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Gay/Lesb - LGBT जनवरी का जाड़ा, यार ने खोल दिया नाड़ा// By: हिमांशु बजाज
#1
Rainbow 
जनवरी का जाड़ा, यार ने खोल दिया नाड़ा



हरियाणा जितना अपनी इज्जत और आबरू की रक्षा के लिए जाना जाता है उतना ही वहाँ पर होने वाले चोरी छिपे होने वाले सेक्स कांडों के लिए। वहाँ पर लड़की अगर किसी लड़के के साथ खुलकर अपने मन की इच्छा से उसके साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाना चाहे और गलती से वहाँ के समाज को उसकी भनक लग जाए तो लड़का और लड़की दोनों को मौत के घाट उतार दिया जाता है।

मैंने हरियाणा का नाम इसलिए लिया क्योंकि इज्जत का जितना ढिंढ़ोरा वहाँ पर पीटा जाता है चोरी-छिपे उतने ही सेक्स कांड वहाँ पर होते रहते हैं। मुझे पता है कि हर जगह की यही कहानी है लेकिन सवाल यहाँ पर यह पैदा होता है कि अगर पेट की भूख मिटाने के लिए मन-पसंद खाना खाने की आजादी ही न हो तो बेमन से खाए गए खाने में स्वाद कहाँ से आएगा. यही बात शारीरिक सम्बन्धों पर भी लागू होती है। यदि कोई अपनी मर्ज़ी से अपने मन-माने पार्टनर के साथ संभोग का आनन्द लेने के लिए तैयार है तो समाज को उसमें अडंगा डालने की क्या जरूरत है?
कहानी लड़की की है इसलिए नाम बताने के विषय में तो प्रश्न ही नहीं उठता। उस पर भी हरियाणा की पृष्ठभूमि तो मामले को और संगीन बना देती है।

लेकिन आजकल फिल्में और कहानियाँ समाज का आइना बन चुकी हैं इसलिए कहानी तो बतानी पड़ेगी, मगर गुमनामी में। शायद इस कोशिश से आने वाले समय में किसी की जान बच जाए। बात दिल्ली से सटे सोनीपत जिले के एक गांव की है।

उन दिनों मैं बाहरवीं में पढ़ती थी। उम्र नादान थी और दिल बच्चा। लेकिन 18 तो पार कर ही गयी थी। सही गलत की पहचान कहाँ होती है उन दिनों में। स्कूल में देवेन्द्र नाम का एक लड़का पढ़ता था, मैं उसको पसंद करती थी। कहीं कोई कमी नहीं थी उसमें। शरीर का चौड़ा, उम्र में मुझसे एक दो साल बड़ा मगर भरपूर जवान और थोड़ा सा शर्मीला। जब हंसता था तो हल्की दाढ़ी लिए उसके गोरे गाल लाल उठते थे। सुर्ख लाल होंठ और आंखें थोड़ी भूरी मगर काली। मन ही मन उसको चाहने लगी थी।

लेकिन लड़की थी तो मन की इच्छाओं को अंदर ही दबाकर रखती थी, चाहती थी कि शुरूआत वो करे तो ठीक रहेगा। सालभर उसकी तरफ से पहल की आस में ऐसे ही निकाल दिया मैंने। चोरी छिपे उसे देखती तो थी लेकिन जब सामने आता तो नज़र नहीं मिला पाती थी। गलती से एक दो बार उसने मेरी चोरी पकड़ भी ली थी मगर बात हल्की सी मुस्कान से आगे कभी बढ़ ही नहीं पाई।

बाहरवीं के फाइनल एग्ज़ाम जब खत्म हुए तो उसके साथ उसको पाने की उम्मीद भी मैंने छोड़ दी। स्कूल के बाद अब कॉलेज ढूढने की तैयारी में थी। आज के समय में लड़की का पढ़ा-लिखा होना बहुत जरूरी है यह बात मैं भी जानती थी और मेरे घर वाले भी। रिजल्ट आने के बाद मैंने बी.ए. का फॉर्म भर दिया। सोनीपत शहर के एक नामी कॉलेज में मुझे एडमिशन मिल गया। महीने भर बाद कॉलेज की फीस भरते ही क्लास भी शुरू हो गई। मेरे पिता जी मुझ कॉलेज छोड़ने जाते और छुट्टी के वक्त लेने आते थे।

शायद अक्टूबर का महीना था और सुबह शाम हल्की-हल्की ठंड पड़ना शुरू हो चुकी थी। स्टॉल के नीचे किताबें और किताबों के नीचे दबते-दबते मेरे स्तन कब बड़े हो गए इसका अहसास मुझे तब हुआ जब मैंने नहाते हुए बाथरूम के शीशे में उनको गौर से देखा। चूत अभी नई नवेली थी जैसे किसी आड़ू (फल) के बीच हल्की सी दरार हो। लेकिन उस पर उगने वाले रोम अब बाल बनने लगे थे। जो नहाने के बाद गीले होकर जैसे शरमा जाते थे।
कॉलेज जाते हुए तीन महीने हो चुके थे। मेरी 2-3 करीबी सहेलियाँ भी बन गई थीं लेकिन अभी इतनी करीबी नहीं थी कि उनसे लड़कों के बारे में बातें की जा सकें। पीरीयड्स और चूत की देख-रेख को लेकर तो बहुत बातें होती थीं लेकिन चूत चुदवाने के बारे में कभी किसी से खुलकर बात नहीं हुई थी।

एक दिन पापा की तबीयत खराब हो गई तो मुझे कॉलेज से छुट्टी करनी पड़ी क्योंकि कोई और चारा नहीं था। घर वाले मुझे अकेले घर से बाहर नहीं भेजना चाहते थे। अकेली बेटी थी तो चिंता ज्यादा थी। अगले दिन भी तबीयत में कोई सुधार नहीं हुआ, बल्कि उल्टियाँ भी शुरू हो गईं और चलते हुए उनको चक्कर आने लगे।
तीसरे दिन रक्त जाँच में पता चला कि उनको डेंगू बुखार हो गया है। ब्लड प्लेटलेट्स भी काफी घट चुकी थी इसलिए फौरन उनको अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा। तब पता चला कि सरकारी अस्पतालों के बाहर लगे स्वास्थ्य सम्बन्धी बोर्ड और जानकारी हमारी जिंदगी में कितनी अहमियत रखते हैं। लेकिन हम उनको फालतू समझते हैं और उन पर लिखी सावधानियों को नज़रअंदाज़ करके निकल लेते हैं।

पापा के साथ हफ्ते भर तो माँ अस्पताल में रही और मैं घर का काम संभालती। रिश्तेदारों का आना-जाना भी लगा रहता था। जब प्लेटलेट्स बढ़ने लगे और डॉक्टर ने बताया कि अब पापा खतरे से बाहर हैं तो उनको अस्पताल से छुट्टी मिल गई लेकिन अभी भी सावधानी बरतने और इलाज जारी रखने की उतनी ही ज़रूरत थी।
10 दिन बीत गए तो उनकी तबीयत अब सुधरने लगी थी लेकिन बाहर घूमना-फिरना अभी बंद था। माँ ने सोचा कि ऐसे तो मेरी पढ़ाई का बहुत नुकसान हो जाएगा। माँ बोली- तेरी कोई सहेली नहीं है क्या जिसके साथ तू कॉलेज जा सके?

