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Misc. Erotica लिहाफ
#1
लिहाफ





Heart Heart
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#2
[b]01 साल पहले, इस्मत आपा का जन्म हुआ था. बदायूं में. उत्तरप्रदेश में पड़ती है ये जगह. अभी जन्मदिन आने को है. मुल्क आजाद हुआ था उससे ठीक 32 साल पहले पैदा हुईं थीं. तारीख वही 15 अगस्त. उर्दू की सबसे कंट्रोवर्शिअल और सबसे फेमस राइटर हुई हैं, हमने तय किया कि जन्मदिन के मौके पर उनकी कहानियां पढ़ाएंगे. हिंदी में. पूरे हफ्ते. क्योंकि इस्मत आपा वाला हफ्ता है ये.[/b]
(09-12-2019, 03:25 PM)neerathemall Wrote:
लिहाफ





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#3
इस्मत 27 की थी जब लिहाफ अदब-ए-लतीफ़ नाम की उर्दू मैगजीन में छपी. और कहानी के लोगों तक पहुंचते ही दावतनामा आ गया कोर्ट से क्योंकि कहानी में लड़का लड़के से और लड़की लड़की से सेक्स करती थी. लेकिन इस्मत ने माफ़ी नहीं मांगी. कोर्ट में लड़ती रही और केस जीत गयी. जो लड़की खानदान और मां-बाप से नहीं डरी वो कोर्ट से क्या डरती. ये वही इस्मत थी जो बचपन में छिप -छिप कर लिखती थी . भारत की पहली मुसलमान औरत थी जिसने बीए की डिग्री ली. जो कहती थी मैं क़ुरान के साथ गीता और बाइबल भी पढ़ती हूं. जिसकी बेटी ने एक हिंदू से शादी की.
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#4
1

जब मैं जाड़ों में लिहाफ ओढ़ती हूं तो पास की दीवार पर उसकी परछाई हाथी की तरह झूमती हुई मालूम होती है. और एकदम से मेरा दिमाग बीती हुई दुनिया के पर्दों में दौडने-भागने लगता है. न जाने क्या कुछ याद आने लगता है.

माफ कीजियेगा, मैं आपको खुद अपने लिहाफ़ का रूमानअंगेज़ ज़िक्र बताने नहीं जा रही हूं, न लिहाफ़ से किसी किस्म का रूमान जोड़ा ही जा सकता है. मेरे ख़याल में कम्बल कम आरामदेह सही, मगर उसकी परछाई इतनी भयानक नहीं होती जितनी, जब लिहाफ़ की परछाई दीवार पर डगमगा रही हो.

यह जब का जिक्र है, जब मैं छोटी-सी थी और दिन-भर भाइयों और उनके दोस्तों के साथ मार-कुटाई में गुज़ार दिया करती थी. कभी-कभी मुझे ख़याल आता कि मैं कमबख्त इतनी लड़ाका क्यों थी? उस उम्र में जबकि मेरी और बहनें आशिक जमा कर रही थीं, मैं अपने-पराये हर लड़के और लड़की से जूतम-पैजार में मशगूल थी.

यही वजह थी कि अम्मां जब आगरा जाने लगीं तो हफ्ता-भर के लिए मुझे अपनी एक मुंहबोली बहन के पास छोड़ गईं. उनके यहां, अम्मां खूब जानती थी कि चूहे का बच्चा भी नहीं और मैं किसी से भी लड़-भिड़ न सकूंगी. सज़ा तो खूब थी मेरी! हां, तो अम्मां मुझे बेगम जान के पास छोड़ गईं.
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#5
2

वही बेगम जान जिनका लिहाफ़ अब तक मेरे ज़हन में गर्म लोहे के दाग की तरह महफूज है. ये वो बेगम जान थीं जिनके गरीब मां-बाप ने नवाब साहब को इसलिए दामाद बना लिया कि वह पकी उम्र के थे मगर निहायत नेक. कभी कोई रण्डी या बाज़ारी औरत उनके यहां नज़र न आई. ख़ुद हाजी थे और बहुतों को हज करा चुके थे.

मगर उन्हें एक निहायत अजीबो-गरीब शौक था. लोगों को कबूतर पालने का जुनून होता है, बटेरें लड़ाते हैं, मुर्गबाज़ी करते हैं, इस किस्म के वाहियात खेलों से नवाब साहब को नफ़रत थी. उनके यहां तो बस तालिब इल्म रहते थे. नौजवान, गोरे-गोरे, पतली कमरों के लड़के, जिनका खर्च वे खुद बर्दाश्त करते थे.

मगर बेगम जान से शादी करके तो वे उन्हें कुल साज़ो-सामान के साथ ही घर में रखकर भूल गए. और वह बेचारी दुबली-पतली नाज़ुक-सी बेगम तन्हाई के गम में घुलने लगीं. न जाने उनकी ज़िन्दगी कहां से शुरू होती है? वहां से जब वह पैदा होने की गलती कर चुकी थीं, या वहां से जब एक नवाब की बेगम बनकर आयीं और छपरखट पर ज़िन्दगी गुजारने लगीं, या जब से नवाब साहब के यहां लड़कों का जोर बंधा. उनके लिए मुरग्गन हलवे और लज़ीज़ खाने जाने लगे और बेगम जान दीवानखाने की दरारों में से उनकी लचकती कमरोंवाले लड़कों की चुस्त पिण्डलियां और मोअत्तर बारीक शबनम के कुर्ते देख-देखकर अंगारों पर लोटने लगीं.

या जब से वह मन्नतों-मुरादों से हार गईं, चिल्ले बंधे और टोटके और रातों की वज़ीफाख्व़ानी भी चित हो गई. कहीं पत्थर में जोंक लगती है! नवाब साहब अपनी जगह से टस-से-मस न हुए. फिर बेगम जान का दिल टूट गया और वह इल्म की तरफ मोतवज्जो हुई. लेकिन यहां भी उन्हें कुछ न मिला. इश्किया नावेल और जज़्बाती अशआर पढ़कर और भी पस्ती छा गई. रात की नींद भी हाथ से गई और बेगम जान जी-जान छोड़कर बिल्कुल ही यासो-हसरत की पोट बन गईं.

चूल्हे में डाला था ऐसा कपड़ा-लत्ता. कपड़ा पहना जाता है किसी पर रोब गांठने के लिए. अब न तो नवाब साहब को फुर्सत कि शबनमी कुर्तों को छोड़कर ज़रा इधर तवज्जो करें और न वे उन्हें कहीं आने-जाने देते. जब से बेगम जान ब्याहकर आई थीं, रिश्तेदार आकर महीनों रहते और चले जाते, मगर वह बेचारी कैद की कैद रहतीं.

उन रिश्तेदारों को देखकर और भी उनका खून जलता था कि सबके-सब मज़े से माल उड़ाने, उम्दा घी निगलने, जाड़े का साज़ो-सामान बनवाने आन मरते और वह बावजूद नई रूई के लिहाफ के, पड़ी सर्दी में अकड़ा करतीं. हर करवट पर लिहाफ़ नईं-नईं सूरतें बनाकर दीवार पर साया डालता. मगर कोई भी साया ऐसा न था जो उन्हें ज़िन्दा रखने लिए काफी हो. मगर क्यों जिये फिर कोई? ज़िन्दगी! बेगम जान की ज़िन्दगी जो थी! जीना बंदा था नसीबों में, वह फिर जीने लगीं और खूब जीं.

रब्बो ने उन्हें नीचे गिरते-गिरते संभाल लिया. चटपट देखते-देखते उनका सूखा जिस्म भरना शुरू हुआ. गाल चमक उठे और हुस्न फूट निकला. एक अजीबो-गरीब तेल की मालिश से बेगम जान में ज़िन्दगी की झलक आई. माफ़ कीजिएगा, उस तेल का नुस्खा़ आपको बेहतरीन-से-बेहतरीन रिसाले में भी न मिलेगा.

जब मैंने बेगम जान को देखा तो वह चालीस-बयालीस की होंगी. ओफ्फोह! किस शान से वह मसनद पर नीमदराज़ थीं और रब्बो उनकी पीठ से लगी बैठी कमर दबा रही थी. एक ऊदे रंग का दुशाला उनके पैरों पर पड़ा था और वह महारानी की तरह शानदार मालूम हो रही थीं. मुझे उनकी शक्ल बेइन्तहा पसन्द थी. मेरा जी चाहता था, घण्टों बिल्कुल पास से उनकी सूरत देखा करूं. उनकी रंगत बिल्कुल सफेद थी. नाम को सुर्खी का ज़िक्र नहीं. और बाल स्याह और तेल में डूबे रहते थे. मैंने आज तक उनकी मांग ही बिगड़ी न देखी. क्या मजाल जो एक बाल इधर-उधर हो जाए. उनकी आंखें काली थीं और अबरू पर के ज़ायद बाल अलहदा कर देने से कमानें-सीं खिंची होती थीं. आंखें ज़रा तनी हुई रहती थीं. भारी-भारी फूले हुए पपोटे, मोटी-मोटी पलकें. सबसे ज़ियाद जो उनके चेहरे पर हैरतअंगेज़ जाज़िबे-नज़र चीज़ थी, वह उनके होंठ थे. अमूमन वह सुर्खी से रंगे रहते थे. ऊपर के होंठ पर हल्की-हल्की मूंछें-सी थीं और कनपटियों पर लम्बे-लम्बे बाल. कभी-कभी उनका चेहरा देखते-देखते अजीब-सा लगने लगता था, कम उम्र लड़कों जैसा.

