत जुटा भी लेता तो बुलाता कैसे? मैं तो उसका नाम भी नहीं जानता था। तब मानो एक बज्र सा गिरा। मैं ब्यूटी के नाम से भी नावाकिफ था। उसका नाम जानने और पुकारने का ख्याल मिनटों में सनक बन गया। आखिर नाम ही है जो शताब्दियों के अंतराल और सभ्यताओं की दूरियाँ लाँघते हुए इनसान की इनसान से पहचान बनाता है। बहुत जल्दी मैं समझ गया कि यह जतन इतना आसान नहीं है। मैं किसी से पूछने की गलती नहीं कर सकता था, चाहे जितना घुमाफिरा कर सवाल करूँ। छत से इतना पता चलता था कि ब्यूटी का घर एक गली छोड़ कर है और अगर मंडी की साइड से मुड़ते हैं तो दाईं तरफ चौथा या पाँचवाँ मकान होगा। कुछ दिन मैं पूरी तरह इस जद्दोजहद में रम गया। मैंने कई तरह की खरीदारी की जिसके लिए मुझे गली से गुजरने की वाजिब वजह मिली। रास्ते में कई जगह रुक कर, कई बार मैंने लोगों से जानकारी पूछी : दुकानदार जिनका बिजनेस नगण्य था पर अफवाहबाजी के लिए लंबी जीभ और नाक; वृद्ध और बूढ़ी औरतें जो सीढ़ियों पर बैठी दिखतीं या सड़क के किनारे यूँ ही मन बहलाते हुए खड़ी । मैंने इलाके की टोपोग्राफी और दुकानों का खास अध्ययन किया ताकि मेरे सवाल अटपटे न लगें और मैं मोहल्ले का बाशिंदा ही लगूँ। मैंने इस दौरान पोस्ट ऑफिस, ड्राई क्लीनर, दर्जी, मोबाइल रिेपेयर और एक्सिस बैंक के एटीएम का रास्ता पूछा। एक दिक्कत यह थी कि ब्यूटी की गली में कोई दुकान या व्यवसाय नहीं था। तो मेरा तरीका था कि मैं गली की तरफ इशारा करके पूछता कि वहाँ से निकल कर गंतव्य पहुँचा जा सकता है कि नहीं, क्या यह शॉर्ट कट है? ब्यूटी की गली, मैं पहले से जानता, अच्छा शॉर्ट कट है। इस तरह मैंने मोहल्ले वालों से इतनी पहचान बना ली कि उनके मन में मेरे प्रति खास जिज्ञासा या शक की गुंजाइश न रहे। ताकि वे हमेशा यह सोचें : अरे, यह तो फलाँ फलाँ का रिश्तेदार है, आजकल यहाँ रह रहा है; हाँ, हमारी वाकफियत है, सज्जन, घरेलू सा लड़का है। पर ब्यूटी की गली से अनेक बार गुजरने के बाद भी कोई फायदा नहीं हुआ। मेरे ख्याल से मैंने ब्यूटी का मकान चिन्हित कर लिया था। पर उसके सामने ज्यादा देर रुकना नागवार था। बाहरी दीवार पर कोई नेम प्लेट नहीं थे। खुले दरवाजे से बस मुझे एक अँधेरा रास्ता दिखाई देता और सीढ़ियों की शुरुआत, और हर बार एक हल्का सा रोमांच होता जब मैं खुद से कहता ये सीढ़ियाँ ब्यूटी की बाँहों में ले जाती हैं। पर जैसे जैसे दिन गुजरे और बात आगे नहीं बढ़ी, मैं बेचैन होने लगा। मुझे डर लगता कहीं मैं कोई जल्दबाजी न कर बैठूँ और एक क्षण की बदहवासी सारे किए कराए पर पानी फेर सकती है। या इससे भी खराब : मेरी स्थिति उस कहानी के चरित्र की तरह न हो जाए, मुझे धुँधली सी याद है, जो जिंदगी भर अपनी कथित महबूबा के घर की चौकसी करता रहा, और देखते ही देखते बूढ़ा हो गया, उसके दाँत गिर गए, फिर वह मर भी गया। या एक और कहानी : एक युवक अपनी प्रेमिका से दूर चला गया। बरसों बाद वह लौटा। दोनों ने उसी जगह मिलने का फैसला किया जहाँ उन्होंने पहली बार प्यार और जिंदगी भर के साथ की कसमें खाई थीं। वह आदमी समय पर नियत जगह पहुँचा और इंतजार करता रहा। पर उसकी प्रेयसी नहीं आई। रात इतनी गहरी हो गई थी कि जगह एकदम वीरान दिखाई दे रही थी। बस एक उदास, बूढ़ी औरत कुछ दूर एक चट्टान पर निश्चल बैठी थी। शायद अकेली थी, उसका कोई नहीं था। कई घंटे इंतजार करने के बाद वह आदमी भारी मन से लौट गया...। निराशा बढ़ी तो मैंने अभिनव तरीके अपनाए। मैंने कई चिट्ठियाँ लिखीं और उन्हें खुद को कोरियर किया। डबल फायदा यह था कि वे ब्यूटी के नाम उन्मुक्त प्रेमपत्र थे। विचार यह था : कोरियर का आदमी मुझसे नाम, दस्तखत, टेलीफोन नंबर लेगा; मुझे मौका मिलेगा कि मैं पन्ने पलट कर देखूँ शायद ब्यूटी के परिवार या उसके नाम कोई खत हो! फिलहाल मुझे उसके पते का लगभग सही अंदाजा था। इस तरह संभवतः मैं उसका नाम देख सकूँ और उसके अपने हाथ, सुंदर हाथ से किए गए दस्तखत। पर यह योजना विफल रही। इसके पहले मैं कोई जोखिम भरा तरीका अपनाता, सबसे आसान समाधान प्रकट हो गया : एक गुलाब के गुलदस्ते की तरह जिसे खुद ब्यूटी ने भेजा हो : इंटरनेट! पहले मैं उसका पता गूगल कर सकता हूँ। मैंने किया पर नतीजे संतोषजनक नहीं निकले। पर अचानक निर्णायक स्टेप मिल गया : इलेक्ट्रानिक मतदाता सूची! मैंने वेबसाइट खोली, कुछ सर्च की और सफलता सामने थी। परिवार के नाम, साथ में उम्र, स्क्रीन पर थी : पति अशोक आहूजा, उम्र 44, पुत्र ज्ञान आहूजा, उम्र 12 और ब्यूटी - प्रज्ञा आहूजा, उम्र 37 वर्ष। मैंने कुछ देर स्क्रीन को ऐसे ही छोड़ दिया, उसे निहारता रहा, अंतरंगता का अजीब सा अहसास। फिर मैंने एक प्रिंट आउट निकाला। इस तरह था जैसे एक खोज सफल हुई। एक परदा खुला, एक परदा बंद हुआ, पलकों के उठने गिरने की तरह। यह अंत भी था और शुरुआत भी। एक गहरे सुख और सुकून ने मुझे घेर लिया, मानो किसी घाटी में भारी बादल समा गए हैं, घाटी कुछ समय के लिए लुप्त हो जाती है, और फिर दोबारा एक नवीन, नवजागृत प्रकाश पुनः जी उठता है। मैं ब्यूटी को एक नई, पैनी आभा में देख रहा था। वह मानो मेरे और पास आ गई है, मुझसे नजदीक हो कर खिल गई है। मुझे अजीब सा विश्वास हो रहा था कि उसने ही अपना नाम मुझ तक भिजवाया था, मैंने जासूसी कर उसका नाम हासिल नहीं किया था। इस अहसास में मुझे एक अजीब सा गर्व महसूस हुआ (मानो मेरे पास एक जादुई हुनर है) कि मैं ब्यूटी को नाइटी में दो सौ यार्ड दूर एक झलक में पहचान सकता हूँ, पर अगर वह मेरे बगल से कभी निकलती है या कोई मेरा तार्रुफ कराता है तो वह मेरे लिए नितांत अजनबी होगी। सालों बाद मैंने काफ्का द्वारा उसकी प्रेयसी और मंगेतर फेलिस को छः वर्षों की छितरी अवधि में लिखे गए पत्रों की एक किताब पढ़ी : भावपूर्ण अतिरेक में झुलसा विपुल पत्राचार : काफ्का उसे दिन में दो तीन बार तक लिखता और फेलिस भी उसे रोज जवाब देने पर मजबूर थी। उनके मध्य की भावनाएँ, जो उन्हें जोड़तीं, जुदा करतीं, पीड़ा देतीं, उसे मैं ब्यूटी की स्मृतियों के कारण खूब समझता। काफ्का के लिए फेलिस सुरक्षा और घनी अखंडता का दीप स्तंभ थी, एक मौजूदगी जिसे वह प्यार और अनुरक्ति लुटा सकता था और पा सकता था। पर यह सिर्फ दूरी की सुरक्षा में संभव था। बहुत शुरू में, जब उनकी एकमात्र मुलाकात को एक हफ्ता भी नहीं गुजरा था, काफ्का उसे याद करते हुए कह रहा था कि वह शरीर के स्तर पर उसके नजदीक आने की वजह से उससे अलगाव महसूस कर रहा है। काफ्का के लिए लिखने का अर्थ था खुद को अत्यधिक में खोलना... इसलिए लेखन की क्रिया में नितांत अकेलापन भी पूरा नहीं... रात भी पूरी रात नहीं। फेलिस ने एक मर्तबा काफ्का से कहा, हमारा संग निःशर्त है। इस पर काफ्का ने बाद में लिखा कि उसकी ख्वाहिश इससे बड़ी नहीं हो सकती कि वे सदा के लिए एक साथ बँधे हों, मेरे दाएँ हाथ की कलाई और तुम्हारे बाएँ हाथ की... पर इसके साथ ही, वह कहता है, उसने शायद ऐसा इसलिए सोचा क्योंकि एक बार एक आदमी और औरत इसी तरह हाथ में साथ हथकड़ी बँधे फाँसी के तख्ते पर जा रहे थे। दूरी प्रेम का घोंसला है, नजदीकी फंदे की तरफ एक कदम...। जैसे वर्ष गुजरे, ब्यूटी की स्मृतियाँ कम नहीं हुईं, समय ने उन्हें अनेक तरह के जादुई रंग प्रदान कर दिए। मुझे अचरज नहीं होता था कि जब भी मुझे औरत को आंकना होता, मेरा सौंदर्य का माप ब्यूटी थी। ऐसे वक्त ब्यूटी की मौजूदगी स्पर्शगोचर लगती। मुझे पूरे जेहन में लगता कि वह मेरे बगल में खड़ी है और मैं उसी के इशारों पर चल रहा हूँ। वह मेरा ध्रुवतारा थी, तारों की तरह बहुत दूर और अबोध्य, पर फिर भी मेरा प्रकाश और मार्गदर्शक सिद्धांत। और यह तब था जब मैं ब्यूटी से पूरी तरह नावाकिफ था, सिवाय एक अकस्मात और करीब वाकए के। पर यह कोई अजूबा भी नहीं। तीव्र और असाधारण प्रेम, समर्पण और एकात्मकता बड़ी आसानी से युग और दूरियाँ लाँघ लेते हैं। यह सभ्यता की भेंट