मैंने कहा- लेकिन मां अभी पापा

माँ ने मेरी बात काटते हुए कहा- तू पापा की चिंता मत कर, पढ़ाई पर ध्यान दे। ऐसे कब तक घर बैठी रहेगी इनके भरोसे? ऐसे तो तेरी पढ़ाई का बहुत नुकसान हो जाएगा। किसी सहेली के साथ चली जाया कर जब तक तेरे पापा ठीक नहीं हो जाते।

घर वाले बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए हर छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी कुर्बानी देते चले जाते हैं लेकिन बच्चे इस बात को तब समझ पाते हैं या तो जब वो खुद माँ-बाप बन चुके होते हैं या वक्त की हवाओं के थपेड़े उनको लग चुके होते हैं मगर तब तक काफी देर हो जाती है. फिर न बीता हुआ वक्त लौट कर आता है और न माँ-बाप।
सहेलियों में निशा (बदला हुआ नाम) मेरी सबसे करीबी थी। मैंने उसको घर बुलाया तो माँ ने उसको सारी समस्या बता दी।
वो बोली- आप चिंता मत करो आंटी, मैं अपने भाई से कह दूंगी कि वो गाड़ी आपके यहाँ से होते हुए ले आया करे!
अगले दिन से ही निशा अपने भाई के साथ मुझे गाड़ी में ले जाने लगी। सुबह तो निशा पहले से ही गाड़ी में बैठी होती थी लेकिन छुट्टी के वक्त उनका घर रास्ते में पहले आ जाता था और बाद में उसका भाई मुझे मेरे घर छोड़कर वापस चला जाता था।

हमें 3 दिन हो चुके थे, चौथे दिन जब छुट्टी के बाद निशा अपने घर के सामने उतर गई तो उसके भाई ने गाड़ी घुमाई और हम हमारे घर की तरफ चल पड़े। शहर से निकले और 15 मिनट बाद मेरा गांव भी आ गया। मैं बैग संभालते हुए गाड़ी से उतरने के लिए पिछला दरवाजा खोलने ही वाली थी कि तभी पीछे से एक बाइक आकर ड्राइवर वाले शीशे के पास आ रुकी। एक लड़के ने गाड़ी के शीशे पर नॉक किया तो निशा के भाई ने शीशा नीचे कर दिया। बाइक पर बैठे लड़के ने हेल्मेट पहन रखा था। शीशा उतारने के बाद जब उसने हेल्मेट उतारा तो मैं उसे देखती रह गई।
// सुनील पंडित // yourock
मैं तो सिर्फ तेरी दिल की धड़कन महसूस करना चाहता था
बस यही वजह थी तेरे ब्लाउस में मेरा हाथ डालने की…!!!
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#2
बाइक पर बैठे लड़के ने हेल्मेट पहन रखा था। शीशा उतारने के बाद जब उसने हेल्मेट उतारा तो मैं उसे देखती रह गई।

ये तो देवेन्द्र है जो स्कूल में मेरे साथ पढ़ता था। ये यहाँ क्या कर रहा है और निशा के भाई को कैसे जानता है मेरे मन में सवाल उठना शुरू हो गए।

वो दोनों आपस में बातें करने लगे.

निशा के भाई का नाम मुकेश था, मुकेश ने पूछा- कहाँ जा रहा है? देवेन्द्र ने कहा- सुसराड़ जाऊं हूं चालैगा तू भी … ?”

उसका जवाब सुनकर मुकेश ठहाका मारकर हंस पड़ा, और साथ ही देवेन्द्र भी।

मैं भी पीछे बैठी हुई मुस्कुरा दी। वैसे उसे देखकर मन में खुशी की एक लहर तो उठी लेकिन खुशी के समंदर में शर्म का भंवर भी साथ-साथ बन गया जिसमें मेरी वासना की कश्ती को डूबने देना ही मैंने बेहतर समझा। मैंने नज़रें झुका लीं। मैं नीचे देखने लगी कहीं ये पहचान न ले।

उसने ड्राइवर साइड के खुले शीशे वाली खिड़की पर कुहनी रखते हुए मुकेश के कान में चुपके से कुछ फुसफुसाया। जिसके जवाब में मुकेश ने आंखों में कुछ इशारा किया। जिसको न मैं देख पाई और न समझ पाई। फिर उसने आवाज़ ऊंची करते हुए निशा के भाई से बस इतना ही कहा कि तू जल्दी वापस आ मुझे तुझसे कुछ ज़रूरी बात करनी है।
6-7 महीने बाद देवेन्द्र को देख रही थी। शक्ल में कुछ खास परिवर्तन नहीं आया था लेकिन शरीर में मर्दानगी साफ झलक रही थी। कंधे पहले से कुछ ज्यादा चौड़े लगे, दाढ़ी-मूछ अधिक काली और घनी, लंबे रेशमी बाल जो गर्दन तक पहुंच रहे थे, लेकिन होठों का रंग थोड़ा गाढ़ा गुलाबी हो गया था। चेहरा वैसे ही गोरा और चमकीला मगर जवानी की एक दो फुंसी भी निकल आई थी जो उसके आकर्षण को फिर भी कम नहीं कर पा रही थी।

मुकेश से बात करके उसने बाइक की रेस बढ़ाई और सड़क पर गाड़ी के आगे दौड़ा दी। मैं उसको देखती रह गई और वो कुछ ही पल में आंखों से ओझल हो गया।

उस दिन घर आकर मैंने किताबें रखीं और आराम करने लगी। देवेन्द्र के बारे में सोचने ही लगी थी कि ना चाहते हुए भी मेरा हाथ मेरे वक्षों पर चला गया और मैं उनको सूट के ऊपर से ही सहलाने-दबाने लगी। देवेन्द्र की मजबूत जवानी मुझे अंदर से कमज़ोर बना रही थी। मैं उसको भूल चुकी थी लेकिन आज वो फिर से सामने आ गया और स्कूल का गुज़रा हुआ वक्त आंखों के सामने फिर जीवंत हो उठा।

वक्षों को सहलाते-सहलाते वो तनकर कड़े हो गए और मैंने बिस्तर पर पड़े तकिया को बाहों में भर कर आंखें बंद कर लीं। बहुत बेचैनी हो रही थी, मैं बेड पर पड़ी हुई कसमसा रही थी। बांहों में तकिया और खयालों में देवेन्द्र। मन तो कर रहा था कि मुकेश से बात करूं कि वो देवेन्द्र को कैसे जानता है लेकिन फिर सोचा कि बात शुरू हुई तो वो आगे भी बढ़ेगी, और अब मैं कॉलेज जाने वाली लड़की हूँ सोचा कि अपनी हद में रहूंगी तो बेहतर है। और साथ ही पापा की तबीयत भी ठीक नहीं है, मुझे अभी इन सब बातों पर ध्यान नहीं देना चाहिए।

मैंने मन के घोडो़ं की लगाम वहीं पर खींच दी और ध्यान को भविष्य पर लगाकर फिर से खुद को अतीत से अलग कर लिया। उस दिन के बाद देवेन्द्र कभी दोबारा सामने नहीं आया। हफ्ते भर बाद पापा की तबीयत बिल्कुल ठीक हो गई और मैंने निशा से कहा कि अब तुम्हें परेशान होने की कोई ज़रूरत नहीं है। अब मैं पापा के साथ ही कॉलेज आ जाया करूंगी।

निशा ने कहा- पागल, इसमें परेशान होने की क्या बात है। तेरे साथ मेरा भी टाइम पास हो जाता है। क्यों बेवजह अंकल को परेशान कर रही है? अभी कुछ दिन उनको और आराम करने दे। वैसे भी सर्दियाँ शुरू हो गई हैं और तू उन्हें स्कूटी पर लेकर आएगी? फिर से बीमार पड़ जाएंगे।

मैंने सोचा कि बात तो ये भी सही कह रही है। और घरवालों को भी निशा के साथ जाने में कोई परेशानी नहीं है। सर्दियों तक दोनों साथ ही चली जाया करेंगी।

दिसंबर का महीना शुरू हो गया था और ठंड अब दिन में भी लगने लगी थी। सुबह शाम तो कोहरा ही छाया रहता था। ये हाल तो शहर का था, गांव के खुले एरिया में तो हालात और भी बुरे थे। पहले सेमेस्टर के एग्ज़ाम शुरू होने वाले थे और आजकल किताबों के साथ वक्त ज्यादा बीतने लगा था।

लेकिन एक और बात जो मैं आजकल नोटिस कर रही थी कि वो ये कि निशा का भाई अब मुझे गाड़ी के सामने वाले शीशे में से देखता रहता था। कई बार ऐसा हो चुका था कि जब मैं नज़रें उठातीं तो वो मुझे देखता हुआ मिलता था। लेकिन मैंने इस बारे में निशा को कुछ नहीं कहा। क्योंकि मैं पहले से ही उसके अहसान के तले दबी हुई थी।
दिसंबर के अंत में एग्ज़ाम शुरू हो गए, अब तो गाड़ी में नज़र उठाने का वक्त भी नहीं मिलता था। घर-कॉलेज और गाड़ी जहाँ वक्त मिलता किताबें खोल लेती। दिमाग की दही हो जाती थी लेकिन एग्ज़ाम तो क्लियर करना ही था किसी भी तरह। मेरी कोशिश मेरिट में आने की थी इसलिए पूरा ज़ोर लगा रही थी। लेकिन निशा और मेरी बाकी सहेलियाँ मुझ पर हंसती रहती थी।

