17-07-2021, 05:12 PM
माँ ने जाने से पूर्व मुझे कई सारे सामान दिए थे, मौसी, नानी, चिन्नम्मा और गाँव के अन्य ख़ास लोगों के लिए उपहार स्वरुप! शाम को मुझसे मिलने के लिए परिवार के कुछ अभिन्न मित्र आए हुए थे। उनसे मैंने कुछ देर बात करी, और उनको उनके हिस्से के उपहार सौंप दिए। छोटे से समाज में रहने के बड़े लाभ है – जैसे की अभी की बात देख लीजिए। जो लोग मिलने आए, वो लोग कुछ न कुछ साथ में लाए भी। कुछ लोग रात के खाने के लिए व्यंजन भी साथ ले आए थे। इसलिए घर में उस रात अधिक कुछ पकाना नहीं पड़ा।
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खैर, जब हम रात को कमरे में आए, तो मौसी ने कहा कि अब मैं उनको अम्माई न कहा करूँ... सिर्फ अल्का कहा करूँ! एक तो अम्माई बहुत ही औपचारिक शब्द है, और अगर हम दोनों कहीं साथ में जा रहे हों, और मैंने उनको ‘मौसी’ कह कर बुलाया तो लोग समझेंगे कि कोई बुढ़िया जा रही है... और ऊपर से अगर हम दोनों साथ में सोने वाले हैं तो एक दूसरे का नाम ले कर बुलाने में कोई हर्ज़ नहीं है। यह बात कहते हुए वो हलके से मुस्कुरा भी रही थीं, और उनका चेहरा शर्म से कुछ कुछ लाल भी होता जा रहा था। मुझे थोड़ी हिचकिचाहट सी हुई। ऐसे कैसे अम्माई से अलका बोलने लग जाऊँगा। खैर, अंत में निश्चित हुआ कि शुरुआत में जब हम अकेले हों, तब तो मैं उनको अलका कह कर बुला सकता हूँ।
फिर मैंने अलका के लिए अम्मा ने जो सामान दिया था, वो उनको दिखा दिया। अधिकतर तो बस कपड़े लत्ते ही थे। अम्मा ने बनारसी साड़ी भेजी थी ख़ास। अलका को बहुत पसंद आई। मैंने भी मौसी के लिए अपनी जेब-खर्च से बचा बचा कर एक ‘छोटा सा’ उपहार खरीद लिया था। निक्कर और टी-शर्ट! अम्मा और अच्चन की नज़र से छुपा कर! वो लोग देख लेते तो बहुत नाराज़ होते। ऐसे कपड़े तो अभी दिल्ली की ही लड़कियाँ नहीं पहनती थीं। लेकिन मैंने एक मैगज़ीन में लड़कियों को यह पहने देखा था। इसलिए अपनी कल्पना से मौसी की नाप सोच कर उनके लिए खरीद लिया था। इस चक्कर में मेरा सब संचित धन ख़र्च हो गया था। लेकिन उसकी परवाह नहीं थी। परवाह बस इस बात की थी कि मौसी को यह उपहार पसंद आना चाहिए, और उन्हें स्वीकार होना चाहिए। लेकिन समझ नहीं आ रहा था की वो उनको कैसे दूँ! हम दोनों दोस्त भी थे, लेकिन सम्बन्ध की मर्यादा भी तो थी! हाँलाकि उनके इस खुलेपन के कारण मुझे भी कुछ कुछ हिम्मत आई। मैंने मौसी को उनका ‘उपहार’ दिखाया। वो उस छोटी सी निक्कर को देख कर पहले तो काफी हैरान हुईं, लेकिन फिर हलके से मुस्कुराईं भी!
“मैं इसको कब पहनूंगी? और तुमको कैसे लगा कि मैं ऐसे कपड़े पहन लूंगी?” उन्होंने मुझे छेड़ते हुए कहा।
“व्व्व्वो म्म्म्म्मौसी...”
“मौसी नहीं... अल्का कहो! याद है न?”
