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Non-erotic पूस की रात
#1
पूस की रात

प्रेमचंद
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#2
पूस की रात

प्रेमचंद
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#3
Heart URDU Heart
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जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#4
हल्कू ने आ कर अपनी बीवी से कहा, “शहना आया है लाओ जो रुपये रखे हैं उसे देदो किसी तरह गर्दन तो छूटे।”

मुन्नी बहू झाड़ू लगा रही थी। पीछे फिर कर बोली, “तीन ही तो रुपये हैं दे दूं, तो कम्बल कहाँ से आएगा। माघ-पूस की रात खेत में कैसे कटेगी। उससे कह दो फ़सल पर रुपये देंगे। अभी नहीं है।”

हल्कू थोड़ी देर तक चुप खड़ा रहा। और अपने दिल में सोचता रहा पूस सर पर आगया है। बग़ैर कम्बल के खेत में रात को वो किसी तरह सो नहीं सकता। मगर शहना मानेगा नहीं; घुड़कियां देगा। ये सोचता हुआ वो अपना भारी जिस्म लिए हुए (जो उसके नॉम को ग़लत साबित कर रहा था) अपनी बीवी के पास गया। और ख़ुशामद कर के बोला, “ला दे दे गर्दन तो किसी तरह से बचे कम्बल के लिए कोई दूसरी तद्बीर सोचूँगा।”

मुन्नी उसके पास से दूर हट गई। और आँखें टेढ़ी करती हुई बोली, “कर चुके दूसरी तद्बीर। ज़रा सुनूँ कौन तद्बीर करोगे? कौन कम्बल ख़ैरात में देदेगा। न जाने कितना रुपया बाक़ी है जो किसी तरह अदा ही नहीं होता। मैं कहती हूँ तुम खेती क्यों नहीं छोड़ देते। मर मर कर काम करो। पैदावार हो तो उससे क़र्ज़ा अदा करो चलो छुट्टी हुई, क़र्ज़ा अदा करने के लिए तो हम पैदा ही हुए हैं। ऐसी खेती से बाज़ आए। मैं रुपय न दूँगी, न दूँगी।”

हल्कू रंजीदा हो कर बोला, “तो क्या गालियां खाऊं।”

मुन्नी ने कहा, “गाली क्यों देगा? क्या उस का राज है?” मगर यह कहने के साथ ही उसकी तनी हुई भवें ढीली पड़ गईं। हल्कू की बात में जो दिल दहलाने देनेवाली सदाक़त थी। मा’लूम होता था कि वो उसकी जानिब टकटकी बाँधे देख रही थी। उसने ताक़ पर से रुपये उठाए और लाकर हल्कू के हाथ पर रख दिए। फिर बोली, “तुम अब की खेती छोड़ दो। मज़दूरी में सुख से एक रोटी तो खाने को मिलेगी। किसी की धौंस तो न रहेगी अच्छी खेती है, मज़दूरी कर के लाओ वो भी उस में झोंक दो। इस पर से धौंस।”

हल्कू ने रुपये लिये और इस तरह बाहर चला। मा’लूम होता था वो अपना कलेजा निकाल कर देने जा रहा है। उसने एक एक पैसा काट कर तीन रुपये कम्बल के लिए जमा किए थे। वो आज निकले जा रहे हैं। एक एक क़दम के साथ उसका दिमाग़ अपनी नादारी के बोझ से दबा जा रहा था।

पूस की अँधेरी रात। आसमान पर तारे भी ठिठुरते हुए मा’लूम होते थे। हल्कू अपने खेत के किनारे ऊख के पत्तों की एक छतरी के नीचे बाँस के खटोले पर अपनी पुरानी गाढे की चादर ओढ़े हुए काँप रहा था। खटोले के नीचे उसका साथी कुत्ता, जबरा पेट में मुँह डाले सर्दी से कूँ कूँ कर रहा था। दो में से एक को भी नींद न आती थी।

हल्कू ने घुटनों को गर्दन में चिमटाते हुए कहा, “क्यों जबरा जाड़ा लगता है, कहा तो था घर में पियाल पर लेट रह। तू यहां क्या लेने आया था! अब खा सर्दी मैं क्या करूँ। जानता था। मैं हलवा पूरी खाने आरहा हूँ। दौड़ते हुए आगे चले आए। अब रोओ अपनी नानी के नाम को।” जबरा ने लेटे हुए दुम हिलाई और एक अंगड़ाई लेकर चुप हो गया शायद वो ये समझ गया था कि उसकी कूँ, कूँ की आवाज़ से उसके मालिक को नींद नहीं आरही है।

हल्कू ने हाथ निकाल कर जबरा की ठंडी पीठ सहलाते हुए कहा, “कल से मेरे साथ ना आना नहीं तो ठंडे हो जाओगे। ये रांड पछुवा हवा न जाने कहाँ से बर्फ़ लिये आरही है। उठूँ फिर एक चिलम भरूँ किसी तरह रात तो कटे। आठ चिलम तो पी चुका। ये खेती का मज़ा है और एक भागवान ऐसे हैं जिन के पास अगर जाड़ा जाये तो गर्मी से घबरा कर भागे। मोटे गद्दे लिहाफ़ कम्बल मजाल है कि जाड़े का गुज़र हो जाए। तक़दीर की ख़ूबी है मज़दूरी हम करें। मज़ा दूसरे लूटें।”

हल्कू उठा और गड्ढे में ज़रा सी आग निकाल कर चिलम भरी। जबरा भी उठ बैठा। हल्कू ने चिलम पीते हुए कहा, “पिएगा चिलम? जाड़ा तो क्या जाता है, हाँ ज़रा मन बहल जाता है।”

जबरा ने उसकी जानिब मुहब्बत भरी निगाहों से देखा। हल्कू ने कहा, “आज और जाड़ा खाले। कल से मैं यहां पियाल बिछा दूं गा। उसमें घुस कर बैठना जाड़ा न लगेगा।”

जबरा ने अगले पंजे उसके घुटनों पर रख दिए और उसके मुँह के पास अपना मुँह ले गया। हल्कू को उसकी गर्म सांस लगी। चिलम पी कर हल्कू, फिर लेटा। और ये तय कर लिया कि चाहे जो कुछ हो अब की सो जाऊँगा। लेकिन एक लम्हे में उसका कलेजा काँपने लगा। कभी इस करवट लेटा कभी उस करवट। जाड़ा किसी भूत की मानिंद उसकी छाती को दबाए हुए था।

जब किसी तरह न रहा गया तो उसने जबरा को धीरे से उठाया और उसके सर को थपथपा कर उसे अपनी गोद में सुला लिया। कुत्ते के जिस्म से मा’लूम नहीं कैसी बदबू आरही थी पर उसे अपनी गोद से चिमटाते हुए ऐसा सुख मा’लूम होता था जो इधर महीनों से उसे न मिला था। जबरा शायद ये ख़्याल कर रहा था कि बहिश्त यही है और हल्कू की रूह इतनी पाक थी कि उसे कुत्ते से बिल्कुल नफ़रत न थी। वो अपनी ग़रीबी से परेशान था जिसकी वजह से वो इस हालत को पहुंच गया था। ऐसी अनोखी दोस्ती ने उसकी रूह के सब दरवाज़े खोल दिए थे उसका एक-एक ज़र्रा हक़ीक़ी रोशनी से मुनव्वर हो गया था ।इसी अस्ना में जबरा ने किसी जानवर की आहट पाई, उसके मालिक की इस ख़ास रूहानियत ने उसके दिल में एक जदीद ताक़त पैदा कर दी थी जो हवा के ठंडे झोंकों को भी नाचीज़ समझ रही थी। वो झपट कर उठा और छप्परी से बाहर आकर भौंकने लगा। हल्कू ने उसे कई मर्तबा पुचकार कर बुलाया पर वो उसके पास न आया खेत में चारों तरफ़ दौड़-दौड़ कर भौंकता रहा। एक लम्हा के लिए आ भी जाता तो फ़ौरन ही फिर दौड़ता, फ़र्ज़ की अदायगी ने उसे बेचैन कर रखा था।

एक घंटा गुज़र गया सर्दी बढ़ने लगी। हल्कू उठ बैठा और दोनों घुटनों को छाती से मिला कर सर को छुपा लिया फिर भी सर्दी कम न हुई ऐसा मालूम होता था कि सारा ख़ून मुंजमिद हो गया है। उसने उठकर आसमान की जानिब देखा अभी कितनी रात बाक़ी है। वो सात सितारे जो क़ुतुब के गिर्द घूमते हैं। अभी अपना निस्फ़ दौरा भी ख़त्म नहीं कर चुके जब वो ऊपर आजाऐंगे तो कहीं सवेरा होगा।अभी एक घड़ी से ज़्यादा रात बाक़ी है।

हल्कू के खेत से थोड़ी देर के फ़ासले पर एक बाग़ था। पतझड़ शुरू हो गई थी। बाग़ में पत्तों का ढेर लगा हुआ था, हल्कू ने सोचा चल कर पत्तियाँ बटोरूं और उनको जला कर ख़ूब तापूँ रात को कोई मुझे पत्तियाँ बटोरते देखे तो समझे कि कोई भूत है कौन जाने कोई जानवर ही छुपा बैठा हो। मगर अब तो बैठे नहीं रहा जाता।

उसने पास के अरहर के खेत में जाकर कई पौदे उखाड़े और उसका एक झाड़ू बना कर हाथ में सुलगता हुआ उपला लिए बाग़ की तरफ़ चला । जबरा ने उसे जाते देखा तो पास आया और दुम हिला ने लगा।

हल्कू ने कहा अब तो नहीं रहा जाता जब्रो, चलो बाग़ में पत्तियाँ बटोर कर तापें टाठे हो जाऐंगे तो फिर आकर सोएँगे। अभी तो रात बहुत है।

जबरा ने कूँ कूँ करते हुए अपने मालिक की राय से मुवाफ़क़त ज़ाहिर की और आगे-आगे बाग़ की जानिब चला। बाग़ में घटाटोप अंधेरा छाया हुआ था। दरख़्तों से शबनम की बूँदें टप टप टपक रही थीं यका-य़क एक झोंका मेहंदी के फूलों की ख़ुशबू लिये हुए आया।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
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#5
हल्कू ने कहा कैसी अच्छी महक आई जबरा। तुम्हारी नाक में भी कुछ ख़ुशबू आरही है?

जबरा को कहीं ज़मीन पर एक हड्डी पड़ी मिल गई थी। वो उसे चूस रहा था।

हल्कू ने आग ज़मीन पर रख दी और पत्तियाँ बटोरने लगा। थोड़ी देर में पत्तों का एक ढेर लग गया। हाथ ठिठुरते जाते थे। नंगे-पाँव गले जाते थे और वो पत्तियों का पहाड़ खड़ा कर रहा था। उसी अलाव में वो सर्दी को जला कर ख़ाक कर देगा।

थोड़ी देर में अलाव जल उठा। उसकी लौ ऊपर वाले दरख़्त की पत्तियों को छू छू कर भागने लगी। इस मुतज़लज़ल रोशनी में बाग़ के आलीशान दरख़्त ऐसे मा’लूम होते थे कि वो इस ला-इंतिहा अंधेरे को अपनी गर्दन पर सँभाले हों। तारीकी के इस अथाह समुंदर में ये रोशनी एक नाव के मानिंद मा’लूम होती थी।

हल्कू अलाव के सामने बैठा हुआ आग ताप रहा था। एक मिनट में उसने अपनी चादर बग़ल में दबा ली और दोनों पांव फैला दिये। गोया वो सर्दी को ललकार कर कह रहा था “तेरे जी में आए वो कर।” सर्दी की इस बेपायाँ ताक़त पर फ़तह पा कर वो ख़ुशी को छुपा न सकता था।

उसने जबरा से कहा, क्यों जबरा। अब तो ठंड नहीं लग रही है?

जबरा ने कूँ कूँ करके गोया कहा, अब क्या ठंड लगती ही रहेगी।

“पहले ये तद्बीर नहीं सूझी नहीं तो इतनी ठंड क्यों खाते?”

