24-07-2021, 06:40 PM
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" आप दोनों को इतने दिन यहाँ नहीं रुकना चाहिए. जल्द से जल्द ये नगरी छोड़कर चले जाना ही उचित रहेगा ! ". चित्रांगदा ने अवंतिका से कहा.
वो अवंतिका के कक्ष में बैठी उन्हें उनकी और विजयवर्मन की यात्रा के लिए सारे साजो सामान एकजुट करने में मदद कर रही थी. और अब दोनों थक हारकर सैया पर सहेलियों की भांति एक साथ बैठी विश्राम कर रहीं थीं.
" परन्तु भाभी... देशनिकाला के आदेश के पश्चात् तो अपराधी को एक सप्ताह भर का समय दिया जाता है ना ??? फिर आज तो अभी तीसरा दिन ही है... ". अवंतिका ने पूछा.
" आप समझ नहीं रहीं हैं राजकुमारी... इस राजमहल से आपलोग जितनी जल्दी पलायन कर जायें, उतना ही अच्छा है. यहाँ अब आपके लिए कुछ भी नहीं बचा है... ".
" आप सत्य कह रही हैं भाभी... अब यहाँ हमारे लिए रहा ही क्या ? जब पिताश्री और माताश्री ने ही हमें तिरस्कृत कर दिया तो अब किसी और से क्या आशा रखी जाये ! ". अवंतिका ने चिंतित स्वर में कहा, फिर चित्रांगदा के दोनों हाथ अपने हाथों में थामकर पूछ बैठी. " अच्छा भाभी... सच सच बताइये... क्या हमने सचमुच में कोई पाप या अपराध किया है जो हमें इतना कठोर दंड दिया जा रहा है ??? ".
" इस प्रश्न का उत्तर इतना आसान नहीं अवंतिका ! ".
" हाँ... ये कथन भी सत्य ही है ! मुझे पता है भाभी की हमने जो किया है वो इस राज्य में पहले कभी भी नहीं हुआ, इस राज्य की छोड़िये, दूर दूर तक ऐसा कभी कहीं सुनने में नहीं आया. परन्तु मैं करती भी क्या भाभी, जो मुझे अपने ही भाई से प्रेम हो गया ! ".
" आप दोनों की स्थित अब इस तर्क वितर्क से कहीं आगे निकल चुकी है राजकुमारी, पीछे मुड़कर ना देखिये और ना ही सोचिये, इससे बस मन विचलित ही होगा, और कुछ नहीं ! समाज के रचे इस चक्रव्युह में गोल गोल घूम कर अब कोई लाभ नहीं, द्वार खुला है... निकल जाइये !!! ".
अवंतिका चुप हो गई, फिर चित्रांगदा के हाथ अपने हथेलीयों में दबाते हुये कहा.
" मैंने आपको सारा जीवन गलत समझा भाभी... मुझे क्षमा कर दीजिये ! ".
" अरे अरे... ऐसा भी क्या अवंतिका ! ".
" मुझे आपकी बहुत याद आएगी भाभी... ". अवंतिका रुआंसा होकर बोली, फिर मुस्कुराते हुये कहा. " और मेरे पति को भी ! "
विजयवर्मन की बात उठते ही चित्रांगदा ऐसे हँस पड़ी कि उनकी आँखों से आंसू टपक पड़ें .
" एक बात पूछूँ भाभी ? ".
चित्रांगदा ने अपने आंसू पोछते हुये स्वीकृती में सिर हिला दिया.
" आप विजयवर्मन से प्रेम करतीं हैं ना ??? ".
" अब इन बातों का क्या अर्थ रहा... ". कहते हुये चित्रांगदा सैया पर से उठने को हुई, तो अवंतिका ने ज़बरदस्ती उन्हें खींचकर वापस से बैठा लिया.
" बताइये ना भाभी... अब तो हम वैसे भी बिछड़ने वालें हैं... फिर शायद ही कभी मिल पाएं और ये सारी बातें हो सकें ! ".
चित्रांगदा ने एक ठंडी आह भरी, और फिर अवंतिका से नज़रें चुराते हुये बोली.