उनके जिस्म की जिल्द भी सफेद और चिकनी थी. मालूम होता था किसी ने कसकर टांके लगा दिए हों. अमूमन वह अपनी पिण्डलियां खुजाने के लिए किसोलतीं तो मैं चुपके-चुपके उनकी चमक देखा करती. उनका कद बहुत लम्बा था और फिर गोश्त होने की वजह से वह बहुत ही लम्बी-चौड़ी मालूम होतीं थीं. लेकिन बहुत मुतनासिब और ढला हुआ जिस्म था. बड़े-बड़े चिकने और सफेद हाथ और सुडौल कमर तो रब्बो उनकी पीठ खुजाया करती थी. यानी घण्टों उनकी पीठ खुजाती, पीठ खुजाना भी ज़िन्दगी की ज़रूरियात में से था, बल्कि शायद ज़रूरियाते-ज़िन्दगी से भी ज्यादा.
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#6
रब्बो को घर का और कोई काम न था. बस वह सारे वक्त उनके छपरखट पर चढ़ी कभी पैर, कभी सिर और कभी जिस्म के और दूसरे हिस्से को दबाया करती थी. कभी तो मेरा दिल बोल उठता था, जब देखो रब्बो कुछ-न-कुछ दबा रही है या मालिश कर रही है.

कोई दूसरा होता तो न जाने क्या होता? मैं अपना कहती हूं, कोई इतना करे तो मेरा जिस्म तो सड़-गल के खत्म हो जाय. और फिर यह रोज़-रोज़ की मालिश काफी नहीं थीं. जिस रोज़ बेगम जान नहातीं, या अल्लाह! बस दो घण्टा पहले से तेल और खुशबुदार उबटनों की मालिश शुरू हो जाती. और इतनी होती कि मेरा तो तख़य्युल से ही दिल लोट जाता. कमरे के दरवाज़े बन्द करके अंगीठियां सुलगती और चलता मालिश का दौर. अमूमन सिर्फ़ रब्बो ही रही. बाकी की नौकरानियां बड़बड़ातीं दरवाज़े पर से ही, जरूरियात की चीज़ें देती जातीं.

बात यह थी कि बेगम जान को खुजली का मर्ज़ था. बिचारी को ऐसी खुजली होती थी कि हज़ारों तेल और उबटने मले जाते थे, मगर खुजली थी कि कायम. डाक्टर,हकीम कहते, ”कुछ भी नहीं, जिस्म साफ़ चट पड़ा है. हां, कोई जिल्द के अन्दर बीमारी हो तो खैर.” ‘नहीं भी, ये डाक्टर तो मुये हैं पागल! कोई आपके दुश्मनों को मर्ज़ है? अल्लाह रखे, खून में गर्मी है! रब्बो मुस्कराकर कहती, महीन-महीन नज़रों से बेगम जान को घूरती! ओह यह रब्बो! जितनी यह बेगम जान गोरी थीं उतनी ही यह काली. जितनी बेगम जान सफेद थीं, उतनी ही यह सुर्ख. बस जैसे तपाया हुआ लोहा. हल्के-हल्के चेचक के दाग. गठा हुआ ठोस जिस्म. फुर्तीले छोटे-छोटे हाथ. कसी हुई छोटी-सी तोंद. बड़े-बड़े फूले हुए होंठ, जो हमेशा नमी में डूबे रहते और जिस्म में से अजीब घबरानेवाली बू के शरारे निकलते रहते थे. और ये नन्हें-नन्हें फूले हुए हाथ किस कदर फूर्तीले थे! अभी कमर पर, तो वह लीजिए फिसलकर गए कूल्हों पर! वहां से रपटे रानों पर और फिर दौड़े टखनों की तरफ! मैं तो जब कभी बेगम जान के पास बैठती, यही देखती कि अब उसके हाथ कहां हैं और क्या कर रहें हैं?

गर्मी-जाड़े बेगम जान हैदराबादी जाली कारगे के कुर्ते पहनतीं. गहरे रंग के पाजामे और सफेद झाग-से कुर्ते. और पंखा भी चलता हो, फिर भी वह हल्की दुलाई ज़रूर जिस्म पर ढके रहती थीं. उन्हें जाड़ा बहुत पसन्द था. जाड़े में मुझे उनके यहां अच्छा मालूम होता. वह हिलती-डुलती बहुत कम थीं. कालीन पर लेटी हैं, पीठ खुज रही हैं, खुश्क मेवे चबा रही हैं और बस! रब्बो से दूसरी सारी नौकरियां खार खाती थीं. चुड़ैल बेगम जान के साथ खाती, साथ उठती-बैठती और माशा अल्लाह! साथ ही सोती थी! रब्बो और बेगम जान आम जलसों और मजमूओं की दिलचस्प गुफ्तगू का मौजूं थीं. जहां उन दोनों का ज़िक्र आया और कहकहे उठे. लोग न जाने क्या-क्या चुटकुले गरीब पर उड़ाते, मगर वह दुनिया में किसी से मिलती ही न थी. वहां तो बस वह थीं और उनकी खुजली!

मैंने कहा कि उस वक्त मैं काफ़ी छोटी थी और बेगम जान पर फिदा. वह भी मुझे बहुत प्यार करती थीं. इत्तेफाक से अम्मां आगरे गईं. उन्हें मालूम था कि अकेले घर में भाइयों से मार-कुटाई होगी, मारी-मारी फिरूंगी, इसलिए वह हफ्ता-भर के लिए बेगम जान के पास छोड़ गईं. मैं भी खुश और बेगम जान भी खुश. आखिर को अम्मां की भाभी बनी हुई थीं.

सवाल यह उठा कि मैं सोऊं कहां? कुदरती तौर पर बेगम जान के कमरे में. लिहाज़ा मेरे लिए भी उनके छपरखट से लगाकर छोटी-सी पलंगड़ी डाल दी गई. दस-ग्यारह बजे तक तो बातें करते रहे. मैं और बेगम जान चांस खेलते रहे और फिर मैं सोने के लिए अपने पलंग पर चली गई. और जब मैं सोयी तो रब्बो वैसी ही बैठी उनकी पीठ खुजा रही थी. ‘भंगन कहीं की!’ मैंने सोचा. रात को मेरी एकदम से आंख खुली तो मुझे अजीब तरह का डर लगने लगा. कमरे में घुप अंधेरा. और उस अंधेरे में बेगम जान का लिहाफ ऐसे हिल रहा था, जैसे उसमें हाथी बन्द हो!
”बेगम जान!” मैंने डरी हुई आवाज़ निकाली. हाथी हिलना बन्द हो गया. लिहाफ नीचे दब गया.
”क्या है? सो जाओ.”
बेगम जान ने कहीं से आवाज़ दी.
”डर लग रहा है.”
मैंने चूहे की-सी आवाज़ से कहा.
”सो जाओ. डर की क्या बात है? आयतलकुर्सी पढ़ लो.”
”अच्छा.”
मैंने जल्दी-जल्दी आयतलकुर्सी पढ़ी. मगर ‘यालमू मा बीन’ पर हर दफा आकर अटक गई. हालांकि मुझे वक्त पूरी आयत याद है.
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#7
3

”तुम्हारे पास आ जाऊं बेगम जान?”
”नहीं बेटी, सो रहो.” ज़रा सख्ती से कहा.
और फिर दो आदमियों के घुसुर-फुसुर करने की आवाज़ सुनायी देने लगी. हाय रे! यह दूसरा कौन? मैं और भी डरी.
”बेगम जान, चोर-वोर तो नहीं?”
”सो जाओ बेटा, कैसा चोर?”
रब्बो की आवाज़ आई. मैं जल्दी से लिहाफ में मुंह डालकर सो गई.

सुबह मेरे जहन में रात के खौफनाक नज़ारे का खयाल भी न रहा. मैं हमेशा की वहमी हूं. रात को डरना, उठ-उठकर भागना और बड़बड़ाना तो बचपन में रोज़ ही होता था. सब तो कहते थे, मुझ पर भूतों का साया हो गया है. लिहाज़ा मुझे खयाल भी न रहा. सुबह को लिहाफ बिल्कुल मासूम नज़र आ रहा था.

मगर दूसरी रात मेरी आंख खुली तो रब्बो और बेगम जान में कुछ झगड़ा बड़ी खामोशी से छपरखट पर ही तय हो रहा था. और मेरी खाक समझ में न आया कि क्या फैसला हुआ? रब्बो हिचकियां लेकर रोयी, फिर बिल्ली की तरह सपड़-सपड़ रकाबी चाटने-जैसी आवाज़ें आने लगीं, ऊंह! मैं तो घबराकर सो गई.

आज रब्बो अपने बेटे से मिलने गई हुई थी. वह बड़ा झगड़ालू था. बहुत कुछ बेगम जान ने किया, उसे दुकान करायी, गांव में लगाया, मगर वह किसी तरह मानता ही नहीं था. नवाब साहब के यहां कुछ दिन रहा, खूब जोड़े-बागे भी बने, पर न जाने क्यों ऐसा भागा कि रब्बो से मिलने भी न आता. लिहाज़ा रब्बो ही अपने किसी रिश्तेदार के यहां उससे मिलने गई थीं. बेगम जान न जाने देतीं, मगर रब्बो भी मजबूर हो गई. सारा दिन बेगम जान परेशान रहीं. उनका जोड़-जोड़ टूटता रहा. किसी का छूना भी उन्हें न भाता था. उन्होंने खाना भी न खाया और सारा दिन उदास पड़ी रहीं.
”मैं खुजा दूं बेगम जान?”
मैंने बड़े शौक से ताश के पत्ते बांटते हुए कहा. बेगम जान मुझे गौर से देखने लगीं.
”मैं खुजा दूं? सच कहती हूं!”
मैंने ताश रख दिए.
मैं थोड़ी देर तक खुजाती रही और बेगम जान चुपकी लेटी रहीं. दूसरे दिन रब्बो को आना था, मगर वह आज भी गायब थी. बेगम जान का मिज़ाज चिड़चिड़ा होता गया. चाय पी-पीकर उन्होंने सिर में दर्द कर लिया. मैं फिर खुजाने लगी उनकी पीठ-चिकनी मेज़ की तख्ती-जैसी पीठ. मैं हौले-हौले खुजाती रही. उनका काम करके कैसी खुशी होती थी!
”जरा ज़ोर से खुजाओ. बन्द खोल दो.” बेगम जान बोलीं, ”इधर ऐ है, ज़रा शाने से नीचे हां वाह भइ वाह! हा!हा!” वह सुरूर में ठण्डी-ठण्डी सांसें लेकर इत्मीनान ज़ाहिर करने लगीं.