जबरा ने दुम हिलाई।

“अच्छा आओ, इस अलाव को कूद कर पार करें। देखें कौन निकल जाये है अगर जल गए बच्चा तो मैं दवा न करूँगा।”

जबरा ने ख़ौफ़-ज़दा निगाहों से अलाव की जानिब देखा।

“मुन्नी से कल ये न जड़ देना कि रात ठंड लगी और ताप-ताप कर रात काटी। वर्ना लड़ाई करेगी।”

ये कहता हुआ वो उछला और उस अलाव के ऊपर से साफ़ निकल गया पैरों में ज़रा सी लिपट लग गई पर वो कोई बात न थी। जबरा अलाव के गिर्द घूम कर उस के पास खड़ा हुआ।

हल्कू ने कहा चलो चलो, इसकी सही नहीं। ऊपर से कूद कर आओ वो फिर कूदा और अलाव के उस पार आगया। पत्तियाँ जल चुकी थीं। बाग़ीचे में फिर अंधेरा छा गया था। राख के नीचे कुछ-कुछ आग बाक़ी थी। जो हवा का झोंका आने पर ज़रा जाग उठती थी पर एक लम्हा में फिर आँखें बंद कर लेती थी।

हल्कू ने फिर चादर ओढ़ ली और गर्म राख के पास बैठा हुआ एक गीत गुनगुनाने लगा। उसके जिस्म में गर्मी आगई थी। पर जूं जूं सर्दी बढ़ती जाती थी उसे सुस्ती दबा लेती थी।

दफ़अ’तन जबरा ज़ोर से भौंक कर खेत की तरफ़ भागा। हल्कू को ऐसा मा’लूम हुआ कि जानवर का एक ग़ोल उसके खेत में आया। शायद नीलगाय का झुण्ड था। उनके कूदने और दौड़ने की आवाज़ें साफ़ कान में आरही थीं। फिर ऐसा मा’लूम हुआ कि खेत में चर रही हैं...... उसने दिल में कहा हुँह जबरा के होते हुए कोई जानवर खेत में नहीं आसकता। नोच ही डाले, मुझे वहम हो रहा है। कहाँ अब तो कुछ सुनाई नहीं देता मुझे भी कैसा धोका हुआ।

उसने ज़ोर से आवाज़ लगाई जबरा, जबरा।

जबरा भौंकता रहा। उसके पास न आया।

जानवरों के चरने की आवाज़ चर चर सुनाई देने लगी। हल्कू अब अपने को फ़रेब न दे सका मगर उसे उस वक़्त अपनी जगह से हिलना ज़हर मा’लूम होता था। कैसा गर्माया हुआ मज़े से बैठा हुआ था। इस जाड़े पाले में खेत में जाना जानवरों को भगाना उनका तआ’क़ुब करना उसे पहाड़ मा’लूम होता था। अपनी जगह से न हिला। बैठे-बैठे जानवरों को भगाने के लिए चिल्लाने लगा। लिहो लिहो, हो, हो। हा,हा।

मगर जबरा फिर भौंक उठा। अगर जानवर भाग जाते तो वो अब तक लौट आया होता। नहीं भागे अभी तक चर रहे हैं। शायद वो सब भी समझ रहे हैं कि इस सर्दी में कौन बीधा है जो उनके पीछे दौड़ेगा। फ़सल तैयार है कैसी अच्छी खेती थी। सारा गांव देख देखकर जलता था उसे ये अभागे तबाह किए डालते हैं।

अब हल्कू से न रहा गया वो पक्का इरादा कर के उठा और दो-तीन क़दम चला। फिर यका-य़क हवा का ऐसा ठंडा चुभने वाला, बिच्छू के डंक का सा झोंका लगा वो फिर बुझते हुए अलाव के पास आ बैठा और राख को कुरेद कुरेद कर अपने ठंडे जिस्म को गरमाने लगा।

जबरा अपना गला फाड़े डालता था नील-गाएँ खेत का सफ़ाया किए डालती थीं और हल्कू गर्म राख के पास बेहिस बैठा हुआ था। अफ़्सुर्दगी ने उसे चारों तरफ़ से रस्सी की तरह जकड़ रखा था।

आख़िर वहीँ चादर ओढ़ कर सो गया।

सवेरे जब उसकी नींद खुली तो देखा चारों तरफ़ धूप फैल गई है। और मुन्नी खड़ी कह रही है, क्या आज सोते ही रहोगे तुम यहां मीठी नींद सो रहे हो और उधर सारा खेत चौपट हो गया। सारा खेत का सत्यानास हो गया भला कोई ऐसा भी सोता है ।तुम्हारे यहां मंडिया डालने से क्या हुआ।
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#6
हल्कू ने बात बनाई। मैं मरते-मरते बच्चा। तुझे अपने खेत की पड़ी है पेट में ऐसा दर्द उठा कि मैं ही जानता हूँ।

दोनों फिर खेत के डांडे पर आए। देखा खेत में एक पौदे का नाम नहीं और जबरा मंडिया के नीचे चित्त पड़ा है। गोया बदन में जान नहीं है। दोनों खेत की तरफ़ देख रहे थे। मुन्नी के चेहरा पर उदासी छाई हुई थी। पर हल्कू ख़ुश था।

मुन्नी ने फ़िक्रमंद हो कर कहा। अब मजूरी करके मालगुजारी देनी पड़ेगी।

हल्कू ने मस्ताना अंदाज़ से कहा, “रात को ठंड में यहां सोना तो न पड़ेगा।”

“मैं इस खेत का लगान न दूँगी, ये कहे देती हूँ जीने के लिए खेती करते हैं मरने के लिए नहीं करते।”

“जबरा अभी तक सोया हुआ है। इतना तो कभी ना सोता था।”

“आज जाकर शहना से कह दे, खेत जानवर चर गए हम एक पैसा न देंगे।”

“रात बड़े गजब की सर्दी थी।”

“मैं क्या कहती हूँ, तुम क्या सुनते हो।”

“तू गाली खिलाने की बात कह रही है। शहना को इन बातों से क्या सरोकार ,तुम्हारा खेत चाहे जानवर खाएँ चाहे आग लग जाये, चाहे ओले पड़ जाएं, उसे तो अपनी मालगुजारी चाहिए।”

“तो छोड़ दो खेती, में ऐसी खेती से बाज़ आई।”

हल्कू ने मायूसाना अंदाज़ से कहा, “जी मन में तो मेरे भी यही आता है कि खेती बाड़ी छोड़ दूं। मुन्नी तुझसे सच्च कहता हूँ मगर मजूरी का ख़्याल करता हूँ तो जी घबरा उठता है। किसान का बेटा हो कर अब मजूरी न करूँगा। चाहे कितनी ही दुर्गत हो जाये। खेती का मर्द जाद नहीं बिगाडूँगा। जबरा, जबरा। क्या सोता ही रहेगा,चल घर चलें।”
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#7
पूस की रात – मुंशी प्रेमचंद की कहानी |


Heart Munshi Premchand Story in Hindi Heart
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#8
हल्कू ने आकर स्त्री से कहा-सहना आया है, लाओ, जो रुपए रखे हैं, उसे दे दूँ। किसी तरह गला तो छूटे।
मुन्नी झाड़ू लगा रही थी। पीछे फिर कर बोली-तीन ही तो रुपए हैं, दे दोगे तो कंबल कहाँ से आवेगा? माघ-पूस की रात हार में कैसे कटेगी? उससे कह दो, फसल पर रुपए दे देंगे। अभी नहीं।

हल्कू एक क्षण अनिश्चित दशा में खड़ा रहा। पूस सिर पर आ गया, कंबल के बिना हार में रात को वह किसी तरह नहीं सो सकता। मगर सहना मानेगा नहीं, घुड़कियाँ जमावेगा, गालियाँ देगा। बला से जाड़ों में मरेंगे, बला तो सिर से टल जाएगी। यह सोचता हुआ वह अपना भारी-भरकम डीलडौल लिए हुए (जो उसके नाम को झूठा सिद्ध करता था) स्त्री के समीप आ गया और खुशामद करके बोला-ला दे दे, गला तो छूटे। कंबल के लिए कोई दूसरा उपाय सोचूँगा।

मुन्नी उसके पास से दूर हट गई और आँखें तरेरती हुई बोली- कर चुके दूसरा उपाय! जरा सुनूँ कौन-सा उपाय करोगे? कोई खैरात दे देगा कंबल? न जाने कितनी बाकी है, जो किसी तरह चुकने में ही नहीं आती। मैं कहती हूँ, तुम क्यों नहीं खेती छोड़ देते? मर-मर कर काम करो, उपज हो तो बाकी दे दे, चलो छुट्टी हुई। बाकी चुकाने के लिए ही तो हमारा जनम हुआ है। पेट के लिए मजूरी करो। ऐसी खेती से बाज आएं। मैं रुपए न दूँगी-न दूँगी।

हल्कू उदास होकर बोला-तो क्या गाली खाऊँ?

मुन्नी ने तड़पकर कहा-गाली क्यों देगा, क्या उसका राज है? मगर यह कहने के साथ ही उसकी तनी हुई भौंहें ढीली पड़ गईं। हल्कू के उस वाक्य में जो कठोर सत्य था, वह मानो एक भीषण जंतु की भाँति उसे घूर रहा था।
उसने जाकर आले पर से रुपए निकाले और लाकर हल्कू के हाथ पर रख दिए। फिर बोली-तुम छोड़ दो अबकी से खेती। मजूरी में सुख से एक रोटी खाने को तो मिलेगी। किसी की धौंस तो न रहेगी। अच्छी खेती है। मजूरी करके लाओ, वह भी उसी में झोंक दो, उस पर से धौंस।

हल्कू ने रुपए लिए और इस तरह बाहर चला गया मानो अपना हृदय निकालकर देने जा रहा है। उसने मजूरी से एक-एक पैसा काटकर तीन रुपए कंबल के लिए जमा किए थे। वे आज निकले जा रहे थे। एक-एक पग के साथ उसका मस्तक अपनी दीनता के भार से दबा जा रहा था।

पूस की अँधेरी रात। आकाश पर तारे ठिठुरते हुए मालूम होते थे। हल्कू अपने खेत के किनारे ऊख के पत्तों की छतरी के नीचे बाँस के खटोले पर अपनी पुरानी गाढ़े की चादर ओढ़े पड़ा काँप रहा था। खाट के नीचे उसका संगी कुत्ता जबरा पेट में मुँह डाले सर्दी से कूँ-कूँ कर रहा था। दो में से एक को भी नींद न आती थी।

हल्कू ने हाथ निकालकर जबरा की ठंडी पीठ सहलाते हुए कहा-कल से मत आना मेरे साथ, नहीं तो ठंडे हो जाओगे। यह रांड पछुआ न जाने कहाँ से बरफ लिए आ रही है। उठूँ, फिर एक चिलम भरूँ। किसी तरह रात तो कटे। आठ चिलम तो पी चुका। यह खेती का मजा है। और एक-एक भाग्यवान ऐसे पड़े हैं, जिनके पास जाड़ा जाए तो गर्मी से घबड़ाकर भागे। मोटे-मोटे गद्दे, लिहाफ, कंबल। मजाल है, जाड़े का गुजर हो जाए। तकदीर की खूबी है। मजूरी हम करे, मजा दूसरे लूटेंगे।

हल्कू उठा और गड्ढे में से जरा-सी आग निकालकर चिमल भरी। जबरा भी उठ बैठा। हल्कू ने चिलम पीते हुए कहा-पिएगा चिलम, जाड़ा तो क्या जाता है, हाँ, जरा मन बहल जाता है। जबरा ने उसके मुँह की ओर प्रेम से छलकती हुई आँखों से देखा। हल्कू आज और जाड़ा खा ले। कल से मैं यहाँ पुआल बिछा दूँगा। उसी में घुसकर बैठना, तब जाड़ा न लगेगा।

सहसा जबरा ने किसी जानवर की आहट पाई। इस विशेष आत्मीयता ने उसमें एक नई स्फूर्ति पैदा कर दी थी, जो हवा के ठंडे झोंकों को तुच्छ समझती थी। वह झटपट उठा और छतरी के बाहर आकर भोंकने लगा। हल्कू ने उसे कई बार चुमकारकर बुलाया; पर वह उसके पास न आया। हार कर चारों तरफ दौड़-दौड़कर भौंकता रहा। एक क्षण के लिए आ भी जाता तो तुरंत ही फिर दौड़ पड़ता। कर्तव्य हृदय में अरमान की भाँति उछल रहा था।

एक घंटा और गुजर गया। रात ने शीत को हवा में धधकाना शुरू किया। हल्कू उठ बैठा और दोनों घुटनों को छाती से मिलाकर सिर को उसमें छिपा लिया, फिर भी ठंड कम न हुई। ऐसा जान पड़ता था, सारा रक्त जम गया है, धमनियों में रक्त की जगह हिम बह रहा है। उसने झुककर आकाश की ओर देखा, अभी कितनी रात बाकी है। सप्तर्षि अब भी आकाश में आधे भी नहीं चढ़े। ऊपर आ जाएँगे, तब कहीं सवेरा होगा। अभी पहर से ऊपर रात है।

उसने पास के अरहर के खेत में जाकर कई पौधे उखाड़ लिए और उनका एक झाडू बनाकर हाथ में सुलगता हुआ उपला लिए बगीचे की तरफ चला। जबरा ने उसे आते देखा, तो पास आया और दुम हिलाने लगा।

थोड़ी देर में अलाव जल उठा। उसकी लौ ऊपर वाले वृक्ष की पत्तियों को छू-छूकर भागने लगी। उस अस्थिर प्रकाश में बगीचे के विशाल वृक्ष ऐसे मालूम होते थे, मानो उस अथाह अंधकार को अपने सिरों पर सँभाले हुए हों। अंधकार के उस अनंत सागर में यह प्रकाश एक नौका के समान हिलता, मचलता हुआ जान पड़ता था।
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#9
मुंशी प्रेमचंद की कहानी पूस की रात Munshi Premchand Story in Hindi

पूस की रात
हल्कू ने आकर स्त्री से कहा-सहना आया है, लाओ, जो रुपए रखे हैं, उसे दे दूँ। किसी तरह गला तो छूटे।
मुन्नी झाड़ू लगा रही थी। पीछे फिर कर बोली-तीन ही तो रुपए हैं, दे दोगे तो कंबल कहाँ से आवेगा? माघ-पूस की रात हार में कैसे कटेगी? उससे कह दो, फसल पर रुपए दे देंगे। अभी नहीं।

हल्कू एक क्षण अनिश्चित दशा में खड़ा रहा। पूस सिर पर आ गया, कंबल के बिना हार में रात को वह किसी तरह नहीं सो सकता। मगर सहना मानेगा नहीं, घुड़कियाँ जमावेगा, गालियाँ देगा। बला से जाड़ों में मरेंगे, बला तो सिर से टल जाएगी। यह सोचता हुआ वह अपना भारी-भरकम डीलडौल लिए हुए (जो उसके नाम को झूठा सिद्ध करता था) स्त्री के समीप आ गया और खुशामद करके बोला-ला दे दे, गला तो छूटे। कंबल के लिए कोई दूसरा उपाय सोचूँगा।

मुन्नी उसके पास से दूर हट गई और आँखें तरेरती हुई बोली- कर चुके दूसरा उपाय! जरा सुनूँ कौन-सा उपाय करोगे? कोई खैरात दे देगा कंबल? न जाने कितनी बाकी है, जो किसी तरह चुकने में ही नहीं आती। मैं कहती हूँ, तुम क्यों नहीं खेती छोड़ देते? मर-मर कर काम करो, उपज हो तो बाकी दे दे, चलो छुट्टी हुई। बाकी चुकाने के लिए ही तो हमारा जनम हुआ है। पेट के लिए मजूरी करो। ऐसी खेती से बाज आएं। मैं रुपए न दूँगी-न दूँगी।

हल्कू उदास होकर बोला-तो क्या गाली खाऊँ?