है। तो अब ब्यूटी का एक नाम था और इस नए जुड़ाव के सुकून में कई दिन गुजर गए। अगर ब्यूटी और मेरे बीच जो घट रहा था, वह एक सफर था, तो सफर जारी रहा। और, जाने अनजाने, हमारे रथ के पहियों के नीचे नए, पुराने पने, तिनगे, घास चिपकते जा रहे थे जिनके साथ दूसरे अफसाने जुड़े थे जो ऐसी बहुत सी यात्राओं के छितरे अवशेष थे। देखना और ताकना चलता रहा। साथ में यह जगमग वासनामय अहसास कि इस प्रयोजन में दोनों की हामी थी। इंजीनियरिंग की भाषा में मेल और फीमेल पुर्जों के खाँचे एकदम फिट कर रहे थे। यिन और येंग का वृत्त बन रहा था। हमारी पृथक जिंदगियों की गहराई पर एक बहकती प्रशांति छा गई थी : एक खामोश निश्चल नदी की सतह की तरह। रोजमर्रा के जीवन का जरूरी विघटन और टकराती ऊर्जा मानो एक अणुगत ढाँचे में कैद हो कर रह गई थी। कुछ वक्त के लिए लगता यह शाश्वत तस्वीर है, कोई तीर ऐसा नहीं जो इस गैरजिम्मेदार और बहकावे की प्रशांति को भेद सके। पर फिर, हर यात्रा में उसका अंत सन्निहित है। जल्दी, एक भरी और स्थूल शिथिलता मेरे शरीर और जेहन के हर भाग में समाने लगी। मैंने पाया मेरा वजन बढ़ गया है, मेरी त्वचा पर चिकनाई की एक नई परत उभर आई थी और सुबह के वक्त मेरे शरीर में प्यारा सा दर्द होता, सिर्फ शरीर की तरफ ध्यान आकर्षित करने के लिए। छोटे, निरर्थक काज मुझे व्यस्त रखते और मुझे उनमें एक अजीब सा, खाली सुकून मिलता। मुझे हर चीज में, शून्यता में भी, आनंद और अच्छाई महसूस होती। पर, मुझे कहना होगा, मैं बेहद हसीन और ऐंद्रिक तरीके से संतुष्ट था। बाद में ऐसा अनुभव मुझे कभी नहीं हुआ। मंथर गति : मेरा अभ्यास और शौक और उत्सव बन गया। एक खाने के शौकीन की तरह, जो कितने प्रेम से मांस से मछली की महीन हड्डियाँ हटाता है, मैंने अपने कामदेव के बगीचे से आशंका, अपूर्ण चाहतों और कुंठाओं के काँटे मनोयोग से दूर किए। यह आत्म नियंत्रण और वंचना का अनोखा करतब था, कि जितना था उसी के रस से मैं परिपूर्ण था। मेरी कामनाओं की सूची में इंद्राज खत्म से हो गए थे। कामुकता के इस कटेछँटे खेल में, जैसे गहरे समुद्र पर तैरती एक छोटी, निरीह नाव, मुझे अब चिंता नहीं थी मैं कहाँ हूँ, कहाँ जा रहा हूँ। मैं आत्मलिप्त और विभोर था। ब्यूटी की तस्वीर में, छत वाली औरत, नाइटीवाली महिला, असल, संभव और अरमानों के संसार एकमेक हो गए थे। मंथर गति और तृप्ति मेरे भाव, स्वभाव और अंग के हर पोर में विदित थी और यह आप मेरे लेखन में भी देख रहे हैं। मेरा पढ़ना बदस्तूर जारी रहा। उसकी गति बन रही। मैंने शेखर जोशी की एक कहानी, कोसी का घटवार पढ़ी। इन्हीं दिनों मैंने मेघदूत भी निकाला। काव्य की अनेक पंक्तियाँ मुझे बेहद प्रिय हो गईं, हर पंक्ति के बाद मानो ब्यूटी की एक तस्वीर थी। इस तरह, एक तरीके से, कालिदास सीधे ब्यूटी का वर्णन कर रहे थे। फिर मैंने मार्खेज का एक नॉवल उठाया : 'लव इन द टाइम ऑफ कॉलेरा (हैजा के दिनों में प्यार) और उसे ऐसे अंधे, मग्न चाव से पढ़ा कि समझ और समावेश की गुंजाइश कम थी। पर कथा में ऐसी ऊर्जा और ओज थी कि मैं प्रेम के ऐसे धरातल पर पहुँचा जो नूतन और वर्णन के परे था। मेरा दिल और आत्मा बेकस भावनाओं के भँवर में बह गया, वे अजनबी उद्गार जैसे मेरे खून और शरीर के थे, मेरी धमनियों में प्रवाहित थे पर मेरे पास बुद्धि, अनुभव और कल्पना के वे औजार नहीं थे कि मैं उन्हें सच्चे मायने में आत्मसात कर सकूँ, उन्हें नाम दे कर अपना खुद का बना सकूँ। सालों बाद यह किताब मैंने फिर पढ़ी। ऐसी कृतियाँ संभवत: पाँच सौ वर्षों में एक बार आती हैं। जरूर अच्छे और बेहतरीन उपन्यास प्रचुर हैं जो तुम्हें एक नया दृष्टिकोण, नई दिशा देते हैं; ऐसे तथ्य और अनुभवों की दुनिया में ले जाते हैं जो नूतन हैं। पर मार्खेज को पढ़ना उसका निर्दयी उद्घाटन है जिसे तुम पहले से जानते हो, जिसे देखा और भोगा है पर जिसने तुम्हारी चेतना से छल कर दिया है। उसे पढ़ते हुए यह बोध अटूट है कि उसका हर वाक्य मानो उसने तुम्हारे दिल के किसी गहरे, शब्दहीन कोने से चुराया है। यह बोध बना रहता है और आखिर में यह मूर्छा सी निश्चितता है कि तुम कोई उपन्यास नहीं पढ़ रहे, तुम खुद एक कहानी सुना रहे हो, जो पूरी तरह तुम्हारी है। हर व्यक्ति ब्रह्मांड है : मार्खेज फुसफुसाता सा सुनाई देता है। और हर पाठक के लिए मार्खेज का कथानक, उसकी अपनी निजी कथा बन जाता है... यह फरक करता है मार्खेज और महाकाव्यों की दूसरी बेहतरीन कृतियों से। 'लव इन द टाइम ऑफ कॉलेरा' में, सबसे ज्यादा मैं इसी गुण से चकित रहा... डॉक्टर जुविनाल अरबीनो और फरमीना डाजा और फ्लोरेन्टीनो अरोजा की कहानी मेरी अपनी भी थी, ऐसा होना ही था, मेरे जेहन में और पूरे जहान में और इसी तरह वह ब्यूटी की जिंदगी, और अन्य लोगों की जिंदगियाँ, जिन्हें मैं जानता था या नहीं जानता था, चित्रित और प्रतिबिंबित कर रही थीं... मार्खेज ने सिर्फ इतना ही किया था कि उसने हमारे जीवन के नन्हें, छितरे, भूले और छूटे धागों को दोबारा से जोड़ दिया था और उस पर संसक्ति और अर्थवत्ता की जादुई छड़ी घुमा दी थी। और इस तरह मार्खेज ने, इस महान उपन्यास में, प्रेम के बारे में हर जड़ दकियानूसियत को उल्टा खड़ा कर दिया और उसे अपने शुद्ध, मौलिक रूप में सामने रखा जब वह रूप जड़ नहीं था और इस तरह वह हमें उस भूमि में ले गया जहाँ पहला प्रेम पहली बार अंकुरित हुआ था...। लाखों पिक्चर पोस्टकार्ड प्रेम को इस तस्वीर को दोहराते हैं : शांत, असीमित सागर के ऊपर सुनहरी भोर की दस्तक; क्षितिज की ओर बढ़ती एक नन्हीं पाल नाव; और हाथ में हाथ डाले प्रेमी, शाश्वत प्रेम के सपनों में डूबे। हर साल न जाने इन कार्डों का कितना वजन नष्ट होने के साइकलिंग प्लांट में जाता है : ताकि फिर से हूबहू सालाना यात्रा शुरू हो। मार्खेज के इस उपन्यास का अकेला सच इस जड़ तस्वीर का पुन: आविष्कार था। और मार्खेज ने इस असंभव कृत्य को अस्सी बरस के अरीजा और 76 बरस की फरमीना के स्मर्णीय प्रेम से अंजाम दिया। चमत्कार यह था कि यह कोई तकदीर का असाधारण खेल नहीं था; यह बेहद आसान और विश्वसनीय था। मैं मुस्करा दिया और मुझे यह आभास था कि यही मुस्कराहट मेरे चेहरे पर बरसों पहले आई थी। फरक इतना ही था कि हाल की मुस्कान इतने सालों की दूरी और बीत गई जिंदगी के बोझ से दबी थी। सिर्फ एक ही अहसास था जो हूबहू वही रहा जो पहले और हमेशा था : वह थी नाइटी में ब्यूटी की तस्वीर! एक नजदीकी स्पष्टता से अब मैं देख पाता हूँ कि उन तीन चार महीनों में मुझ पर प्रेम का जुनून सवार हो गया था। जुनून ब्यूटी का भी था। और इन दो समीकरणों को मिलाने से कथ्य बना कि ब्यूटी प्यार है और प्यार ब्यूटी : दोनों अविभाज्व एकरूप। यह अभिन्नता मेरे भावोन्माद का तत्व था। इसका अर्थ एक मायने में यही हुआ कि मैं ब्यूटी को दिलोजान से चाहता था। पर यह व्याख्या मेरे मस्तिष्क में तब ठीक से कभी स्थापित नहीं हुई। छत की हमारी प्रणयलीला अपनी गति से चलती रही : न कमतर हुई, न तेज। उसका एक कठोर, सुनिश्चित पथ था और उसके नियम मानो गुलाब के पत्तों से स्थायी रूप से रचे गए थे। उन आँखों के लिए, जो अनश्वर प्रेम के बादलों में धूमिल थीं, मिलिट्री तैयारी की अनभ्यता और एक भावपूर्ण राग के मधुर स्वर में खास फरक नहीं है। तानाशाह अक्सर सबसे भावप्रणव होते हैं। जैसे दिन गुजरे, मेरी चौकसी और इश्कजोरी में एक भावुक मार्मिकता के डोरे तिरने लगे। मैं इस तरह व्यवहार करने लगा मानो यह सब नियत है और दैवयोग ने मुझे चुन लिया है। मैं खुद को दो तस्वीरों में देखने लगा : एक जो इश्क फरमा रही थी और दूसरी जिसने मुहब्बत का कँटीला ताज पहना था। मौसम अचानक खुश्क और ठंडा हो गया था और सर्दियाँ देहरी तक आ गईं थी। अक्सर, सुबह और शाम, मैं एक शॉल कंधों पर डाल लेता। और स्वमेव, मानो कोई अन्य शक्ति मुझे संचालित कर रही थी, मेरे कंधे हल्के से झुक जाते और विषाद के अदृश्य धूल