”और इधर…” हालांकि बेगम जान का हाथ खूब जा सकता था, मगर वह मुझसे ही खुजवा रही थीं और मुझे उल्टा फख्र हो रहा था. ”यहां ओई! तुम तो गुदगुदी करती हो वाह!” वह हंसी. मैं बातें भी कर रही थी और खुजा भी रही थी.
”तुम्हें कल बाज़ार भेजूंगी. क्या लोगी? वही सोती-जागती गुड़िया?”
”नहीं बेगम जान, मैं तो गुड़िया नहीं लेती. क्या बच्चा हूं अब मैं?”
”बच्चा नहीं तो क्या बूढ़ी हो गई?” वह हंसी ”गुड़िया नहीं तो बनवा लेना कपड़े, पहनना खुद. मैं दूंगी तुम्हें बहुत-से कपड़े. सुना?” उन्होंने करवट ली.
”अच्छा.” मैंने जवाब दिया.
”इधर…” उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर जहां खुजली हो रही थी, रख दिया. जहां उन्हें खुजली मालूम होती, वहां मेरा हाथ रख देतीं. और मैं बेखयाली में, बबुए के ध्यान में डूबी मशीन की तरह खुजाती रही और वह मुतवातिर बातें करती रहीं.
”सुनो तो तुम्हारी फ्राकें कम हो गई हैं. कल दर्जी को दे दूंगी, कि नई-सी लाए. तुम्हारी अम्मां कपड़ा दे गई हैं.”
”वह लाल कपड़े की नहीं बनवाऊंगी. चमारों-जैसा है!” मैं बकवास कर रही थी और हाथ न जाने कहां-से-कहां पहुंचा. बातों-बातों में मुझे मालूम भी न हुआ.
बेगम जान तो चुप लेटी थीं. ”अरे!” मैंने जल्दी से हाथ खींच लिया.

”ओई लड़की! देखकर नहीं खुजाती! मेरी पसलियां नोचे डालती है!”
बेगम जान शरारत से मुस्करायीं और मैं झेंप गई.
”इधर आकर मेरे पास लेट जा.”
”उन्होंने मुझे बाजू पर सिर रखकर लिटा लिया.
”अब है, कितनी सूख रही है. पसलियां निकल रही हैं.” उन्होंने मेरी पसलियां गिनना शुरू कीं.
”ऊं!” मैं भुनभुनायी.
”ओइ! तो क्या मैं खा जाऊंगी? कैसा तंग स्वेटर बना है! गरम बनियान भी नहीं पहना तुमने!”
मैं कुलबुलाने लगी.
”कितनी पसलियां होती हैं?” उन्होंने बात बदली.
”एक तरफ नौ और दूसरी तरफ दस.”
मैंने स्कूल में याद की हुई हाइजिन की मदद ली. वह भी ऊटपटांग.
”हटाओ तो हाथ हां, एक दो तीन…”
मेरा दिल चाहा किसी तरह भागूं और उन्होंने जोर से भींचा.
”ऊं!” मैं मचल गई.
बेगम जान जोर-जोर से हंसने लगीं.

अब भी जब कभी मैं उनका उस वक्त का चेहरा याद करती हूं तो दिल घबराने लगता है. उनकी आंखों के पपोटे और वज़नी हो गए. ऊपर के होंठ पर सियाही घिरी हुई थी. बावजूद सर्दी के, पसीने की नन्हीं-नन्हीं बूंदें होंठों और नाक पर चमक रहीं थीं. उनके हाथ ठण्डे थे, मगर नरम-नरम जैसे उन पर की खाल उतर गई हो. उन्होंने शाल उतार दी थी और कारगे के महीन कुर्तो में उनका जिस्म आटे की लोई की तरह चमक रहा था. भारी जड़ाऊ सोने के बटन गरेबान के एक तरफ झूल रहे थे. शाम हो गई थी और कमरे में अंधेरा घुप हो रहा था. मुझे एक नामालूम डर से दहशत-सी होने लगी. बेगम जान की गहरी-गहरी आंखें!

मैं रोने लगी दिल में. वह मुझे एक मिट्टी के खिलौने की तरह भींच रही थीं. उनके गरम-गरम जिस्म से मेरा दिल बौलाने लगा. मगर उन पर तो जैसे कोई भूतना सवार था और मेरे दिमाग का यह हाल कि न चीखा जाए और न रो सकूं.

थोड़ी देर के बाद वह पस्त होकर निढाल लेट गईं. उनका चेहरा फीका और बदरौनक हो गया और लम्बी-लम्बी सांसें लेने लगीं. मैं समझी कि अब मरीं यह. और वहां से उठकर सरपट भागी बाहर.

शुक्र है कि रब्बो रात को आ गई और मैं डरी हुई जल्दी से लिहाफ ओढ़ सो गई. मगर नींद कहां? चुप घण्टों पड़ी रही.
अम्मां किसी तरह आ ही नहीं रही थीं. बेगम जान से मुझे ऐसा डर लगता था कि मैं सारा दिन मामाओं के पास बैठी रहती. मगर उनके कमरे में कदम रखते दम निकलता था. और कहती किससे, और कहती ही क्या, कि बेगम जान से डर लगता है? तो यह बेगम जान मेरे ऊपर जान छिड़कती थीं.

आज रब्बो में और बेगम जान में फिर अनबन हो गई. मेरी किस्मत की खराबी कहिए या कुछ और, मुझे उन दोनों की अनबन से डर लगा. क्योंकि फौरन ही बेगम जान को खयाल आया कि मैं बाहर सर्दी में घूम रही हूं और मरूंगी निमोनिया में!
”लड़की क्या मेरी सिर मुंडवाएगी? जो कुछ हो-हवा गया और आफत आएगी.”

उन्होंने मुझे पास बिठा लिया. वह खुद मुंह-हाथ सिलप्ची में धो रही थीं. चाय तिपाई पर रखी थी.
”चाय तो बनाओ. एक प्याली मुझे भी देना.” वह तौलिया से मुंह खुश्क करके बोली, ”मैं ज़रा कपड़े बदल लूं.”

वह कपड़े बदलती रहीं और मैं चाय पीती रही. बेगम जान नाइन से पीठ मलवाते वक्त अगर मुझे किसी काम से बुलाती तो मैं गर्दन मोड़े-मोड़े जाती और वापस भाग आती. अब जो उन्होंने कपड़े बदले तो मेरा दिल उलटने लगा. मुंह मोड़े मैं चाय पीती रही.
”हाय अम्मां!” मेरे दिल ने बेकसी से पुकारा, ”आखिर ऐसा मैं भाइयों से क्या लड़ती हूं जो तुम मेरी मुसीबत…”

अम्मां को हमेशा से मेरा लड़कों के साथ खेलना नापसन्द है. कहो भला लड़के क्या शेर-चीते हैं जो निगल जाएंगे उनकी लाड़ली को? और लड़के भी कौन, खुद भाई और दो-चार सड़े-सड़ाये ज़रा-ज़रा-से उनके दोस्त! मगर नहीं, वह तो औरत जात को सात तालों में रखने की कायल और यहां बेगम जान की वह दहशत, कि दुनिया-भर के गुण्डों से नहीं.
बस चलता तो उस वक्त सड़क पर भाग जाती, पर वहां न टिकती. मगर लाचार थी. मजबूरन कलेजे पर पत्थर रखे बैठी रही.

कपड़े बदल, सोलह सिंगार हुए, और गरम-गरम खुशबुओं के अतर ने और भी उन्हें अंगार बना दिया. और वह चलीं मुझ पर लाड उतारने.
”घर जाऊंगी.”
मैं उनकी हर राय के जवाब में कहा और रोने लगी.
”मेरे पास तो आओ, मैं तुम्हें बाज़ार ले चलूंगी, सुनो तो.”

मगर मैं खली की तरह फैल गई. सारे खिलौने, मिठाइयां एक तरफ और घर जाने की रट एक तरफ.
”वहां भैया मारेंगे चुड़ैल!” उन्होंने प्यार से मुझे थप्पड़ लगाया.
”पड़े मारे भैया,” मैंने दिल में सोचा और रूठी, अकड़ी बैठी रही.
”कच्ची अमियां खट्टी होती हैं बेगम जान!”
जली-कटी रब्बों ने राय दी.
और फिर उसके बाद बेगम जान को दौरा पड़ गया. सोने का हार, जो वह थोड़ी देर पहले मुझे पहना रही थीं, टुकड़े-टुकड़े हो गया. महीन जाली का दुपट्टा तार-तार. और वह मांग, जो मैंने कभी बिगड़ी न देखी थी, झाड़-झंखाड हो गई.
”ओह! ओह! ओह! ओह!” वह झटके ले-लेकर चिल्लाने लगीं. मैं रपटी बाहर.
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#8
बड़े जतनों से बेगम जान को होश आया. जब मैं सोने के लिए कमरे में दबे पैर जाकर झांकी तो रब्बो उनकी कमर से लगी जिस्म दबा रही थी.
”जूती उतार दो.” उसने उनकी पसलियां खुजाते हुए कहा और मैं चुहिया की तरह लिहाफ़ में दुबक गई.
सर सर फट खच!