मुन्नी ने तड़पकर कहा-गाली क्यों देगा, क्या उसका राज है? मगर यह कहने के साथ ही उसकी तनी हुई भौंहें ढीली पड़ गईं। हल्कू के उस वाक्य में जो कठोर सत्य था, वह मानो एक भीषण जंतु की भाँति उसे घूर रहा था।
उसने जाकर आले पर से रुपए निकाले और लाकर हल्कू के हाथ पर रख दिए। फिर बोली-तुम छोड़ दो अबकी से खेती। मजूरी में सुख से एक रोटी खाने को तो मिलेगी। किसी की धौंस तो न रहेगी। अच्छी खेती है। मजूरी करके लाओ, वह भी उसी में झोंक दो, उस पर से धौंस।

हल्कू ने रुपए लिए और इस तरह बाहर चला गया मानो अपना हृदय निकालकर देने जा रहा है। उसने मजूरी से एक-एक पैसा काटकर तीन रुपए कंबल के लिए जमा किए थे। वे आज निकले जा रहे थे। एक-एक पग के साथ उसका मस्तक अपनी दीनता के भार से दबा जा रहा था।

पूस की अँधेरी रात। आकाश पर तारे ठिठुरते हुए मालूम होते थे। हल्कू अपने खेत के किनारे ऊख के पत्तों की छतरी के नीचे बाँस के खटोले पर अपनी पुरानी गाढ़े की चादर ओढ़े पड़ा काँप रहा था। खाट के नीचे उसका संगी कुत्ता जबरा पेट में मुँह डाले सर्दी से कूँ-कूँ कर रहा था। दो में से एक को भी नींद न आती थी।

हल्कू ने हाथ निकालकर जबरा की ठंडी पीठ सहलाते हुए कहा-कल से मत आना मेरे साथ, नहीं तो ठंडे हो जाओगे। यह रांड पछुआ न जाने कहाँ से बरफ लिए आ रही है। उठूँ, फिर एक चिलम भरूँ। किसी तरह रात तो कटे। आठ चिलम तो पी चुका। यह खेती का मजा है। और एक-एक भाग्यवान ऐसे पड़े हैं, जिनके पास जाड़ा जाए तो गर्मी से घबड़ाकर भागे। मोटे-मोटे गद्दे, लिहाफ, कंबल। मजाल है, जाड़े का गुजर हो जाए। तकदीर की खूबी है। मजूरी हम करे, मजा दूसरे लूटेंगे।

हल्कू उठा और गड्ढे में से जरा-सी आग निकालकर चिमल भरी। जबरा भी उठ बैठा। हल्कू ने चिलम पीते हुए कहा-पिएगा चिलम, जाड़ा तो क्या जाता है, हाँ, जरा मन बहल जाता है। जबरा ने उसके मुँह की ओर प्रेम से छलकती हुई आँखों से देखा। हल्कू आज और जाड़ा खा ले। कल से मैं यहाँ पुआल बिछा दूँगा। उसी में घुसकर बैठना, तब जाड़ा न लगेगा।

सहसा जबरा ने किसी जानवर की आहट पाई। इस विशेष आत्मीयता ने उसमें एक नई स्फूर्ति पैदा कर दी थी, जो हवा के ठंडे झोंकों को तुच्छ समझती थी। वह झटपट उठा और छतरी के बाहर आकर भोंकने लगा। हल्कू ने उसे कई बार चुमकारकर बुलाया; पर वह उसके पास न आया। हार कर चारों तरफ दौड़-दौड़कर भौंकता रहा। एक क्षण के लिए आ भी जाता तो तुरंत ही फिर दौड़ पड़ता। कर्तव्य हृदय में अरमान की भाँति उछल रहा था।

एक घंटा और गुजर गया। रात ने शीत को हवा में धधकाना शुरू किया। हल्कू उठ बैठा और दोनों घुटनों को छाती से मिलाकर सिर को उसमें छिपा लिया, फिर भी ठंड कम न हुई। ऐसा जान पड़ता था, सारा रक्त जम गया है, धमनियों में रक्त की जगह हिम बह रहा है। उसने झुककर आकाश की ओर देखा, अभी कितनी रात बाकी है। सप्तर्षि अब भी आकाश में आधे भी नहीं चढ़े। ऊपर आ जाएँगे, तब कहीं सवेरा होगा। अभी पहर से ऊपर रात है।

उसने पास के अरहर के खेत में जाकर कई पौधे उखाड़ लिए और उनका एक झाडू बनाकर हाथ में सुलगता हुआ उपला लिए बगीचे की तरफ चला। जबरा ने उसे आते देखा, तो पास आया और दुम हिलाने लगा।

थोड़ी देर में अलाव जल उठा। उसकी लौ ऊपर वाले वृक्ष की पत्तियों को छू-छूकर भागने लगी। उस अस्थिर प्रकाश में बगीचे के विशाल वृक्ष ऐसे मालूम होते थे, मानो उस अथाह अंधकार को अपने सिरों पर सँभाले हुए हों। अंधकार के उस अनंत सागर में यह प्रकाश एक नौका के समान हिलता, मचलता हुआ जान पड़ता था।

हल्कू अलाव के सामने बैठा आग ताप रहा था। एक क्षण में उसने दोहर उतारकर बगल में दबा ली और दोनों पाँव फैला दिए; मानों ठंड को ललकार रहा हो, तेरे जी में जो आए सो कर। ठंड की असीम शक्ति पर विजय पाकर वह विजय-गर्व को हृदय में छिपा न सकता था।

पत्तियाँ जल चुकी थीं। बगीचे में फिर अँधेरा छाया था। राख के नीचे कुछ-कुछ आग बाकी थी, जो हवा का झोंका आ जाने पर जाग उठती थी, पर एक क्षण में फिर आँखें बंद कर लेती थी। हल्कू ने फिर चादर ओढ़ ली और गर्म राख के पास बैठा एक गीत गुनगुनाने लगा। उसके बदन में गर्मी आ गई थी। ज्यों-ज्यों शीत बढ़ती जाती थी, उसे आलस्य दबाए लेता था।
जबरा जोर से भूँककर खेत की ओर भागा। हल्कू को ऐसा मालूम हुआ कि जानवरों का एक झुंड उसके खेत में आया है। शायद नीलगायों का झुंड था। उनके कूदने-दौड़ने की आवाजें साफ कान में आ रही थीं। फिर ऐसा मालूम हुआ कि वह खेत में चर रही हैं। उनके चरने की आवाज चर-चर सुनाई देने लगी। उसने दिल ने कहा-नहीं, जबरा के होते कोई जानवर खेत में नहीं आ सकता। नोच ही डाले। मुझे भ्रम हो रहा है। कहाँ? अब तो कुछ नहीं सुनाई देता। मुझे भी कैसा धोखा हुआ।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#10
उसने जोर से आवाज लगाई-जबरा, जबरा! जबरा भौंकता रहा। उसके पास न आया।

फिर खेत में चरे जाने की आहट मिली। अब वह अपने को धोखा न दे सका। उसे अपनी जगह से हिलना जहर लग रहा था। कैसा दंदाया हुआ बैठा था। इस जाड़े-पाले में खेत में जाना, जानवरों के पीछे दौड़ना, असूझ जान पड़ा। वह अपनी जगह से न हिला।

उसने जोर में आवाज लगाई-होलि-होलि! होलि! जबरा फिर भौंक उठा। जानवर खेत चर रहे थे। फसल तैयार है। कैसी अच्छी खेती थी, पर ये दुष्ट जानवर उसका सर्वनाश किए डालते हैं। हल्कू पक्का इरादा करके उठा और दो-तीन कदम चला, एकाएक हवा का ऐसा ठंडा, चुभने वाला, बिच्छू के डंक का सा झोंका लगा कि वह फिर बुझते हुए अलावा के पास आ बैठा और राख को कुरेदकर अपनी ठंडी देह को गर्माने लगा। वह उसी राख के पास गर्म जमीन पर चादर ओढ़कर सो गया।

जबरा अपना गला फाड़े डालता था, नीलगायें खेत का सफाया किए डालती थीं और हल्कू गर्म राख के पास शांत बैठा हुआ था। अकर्मण्यता ने रस्सियों की भाँति उसे चारों तरफ से जकड़ रखा था।

सवेरे जब उसकी नींद खुली, तब चारों तरफ धूप फैल गई थी। और मुन्नी कह रही थी-क्या आज सोते ही रहोगे? तुम यहाँ आकर रम गए और उधर सारा खेत चौपट हो गया।

हल्कू ने उठकर कहा-क्या तू खेत से होकर आ रही है? मुन्नी बोली-हाँ, सारे खेत का सत्यानाश हो गया। भला ऐसा भी कोई सोता है। तुम्हारे यहाँ मड़ैया डालने से क्या हुआ?

हल्कू ने बहाना किया-मैं मरते-मरते बचा, तुझे अपने खेत की पड़ी है। पेट में ऐसा दर्द हुआ कि मैं ही जानता हूँ।

दोनों फिर खेत की डाँड़ पर आए। देखा, सारा खेत रौंदा पड़ा हुआ है और जबरा मड़ैया के नीचे चित्त लेटा है, मानो प्राण ही न हों। दोनों खेत की दशा देख रहे थे।

मुन्नी के मुख पर उदासी छाई थी। पर हल्कू प्रसन्न था।

मुन्नी ने चिंतित होकर कहा-अब मजूरी करके मालगुजारी भरनी पड़ेगी।

हल्कू ने प्रसन्न मुख से कहा-रात की ठंड में यहाँ सोना तो न पड़ेगा।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#11
(31-12-2019, 03:22 PM)neerathemall Wrote:
पूस की रात – मुंशी प्रेमचंद की कहानी |


Heart Munshi Premchand Story in Hindi Heart

Heart yourock Heart
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#12
हल्कू ने आकर स्त्री से कहा- सहना आया है, लाओ, जो रुपये रखे हैं, उसे दे दूँ, किसी तरह गला तो छूटे ।
मुन्नी झाड़ू लगा रही थी। पीछे फिरकर बोली- तीन ही तो रुपये हैं, दे दोगे तो कम्मल कहाँ से आवेगा ? माघ-पूस की रात हार में कैसे कटेगी ? उससे कह दो, फसल पर दे देंगे। अभी नहीं ।

हल्कू एक क्षण अनिश्चित दशा में खड़ा रहा । पूस सिर पर आ गया, कम्मल के बिना हार में रात को वह किसी तरह नहीं जा सकता। मगर सहना मानेगा नहीं, घुड़कियाँ जमावेगा, गालियाँ देगा। बला से जाड़ों में मरेंगे, बला तो सिर से टल जाएगी । यह सोचता हुआ वह अपना भारी- भरकम डील लिए हुए (जो उसके नाम को झूठ सिद्ध करता था ) स्त्री के समीप आ गया और खुशामद करके बोला- ला दे दे, गला तो छूटे। कम्मल के लिए कोई दूसरा उपाय सोचूँगा।


मुन्नी उसके पास से दूर हट गयी और आँखें तरेरती हुई बोली- कर चुके दूसरा उपाय ! जरा सुनूँ तो कौन-सा उपाय करोगे ? कोई खैरात दे देगा कम्मल ? न जाने कितनी बाकी है, जों किसी तरह चुकने ही नहीं आती । मैं कहती हूँ, तुम क्यों नहीं खेती छोड़ देते ? मर-मर काम करो, उपज हो तो बाकी दे दो, चलो छुट्टी हुई । बाकी चुकाने के लिए ही तो हमारा जनम हुआ है । पेट के लिए मजूरी करो । ऐसी खेती से बाज आये । मैं रुपये न दूँगी, न दूँगी ।

हल्कू उदास होकर बोला- तो क्या गाली खाऊँ ?

मुन्नी ने तड़पकर कहा- गाली क्यों देगा, क्या उसका राज है ?

मगर यह कहने के साथ ही उसकी तनी हुई भौहें ढीली पड़ गयीं । हल्कू के उस वाक्य में जो कठोर सत्य था, वह मानो एक भीषण जंतु की भाँति उसे घूर रहा था ।

उसने जाकर आले पर से रुपये निकाले और लाकर हल्कू के हाथ पर रख दिये। फिर बोली- तुम छोड़ दो अबकी से खेती । मजूरी में सुख से एक रोटी तो खाने को मिलेगी । किसी की धौंस तो न रहेगी । अच्छी खेती है ! मजूरी करके लाओ, वह भी उसी में झोंक दो, उस पर धौंस ।

हल्कू ने रुपये लिये और इस तरह बाहर चला मानो अपना हृदय निकालकर देने जा रहा हो । उसने मजूरी से एक-एक पैसा काट-कपटकर तीन रुपये कम्मल के लिए जमा किये थे । वह आज निकले जा रहे थे । एक-एक पग के साथ उसका मस्तक अपनी दीनता के भार से दबा जा रहा था ।
























2
पूस की अंधेरी रात ! आकाश पर तारे भी ठिठुरते हुए मालूम होते थे। हल्कू अपने खेत के किनारे ऊख के पतों की एक छतरी के नीचे बाँस के खटोले पर अपनी पुरानी गाढ़े की चादर ओढ़े पड़ा काँप रहा था । खाट के नीचे उसका संगी कुत्ता जबरा पेट मे मुँह डाले सर्दी से कूँ-कूँ कर रहा था । दो में से एक को भी नींद न आती थी ।

हल्कू ने घुटनियों कों गरदन में चिपकाते हुए कहा- क्यों जबरा, जाड़ा लगता है? कहता तो था, घर में पुआल पर लेट रह, तो यहाँ क्या लेने आये थे ? अब खाओ ठंड, मैं क्या करूँ ? जानते थे, मै यहाँ हलुवा-पूरी खाने आ रहा हूँ, दौड़े-दौड़े आगे-आगे चले आये । अब रोओ नानी के नाम को ।

जबरा ने पड़े-पड़े दुम हिलायी और अपनी कूँ-कूँ को दीर्घ बनाता हुआ एक बार जम्हाई लेकर चुप हो गया। उसकी श्वान-बुध्दि ने शायद ताड़ लिया, स्वामी को मेरी कूँ-कूँ से नींद नहीं आ रही है।



हल्कू ने हाथ निकालकर जबरा की ठंडी पीठ सहलाते हुए कहा- कल से मत आना मेरे साथ, नहीं तो ठंडे हो जाओगे । यह राँड पछुआ न जाने कहाँ से बरफ लिए आ रही है । उठूँ, फिर एक चिलम भरूँ । किसी तरह रात तो कटे ! आठ चिलम तो पी चुका । यह खेती का मजा है ! और एक-एक भगवान ऐसे पड़े हैं, जिनके पास जाड़ा जाय तो गरमी से घबड़ाकर भागे। मोटे-मोटे गद्दे, लिहाफ- कम्मल । मजाल है, जाड़े का गुजर हो जाय । तकदीर की खूबी ! मजूरी हम करें, मजा दूसरे लूटें !