6-7 दिन में एग्ज़ाम खत्म हो गए। लेकिन दिमाग इतना थक गया कि अब कॉलेज की तरफ मुंह उठाने को मन नहीं करता था। वैसे एग्ज़ाम के बाद कॉलेज की छुट्टियां होने वाली थी। कॉलेज के आखिरी दिन सबने क्लास में खूब मस्ती की। जब शाम को छुट्टी हुई तो कॉलेज के गेट के बाहर निकलकर मैं और निशा उसके भाई मुकेश का इंतज़ार करने लगीं। तभी मेरी नज़र एक पान की दुकान के पास खड़े लड़के पर गई। देवेन्द्र था और वहाँ खड़ा होकर सिगरेट पी रहा था। मैं हैरान थी कि ये सिगरेट भी पीता है?




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#3
तभी मेरी नज़र एक पान की दुकान के पास खड़े लड़के पर गई। देवेन्द्र था और वहाँ खड़ा होकर सिगरेट पी रहा था। मैं हैरान थी कि ये सिगरेट भी पीता है?





लड़कियाँ उसके पास से गुजर रही थीं और उसको देखती हुई जाती थी। वो भी उनको देखता और फिर मेरी और निशा की तरफ भी।

निशा ने देखा कि मैं भी देवेन्द्र को चोर नज़रों से देख रही हूं तो उसने मुझे कंधा मारकर पूछा- कौन है ये?

मैंने निशा को अन्जान बनते हुए जवाब दिया- मुझे क्या पता कौन है!

इतने में निशा के भाई की गाड़ी हमारे सामने आकर रुक गई। हम दोनों गाड़ी में बैठे और गाड़ी चल पड़ी। मैंने बहाने से पीछे मुड़कर देखा तो वो जा चुका था। मैं समझ गई कि मुकेश ने उसे बता दिया है कि मैं यहाँ पढ़ने आती हूं। लेकिन जिस तरह से वो बाकी लड़कियों को ताड़ रहा था, मैंने कभी स्कूल में उसको ऐसी करते हुए नहीं देखा था।

निशा अपने घर उतर गई और मुकेश मुझे छोड़ने मेरे गांव की तरफ बढ़ चला। बीच रास्ते में उसने अचानक गाड़ी रोक ली। खेतों का एरिया था।

मैंने कुछ नहीं पूछा बल्कि वो खुद ही बोला- मैं 2 मिनट में आता हूँ।

मैं समझ गई कि लघुशंका के लिए गया होगा, मैं गाड़ी में बैठी हुई इंतज़ार करने लगी। वो पास के खेत में नीचे उतर गया। मुझे केवल उसका धड़ दिखाई दे रहा था। उसके दोनों हाथ आगे की तरफ थे जिनमें शायद वो अपने लिंग को पकड़ कर पेशाब कर रहा था।

मैंने नज़र वापस घुमा ली और सामने सड़क पर आते जाते इक्का दुक्का वाहनों को देखने लगी।

जब उसे गए हुए 3-4 मिनट हो गए तो मैंने फिर से देखा। वो सड़क के किनारे खड़ा होकर फोन पर किसी से बातें कर रहा था। मैंने नज़र दूसरी तरफ घुमा ली। दोबारा देखा तो वो मेरी तरफ ही देख रहा था। उसने ब्लैक रंग की जींस और सफेद शर्ट डाली हुई थी। वो अपनी जींस की जिप के पास बार-बार लिंग को खुजलाने के बहाने सहला देता था जैसे मुझे दिखाना चाह रहा हो कि उसका लिंग कैसा है … लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से।

वैसे भी लड़कों के चेहरे को देखकर ही पता चल जाता है कि उनके मन में क्या चल रहा है। देखने में वो ठीक-ठाक था लेकिन मैंने सेक्स की नज़र से कभी उसको नहीं देखा था। दिन की रोशनी में उसकी जींस में उसका लिंग मुझे भी अलग से दिखाई देने लगा था और शायद वो उसी का साइज़ दिखाने की कोशिश भी कर रहा था.




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#4
अभी तक आपने पढ़ा कि अभी तक आपने पढ़ा कि मेरी सहेली निशा का भाई मुकेश जब कॉलेज के आखिरी दिन मुझे घर छोड़ने जा रहा था तो बीच रास्ते में गाड़ी रोककर वो पेशाब करने के बहाने मुझे अपना लिंग दिखाने की कोशिश करने लगा।

मैं अच्छी तरह जानती थी कि वो ऐसा क्यों कर रहा है लेकिन मुकेश को मैं भाई जैसा ही मानती थी। वो मेरे साथ ऐसी हरकत कैसे कर सकता था। मगर मैं गलत थी, देवेन्द्र से गुफ्तगू के बाद शायद वो मुझे दूसरी नज़र से देखने लगा था। सारे लड़के एक जैसे ही होते हैं। लड़की देखी और उस पर लाइन मारना शुरू


ऐसा नहीं था कि मेरा किसी लड़के के साथ हमबदन होने का मन नहीं करता था, कई बार करता था और ये तो स्वाभाविक सी बातें हैं मगर जहां तक लड़कों का सवाल है तो उनको हर लड़की बस मनोरंजन का साधन लगती है।
मैं मुकेश की हरकत को देख चुकी थी और मेरी एक नज़र में ही उसका लिंग तनकर अलग से उसकी जींस में टाइट हो गया था।

मेरे दिल में धक-धक होने लगी। मैंने दोबारा मुड़कर उसको नहीं देखा। मैं चुपचाप गर्दन नीचे करके बैठी रही, जैसे मुझे कुछ समझ आया ही न हो। वैसे भी मेरी कुंवारी चूत में मैंने अभी उंगली तक नहीं डाली थी तो लिंग डलवाने का तो सवाल ही नहीं था। और वो भी उस लड़के का जिसके लिए मैं मन से भी तैयार नहीं हूँ।

वो कुछ देर वहीं सड़क के किनारे खड़ा रहा। लेकिन ज्यादा देर यूं दिन-दहाड़े बीच सड़क पर खड़े होकर अकेली लड़की के साथ रुकना उसने भी मुनासिब नहीं समझा और वो गाड़ी में आकर बैठ गया। उसने गाड़ी स्टार्ट की और बाकी दिनों से दोगुनी स्पीड से सड़क पर दौड़ा दी। वो शायद मेरी बेरुखी से नाराज़ हो गया था। मुझे भी महसूस हो रहा था।

मुझे घर छोड़कर वो वापस चला गया। कॉलेज की सर्दी की छुट्टियाँ हो गई थी इसलिए मैं भी छुट्टियों में पूरा आराम करना चाहती थी। पापा भी ठीक हो गए थे। सर्दियों के छोटे दिन जल्दी ही बीतने लगे। 15 दिन की छुट्टियाँ जैसे 5 दिनों में ही खत्म हो गई, 16 जनवरी से फिर कॉलेज खुलने वाला था। मूड भी फ्रेश था और कॉलेज की मस्ती को भी मिस कर रही थी।

कॉलेज खुलने के पहले दिन पापा ही मुझे छोड़ने गए और वही छुट्टी में लेने भी आ गए। मैं गेट के बाहर निकली तो वहीं पनवाड़ी की दुकान पर देवेन्द्र खड़ा दिखाई दिया। मैं सहम गई और चुपचाप पापा के पीछे स्कूटी पर जाकर बैठ गई। मैंने नज़र उठाकर भी नहीं देखा।

अभी तक देवेन्द्र और मेरे बीच बात भी नहीं हो पाई थी, मगर उसकी हरकतें देखकर अब मुझे डर लगने लगा था।