बेगम जान का लिहाफ अंधेरे में फिर हाथी की तरह झूम रहा था.
”अल्लाह! आं!” मैंने मरी हुई आवाज़ निकाली. लिहाफ़ में हाथी फुदका और बैठ गया. मैं भी चुप हो गई. हाथी ने फिर लोट मचाई. मेरा रोआं-रोआं कांपा. आज मैंने दिल में ठान लिया कि जरूर हिम्मत करके सिरहाने का लगा हुआ बल्ब जला दूं. हाथी फिर फड़फड़ा रहा था और जैसे उकडूं बैठने की कोशिश कर रहा था. चपड़-चपड़ कुछ खाने की आवाजें आ रही थीं, जैसे कोई मज़ेदार चटनी चख रहा हो. अब मैं समझी! यह बेगम जान ने आज कुछ नहीं खाया.

और रब्बो मुई तो है सदा की चट्टू! ज़रूर यह तर माल उड़ा रही है. मैंने नथुने फुलाकर सूं-सूं हवा को सूंघा. मगर सिवाय अतर, सन्दल और हिना की गरम-गरम खुशबू के और कुछ न महसूस हुआ.

लिहाफ़ फिर उमंडना शुरू हुआ. मैंने बहुतेरा चाहा कि चुपकी पड़ी रहूं, मगर उस लिहाफ़ ने तो ऐसी अजीब-अजीब शक्लें बनानी शुरू कीं कि मैं लरज गई.
मालूम होता था, गों-गों करके कोई बड़ा-सा मेंढक फूल रहा है और अब उछलकर मेरे ऊपर आया!

”आ न अम्मां!” मैं हिम्मत करके गुनगुनायी, मगर वहां कुछ सुनवाई न हुई और लिहाफ मेरे दिमाग में घुसकर फूलना शुरू हुआ. मैंने डरते-डरते पलंग के दूसरी तरफ पैर उतारे और टटोलकर बिजली का बटन दबाया. हाथी ने लिहाफ के नीचे एक कलाबाज़ी लगायी और पिचक गया. कलाबाज़ी लगाने मे लिहाफ़ का कोना फुट-भर उठा,
अल्लाह! मैं गड़ाप से अपने बिछौने में!!!
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#9
इस्मत लिखना शुरू करेगी तो उसका दिमाग़ आगे निकल जाएगा और अल्फ़ाज़ पीछे हांफते रह जाएंगे

Heart
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#10
आज हम आपको जो पढ़ा रहे हैं वास्तव में वो सआदत हसन मंटो द्वारा लिखा हुआ संस्मरण है.जो इस्मत चुगताई के कहानी संग्रह ‘चिड़ी की दुक्की’ की भूमिका के रूप में प्रकाशित हुआ था. वाणी प्रकाशन के सौजन्य से हम आप तक ये पहुंचा पाए हैं.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#11
Quote:आज से तक़रीबन डेढ़ बरस (इस्मत के दिफ़ा में लिखा गया यह दोस्त-नवाज़ मज़मून 1947 के आसपास की तहरीर है.) पहले जब मैं बम्बई में था, हैदराबाद से एक साहब (यह ‘एक साहब’ मोहम्मद असदउल्लाह हैं, जो इन दिनों बर्लिन में मुलाज़िम हैं. असदउल्लाह ने, 1955 में, मण्टो के आख़िरी दिनों के बारे में एक किताब लिखी थी) का पोस्ट कार्ड मौसूल1 हुआ. मज़मून कुछ इस किस्म का था.
‘‘यह क्या बात है कि इस्मत चुग़ताई ने आपसे शादी न की? मण्टो और इस्मत, अगर यह दो हस्तियां मिल जातीं तो कितना अच्छा होता. मगर अफ़सोस कि इस्मत ने शाहिद से शादी कर ली और मण्टो…’’
उन्हीं दिनों हैदराबाद में वक़ीपसंद मुसन्निफ़ों2 की एक कॉन्फ्रेंस हुई. मैं उसमें शरीक नहीं था.
मैंने हैदराबाद के एक पर्चे में उसकी रूदाद3 देखी, जिसमें यह लिखा था कि वहां बहुत-सी लड़कियों ने इस्मत को घेरकर यह सवाल किया: ‘‘आपने मण्टो से शादी क्यों नहीं की?’’
मुझे मालूम नहीं कि यह बात दुरुस्त है या ग़लत, लेकिन जब इस्मत बम्बई वापस आयी तो उसने मेरी बीवी से कहा कि हैदराबाद में जब एक लड़की ने उससे सवाल किया, क्या मण्टो कुंवारा है, तो उसने ज़रा तंज़ के साथ जवाब दिया, जी नहीं, इस पर वह मोहतरमा इस्मत के बयान के मुताबिक़ कुछ खिसियानी-सी होकर ख़ामोश हो गयीं.
वाक़िआत कुछ भी हों, लेकिन यह बात गै़र-मामूली तौर पर दिलचस्प है कि सारे हिन्दुस्तान में एक सिर्फ़ हैदराबाद ही ऐसी जगह है, जहां मर्द और औरतें मेरी और इस्मत की शादी के मुताल्लिक़ फ़िक्रमन्द रहे हैं.
उस वक़्त तो मैंने ग़ौर नहीं किया था, लेकिन अब सोचता हूं. अगर मैं और इस्मत वाक़ई मियां-बीवी बन जाते तो क्या होता? यह ‘अगर’ भी कुछ उसी क़िस्म की अगर है, यानी अगर कहा जाए कि अगर क्लियोपैट्रा की नाक एक इंच का अट्ठारहवां हिस्सा बड़ी होती तो उसका असर वादी-ए-नील की तारीख़ पर क्या पड़ता लेकिन यहां न इस्मत क्लियोपैट्रा है और न मण्टो, एंटनी. इतना ज़रूर है कि अगर मण्टो और इस्मत की शादी हो जाती तो इस हादिसे का असर अहदे-हाज़िर के अफ़सानवी अदब की तारीख़ पर एटमी हैसियत रखता. अफ़साने, अफ़साने बन जाते, कहानियां मुड़-तुड़ कर पहेलियां हो जातीं. इंशा की छातियों में सारा दूध ख़ुश्क होकर या तो एक नादिर सुफ़ूफ़ की शक्ल इख़्तियार कर लेता या भस्म होकर राख बन जाता और यह भी मुमकिन है कि निकाह-नामे पर उनके दस्तख़त उनके क़लम की आख़िरी तहरीर होते. लेकिन सीने पर हाथ रखकर यह भी कौन कह सकता है कि निकाह-नामा होता. ज़्यादा क़रीने-क़यास तो यही मालूम होता है कि निकाह-नामे पर दोनों अफ़साने लिखते और काज़ी साहब की पेशानी पर दस्तख़त कर देते ताकि सनद रहे.
निकाह के दौरान में कुछ ऐसी बातें भी हो सकती थीं
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#12
Heartचिड़ी की दुक्कीHeart
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
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#13
‘इस्मत, काज़ी साहब की पेशानी, ऐसा लगता है, तख़्ती है.’’
‘‘क्या कहा?’’
‘‘तुम्हारे कानों को क्या हो गया है.’’
‘‘मेरे कानों को तो कुछ नहीं हुआ…तुम्हारी अपनी आवाज़ हलक़ से बाहर नहीं निकलती.’’
‘‘हद हो गयी…लो अब सुनो. मैं यह कह रहा था, काज़ी साहब की पेशानी बिल्कुल तख़्ती से मिलती-जुलती है.’’
‘‘तख़्ती तो बिल्कुल सपाट होती है.’’
‘‘यह पेशानी सपाट नहीं?’’
‘‘तुम सपाट का मतलब भी समझते हो?’’
‘‘जी नहीं.’’
‘‘सपाट माथा तुम्हारा है….काज़ी जी का माथा तो…’’
‘‘बड़ा ख़ूबसूरत है.’’
‘‘ख़ूबसूरत तो है.’’
‘‘तुम महज़ चिढ़ा रही हो मुझे.’’
‘‘चिढ़ा तो तुम रहे हो मुझे.’’
‘‘मैं कहता हूं, तुम चिढ़ा रही हो मुझे.’’
‘‘मैं कहती हूं, तुम चिढ़ा रहे हो मुझे.’’
‘‘अजी वाह, तुम तो अभी से शौहर बन बैठे.’’
‘‘काज़ी साहब, मैं इस औरत से शादी नहीं करूंगा…अगर आपकी बेटी का माथा आपके माथे की तरह है तो मेरा निकाह उससे पढ़वा दीजिए.’’
‘‘काज़ी साहब मैं इस मर्दुए से शादी नहीं करूंगी…अगर आपकी चार बीवियां नहीं हैं तो मुझसे शादी कर लीजिए. मुझे आपका माथा बहुत पसन्द है.’’

अगर हम दोनों की शादी का ख़याल आता तो दूसरों को हैरतो-इज़ितराब में गुम करने के बजाय हम ख़ुद उसमें गर्क़ हो जाते, और जब एकदम चौंकते तो यह हैरत और इज़ितराब जहां तक मैं समझता हूं, मसर्रत के बजाय एक बहुत ही बड़े फ़काहिए में तब्दील हो जाता. इस्मत और मण्टो, निकाह और शादी. कितनी मज़्हका-खे़ज़5 चीज़ है.