हल्कू उठा, गड्ढ़े में से जरा-सी आग निकालकर चिलम भरी । जबरा भी उठ बैठा ।

हल्कू ने चिलम पीते हुए कहा- पियेगा चिलम, जाड़ा तो क्या जाता है, जरा मन बदल जाता है।

जबरा ने उसके मुँह की ओर प्रेम से छलकती हुई आँखों से देखा ।

हल्कू- आज और जाड़ा खा ले । कल से मैं यहाँ पुआल बिछा दूँगा । उसी में घुसकर बैठना, तब जाड़ा न लगेगा ।

जबरा ने अपने पंजे उसकी घुटनियों पर रख दिये और उसके मुँह के पास अपना मुँह ले गया । हल्कू को उसकी गर्म साँस लगी ।

चिलम पीकर हल्कू फिर लेटा और निश्चय करके लेटा कि चाहे कुछ हो अबकी सो जाऊँगा, पर एक ही क्षण में उसके हृदय में कम्पन होने लगा । कभी इस करवट लेटता, कभी उस करवट, पर जाड़ा किसी पिशाच की भाँति उसकी छाती को दबाये हुए था ।

जब किसी तरह न रहा गया तो उसने जबरा को धीरे से उठाया और उसक सिर को थपथपाकर उसे अपनी गोद में सुला लिया । कुत्ते की देह से जाने कैसी दुर्गंध आ रही थी, पर वह उसे अपनी गोद मे चिपटाये हुए ऐसे सुख का अनुभव कर रहा था, जो इधर महीनों से उसे न मिला था । जबरा शायद यह समझ रहा था कि स्वर्ग यहीं है, और हल्कू की पवित्र आत्मा में तो उस कुत्ते के प्रति घृणा की गंध तक न थी । अपने किसी अभिन्न मित्र या भाई को भी वह इतनी ही तत्परता से गले लगाता । वह अपनी दीनता से आहत न था, जिसने आज उसे इस दशा को पहुँचा दिया । नहीं, इस अनोखी मैत्री ने जैसे उसकी आत्मा के सब द्वा र खोल दिये थे और उनका एक-एक अणु प्रकाश से चमक रहा था ।

सहसा जबरा ने किसी जानवर की आहट पायी । इस विशेष आत्मीयता ने उसमे एक नयी स्फूर्ति पैदा कर दी थी, जो हवा के ठंडें झोकों को तुच्छ समझती थी । वह झपटकर उठा और छपरी से बाहर आकर भूँकने लगा । हल्कू ने उसे कई बार चुमकारकर बुलाया, पर वह उसके पास न आया । हार में चारों तरफ दौड़-दौड़कर भूँकता रहा। एक क्षण के लिए आ भी जाता, तो तुरंत ही फिर दौड़ता । कर्तव्य उसके हृदय में अरमान की भाँति ही उछल रहा था ।





























3

एक घंटा और गुजर गया। रात ने शीत को हवा से धधकाना शुरु किया। हल्कू उठ बैठा और दोनों घुटनों को छाती से मिलाकर सिर को उसमें छिपा लिया, फिर भी ठंड कम न हुई | ऐसा जान पड़ता था, सारा रक्त जम गया है, धमनियों मे रक्त की जगह हिम बह रहा है। उसने झुककर आकाश की ओर देखा, अभी कितनी रात बाकी है ! सप्तर्षि अभी आकाश में आधे भी नहीं चढ़े । ऊपर आ जायँगे तब कहीं सबेरा होगा । अभी पहर से ऊपर रात है ।

हल्कू के खेत से कोई एक गोली के टप्पे पर आमों का एक बाग था । पतझड़ शुरु हो गयी थी । बाग में पत्तियों को ढेर लगा हुआ था । हल्कू ने सोचा, चलकर पत्तियाँ बटोरूँ और उन्हें जलाकर खूब तापूँ । रात को कोई मुझे पत्तियाँ बटोरते देख तो समझे कोई भूत है । कौन जाने, कोई जानवर ही छिपा बैठा हो, मगर अब तो बैठे नहीं रहा जाता ।

उसने पास के अरहर के खेत में जाकर कई पौधे उखाड़ लिए और उनका एक झाड़ू बनाकर हाथ में सुलगता हुआ उपला लिये बगीचे की तरफ चला । जबरा ने उसे आते देखा तो पास आया और दुम हिलाने लगा ।

हल्कू ने कहा- अब तो नहीं रहा जाता जबरू । चलो बगीचे में पत्तियाँ बटोरकर तापें । टाँठे हो जायेंगे, तो फिर आकर सोयेंगें । अभी तो बहुत रात है।

जबरा ने कूँ-कूँ करके सहमति प्रकट की और आगे-आगे बगीचे की ओर चला।

बगीचे में खूब अँधेरा छाया हुआ था और अंधकार में निर्दय पवन पत्तियों को कुचलता हुआ चला जाता था । वृक्षों से ओस की बूँदे टप-टप नीचे टपक रही थीं ।

एकाएक एक झोंका मेहँदी के फूलों की खूशबू लिए हुए आया ।

हल्कू ने कहा- कैसी अच्छी महक आई जबरू ! तुम्हारी नाक में भी तो सुगंध आ रही है ?

जबरा को कहीं जमीन पर एक हडडी पड़ी मिल गयी थी । उसे चिंचोड़ रहा था ।
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हल्कू ने आग जमीन पर रख दी और पत्तियाँ बटोरने लगा । जरा देर में पत्तियों का ढेर लग गया। हाथ ठिठुरे जाते थे । नंगे पाँव गले जाते थे । और वह पत्तियों का पहाड़ खड़ा कर रहा था । इसी अलाव में वह ठंड को जलाकर भस्म कर देगा ।

थोड़ी देर में अलाव जल उठा । उसकी लौ ऊपर वाले वृक्ष की पत्तियों को छू-छूकर भागने लगी । उस अस्थिर प्रकाश में बगीचे के विशाल वृक्ष ऐसे मालूम होते थे, मानो उस अथाह अंधकार को अपने सिरों पर सँभाले हुए हों अंधकार के उस अनंत सागर मे यह प्रकाश एक नौका के समान हिलता, मचलता हुआ जान पड़ता था ।

हल्कू अलाव के सामने बैठा आग ताप रहा था । एक क्षण में उसने दोहर उताकर बगल में दबा ली, दोनों पाँव फैला दिए, मानों ठंड को ललकार रहा हो, तेरे जी में जो आये सो कर । ठंड की असीम शक्ति पर विजय पाकर वह विजय-गर्व को हृदय में छिपा न सकता था ।

उसने जबरा से कहा- क्यों जब्बर, अब ठंड नहीं लग रही है ?

जब्बर ने कूँ-कूँ करके मानो कहा- अब क्या ठंड लगती ही रहेगी ?

‘पहले से यह उपाय न सूझा, नहीं इतनी ठंड क्यों खाते ।’

जब्बर ने पूँछ हिलायी ।

’अच्छा आओ, इस अलाव को कूदकर पार करें । देखें, कौन निकल जाता है। अगर जल गए बच्चा,
तो मैं दवा न करूँगा ।’

जब्बर ने उस अग्निराशि की ओर कातर नेत्रों से देखा !

मुन्नी से कल न कह देना, नहीं तो लड़ाई करेगी ।

यह कहता हुआ वह उछला और उस अलाव के ऊपर से साफ निकल गया । पैरों में जरा लपट लगी, पर वह कोई बात न थी । जबरा आग के गिर्द घूमकर उसके पास आ खड़ा हुआ ।

हल्कू ने कहा- चलो-चलो इसकी सही नहीं ! ऊपर से कूदकर आओ । वह फिर कूदा और अलाव के इस पार आ गया ।




























4
पत्तियाँ जल चुकी थीं । बगीचे में फिर अंधेरा छा गया था । राख के नीचे कुछ-कुछ आग बाकी थी, जो हवा का झोंका आ जाने पर जरा जाग उठती थी, पर एक क्षण में फिर आँखें बंद कर लेती थी !

हल्कू ने फिर चादर ओढ़ ली और गर्म राख के पास बैठा हुआ एक गीत गुनगुनाने लगा । उसके बदन में गर्मी आ गयी थी, पर ज्यों-ज्यों शीत बढ़ती जाती थी, उसे आलस्य दबाये लेता था ।

जबरा जोर से भूँककर खेत की ओर भागा । हल्कू को ऐसा मालूम हुआ कि जानवरों का एक झुंड खेत में आया है। शायद नीलगायों का झुंड था । उनके कूदने-दौड़ने की आवाजें साफ कान में आ रही थी । फिर ऐसा मालूम हुआ कि खेत में चर रहीं हैं। उनके चबाने की आवाज चर-चर सुनाई देने लगी।

उसने दिल में कहा- नहीं, जबरा के होते कोई जानवर खेत में नहीं आ सकता। नोच ही डाले। मुझे भ्रम हो रहा है। कहाँ! अब तो कुछ नहीं सुनाई देता। मुझे भी कैसा धोखा हुआ!

उसने जोर से आवाज लगायी- जबरा, जबरा।

जबरा भूँकता रहा। उसके पास न आया।

फिर खेत के चरे जाने की आहट मिली। अब वह अपने को धोखा न दे सका। उसे अपनी जगह से हिलना जहर लग रहा था। कैसा दंदाया हुआ था। इस जाड़े-पाले में खेत में जाना, जानवरों के पीछे दौड़ना असह्य जान पड़ा। वह अपनी जगह से न हिला।

उसने जोर से आवाज लगायी- लिहो-लिहो !लिहो! !

जबरा फिर भूँक उठा । जानवर खेत चर रहे थे । फसल तैयार है । कैसी अच्छी खेती थी, पर ये दुष्ट जानवर उसका सर्वनाश किये डालते हैं।

हल्कू पक्का इरादा करके उठा और दो-तीन कदम चला, पर एकाएक हवा का ऐसा ठंडा, चुभने वाला, बिच्छू के डंक का-सा झोंका लगा कि वह फिर बुझते हुए अलाव के पास आ बैठा और राख को कुरेदकर अपनी ठंडी देह को गर्माने लगा ।

जबरा अपना गला फाड़ डालता था, नीलगायें खेत का सफाया किए डालती थीं और हल्कू गर्म राख के पास शांत बैठा हुआ था । अकर्मण्यता ने रस्सियों की भाँति उसे चारों तरफ से जकड़ रखा था।

उसी राख के पास गर्म जमीन पर वह चादर ओढ़ कर सो गया ।

सबेरे जब उसकी नींद खुली, तब चारों तरफ धूप फैल गयी थी और मुन्नी कह रही थी- क्या आज सोते ही रहोगे ? तुम यहाँ आकर रम गए और उधर सारा खेत चौपट हो गया ।

हल्कू ने उठकर कहा- क्या तू खेत से होकर आ रही है ?

मुन्नी बोली- हाँ, सारे खेत का सत्यानाश हो गया । भला, ऐसा भी कोई सोता है। तुम्हारे यहाँ मड़ैया डालने से क्या हुआ ?

हल्कू ने बहाना किया- मैं मरते-मरते बचा, तुझे अपने खेत की पड़ी है। पेट में ऐसा दरद हुआ कि मै ही जानता हूँ !

दोनों फिर खेत के डाँड़ पर आये । देखा, सारा खेत रौंदा पड़ा हुआ है और जबरा मड़ैया के नीचे चित लेटा है, मानो प्राण ही न हों ।

दोनों खेत की दशा देख रहे थे । मुन्नी के मुख पर उदासी छायी थी, पर हल्कू प्रसन्न था ।

मुन्नी ने चिंतित होकर कहा- अब मजूरी करके मालगुजारी भरनी पड़ेगी।

हल्कू ने प्रसन्न मुख से कहा- रात को ठंड में यहाँ सोना तो न पड़ेगा।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
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#13
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#14
घासवाली