दूसरे दिन भी यही हुआ। तीसरे और चौथे दिन भी वही कहानी।

पांचवें दिन शाम को निशा मेरे घर पर आ गई। अब मेरे घरवाले उसे अच्छी तरह जानते थे।

निशा ने माँ से कहा- आंटी, 3 दिन बाद मेरा जन्मदिन है, मैं आप सबको न्यौता देने आई हूँ।

मां ने खुश होते हुए कहा- अरे वाह बड़ी खुशी की बात है बेटी। हम ज़रूर आएँगे।

उसके बाद यहां-वहां की बातें होने लगीं और बातों-बातों में उसने पापा को टोक दिया- आप बेवजह परेशान होते हो अंकल, हम दोनों पहले की तरह ही साथ में जाया करेंगी। मेरा भी दिल नहीं लगता इसके बिना।

पहले तो पापा ने आना-कानी की लेकिन निशा के कई बार कहने पर वो मान गए। मैं भी चाहती थी कि पापा का कॉलेज तक पहुंचना ठीक नहीं है। क्योंकि देवेन्द्र वैसा नहीं निकला जैसा वो स्कूल टाइम में हुआ करता था। या फिर उसकी उफनती जवानी उससे ऐसी हरकतें करवा रही थी।

अगले दिन से मुकेश की गाड़ी फिर घर आने लगी मगर छुट्टी में देवेन्द्र वहीं खड़ा मिलता था। उस दिन जब मुकेश निशा को घर छोड़ने के बाद मुझे घर छोड़ने के लिए चला तो उसने पूछ ही लिया- आप उस लड़के को जानते हो क्या जो उस दिन मेरी गाड़ी के पास आकर बात कर रहा था.

मैंने कहा- कौन, देवेन्द्र …?

मुकेश बोला- इसका मतलब आप जानते हो, मैंने उसका नाम कब बताया था, बस लड़के के बारे में पूछा था.

मेरी चोरी पकड़ी गई, इसलिए मैंने भी अब उसके सवालों से भागना ठीक नहीं समझा।

मैंने कहा- हां, हम दोनों एक ही स्कूल में क्लासमेट रह चुके हैं।

इतना कहकर मैं चुप हो गई और मुकेश ने इसके आगे और कोई सवाल नहीं किया।

लेकिन चलती बात पर मैंने भी पूछ ही लिया- मगर भैया, आप उसको कैसे जानते हो?

मुकेश बोला- वो कॉलेज में मेरा क्लासमेट है, हम दोनों एक ही कॉलेज में पढ़ते हैं।

इससे पहले मैं कुछ और पूछती उसने कहा- वो आपसे बात करना चाहता है.
और उसने एक पर्ची पीछे मेरी तरफ बढ़ा दी।
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#5
लेकिन चलती बात पर मैंने भी पूछ ही लिया- मगर भैया, आप उसको कैसे जानते हो?
मुकेश बोला- वो कॉलेज में मेरा क्लासमेट है, हम दोनों एक ही कॉलेज में पढ़ते हैं।

इससे पहले मैं कुछ और पूछती उसने कहा- वो आपसे बात करना चाहता है.
और उसने एक पर्ची पीछे मेरी तरफ बढ़ा दी।

मैंने पर्ची खोलकर देखा तो उस पर एक फोन नम्बर लिखा हुआ था।
मैं कहने ही वाली थी कि ये क्या है, इससे पहले वो बोल पड़ा- ये देवेन्द्र का नम्बर है, एक बार उससे बात कर लेना आप!

मैंने कोई जवाब नहीं दिया और तब तक घर आ गया।

मैं गाड़ी से उतरी, घर में घुसते ही सीधे अपने कमरे में जाकर बिस्तर पर गिर गई।

मन में कौतूहल था और साथ ही डर भी। मैंने पर्ची को फिर से खोलकर देखा। मन किया कि फोन कर लूं लेकिन फिर रुक गई।

मैंने वो पर्ची वहीं किताब के कवर के नीचे रख दी और बाथरूम में फ्रेश होने चली गई।

पेशाब करने के बाद जब सलवार का नाड़ा बांधने लगी तो ध्यान चूत पर गया। मैंने उसको हल्के से छुआ। उसकी चिपकी हुई फांकों को धीरे से अलग करके देखा। अंदर से लाल थी। लेकिन उनको छेड़ते हुए अच्छा लग रहा था। मैंने हल्के से चूत को मसाज करना शुरू कर दिया। मेरी सलवार मेरे हाथ से छूटकर नीचे मेरे पैरों में सिमट कर फर्श पर इकट्ठा हो गई।

मैंने एक हाथ से चूत को मसाज देना जारी रखा और दूसरे हाथ से अपने चूचों को दबाने लगी। आज पहली बार मन कर रहा था कि किसी के मजबूत हाथों से चूचों को दबवाऊं और चूत को रगड़वाऊं।

तभी माँ ने आवाज़ लगा दी। मैं सम्भली और हाथ-मुंह धोकर बाथरूम से बाहर आ गई। मां ने कहा कि आकर चाय बना ले।

मैं दुपट्टा गले में डालकर कमरे से बाहर गई और किचन में जाकर चाय बनाने लगी। लेकिन चूत में कुछ गीलापन सा महसूस होने लगा। मैं चाय लेकर अपने कमरे में वापस आ गई। ध्यान को यहां-वहां बांटने की कोशिश की, कई बार उस किताब की तरफ नज़र गई जिसमें देवेन्द्र के फोन नम्बर की वो पर्ची रखी हुई थी।

कश्मकश में थी फोन करूं या नहीं।

और आखिरकार मैंने पर्ची निकालकर उस पर लिखे नम्बर को डायल कर ही दिया।

दूसरी तरफ डायलर रिंग जाने लगी। 3-4 रिंग के बाद फोन उठा और उधर से एक भारी सी आवाज़ आई- हैल्लो!

मैंने कहा- देवेन्द्र?


वो बोला- कौन सी बोलै है?

मैं रश्मि …” (बदला हुआ नाम)

ओहो सुणा दे माणस के हाल हैं तेरे …” उसने पूछा।

मैं ठीक हूं, तुम कैसे हो …”

बस जी आपका फोन आ गया तो हम भी ठीक हो गे …”

मुकेश ने तुमसे बात करने के लिए बोला था, कुछ काम था क्या मुझसे?”

ना काम के गोबर पथवाना है तेरे पै …? मन्नै तै बात करन खातर फोन नम्बर दिया था, उस दिन तू बोली भी कोनी जब मैं बाइक लेके आया था।

मुझे शरम आ रही थी यार, सोचा अब स्कूल खत्म हुए इतने दिन हो गए हैं, क्या बात करूं और साथ में मुकेश भी था, वो क्या सोचता अगर मैं कुछ बोलती तो।

मुकेश की चिन्ता मत कर तू, अपना ही भाई है वो। मिल ले एक दिन …” उसने पूछा।

मैंने कहा- तुम रोज़ कॉलेज के बार खड़े हुए दिखते तो हो …”

वो बोला- मैं तो खड़ा देख लिया, पर तन्नै देख कै मेरा कुछ और भी खड़ा हो जाता है …”

ये सुनते ही मैंने फोन काट दिया। धक-धक होने लगी। मुझे पता था वो अपने लिंग की बात कर रहा है।

कुछ देर पहले खुद मेरी चूत ने मुझे किसी मर्द की छुअन के लिए तड़पा दिया था लेकिन जब देवेन्द्र ने अपने मुंह से ये बात बोली तो मेरी हालत खराब हो गई।

उसने दोबारा फोन किया, लेकिन मैंने पिक नहीं किया। 3-4 मिस्ड कॉल होने के बाद उसका फोन आना बंद हो गया। शाम हो गई तो मैं डिनर की तैयारी करने लगी।

8 बजे तक सबने खाना खा लिया और मैं मम्मी-पापा के साथ हॉल में बैठकर टीवी सीरियल देख रही थी। तभी मेरा फोन दोबारा बजने लगा, स्क्रीन पर देवेन्द्र के नम्बर से इनकमिंग दिखा रहा था। मैंने कमरे में जाकर रूम का दरवाज़ा बंद कर लिया और हलो किया।

वो बोला- क्या कर रही है?

बस खाना खाया है.

फेर मिल ले न एक दिन …?” उसने पूछा.