इस्मत लिखती है-“एक ज़रा-सी मुहब्बत की दुनिया में कितने शौकत, कितने महमूद, अब्बास, असकरी, यूनुस और न जाने कौन-कौन ताश की गड्डी की तरह फेंट कर बिखेर दिये गये हैं. कोई बताओ, उनमें से चार पत्ता कौन-सा है? शौकत की भूखी-भूखी कहानियों से लबरेज़ आंखें, महमूद के सांपों की तरह रेंगते हुए आज़ा, असकरी के बेरहम हाथ, यूनुस के निचले होंठ का स्याह तिल, अब्बास की खोई-खोई मुस्कराहटें और हज़ारों चौड़े-चकले सीने, कुशादा पेशानियां, घने-घने बाल, सुडौल पिंडलियां, मज़बूत बाज़ू , सब एक साथ मिलकर पक्के सूत के डोरों की तरह उलझ कर रह गये हैं. परेशान हो होकर उस ढेर को देखती हूं, मगर समझ में नहीं आता कि कौन-सा सिरा पकड़कर खींचूं कि खिंचता ही चला आये और मैं उसके सहारे दूर उफ़ुक़ से भी ऊपर एक पतंग की तरह तन जाऊं.

मण्टो लिखता है-मैं सिर्फ़ इतना समझता हूं कि औरत से इश्क़ करना और ज़मीनें ख़रीदना तुम्हारे लिए एक ही बात है. सो तुम मुहब्बत करने के बजाय एक-दो बीघे ज़मीन ख़रीद लो और उस पर सारी उम्र क़ाबिज़ रहो…ज़िन्दगी में सिर्फ़ एक औरत…और यह दुनिया इस क़द्र भरी हुई क्यों है? क्यों इसमें इतने तमाशे जमा हैं? सिर्फ़ गन्दुम पैदा करके ही अल्लाह मियां ने अपना हाथ क्यों न रोक लिया? मेरी सुनो और इस ज़िन्दगी को जो कि तुम्हें दी गयी है, अच्छी तरह इस्तेमाल करो…तुम ऐसे ग्राहक हो जो औरत हासिल करने के लिए सारी उम्र सरमाया जमा करते रहोगे, मगर उसे नाकाफ़ी समझोगे. मैं ऐसा ख़रीदार हूं, जो ज़िन्दगी में कई औरतों से सौदे करेगा…तुम ऐसा इश्क़ करना चाहते हो कि उसकी नाकामी पर कोई अदना दर्जे का मुसन्निफ़ एक किताब लिखे, जिसे नारायण दत्त सहगल पीले काग़ज़ों पर छापे और डब्बी बाज़ार में उसे रददी के भाव बेचे…मैं अपनी किताबे-हयात9 के तमाम औराक़ दीमक बनकर चाट जाना चाहता हूं, ताकि उसका कोई निशान बाक़ी न रहे. तुम मुहब्बत में ज़िन्दगी चाहते हो, मैं ज़िन्दगी में मुहब्बत चाहता हूं.
इस्मत को अगर उलझे हुए सूत के ढेर में ऐसा सिरा मिल जाता, खींचने पर जो खिंचता ही चला आता और वह उसके सहारे दूर उफ़ुक़10 से ऊपर एक पतंग की तरह तन जाती और मण्टो अगर अपनी किताबे-हयात के आधे औराक़ भी दीमक़ बनकर चाटने में कामयाब हो जाता तो आज अदब की लोह पर उनके फ़न के नुक़ू इतने गहरे भी न होते. वह दूर उफुक़ से भी ऊपर हवा में तनी रहती और मण्टो के पेट में उसकी किताबे-हयात के बाक़ी औराक़ भुस भरके उसके हमदर्द उसे शीशे की अलमारी में बन्द कर देते.

‘चोटें’ की भूमिका में कृष्ण चन्दर लिखते हैं: इस्मत का नाम आते ही मर्द अफ़साना-निगारों को दौरे पड़ने लगते हैं. शर्मिन्दा हो रहे हैं. आप ही आप ख़फ़ीफ़ हुए जा रहे हैं. यह भूमिका भी उसी ख़िफ़्फ़त को मिटाने का एक नतीजा है.
इस्मत के मुताल्लिक़ जो कुछ मैं लिख रहा हूं, किसी भी क़िस्म की खिफ़्फ़त को मिटाने का नतीजा नहीं. एक कर्ज़ था, जो सूद की बहुत ही हल्की शरह के साथ अदा कर रहा हूं.

सबसे पहले मैंने इस्मत का कौन-सा अफ़साना पढ़ा था, मुझे बिल्कुल याद नहीं. यह सुतूर लिखने से पहले मैंने हाफ़िज़े को बहुत खुर्चा, लेकिन उसने मेरी रहबरी नहीं की. ऐसा महसूस होता है कि मैं इस्मत के अफ़साने काग़ज़ पर मुंतक़िल12 होने से पहले ही पढ़ चुका था. यही वजह है कि मुझ पर कोई दौरा नहीं पड़ा, लेकिन जब मैंने उसको पहली बार देखा तो मुझे सख़्त नाउम्मीदी हुई.

एडलफी चैंबर्स, क्लीयर रोड बम्बई के, सत्रह नम्बर फ्लैट में, जहां ‘मुसव्विर’ हफ़्तावार का दफ़्तर था, शाहिद लतीफ़ अपनी बीवी के साथ दाख़िल हुआ. यही अगस्त 1942 ई. की बात है. तमाम कांग्रेसी लीडर, महात्मा गांधी समेत गिरफ़्तार हो चुके थे और शहर में काफ़ी गड़बड़ थी. फ़ज़ा सियासियात में बसी हुई थी. इसलिए कुछ देर गुफ़्तगू का मौजू तहरीके-आज़ादी रहा. उसके बाद रुख़ बदला और अफ़सानों की बातें शुरू हुईं.

एक महीना पहले जबकि मैं ऑल इंडिया रेडियो, देहली में मुलाज़िम था, ‘अदबे-लतीफ़’ में इस्मत का ‘लिहाफ़’ शाया हुआ था. उसे पढ़कर, मुझे याद है, मैंने कृष्ण चन्दर से कहा था: ‘‘अफ़साना बहुत अच्छा है, लेकिन आख़िरी जुमला बहुत गै़र-सनायाआ है.“ अहमद नदीम क़ासमी की जगह अगर मैं एडिटर होता तो उसे यक़ीनन हज़फ़ कर देता. इसीलिए जब अफ़सानों पर बातें शुरू हुईं तो मैंने इस्मत से कहा: ‘‘आपका अफ़साना ‘लिहाफ़’ मुझे बहुत पसन्द आया. बयान में अल्फाज़ को बकद्रे-किफ़ायत इस्तेमाल करना आपकी नुमायां ख़ुसूसियत14 रही है, लेकिन मुझे ताज्जुब है कि उस अफ़साने के आख़िरी में आपने बेकार-सा जुमला लिख दिया” इस्मत ने कहा ‘‘क्या एब है इस जुमले में?’’

मैं जवाब में कुछ कहने ही वाला था कि मुझे इस्मत के चेहरे पर वही सिमटा हुआ हिजाब नज़र आया जो आम घरेलू लड़कियों के चेहरे पर नागुफ़तनी शै का नाम सुनकर नुमूदार15 हुआ करता है. मुझे सख़्त नाउम्मीदी हुई, इसलिए कि मैं ‘लिहाफ़’ के तमाम जुज़ियात के मुताल्लिक़ उससे बातें करना चाहता था. जब इस्मत चली गयी तो मैंने दिल में कहा: ‘‘यह तो कमबख़्त बिल्कुल औरत निकली.’’

मुझे याद है, इस मुलाक़ात के दूसरे ही रोज़ मैंने अपनी बीवी को देहली ख़त लिखा, ‘‘इस्मत से मिला. तुम्हें यह सुनकर हैरत होगी कि वह बिल्कुल ऐसी ही औरत है, जैसी मैंने जब उससे एक इंच उठे हुए ‘लिहाफ़ का ज़िक्र किया तो नालाइक़ उसका तसव्वुर करते ही झेंप गयी.’’

एक अर्से के बाद मैंने अपने इस पहले रददे-अमल पर संजीदगी से ग़ौर किया और मुझे इस अम्र का शदीद अहसास हुआ कि अपने फ़न की बक़ा के लिए इनसान को अपनी फ़ितरत की हुदूद17 में रहना अज़बस लाज़िम है. डॉक्टर रशीद जहां का फ़न आज कहां है? कुछ तो गेसुओं के साथ कटकर अलाहिदा हो गया और कुछ पतलून की जेबों में ठुस होकर रह गया. फ्रांस में जार्ज सां ने निस्वानियत का हसीन मलबूस उतार कर तसन्नो की ज़िन्दगी इख़्तियार की. पोलिस्तानी मौसीक़ार शोपेन से लहू थुकवा-थुकवा कर उसने लालो-गौहर ज़रूर पैदा कराये, लेकिन उसका अपना जौहर उसके वतन में दम घुट के मर गया.

मैंने सोचा, औरत जंग के मैदानों में मर्दों के दोश-बदोश लड़े, पहाड़ काटे, अफ़साना-निगारी करते-करते इस्मत चुग़ताई बन जाये, लेकिन इसके हाथों में कभी-कभी मेहंदी रचनी ही चाहिए. उसकी बांहों से चूड़ी की खनक आनी ही चाहिए. मुझे अफ़सोस है, जो मैंने उस वक़्त अपने दिल में कहा: ‘‘यह तो कमबख़्त बिल्कुल औरत निकली.’’