~ मानसरोवर भाग-1 ~ मुंशी प्रेमचंद्र की अमर कहानियाँ












Heart Heart Heart
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#15
मुलिया हरी-हरी घास का गट्ठा लेकर आयी, तो उसका गेहुआँ रंग कुछ तमतमाया हुआ था और बड़ी-बड़ी मद-भरी आँखो में शंका समाई हुई थी। महावीर ने उसका तमतमाया हुआ चेहरा देखकर पूछा- क्या है मुलिया, आज कैसा जी है।
मुलिया ने कुछ जवाब न दिया- उसकी आँखें डबडबा गयीं!
महावीर ने समीप आकर पूछा- क्या हुआ है, बताती क्यों नहीं? किसी ने कुछ कहा है, अम्माँ ने डाँटा है, क्यों इतनी उदास है?
मुलिया ने सिसककर कहा- कुछ नहीं, हुआ क्या है, अच्छी तो हूँ?
महावीर ने मुलिया को सिर से पाँव तक देखकर कहा- चुपचाप रोयेगी, बतायेगी नहीं?
मुलिया ने बात टालकर कहा- कोई बात भी हो, क्या बताऊँ।
मुलिया इस ऊसर में गुलाब का फूल थी। गेहुआँ रंग था, हिरन की-सी आँखें, नीचे खिंचा हुआ चिबुक, कपोलों पर हलकी लालिमा, बड़ी-बड़ी नुकीली पलकें, आँखो में एक विचित्र आर्द्रता, जिसमें एक स्पष्ट वेदना, एक मूक व्यथा झलकती रहती थी। मालूम नहीं, चमारों के इस घर में वह अप्सरा कहाँ से आ गयी थी। क्या उसका कोमल फूल-सा गात इस योग्य था कि सर पर घास की टोकरी रखकर बेचने जाती? उस गाँव में भी ऐसे लोग मौजूद थे, जो उसके तलवे के नीचे आँखें बिछाते थे, उसकी एक चितवन के लिए तरसते थे, जिनसे अगर वह एक शब्द भी बोलती, तो निहाल हो जाते; लेकिन उसे आये साल-भर से अधिक हो गया, किसी ने उसे युवकों की तरफ ताकते या बातें करते नहीं देखा। वह घास लिये निकलती, तो ऐसा मालूम होता, मानो उषा का प्रकाश, सुनहरे आवरण में रंजित, अपनी छटा बिखेरता जाता हो। कोई गजलें गाता, कोई छाती पर हाथ रखता; पर मुलिया नीची आँख किये अपनी राह चली जाती। लोग हैरान होकर कहते- इतना अभिमान! महावीर में ऐसे क्या सुरखाब के पर लगे हैं, ऐसा अच्छा जवान भी तो नहीं, न जाने यह कैसे उसके साथ रहती है!
मगर आज ऐसी बात हो गयी, जो इस जाति की और युवतियों के लिए चाहे गुप्त संदेश होती, मुलिया के लिए हृदय का शूल थी। प्रभात का समय था, पवन आम की बौर की सुगंधि से मतवाला हो रहा था, आकाश पृथ्वी पर सोने की वर्षा कर रहा था। मुलिया सिर पर झौआ रक्खे घास छीलने चली, तो उसका गेहुआँ रंग प्रभात की सुनहरी किरणों से कुंदन की तरह दमक उठा। एकाएक युवक चैनसिंह सामने से आता हुआ दिखाई दिया। मुलिया ने चाहा कि कतराकर निकल जाय; मगर चैनसिंह ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोला- मुलिया, तुझे क्या मुझ पर जरा भी दया नहीं आती?
मुलिया का वह फूल-सा खिला हुआ चेहरा ज्वाला की तरह दहक उठा। वह जरा भी नहीं डरी, जरा भी न झिझकी, झौआ जमीन पर गिरा दिया, और बोली- मुझे छोड़ दो, नहीं मैं चिल्लाती हूँ।
चैनसिंह को आज जीवन में एक नया अनुभव हुआ। नीची जातों में रूप-माधुर्य का इसके सिवा और काम ही क्या है कि वह ऊँची जातवालों का खिलौना बने। ऐसे कितने ही मार्क उसने जीते थे; पर आज मुलिया के चेहरे का वह रंग, उसका वह क्रोध, वह अभिमान देखकर उसके छक्के छूट गये। उसने लज्जित होकर उसका हाथ छोड़ दिया। मुलिया वेग से आगे बढ़ गयी। संघर्ष की गरमी में चोट की व्यथा नहीं होती, पीछे से टीस होने लगती है। मुलिया जब कुछ दूर निकल गयी, तो क्रोध और भय तथा अपनी बेकसी को अनुभव करके उसकी आँखो में आँसू भर आये। उसने कुछ देर जब्त किया, फिर सिसक-सिसक कर रोने लगी। अगर वह इतनी गरीब न होती, तो किसी की मजाल थी कि इस तरह उसका अपमान करता! वह रोती जाती थी और घास छीलती जाती थी। महावीर का क्रोध वह जानती थी। अगर उससे कह दे, तो वह इस ठाकुर के खून का प्यासा हो जायगा। फिर न जाने क्या हो! इस खयाल से उसके रोएँ खड़े हो गये। इसीलिए उसने महावीर के प्रश्नों का कोई उत्तर न दिया।
2
दूसरे दिन मुलिया घास के लिए न गयी। सास ने पूछा- तू क्यों नहीं जाती? और सब तो चली गयीं?
मुलिया ने सिर झुकाकर कहा- मैं अकेली न जाऊँगी।
सास ने बिगड़कर कहा- अकेले क्या तुझे बाघ उठा ले जायगा?
मुलिया ने और भी सिर झुका लिया और दबी हुई आवाज से बोली- सब मुझे छेड़ते हैं।
सास ने डाँटा- न तू औरों के साथ जायगी, न अकेली जायगी, तो फिर जायगी कैसे! वह साफ-साफ क्यों नहीं कहती कि मैं न जाऊँगी। तो यहाँ मेरे घर में रानी बन के निबाह न होगा। किसी को चाम नहीं प्यारा होता, काम प्यारा होता है। तू बड़ी सुंदर है, तो तेरी सुंदरता लेकर चाटूँ? उठा झाबा और घास ला!
द्वार पर नीम के दरख्त के साये में महावीर खड़ा घोड़े को मल रहा था। उसने मुलिया को रोनी सूरत बनाये जाते देखा; पर कुछ बोल न सका।उसका बस चलता तो मुलिया को कलेजे में बिठा लेता, आँखो में छिपा लेता; लेकिन घोड़े का पेट भरना तो जरूरी था। घास मोल लेकर खिलाये, तो बारह आने रोज से कम न पड़े। ऐसी मजदूरी ही कौन होती है। मुश्किल से डेढ़-दो रुपये मिलते हैं, वह भी कभी मिले, कभी न मिले। जब से यह सत्यानाशी लारियाँ चलने लगी हैं; एक्केवालों की बधिया बैठ गयी है। कोई सेंत भी नहीं पूछता। महाजन से डेढ़-सौ रुपये उधार लेकर एक्का और घोड़ा खरीदा था; मगर लारियों के आगे एक्के को कौन पूछता है। महाजन का सूद भी तो न पहुँच सकता था, मूल का कहना ही क्या! ऊपरी मन से बोला- न मन हो, तो रहने दो, देखी जायगी।
इस दिलजोई से मुलिया निहाल हो गयी। बोली- घोड़ा खायेगा क्या?
आज उसने कल का रास्ता छोड़ दिया और खेतों की मेड़ों से होती हुई चली। बार-बार सतर्क आँखो से इधर-उधार ताकती जाती थी। दोनों तरफ ऊख के खेत खड़े थे। जरा भी खड़खड़ाहट होती, उसका जी सन्न हो जाता कहीं कोई ऊख में छिपा न बैठा हो। मगर कोई नयी बात न हुई। ऊख के खेत निकल गये, आमों का बाग निकल गया; सिंचे हुए खेत नजर आने लगे। दूर के कुएँ पर पुर चल रहा था। खेतों की मेड़ों पर हरी-हरी घास जमी हुई थी। मुलिया का जी ललचाया। यहाँ आधा घंटे में जितनी घास छिल सकती है, सूखे मैदान में दोपहर तक न छिल सकेगी! यहाँ देखता ही कौन है। कोई चिल्लायेगा, तो चली जाऊँगी। वह बैठकर घास छीलने लगी और एक घंटे में उसका झाबा आधे से ज्यादा भर गया। वह अपने काम में इतनी तन्मय थी कि उसे चैनसिंह के आने की खबर ही न हुई। एकाएक उसने आहट पाकर सिर उठाया, तो चैनसिंह को खड़ा देखा।
मुलिया की छाती धक् से हो गयी। जी में आया भाग जाय, झाबा उलट दे और खाली झाबा लेकर चली जाय; पर चैनसिंह ने कई गज के फासले से ही रुककर कहा- डर मत, डर मत, भगवान जानता है! मैं तुझसे कुछ न बोलूँगा। जितनी घास चाहे छील ले, मेरा ही खेत है।
मुलिया के हाथ सुन्न हो गये, खुरपी हाथ में जम-सी गयी, घास नजर ही न आती थी। जी चाहता था; जमीन फट जाय और मैं समा जाऊँ। जमीन आँखो के सामने तैरने लगी।
चैनसिंह ने आश्वासन दिया- छीलती क्यों नहीं? मैं तुमसे कुछ कहता थोड़े ही हूँ। यहीं रोज चली आया कर, मैं छील दिया करूँगा।
मुलिया चित्रलिखित-सी बैठी रही।
चैनसिंह ने एक कदम आगे बढ़ाया और बोला- तू मुझसे इतना डरती क्यों है! क्या तू समझती है, मैं आज भी तुझे सताने आया हूँ? ईश्वर जानता है, कल भी तुझे सताने के लिए मैंने तेरा हाथ नहीं पकड़ा था। तुझे देखकर आप-ही-आप हाथ बढ़ गये। मुझे कुछ सुध ही न रही। तू चली गयी, तो मैं वहीं बैठकर घंटों रोता रहा। जी में आता था, हाथ काट डालूँ। कभी जी चाहता था, जहर खा लूँ। तभी से तुझे ढूँढ़ रहा हूँ आज तू इस रास्ते से चली आयी। मैं सारा हार छानता हुआ यहाँ आया हूँ। अब जो सजा तेरे जी में आवे, दे दे। अगर तू मेरा सिर भी काट ले, तो गर्दन न हिलाऊँगा। मैं शोहदा था, लुच्चा था, लेकिन जब से तुझे देखा है, मेरे मन से सारी खोट मिट गयी है। अब तो यही जी में आता है कि तेरा कुत्ता होता और तेरे पीछे-पीछे चलता, तेरा घोड़ा होता, तब तो तू अपने हाथों से मेरे सामने घास डालती। किसी तरह यह चोला तेरे काम आवे, मेरे मन की यह सबसे बड़ी लालसा है। मेरी जवानी काम न आवे, अगर मैं किसी खोट से ये बातें कर रहा हूँ। बड़ा भागवान था महावीर, जो ऐसी देवी उसे मिली।
मुलिया चुपचाप सुनती रही, फिर नीचा सिर करके भोलेपन से बोली- तो तुम मुझे क्या करने को कहते हो?
चैनसिंह और समीप आकर बोला- बस, तेरी दया चाहता हूँ।
मुलिया ने सिर उठाकर उसकी ओर देखा। उसकी लज्जा न जाने कहाँ गायब हो गयी। चुभते हुए शब्दों में बोली- तुमसे एक बात कहूँ, बुरा तो न मानोगे? तुम्हारा ब्याह हो गया है या नहीं?
चैनसिंह ने दबी जबान से कहा- ब्याह तो हो गया, लेकिन ब्याह क्या है, खिलवाड़ है।
मुलिया के होठों पर अवहेलना की मुसकराहट झलक पड़ी, बोली- फिर भी अगर मेरा आदमी तुम्हारी औरत से इसी तरह बातें करता, तो तुम्हें कैसा लगता? तुम उसकी गर्दन काटने पर तैयार हो जाते कि नहीं? बोलो! क्या समझते हो कि महावीर चमार है तो उसकी देह में लहू नहीं है, उसे लज्जा नहीं है, अपने मर्यादा का विचार नहीं है? मेरा रूप-रंग तुम्हें भाता है। क्या घाट के किनारे मुझसे कहीं सुंदर औरतें नहीं घूमा करतीं? मैं उनके तलवों की बराबरी भी नहीं कर सकती। तुम उसमें से किसी से क्यों नहीं दया माँगते! क्या उनके पास दया नहीं है? मगर वहाँ तुम न जाओगे; क्योंकि वहाँ जाते तुम्हारी छाती दहलती है। मुझसे दया माँगते हो, इसलिए न कि मैं चमारिन हूँ, नीच जाति हूँ और नीच जाति की औरत जरा-सी घुड़की-धमकी वा जरा-सी लालच से तुम्हारी मुट्ठी में आ जायगी। कितना सस्ता सौदा है। ठाकुर हो न, ऐसा सस्ता सौदा क्यों छोड़ने लगे?
चैनसिंह लज्जित होकर बोला- मूला, यह बात नहीं। मैं सच कहता हूँ, इसमें ऊँच-नीच की बात नहीं है। सब आदमी बराबर हैं। मैं तो तेरे चरणों पर सिर रखने को तैयार हूँ।
मुलिया- इसीलिए न कि जानते हो, मैं कुछ कर नहीं सकती। जाकर किसी खतरानी के चरणों पर सिर रक्खो, तो मालूम हो कि चरणों पर सिर रखने का क्या फल मिलता है। फिर यह सिर तुम्हारी गर्दन पर न रहेगा।
चैनसिंह मारे शर्म के जमीन में गड़ा जाता था। उसका मुँह ऐसा सूख गया था, मानो महीनों की बीमारी से उठा हो। मुँह से बात न निकलती थी। मुलिया इतनी वाक्-पटु है, इसका उसे गुमान भी न था।
मुलिया फिर बोली- मैं भी रोज बाजार जाती हूँ। बड़े-बड़े घरों का हाल जानती हूँ। मुझे किसी बड़े घर का नाम बता दो, जिसमें कोई साईस, कोई कोचवान, कोई कहार, कोई पंडा, कोई महाराज न घुसा बैठा हो? यह सब बड़े घरों की लीला है। और वह औरतें जो कुछ करती हैं, ठीक करती हैं! उनके घरवाले भी तो चमारिनों और कहारिनों पर जान देते फिरते हैं। लेना-देना बराबर हो जाता है। बेचारे गरीब आदमियों के लिए यह बातें कहाँ? मेरे आदमी के लिए संसार में जो कुछ हूँ, मैं हूँ। वह किसी दूसरी मिहरिया की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखता। संयोग की बात है कि मैं तनिक सुंदर हूँ, लेकिन मैं काली-कलूटी भी होती, तब भी वह मुझे इसी तरह रखता। इसका मुझे विश्वास है। मैं चमारिन होकर भी इतनी नीच नहीं हूँ कि विश्वास का बदला खोट से दूँ। हाँ, वह अपने मन की करने लगे, मेरी छाती पर मूँग दलने लगे, तो मैं भी उसकी छाती पर मूँग दलूँगी। तुम मेरे रूप ही के दीवाने हो न! आज मुझे माता निकल आयें, कानी हो जाऊँ, तो मेरी ओर ताकोगे भी नहीं। बोलो, झूठ कहती हूँ?
चैनसिंह इनकार न कर सका।
मुलिया ने उसी गर्व से भरे हुए स्वर में कहा- लेकिन मेरी एक नहीं, दोनों आँखें फूट जायें, तब भी वह मुझे इसी तरह रक्खेगा। मुझे उठावेगा, बैठावेगा, खिलावेगा। तुम चाहते हो, मैं ऐसे आदमी के साथ कपट करूँ? जाओ, अब मुझे कभी न छेड़ना, नहीं अच्छा न होगा।
3
जवानी जोश है, बल है, दया है, साहस है, आत्म-विश्वास है, गौरव है और सब कुछ जो जीवन को पवित्र, उज्ज्वल और पूर्ण बना देता है। जवानी का नशा घमंड है, निर्दयता है, स्वार्थ है, शेखी है, विषय-वासना है, कटुता है और वह सब कुछ जो जीवन को पशुता, विकार और पतन की ओर ले जाता है। चैनसिंह पर जवानी का नशा था। मुलिया के शीतल छींटों ने नशा उतार दिया। जैसे उबलती हुई चाशनी में पानी के छींटे पड़ जाने से फेन मिट जाता है, मैल निकल जाता है और निर्मल, शुद्ध रस निकल आता है। जवानी का नशा जाता रहा, केवल जवानी रह गयी। कामिनी के शब्द जितनी आसानी से दीन और ईमान को गारत कर सकते हैं, उतनी ही आसानी से उनका उद्धार भी कर सकते हैं।