अभी बात नहीं कर सकती, बाद में फिर कभी बात करेंगे। कहकर मैंने फोन रख दिया।

उसकी कॉल फिर से आने लगी। मैं डर रही थी कि कहीं घर वालों को शक न हो जाए कि मैं किसी लड़के से बात कर रही हूं। इसलिए मैंने फोन को स्विच ऑफ कर के एक तरफ रख दिया।

हॉल में जाकर दोबारा टीवी देखने लगी। जब सबको नींद आने लगी तो टीवी बंद होने के बाद सोने की तैयारी होने लगी।

10 बजे जब सोने के लिए बिस्तर पर लेटी तो देवेन्द्र के बारे में सोचने लगी। मेरे तने हुए स्तन और चूत का गीलापन कह रहा था ऐसा नौजवान फिर नहीं मिलेगा। मगर मन कह रहा था कि शादी से पहले अगर कुछ गड़बड़ हो गई तो घर वालों की इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी। दोनों तरफ से सोचते-सोचते दिमाग खराब हो रहा था।

मैंने उसके ख़यालों के दलदल में फंसे मन को नैतिकता की रस्सी से खींच निकालने की बहुत कोशिश की लेकिन मैं उनमें और फंसती जा रही थी।

सोचते-सोचते दिमाग थक गया और सुबह के अलार्म के साथ ही नींद खुली।
// सुनील पंडित // yourock
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#6
मैंने उसके ख़यालों के दलदल में फंसे मन को नैतिकता की रस्सी से खींच निकालने की बहुत कोशिश की लेकिन मैं उनमें और फंसती जा रही थी। सोचते-सोचते दिमाग थक गया और सुबह के अलार्म के साथ ही नींद खुली।

मैं नहा-धोकर कॉलेज के लिए तैयार हुई ही थी कि निशा आ पहुंची। मैंने किताबें उठाईं और दोनों घर से बाहर निकल गईं।

जाड़ों का मौसम अपने चरम पर था। धुंध इतनी कि गाड़ी कछुए की चाल चल रही थी। मैं सोच रही थी कि क्यों न निशा से इस बारे में बात करूं। क्या पता यह कुछ सलाह दे दे।

फिर सोचा कि रहने देती हूं, इसे वैसे भी बातें पचती नहीं हैं कहीं सारे कॉलेज में ही चर्चा होने लगे। क्योंकि देवेन्द्र को कॉलेज के चक्कर लगाते कई दिन हो गए थे। और लगभग हर लड़की से उसकी नज़र एक न एक बार तो मिल ही गई होगी अब तक।

कॉलेज पहुंचकर क्लास शुरू हो गई, लेकिन पढ़ाई में ध्यान लगा नहीं। बैठी तो क्लास में थी लेकिन अंदर ही अंदर उधेड़-बुन चल रही थी।

पूरा दिन ऐसे ही निकल गया। शाम को छुट्टी में कॉलेज के गेट के बाहर निकली तो नज़र सीधी पनवाड़ी की दुकान पर गई। देवेन्द्र आज वहां नहीं था। मैंने सोचा कि आज तो मुसीबत टली। शायद मेरे कल के नेगेटिव रेस्पोन्स की वजह से वो समझ गया कि मैं ऐसा कुछ नहीं करना चाहती।

मन ही मन खुश तो रही थी कि लेकिन हल्का सा दुख भी था क्योंकि स्कूल टाइम में उसी देवेन्द्र के सपने मैं देखा करती थी। और आज जब वो खुद आगे बढ़ना चाहता है तो मेरे कदम मेरा साथ नहीं दे रहे। उसकी एक वजह ये भी थी कि वो मुझे थोड़ा लड़कीबाज़ लगा। स्कूल टाइम में उसकी जो छवि मेरे मन में थी वो उससे बहुत बहुत बदला बदला सा लगता था अब।

इतने में ही निशा के भाई मुकेश की गाड़ी कॉलेज से थोड़ी दूरी पर रुक कर हॉर्न देने लगी। निशा और मैं दोनों गाड़ी की तरफ बढ़ने लगे। पहले निशा बैठ गई और उसके पीछे-पीछे मैं भी अपना दुपट्टा संभालते हुए अंदर बैठते हुए दरवाज़ा बंद करने लगी तो नज़र ड्राइवर वाली सीट के साथ बैठे दूसरे इंसान पर गई।

मुकेश के साथ देवेन्द्र भी गाड़ी में बैठा था। उसे गाड़ी के अंदर देख मैं सहम गई। यह यहां भी पहुंच गया। मैंने निशा की तरफ देखा और कंधा मारकर देवेन्द्र की तरफ इशारा करते हुए आंखों ही आंखों में उससे पूछा कि ये यहां क्या कर रहा है?

निशा ने फिर भी मेरे इशारे का कोई जवाब नहीं दिया और वो चुपचाप अपने फोन में लग गई। मैंने सोचा कि मुकेश की वजह से कुछ नहीं बोल रही होगी। लेकिन घर जाने के बाद इससे पूछूंगी ज़रूर कि ये सब चल क्या रहा है.

इतने में गाड़ी चल पड़ी और जल्दी ही निशा का घर आ गया। लेकिन ये क्या निशा के साथ-साथ मुकेश भी गाड़ी से उतर गया।

उतरते हुए मुकेश ने देवेन्द्र से कहा- मुझे कुछ देर में किसी ज़रूरी काम से बाहर जाना है इसलिए इनको (रश्मि को) घर छोड़कर तू गाड़ी मेरे घर वापस ले आइयो।

मैं चुपचाप बैठी रही और देवेन्द्र उतरकर सामने से घूमकर ड्राइवर वाली खिड़की खोलकर गाड़ी में बैठ गया और गाड़ी का एस्केलेटर दबा दिया। मैंने सामने वाले शीशे में देखा तो वो मुझे ही देख रहा था।

मैंने नज़र झुका ली।

इतने में वो बोल पड़ा- के होया …? स्कूल मैं तो बड़ी छुप-छुप के देख्या करती इब इतनी शरम आने लगी तनै माणस?

मैंने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया।

वो फिर बोला- अरै बात तो कर ले। मैं के खाऊं हूं तन्नै?

मैंने कहा- ये सब क्या ड्रामा चल रहा है। आज गाड़ी में तुम कैसे आ गए?

वो बोला- क्यूं पसंद कोनी के तन्नै मैं …?

उसके इस सवाल का जवाब तो वो भी जानता था लेकिन वो मेरे मुंह से कहलवाना चाहता था और इस वक्त मैंने इसको ये जतलाया कि मैं इसको पसंद करती हूं तो फिर ये ज़बरदस्ती करना शुरू न कर दे, इसलिए मैंने जवाब नहीं दिया, मैं चुप ही रही।

देवेन्द्र ने सफेद टाइट पैंट और गहरे केसरिया रंग की टी-शर्ट पहन रखी थी और उसके ऊपर ब्लेज़र डाला हुआ था। उसे देखकर कोई भी लड़की उस पर फ्लैट हो सकती थी लेकिन मैं अभी रिस्क नहीं लेना चाहती थी।

हम शहर से बाहर आ चुके थे और खेतों का एरिया शुरू हो गया था। शाम के 4 बजने को थे लेकिन सूरज जैसे आज निकला ही नहीं था। बाहर हल्की-हल्की धुएं जैसी पतली धुंध की चादर खेतों के ऊपर अभी से गिरना शुरू होने लगी थी।

जब आधे रास्ते में पहुंच गए तो देवेन्द्र ने गाड़ी धीमी करते हुए एक तरफ सड़क के किनारे रोक दी। वो गाड़ी से उतरा और दरवाज़ा बंद करते हुए कुछ पल सड़क पर बाहर खड़ा रहने के बाद पीछे वाली खिड़की खोलकर अंदर झांका और बोला- ज़रा उस तरफ सरक ले मुझे कुछ बात करनी है तेरे से।

मैं सीट पर दूसरी तरफ सरक गई और उसने गाड़ी का दरवाज़ा बंद करके उस पर काली जालीदार चिपकने वाली स्क्रीन लगा दी। मेरे दूसरी तरफ खेत थे जहां दूर-दूर तक कोई इंसान नज़र नहीं आ रहा था और ढलती हुई शाम की वजह से सड़क पर भी कोई वाहन दिखाई नहीं दे रहा था।

देवेन्द्र आकर मेरी बगल में बैठ गया और उसने बिना मेरी इजाज़त के मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया और सीधा अपने सीने पर रखवा दिया। मुझे उसकी धड़कन अपनी हथेली पर धक-धक करती हुई महसूस हो रही थी। मैंने उसको नज़र उठाकर देखा तो वो भी मेरी आंखों में देखने लगा। उसकी आंखों में अजीब सी कशिश थी।

मेरे कुछ पूछने से पहले उसने बोल दिया- नाराज़ है के मेरे से?