इस्मत अगर बिल्कुल औरत न होती तो उसके मज्मूओं में ‘भूल-भुलैया’, ‘तिल’, लिहाफ़’ और ‘गेंदा’ जैसे नाज़ुक और मुलायम अफ़साने कभी नज़र न आते. यह अफ़साने औरत की मुख़्तलिफ़ अदाएं हैं, साफ़, शफ़ाक़ , हर क़िस्म के तसन्नो से पाक. ये अदाएं वह गश्वे वह ग़मजे नहीं जिनके तीर बनाकर मर्दों के दिल और कलेजे छलनी किये जाते हैं. जिस्म की भोंडी हरकतों से इन अदाओं का कोई ताल्लुक़ नहीं. इन रूहानी इशारों की मंज़िले-मक़सूद इनसान का ज़मीर है, जिसके साथ वह औरत ही की अनजानी, अनबूझी मगर मख़मली फ़ितरत लिए बग़लगीर हो जाता है.

‘साक़ी’ में ‘दोज़ख़ी’ छपा. मेरी बहन ने पढ़ा और मुझसे कहा: ‘‘सआदत, यह इस्मत कितनी बेहूदा है. अपने मूए भाई को भी नहीं छोड़ा कमबख़्त ने. कैसी-कैसी फ़िज़ूल बातें लिखी हैं.’’
मैंने कहा: “इक़बाल, अगर मेरी मौत पर तुम ऐसा ही मज़मून लिखने का वादा करो तो ख़ुदा की क़सम, मैं आज मरने के लिए तैयार हूं.’’
शाहजहां ने अपनी महबूबा की याद क़ायम रखने के लिए ताजमहल बनवाया. इस्मत ने अपने महबूब भाई की याद में ‘दोज़ख़ी’ लिखा. शाहजहां ने दूसरों से पत्थर उठवाये. उन्हें तरशवाया और अपनी महबूबा की लाश पर अज़ीमुश्शान इमारत तामीर कराई. इस्मत ने ख़ुद अपने हाथों से अपने ख़ाहराना ज़ज्बात चुन-चुनकर एक ऊंचा मचान तैयार किया और उस पर नर्म-नर्म हाथों से अपने भाई की लाश रख दी ताज शाहजहां की मुहब्बत का बरहना18
मरमरीं इश्तिहार मालूम होता है. लेकिन ‘दोज़ख़ी’ इस्मत की मुहब्बत का निहायत ही लतीफ़ और हसीन इशारा है, वह जन्नत जो उस मज़मून में आबाद है, उन्वान का उसका इश्तिहार नहीं देता.

मेरी बीवी ने यह मज़मून पढ़ा तो इस्मत से कहा: ‘‘यह तुमने क्या खुराफ़ात लिखी है?’’
‘‘बको नहीं, लाओ, वह बर्फ़ कहां है?’’
इस्मत को बर्फ़ खाने का बहुत शौक़ है. बिल्कुल बच्चों की तरह डली हाथ में लिए दांतों से कटाकट काटती रहती है. उसने अपने बाज़ अफ़साने भी बर्फ़ खा-खाकर लिखे हैं. चारपाई पर कोहनियों के बल औंधी लेटी है. सामने तकिए पर कापी खुली है. एक हाथ में उसका क़लम और मुंह दोनों खटाखट चल रहे हैं.

इस्मत पर लिखने के दौरे पड़ते हैं. न लिखे तो महीनों गुज़र जाते हैं, पर जब दौरा पड़े तो सैकड़ों सफ़े उसके क़लम के नीचे से निकल जाते हैं. खाने-पीने, नहाने-धोने का कोई होश नहीं रहता. बस हर वक़्त चारपाई पर कोहनियों के बल औंधी लेटी अपने टेढे़-मेढ़े आराब और इमला से बेनियाज़ ख़त में काग़ज़ों पर अपने ख़यालात मुंतकिल करती रहती है.

‘टेढ़ी लकीर’ जैसा तूल-तवील नाविल, मेरा ख़याल है, इस्मत ने सात-आठ निशस्तों में ख़त्म किया था. कृष्ण चन्दर, इस्मत के बयान की रफ़्तार के मुताल्लिक़ लिखता है: अफ़सानों के मुताले19 से एक और बात जो ज़हन में आती है, वह है घुड़दौड़. यानी रफ़्तार, हरकत, सुबुक ख़रामी (मेरा ख़याल है, इससे कृष्ण चन्दर की मुराद बर्फ़ की रफ़्तारी थी) और तेज़ गामी. न सिर्फ़ अफ़साना दौड़ता हुआ मालूम होता है, बल्किफ़क्रे, किनाए और इशारे की आवाज़ें और किरदार और जज़्बात और अहसासात, एक तूफ़ान की सी बलाखे़ज़ी के साथ चलते और आगे बढ़ते नज़र आते हैं.

इस्मत का क़लम और उसकी ज़बान, दोनों बहुत तेज़ हैं. लिखना शुरू करेगी तो कई मर्तबा उसका दिमाग़ आगे निकल जाएगा और अल्फ़ाज़ बहुत पीछे हांफते रह जाएंगे. बातें करेगी तो लफ़्ज़ एक-दूसरे पर चढ़ते जाएंगे. शेख़ी बघारने की ख़ातिर अगर कभी बावर्चीख़ाने में चली जाएगी तो मामला बिल्कुल चौपट हो जाएगा. तबीयत में चूंकि बहुत ही उजलत20 है, इसलिए आटे का पेड़ा बनाते ही सिंकी सिंकाई रोटी की शक्ल देखना शुरू कर देती है. आलू अभी छीले नहीं गये लेकिन उनका सालन उसके दिमाग़ में पहले ही तैयार हो जाता है. और मेरा ख़याल है, बाज़ औक़ात21 वह बावर्चीख़ाने में क़दम रखकर ख़याल-ख़याल में शिकम-सैर होकर लौट आती होगी. लेकिन इस हद से बढ़ी हुई उजलत के मुक़ाबले में उसको मैंने बड़े ठंडे इत्मीनान और सुकून के साथ अपनी बच्ची के फ़्राक सीते देखा है. उसका क़लम लिखते वक़्त इमला की ग़लतियां कर जाता है, लेकिन नन्ही के फ़्राक सीते वक़्त उसकी सुई से हल्की-सी लग्ज़िश भी नहीं होती. नपे-तुले टांके होते हैं और मजाल है जो कहीं झोल हो.

‘उफ़ रे बच्चे’ में इस्मत लिखती है “घर क्या है, मुहल्ले का मुहल्ला है. मर्ज़ फैले, बला आये, दुनिया के बच्चे पटापट मरें, मगर क्या मजाल जो यहां भी टस से मस हो जाए. हर साल माशाल्लाह घर अस्पताल बन जाता है. सुनते हैं दुनिया में बच्चे भी मरा करते हैं. मरते होंगे. क्या खबर?”
और पिछले दिनों बम्बई में, जब उसकी बच्ची सीमा को काली खांसी हुई तो वह रातें जागती थी. हर वक़्त खोई-खोई रहती थी. ममता, मां बनने के साथ ही कोख से बाहर निकलती है.

इस्मत परले दर्जे की हठ-धर्म है. तबीयत में ज़िद है, बिल्कुल बच्चों की सी. ज़िन्दगी के किसी नज़रिए को, फ़ितरत के किसी क़ानून को पहले ही साबिक़े में कभी कुबूल नहीं करेगी. पहले शादी से इनकार करती रही. जब आमादा हुई तो बीवी बनने से इनकार कर दिया. बीवी बनने पर जूं-तूं रज़ामन्द हुई तो मां बनने से मुन्किर हो गयी. तकलीफ़ें उठाएगी, सुउबतें बर्दाश्त करेगी मगर ज़िद से कभी बाज़ नहीं आएगी. मैं समझता हूं, यह भी उसका एक तरीका है जिसके ज़रिए से वह ज़िन्दगी के हक़ाइक़22 से दो-चार होकर, बल्कि टकराकर उनको समझने की कोशिश करती है. उसकी हर बात निराली है.

इस्मत के ज़नाना और मर्दाना किरदारों में भी यह अजीबो-ग़रीब ज़िद या इन्कार आम पाया जाता है. मुहब्बत में बुरी तरह मुब्तला है, लेकिन नफ़रत का इज़हार किये चले जा रहे हैं. जी गाल चूमने को चाहता है, लेकिन उसमें सुई खूबो देंगे. हौले से थपकना होगा तो ऐसी धोल जमाएंगे कि दूसरा बिलबिला उठे. यह जरेहायाना क़िस्म की मनफ़ी मुहब्बत, जो महज़ एक खेल की सूरत में शुरू होती है, आमतौर पर इस्मत के अफ़सानों में एक निहायत रहम अंगेज़ सूरत में अंजाम23 पज़ीर होती है.
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#14
इस्मत का अपना अंजाम भी अगर कुछ इसी तौर पर हुआ और मैं उसे देखने के लिए ज़िन्दा रहा तो मुझे कोई ताज्जुब न होगा.
इस्मत से मिलते-जुलते मुझे पांच-छह बरस हो गये हैं. दोनों की आतिशगीर और भक से उड़ जाने वाली तबीयत के पेशे-नज़र एहतिमाल तो इसी बात का था कि सैकड़ों लड़ाइयां होतीं, मगर ताज्जुब है कि इस दौरान में सिर्फ़ एक बार चख़ हुई, और वह भी हल्की-सी.

शाहिद और इस्मत के मदऊ करने पर मैं और मेरी बीवी सफ़िया दोनों (बम्बई मुज़ाफ़ात में एक के जगह जहां शाहिद बॉम्बे टॉकीज की मुलाज़मत के दौरान में मुक़ीम था) गये हुए थे. रात का खाना खाने के बाद बातों-बातों में शाहिद ने कहा, ‘‘मण्टो, तुमसे अब भी ज़बान की गलतियां हो जाती हैं.’’
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#15
अब मियां-बीवी में चख़ शुरू हो गयी. मुर्ग़ अज़ानें देने लगा. इस्मत ने लुग़त उठाकर एक तरफ़ फेंकी और कहा: ‘‘जब मैं लुगत़ बनाऊंगी तो उसमें सही लुगत दस्त दराज़ी होगा. यह क्या हुआ दराज़ दस्ती…दराज़ दस्ती.’’