चैनसिंह उस दिन से दूसरा ही आदमी हो गया। गुस्सा उसकी नाक पर रहता था, बात-बात पर मजदूरों को गालियाँ देना, डाँटना और पीटना उसकी आदत थी। असामी उससे थर-थर काँपते थे। मजदूर उसे आते देखकर अपने काम में चुस्त हो जाते थे; पर ज्यों ही उसने इधर पीठ फेरी और उन्होंने चिलम पीना शुरू किया। सब दिल में उससे जलते थे, उसे गालियाँ देते थे। मगर उस दिन से चैनसिंह इतना दयालु, इतना गंभीर, इतना सहनशील हो गया कि लोगों को आश्चर्य होता था।
कई दिन गुजर गये थे। एक दिन संध्या समय चैनसिंह खेत देखने गया। पुर चल रहा था। उसने देखा कि एक जगह नाली टूट गयी है, और सारा पानी बहा चला जाता है। क्यारियों में पानी बिलकुल नहीं पहुँचता, मगर क्यारी बनाने वाली बुढ़िया चुपचाप बैठी है। उसे इसकी जरा भी फिक्र नहीं है कि पानी क्यों नहीं आता। पहले यह दशा देखकर चैनसिंह आपे से बाहर हो जाता। उस औरत की उस दिन मजूरी काट लेता और पुर चलानेवालों को घुड़कियाँ जमाता, पर आज उसे क्रोध नहीं आया। उसने मिट्टी लेकर नाली बांध दी और खेत में जाकर बुढ़िया से बोला- तू यहाँ बैठी है और पानी सब बहा जा रहा है।
बुढ़िया घबड़ाकर बोली- अभी खुल गयी होगी। राजा! मैं अभी जाकर बंद किये देती हूँ।
यह कहती हुई वह थरथर काँपने लगी। चैनसिंह ने उसकी दिलजोई करते हुए कहा- भाग मत, भाग मत। मैंने नाली बंद कर दी। बुढ़ऊ कई दिन से नहीं दिखाई दिये, कहीं काम पर जाते हैं कि नहीं?
बुढ़िया गद्गद होकर बोली- आजकल तो खाली ही बैठे हैं भैया, कहीं काम नहीं लगता।
चैनसिंह ने नम्र भाव से कहा- तो हमारे यहाँ लगा दे। थोड़ा-सा सन रखा है, उसे कात दें।
यह कहता हुआ वह कुएँ की ओर चला गया। यहाँ चार पुर चल रहे थे; पर इस वक्त दो हँकवे बेर खाने गये थे। चैनसिंह को देखते ही मजूरों के होश उड़ गये। ठाकुर ने पूछा, दो आदमी कहाँ गये, तो क्या जवाब देंगे? सब-के-सब डाँटे जायेंगे। बेचारे दिल में सहमे जा रहे थे। चैनसिंह ने पूछा- वह दोनों कहाँ चले गये?
किसी के मुँह से आवाज न निकली। सहसा सामने से दोनों मजूर धोती के एक कोने में बेर भरे आते दिखाई दिए। खुश-खुश बात करते चले आ रहे थे। चैनसिंह पर निगाह पड़ी, तो दोनों के प्राण सूख गये। पाँव मन-मन भर के हो गये। अब न आते बनता है, न जाते। दोनों समझ गये कि आज डाँट पड़ी, शायद मजूरी भी कट जाय। चाल धीमी पड़ गयी। इतने में चैनसिंह ने पुकारा बढ़ आओ, बढ़ आओ, कैसे बेर हैं, लाओ जरा मुझे भी दो, मेरे ही पेड़ के हैं न?
दोनों और भी सहम उठे। आज ठाकुर जीता न छोड़ेगा। कैसा मिठा-मिठाकर बोल रहा है। उतनी ही भिगो-भिगोकर लगायेगा। बेचारे और भी सिकुड़ गये।
चैनसिंह ने फिर कहा- जल्दी से आओ जी, पक्की-पक्की सब मैं ले लूँगा। जरा एक आदमी लपककर घर से थोड़ा-सा नमक तो ले लो! (बाकी दोनों मजूरों से) तुम भी दोनों आ जाओ, उस पेड़ के बेर मीठे होते हैं। बेर खा ले, काम तो करना ही है।
अब दोनों भगोड़ों को कुछ ढारस हुआ। सभी ने जाकर सब बेर चैनसिंह के आगे डाल दिए और पक्के-पक्के छाँटकर उसे देने लगे। एक आदमी नमक लाने दौड़ा। आधा घंटे तक चारों पुर बंद रहे। जब सब बेर उड़ गये और ठाकुर चलने लगे, तो दोनों अपराधियों ने हाथ जोड़कर कहा- भैयाजी, आज जान बकसी हो जाय, बड़ी भूख लगी थी, नहीं तो कभी न जाते।
चैनसिंह ने नम्रता से कहा- तो इसमें बुराई क्या हुई? मैंने भी तो बेर खाये। एक-आधा घंटे का हरज हुआ यही न? तुम चाहोगे, तो घंटे भर का काम आधा घंटे में कर दोगे। न चाहोगे, दिन-भर में भी घंटे-भर का काम न होगा।
चैनसिंह चला गया, तो चारों बातें करने लगे।
एक ने कहा- मालिक इस तरह रहे, तो काम करने में जी लगता है। यह नहीं कि हरदम छाती पर सवार।
दूसरा- मैंने तो समझा, आज कच्चा ही खा जायेंगे।
तीसरा- कई दिन से देखता हूँ, मिजाज नरम हो गया है।
चौथा- साँझ को पूरी मजूरी मिले तो कहना।
पहला- तुम तो हो गोबर-गनेस। आदमी का रुख नहीं पहचानते।
दूसरा- अब खूब दिल लगाकर काम करेंगे।
तीसरा- और क्या! जब उन्होंने हमारे ऊपर छोड़ दिया, तो हमारा भी धरम है कि कोई कसर न छोड़ें।
चौथा- मुझे तो भैया, ठाकुर पर अब भी विश्वास नहीं आता।
4
एक दिन चैनसिंह को किसी काम से कचहरी जाना था। पाँच मील का सफर था। यों तो वह बराबर अपने घोड़े पर जाया करता था; पर आज धूप बड़ी तेज हो रही थी, सोचा एक्के पर चला चलूँ। महावीर को कहला भेजा मुझे लेते जाना। कोई नौ बजे महावीर ने पुकारा। चैनसिंह तैयार बैठा था। चटपट एक्के पर बैठ गया। मगर घोड़ा इतना दुबला हो रहा था, एक्के की गद्दी इतनी मैली और फटी हुई, सारा सामान इतना रद्दी कि चैनसिंह को उस पर बैठते शर्म आई। पूछा यह सामान क्यों बिगड़ा हुआ है महावीर? तुम्हारा घोड़ा तो इतना दुबला कभी न था; क्या आजकल सवारियाँ कम हैं क्या? महावीर ने कहा, नहीं मालिक, सवारियाँ काहे नहीं है; मगर लारियों के सामने एक्के को कौन पूछता है। कहाँ दो-ढाई-तीन की मजूरी करके घर लौटता था, कहाँ अब बीस आने पैसे भी नहीं मिलते? क्या जानवर को खिलाऊँ क्या आप खाऊँ? बड़ी विपत्ति में पड़ा हूँ। सोचता हूँ एक्का-घोड़ा बेच-बाचकर आप लोगों की मजूरी कर लूँ, पर कोई गाहक नहीं लगता। ज्यादा नहीं तो बारह आने तो घोड़े ही को चाहिए, घास ऊपर से। जब अपना ही पेट नहीं चलता, तो जानवर को कौन पूछे। चैनसिंह ने उसके फटे हुए कुरते की ओर देखकर कहा, दो-चार बीघे खेती क्यों नहीं कर लेते?
महावीर सिर झुकाकर बोला- खेती के लिए बड़ा पौरुख चाहिए मालिक! मैंने तो यही सोचा है कि कोई गाहक लग जाय, तो एक्के को औने-पौने निकाल दूँ, फिर घास छीलकर बाजार ले जाया करूँ। आजकल सास-पतोहू दोनों छीलती हैं। तब जाकर दस-बारह आने पैसे नसीब होते हैं।
चैनसिंह ने पूछा- तो बुढ़िया बाजार जाती होगी?
महावीर लजाता हुआ बोला- नहीं भैया, वह इतनी दूर कहाँ चल सकती है। घरवाली चली जाती है। दोपहर तक घास छीलती है, तीसरे पहर बाजार जाती है। वहाँ से घड़ी रात गये लौटती है। हलकान हो जाती है भैया, मगर क्या करूँ, तकदीर से क्या जोर।
चैनसिंह कचहरी पहुँच गये और महावीर सवारियों की टोह में इधर-उधर इक्के को घुमाता हुआ शहर की तरफ चला गया। चैनसिंह ने उसे पाँच बजे आने को कह दिया।
कोई चार बजे चैनसिंह कचहरी से फुरसत पाकर बाहर निकले। हाते में पान की दुकान थी, जरा और आगे बढ़कर एक घना बरगद का पेड़ था, उसकी छाँह में बीसों ही ताँगे; एक्के, फिटनें खड़ी थीं। घोड़े खोल दिए गये थे। वकीलों, मुख्तारों और अफसरों की सवारियाँ यहीं खड़ी रहती थीं। चैनसिंह ने पानी पिया, पान खाया और सोचने लगा कोई लारी मिल जाय, तो जरा शहर चला जाऊँ कि उसकी निगाह एक घासवाली पर पड़ गयी। सिर पर घास का झाबा रक्खे साईसों से मोल-भाव कर रही थी। चैनसिंह का हृदय उछल पड़ा यह तो मुलिया है! बनी-ठनी, एक गुलाबी साड़ी पहने कोचवानों से मोल-तोल कर रही थी। कई कोचवान जमा हो गये थे। कोई उससे दिल्लगी करता था, कोई घूरता था, कोई हँसता था।
एक काले-कलूटे कोचवान ने कहा- मूला, घास तो उड़के अधिक से अधिक छ: आने की है।
मुलिया ने उन्माद पैदा करने वाली आँखो से देखकर कहा- छ: आने पर लेना है, तो सामने घसियारिनें बैठी हैं, चले जाओ, दो-चार पैसे कम में पा जाओगे, मेरी घास तो बारह आने में ही जायगी।
एक अधेड़ कोचवान ने फिटन के ऊपर से कहा- तेरा जमाना है, बारह आने नहीं एक रुपया माँग। लेनेवाले झख मारेंगे और लेंगे। निकलने दे वकीलों को, अब देर नहीं है।
एक ताँगेवाले ने, जो गुलाबी पगड़ी बांधे हुए था, बोला- बुढ़ऊ के मुँह में पानी भर आया, अब मुलिया काहे को किसी की ओर देखेगी!
चैनसिंह को ऐसा क्रोध आ रहा था कि इन दुष्टों को जूते से पीटे। सब-के-सब कैसे उसकी ओर टकटकी लगाये ताक रहे हैं, आँखो से पी जायेंगे। और मुलिया भी यहाँ कितनी खुश है। न लजाती है, न झिझकती है, न दबती है। कैसा मुसकिरा-मुसकिराकर, रसीली आँखो से देख-देखकर, सिर का अंचल खिसका- खिसकाकर, मुँह मोड़-मोड़कर बातें कर रही है। वही मुलिया, जो शेरनी की तरह तड़प उठी थी।
इतने में चार बजे। अमले और वकील-मुख्तारों का एक मेला-सा निकल पड़ा। अमले लारियों पर दौड़े। वकील-मुख्तार इन सवारियों की ओर चले। कोचवानों ने भी चटपट घोड़े जोते। कई महाशयों ने मुलिया को रसिक नेत्रों से देखा और अपनी-अपनी गाड़ियों पर जा बैठे।
एकाएक मुलिया घास का झाबा लिये उस फिटन के पीछे दौड़ी। फिटन में एक अंग्रेजी फैशन के जवान वकील साहब बैठे थे। उन्होंने पावदान पर घास रखवा ली, जेब से कुछ निकालकर मुलिया को दिया। मुलिया मुस्कराई, दोनों में कुछ बातें भी हुईं, जो चैनसिंह न सुन सके।
एक क्षण में मुलिया प्रसन्न-मुख घर की ओर चली। चैनसिंह पानवाले की दुकान पर विस्मृति की दशा में खड़ा रहा। पानवाले ने दुकान बढ़ाई, कपड़े पहिने और केबिन का द्वार बंद करके नीचे उतरा तो चैनसिंह की समाधि टूटी। पूछा क्या दुकान बंद कर दी?
पानवाले ने सहानुभूति दिखाकर कहा- इसकी दवा करो ठाकुर साहब, यह बीमारी अच्छी नहीं है!
चैनसिंह ने चकित होकर पूछा- कैसी बीमारी?
पानवाला बोला- कैसी बीमारी! आधा घंटे से यहाँ खड़े हो जैसे कोई मुरदा खड़ा हो। सारी कचहरी खाली हो गयी, सब दुकानें बंद हो गयीं, मेहतर तक झाड़ू लगाकर चल दिये; तुम्हें कुछ खबर हुई? यह बुरी बीमारी है, जल्दी दवा कर डालो।
चैनसिंह ने छड़ी सँभाली और फाटक की ओर चला कि महावीर का एक्का सामने से आता दिखाई दिया।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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#16
कुछ दूर एक्का निकल गया, तो चैनसिंह ने पूछा- आज कितने पैसे कमाये महावीर?
महावीर ने हँसकर कहा- आज तो मालिक, दिन भर खड़ा ही रह गया। किसी ने बेगार में भी न पकड़ा। ऊपर से चार पैसे की बीड़ियाँ पी गया।
चैनसिंह ने जरा देर के बाद कहा- मेरी एक सलाह है। तुम मुझसे एक रुपया रोज लिया करो। बस, जब मैं बुलाऊँ तो एक्का लेकर चले आया करो। तब तो तुम्हारी घरवाली को घास लेकर बाजार न जाना पड़ेगा। बोलो मंजूर है?
महावीर ने सजल आँखो से देखकर कहा- मालिक, आप ही का तो खाता हूँ। आपकी परजा हूँ। जब मरजी हो, पकड़ मँगवाइए। आपसे रुपये…
चैनसिंह ने बात काटकर कहा- नहीं, मैं तुमसे बेगार नहीं लेना चाहता। तुम मुझसे एक रुपया रोज ले जाया करो। घास लेकर घरवाली को बाजार मत भेजा करो। तुम्हारी आबरू मेरी आबरू है। और भी रुपये-पैसे का जब काम लगे, बेखटके चले आया करो। हाँ, देखो, मुलिया से इस बात की भूलकर भी चर्चा न करना। क्या फायदा!
कई दिनों के बाद संध्या समय मुलिया चैनसिंह से मिली। चैनसिंह असामियों से मालगुजारी वसूल करके घर की ओर लपका जा रहा था कि उसी जगह जहाँ उसने मुलिया की बाँह पकड़ी थी, मुलिया की आवाज कानों में आयी। उसने ठिठककर पीछे देखा, तो मुलिया दौड़ी आ रही थी। बोला- क्या है मूला! क्यों दौड़ती हो, मैं तो खड़ा हूँ?
मुलिया ने हाँफते हुए कहा- कई दिन से तुमसे मिलना चाहती थी। आज तुम्हें आते देखा, तो दौड़ी। अब मैं घास बेचने नहीं जाती।
चैनसिंह ने कहा- बहुत अच्छी बात है।
'क्या तुमने कभी मुझे घास बेचते देखा है?’
'हाँ, एक दिन देखा था। क्या महावीर ने तुझसे सब कह डाला? मैंने तो मना कर दिया था।'
'वह मुझसे कोई बात नहीं छिपाता।'
दोनों एक क्षण चुप खड़े रहे। किसी को कोई बात न सूझती थी। एकाएक मुलिया ने मुस्कराकर कहा- यहाँ तुमने मेरी बाँह पकड़ी थी।
चैनसिंह ने लज्जित होकर कहा- उसको भूल जाओ मूला। मुझ पर जाने कौन भूत सवार था।
मुलिया गद्गद्‍ कंठ से बोली- उसे क्यों भूल जाऊँ। उसी बाँह गहे की लाज तो निभा रहे हो। गरीबी आदमी से जो चाहे करावे। तुमने मुझे बचा लिया। फिर दोनों चुप हो गये।
जरा देर के बाद मुलिया ने फिर कहा- तुमने समझा होगा, मैं हँसने-बोलने में मगन हो रही थी?
चैनसिंह ने बलपूर्वक कहा- नहीं मुलिया, मैंने एक क्षण के लिए भी नहीं समझा।
मुलिया मुस्कराकर बोली- मुझे तुमसे यही आशा थी, और है।