मैंने नीचे देखते हुए ना में गर्दन हिला दी।

तो फिर बात क्यों नहीं करती मुझसे?” उसने पूछा।

कोई देख लेगा देवेन्द्र, चलो यहां से ये सब ठीक नहीं है।मैंने कहा.

वो बोला- दुनिया को मार गोली, तू ये बता मुझे पसंद करती है या नहीं?

मैंने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया।

उसने मेरा हाथ अपने सीने से हटाकर अपनी जांघ पर रखवा लिया और अपने हाथों से मेरी ठुड्डी को उठाते हुए पूछने लगा- कुछ बोलेगी भी या मैं हवा से बातें कर रहा हूं?

उसने धीरे से मेरा हाथ अपनी जांघों पर ऊपर बढ़ाते हुए अपने लिंग पर रखवा दिया जो उसकी पैंट में पहले से ही तना हुआ था। मेरे हाथ रखते ही लिंग ने एक जोर का झटका दिया जिसके बाद मैंने हाथ हटवाना चाहा लेकिन उसने मेरा हाथ पकड़े रखा।
वो बोला- रश्मि देख मेरी क्या हालत हो रही है मान जा ना यार …”

मैंने कहा- यार, कोई देख लेगा चलो यहां से, मुझे घर जाना है।

वो बोला- जब तक तू मेरी बात का जवाब नहीं देती, मैं आज तुझे घर नहीं जाने दूंगा।
यार देवेन्द्र, मान जाओ ना …”

तू भी तो नहीं मान रही …” उसने कहा।

लेकिन यार …”

इससे पहले मैं कुछ और बोलती उसने मेरी गर्दन पर पीछे मेरे बालों के नीचे हाथ डालकर अपनी तरफ खींचा और मेरे होंठों पर होंठ रखते हुए मुझे चूसने लगा।


साथ ही दूसरे हाथ से वो सीधा मेरे स्तनों को सूट के ऊपर से ही दबाने-सहलाने लगा।
मैंने छुड़ाना तो चाहा लेकिन उसकी पकड़ मजबूत थी और पहली बार उसके होंठों को चूसने में मुझे भी मज़ा सा आ रहा था। मैं उसकी जवानी के जोश की लहरों में धीरे-धीरे उसके साथ बहने लगी।
// सुनील पंडित // yourock
मैं तो सिर्फ तेरी दिल की धड़कन महसूस करना चाहता था
बस यही वजह थी तेरे ब्लाउस में मेरा हाथ डालने की…!!!
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#7
Rainbow 
मैंने छुड़ाना तो चाहा लेकिन उसकी पकड़ मजबूत थी और पहली बार उसके होंठों को चूसने में मुझे भी मज़ा सा आ रहा था। मैं उसकी जवानी के जोश की लहरों में धीरे-धीरे उसके साथ बहने लगी।


में अभी तक आपने पढ़ा कि कॉलेज की छुट्टियों के बाद जब पढ़ाई शुरू हुई तो एक दिन देवेन्द्र मुकेश के साथ ही उसकी गाड़ी में बैठा हुआ मिला। निशा के घर पर वो दोनों भाई बहन उतर गए और मुझे घर छोड़ने का काम मुकेश ने देवेन्द्र को सौंप दिया। जब हम शहर से बाहर निकल कर खेतों के एरिया में आ गए तो देवेन्द्र गाड़ी रोककर पीछे मेरे साथ आ बैठा और उसने अपने तने हुए लिंग पर मेरा हाथ रखवा दिया।

अगले ही पल उसने मेरे होंठों को चूसना शुरू कर दिया और साथ ही मेरे स्तनों को भी दबाने लगा।

मैं गर्म होकर उसकी जवानी के सागर में डूबने लगी और उसने मेरे शर्ट में नीचे से हाथ डालकर मेरी ब्रा में दबे मेरे स्तनों को दबाना शुरू कर दिया। अब मैं किसी तरह का विरोध नहीं कर रही थी और उसके होंठों को चूसे जा रही थी। उसने मेरा हाथ पकड़कर फिर से उसकी पैंट में तने लिंग पर रखवा दिया और अबकी बार मैंने उसके लिंग को अच्छी तरह सहलाना शुरू कर दिया।

वो मेरे होंठों को और ज़ोर से चूसने काटने लगा। हम दोनों की सांसों की गर्मी से गाड़ी का माहौल भी गर्म हो गया था। उसका लिंग झटके पर झटके दे रहा था। जिसे मैं अपने हाथ से सहलाती हुई पकड़ने की कोशिश कर रही थी। सख्त और मोटे लिंग की छुअन से मेरी टांगें अपने आप ही गाड़ी की सीट पर फैलने लगीं और देवेन्द्र ने मेरी सलवार के ऊपर से ही मेरी पैन्टी को टटोलकर मेरी चूत को सहलाना शुरू कर दिया।

हम भूल गए थे कि खेतों के बीच सड़क पर गाड़ी में बैठकर एक दूसरे को चूस रहे हैं। तभी गाड़ी के पास से एक तेज़ रफ्तार दूसरी कार गुज़री और मैं देवेन्द्र से अलग हो गई। मैंने होश संभाला। और उसे अपने से अलग कर दिया।

वो बोला- क्या हुआ जान?

मैंने कहा- बस और नहीं, अब मुझे घर जाना है।

वो बोला- क्यूं, क्या हो गया?

मैंने कहा- तुम मुझे घर छोड़कर आ रहे हो या मैं पैदल ही चली जाऊं?

वो बोला- ठीक है, गुस्सा क्यूं हो रही है?

उसने गाड़ी का दरवाज़ा खोला और बाहर निकलकर ड्राइविंग सीट पर बैठकर गाड़ी स्टार्ट की और सड़क पर दौड़ा दी।

5 मिनट में हम गांव के नजदीक पहुंच गए।

मैंने कहा- बस यहीं रोक दो, मैं यहां से पैदल चली जाऊंगी।

वो बोला- ठीक है, तेरी मर्ज़ी।

मैं गाड़ी से उतरी और मुंह पर दुपट्टा लपेटकर किताबों को सीने से चिपका कर सड़क के किनारे अपने गांव की तरफ बढ़ने लगी। मैंने पीछे मुड़कर भी नहीं देखा कि कहीं कोई ये न देख ले कि मैं किस लड़के की गाड़ी से उतरी हूं।

शाम को निशा का फोन आया- कल तू आ रही है ना मेरे घर?

मैंने पूछा- कल क्या है..

भुलक्कड़ कल मेरा जन्मदिन है। भूल गई इतनी जल्दी?”