कण मुझ पर गिरने लगते। फिर मुझे अजीब सा ख्याल आता कि दो कोमल पंजे, एक पर उदासी का लेप और दूसरे में मुग्ध, कोमल प्रेम की थपकी, मेरे दिल में अगल बगल मौजूद हैं। अनायास मेरी आँखें आकाश में इंद्रधनुष तलाशतीं : धूप में भीगी पानी की फुहार। इस तरह मैं खुश भी होता और उदास भी जिसका मतलब यह भी था कि न मैं खुश था न उदास। पर इसमें शक नहीं था कि मनःस्थितियों का इंद्रधनुष ब्यूटी थी और उस पर न शॉल था न कोई आवरण, उसने बस नाइटी पहनी थी और हमारे साझे राज में नाइटी में ब्यूटी वैसी ही थी जैसी निर्वस्त्र ब्यूटी, दोनों में कोई फरक नहीं था। आवेग के ऐसे उद्गार कभी कभी आते और क्षणिक होते और जल्दी ही मैं अपनी इकसार, नीरव मनोदशा में लौट जाता। निरंतर और गाढ़े पड़ने से तनाव और थकान पैदा हो रही थी, उसे मैंने फिल्मों और सिने संगीत से हल्का किया। इनके लिए भी मामा की लाइब्रेरी खान साबित हुईं। मेरा समग्र ध्यान रूमानियत पर ठहरा था। मैंने अनेक मशहूर हॉलीवुड फिल्मों को पहली बार और दोबारा देखा जिनके बेहद लुभावने टाइटिल थे : एन अफेयर टू रिमेंबर, लव इज अ मैनी स्प्लेन्डर्ड थिंग, द वे वी वर, इट हैपिन्ड वन नाइट वगैरह, मेरी प्रिय फिल्म थी ब्रीफ एनकाउंटर का दूसरा संस्करण जिसमें सोफिया लॉरेन और रिचर्ड बर्टन थे। जिन हिंदी फिल्मों को मैंने देखा उनमें राजकपूर, दिलीप कुमार और गुरुदन प्रमुख थे। मैंने बाजार से एक राजकपूर और नरगिस का पोस्टर खरीदा और उसे दीवार पर इस तरह लगाया कि सुबह सबसे पहले वही दिखता। और हिंदी के फिल्मी गाने! रात भर वे चलते रहते, मैं सो भी जाता और न जाने कितनी शामें और रातें थीं जब मैं दिल थाम लेता, मुझे लगता कि ब्यूटी अँधेरे में यहीं है, मेरे पास, और हम दोनों हैं जो एक दूसरे के लिए गा रहे हैं। न जाने कितनी जान, अनजान फिल्मों के भूले, पहचाने गीतों के बोल, अंतरे मेरे जेहन में गहन बवंडर की तरह उमड़ने लगे : तेरे बिना जिंदगी से कोई, शिकवा तो नहीं तेरे बिना जिंदगी भी लेकिन, जिंदगी तो नहीं मेरे अंग अंग, पोर पोर से ये बोल इस तरह निकल रहे थे ज्यों बारिश के दिनों में, या अकारण ही, कीड़े, कीट, पतंगों का हुजूम, चीटिंयों की कतारें न जाने किन छेदों और बिलों से बाहर निकल पड़ती हैं, उनका न आदि न अंत : तेरे मेरे सपने अब एक रंग हैं जहाँ भी ले जाएँ राहें हम संग हैं ऐसे गीत, ऐसे बोल जिन्हें न जाने मैंने कभी सुना, गाया भी था या नहीं पर जो मेरे मन के बंदरगाह में फिर भी लंगर डाल रहे थे : दिन ढल जाए हाय रात न जाए तू तो न आए तेरी याद सताए एक माँ की आरती और प्रार्थनाएँ थीं और दूसरे हजारों फिल्मों के हजारों गीत जो शायद आजन्म मेरी मन श्रुति के सच्चे नायक थे : वक्त ने किया क्या हसीं सितम तुम रहे न तुम हम रहे न हम और अचंभा यह था कि फूहड़ और संजीदे से संजीदे गीत ब्यूटी की टिमटिमाती तस्वीर के साथ इस तरह अंतरंग थे मानो उसके लिए हों, सिर्फ उसके हों : न हम तुम्हें जानें न तुम हमें जानो मगर लगता है कुछ ऐसा मेरा हमदम मिल गया एकदम लकड़ी सा प्रहार करती पंक्तियाँ, उनमें भी मुझे गहन, पारंगत अर्थ प्रतीत हो रहा था : हमें तुमसे प्यार कितना ये हम नहीं जानते पर जी नहीं सकते तुम्हारे बिना जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
03-12-2019, 04:04 PM
अब जो उन स्मृतियों को याद करता हूँ, ऐसे शब्द : सितम, सनम, खफा, फिजा, फना, रुसवा... जो गीतों के अलावा कहीं सुनाई नहीं देते, तो नए पुराने गीत आपस में इस तरह गड्मड् हो गए हैं कि बीसवीं शताब्दी के बहुत से गाने भी मैं ब्यूटी से जोड़ देता हूँ :
जरा सी दिल में दे जगह तू जरा सा अपना ले बना जरा सा ख्वाबों में सजा तू जरा सा यादों में बसा मैं चाहूँ तुझको मेरी जाँ बेपनाह फिदा हूँ तुझपे मेरी जाँ बेपनाह प्रेम या कल्पित प्रेम एकमात्र वह अवस्था है जो कला के हर सिद्धांत को ठेंगा दिखाती है! इन क्रियाओं में कोई जोर जबरदस्ती नहीं थी, बस कभी कभी लगता मानो मैं कोई पुरातन, संदिग्ध खजाना तलाश रहा हूँ; इस सब में मेरी अवस्था कुछ ऐसी थी जिसे स्टेनढाल ने इन शब्दों में वर्णित किया है : मुझे निरंतर यह डर सताता है कि जब मैंने सोचा मैं कोई चिरंतन सत्य कह रहा हूँ, मैंने शायद सिर्फ एक आह भरी होगी! बरसों बाद जब मैं इस 'संक्षिप्त मिलन' का हास्य रूप भी देखने में कामयाब हुआ, मुझे लगा उन दिनों मेरी सूरत, सीरत और गतियाँ एक हाल की गर्भवती औरत की तरह थीं : गर्भ की जानकारी सिर्फ ब्यूटी को थी और वह इस राज से मुदित थी... मेरे लिए गर्भधारण एक गलत अलार्म था और एक सही निदान। वस्तुगत और सूखे तार्किक दिमागों के लिए वह मिथ्या थी पर प्रेम में डूबी आँखों के लिए वह सत्य से ज्यादा सच थी। एक के बाद एक दिन लुढ़कते गए, सिर्फ एक दिन की स्मृति विडंबनाओं से भरी छाप छोड़ गई। वह अकेला दृष्टांत था जब मैंने ब्यूटी को नाइटी में नहीं देखा (कुछ ठंडी सुबहें थीं जब ब्यूटी ने फिरन भी पहना था, पर डिजाइन और गिरावट में वह नाइटी से भिन्न नहीं था)... एक रात की बात है जब मैं अचानक छत पर जा पहुँचा। एक भव्य, सुर्ख, लाल, जरीदार साड़ी में वहाँ ब्यूटी थी, हाथ में चूड़ियाँ और ऐसी भंगिमा जिससे लगा वह गहनों से लदी है : गहने जो नजर नहीं आ रहे थे पर जिनका भारीपन उसके चपल कदमों में गुँथा था। छत की कतारों के पीछे, क्षितिज से थोड़ा ऊपर, पर इतना पास कि हाथ बढ़ा कर उसे छू सको, ऐसा पूरा, गुलाबी चाँद नीले, निश्चल आकाश में टँगा था। अब ब्यूटी की पीठ मेरी ओर थी और हम दोनों की नजरें बेदाग, बे आहट महताब के इकलौते, सिफर बिंदु पर एकमुश्त, एक साथ टिकी थीं।... चौदहवीं का चाँद हो या आफताब हो, जो भी हो तुम खुदा की कसम लाजवाब हो - ये लाइनें देर रात मेरे जेहन में घूमीं। सीमेंट की मुँडेर पर एक थाली थी जिसमें एक नन्हा दीप टिमटिमा रहा था। ब्यूटी का एक हाथ आकाश में उठा और उस हाथ में एक छलनी थी जो चाँदी की तरह चमक रही थी। धड़कते दिल से, अपने कस्बे की धुँधली यादों के मध्य, मैं जान गया यह करवाचौथ का दिन है। कुछ ही क्षणों में हम इस तरह थे कि एक स्वर्गिक दिग्भेद के साथ, हम छलनी के छेदों से चाँद को एक साथ देख रहे थे और चाँद की नजरों में, इसके अलावा सब निरर्थक ही था, हम साथ साथ थे, गाल से सटे गाल... और फिर पीछे मेरी परछाईं के स्पष्ट अहसास के साथ ब्यूटी ने थाली की चीजें अपने सिर के ऊपर से पीछे फेंकी और मेरी निगाह एक अकेली पंखुरी पर बँध गई जो बेहद धीमे से, एक लय में आबद्ध, छत से नीचे गिर रही थी और कुछ देर में गली की निर्जन खामोशी में गुम हो गई। हाथ की अंजुलि बना कर, जिसमें कोई पंखुरी नहीं गिरी थी, मैं सीढ़ियों से उतरता हुआ अपने कमरे में आ गया, मेरे जेहन में जो भावनाएँ थीं उनका कोई नाम मेरे पास नहीं था। अगले कुछ दिनों में मुझे ऐसा प्रतीत होने लगा कि मैं ब्यूटी को निगाह और इंद्रियों से कम जज्ब कर रहा हूँ और उसके बारे में संश्लिष्ट रूप से ज्यादा सोच रहा हूँ। सीधे और सरल शब्दों में, मेरा ध्यान उसके शरीर से आत्मा की ओर जा रहा था। इस बदलाव का एक और पहलू भी था : विशिष्ट (और एकल) से सामान्य (और बहु) की ओर शिफ्ट। तात्कालिक ऐंद्रिक सुख और फिर उनकी स्मृतियाँ धीरे धीरे कमतर और धुँधली होती गईं और आखिर में यह अनुभव मानो एक अमूर्त जीवंतता हो गया। शरीर की प्रतिरोधी और खलबल रेखाएँ, वक्षों की हेठी, देह की भेदभरी तरंगें, जाँघों, नितंबों के दीर्घ और लंबित संदेश, कमर की दम तोड़ती आहें... ये सब इत्तलाएँ, तप्त साँसों के गोपन अँधेरे मानो एक प्रकीर्ण और फुटकर कड़ाहे में गड्मड् हो गए और सारी दिलचस्पी धीरे धीरे इस कड़ाही के आकार और गुणों पर केंद्रित हो गई। ऐसा नहीं था कि मेरी सनक या मेरे प्यार या आवेश के रहस्यमय लक्षणों में कमी आ गई थी। इतना ही था कि रूप और अभिव्यक्ति बदल गए थे। देह और मांसलता, उनके अभीपने और सम्मोहन ठंडे और गैर प्रासंगिक होने लगे