पवन सिंचे हुए खेतों में विश्राम करने जा रहा था, सूर्य निशा की गोद में विश्राम करने जा रहा था, और उस मलिन प्रकाश में चैनसिंह मुलिया की विलीन होती हुई रेखा को खड़ा देख रहा था!
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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#17
~ शिकार ~







मानसरोवर भाग-1 ~ मुंशी प्रेमचंद्र की अमर कहानियाँ|
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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#18
फटे वस्त्रों वाली मुनिया ने रानी वसुधा के चाँद से मुखड़े की ओर सम्मान भरी आँखो से देखकर राजकुमार को गोद में उठाते हुए कहा, हम गरीबों का इस तरह कैसे निबाह हो सकता है महारानी ! मेरी तो अपने आदमी से एक दिन न पटे, मैं उसे घर में पैठने न दूँ। ऐसी-ऐसी गालियाँ सुनाऊँ कि छठी का दूध याद आ जाय। रानी वसुधा ने गम्भीर विनोद के भाव से कहा, क्यों, वह कहेगा नहीं, तू मेरे बीच में बोलनेवाली कौन है ? मेरी जो इच्छा होगी वह करूँगा। तूअपना रोटी-कपड़ा मुझसे लिया कर। तुझे मेरी दूसरी बातों से क्या मतलब ? मैं तेरा गुलाम नहीं हूँ।


मुनिया तीन ही दिन से यहाँ लड़कों को खेलाने के लिए नौकर हुई थी। पहले दो-चार घरों में चौका-बरतन कर चुकी थी; पर रानियों से अदब के साथ बातें करना अभी न सीख पाई थी। उसका सूखा हुआ साँवला चेहरा उत्तेजित हो उठा। कर्कश स्वर में बोली, ज़िस दिन ऐसी बातें मुँह से निकालेगा, मूँछें उखाड़ लूँगी सरकार ! वह मेरा गुलाम नहीं है, तो क्या मैं उसकी लौंडी हूँ ? अगर वह मेरा गुलाम है, तो मैं उसकी लौंडी हूँ। मैं आप नहीं खाती, उसे खिला देती हूँ; क्योंकि वह मर्द-बच्चा है। पल्लेदारी में उसे बहुत कसाला करना पड़ता है। आप चाहे फटे पहनूँ; पर उसे फटे-पुराने नहीं पहनने देती। जब मैं उसके लिए इतना करती हूँ, तो मजाल है, कि वह मुझे आँख दिखाये। अपने घर को आदमी इसलिए तो छाता-छोपता है, कि उससे बर्खा-बूँदी में बचाव हो। अगर यह डर लगा रहे, कि घर न जाने कब गिर पड़ेगा, तो ऐसे घर में कौन रहेगा। उससे तो ऊख की छांह ही कहीं अच्छी।

कल न जाने कहाँ बैठा गाता-बजाता रहा। दस बजे रात को घर आया। मैं रात-भर उससे बोली, ही नहीं। लगा पैरों पड़ने, घिघियाने, तब मुझे दया आ गयी ! यही मुझमें एक बुराई है। मुझसे उसकी रोनी सूरत नहीं देखी जाती। इसी से वह कभी-कभी बहक जाता है; पर अब मैं पक्की हो गई हूँ। फिर किसी दिन झगड़ा किया, तो या वही रहेगा, या मैं ही रहूँगी। क्यों किसी की धौंस सहूँ सरकार ? जो बैठकर खाय, वह धौंस सहे ! यहाँ तो बराबर की कमाई करती हूँ। वसुधा ने उसी गम्भीर भाव से फिर पूछा अगर वह तुझे बैठाकर खिलाता तब उसकी धौंस सहती ? मुनिया जैसे लड़ने पर उतारू हो गयी। बोली, बैठाकर कोई क्या खिलायेगा सरकार ? मर्द बाहर काम करता है, तो हम भी घर में काम करती हैं कि घर के काम में कुछ लगता ही नहीं ? बाहर के काम से तो रात कोछुट्टी मिल जाती है। घर के काम से तो रात को भी छुट्टी नहीं मिलती। पुरुष यह चाहे कि मुझे घर में बिठाकर आप सैर-सपाटा करे, तो मुझसे तो न सहा जाय यह कहती हुई मुनिया राजकुमार को लिये हुए बाहर चली गयी।

वसुधा ने थकी हुई, रुआँसी आँखो से खिड़की की ओर देखा। बाहर हरा-भरा बाग था, जिसके रंग-बिरंगे फूल यहाँ से साफ नजर आ रहे थे। और पीछे एक विशाल मंदिर आकाश में अपना सुनहला मस्तक उठाये, सूर्य से आँखें मिला रहा था। स्त्रियाँ रंग-बिरंगे वस्त्राभूषण पहने पूजन करने आ रही थीं। मन्दिर की दाहिनी तरफ तालाब में कमल प्रभात के सुनहले आनन्द से मुस्करा रहे थे और कार्तिक की शीत रवि-छवि-जीवन-ज्योति लुटाती फिरती थी; पर प्रकृति की यह सुरम्य शोभा वसुधा को कोई हर्ष न प्रदान कर सकी। उसे जान पड़ा प्रक़ृति उसकी दशा पर व्यंग्य से मुसकिरा रही है। उसी सरोवर के तट पर केवट का एक टूटा-फूटा झोपड़ा किसी अभागिनी वृद्धा की भाँति रो रहा था। वसुधा की आँखें सजल हो गयीं। पुष्प और उद्यान के मध्य में खड़ा वह सूना झोपड़ा उसके विलास और ऐश्वर्य से घिरे हुए मन का सजीव मित्र था। उसके जी में आया, जाकर झोपड़े के गले लिपट जाऊँ ! और खूब रोऊँ ! वसुधा को इस घर में आये पाँच वर्ष हो गये। पहले उसने अपने भाग्य को सराहा था। माता-पिता के छोटे-से कच्चे आनन्दहीन घर को छोड़कर, वह एक विशाल भवन में आयी थी, जहाँ सम्पत्ति उसके पैरों को चूमती हुई जान पड़ती थी। उस समय सम्पत्ति ही उसकी आँखो में सब कुछ थी। पति-प्रेम गौण-सी वस्तु थी; पर उसका लोभी मन सम्पत्ति पर सन्तुष्ट न रह सका, पति-प्रेम के लिए हाथ फैलाने लगा। कुछ दिनों में उसे मालूम हुआ, मुझे परम-रत्न भी मिल गया; पर थोड़े ही दिनों में वह भ्रम जाता रहा। कुँवर गजराजसिंह रूपवान थे, उदार थे, बलवान् थे, शिक्षित थे, विनोदप्रिय थे और प्रेम का अभिनय भी करना जानते थे; उनके जीवन में प्रेम से कंपित होने वाला तार न था। वसुधा का खिला हुआ यौवन और देवताओं को भी लुभाने वाला रूप-रंग केवल विनोद का सामान था। घुड़दौड़ और शिकार, सट्टे और मकार जैसे सनसनी पैदा करने वाले मनोरंजन में प्रेम दबकर पीला और निर्जीव हो गया था। और प्रेम से वंचित होकर वुसधा की प्रेम-तृष्णा अब अपने भाग्य को रोया करती थी। दो पुत्र-रत्न पाकर भी वह सुखी न थी।



कुंवर साहब एक महीने से ज्यादा हुआ, शिकार खेलने गये और अभी तक लौटकर नहीं आये। और यह ऐसा, पहला ही अवसर न था। हाँ, अब उनकी अवधि बढ़ गयी थी। पहले वह एक सप्ताह में लौट आते थे; फिर दो सप्ताह का नम्बर चला और अब कई बार से एक-एक महीने की खबर लेने लगे। साल में तीन-तीन महीने शिकार की भेंट हो जाते थे। शिकार से लौटते, तो घुड़दौड़ का राग छिड़ता। कभी मेरठ, कभी पूना, कभी बम्बई, कभी कलकत्ता। घर पर ही रहते, तो अधिकतर लम्पट रईसजादों के साथ गप्पें उड़ाया करते। पति के यह रंग-ढंग देखकर वसुधा मन-ही-मन कुढ़ती और घुलती जाती थी। कुछ दिनों से हल्का-हल्का ज्वर भी रहने लगा था।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#19
वसुधा बड़ी देर तक बैठी उदास आँखो से यह दृश्य देखती रही। फिर टेलीफोन पर आकर उसने रियासत के मैनेजर से पूछा,
"कुँवर साहब का कोई पत्र आया ?"

फोन ने जवाब दिया, "ज़ी हाँ, अभी खत आया है। कुँवर साहब ने एक बहुत बड़े शेर को मारा है।"

वसुधा ने जलकर कहा, "मैं यह नहीं पूछती ! आने को कब लिखा है ?"

''आने के बारे में तो कुछ नहीं लिखा।''

''यहाँ से उनका पड़ाव कितनी दूर है ?''

''यहाँ से ! दो सौ मील से कम न होगा। पीलीभीत के जंगलों में शिकार हो रहा है।''

''मेरे लिए दो मोटरों का इन्तजाम कर दीजिए। मैं आज वहाँ जाना चाहती हूँ।''

फोन ने कई मिनट बाद जवाब दिया, " एक मोटर तो वह साथ ले गये हैं। एक हाकिम जिला के बंगले पर भेज दी गयी, तीसरी बैंक के मैनेजर की सवारी में, चौथी की मरम्मत हो रही है।"

वसुधा का चेहरा क्रोध से तमतमा उठा। बोली, "क़िसके हुक्म से बैंक के मैनेजर और हाकिम जिला को मोटरें भेजी गयीं ? आप दोनों मँगवा लीजिए। मैं आज जरूर जाऊँगी।"

'उन दोनों साहबों के पास हमेशा मोटरें भेजी जाती रही हैं; इसलिए मैंने भेज दीं। अब आप हुक्म दे रही हैं, तो मँगवा लूँगा !'

वसुधा ने फोन से आकर सफर का सामान ठीक करना शुरू किया। उसने उसी आवेश में आकर अपना भाग्य-निर्णय करने का निश्चय कर लिया था। परित्यक्ता की भाँति पड़ी रहकर जीवन को समाप्त न करना चाहती थी। वह जाकर कुँवर साहब से कहेगी अगर आप समझते हैं कि मैं आपकी सम्पत्ति की लौंडी बनकर रहूँ, तो यह मुझसे न होगा। आपकी सम्पत्ति आपको मुबारक हो। मेरा अधिकार आपकी सम्पत्ति पर नहीं, आपके ऊपर है। अगर आप मुझसे जौ-भर हटना चाहते हैं, तो मैं आपसे हाथ-भर हट जाऊँगी ! इस तरह की और कितनी ही विराग-भरी बातें उसके मन में बगूलों की भाँति उठ रही थीं। डाक्टर साहब ने द्वार पर आकर पुकारा, " मैं अन्दर आऊँ ?"