मैंने कहा- हां देखती हूं।

वो बोली- देखना-वेखना कुछ नहीं है, तेरे आने के बाद ही केक काटूंगी मैं।

मैंने कहा- ठीक है।

मैंने रात का खाना बनाने के बाद आज टीवी भी नहीं देखा और चुपचाप अपने कमरे में जाकर बिस्तर पर लेट गई।

लेटते ही देवेन्द्र के साथ हुई दिन वाली कामुक घटना ने मेरे दिमाग पर कब्ज़ा कर लिया। मैंने अपनी नाइट वाली पजामी निकालकर सीधे चूत को सहलाना शुरू कर दिया। कुछ ही देर में मैं गर्म हो गई और मैंने पैंटी भी निकाल दी। मैंने तेज़ी से अपनी चूत को अपनी उंगलियों से मसलना शुरू कर दिया और एक हाथ को टॉप के अंदर डालकर अपने स्तनों को दबाने लगी।

मेरी हालत खराब हो रही थी। काश देवेन्द्र अभी पास में होता तो मेरी प्यास बुझाने के लिए मुझ पर टूट पड़ता। मैं तड़पने लगी।

तभी लाइट चली गई और कमरे में अंधेरा हो गया। पूरे घर में सन्नाटा पसर गया और साथ ही मच्छर भी भिनभिनाने लगे।

ध्यान भटका तो सोचा, ये मैं किस रास्ते पर जा रही हूं।

मैंने वापस से पजामी पहन ली और कम्बल ओढ़कर सो गई।

अगले दिन निशा के लिए गिफ्ट लेने जाना था। मैं नहा-धोकर माँ के साथ बाज़ार चली गई। मैंने निशा के लिए गणेश जी की मूर्ति गिफ्ट के रूप में पैक करवा ली।

दिन के 3 बजे उसका फोन आया- रश्मी, मुकेश घर पर नहीं है तो उसका दोस्त भाई की गाड़ी लेकर तुम्हें लेने आएगा।

मैंने कहा- मगर

वो बोली- क्या हुआ कुछ प्रॉब्लम है?

मैंने दो पल सोचा और कह दिया- नहीं, मैं पहुंच जाऊंगी।

शाम के 5 बजे घर के बाहर गाड़ी का हॉर्न बजा तो मैंने जल्दी से माँ को आवाज़ लगाते हुए कहा- माँ, मैं मुकेश के साथ निशा के घर जा रही हूं।

माँ बोली- ठीक है, लेकिन टाइम से आ जाना।

मैंने पल की भी देर किए बिना गेट तुरंत बंद कर दिया। मैं नहीं चाहती थी कि घर वालों को पता चले कि मुकेश की गाड़ी में देवेन्द्र मुझे लेने आया है।

मैंने क्रीम रंग का कढ़ाई वाला सूट जिसके नीचे केसरिया रंग की चूड़ीदार पजामी पहन रखी थी और गले में आर्टीफिशल जूलरी डाल ली थी। सूट के ऊपर नीले रंग का कार्डिगन जो सर्दी से बचने के लिए डाल लिया था। बालों को शैम्पू करके सुखा कर खुला छोड़ दिया था और केसरिया रंग का जालीदार दुपट्टा सिर पर ढककर मैं गिफ्ट हाथ में लिए हुए जल्दी से गाड़ी के अंदर आकर बैठ गई।
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#8
मैंने क्रीम रंग का कढ़ाई वाला सूट जिसके नीचे केसरिया रंग की चूड़ीदार पजामी पहन रखी थी और गले में आर्टीफिशल जूलरी डाल ली थी। सूट के ऊपर नीले रंग का कार्डिगन जो सर्दी से बचने के लिए डाल लिया था। बालों को शैम्पू करके सुखा कर खुला छोड़ दिया था और केसरिया रंग का जालीदार दुपट्टा सिर पर ढककर मैं गिफ्ट हाथ में लिए हुए जल्दी से गाड़ी के अंदर आकर बैठ गई।


लेकिन गाड़ी में बैठने के बाद देखा तो अंदर मुकेश बैठा हुआ था।


मैंने पूछा- भैया आप?

वो बोला- क्यूं … मेरी गाड़ी में कोई और होना चाहिए था क्या?

मैंने कहा- नहीं वो बात नहीं, मगर निशा तो कह रही थी कि आप घर पर नहीं हो और आपका कोई दोस्त मुझे घर से लेकर जाएगा।

मुकेश ने कहा- मैं बस कुछ देर पहले ही घर पहुंचा था, नहीं तो तुम्हें ले जाने के लिए मैंने देवेन्द्र को फोन कर दिया था। मगर मैं टाइम से पहुंच गया तो मैं ही आ गया।

कहकर उसने गाड़ी स्टार्ट की और हम निशा के घर की तरफ चल पड़े।
घर पहुंचकर निशा के जन्मदिन पर कॉलेज की बाकी सहेलियाँ भी इकट्ठा हो रखी थीं। सबने खूब मस्ती मज़ाक किया और केक काटने का समय हो गया।
केक कटने के बाद सबने निशा को बर्थडे विश करते हुए गिफ्ट दिए और लड़कियाँ अपने घर जानें लगीं। मैंने निशा से कहा कि मुकेश भैया को बोल दे कि मुझे घर तक छोड़कर आ जाएँ।

वो अंदर अपने कमरे में गई और कुछ देर में वापस आकर बोली- मैंने भैया को बोल दिया है, तब तक तुम खाना खा लो।

निशा ने मेरे लिए खाना लगवा दिया।

मैं खाना खाकर मुकेश का इंतज़ार करने लगी। कुछ देर बाद वो बाहर आया और मुझसे चलने के लिए कहा। मैंने निशा को बाय बोलकर उसको फिर से बर्थडे विश किया और मेन गेट से बाहर निकलने लगी. मेरे साथ-साथ वो भी मुझे बाहर तक छोड़ने आ गई।

शाम के 7 बज चुके थे और जाड़े की ठंडी अंधेरी रात घिर आई थी। मैंने निशा को गाड़ी में बैठते हुए टाटा कहा और मुकेश ने गाड़ी स्टार्ट की और हम घर के लिए निकल पड़े।

कुछ ही दूर चले थे कि मुकेश ने गाड़ी धीमी कर ली। रात के अंधेरे में सड़क के किनारे कोई खड़ा होकर हाथ से गाड़ी को अपनी तरफ आने का इशारा कर रहा था। मुकेश ने गाड़ी उस शख्स के पास ले जाकर रोक दी। उसने गाड़ी का दरवाज़ा खोला और सीधा पीछे वाली सीट पर आकर बैठ गया।

वो देवेन्द्र था। मैं चौंक गई। अब ये क्या नई चाल है इन दोनों की।

मैं चुपचाप बैठी रही और मुकेश ने गाड़ी की स्पीड बढ़ा दी। जब गाड़ी शहर से बाहर निकल गई तो देवेन्द्र ने मेरा हाथ पकड़कर अपनी तरफ खींचा और सीधा मेरे होंठों को चूसने लगा। मैं समझ गई कि दोनों ने पहले से प्लानिंग कर रखी थी कि मुकेश गाड़ी में जब मुझे घर छोड़ने जाए तो रास्ते में देवेन्द्र को लेता चले।

अब विरोध करने का तो फायदा था ही नहीं क्योंकि मैं उन दोनों के भरोसे ही थी। मैं देवेन्द्र को अलग करते चुपके से कान में फुसफुसायी- मुकेश के सामने ये सब क्या कर रहे हो?

जवाब में उसने भी फुसफुसा दिया- मैंने मुकेश को पहले से बता रखा था कि तेरे-मेरे बीच में क्या चल रहा है!

कहकर उसने मेरा हाथ अपनी लोअर में तने लिंग पर रखवाते हुए फिर से मेरे होंठों को चूसना शुरू कर दिया। मेरे खुले कार्डिगन के अंदर हाथ डालकर उसने मेरे स्तनों को दबाना भी शुरू कर दिया।

2-3 मिनट बाद गाड़ी की स्पीड धीमी होने लगी और वो मेन रोड़ से उतरकर कच्ची सड़क पर जाने लगी।

मैंने चुपके से फिर कहा- कहां ले जा रहे हो मुझे?

देवेन्द्र बोला- मुकेश के खेत पर!