और मेरा ध्यान उस तरफ मुड़ने लगा जो संबंधित था पर फरक भी। शरीर मानो निस्सार हो गया और ब्यूटी एक अशरीरी जुगनू बन गई।... शुरू में बस शरीर पाने की सरल सी लालसा थी, पर अब मैंने पैमाना ऊँचा किया और शरीर की जगह वह पाने की तमन्ना की जो अप्राप्त है, जिसके कई नाम हैं, जो घंटियों के स्वर और लोबान की सुगंध से जुड़ा है, पर जिसकी कोई एकाकी पहचान नहीं। यह सिलसिला और आगे बढ़ा। मेरी दहकती चाहतें अब आत्मा और निराकार की खूबसूरती से सौंदर्य के ख्याल और प्रेम के ख्याल पर जा टिकीं। शुद्ध, पोटली में कैद ख्याल! मैं समानांतर आईनों के एक गलियारे में जा घुसा था और तत्काल अनंत परावर्तन की नामुमकिनी का शिकार बन गया : इश्क के ख्याल का ख्याल और खूबसूरती की बुनियाद की बुनियाद। अनजाने ही मैं एक अधि स्थिति में पहुँच गया था और जिन प्रकारों में मैं विचरण कर रहा था वे अधि प्रेम और अधि सौंदर्य सरीखे थे। इसके अनसोचे नतीजे तत्काल और व्यवहारिक थे। इससे पहले प्यार की 'दुर्घटना' घटित हो, तबाही हो गई और मेरा दाखिला ऐसे अस्पताल में हो गया जहाँ रोगी प्रेमोन्माद के बाण से पीड़ित थे, सफल या असफल। मैंने प्रेम की हर दशा को अपने ऊपर लागू किया : एक तरफ सदा का दुखांत और दूसरी तरफ हमेशा की कॉमेडी और बीच में कहीं प्यार का मधुर गीत। मेरे कल्पना के घोड़ों ने उन सभी फिल्मों की जुगाली की जिन्हें मैं देख रहा था; किताबें जो मैं पढ़ रहा था। एक दिन मैं राजकपूर था जिसके हाथ में मरते हुए राजेंद्र कुमार ने वैजयंती माला का हाथ थमा दिया; किसी और दिन मैं गुरुदत्त की पीड़ा वहन कर रहा था जो वहीदा रहमान की अपराजेय खूबसूरती को छोड़ अपनी निदेशक की जंग लगी कुर्सी में मृत्यु पाने चला गया। देवदास के अनेक संस्करण उतने ही परिचित और नजदीक थे जितना दू्रवाले बेडरूम की खड़खड़ाती खिड़कियाँ : सबसे ज्यादा दिलीप कुमार की देवदास, त्रासदी का बादशाह। मैंने न जाने कितनी बार मृत्यु और पुनर्जन्म के बारे में सोचते हुए मेरी पसंदीदा फिल्मी हीरोइनों के लिए कुर्बानी दी : हेमामालिनी, सिमी गरेवाल, रेखा, मुमताज... पर उससे भी ज्यादा मजा था मोटर साइकिल चलाते हुए पहाड़ी से उफनती नदी में छलाँग : जैसे डिंपल कपाड़िया और रिशी कपूर ने बॉबी में किया था (क्या यह स्मृति सही थी, फिल्म बॉबी थी या कोई और?) मैंने गुसांई की पीड़ा वहन की ज्यों वह अपनी जिंदगी की साँझ में आटे के सफेद, उड़ते कणों को देखता रहता। अपने मस्तिष्क के घटवार में मैंने उदास, अकेली ओट में ब्यूटी को देखा, बरसों बाद, जिंदगी की क्रूरता ने उसे पीस दिया था, और हालाँकि मैं खूब चाहता था वह मेरी छाती की परछाईं में आराम करे, हम अपरिचित से अपने अपने रास्ते को जाने के लिए बाध्य थे। पर आखिर एक अकेले खूँटे पर कितना बोझ लादा जा सकता है चाहे वह प्रेम के सीमेंट से क्यों न मजबूत हो? नाउम्मीदी की गुफा या जन्नत की सैर कभी अंतहीन नहीं होती। अगर मुझे इसका अहसास नहीं भी था, दादी नानी की ये उक्तियाँ इस भेंट पर भी पत्थर की लकीर की तरह लागू थीं : हमारी लीला या याराना जिसे तीन महीने पूरे हो गए थे और चौथा शुरू हो रहा था। अंत तो आना ही था और वह आया। मुझे नहीं ज्ञान कि यह अंत इस अफेयर की त्वचा में पहले से सिला था या नहीं। पर ज्यादा अनोखा यह था कि मेरी अतिरेकपूर्ण और अलौकिक कल्पना के बावजूद भी, जिस तरह इस वाकए का पटाक्षेप हुआ, उसकी मैंने कभी अपेक्षा नहीं की थी। अपनी भावनाओं के ज्वर और नशे के अधीन, मैंने न जाने कितने सीनारियो बुने थे कि परदा कैसे गिरेगा : सर्वाधिक भयावंत और नीरस से ले कर बेहद जादुई और गौरवशाली। वास्तविक अंत न केवल इस कल्पनालोक से विलग था, उसने एक अलग राह बनाई और नतीजे नितांत आश्चर्यजनक और अनपेक्षित थे। समय के साथ, लेकिन, अंत के बारे में मैंने अपना नजरिया बदला। अभिनव वह नहीं था जो असल में घटा। बल्कि आश्चर्य प्रकट को अनदेखा करने का था। वह कैसी अजीब दशा थी कि मैं नतीजे की संभावना से आखिर तक मुकरा रहा। यह गलती इतनी मूल और प्रमुख थी कि आज भी मैं लज्जित महसूस करता हूँ। ईमानदारी की नापतोल से कहूँ तो आखिर में जो हुआ वह मेरी आकांक्षाओं से कहीं ज्यादा था। पर इन मामलों में नापतोल एक स्थूल और बेढब तरीका है। एक सम्मोहक सपने और एक यातनामय दुःस्वप्न का अजब संयोग था वो। मैं तैरता हुआ किनारे आ गया था पर फिर भी यह अहसास सर्वोपरि था कि मैं गहरे समुद्र की घनी लताओं में उलझा हूँ। मैं भरपूर था और अभागा, आगोश की संपूर्णता में तिरस्कार की कतरनें थीं। यह सब एक साथ हुआ, एक जो प्रहार भी था मुलायम स्पर्श भी, एक साथ का आदानप्रदान, जिसने मुझे पूरा किया और एक गहरा खालीपन छोड़ दिया। उस निर्णायक, शानदार, रहस्यमय हते में मानो मेरा दोबारा जन्म हुआ। कुछ मायनों में वह निर्दोषता का समापन था और नवजीवित सयानेपन की शुरुआत। वैसी शुद्ध और सृजनात्मक निष्व्यिता, शून्य से कुछ सृजन करने का खुशनुमा जादू, ऐसा वक्त मेरी जिंदगी में फिर नहीं आया। यह कहानी कभी न लिखी जाती, और वे पन्ने जिन्हें मैंने मामा के मकान में तब लिखा था (आज मामा, मामी दोनों नहीं हैं, मकान बिक गया, ढह गया, अब सुनता हूँ, वहाँ एक नया फ्लोर हाउस है; कालांतर में मामा का मेरे प्रति अनुराग इतना हो गया था कि उन्होंने अपनी लाइब्रेरी मेरे नाम लिख दी, वे सारी किताबें मुझे सामने दीख रही हैं) वे भी चूहों के ग्रास बन गई होतीं, अगर मेरा एक मित्र पिछले साल गणतंत्र दिवस के दूसरे दिन मेरे घर न आया होता। मित्र मुझसे उम्र में एक साल बड़ा है और कद में एक इंच छोटा : कद मतलब भौतिक कद। साहित्य हमारी दोस्ती की खुराक थी पर हम दोनों ही अपने कथाकार कद को एक दूसरे के समक्ष आँकने में अचकचाते थे क्योंकि वह बंजर नहीं तो ऊबड़खाबड़ जमीन है, न जाने कौन कब रपट जाए। वैसे भी, अब जब हम मिलते हैं तो हमारी बातें अक्सर शरीर के अनेकानेक दर्दों पर बार बार लौटती हैं। हम उम्र की उस दहलीज पर पहुँच गए हैं जब शरीर में हल्का मगर अनावश्यक चिंता पैदा करने वाला दर्द एक स्वतंत्र सत्ता हासिल कर लेता है। वह स्वच्छंद तरीके से शरीर के अलग अलग अंगों पर बेवजह और बेतरतीब घात लगाता है, रोग की समस्या कभी निश्चित आकार नहीं लेती पर परछाईं की तरह हमारे जेहन में डोलती रहती है...। पर उस दिन मेरा मित्र अलग तेवर में था। यार, तुम्हारी कहानियों से मुझे एक बेसिक शिकायत है, मित्र बोला। क्या? मैंने पूछा। उनमें स्त्री विमर्श नहीं है। मित्र जब बोलता है तो पहले उसके मुँह से घरघराहट की आवाज निकलती है। पर मैंने कभी टोका नहीं क्योंकि मुझे नहीं पता मेरा अपना स्वर कितना साफ है। मेरा छोटा बेटा तो रोज कहता है कि मैं खाते हुए बहुत आवाज करता हूँ...। स्त्री विमर्श? उसी तरह जैसे दलित विमर्श या जाति विमर्श? मैंने कहा। यार अब तुम दाएँ बाएँ कर रहे हो। मैंने दाएँ बाएँ देखा। पर स्त्री तो है, मैंने प्रतिवाद किया। उससे क्या होता है, स्त्री एक चीज है, स्त्री विमर्श दूसरी। मैं गुमशुदा सा हो गया। बहुत दिनों बाद मित्र ने मेरी कहानियों, या कहें मेरी कला साधना पर सीधे अटैक किया था। आलोचना के जगत में मैं हमेशा कमजोर और अंत में निरुत्तर होता था, इधर तो इस तरह की सोच में मैं जंग खा गया था। जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
03-12-2019, 04:05 PM
देखो, सीधी बात है, स्त्री अगर वस्तु मात्र है, सजाने की या उपभोग की, तो यह अच्छे साहित्य की पहचान नहीं। कुछ ही देर में, अब चूँकि जुबान खुल ही गई थी, मित्र ने आपत्तियों को झड़ी लगा दी : स्त्री पात्रों का संघर्ष, उनके सरोकार और आकांक्षाएँ नदारद हैं या बेहद सीमित; स्त्री का दृष्टिकोण, अगर है, तो आदमी के दृष्टिकोण का प्रतिबिंब मात्र, उसकी हाँ में हाँ मिलाता हुआ या उसे परिष्कृत करता हुआ; स्त्री पुरुष संबंध का चित्रण जरूरत से ज्यादा आदर्श और मोहक है; इसलिए इसमें इतिहास बोध और मौलिक विषमताओं की अनदेखी है; प्रेम का रूप अतिरेकपूर्ण, ऐंद्रिक और छायावादी है...।