कज बहसी का यह सिलसिला-ए-दराज़ बहरहाल ख़त्म हुआ. इसके बाद हम एक-दूसरे से कभी नहीं लड़े, बल्कि यूं कहिए कि हमने इसका कभी मौक़ा ही नहीं आने दिया. गुफ़्तगू करते-करते जब भी कोई ख़तरनाक मोड़ आया, या तो इस्मत ने रुख़ बदल लिया या मैं रास्ता काट के एक तरफ़ हो गया.
इस्मत को मैं पसन्द करता हूं, वह मुझे पसन्द करती है, लेकिन अगर कोई अचानक पूछ बैठे: ‘‘तुम दोनों एक-दूसरे की क्या चीज़ पसन्द करते हो.’’ तो मेरा ख़याल है कि मैं और इस्मत, दोनों कुछ अर्से के लिए बिल्कुल ख़ाली-स्फ़्फ़ाद हो जाएंगे.

इस्मत की शक्लो-सूरत दिलफ़रेब नहीं, दिल नशीन ज़रूर है. उससे पहली मुलाक़ात के नक़्श अब भी मेरे दिलो-दिमाग़ में महफूज़ हैं. बहुत ही सादा लिबास में थी. छोटी कन्नी की सफ़ेद धोती, सफ़ेद ज़मीन का काली खड़ी लकीरों वाला चुस्त ब्लाउज़, हाथ में छोटा पर्स, पांव में बगै़र एड़ी का ब्राउन चप्पल, छोटी-छोटी मगर तेज़ और मुत्ज्सु आंखों पर मोटे-मोटे शीशों वाली ऐनक, छोटे मगर घुंघराले बाल, टेढ़ी मांग. ज़रा-सा मुस्कराने पर भी गालों में गड्ढे पड़-पड़ जाते थे.

मैं इस्मत पर आशिक़ न हुआ लेकिन मेरी बीवी उसकी मुहब्बत में गिरफ़्तार हो गयी. इस्मत से अगर सफ़िया उस मुहब्बत का ज़िक्र करे तो वह ज़रूर कुछ यूं कहेगी: ‘‘बड़ी आयी हो मेरी मुहब्बत में गिरफ़्तार होने वाली…तुम्हारी उम्र की लड़कियों के बाप तक क़ैद होते रहे हैं मेरी मुहब्बत में.’’
एक बुजुर्गवार अहले-क़लम को तो मैं भी जानता हूं, जो बहुत देर तक इस्मत के प्रेम पुजारी रहे. ख़तो-किताबत के ज़रिए से आपने इश्क़ फ़रमाना शुरू किया. इस्मत शह देती रही, लेकिन आख़िरी में ऐसा अड़ंगा दिया कि सुरैया ही दिखा दी ग़रीब को. यह सच्ची कहानी, मेरा ख़याल है, वह कभी क़लम-बन्द नहीं करेंगे.

बाहम मुतसादिम24 हो जाने के ख़ौफ़ से मेरे और इस्मत के दरमियान बहुत ही कम बातें होती थीं. मेरा अफ़साना कभी शाया हो तो पढ़कर दे दिया करती थी. ‘नीलम’ की इशाअत पर उसने गैर-मामूली25 जोश-ख़रोश से अपनी पसंदीदगी का इज़हार किया, “वाक़ई ये बहन बनाना क्या है…आपने बिल्कुल ठीक कहा है. किसी औरत को बहन कहना उसकी तौहीन है.’’

और मैं सोचता रह गया वह मुझे मण्टो भाई कहती है और मैं उसे इस्मत बहन कहता हूं दोनों को ख़ुदा समझे.
हमारी पांच-छह बरस की दोस्ती के ज़माने में ऐसा कोई वाक़िया नहीं जो क़ाबिले-ज़िक्र हो. फ़हाशी के इल्ज़ाम में एक बार हम दोनों गिरफ़्तार हुए. मुझे तो पहले दो दफ़ा तज़ुर्बा हो चुका था, लेकिन इस्मत का पहला मौक़ा था. इसलिए बहुत भन्नाई. इत्तिफ़ाक़ से गिरफ़्तारी ग़ैर-क़ानूनी निकली. क्योंकि पंजाब पुलिस ने हमें बग़ैर वारंट पकड़ लिया था. इस्मत बहुत खुश हुई, लेकिन बकरे की मां कब तक खै़र मनाती. आखि़र उसे लाहौर की अदालत में हाज़िर होना ही पड़ा.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#16
हम दो दफ़ा लाहौर गये और दो ही दफ़ा हम दोनों ने कर्नाल शॉप से अलग डिज़ाइनों के दस-दस बारह-बारह जोड़े सैंडिलों और जूतियों के ख़रीदे.
बम्बई में किसी ने इस्मत से पूछा: ‘‘लाहौर आप क्या मुक़दमे के सिलसिले में गये थे?’’ इस्मत ने जवाब दिया: ‘‘जी नहीं, जूते खरीदने गये थे.’’
गालिबन तीन बरस पहले की बात है. होली का त्योहार था. मलाड में शाहिद और मैं बालकनी में बैठे पी रहे थे. इस्मत मेरी बीवी को उकसा रही थी: ‘‘सफ़िया, यह लोग इतना रुपया उड़ाएं…हम क्यों न इस ऐश में शरीक हों.’’ दोनों एक घंटे तक दिल कड़ा करती रहीं. इतने में एकदम हुल्लड़-सा मचा और फ़िल्मिस्तान से प्रोड्यूसर मुखर्जी, उनकी भारी भरकम बीवी और दूसरे लोग हम पर हमलावर हो गये. चन्द मिनटों ही में हम सबका हुलिया पहचानने लायक नहीं था. इस्मत की तवज्जो व्हिस्की से हटी और रंग पर मर्क़ूज़ हो गयी: ‘‘आओ सफ़िया, हम भी उन पर रंग लगाएं.’’

हम सब बाज़ार में निकल आये. इसीलिए घोड़बन्दर रोड पर बाक़ायदा होली शुरू हो गयी. नीले-पीले सब्ज़ और काले रंगों का छिड़काव-सा शुरू हो गया. इस्मत पेश-पेश थी. एक मोटी बंगालन के चेहरे पर तो उसने तारकोल का लेप कर दिया. उस वक़्त मुझे उसके भाई अज़ीम बेग़ चुग़ताई का ख़याल आया. एकदम इस्मत ने जनरलों के से अन्दाज़ में कहा, “रंगों से परीचेहरा के घर पर धावा बोलें .’’

उन दिनों नसीम बानो हमारी फ़िल्म ‘चल-चल रे नौजवान’ में काम कर रही थी. उसका बंगला पास ही घोड़ बन्दर रोड पर था. इस्मत की तजवीज़ सबको पसन्द आयी. इसीलिए चन्द मिनटों में हम सब बंगले के अन्दर थे. नसीम हस्बे-आदत पूरे मेकअप में थी और निहायत नफ़ीस रेशमी जार्जेट की साड़ी में मलबूस थी. वह और उसका ख़ाविंद अहसान हमारा शोर सुनकर बाहर निकले. इस्मत ने, जो रंगों में लिथड़ी हुई भूतनी-सी लगती थी, मेरी बीवी से जिस पर रंग लगाने से मेरा ख़्याल है कोई फ़र्क़ न पड़ता, नसीम की तारीफ़ करते हुए कहा: ‘‘सफ़िया, नसीम वाक़ई हसीन औरत है.’’
मैंने नसीम की तरफ़ देखा और कहा: ‘‘हुस्न है लेकिन बहुत ठंडा.’’
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#17
पितरस साहब ने भी, जिनको लाहौर के अदबी ठेकेदारों ने डिबिया में बन्द कर रखा था, अपना हाथ बाहर निकाला और क़लम पकड़कर इस्मत पर एक मज़मून लिख दिया. आदमी ज़हीन है, तबीयत में शोख़ी और मिज़ाह है, इसलिए मज़मून काफ़ी दिलचस्प और सुलझा हुआ है. आप औरत के लेबिल का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं:

एक मुक़तदिर व पुख़्ताकार दीबाचा-नवीस ने भी, मालूम होता है, इंशापरदाज़ों की रेवड़ में, नर और मादा अलग-अलग कर रखे हैं. इस्मत के मुताल्लिक़ फ़रमाते हैं कि जिन्स के एतिबार से उर्दू में कमो-बेश उन्हें भी वही रुत्बा हासिल है जो एक ज़माने में अंग्रेज़ी अदब में जार्ज इलियट को नसीब हुआ. गोया अदब कोई टेनिस टूर्नामेंट है जिसमें औरतों और मर्दों के मैच अलाही होते हैं.

पितरस साहब का यह कहना कि ‘‘गोया अदब कोई टेनिस टूर्नामेंट है जिसमें औरतों और मर्दों के मैच अलाही होते हैं’’ ठेठ पितरसी फ़िक्रे -बाज़ी है. टेनिस टूर्नामेंट, अदब नहीं. लेकिन औरतों और मर्दों के मैच अलाही होना बेअदबी भी नहीं. पितरस साहब क्लास में लेक्चर देते हैं तो तलब और तालिबात से उनका ख़िताब जुदागाना नहीं होता, लेकिन जब उन्हें किसी लड़के या शागिर्द लड़की से दिमाग़ी नशो-नुमा पर ग़ौर करना पड़ेगा तो माहिरे-तालीम होने की हैसियत में वह उनकी जिन्स से ग़ाफिल नहीं हो जाएंगे.