“ह्ह्ह्हान् अल्का... वो मैंने सोचा की यहाँ तो ऐसे कपड़े मिलते नहीं। इसलिए ले आया। सोचा की आपको अच्छा लगेगा।”
“यहाँ ये कपड़े नहीं मिलते क्योंकि यहाँ कोई ऐसे कपड़े नहीं पहनता। समझे चिन्नू!”
“त त तो? मतलब आप इसे नहीं पहनेंगी?”
“मैंने ऐसे कब कहा? मैंने तो बस इतना कहा कि मैं इसे कब पहनूंगी!”
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खैर, जब हम रात को कमरे में आए, तो मौसी ने कहा कि अब मैं उनको अम्माई न कहा करूँ... सिर्फ अल्का कहा करूँ! एक तो अम्माई बहुत ही औपचारिक शब्द है, और अगर हम दोनों कहीं साथ में जा रहे हों, और मैंने उनको ‘मौसी’ कह कर बुलाया तो लोग समझेंगे कि कोई बुढ़िया जा रही है... और ऊपर से अगर हम दोनों साथ में सोने वाले हैं तो एक दूसरे का नाम ले कर बुलाने में कोई हर्ज़ नहीं है। यह बात कहते हुए वो हलके से मुस्कुरा भी रही थीं, और उनका चेहरा शर्म से कुछ कुछ लाल भी होता जा रहा था। मुझे थोड़ी हिचकिचाहट सी हुई। ऐसे कैसे अम्माई से अलका बोलने लग जाऊँगा। खैर, अंत में निश्चित हुआ कि शुरुआत में जब हम अकेले हों, तब तो मैं उनको अलका कह कर बुला सकता हूँ।
फिर मैंने अलका के लिए अम्मा ने जो सामान दिया था, वो उनको दिखा दिया। अधिकतर तो बस कपड़े लत्ते ही थे। अम्मा ने बनारसी साड़ी भेजी थी ख़ास। अलका को बहुत पसंद आई। मैंने भी मौसी के लिए अपनी जेब-खर्च से बचा बचा कर एक ‘छोटा सा’ उपहार खरीद लिया था। निक्कर और टी-शर्ट! अम्मा और अच्चन की नज़र से छुपा कर! वो लोग देख लेते तो बहुत नाराज़ होते। ऐसे कपड़े तो अभी दिल्ली की ही लड़कियाँ नहीं पहनती थीं। लेकिन मैंने एक मैगज़ीन में लड़कियों को यह पहने देखा था। इसलिए अपनी कल्पना से मौसी की नाप सोच कर उनके लिए खरीद लिया था। इस चक्कर में मेरा सब संचित धन ख़र्च हो गया था। लेकिन उसकी परवाह नहीं थी। परवाह बस इस बात की थी कि मौसी को यह उपहार पसंद आना चाहिए, और उन्हें स्वीकार होना चाहिए। लेकिन समझ नहीं आ रहा था की वो उनको कैसे दूँ! हम दोनों दोस्त भी थे, लेकिन सम्बन्ध की मर्यादा भी तो थी! हाँलाकि उनके इस खुलेपन के कारण मुझे भी कुछ कुछ हिम्मत आई। मैंने मौसी को उनका ‘उपहार’ दिखाया। वो उस छोटी सी निक्कर को देख कर पहले तो काफी हैरान हुईं, लेकिन फिर हलके से मुस्कुराईं भी!
“मैं इसको कब पहनूंगी? और तुमको कैसे लगा कि मैं ऐसे कपड़े पहन लूंगी?” उन्होंने मुझे छेड़ते हुए कहा।
“व्व्व्वो म्म्म्म्मौसी...”
“मौसी नहीं... अल्का कहो! याद है न?”
“ह्ह्ह्हान् अल्का... वो मैंने सोचा की यहाँ तो ऐसे कपड़े मिलते नहीं। इसलिए ले आया। सोचा की आपको अच्छा लगेगा।”
“यहाँ ये कपड़े नहीं मिलते क्योंकि यहाँ कोई ऐसे कपड़े नहीं पहनता। समझे चिन्नू!”
“त त तो? मतलब आप इसे नहीं पहनेंगी?”
“मैंने ऐसे कब कहा? मैंने तो बस इतना कहा कि मैं इसे कब पहनूंगी!”