तो स्त्री प्रेम न करे? मैंने कड़वाहट से कहा। मैंने भी जवाब में कुछ बातें कहीं और कोशिश की कि वाद के वाद से दूर रहूँ। क्या स्त्री का सुंदर या ऐंद्रिक होना उसका अपमान है? क्या हर स्त्री पुरुष संबंध एकाकी नहीं होते? प्रेम का आखिर क्या विमर्श है? प्रेम के विमर्श की खूब हिमायत है, पर प्रेम और देह से गुरेज? इस पर मित्र ने मुझे काटा। प्रेम अलग विषय है, स्त्री विमर्श अलग... अगर प्रेम की ही बात करें तो उसका एक सामाजिक परिदृश्य है और एक संघर्ष का रूप भी। तुम्हारी कहानियों में प्रेम समय की परिधि से बाहर और असंपृक्त है। काल और प्रगति से उसका कोई सरोकार नहीं। क्या है प्रेम का संघर्षशील रूप? मैंने पूछा। जो औरत को मुक्त करे, जिससे उसकी अस्मिता प्रस्फुट और प्रकाशित हो। चूँकि मैं चुप रहा और पराजित सा दिखने लगा था, मित्रा और मुखर हो उठा - औरत के लिए प्रेम त्याग है, वेदना और यातना है। एक यात्रा है शताब्दियों के अंधकार की, दमन और बेड़ियों की... प्रेम एक दुस्साहस है, संघर्ष का नाद है। पर प्रेम प्रेम नहीं है, मैंने धीरे से कहा। इस पर मित्र जैसे किसी तंद्रा से जागा। पर उसकी आक्रामकता में कमी नहीं आई। मित्र, मेरे मित्र ने कहा, स्त्री जात का असल प्रेम असुंदर में सुंदर है, निरर्थक में अर्थवान है, हार में जीत है। घृणा में प्रेम है दोस्त और प्रेम में घृणा, उसी तरह जैसे अज्ञात में ज्ञात है और हिंसा में अहिंसा। यह विमर्श पर विमर्श अब भारी पड़ रहा था। मैंने बमुश्किल खुद को संयत रखा और मित्र को डी.एच.लारेन्स और मिशिमा के उपन्यासों के उदाहरण दे कर कुछ अलग राह की दलीलें सामने रखीं। मित्र ने कहा : यार तुम्हारी दिक्कत है कि अगर तुम्हारी कहानी में बलात्कार भी है तो वह भी सुंदर है। वितृष्णा के बजाय सम्मोहन पैदा होता है। मैंने कहना चाहा यह तुम्हारी नीयत का खोट है, कहानी का नहीं, पर चुप रहा। इस देश में मित्र, मित्र ने कहा, सौ में नब्बे महिलाएँ प्यार नहीं करतीं, वे तथाकथित प्यार की मार, उसकी यातना भोगती हैं। लगता है तुम्हें इसका काफी तजुर्बा है, मेरे मुँह से निकल गया। यार, तुम निरे छायावादी हो और वही रहोगे, यह कह कर मित्र उठा और चला गया। वह कल फिर आएगा, मैंने सोचा। मित्रा के आक्षेपों ने मुझे विकल जरूर कर दिया था। हर सामान्य और वादलिप्त आलोचना की तरह स्त्री विमर्श का जो रूप मित्र ने सामने रखा था वह सही भी था और गलत भी। यह इसलिए क्योंकि उसकी मीमांसा पूरी तरह अंतर्मुखी और स्वयं में लीन थी। मैं प्रेम के बारे में सोचने लगा। प्रेम का मौलिक तत्व कहाँ अवस्थित है : निजता के अभेद्य रहस्य में या अमूर्त सामाजिक यथार्थ के सलेटी पटल पर। प्रेम के कितने क्रियाशील रूप हैं : प्रेम होता है, प्रेम करते हैं, निभाते हैं, निर्वाह करते हैं... प्रेम का मूल्य चुकाते हैं, उसे दम तोड़ते देखते हैं... पर क्या इसके अलावा, इससे पृथक, क्रिया से विलग भी कोई तत्व है जो प्रेम है या प्रेम की कल्पना या रूपक है... मैंने जोर से सिर हिलाया। यह दलदली जमीन थी, मैं इससे दूर रहना चाहता था... इस दौरान मेरे जेहन में जो प्रकाश कौंधा था, जो तारा या दीप टिमटिमा रहा था वह थी ब्यूटी की तस्वीर और उसकी स्मृति...। उठते हुए मुझे एक लेखक का इंटरव्यू याद आया। उससे किसी ने पूछा कि उसकी कहानियों में प्रेम किस तरह आता है, उसके लिए प्रेम के क्या मायने हैं। भई, लेखक ने कहा, मैं ये सारी ऊँची बातें नहीं जानता। मैं तो एक शिकारी हूँ, लिहाजा प्रेम पर दविश देता हूँ, बस। वही आप पढ़ते हैं। कहानी हर कीमत पर लिखने का फैसला तभी मैंने कर लिया था। मुझे वह हफ्ता खूब याद है, पर यह फुफकारता अहसास भी है कि कुछ रहस्य तब भी हैं जो सदा बने रहेंगे। दो दिन तक चमकदार धूप थी और मौसम एकाएक गर्म हो गया था। तापमान अचानक बढ़ गया था और सावधानी न बरतो तो त्वचा जलने का डर महसूस होता। शाम के वक्त मैं अपने भागने वाले जूते लेने छत पर गया जो सुबह से वहीं पड़े थे। यह अप्रत्याशित था पर ब्यूटी छत पर थी। मुझे पहले उसका आभास हुआ फिर मैंने उसे देखा। और तीन से ज्यादा महीनों में यह तीसरी बार था जब हमारी आँखें टकराईं। साफ, शांत हवा और ज्वलंत आफ्ताब - मुझे विचलित सा अहसास था कि हमारे बीच जो दूरी थी वह जितनी थी उससे बहुत कम लग रही थी। मुझे नहीं पता वह पहले से मुझे देख रही थी या अनायास हमारी नजरें मिली थीं। निगाहों के मिलन के इस गैर से यथार्थ ने मानो एक क्षण के लिए मुझे अंधा कर दिया। पर इतनी चेतना मुझमें थी कि मैं जान गया कि यह संयोग का मसला नहीं है। उसकी तरफ से यह बेहद सावधानी से उठाया गया कदम था, कदम भी नहीं, यह एक युक्ति थी। उसी वक्त मैंने देखा उसने अपने हाथ उठाए और दोनों आँखों के आगे उँगली और अँगूठे से वृत्त बना दिए। मुझे एक धक्का या आघात सा लगा : अचानक मानो एक कठपुतली जिंदा हो गई है। ब्यूटी जो मेरे मस्तिष्क में कितनी जीवंत, धड़कती मौजूदगी थी, वह मेरे भौतिक यथार्थ के लिए पूर्णत: अजीब थी : इस अहसास में बज्र का सा प्रहार था। और अब अचानक वह जी उठी है, जो उतना ही जादुई था मानो कोई कल्पना जीवित नवयौवना का रूप ले ले। और उसने एक सीधा, विशिष्ट इशारा किया था : उसने अपने हाथ उठाए थे और यह संदेश भेजा था कि मानो उसने आँख से बायनोकुलर लगाए हैं। और क्षण भर में ही ब्यूटी मुड़ गई थी और उसने तटस्थ भंगिमा अख्तियार कर ली, उतनी ही ठोस, उदासीन और दूर जितना चमकते आकाश में कोई तारा। उसके इशारे में एक संदेश था। और संदेश में एक रहस्य था। यह बोध एक विस्फोट की तरह था और उसमें परोक्ष दर्शन की निश्चितता थी। अगले दो दिनों में जो हुआ उस पर विश्वास सिर्फ इसलिए होता है क्योंकि वह सच है। वस्तुस्थिति यह थी कि हम दोहरी बाधा के शिकार थे। पहली तो ये कि हम पूरी तरह अजनबी थे, पिछले तीन महीनों में हमारे बीच एक शब्द या संकेत नहीं था, बस तीन दफे का अनायास और निष्प्रयोज्य निगाहों का मिलना। उसके ऊपर, अगर हमें संपर्क करना भी था, तो वह पूरी राजदारी में होता जो कि आसान नहीं था; छतों पर भी हजारों नेत्र लगातार टोह में रहते थे। फिर भी : बिना किसी तजुर्बे, तैयारी या मकसद के (मुझे रत्ती भर शक नहीं कि ब्यूटी की स्थिति वही थी जो मेरी) हमने जासूसी का ऐसा महीन जाल रचा जिसे किसी भी व्यवसायिक भेदिया किताब के प्रथम पृष्ठों पर होना चाहिए। एक शिकारी की फितरत से मैं जान गया कि ब्यूटी के इशारे का मतलब सितारों को देखने के लिए टेलिस्कोप नहीं था, न ही वह कोई लांछन या नाराजगी से जन्मा था, वह सीधे और स्पष्ट मायने में एक निमंत्रण था : कि एक बायनोकुलर का इंतजाम करो, मेरे पास सिर्फ तुम्हारी आँखों के लिए एक संदेश है। यह निष्कर्ष निरी आस्था की वह छलाँग थी जो अच्छे से अच्छे जासूस अपनी जिंदगी में मात्र एक या दो बार सफलतापूर्वक लगाते हैं। मैंने वह तरीका भी ईजाद कर लिया कि किस तरह मैं बायनोकुलर की मदद से संदेश पढ़ूँगा और शक की कोई गुंजाइश नहीं होगी। सो अगले दिन मेरी गर्दन से एक नया बायनोकुलर लटक रहा था जिसे मैंने पिछले दिन बाजार में ढूँढ़ निकाला और बिना किसी मोलभाव के तत्काल खरीद लिया। इस तरह था मानो हमने पूरी कहानी, पूरी कोरियोग्राफी सूक्ष्मतम विस्तार में पहले से तय और रिहर्स कर ली थी। पहले मुझे छत पर अकेली मौजूदगी का पूरा मौका मिला ताकि छतों को तरेरती अनदेखी आँखों को मैं सिद्ध कर दूँ कि मैं एक शौकिया पक्षीविज्ञानी हूँ। मैंने आकाश में कई बार शोर करते पक्षियों के झुंड के बीच अपना उपकरण घुमाया। मैंने एक नन्हीं जेब डायरी में कुछ नोट्स भी लिए ताकि जिज्ञासा का कोई कण न बचे। बिना उस दिशा में मुड़े मैं जान गया जब ब्यूटी, मानो क्यू पर, छत पर पहुँची। उसने डोर से तुरंत सूखे कपड़े इकट्ठे किए और नीचे चली गई, आखिर घर उसका मंदिर