औरत अगर जार्ज इलियट या इस्मत चुग़ताई बन जाए तो इसका यह मतलब नहीं कि उसके अदब पर उसके औरत होने के असर की तरफ़ ग़ौर न किया जाए. हिजड़े के अदब के मुताल्लिक़ भी क्या पितरस साहब यही इस्तिफ़सार फ़रमाएंगे कि क्या कोई माबिल-इम्तियाज़ ऐसा है, जो इंशापदराज़ हिजड़ों के अदब को इंशापरदाज़ मर्दों और औरतों के अदब से सुमैयज़ करता है.

मैं औरत पर औरत और मर्द पर मर्द के नाम का लेबल लगाना भोंड़ेपन की दलील समझता हूं. इस्मत के औरत होने का असर उसके अदब के हर-एक नुक़्ते में मौजूद है, जो उसको समझने में हर-एक क़दम पर हमारी रहबरी करता है. उसके अदब की खूबियों और कमियों से, जिनको पितरस साहब ने अपने मज़मून में गै़र-जानिबदारी से बयान किया है, हम मुसन्निफ़ की जिन्स से अलाही नहीं कर सकते और न ऐसा करने के लिए कोई तनक़ीदी, अदबी या कीमयाई तरीक़ा ही मौजूद है.

इस्मत की सब हिस्से वक़्त पड़ने पर अपनी-अपनी जगह काम करती हैं और ठीक तौर से करती हैं. अज़ीज़ अहमद साहब का यह कहना कि जिन्स एक मर्ज़ की तरह इस्मत के आसाब पर छाई हुई है, मुमकिन है, उनकी तशखीस के मुताबिक़ दुरुस्त हो, मगर वो इस मर्ज़ के लिए नुस्खे़ तज्वीज़ न फ़रमाएं . यूं तो लिखना भी एक मर्ज़ है. कामिल तौर पर सेहतमन्द आदमी, जिसका दर्जा-ए-हरारत हमेशा साढ़े अट्ठानवे ही रहे, सारी उम्र अपनी ज़िन्दगी की ठंडी स्लेट हाथ में लिए बैठा रहेगा.

अज़ीज़ अहमद साहब लिखते हैं: “इस्मत की हीरोइन की सबसे बड़ी ट्रेजिड़ी यह है कि दिल से न उसे किसी मर्द ने चाहा और न उसने किसी मर्द को. इश्क़ एक ऐसी चीज़ है, जिसका जिस्म से वही ताल्लुक़ है जो बिजली का तार से है. खटका दबा दो तो यही इश्क़ हज़ारों कन्दीलों के बराबर रौशनी करता है. दोपहर की झुलसती लू में पंखा झलता है. हज़ारों देवों की ताक़त से ज़िन्दगी की अज़ीमुश्शान मशीनों के पहिये घुमाता है और कभी-कभी ज़ूल्फों को संवारता और कपड़ों पर इस्त्री करता है ऐेसे इश्क़ से इस्मत चुग़ताई बहैसियते लेखिका वाक़िफ़ नहीं.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
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#18
इस्मत वाक़ई अज़ीज़ अहमद साहब के तसनीफ़-कर्दा इश्क़ से नावाकिफ़ है और उसकी यह नवाकफियत ही उसके अदब का बाइस28 है. अगर आज उसकी ज़िन्दगी के तारों के साथ उस इश्क़ की बिजली जोड़ दी जाए और खटका दबा दिया जाए तो बहुत मुमकिन है, एक और अज़ीज़ अहमद पैदा हो जाए, लेकिन ‘तिल’, ‘गेंदा’, ‘भूल-भुलैया’ और ‘जाल’ तसनीफ़ करने वाली इस्मत यक़ीनन मर जाएगी.

इस्मत के ड्रामे कमज़ोर हैं. जगह-जगह उनमें झोल है. इस्मत प्लाट को मनाज़िर29 में तक़सीम करती है तो नापकर कैंची से नहीं करती, यूं ही दांतों से चीर-फाड़कर चीथड़े बना डालती है… पार्टियों की दुनिया इस्मत की दुनिया नहीं. उनमें वह बिल्कुल अजनबी रहती है… जिन्स, इस्मत के आसाब पर एक मर्ज़ की तरह सवार है… इस्मत का बचपन बड़ा ग़ैर-सेहत बख़्श रहा है… पर्दे के उस पार की तफ़सीलात बयान करने में इस्मत को यदे-तूला हासिल है. इस्मत को समाज से नहीं, शख़्सीयतों से शग़फ़ है…इस्मत के पास जिस्म के एहतिसाब का एक ही ज़रिया है और वह है मसास…इस्मत के अफ़सानों की कोई सम्त ही नहीं…इस्मत की गै़र-मामूली कुव्वते-मुशाहिदा हैरत में गर्क़ कर देती है…इस्मत फ़ुहश-निगार है…हलका-हलका तंज़ और मिज़ाह इस्मत के स्टाइल की मुमताज़ ख़ूबियां हैं…इस्मत तलवार की धार पर चलती है. इस्मत पर बहुत कुछ कहा गया है और कहा जाता रहेगा. कोई उसे पसन्द करेगा, कोई नापसन्द. लेकिन लोगों की पसन्दीदगी और नापसन्दीदगी से ज़्यादा अहम चीज़ इस्मत की तख़्लीकी कुव्वत30 है. बुरी, भली, उरियां, मस्तूर, जैसी भी है, क़ायम रहनी चाहिए. अदब का कोई जुग़राफ़िया नहीं. उसे नक़्शों और ख़ाकों की क़ैद से, जहां तक मुमकिन हो, बचाना चाहिए.

अरसा हुआ, देहली के एक शरीफ़ दरवेश ने अजीबो-ग़रीब हरकत की. आपने ‘उर्दू की कहानी, सुन मेरी ज़बानी’ : ‘इसे पढ़ने से बहुतों का भला होगा,’’ जैसे उन्वान से शाया की. उसमें मेरा, इस्मत, मुफ़्ती, प्रेमचन्द, ख़्वाजा मोहम्मद शफ़ी और अज़ीम बेग़ चुग़ताई का एक-एक अफ़साना शामिल था. भूमिका में तरक़्क़ी-पसन्द अदब पर एक तनक़ीदी चोट, ‘मारूं घुटना फूटे आंख’ के बमिस्दाक़, फ़रमाई गयी थी, और उस कारनामे को अपने दो नन्हे-नन्हे बच्चों के नाम से मानून किया गया था. उसकी एक कापी आपने इस्मत को और मुझे रवाना की. इस्मत को दरवेश की यह नाशाइस्ता और भौंडी हरकत सख़्त नापसन्द आयी. इसीलिए बहुत भन्ना कर मुझे एक ख़त लिखा “मण्टो भाई, आपने वह किताब, जो दरवेश ने छापी है, देखी? ज़रा उसे फटकारिए और एक नोटिस दीजिए निजी तौर पर कि हर मज़मून का जुर्माना दो सौ रुपये दो, वर्ना दावा ठोंक देंगे. कुछ होना चाहिए. आप बताइए, क्या किया जाए. यह ख़ूब है कि जिसका दिल चाहे उठाकर हमें कीचड़ में लथेड़ देता है और हम कुछ नहीं कहते. ज़रा मज़ा रहेगा. इस शख़्स को ख़ूब रगड़िए. डांटिए कि उलटा अलम-बरदार क्यों बन रहा है . हमारे अफ़साने उसने सिर्फ़ किताब बेचने के लिए छापे हैं. हमारी तहक है कि हमें हर ऐरे गै़रे नत्थू ख़ैरे, कमअक़्लों की डांटें सुनना पड़ें. जो कुछ मैंने लिखा है, उसको सामने रखकर एक मज़मून लिखिए. आप कहेंगे, मैं क्यों नहीं लिखती तो जवाब है कि आप पहले हैं.”
जब इस्मत से मुलाक़ात हुई तो उस ख़त का जवाब देते हुए मैंने कहा, ‘‘सबसे पहले लाहौर के चौधरी मोहम्मद हुसैन (प्रैस ब्रांच, हुकूमते-पंजाब का इंचार्ज) साहब हैं. उनसे हम दरख्वास्त करें तो वह ज़रूर मिस्टर दरवेश पर मुक़दमा चलवा देंगे.
इस्मत मुस्कराई : ‘‘तज़वीज़ तो ठीक है, लेकिन मुसीबत यह है कि हम भी साथ ही धर लिए जाएंगे.’’
मैंने कहा, “क्या हुआ अदालत ख़ुश्क जगह सही लेकिन करनाल शॉप तो काफ़ी दिलचस्प जगह है…मिस्टर दरवेश को वहां ले जाएंगे,” और..”
इस्मत के गालों के गड्ढे गहरे हो गये.
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भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#19
कठिन शब्दों के मतलब

1. प्राप्त, 2. लेखकों, 3. विश्लेषण, 4. रोमांच, 5. ख़ुशी, 6. ख़ूबी, 7. प्रतिद्वन्द्वी, 8. हास्यास्पद, 9. जीवनरूपी पुस्तक, 10. क्षितिज, 11. शिला, 12. स्थानान्तरित, 13. आवश्यकतानुसार, 14. विशेषता, 15. प्रकट, 16. तत्त्वों,
17. सीमाओं, 18. नग्न, 19. अध्ययन, 20. जल्दबाज़ी, 21. अक़सर, 22. वास्तविकताएं, 23. फलीभूत, 24. परस्पर टकराव, 25. प्रकाशन, 26. यातनाओं, 27. घटित, 28. कारण, 29. दृश्यों, 30. रचना-शीलता.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#20
k,,,,,,,,,,,,,
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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