" प्रारम्भ में तो बस अपने पति के कहने पर मैं देवर जी के साथ सोती रही, परन्तु... परन्तु बाद में चलकर मुझे खुद भी ये सब अच्छा लगने लगा. और फिर एक समय आया जब उनसे मिला शारीरिक सुख मेरे लिए गौण हो गया, उसका कोई अर्थ ही ना रहा, मुझे उनके मन से और उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व से प्रेम होने लगा. परन्तु उन्होंने मुझे कभी भी प्रेम नहीं किया, शारीरिक रूप से मेरे साथ होते हुये भी वो तो बस आपके बारे में ही सोचा करतें थें. मेरे साथ सम्भोग करना तो जैसे उनके दिनचर्या का एक हिस्सा मात्र था, अपने ज्येष्ठ भ्राता कि आज्ञा का पालन जो करना था ! ". चित्रांगदा कुछ क्षण को रुकी, फिर अपनी नज़रें उठाकर अवंतिका कि आँखों में आँखे डालकर बोली. " और सच कहूँ तो प्रारम्भ में मुझे आपसे बड़ी ईर्ष्या होती थी, सोचती थी कि आपमें ऐसा क्या है जो मुझमें नहीं, रूप, सौंदर्य, काया... आखिर क्या ??? फिर कभी कभी प्रसन्न भी होती थी, ये सोचकर कि जिस पुरुष से आप प्रेम करतीं हैं, वो पुरुष हर रात्रि मेरी बाहों में सोता है... तो जीत तो मेरी ही हुई ना ??? परन्तु नहीं, जहाँ ईर्ष्या होगी वहाँ प्रेम कैसे रह सकता है, ये बात मुझे बहुत बाद में जाकर समझ में आई... अब उसी का प्रयश्चित करने कि चेष्टा कर रहीं हूँ !!! ".
" आपको किसी भी चीज़ के लिए प्रयश्चित करने कि कोई आवश्यकता नहीं भाभी... ". कहते हुये अवंतिका ने आगे बढ़कर चित्रांगदा को गले से लगा लिया. फिर ठिठोली करते हुये बोली. " वैसे मैं भी तो आपसे ईर्ष्या करती हूँ भाभी... आप मुझसे कहीं ज़्यादा गोरी जो हैं ! ".
अवंतिका कि बात सुनकर रोते रोते भी चित्रांगदा कि हँसी छूट गई. मन भर कर एक दूसरे से गले मिलने के पश्चात् चित्रांगदा अवंतिका से अलग हुई, और अपने आंसू पोछते हुये पूछा.
" अच्छा ये सब छोड़िये राजकुमारी... ये बताइये कि आपकी योनि कैसी है अब ??? ".
" रक्त निकलना तो बंद हो गया है भाभी, परन्तु अभी तक सूज कर फूली हुई है, पीड़ा तो अब भी है, पहले से थोड़ी राहत अवश्य है ! ". अवंतिका ने लजाते लजाते बताया.
" देवर जी ने फिर तो आपको तंग नहीं किया ना ? ".
उत्तर में अवंतिका ने शर्माते हुये धीरे से ना में सिर हिला दिया.
" मैंने जो औषधि दी है, उसका लेप प्रतिदिन अपनी योनि पर लगाते रहिएगा... जल्द ही आपकी योनि पहले जैसी स्वस्थ हो उठेगी ! ". चित्रांगदा ने समझाया, और फिर अवंतिका कि ओर अपनी उंगली उठाते हुये बोली. " और हाँ... याद रहे, अभी दो मास तक देवर जी को अपने आप को छूने भी ना दीजियेगा ! ".
" दो मास ??? भाभी... ". अवंतिका ने आँखे बड़ी बड़ी करते हुये बड़े ही भोलेपन से पूछा.
" अच्छा ठीक है... परन्तु एक मास से एक दिन भी कम नहीं ! ". चित्रांगदा ने हँसते हुये कहा.
" और अगर वो ... ".
अवंतिका ने अभी अपनी बात समाप्त भी नहीं की थी, की कक्ष में अचानक से दौड़ती हुई एक दासी आई और हाँफ़ते हुये बोली.
" राजकुमारी जी... राजकुमारी जी... ".