था। सिर्फ मैं जानता था उसने एक संदेश छोड़ा है। बिना किसी इल्म के, या किसी के बताए, मुझे पता था, और इसमें भ्रम का रेशा तक नहीं था, कि संदेश का टुकड़ा सटीक किस जगह पर है। तो एक लगभग लावण्य गति में, मैंने एक प्रबुद्ध अर्द्धवृत्त पूरा किया, जब, एकदम सही फोकस पर, बायनोकुलर एक क्षण के लिए दोनों काली, ऊँची पानी की टंकियों के बीच एक सतह पर टिका जहाँ एक कागज चिपका था। लिखा था : शाम चार बजे, बुधवार। इसके बाद ब्यूटी की बारी थी कि वह इस अतिरंजित और स्वत:सिद्ध प्रक्रम पर अपनी गति की यादगार छाप छोड़े : करीब पंद्रह मिनट बाद वह दोबारा छत पर आई। तब तक मैंने बायनोकुलर गर्दन से उतार लिया था और उसके लैंस रूमाल से साफ कर रहा था। अब ब्यूटी के हाथ में वह कागज था, लिखावट अब नजर नहीं आ रही थी। एक चेष्ठा, जो जरूरी भी थी और फिजूल भी, ब्यूटी ने कागज के चिंदे चिंदे कर दिए और फिर, यह क्षण शुद्ध अंतःप्रेरणा का था, उसने कागज की चिंदियों को मुट्ठी में बंद किया, अपना हाथ काबिले तारीफ कमनीयता से आगे बढ़ाया, आसमान की ओर उसने अपनी हथेली खोल दी और कागज की चिंदियों पर एक फूँक मार उन्हें हवा में उड़ा दिया। पंखुरियों या पंखों की तरह कागज की चिंदियाँ हवा में फरफराती हुई नीचे की गली में हल्की बर्फ की तरह गिरने लगीं और लगा जैसे कोई खामोश उत्सव मन रहा है। मैं भावविह्वल था उसके उद्गारों में पूरी तरह गिरफ्तार। मैंने उसकी सोच सोचा : उस प्रेममय 'फ्लाइंग किस' ने मेरे संदेश पर चिरंतन सत्य की मुहर लगा दी। बुधवार के लिए अभी एक दिन था और मुझे संदेश के बारे में तनिक भी भ्रम नहीं था : उसने बुधवार को चार बजे शाम मुझे अपने घर बुलाया था। वह अकेली होगी और मेरा इंतजार कर रही होगी। कभी कभी मैं खुद से पूछता हूँ कि उस निमंत्रण में मैंने क्या देखा था, क्या अपेक्षा की थी? एक कप चाय और सैंडविच? कि हम वह सब कहें जो कहना चाहते हैं? एक अनिश्चित संबंध या दोस्ती की शुरुआती पेशकश? एक बड़ी बहन की सलाह और फटकार? परिवार के साथ एक मुलाकात? यह अब विश्वास करना असंभव लगता है, पर चार बजे बुधवार से पहले के चौबीस घंटों में मैंने निमंत्रण के आगे कुछ नहीं सोचा। वह संदेश और निमंत्रण मेरे लिए संपूर्ण यथार्थ था और उसने मुझे भर दिया था। अनुवर्ती सोच की गुंजाइश थी ही नहीं। एक निराश्रित क्या महसूस करेगा अगर प्रधानमंत्री उसे अपने घर आने का निमंत्रण भेज दें! मेरी स्थिति कुछ ऐसी ही थी। फिर अंतर्ज्ञान की जो छलाँगें मैंने हाल में लगाई थीं, उनसे मेरे मस्तिष्क की शक्तियाँ क्षीण पड़ गई थीं। मंगलवार की रात मैं गहरी, अबाध नींद सोया। पहली बार दिन में, बल्कि तीन महीनों में, मैंने न पढ़ा, न सोचा, न लिखा। मैंने कोई फिल्म नहीं देखी, न गाने सुने। मैं बस खुद में था और खुद से खाली। मैं बस था। मौसम के विपरीत, अगले दिन आकाश में घने, काले बादल थे। तेज धूप का कोई नामोनिशान नहीं। फिजा इतनी निश्चल कि बादलों का ठोस भारीपन असह्य सा लग रहा था। मैंने दिन गुजरने दिया, समय मेरे अंतस में स्वयमेव बीत रहा था। इतने दिनों में पहली बार मैं छत पर नहीं गया। न मैंने परदों की रहस्यमयता पर गौर किया। और न ही रोज के सामान्य रुटीन के अज्ञात इशारों पर मनन किया। पर पूरे दिन, प्रकाश की अकस्मात, पैनी शहतीरों की तरह, मुझे पूर्वाभास से होते रहे : स्वप्निल तस्वीरों की तरह। एक में मैं सोया था और अचानक मेरी आँख चार बजे से कुछ मिनट पहले खुली। पर मैं उठने में पूरी तरह नाकामयाब था, जैसे मुझे बिस्तर पर लकवा मार गया था। और फिर, जले पर नमक छिड़कने की तरह, घड़ी रुक गई, समय थम गया और चार बजे के क्षण भर पहले एक अभेद्य अनंतकाल छा गया। दूसरे चित्रपट में मैं एक खुली लिफ्ट में घुसा, मेरी आँखें कहीं और देख रही थीं, और तल पाने के बजाय मैं एक अनंत सुरंग में गिरता चला गया, मेरी चीख होठों के बीच मृत हो गई। बाद के सालों में, जब मैंने एक लेखक के रूप में छोटी मोटी ख्याति बना ली थी जो कम पर अच्छा लिखता है, मैंने इन सजग स्मृतियों के साथ थोड़ा खिलवाड़ किया। मैंने दो डायरी इंद्राज किए : एक में औरत अपने भोले प्रेमी से कहती है : मैं तुम्हारी कल्पना की अप्सरा हूँ। तुम मुझे पा सकते हो पर बदले में तुम्हें अपनी कल्पनाशक्ति का बलिदान करना होगा। दूसरे इंद्राज में एक लेखक एक असंदेही नौजवान पर आरोप लगाता था कि उसने उसका उपन्यास चुरा लिया। कैसे, वह पूछता है। लेखक जवाब देता है : उसे जी कर ! मुझे काफी जद्दोजहद करनी पड़ी कि मैं घर से साढ़े तीन बजे न निकल जाऊँ और फिर ब्यूटी के घर पहुँचने में आधा घंटा लगाने की तरकीबें लड़ाने की मशक्कत करूँ। क्या पहनना है, इसका निर्णय करना एक असंभव फतह हासिल करने की तरह था। जितनी पोशाकें मेरे पास थीं, मैंने उन सबको पहन कर देखा : अकेला सूट जिसे मेरे पिता ने इंटरव्यू के लिए सिलवाया था; मेरे क्रांतिकारी वक्त के कुर्ते पाजामे; एक अजीब सी जैकिट जिसे मैंने अपने संपादक से प्रभावित हो कर सिलवाई थी - इस तरह की जैकिट वह 'नाजुक मौकों' पर पहनता था; एक निहायत सफेद सफारी सूट जिसे मैंने एक वक्त खूब गर्मजोशी से एक शादी के मौके पर पहना था और एक लड़की ने फिकरा कसा था : मैंने कभी सफेद मोर नहीं देखा था! आखिर में, जब पूरा बेडरूम कपड़ों के ढेर से भरभरा रहा था, मैं चार बजने में पाँच मिनट पर घर से निकला : मैंने बाथरूम चप्पलें पहनी थीं और वही कपड़े (एक मुसी टीशर्ट और एक पुरानी जींस जिसके सामने के बटन खुले रह गए थे, जब बाद में मुझे पता लगा मैं सकपका गया था पर ब्यूटी की खुशी का कोई ठिकाना न था) जिन्हें मैंने दिन भर पहना था। जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
03-12-2019, 04:05 PM
मैं घर से बाहर निकला, आकाश में बादलों का डेरा ज्यों का त्यों बना था, पर अब मुझमें शिकारी की फितरत जाग गई। मैं तेजी से, भरपूर मकसद से चला मानो मैं स्टॉक मार्केट में पैसा लगाने जा रहा हूँ, मैंने एक चक्कर लिया और इस तरह की कवायद की कि साढ़े तीन मिनट में मैं ब्यूटी के मकान के सामने से निकला। मैं दस कदम और बढ़ा, फिर इस तरह सोचा मानो मैं कुछ भूल गया हूँ, जैसे कुंठा में मैंने अपना माथा पीटा, मुड़ा (इतने वक्त और जतन में मैंने देख लिया था कि गली एकदम निर्जन है) और तेजी से चला और फिर बिना एक कदम गलत उठाए, मैं मकान के मुख्य दरवाजे से घुप अंधकार में दाखिल हो गया : यह एक लक्ष्मणरेखा पार करने या एक भिन्न समय क्षेत्र में घुसने की तरह था।
जिन चीजों के बारे में तुम निरंतर, पूरी ग्रस्तता से सोचते हो, उन्हें पूरी तरह भूल भी जाते हो (अनेक मायनों में यह सबक वही है जो निम्न उक्ति में निहित है : जो हाथ देता है वही चोट भी पहुँचाता है) एकदम, मैं समझ गया कि अँधेरे के परभक्षी के रूप में मैं निरा नौसिखिया था। घुप अंधकार में, दिशा और संतुलन का मेरा अहसास खत्म हो गया। एक अंधे चमगादड़ की तरह मैं दीवार और रेलिंग से टकरा रहा था और किसी तरह काँपते पैरों से मैंने सीढ़ियाँ चढ़ीं। मैं रुका जहाँ मैंने सोचा दरवाजा है। तनावजदा, मैं आगे खिसका, मेरा हाथ सामने बढ़ा था, पता नहीं दरवाजा धकेलने के लिए, घंटी बजाने के लिए या थप्पड़ से बचाव के लिए। पर तभी एक मंद परफ्यूम की पैनी गमक मैंने महसूस की, मेरी बढ़ी हथेली एक भरपूर वक्ष पर समा गई, उसे वहाँ एक दूसरी तप्त हथेली ने थाम लिया और एक अन्य हाथ ने मुझे भीतर खींच लिया। दरवाजा बंद हो गया और पलायन की एकमात्र संभावना खत्म हो गई। ऐसा कुछ नहीं हुआ था जिसकी मैंने कल्पना की थी या जिसका खाका मैंने दिमाग में खींचा था। सुबुद्ध अज्ञान के उस पल में भी मैंने पहचाना कि जो घट रहा है वह एक असंभव स्वप्न है। मैं एक चौड़े से गलियारे में खड़ा या कहें, बँधा था और मेरी भयभीत आँखों के सामने स्याह पनियों की रेखाएँ थीं - पत्तियाँ गमलों में रोपित पौधों की थीं पर मुझे किसी बेहद सुंदर और