वसुधा ने नम्रता से कहा, "आज क्षमा कीजिए, मैं जरा पीलीभीत जा रही हूँ।"

डाक्टर ने आश्चर्य से कहा, "आप पीलीभीत जा रही हैं ! आपका ज्वर चढ़ जायगा। इस दशा में मैं आपको जाने की सलाह न दूँगा।"

वसुधा ने विरक्त स्वर में कहा, " बढ़ जायगा, बढ़ जाय; मुझे इसकी चिन्ता नहीं है ! वृद्ध डाक्टर परदा उठाकर आ गया और वसुधा के चेहरे की ओर ताकता हुआ बोला लाइए मैं टेम्परेचर ले लूँ। अगर टेम्परेचर बढ़ा होगा, तो मैं आपको हरगिज न जाने दूँगा। 'टेम्परेचर लेने की जरूरत नहीं। मेरा इरादा पक्का हो गया है।'

'स्वास्थ्य पर ध्यान रखना आपका पहला कर्तव्य है।'

वसुधा ने मुस्कराकर कहा, "आप निश्चिन्त रहिए, मैं इतनी जल्द मरी नहीं जा रही हूँ ! फिर अगर किसी बीमारी की दवा मौत ही हो, तो आप क्या करेंगे ?"

डाक्टर ने दो-एक बार आग्रह किया फिर विस्मय से सिर हिलाता चला गया !

रेलगाड़ी से जाने में आखिरी स्टेशन से दस कोस तक जंगली सुनसान रास्ता तय करना पड़ता था, इसलिए कुँवर साहब बराबर मोटर ही पर जाते थे। वसुधा ने उसी से जाने का निश्चय किया। दस बजते-बजते दोनों मोटरें आयीं। वसुधा ने डन्नाइवरों पर गुस्सा उतारा अब मेरे हुक्म के बगैर कहीं मोटर ले गये, तो मोटर का किराया तुम्हारी तलब से काट लूँगी। अच्छी दिल्लगी है ! घर को रोयें, बन की गायें ! हमने अपने आराम के लिए मोटरें रखी हैं, किसी की खुशामद करने के लिए नहीं। जिसे मोटर पर सवार होने का शौक हो, मोटर खरीदे। यह नहीं कि हलवाई की दुकान देखी और दादे का फातिहा पढ़ने बैठ गये ! वह चली, तो दोनों बच्चे कुनमुनाये, मगर जब मालूम हुआ, कि अम्माँ बड़ी दूर हौआ को मारने जा रही हैं तो उनका यात्रा-प्रेम ठण्डा पड़ा। वसुधा ने आज सुबह से उन्हें प्यार न किया था। उसने जलन में सोचा मैं ही क्यों इन्हें प्यार करूँ, मैंने ही इनका ठेका लिया है ! वह तो वहाँ जाकर चैन करें और मैं यहाँ इन्हें छाती से लगाये बैठी रहूँ। लेकिन चलते समय माता का ह्रदय पुलक उठा। दोनों को बारी-बारी से गोद में लिया, चूमा, प्यार किया और घण्टे भर में लौट आने का वचन देकर वह सजल नेत्रों के साथ घर से निकली। मार्ग में भी उसे बच्चों की याद बार-बार आती रही। रास्ते में कोई गाँव आ जाता और छोटे-छोटे बालक मोटर की दौड़ देखने के लिए घरों से निकल आते, और सड़क पर खड़े होकर तालियाँ बजाते हुए मोटर का स्वागत करते, तो वसुधा का जी चाहता, इन्हें गोद में उठाकर प्यार कर लूँ। मोटर जितने वेग से आगे जा रही थी, उतने ही वेग से उसका मन सामने के वृक्ष-समूहों के पीछे की ओर उड़ा जा रहा था। कई बार इच्छा हुई, घर लौट चलूँ। जब उन्हें मेरी रत्ती भर परवाह नहीं है, तो मैं ही क्यों उनकी फिक्र में प्राण दूँ ? जी चाहे आवें या न आवें; लेकिन एक बार पति से मिलकर उनसे खरी-खरी बात करने के प्रलोभन को वह न रोक सकी। सारी देह थककर चूर-चूर हो रही थी, ज्वर भी हो आया था, सिर पीड़ा से फटा पड़ता था; पर वह संकल्प से सारी बाधाओं को दबाये आगे बढ़ती जाती थी। यहाँ तक कि जब वह दस बजे रात को जंगल के उस डाक-बंगले में पहुँची, तो उसे तन-बदन की सुधि न थी। जोर का ज्वर चढ़ा हुआ था। शोर की आवाज सुनते ही कुँवर साहब निकल आये और पूछा, "तुम यहाँ कैसे आये जी ? कुशल तो है ?"

शोफर ने समीप आकर कहा, "रानी साहब आयी हैं हुजूर ! रास्ते में बुखार हो आया। बेहोश पड़ी हुई हैं।

कुँवर साहब ने वहीं खड़े कठोर स्वर में पूछा, तो तुम उन्हें वापस क्यों न ले गये ? क्या तुम्हें मालूम नहीं था, यहाँ कोई वैद्य-हकीम नहीं है।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#20
कुँवर साहब ने वहीं खड़े कठोर स्वर में पूछा, तो तुम उन्हें वापस क्यों न ले गये ? क्या तुम्हें मालूम नहीं था, यहाँ कोई वैद्य-हकीम नहीं है।

शोफर ने सिटपिटाकर जवाब दिया हुजूर, वह किसी तरह मानती ही न थीं, तो मैं क्या करता ? कुँवर साहब ने डाँ टा, चुप रहो जी, बातें न बनाओ। तुमने समझा होगा, शिकार की बहार देखेंगे और पड़े-पड़े सोयेंगे। तुमने वापस चलने कोकहा, ही न होगा।


शोफर -- वह मुझे डाँटती थीं हुजूर !

'तुमने कहा, था ?'

'मैंने कहा तो नहीं हुजूर !'

'बस तो चुप रहो ! मैं तुमको भी पहचानता हूँ। तुम्हें मोटर लेकर इसी वक्त लौटना पड़ेगा। और कौन-कौन साथ हैं ?'

शोफर ने दबी हुई आवाज में कहा, एक मोटर पर बिस्तर और कपड़े हैं एक पर खुद रानी साहब हैं।

'यानी और कोई साथ नहीं है ?'

'हुजूर ! मैं तो हुक्म का ताबेदार हूँ।'

'बस, चुप रहो !'

यों झल्लाते हुए कुँवर साहब वसुधा के पास गये और आहिस्ता से पुकारा। जब कोई जवाब न मिला तो उन्होंने धीरे से उसके माथे पर हाथ रखा। सिर गर्म तवा हो रहा था। उस ताप ने मानो उनकी सारी क्रोध-ज्वाला को खींच लिया। लपककर बंगले में आये, सोये हुए आदमियों को जगाया,पलंग बिछवाया, अचेत वसुधा को गोद में उठाकर कमरे में लाये और पलंग पर लिटा दिया। फिर उसके सिरहाने खड़े होकर उसे व्यथित नेत्रों से देखने लगे। उस धुल से भरे मुखमंडल और बिखरे हुए रज-रंजित केशों में आज उन्होंने आग्रहमय प्रेम की झलक देखी। अब तक उन्होंने वसुधा को विलासिनी के रूप में देखा था, जिसे उनके प्रेम की परवाह न थी, जो अपने बनाव-सिंगार ही में मगन थी, आज धूल के पौडर और पोमेड में वह उसके नारीत्व का दर्शन कर रहे थे। उसमें कितना आग्रह था, कितनी लालसा थी ! अपनी उड़ान के आनन्द में डूबी हुई; अब वह पिंजरे के द्वार पर आकर पंख फड़फड़ा रही थी। पिंजरे का द्वार खुलकर क्या उसका स्वागत न करेगा ? रसोइये ने पूछा, क्या सरकार अकेले आयी हैं ? कुँवर साहब ने कोमल कण्ठ से कहा, हाँ जी, और क्या। इतने आदमी हैं, किसी को साथ न लिया। आराम से रेलगाड़ी से आ सकती थीं। यहाँ से मोटर भेज दी जाती। मन ही तो है। कितने जोर का बुखार है कि हाथ नहीं रखा जाता। जरा-सा पानी गर्म करो और देखो, कुछ खाने को बना लो। रसोइये ने सोचा, ठकुर-सोहाती की सौ कोस की दौड़ बहुत होती है सरकार ! सारा दिन बैठे-बैठे बीत गया।कुँवर साहब ने वसुधा के सिर के नीचे तकिया सीधा करके कहा,

'कचूमर तो हम लोगों का निकल जाता है। दो दिन तक कमर नहीं सीधी होती फिर इनकी क्या बात है। ऐसी बेहूदा सड़क दुनिया में न होगी।'


यह कहते हुए उन्होंने एक शीशी से तेल निकाला और वसुधा के सिर में मलने लगे। वसुधा का ज्वर इक्कीस दिन तक न उतरा। घर के डाक्टर आये। दोनों बालक, मुनिया, नौकर-चाकर, सभी आ गये। जंगल में मंगल हो गया।

वसुधा खाट पर पड़ी-पड़ी कुँवर साहब की सुश्रुषाओं में अलौकिक आनन्द और सन्तोष का अनुभव किया करती। वह दोपहर दिन चढ़े तक सोने के आदी थे, कितने सबेरे उठते, उसके पथ्य और आराम की जरा-जरा सी बातों का कितना खयाल रखते। जरा देर के लिए स्नान और भोजन करते जाते, फिर आकर बैठ जाते। एक तपस्या-सी कर रहे थे। उसका स्वास्थ्य बिगड़ता जाता था, चेहरे पर स्वास्थ्य की लाली न थी। कुछ व्यस्त से रहते थे। एक दिन वसुधा ने कहा, तुम आजकल शिकार खेलने क्यों नहीं जाते ? मैं तो शिकार खेलने ही आयी थी, मगर न जाने किस बुरी साइत से चली कि तुम्हें इतनी तपस्या करनी पड़ गयी। अब मैं बिलकुल अच्छी हूँ। जरा आईने में अपनी सूरत तो देखो। कुँवर साहब को इतने दिनों शिकार का कभी ध्यान ही न आया था। इसकी चर्चा ही न होती थी। शिकारियों का आना-जाना, मिलना-जुलना बन्द था। एक बार साथ के एक शिकारी ने किसी शेर का जिक्र किया था। कुँवर साहब ने उसकी ओर कुछ ऐसी कड़वी आँखो से देखा कि वह सूख-सा गया। वसुधा के पास बैठने, उससे कुछ बातें करके उसका मन बहलाने, दवा और पथ्य बनाने में ही उन्हें आनन्द मिलता था। उनका भोग-विलास जीवन के इस कठोर व्रत में जैसे बुझ गया। वसुधा की एक हथेली पर अँगुलियों से रेखा खींचने में मग्न थे। शिकार की बात किसी और के मुँह से सुनी होती, तो फिर उसी आग्नेय नेत्रों से देखते। वसुधा के मुँह से यह चर्चा सुनकर उन्हें दु:ख हुआ। वह उन्हें इतना शिकार का आसक्त समझती है ! अमर्षभरे स्वर में बोले हाँ, शिकार खेलने का इससे अच्छा और कौन अवसर मिलेगा !

वसुधा ने आग्रह किया मैं तो अब अच्छी हूँ, सच ! देखो (आईने की ओर दिखाकर) मेरे चेहरे पर वह पीलापन नहीं रहा। तुम अलबत्ता बीमार से हो जाते हो। जरा मन बहल जायगा। बीमार के पास बैठने से आदमी सचमुच बीमार हो जाता है। वसुधा ने साधारण-सी बात कही थी; पर कुँवर साहब के ह्रदय पर वह चिनगारी के समान लगी। इधर वह अपने शिकार के खब्त पर कई बार पछता चुके थे। अगर वह शिकार के पीछे यों न पड़ते, तो वसुधा यहाँ क्यों आती और क्यों बीमार पड़ती। उन्हें मन-ही-मन इसका बड़ा दु:ख था। इस वक्त कुछ न बोले। शायद कुछ बोला ही न गया। फिर वसुधा की हथेली पर रेखाएँ बनाने लगे। वसुधा ने उसी सरल भाव से कहा, अबकी तुमने क्या-क्या तोहफे जमा किये, जरा मँगाओ, देखूँ। उनमें से जो सबसे अच्छा होगा, उसे मैं ले लूँगी। अबकी मैं भी तुम्हारे साथ शिकार खेलने चलूँगी। बोलो, मुझे ले चलोगे न ? मैं मानूँगी नहीं। बहाने मत करने लगना।

अपने शिकारी तोहफे दिखाने का कुँवर साहब को मरज था। सैकड़ों ही खालें जमा कर रखी थीं। उनके कई कमरों में फर्श-गद्दे, कोच, कुर्सियाँ, मोढ़े सब खालों ही के थे। ओढ़ना और बिछौना भी खालों ही का था ! बाघम्बरों के कई सूट बनवा रखे थे। शिकार में वही सूट पहनते थे। अबकी भी बहुत से सींग, सिर, पंजे, खालें जमा कर रखी थीं। वसुधा का इन चीजों से अवश्य मनोरंजन होगा। यह न समझे कि वसुधा ने सिंह-द्वार से प्रवेश न पाकर चोर दरवाजे से घुसने का प्रयत्न किया है। जाकर वह चीजें उठवा लाये; लेकिन आदमियों को परदे की आड़ में खड़ा करके पहले अकेले ही उसके पास गये ! डरते थे; कहीं मेरी उत्सकुता वसुधा को बुरी न लगे। वसुधा ने उत्सुक होकर पूछा, चीजें नहीं लाये ?

'लाया हूँ, मगर कहीं डाक्टर साहब न हों।'

'डाक्टर ने पढ़ने-लिखने को मना किया था।' तोहफे लाये गये। कुँवर साहब एक-एक चीज निकालकर दिखाने लगे।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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