" आप दोनों को इतने दिन यहाँ नहीं रुकना चाहिए. जल्द से जल्द ये नगरी छोड़कर चले जाना ही उचित रहेगा ! ". चित्रांगदा ने अवंतिका से कहा.
वो अवंतिका के कक्ष में बैठी उन्हें उनकी और विजयवर्मन की यात्रा के लिए सारे साजो सामान एकजुट करने में मदद कर रही थी. और अब दोनों थक हारकर सैया पर सहेलियों की भांति एक साथ बैठी विश्राम कर रहीं थीं.
" परन्तु भाभी... देशनिकाला के आदेश के पश्चात् तो अपराधी को एक सप्ताह भर का समय दिया जाता है ना ??? फिर आज तो अभी तीसरा दिन ही है... ". अवंतिका ने पूछा.
" आप समझ नहीं रहीं हैं राजकुमारी... इस राजमहल से आपलोग जितनी जल्दी पलायन कर जायें, उतना ही अच्छा है. यहाँ अब आपके लिए कुछ भी नहीं बचा है... ".
" आप सत्य कह रही हैं भाभी... अब यहाँ हमारे लिए रहा ही क्या ? जब पिताश्री और माताश्री ने ही हमें तिरस्कृत कर दिया तो अब किसी और से क्या आशा रखी जाये ! ". अवंतिका ने चिंतित स्वर में कहा, फिर चित्रांगदा के दोनों हाथ अपने हाथों में थामकर पूछ बैठी. " अच्छा भाभी... सच सच बताइये... क्या हमने सचमुच में कोई पाप या अपराध किया है जो हमें इतना कठोर दंड दिया जा रहा है ??? ".
" इस प्रश्न का उत्तर इतना आसान नहीं अवंतिका ! ".
" हाँ... ये कथन भी सत्य ही है ! मुझे पता है भाभी की हमने जो किया है वो इस राज्य में पहले कभी भी नहीं हुआ, इस राज्य की छोड़िये, दूर दूर तक ऐसा कभी कहीं सुनने में नहीं आया. परन्तु मैं करती भी क्या भाभी, जो मुझे अपने ही भाई से प्रेम हो गया ! ".
" आप दोनों की स्थित अब इस तर्क वितर्क से कहीं आगे निकल चुकी है राजकुमारी, पीछे मुड़कर ना देखिये और ना ही सोचिये, इससे बस मन विचलित ही होगा, और कुछ नहीं ! समाज के रचे इस चक्रव्युह में गोल गोल घूम कर अब कोई लाभ नहीं, द्वार खुला है... निकल जाइये !!! ".
अवंतिका चुप हो गई, फिर चित्रांगदा के हाथ अपने हथेलीयों में दबाते हुये कहा.
" मैंने आपको सारा जीवन गलत समझा भाभी... मुझे क्षमा कर दीजिये ! ".
" अरे अरे... ऐसा भी क्या अवंतिका ! ".
" मुझे आपकी बहुत याद आएगी भाभी... ". अवंतिका रुआंसा होकर बोली, फिर मुस्कुराते हुये कहा. " और मेरे पति को भी ! "
विजयवर्मन की बात उठते ही चित्रांगदा ऐसे हँस पड़ी कि उनकी आँखों से आंसू टपक पड़ें .
" एक बात पूछूँ भाभी ? ".
चित्रांगदा ने अपने आंसू पोछते हुये स्वीकृती में सिर हिला दिया.
" आप विजयवर्मन से प्रेम करतीं हैं ना ??? ".
" अब इन बातों का क्या अर्थ रहा... ". कहते हुये चित्रांगदा सैया पर से उठने को हुई, तो अवंतिका ने ज़बरदस्ती उन्हें खींचकर वापस से बैठा लिया.
" बताइये ना भाभी... अब तो हम वैसे भी बिछड़ने वालें हैं... फिर शायद ही कभी मिल पाएं और ये सारी बातें हो सकें ! ".
चित्रांगदा ने एक ठंडी आह भरी, और फिर अवंतिका से नज़रें चुराते हुये बोली.