डरावने जंगल का आभास हो रहा था। एक धुँधलके से में, पर एक तीखी अनुभूति के साथ, मुझे धड़कते दिल, पसीने और साँसों का आभास हुआ, और काँपते शरीरों का : मेरा और एक औरत का जिसे मैंने ब्यूटी माना। इस मान्यता के पीछे तर्क और विवेक का वह अभ्यास था जिसकी जड़ें दो शताब्दी से ज्यादा पुरानी थीं : रोजमर्रा की असंगत, बे सिर पैर की जिंदगी के खतरों पर वैज्ञानिक सोच का प्रयोग और प्रभाव...। मेरी खुली हथेली उसी वक्ष पर थी जो धड़क रहा था। बीच में जैसे मकड़ियों की लरजिश कैद हो गई थी, बचने को सरसरा रही थी। मेरी हथेली के ऊपर उसकी हथेली थी, उसके दबाव में कोई संदेह नहीं था। मुझे यह इंतजाम एक यंत्र की तरह लगा : एक जोड़ की जुगत की तरह - एक कील जैसे गहराई में ठोंक दी गई थी। मेरे मस्तिष्क ने धीरे धीरे उस औरत को ब्यूटी का दर्जा और नाम दे दिया। कपड़े हमारे लरजते शरीर के बीच थे, उसके वस्त्र ने मुझे अंतरंगता की सांत्वना दी। वह नाइटी थी : नाइटी जो मुझे उस पेन से ज्यादा प्रिय और अपनी लगती थी जिसे मैं सोते हुए भी अपनी पॉकेट में रखता था। शरीर से, वक्ष और उसकी तपन से ज्यादा, नाइटी का अपनापन और सुख था जिसने मुझमें जान फूँकी और मेरी इंद्रियाँ और चाहतें फिर से बलवती हो गईं। ब्यूटी विसंगत थी और अपनी ऊपरी निश्चलता के नीचे बाढ़ में बलखाती नदी की तरह। गलियारे में उन कुछ क्षणों के कुंडलित अचरज में, गलियारा जो आवभगत और सम्मान्य परिचय का वाजिब स्थान है, ब्यूटी ने एक हजार जतन किए : वह एक जंतु थी, रेंगता साँप, मलमली पशु, बाघिन, एक चालता, हिरनी; वह कतर रही थी, काट रही थी; खरोंच रही थी चूसती, पीती वह फुफकार रही थी; वह खोद रही थी, लाँघ रही थी; वह जल रही थी, लहू की रेखाएँ उसने खींची। मात्र एक शरीर से दिव्य कामनाएँ संक्रमित करने की तड़पन में, ब्यूटी ने अपनी जलती देह को मेरे चारों ओर लपेट दिया, वह हठात छटपटा रही थी, और मैं निस्सहाय सा पिघल रहा था, मेरे चारों ओर ज्वालाएँ धधक रही थी। पर यह सब अधूरा साबित हो रहा था। ब्यूटी ने शायद याद किया कैसे यदाकदा वह अपने बच्चे को डाँटती थी : हर चीज के लिए एक उपयुक्त जगह और समय होता है। जो जतन लेट कर किया जाता है उसे खड़े रह कर संपन्न करने की कोशिश असंभव नहीं तो दुष्कर और नागवार है। दोनों स्थितियों में रक्तचाप में काफी फरक आता है। इस तरह, मुझे एक अबूझ जकड़न में बाँधे, उसने मुझे अपने शरीर के कई हिस्सों से कैद कर लिया और मुझे खींचने लगी जिसके लिए उसके पास खाली एक छोटी उँगली बची थी। मैं उसी बेडरूम में खिंचता हुआ पहुँचा जिसकी मैंने तीन महीने तक निगरानी की थी। इस बीच मैं कई तरह के विरोधी भावों का हलक बन गया था : यंत्रणा और मुक्ति; उम्मीद और नैराश्य; अकल्पित आनंद और गहरा संताप...। और उसके बाद शयनकक्ष में वही हुआ जिसके लिए वास्तुकारों ने उसका आविष्कार किया था। यह अपरिहार्य था, असाध्य और अपूरणीय। पूरे एक घंटा और ग्यारह मिनट, मैंने अपनी घड़ी देखी थी जब मैं उस घर के बाहर गली में उतरा जो चमत्कार की तरह वैसी ही थी जैसी एक घंटे ग्यारह मिनट पहले या कल या परसों। हमने, बल्कि ब्यूटी ने सबसे व्यापक, तल्लीन और संपूर्ण प्यार रचा, जो किसी इंसान के लिए संभव था। और यह बात मैं कई कई वर्षों के जिए, भोगे, देखे और कल्पित तजुर्बे के आधार पर कह रहा हूँ। पर मैं यह भी जोड़ना जरूरी समझता हूँ, इसमें उदासी भी है और ब्यूटी की धधकती ईमानदारी और चरित्र की मजबूती के प्रति आदरपूर्ण अचरज भी कि मैं ब्यूटी को इसके बाद भी पहचान नहीं सकता अगर वह मेरे बगल से निकले या अपना चेहरा एकदम मेरे निकट ले आए, पर अगर वह नाइटी पहनती है और कुछ या कितनी भी छतों की दूरी पर है तो मैं उसे कहीं भी, किसी भी वक्त बेशक पहचान सकता हूँ। जब मैं पीछे देखता हूँ, इस वाकए की याद करता हूँ तो समझ नहीं पाता उसका शुक्रिया अदा करूँ या उसका मर्डर। जैसे ही मैं बेडरूम में गिरता पड़ता दाखिल हुआ, मुझे लगा मेरे अस्तित्व का एक जरूरी हिस्सा मुझसे अलैदा हो गया है और वह परदों की करामात देखने छत पर पहुँच गया है। जो पीछे रह गया उसे मैं जानता जरूर हूँ पर उसका बोध पूरा नहीं। भीतर अँधेरा था और सर्द, और बिस्तर पर पड़ी रजाई के अनेकानेक सुर्ख रंग थे। हम एक शब्द भी दूसरे से न बोले न बोल सके, और हर बार जब मैंने उसे चूमने, सोखने या निगलने के लिए मुँह खोला, ब्यूटी ने सर्वप्रथम हर बार मेरे होठों पर अपनी उँगली सटा दी, मानो बतला रही है कि प्यार, जिद या नाजों नखरे की हर आजमाइश में हजारों खतरे हैं। वह अथक थी और प्रफुल्ल; भारी और पंख सी हल्की; कील की तरह कठोर और पारे की तरह मुलायम और फिसलती। वह मुझ पर घूम रही थी और पिघल रही थी, चाँदी और वाष्प में नहाई। ऊपर की रजाई ने अभेद्य अँधेरा बना दिया था और स्पर्श की असंख्य विविधता ही हमारी अकेली भाषा और मुक्ति थी। अंतहीन आवेग की क्रियाओं में ब्यूटी ने मेरी चेतना से अपने शरीर का हर गुण और विवरण निष्काषित कर दिया और मुझे पूर्ण समर्पण का उपहार दिया जिसमें स्मरण की कोई गुंजाइश नहीं थी। हमारा समागम, और गीला उत्कर्ष एक साथ, संपूर्ण और अद्वितीय था। अगर कुछ शेष बचा भी तो ब्यूटी ने उसे सोख लिया। इस तरह पश्चात के कुछ गिनती के, कीमती लम्हों में, मेरे लौटने के पहले, मैं एक नवजात शिशु की तरह नंगा, अकेला और निस्सहाय था! यह सब बेशकीमती था और बेहद उदास। मुझे लगता है कामसूत्रों में वह भी कमोबेश नौसिखिया थी। आतंक की परछाईं उस पर भी फैली थी, ऐसे उन सब लोगों की तरह जो बिना प्रयोजन या गंतव्य के यात्रा पर निकल पड़ते हैं। उसकी हर गति और प्रयास के पीछे एक सौ बार का अभ्यास था और संपूर्णता इससे पैदा हुई... जैसे ओलंपिक गोताखोर जिनकी बरसों की मेहनत यदाकदा दस अंक की परफेक्ट डाइव बनाती है। उसे आभास नहीं था कि वह एक संगीत का स्कोर लिख रही थी, स्वर बजा रही थी जिनका कोई सानी नहीं था, जिनकी पुनरावृत्ति असंभव थी। इसलिए, आखिर में, वह भी उतनी ही अकेली और परित्यक्त थी जितना मैं। पर उसके लिए यह सिर्फ न दोहरा पाने का अभाव था, पर मेरे लिए एक स्वप्न प्यार की कच्ची चिंता में दफन हो रहा था। जब मैंने उसके इशारे पर चलते हुए उसके पैर की उँगलियों से नाइटी का सिरा खींचा और उसे ऊपर खींचता, उठाता चला गया जब तक वह उसके माथे के ऊपर से और बालों में उलझते हुए पूरी तरह उतर नहीं गई, मैं आत्मविभोर था। मेरी इंद्रियाँ जल रहीं थीं और मेरा दिल इस काज की अनंतता पर मर मिट रहा था, चूँकि मैं जान रहा था कि देह के ऐसे खजाने का अन्वेषण असंभव है। इसी वजह से मैं उस तैलचित्र को तत्काल समझ सका जिसे मैंने कई बरसों बाद एक कला प्रदर्शनी में देखा था : एक आदमी एक नंगी लेटी औरत के बगल में बैठा बिलख रहा था। वह मृत नहीं थी, सो रही थी और आदमी रो रहा था क्योंकि उसके पास इस प्रकट सौंदर्य को जिंदगी भर की उपासना के बाद भी जज्ब करने की ताकत नहीं थी। पर, जैसा मैंने कहा, ऐसी बातें मेरे जेहन में बाद में आईं। उस शाम ब्यूटी ने मुझे कोई राहत नहीं दी, मेरे पास मानो साँस लेने का भी वक्त नहीं था। लेकिन सच्चाई यह थी कि मैं लगभग निष्क्रिय था। उसने वह सब किया जो उसे करना था और स्पर्श और संकेतों से मुझे सिखाया, बताया कि मुझे उसके लिए क्या करना है। मैंने सिर्फ उसके संकल्प के सामने माथा टिका दिया था। आखिर में, समापन की घड़ी आई और खामोशी में लिपटी आई। ब्यूटी मुड़ गई, उसकी पीठ मेरी ओर हो गई थी, पलों में वह सो गई। पल भर के लिए मैं उसके तिलिस्म को देखता रहा, पर तब तक मैं अजनबियत की धुंध में डूबता जा रहा था। मुझे जान ज्यादा प्यारी थी, जंगल की गंध भूलती नहीं पर जज्ब भी नहीं होती। मैं उठा और जल्दी, बेहद जल्दी कपड़े पहनने लगा। तभी मैंने देखा कि ब्यूटी की नाइटी एक गठरी सी बनी फर्श के एक कोने में पड़ी है। कोई बेफिक्र प्रेरणा रही होगी, मैंने वह वस्त्र उठाया और अपनी जींस की कमर के भीतर