इतने में ही गाड़ी खेतों के बीच में बनी कोठरी के पास जा रूकी।

मुकेश ने गाड़ी की सारी लाइट्स पहले से ही बंद कर रखी थीं।

उसने खिड़की खोलते हुए देवेन्द्र से कहा- आजा रै … सारा काम तैयार है.
देवेन्द्र ने मुझे नीचे उतरने के लिए कहा।

मरती मैं क्या न करती … चुपचाप नीचे उतर गई।

बाहर कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। गाड़ी में तो ठंड का अहसास भी नहीं हो रहा था लेकिन बाहर निकलते ही मेरी कुल्फी बनने लगी।

बाहर चारों तरफ सुनसान खेतों में रात का ठंडा घनघोर अंधेरा था और कोहरे में 10 फीट दूर देखना भी मुश्किल था।

इतने में मुकेश ने कोठरी का ताला खोल दिया और देवेन्द्र मेरा हाथ पकड़ कर मुझे मुकेश के पीछे-पीछे कोठरी के अंदर ले गया।

दरवाज़ा बंद करते ही मुकेश ने पीली रोशनी वाला एक बल्ब जला दिया और खुद कोठरी से बाहर निकल गया।
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#9
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दरवाज़ा बंद करते ही मुकेश ने पीली रोशनी वाला एक बल्ब जला दिया और खुद कोठरी से बाहर निकल गया।


मैंने कहा- ये कहां जा रहा है?
वो बोला- ये गाड़ी में बैठकर दारू पीएगा, और बाहर की रखवाली करेगा कि कोई अंदर न आए।

कहते ही देवेन्द्र ने मेरे कार्डिगन को उतरवा दिया और मुझे बाहों में लेकर फिर से मेरे होंठों को चूसने लगा। उसने मुझे पास की दीवार से सटा लिया और मेरे दोनों हाथों को मेरे सिर के ऊपर अपने हाथों में जकड़ते हुए दूसरे हाथ से मेरी चूत को पजामी के ऊपर से ही सहलाते हुए मुझे ज़ोर-ज़ोर से चूसने लगा।

मैं गर्म होने लगी और देवेन्द्र ने मेरा कमीज निकलवाते हुए नीचे ज़मीन पर पड़ी पराली पर डाल दिया। मैं सफेद ब्रा में दीवार से सटी हुई खड़ी थी और देवेन्द्र ने अपने ट्रैक सूट को खोलकर नीचे फेंकते हुए नीचे पहनी शर्ट के बटन खोलना भी शुरू कर दिया।

पल भर में उसकी चौड़ी छाती नंगी थी और वो मुझ पर टूट पड़ा उसने मेरे स्तनों को ज़ोर-ज़ोर से दबाते हुए मेरी चूत के बीच में ज़ोर-ज़ोर से रगड़ते हुए मेरे होंठों को काटना शुरू कर दिया।

उसका लिंग उसकी लोअर में नुकीला होकर मेरी जांघों में छेद करने के लिए उतावला मालूम पड़ रहा था।

उसने अगले ही पल अपनी लोअर उतार दी और साथ में अंडरवियर भी। वो बिल्कुल नंगा हो गया और मेरी ब्रा को खोलने लगा। जब मेरी ब्रा का हुक नहीं खुल सका तो उसने उतावलेपन में उसे मेरे कंधों से नीचे सरकाते हुए खींचकर मेरे पेट पर लाकर छोड़ दिया और मेरे गोरे स्तन नंगे हो गए। उसने बिना देर किए उन पर अपने होंठ रख दिए और मैं सिहर गई।

पहली बार किसी मर्द के होंठों में जाकर मेरे स्तनों में दौड़ी सरसरी ने मेरे तन-बदन में आग लगा दी- आह्ह्ह्ह देवेन्द्र
देवेन्द्र उनको चूसने काटने में इतना मशगूल था कि वो कोठरी के दरवाज़े को अंदर से बंद करना भी भूल गया था।

जब मेरी नज़र दरवाज़े पर पड़ी तो मुकेश बाहर से हल्के से खुले दरवाज़े के बीच से हमारी रास-लीला देखता हुआ नज़र आ गया मुझे।

मैंने देवेन्द्र से कहा बस करो, कोई आ जाएगा। इससे आगे जाना ठीक नहीं है।
लेकिन वो कहां सुन रहा था मेरी।

उसने अपना हाथ मेरे नाड़े की तरफ बढ़ाया तो मैंने उसका हाथ पकड़ लिया।
मैंने कहा- नहीं देवेन्द्र, ये ठीक नहीं है।

मुझे पता था कि मुकेश बाहर से सब देख रहा है। लेकिन देवेन्द्र ने मेरे हाथ हटाते हुए मेरा नाड़ा खोल दिया और मेरी पजामी को नीचे खींच लिया। मैं पैंटी में थी और मेरी ब्रा मेरे पेट पर लिपटी हुई थी।

अगले ही पल उसने मेरी पजामी को भी निकलवा दिया और साथ ही पैंटी को भी।

मेरी नई नवेली चूत देवेन्द्र के सामने बिल्कुल नंगी हो गई थी।

उसने मेरी एक टांग को अपने हाथ से हल्का सा ऊपर उठाया और खुद घुटनों के बल नीचे बैठकर मेरी चूत पर अपने होंठ रख दिए।

मैं तड़प उठी- ओह्ह्ह यार

उसने जब जीभ अंदर डाली तो मैं पागल होने लगी। वो अपनी गर्म जीभ को मेरी चूत में अंदर बाहर करने लगा।

अब मुझसे भी बर्दाश्त नहीं हुआ और मैंने उसे उठाते हुए उसको फिर से खड़ा कर लिया और उसके होंठों को चूसने लगी।

उसने मेरी टांगों को उठाए हुए ही अपने लिंग को मेरी चूत पर लगाकर अपना सारा भार दीवार की तरफ लगा दिया और उसका लिंग मेरी चूत में प्रवेश करने लगा। मैं उससे लिपट गई और उसकी छाती में मुंह छिपाते हुए दर्द को बर्दाश्त करने की कोशिश करने लगी। मेरे स्तन उसकी नंगी छाती से सटे हुए थे और वो मेरी गर्दन पर किस करते हुए मुझे प्यार कर रहा था।

धीरे-धीरे उसका लिंग मेरी चूत में उतर गया और उसने मुझे गोदी में उठाते हुए नीचे पराली पर लेटा दिया।

मेरे होंठों को चूसते हुए उसने हौले-हौले अपना लिंग मेरी चूत से पूरा बाहर निकाले बिना फिर से हल्के हल्के दबाव बनाया और मुझ पर लेट गया। मैंने उसको बांहों में भर लिया।

अब उसने लिंग को धीरे-धीरे मेरी चूत में अंदर-बाहर करना शुरू कर दिया।
मुझे दर्द तो बहुत हो रहा था लेकिन मेरे गर्म जिस्म से सटा देवेन्द्र का नंगा बदन और मेरे गले में उतर रहा उसके होंठों का रस दर्द पर मरहम का काम कर रहे थे। मैं उसकी कामक्रीड़ा में डूबने लगी। पहली बार मेरी चूत किसी मर्द के लिंग के घर्षण का मज़ा लेने में मशगूल हो गई थी।

देवेन्द्र की स्पीड बढ़ने लगी और साथ ही उसका जोश मेरी चूत का दर्द भी बढ़ाने लगा था। उसका लिंग काफी मोटा था। मैं उसकी कमर को सहलाते हुए अपने दर्द को कम करने की पूरी कोशिश कर रही थी।

लेकिन जैसे-जैसे उसकी स्पीड बढ़ती गई उसका लिंग मेरी चूत को फाड़ने लगा। अब तो वो जैसे पागल सा हो गया था। उसे मेरे दर्द से कुछ लेना-देना नहीं रह गया था। बस अपने लिंग को चूत में पेलते हुए मेरे स्तनों को चुटकी से काटते हुए मुझे चोदे जा रहा था।

5 मिनट तक उसने इसी स्पीड से मुझे चोदा और एकाएक उसका शरीर अकड़ने लगा। और स्पीड कम होते-होते वो शांत होकर मेरे ऊपर गिर गया।
कुछ पल हम ऐसे ही पड़े रहे।

मैंने कहा- उठो, मुझे ठंड लग रही है।

वो उठा तो मैंने देखा कि मुकेश अभी भी दरवाज़े से झांक रहा था लेकिन अब दरवाज़ा थोड़ा ज्यादा खुल गया था और मुकेश के लिंग से निकले वीर्य ने दरवाज़े को बीच में से गीला कर दिया था।

देवेन्द्र उठकर अपने कपड़े पहनने लगा और मुझे भी उठने के लिए कहा।
उस रात देवेन्द्र ने मेरी कुंवारी चूत को चोदकर मुझे दर्द और मज़ा दोनों ही खूब दिए।

लेकिन बात यहां पर खत्म होने वाली नहीं थी।

अभी के लिए इतना ही, बाकी की कहानी फिर कभी ///
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#10
Beautiful.. Waiting for more
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