" प्रारम्भ में तो बस अपने पति के कहने पर मैं देवर जी के साथ सोती रही, परन्तु... परन्तु बाद में चलकर मुझे खुद भी ये सब अच्छा लगने लगा. और फिर एक समय आया जब उनसे मिला शारीरिक सुख मेरे लिए गौण हो गया, उसका कोई अर्थ ही ना रहा, मुझे उनके मन से और उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व से प्रेम होने लगा. परन्तु उन्होंने मुझे कभी भी प्रेम नहीं किया, शारीरिक रूप से मेरे साथ होते हुये भी वो तो बस आपके बारे में ही सोचा करतें थें. मेरे साथ सम्भोग करना तो जैसे उनके दिनचर्या का एक हिस्सा मात्र था, अपने ज्येष्ठ भ्राता कि आज्ञा का पालन जो करना था ! ". चित्रांगदा कुछ क्षण को रुकी, फिर अपनी नज़रें उठाकर अवंतिका कि आँखों में आँखे डालकर बोली. " और सच कहूँ तो प्रारम्भ में मुझे आपसे बड़ी ईर्ष्या होती थी, सोचती थी कि आपमें ऐसा क्या है जो मुझमें नहीं, रूप, सौंदर्य, काया... आखिर क्या ??? फिर कभी कभी प्रसन्न भी होती थी, ये सोचकर कि जिस पुरुष से आप प्रेम करतीं हैं, वो पुरुष हर रात्रि मेरी बाहों में सोता है... तो जीत तो मेरी ही हुई ना ??? परन्तु नहीं, जहाँ ईर्ष्या होगी वहाँ प्रेम कैसे रह सकता है, ये बात मुझे बहुत बाद में जाकर समझ में आई... अब उसी का प्रयश्चित करने कि चेष्टा कर रहीं हूँ !!! ".
" आपको किसी भी चीज़ के लिए प्रयश्चित करने कि कोई आवश्यकता नहीं भाभी... ". कहते हुये अवंतिका ने आगे बढ़कर चित्रांगदा को गले से लगा लिया. फिर ठिठोली करते हुये बोली. " वैसे मैं भी तो आपसे ईर्ष्या करती हूँ भाभी... आप मुझसे कहीं ज़्यादा गोरी जो हैं ! ".
अवंतिका कि बात सुनकर रोते रोते भी चित्रांगदा कि हँसी छूट गई. मन भर कर एक दूसरे से गले मिलने के पश्चात् चित्रांगदा अवंतिका से अलग हुई, और अपने आंसू पोछते हुये पूछा.
" अच्छा ये सब छोड़िये राजकुमारी... ये बताइये कि आपकी योनि कैसी है अब ??? ".
" रक्त निकलना तो बंद हो गया है भाभी, परन्तु अभी तक सूज कर फूली हुई है, पीड़ा तो अब भी है, पहले से थोड़ी राहत अवश्य है ! ". अवंतिका ने लजाते लजाते बताया.
" देवर जी ने फिर तो आपको तंग नहीं किया ना ? ".
उत्तर में अवंतिका ने शर्माते हुये धीरे से ना में सिर हिला दिया.
" मैंने जो औषधि दी है, उसका लेप प्रतिदिन अपनी योनि पर लगाते रहिएगा... जल्द ही आपकी योनि पहले जैसी स्वस्थ हो उठेगी ! ". चित्रांगदा ने समझाया, और फिर अवंतिका कि ओर अपनी उंगली उठाते हुये बोली. " और हाँ... याद रहे, अभी दो मास तक देवर जी को अपने आप को छूने भी ना दीजियेगा ! ".
" दो मास ??? भाभी... ". अवंतिका ने आँखे बड़ी बड़ी करते हुये बड़े ही भोलेपन से पूछा.
" अच्छा ठीक है... परन्तु एक मास से एक दिन भी कम नहीं ! ". चित्रांगदा ने हँसते हुये कहा.
" और अगर वो ... ".
अवंतिका ने अभी अपनी बात समाप्त भी नहीं की थी, की कक्ष में अचानक से दौड़ती हुई एक दासी आई और हाँफ़ते हुये बोली.
" राजकुमारी जी... राजकुमारी जी... ".