खोंस लिया। मैं तुरंत बाहर चला। उस क्षण वह अहसास नहीं था, पर यह आखिरी बार था जब मैंने ब्यूटी को देखा। मैं इसके बाद छत पर नहीं गया और न ही मैंने बरामदे की महफूजी से उसके बेडरूम की दिशा में देखा। मानो कोई बाहरी, इनसान परे की शक्ति थी, मुझसे, मेरे संकल्प और इच्छाओं से विलग, जिसने एक अभेद्य परदा गिरा दिया था। यह हमेशा का रहस्य बन गया क्या ब्यूटी ने कभी मेरा दोबारा इंतजार किया। मेरे अचानक लोप पर क्या उसने कभी गौर किया? तो मैं कभी नहीं जान सका क्या ब्यूटी भी हमारे मिलन और संबंध का ऐसा आकस्मिक, विस्फोटक अंत चाहती थी। अंत जो अजीब तरह से अधूरा और संपूर्ण था। उसकी बस मेरे पास नाइटी रह गई और वह भी अब मुझे नहीं मिलती, न जाने कहाँ चली गई, कौन ले गया, कहाँ गुम हो गई? हालाँकि, अगर किसी ने कुछ चुराया था, पलटने की राह चुनी थी, वो मैं था, पर यह भावना मेरे भीतर बनी रही कि मेरे साथ धोखा हुआ है। भला हुआ कि कुछ दिन बाद मामा ने ई मेल से बताया वे लोग थोड़े जल्दी लौट रहे हैं और जल्दी ही मेरी जिंदगी अपनी एक अलग राह पर चल निकली, व्यवसाय, कर्म और नियति को दुनिया ने मुझे अपने सामान्य बहाव में अपना लिया। इतने साल व्यतीत होने के बाद भी उन तीन महीने और कुछ दिनों की स्मृतियाँ धूमिल नहीं हुईं। और न ही ब्यूटी की। मुझे नहीं पता वह कहाँ है, कैसी है? वैसे भी, मैं उसे पहचान भी कहाँ सकता हूँ। मुझे नहीं पता वह मुझे पहचान सकती है या नहीं। मैंने अपनी कहानी के लिए जितने सैकड़ों सीनारियों इतने जतन से सोचे, बनाए थे, और उनके पीछे पूरी दुनिया के तमाम साहित्य का समर्थन था, जब अंत हुआ और जिस तरह हुआ, उसकी न मैंने कल्पना की थी और न ही उसके लिए तैयार था। जो शायद जितना नैसर्गिक और सहज था, उतना ही दुरूह हो गया था। क्या साहित्य का चश्मा इतना वीरान और अंधा हो गया था... इसमें मेरे धोखे के अहसास का रहस्य छिपा था। अगर मैंने कथा को खोया, उससे हारा तो फिर मैंने क्या पाया या जीता? सच्चाई यह है कि ब्यूटी मेरे लिए स्त्रीत्व का इकहरा और अकेला माप बन गई - कि स्त्री, प्रेम, वासना, संबंध और आसक्ति क्या है और मेरे लिए उसके क्या माने हैं। यह गैर मुमकिन सा है और अन्यायपूर्ण। पर जो है वो है। एक तरह से निंदनीय मैं रहा, दंडित होने का मूल्य मैंने चुकाया। उस बुधवार की शाम ब्यूटी मुझे प्यार, दीवानगी और रतिराग के शामिल संवेगों की चरम ऊँचाइयों पर ले गई, जिसके पार या जिससे ऊँचा मैं दोबारा कभी नहीं जा सका। जिस आवेश और जुनून को मैंने उन तीन महीनों में जिया, उसका आह्वान और स्मरण तो मैं हमेशा करता रहा पर उसको कभी पुनः जी नहीं सका। शायद इस सबमें एक पाठ है, सीख है : ऐसा होता है जब तुम कला को जिंदगी के ऊपर आँकते हो। जिंदगी कला को जन्म देती है, कला जीवन का सृजन नहीं करती...। पर मेरा दिमाग अभी उस बुधवार पर ही है। कभी न खत्म होने वाली रात थी वो और पहली बार मैं उस घर में, जो मेरा नहीं था, छलिया महसूस कर रहा था। कुछ भी मेरा या अपना नहीं था : छत, बरामदा, लाइब्रेरी पिछले तीन महीनों का रोज का रुटीन। खतरा और आतंक था उन किताबों में जिन्हें मैंने पढ़ा था और इतने दिनों तक, इतने उल्लास से सीने से चिपटाए रखा था। वे फिल्में और संगीत के सीडी, वे सभी शब्दकोश और नोटबुकें जैसे मुझसे बिदक रहे थे। मुझे मुँह चिढ़ा रहे थे, तोहमत लगा रहे थे। देखो, तुमने हमारे साथ क्या किया, वे कह रहे थे : धोखा, ऐसा धोखा! हमने तुम्हारी कल्पनाओं की सुनहरी उड़ानों के लिए ऐसे दिलकश रथ बनाए और देखो तुमने हमें कहाँ ला कर पटक दिया, कहीं का न छोड़ा। मैंने वह सब पढ़ने की कोशिश की जो मैंने उन हफ्तों, महीनों में लिखा था। पर वे सारे शब्द खोखले थे, झूठे और धोखेबाज। समय के गुजरने के साथ ही मैं उन वजहों की पड़ताल कर सका जिनके कारण वह वाकया इस तरह अचानक खत्म हुआ था। और क्यों ब्यूटी का मेरी जिंदगी से एकाएक निष्कासन तय था। यह सच है कि बेजोड़ रतिराग की उस चमत्कारिक शाम के बाद मैं भावशून्य और उजाड़ हो गया था मानो मैं किसी निर्जन, सूखे रेगिस्तान का बादशाह हूँ जहाँ सिर्फ वीराना है, जड़ों का नामोनिशान नहीं। यह इस तरह था जैसे मैंने किसी प्रेम के मंदिर में अनंत श्रद्धा, असीमित आस्था की मन्नत माँगी है। और ब्यूटी वह पुजारिन थी जिसने मेरे माथे के बीचोंबीच अखंड प्रेम का टीका लगा दिया। मैं साधारण जिज्ञासु, सामान्य पिपासु ही तो था। मुझे यह विश्वास करना ही पड़ा कि उस वाकए का कोई भविष्य नहीं था क्योंकि वह प्रतापी बुधवार कहानी की बुनावट में फिट नहीं हो रहा था, उसके लिए, उस चमत्कार, उस विलक्षण उत्कर्ष के लिए कहानी में न जज्बा था, न स्थान। इसलिए उन काले शब्दों ने, कथा की काली जुबान ने पलटवार किया और उस बुधवार के बाद ब्यूटी से मुझे अंतिम रूप से जुदा कर अपनी कीमत प्राप्त की। उस गौरवपूर्ण बुधवार को गुजरे करीब बीस वर्ष हो गए। इस कहानी के बहुत से अंश बीस वर्ष तीन महीने पहले लिखे गए थे। मैं नहीं कह सकता यह कहानी पूरी है या अधूरी, अर्थपूर्ण है या अर्थरहित। पर कहानी तुम्हारे सामने है। जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
03-12-2019, 04:12 PM
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भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
03-12-2019, 04:14 PM
पतझड़ की आवाज़
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
03-12-2019, 04:15 PM
सुबह मैं गली के दरवाजे में खड़ी सब्जीवाले से गोभी की कीमत पर झगड़ रही थी। ऊपर रसोईघर में दाल-चावल उबालने के लिए चढा दिये थे। नौकर सौदा लेने के लिए बांजार जा चुका था। गुसलखाने में वकार साहब बेसिन के ऊपर लगे हुए धुंधले-से शीशे में अपना मुंह देखते हुए गुनगुना रहे थे और शेव करते जाते थे। मैं सब्जीवाले के साथ बहस करने के साथ-साथ सोचने में व्यस्त थी कि रात के खाने के लिए क्या-क्या बना लिया जाए। इतने में सामने एक कार आकर रुकी। एक लड़की ने खिड़की में से झांका और दरवाजा खोलकर बाहर उतर आयी। मैं पैसे गिन रही थी, इसलिए मैंने उसे न देखा। वह एक कदम आगे बढ़ी। अब मैंने सिर उठाकर उस पर नंजर डाली।
अरे!...तुम... उसने हक्की-बक्की होकर कहा और ठिठककर रह गयी। ऐसा लगा जैसे वह मुद्दतों से मुझे मरी हुई सोचे बैठी है और अब मेरा भूत उसके सामने खड़ा है। उसकी आंखों में एक क्षण के लिए जो डर मैंने देखा, उसकी याद ने मुझे बावला-सा कर दिया है। मैं तो सोच-सोचकर पागल हो जाऊंगी। यह लड़की, इसकी नाम तक मुझे याद नहीं, और इस समय मैंने झेंप के मारे उससे पूछा भी नहीं, वरना वह कितना बुरा मानती! मेरे साथ दिल्ली के क्वीन मेरी कॉलेज में पढ़ती थी। यह बीस साल पहले की बात है। मैं उस समय यही कोई सत्रह वर्ष की रही हूंगी लेकिन मेरा स्वास्थ्य इतना अच्छा था कि अपनी उम्र से कहीं बड़ी लगती थी और मेरे सौन्दर्य की धूम मचनी शुरू हो चुकी थी। दिल्ली का रिवांज था कि लड़के वालियां कॉलेज-कॉलेज घूमकर लड़कियां पसन्द करती फिरती थीं और जो लड़की पसन्द आती थी उसके घर'रुक्का' भिजवा दिया जाता था। उन्हीं दिनों मुझे यह ज्ञात हुआ कि इस लड़की की मां-मौसी आदि ने मुझे पसन्द कर लिया है (कॉलेज डे के उत्सव के दिन देखकर) और अब वे मुझे बहू बनाने पर तुली बैठी हैं। ये लोग नूरजहां रोड पर रहते थे और लड़का हाल ही में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया में दो-डेढ़ सौ रुपये मासिक पर नौकर हुआ था। चुनाचे 'रुक्का' मेरे घर भिजवाया गया। लेकिन मेरी अम्माजान मेरे लिए बड़े-बड़े सपने देख रही थीं। मेरे अब्बा दिल्ली से बाहरमेरठ में रहते थे और अभी मेरे विवाह का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था इसलिए वह प्रस्ताव एकदम अस्वीकार कर दिया गया। जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
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